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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - पञ्चविंशोऽध्यायः


कैलासं प्रति नारदागमनम् -
नारद को भगवान् शिव का दर्शन -


सौतिरुवाच
क्षणेन विप्रप्रवरो मुदाऽन्वितो     जगाम शंभोः सदनं मनोहरम् ।
उर्ध्वं ध्रुवाद्योजनलक्षमीप्सितं
    महार्हरत्‍नौघविनिर्मितं महत् ॥ १॥
सौति बोले-विप्रवर नारद प्रसन्न होकर क्षणभर में शंकर के मनोहर सदन में पहुँच गये, जो ध्रव से भी एक लाख योजन ऊपर अत्यन्त अमूल्य रत्नों से बनाया गया है ॥ १ ॥

निराश्रये योगबलेन शंभुना
    धृतं विचित्रं विविधालयान्वितम् ।
दृष्टं सुपुण्याशयसाधकैर्वरै-
    र्मुनीन्द्रवर्यैः परिपूरितं शुभम् ॥२॥
आधारशन्य आकाश में शंकर ने योगबल द्वारा अनेक मांति के विचित्र भवनों से अपने लोक को सजा दिया है । पवित्र अन्तःकरण वाले श्रेष्ठ साधकों तथा मुनीन्द्र-शिरोमणि महात्माओं से वह लोक परिपूर्ण है ॥ २ ॥

मयूखशून्यं रविचन्द्रयोर्मुने
    हुताशनैर्वेष्टितमेव केवलम् ।
प्राकाररूपैरतिरिक्तवर्धितै-
    रुच्चैरसंख्याप्रमितैः शिखोज्ज्वलैः ॥३॥
सूर्य और चन्द्रमा की किरणें वहाँ नहीं पहुँचती हैं । परकोटों के रूप में ऊँचे, बहुत बढ़े हुए तथा ज्वालाओं से जगमगाते हुए असंख्य पावक उस लोक को घेरकर स्थित हैं ॥ ३ ॥

पुरं वरं योजनलक्षविस्तृतं
    त्रिकोटिरत्‍नेन्द्रगृहान्वितं सदा ।
विराजितं हीरकसारनिर्मितै-
    श्चित्रैर्विचित्रैर्विविधैर्मनोहरैः ॥४॥
वह उत्तमपुरी एक लाख योजन विस्तृत है, जिसमें उत्तम रत्नों से भूषित तीन करोड़ गृह हैं, जो हीरों के सारभाग से निर्मित, चित्रविचित्र मनोहर तथा अनेक प्रकार के हैं ॥ ४ ॥

माणिक्यमुक्तामणिदर्पणैर्युतं
    न स्वप्नदृष्टं द्विज विश्वकर्मणः ।
आकल्पमेकैः शिवसेवितैर्जनै-
    र्निषेवितं संततमेव शौनक ॥५॥
द्विज ! शौनक ! वे मणियों, मोतियों और मणि के दर्पणों से सुशोभित हैं, जिन्हें विश्वकर्मा स्वप्न में भी नहीं देख सकते । ऐसे महलों में एकमात्र शिवभक्त ही निरन्तर वास करते हैं ॥ ५ ॥

सिद्धैर्नियुक्तं शतकोटिलक्षकै-
     स्त्रिकोटिलक्षैश्च युतं स्वपार्षदैः ।
युक्तं त्रिलक्षैर्विकटैश्च भैरवैः
     क्षेत्रैश्चतुर्लक्षशतैश्च वेष्टितम् ॥६॥
वह शिवलोक सौ करोड़ लाख सिद्धों और तीन करोड़ लाख शिव-पार्षदों से युक्त है । वहाँ तीन लाख विकट भैरव निवास करते हैं । सैकड़ों लाख क्षेत्र उसे घेरे हुए हैं ॥ ६ ॥

सुरद्रुमैर्वेष्टितमेव संततं
    मन्दारवृक्षप्रवरैः सुपुष्पितैः ।
विराजितं सुन्दरकामधेनुभि-
    र्यथा बलाकाशतकैर्नभस्तलम् ॥७॥
सुन्दर पुष्पों से भरे हुए मंदार आदि देववृक्षों से वह सदा आवेष्टित है । सुन्दर कामधेनुएँ उस धाम की उसी तरह शोभा बढ़ाती हैं जैसे सैकड़ों बलाकाएँ आकाश की ॥ ७ ॥

दृष्ट्वा मुनिर्विस्मयमाप मानसे
    किं नात्र चित्रं सुरयोगिनां गुरौ ।
लोकं त्रिलोकाच्च विलक्षणं परं
    भीमृत्युरोगार्तिजराहरं वरम् ॥८॥
उसे देखकर मुनि नारद के मन में आश्चर्य उत्पन्न हुआ । वे सोचने लगे-जहाँ ज्ञानियों तथा योगियों के गुरु निवास करते हैं, वहाँ ऐसी विचित्रता का होना क्या आश्चर्य है ? यह लोक तीनों लोकों से विलक्षण, श्रेष्ठ एवं भय, मृत्यु, रोग, दुःख और जरा का अपहरण करनेवाला है ॥ ८ ॥

दूरे सभामण्डलमध्यगं शिवं
    ददर्श शान्तं शिवदं मनोहरम् ।
पद्मत्रिनेत्रं विधुपञ्चवक्त्रकं
    गङ्गाधरं निर्मलचन्द्रशेखरम् ॥९॥
वहाँ नारद ने दूर से देखा कि शंकर सभा-मंडप के मध्यभाग में विराजमान हैं जो शान्त, कल्याणप्रद, मनोहर, कमल की भांति तीन नेत्र वाले, चन्द्रमाओं की भाँति (आनन्ददायक) पाँच मुख वाले और गंगाजी तथा निर्मल चन्द्रमा का मुकट धारण करने वाले हैं ॥ ९ ॥

प्रतप्तहेमाभजटाधरं विभुं
    दिगम्बरं शुभ्रमनन्तमक्षरम् ।
मन्दाकिनीपुष्करबीजमालया
    कृष्णेति नामैव मुदा जपन्तम् ॥ १०॥
वे अत्यन्त तपाये गये सुवर्ण की भाँति प्रभापूर्ण जटा धारण किये हुए हैं । दिगम्बर, उज्ज्वल वर्ण, अनन्त एवं अविनाशी शिव आकाशगंगा में उत्पन्न कमलों के बीज की माला से भगवान् श्रीकृष्ण का नाम आनन्द से जप रहे हैं । ॥ १० ॥

सुनीलकण्ठं भुजगेन्द्रमण्डितं
    योगीन्द्रसिद्धेन्द्रमुनीन्द्रवन्दितम् ।
सिद्धेश्वरं सिद्धविधानकारणं
    मृत्युञ्जयं कालयमान्तकारकम् ॥ ११॥
प्रसन्नहास्यास्यमनोहरं वरं
    विश्वाश्रयाणां शिवदं वरप्रदम् ।
सदाऽऽशुतोषं भवरोगवर्जितं
    भक्तप्रियं भक्तजनैकबन्धुम् ॥ १२॥
उनके कंठ में सुन्दर नील चिह्न शोभा पाता है । वे नागराज के हार से अलंकृत हैं । बड़े-बड़े योगीन्द्र, सिद्धेन्द्र और मुनीन्द्र उनके चरणों की वंदना करते हैं । वे सिद्धेश्वर हैं, सिद्धि-विधान के कारण है, मृत्युंजय हैं तथा काल और यम का भी अंत करने वाले हैं । उनका मुख प्रसन्नतासूचक हास्य से अत्यन्त सुन्दर है । वे सम्पूर्ण आश्रितों को कल्याण तथा अभीष्ट वर प्रदान करने वाले हैं । सदा शीघ्र ही सन्तुष्ट होने वाले, भवरोग से रहित भक्तजनों के प्रिय तथा भक्तों के एकमात्र बंधु हैं ॥ ११-१२ ॥

गत्वा समीपं मुनिरेष शूलिनं
    ननाम मूर्ध्ना पुलकाङ्कविग्रहः ।
वीणां त्रितन्त्रीं क्वणयन्पुनर्जगौ
    कृष्णं स तुष्टाव कलं सुकण्ठः ॥ १३॥
ऐसे शूली शंकर जी के समीप जाकर रोमाञ्चित शरीर से मुनि ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । पश्चात् तीन तार वाली अपनी वीणा की झंकार करते हुए वे मधुर सुन्दर वाणी द्वारा भगवान् कृष्ण का गुणगान करने लगे ॥ १३ ॥

दृष्ट्‍वा मुनीन्द्रप्रवरं च सस्मितं
    विधेः सुतं वेदविदां वरिष्ठम् ।
योगीन्द्रसिद्धेन्द्रमहर्षिभिः सह
    हर्षेण पीठादुदपश्यदीश्वरः ॥ १४॥
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुनीन्द्रप्रवर ब्रह्मपुत्र नारद को देखकर मुसकराते हुए शिव योगीन्द्रों, सिद्धेन्द्रों और महर्षियों समेत आसन से उठकर खड़े हो गए ॥ १४ ॥

ददौ च तस्मै मुनये ससभ्रमा-
    दालिङ्गनं चाऽऽशिषमासनादिकम् ।
पप्रच्छ भद्रागमनप्रयोजनं
    तपोधनं तं तपसां च शौनक ॥१५॥
शौनक ! शंकर जी ने निःसंकोच तपोधन नारद का आलिंगन किया और उन्हें आशिष, आसन आदि प्रदान कर उनके शुभा-गमन का प्रयोजन पूछा ॥ १५ ॥

सद्‌रत्‍नसिंहासनसुन्दरे पर-
    श्चोवास शंभुर्वरपार्षदैः सह ।
नोवास धातुस्तनयः कृताञ्जलि-
    स्तुष्टाव भक्त्या प्रणतः प्रभुं द्विज ॥ १६॥
द्विज ! भगवान् शंकर उत्तम रत्नों के सुन्दर सिंहासन पर अपने पार्षदों समेत पुनः विराजमान हो गये, किन्तु ब्रह्मपुत्र नारद उस पर न बैठ कर केवल हाथ जोड़े भक्तिपूर्वक प्रणाम करके प्रभु शिव की स्तुति करने लगे ॥ १६ ॥

गन्धर्वराजेन कृतेन नारदः
    स्तोत्रेण रम्येण शुभप्रदेन च ।
स्तुत्वा प्रणामं पुनरेव कृत्वा
    भवाज्ञयोवास भवस्य वामतः ॥१७॥
पश्चात् गन्धर्वराज कृत सुन्दर और शुभप्रद वेदोक्त स्तोत्र से स्तुति करके पुनः प्रणाम करने के अनन्तर शिवजी की आज्ञा ले नारद उनके वाम भाग में बैठ गये ॥ १७ ॥

चकार तत्रैव निवेदनं शिवे
    मनोऽभिलाषं निजकामपूरके ।
श्रुत्वा मुनेस्तद्वचनं कृपानिधि-
    र्द्रुतं प्रतिज्ञाय चकार चोमिति ॥ १८॥
वहीं उन्होंने जगत् की कामनाओं के पूरक भगवान् शिव से अपना मनोऽभिलाष प्रकट किया । मुनि की बातें सुनकर कृपानिधान शंकर जी ने भी शीघ्र प्रतिज्ञापूर्वक कहा-'बहुत अच्छा' ॥ १८ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे
कैलासं प्रति नारदागमनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥२५॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में नारद का कैलाश-प्रस्थान नामक पच्चीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २५ ॥

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