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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - षड्विंशोऽध्यायः


शिवनारदसंवाद आह्निकनिरूपणम् -
आह्निक आचार तथा भगवत्पूजन की विधि -


सौतिरुवाच
हरिस्तोत्रं च कवचं मन्त्रं पूजाविधिं परम् ।
हरं ययाचे देवर्षिर्ध्यानं च ज्ञानमेव च ॥ १॥
सौति बोले-देवर्षि नारद ने भगवान् शंकर से श्रीहरि के स्तोत्र, कवच, मन्त्र, परमोत्तम पूजाविधान, ध्यान और तत्त्वज्ञान की याचना की ॥ १ ॥

स्तोत्रं च कवचं मन्त्रं ध्यानं पूजाविधिं तथा ।
तत्प्राक्तनीयज्ञानं च ददौ तस्मै महेश्वरः ॥२॥
महेश्वर ने स्तोत्र, कवच, मन्त्र, ध्यान, पूजाविधान और उनका प्राक्तन मान उन्हें प्रदान किया ॥ २ ॥

सर्वं प्राप्य मुनिश्रेष्ठः परिपूर्णमनोरथः ।
उवाच प्रणतो भक्त्या गुरुं प्रणतवत्सलम् ॥३॥
मुनिश्रेष्ठ नारद वह सब कुछ पाकर सफल मनोरथ हो गए । उन्होंने प्रणत होकर भक्तिपूर्वक अपने भक्तवत्सल गुरु से कहा ॥ ३ ॥

नारद उवाच
आह्निकं ब्राह्मणानां च वद वेदविदां वर ।
स्वधर्मपालनं नित्यं यतो भवति नित्यशः ॥४॥
नारद बोले- वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ आप ब्राह्मणों के आह्निक (नित्यकर्म या दिनचर्या) बताने की कृपा करें, जिससे प्रतिदिन स्वधर्म का पालन हो सके ॥ ४ ॥

श्रीमहेश्वर उवाच
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय ब्रह्मरन्ध्रस्थपङ्‍कजे ।
सूक्ष्मे सहस्रपत्रे स्वे निर्मले ग्लानिवर्जिते ॥५॥
रात्रिवासं परित्यज्य गुरुं तत्रैव चिन्तयेत् ।
व्याख्यामुद्राकरं प्रीतं सस्मितं शिष्यवत्सलम् ॥६॥
प्रसन्नवदनं शान्तं परितुष्टं निरन्तरम् ।
साक्षाद्‍ब्रह्मस्वरूपं च परमं चिन्तयेत्सदा ॥७॥
ध्यात्वैवं गुरुमाराध्य हृत्पद्मे निर्मले सिते ।
सहस्रपत्रे विस्तीर्णे देवमिष्टं विचिन्तयेत् ॥८॥
यस्य देवस्य यद्ध्यानं यद्‌रूपं तद्‌विचिन्तयेत् ।
गृहीत्वा तदनुज्ञां च कर्तव्यं समयोचितम् ॥९॥
आदौ ध्यात्वा गुरुं नत्वा संपूज्य विधिपूर्वकम् ।
पश्चात्तदाज्ञामादाय ध्यायेदिष्टं प्रपूजयेत् ॥ १०॥
गुरुप्रदर्शितो देवो मन्त्रः पूजाविधिर्जपः ।
न देवेन गुरुर्दृष्टस्तस्माद्‌देवाद्‌गुरुः परः ॥ ११॥
श्रीमहेश्वर बोले-बाह्ममुहूर्त (४ बजे रात) में शय्या से उठकर वस्त्र बदल कर अपने ब्रह्मरन्ध में स्थित सूक्ष्म, निर्मल, ग्लानिरहित सहस्रदल कमल पर विराजमान गुरुदेव का परम चिन्तन करे । ध्यान में यह देखे कि ब्रह्मरन्ध्रवर्ती सहस्रदल कमल पर गुरुजी प्रसन्नतापूर्वक बैठे हैं, मंद-मंद मुसकरा रहे हैं, व्याख्या की मुद्रा में उनका हाथ उठा हुआ है और शिष्य के प्रति उनके हृदय में बड़ा स्नेह है । मुख पर प्रसन्नता छा रही है । वे शान्त तथा निरन्तर सन्तुष्ट रहने वाले हैं और साक्षात् परब्रह्म स्वरूप हैं । सदा इसी प्रकार उनका चिन्तन करना चाहिए । इस तरह ध्यान कर के मन-ही-मन गुरु की आराधना करे । तदनन्तर निर्मल, श्वेत, सहस्रदलभूषित, विस्तृत हृदयकमल पर विराजमान इष्टदेव का चिन्तन करे । जिस देवता का जैसा ध्यान और जो रूप बताया गया है, वैसा ही चिन्तन करना चाहिए । क्रम यह है कि पहले गुरु का ध्यान करके उन्हें प्रणाम करे । फिर उनकी विधिवत् पूजा करने के पश्चात् उनकी आज्ञा ले इष्टदेव का ध्यान एवं पूजन करे । गुरु ही देवता के स्वरूप का दर्शन कराते हैं । वे ही इष्टदेव के मंत्र, पूजाविधि और जप का उपदेश देते हैं । गुरु ने इष्टदेव को देखा है, किन्तु इष्टदेव ने गुरु को नहीं देखा है, इसलिए गुरु इष्टदेव से भी बढ़कर हैं ॥ ५-११ ॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः प्रकृतिरीशाद्या गुरुश्चन्द्रोऽनलो रविः ॥ १२॥
इसलिए गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देव महेश्वर, गुरु आदि ईश्वरी प्रकृति और गुरु ही चन्द्र, अग्नि एवं सूर्य हैं ॥ १२ ॥

गुरुर्वायुश्च वरुणो गुरुर्माता पिता सुहृत् ।
गुरुरेव परं ब्रह्म नास्ति पूज्यो गुरोः परः ॥ १३॥
गुरु वायु, वरुण, माता-पिता, मित्र एवं परब्रह्म हैं । इसलिए गुरु से बढ़ कर कोई अन्य पूज्य नहीं है ॥ १३ ॥

अभीष्टदेवे रुष्टे च समर्थो रक्षणे गुरुः ।
न समर्था गुरौ रुष्टे रक्षणे सर्वदेवताः ॥ १४॥
अभीष्ट देव के क्रुद्ध होने पर गुरु उससे रक्षा करने में समर्थ होता है । किन्तु गुरु के रुष्ट होने पर उससे रक्षा करने में सारे देवता भी मिल कर समर्थ नहीं होते हैं ॥ १४ ॥

यस्य तुष्टो गुरुः शश्वज्जयस्तस्य पदे पदे ।
यस्य रुष्टो गुरुस्तस्य सर्वनाशश्च सर्वदा ॥ १५॥
जिस पर गुरु संतुष्ट रहता है, उसकी विजय पद-पद पर होती है और जिस पर गुरु रुष्ट रहता है, उसका सदैव सर्वनाश होता है ॥ १५ ॥

न संपूज्य गुरुं देवं यो मूढः पूजयेद्‌भ्रमात् ।
ब्रह्महत्याशतं पापी लभते नात्र संशयः ॥ १६॥
बिना गुरु की पूजा किए जो मूर्ख देव की पूजा करता है, वह पापी सौ ब्रह्महत्या का भागी होता है, इसमें संशय नहीं ॥ १६ ॥

सामवेदे च भगवानित्युवाच हरिः स्वयम् ।
तस्मादभीष्टदेवाच्च गुरुः पूज्यतमः परः ॥ १७॥
इसे सामवेद में भगवान् विष्णु ने स्वयं कहा है । इसलिए गुरु इष्टदेव से भी बढ़ कर परम पूजनीय है ॥ १७ ॥

गुरुमिष्टं स्वयं ध्यात्वा स्तुत्वा वै साधको मुने ।
निर्मलं स्थलमासाद्य विण्मूत्रं ह्युत्सृजेन्मुदा ॥ १८॥
मुने ! इस प्रकार सर्वप्रथम गुरु और इष्टदेव का स्वयं ध्यान और स्तुति करके प्रसन्न मन से निर्मल स्थान में जाकर मल-मूत्र का त्याग करे ॥ १८ ॥

जलं जलसमीपं च सरन्ध्रं प्राणिसंनिधिम् ।
देवालयसमीपं च वृक्षमूलं च वर्त्म च ॥ १९॥
हलोत्कर्षस्थलं चैव सस्यक्षेत्रं च गोष्ठकम् ।
नदीकन्दरगर्भं च पुष्पोद्यानं च पङ्किलम् ॥२०॥
ग्रामाद्यभ्यन्तरं चैव नृणां गृहसमीपकम् ।
शंकुं सेतु शरवणं श्मशानं वह्निसंनिधिम् ॥२१॥
क्रीडास्थलं महारण्यं मञ्चकाधःस्थलं तथा ।
वृक्षच्छायायुतं स्थानमन्तःप्राण्यवपर्णकम् ॥२२॥
दूर्वास्थानं कुशस्थानं वल्मीकस्थानमेव च ।
वृक्षारोपणभूमिं च कार्यार्थं च परिष्कृतम् ॥२३॥
एतत्सर्वं परित्यज्य सूर्यतापविवर्जितम् ।
कृत्वा गर्तं पुरीषं च मूत्रं च परिवर्जयेत् ॥२४॥
जल, जल के समीप, बिलयुक्त भूमि, प्राणियों के निवास के निकट, देवालय के समीप, वृक्षमूल, मार्ग, जोते हुए खेत, बीज बोये गए हुए खेत, गौओं के स्थान, नदी, कन्दरा के भीतर का स्थान, फुलवाड़ी कीचड़युक्त अथवा दलदल की भूमि, गांव आदि के भीतर की भूमि, लोगों के घर के आसपास का स्थान, मेख या खंभे के पास, पुल, सरकंडों के वन, श्मशान भूमि, अग्नि के समीप क्रीडास्थल, विशाल वन, मचान के नीचे का स्थान, पेड़ की छाया से युक्त स्थान, जहाँ भूमि के भीतर प्राणी रहते हों वह स्थान, जहाँ ढेर-के-ढेर पत्ते जमा हों वह स्थान, बॉबी, जहाँ वृक्ष लगाए गये हों वहां की भूमि तथा जो किसी विशेष कार्य के लिए झाड़-बुहार कर साफ की गई हो वह भूमि-इन सब को छोड़कर सूर्य के ताप से रहित स्थान में गड्ढा बना कर मल-मूत्र का त्याग करे ॥ १९-२४ ॥

पुरीषमूत्रोत्सर्गं च दिवा कुर्यादुदङ्मुखः ।
पश्चिमाभिमुखो रात्रौ संध्यायां दक्षिणामुखः ॥२५॥
दिन में उत्तराभिमुख होकर मल मूत्र का त्याग करे और रात्रि में पश्चिमाभिमुख होकर गल-मूत्र का त्याग करे । संध्या समय दक्षिण दिशा की ओर मुख कर के मल-मूत्रोत्सर्ग करना चाहिए ॥ २५ ॥

मौनी धृत्वा च निःश्वासं यथा गन्धो न संचरेत् ।
त्यक्त्वा मृदा समाच्छाद्य शौचं कुर्याद्विचक्षणः ॥२६॥
कृत्वा तु लोष्टशौचं च जलशौचं ततः परम् ।
मृद्युक्तं तज्जलं चैव तत्प्रमाणं निशामय ॥२७॥
उस समय मौन रह कर जोरजोर से सांस न लेते हुए मलत्याग करना चाहिए, जिससे (भीतर) दुर्गन्ध न प्रवेश कर सके । अनन्तर बुद्धिमान् पुरुष गुदा आदि अंगों को शुद्ध करे । पहले ढेले या मिट्टी से गुदा आदि की शुद्धि करे । तत्पश्चात् उसे जल से धोकर शुद्ध करे । मृत्तिकायुक्त जो जल शीच के काम में आता है, उसका प्रमाण सुनो ॥ २६-२७ ॥

एकां लिङ्गे मृदं दद्याद्वामहस्ते चतुष्टयम् ।
उभयोर्हस्तयोर्द्वे तु मूत्रशौचं प्रकीर्तितम् ॥२८॥
मूत्रत्याग के पश्चात् लिंग में एक बार, बाँये हाथ में चार बार और दोनों हाथों में दो बार मिट्टी लगानी चाहिए ॥ २८ ॥

मूत्रशौचं द्विगुणितं मैथुनानन्तरं यदि ।
मैथुनानन्तरं यद्वा मूत्रशौचं चतुर्गुणम् ॥२९॥
उसी प्रकार मैथुन के अनन्तर मूत्रत्याग की शुद्धि में दूनी या चौगुनी संख्या में मिट्टी लगानी चाहिए ॥ २९ ॥

एका लिङ्गे गुदे तिस्रस्तथा वामकरे दश ।
उभयोः सप्त दातव्याः पादः षष्ठेन शुध्यति ॥३०॥
मलत्याग के पश्चात् लिंग में एक बार, गुदा में तीन बार, बाँयें हाथ में दश बार, दोनों हाथों में सात बार और चरण में छह बार मिट्टी लगाने से शुद्धि होती है ॥ ३० ॥

पुरीषशौचं विप्राणां गृहिणामिदमेव च ।
विधवानां द्विगुणितं शौचमेव प्रकीर्तितम् ॥३१॥
गृहस्थ ब्राह्मणों के लिए मलत्याग के अनन्तर यही शौच बताया गया है । विधवाओं के लिए दूनी शुद्धि बतायी गयी है ॥ ३१ ॥

वैष्णवानां यतीनां च ब्रह्मर्षेर्ब्रह्मचारिणाम् ।
चतुर्गुणं च गृहिणां तेषां शौचं प्रकीर्तितम् ॥३२॥
यति, वैष्णव, ब्रह्मर्षि और ब्रह्मचारी के लिए गृहस्थ की अपेक्षा चौगुनी शुद्धि कही गयी है ॥ ३२ ॥

नो यावदुपनीयेत द्विजः शूद्रस्तथाऽङ्गना ।
गन्धलेपक्षयकरं तेषां शौचं प्रकीर्तितम् ॥३३॥
शौचं क्षत्रविशोश्चैव द्विजानां गृहिणां समम् ।
द्विगुणं वैष्णवादीनां मुनीनां परिकीर्तितम् ॥३४॥
यज्ञोपवीत-संस्कार-रहित द्विजों, शूद्रों और स्त्रियों के लिए केवल उतने जल से शुद्धि कही गयी है, जितने से वह स्थान स्वच्छ हो जाए । क्षत्रियों और वैश्यों के लिए भी गृहस्थ द्विजों के समान ही शुद्धि कही गयी है । वैष्णव आदि मुनियों के लिए दुगुनी शुद्धि बतायी गयी है ॥ ३३-३४ ॥

न्यूनाधिकं न कर्त्तव्यं शौचं शुद्धिमभीप्सता ।
प्रायश्चित्तं प्रयुज्येत विहितातिक्रमे कृते ॥३५॥
शुद्धि के इच्छुकों को इससे न्यूनाधिक शुद्धि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विधि का उल्लंघन करने पर वह प्रायश्चित्त का भागी होता है ॥ ३५ ॥

शौचं तन्नियमं मत्तः सावधानं निशामय ।
मृच्छौचे च शुचिविप्रोऽप्यशुचिश्च व्यतिक्रमे ॥३६॥
शौच (शुद्धि) का नियम मैं बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो । क्योंकि मिट्टी से शुद्धि करने पर ब्राह्मण शुद्ध होता है और नियम का उल्लंघन करने पर वह अशुद्ध ही रहता है ॥ ३६ ॥

वल्मीकमूषिकोत्खातां मृदमन्तर्जलां तथा ।
शौचावशिष्टां गेहाच्च नाऽऽदद्याल्लेपसंभवाम् ॥३७॥
अन्तःप्राण्यवपर्णां च हलोत्खातां विशेषतः ।
कुशमूलोत्थितां चैव दूर्वामूलोत्थितां तथा ॥३८॥
अश्वत्थमूलान्नीतां च तथैव शयनोत्थिताम् ।
चतुष्पथाच्च गोष्ठानां गोष्पदानां तथैव च ॥३९॥
सस्यस्थलानां क्षेत्राणामुद्यानानां मृदं त्यजेत् ।
स्नातो वाऽप्यथवाऽस्नातो विप्रः शौचेन शुद्ध्यति ॥४०॥
वल्मीक की मिट्टी, चूहे की खोदी हुई मिट्टी, जल के भीतर की मिट्टी, शुद्धि करने से शेष बची हुई मिट्टी और घर की दीवाल की मिट्टी से शुद्धि नहीं करनी चाहिए लीपने-पोतने के काम में लायी हुई मिट्टी शौच के लिए त्याज्य है । जिसके भीतर प्राणी रहते हों, जहाँ वृक्ष से गिरे हुए पत्तों के ढेर लगे हों तथा जहाँ की भूमि हल से जोती गई हो, वहाँ की मिट्टी न ले । कुश और दुर्वा की जड़ से निकाली गई, पीपल की जड़ के निकट से लायी गई तथा शयन की वेदी से निकाली गई मिट्टी को भी शौच के काम में न लाये । चौराहे की, गोशाला की, गाय की खुरी की, जहाँ खेती लहलहा रही हो उस खेत की तथा उद्यान की मिट्टी को भी त्याग दे । ब्राह्मण नहाया हो अथवा नहीं, उपर्युक्त शौचाचार के पालन मात्रसे शुद्ध हो जाता है ॥ ३७-४० ॥

शौचहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु ।
कृत्वा शौचमिदं विप्रो मुखं प्रक्षालयेत्सुधीः ॥४१॥
शुद्धिहीन पुरुष नित्य अशुद्ध रहता है अतः वह सभी कर्मों के करने में अयोग्य रहता है । विद्वान् ब्राह्मण इस प्रकार शुद्धि कर के मुंह धोये ॥ ४१ ॥

आदौ षोडश गण्डूषैर्मुखशुद्धिं विधाय च ।
दन्तकाष्ठेन दन्तांश्च तत्पश्चात्परिमार्जयेत् ॥४२॥
पहले सोलह बार कुल्ला कर के मुख शुद्ध करने के पश्चात् काठ की दातुन से दाँतों को रगड़ कर शुद्ध करे ॥ ४२ ॥

पुनः षोडशगण्डूषैर्मुखशुद्धिं समाचरेत् ।
दन्तमार्जनकाष्ठानां नियमं शृणु नारद ॥४३॥
निरूपितं सामवेदे हरिणा चाऽऽह्निकक्रमे ।
अपामार्गं सिंधुवारमाम्रं च करवीरकम् ॥४४॥
खदिरं च शिरीषं च जातिपुन्नागशालकम् ।
अशोकमर्जुनं चैव क्षीरिवृक्षं कदम्बकम् ॥४५॥
जम्बूकं बकुलं तोक्मं पलाशं च प्रशस्तकम् ।
बदरीं पारिभद्रं च मन्दारं शाल्मलिं तथा ॥४६॥
वृक्षं कण्टकयुक्तं च लतादि पारिवर्जयेत् ।
पिप्पलं च प्रियालं च तिन्तिडीकं च तालकम् ॥४७॥
खर्जूरं नारिकेलं च तालं च परिवर्जयेत् ।
दन्तशौचविहीनश्च सर्वशौचविहीनकः ॥४८॥
अनन्तर पुनः सोलह बार कुल्ला कर के मुख शुद्ध करे । नारद ! दातून के नियमों को सुनो, जिसे स्वयं विष्णु ने सामवेद के आह्निक प्रकरण में बताया है अपामार्ग (चिचिरा), म्योड़ी, आम, करवीर (कनेर) खैर, सिरस, जायफल, नागकेशर, साखू, अशोक, बर्जुन, गूलर कदम्ब, जामुन, मौलसिरी, तोक्म (जी आदि की हरी बाल) और पलाश की दातून प्रशस्त होती है । बेर, देवदारु, मदार, सेमर और काँटे बाले वृक्ष तथा लता, पीपल, चिरौंजी, इमली, ताड़, खजूर और नारियल की दातून नहीं करनी चाहिए । दाँतों की शुद्धि से रहित प्राणी को सभी शुद्धि से रहित समझना चाहिए ॥ ४३-४८ ॥

शौचहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु ।
कृत्वा शौचं शुचिर्विप्रो धृत्वा धौते च वाससी ॥४९॥
प्रक्षाल्य पादावाचम्य प्रातःसंध्यां समाचरेत् ।
एवं त्रिसंध्यं सन्ध्यां च कुरुते कुलजो द्विजः ॥५०॥
स स्नातः सर्वतीर्थेषु त्रिसध्यं यः समाचरेत् ।
संध्यात्रितयहीनः स्यादनर्हः सर्वकर्मसु ॥५१॥
शुद्धि रहित प्राणी अशुद्ध होने के नाते सभी कर्मों के अयोग्य होता है । इसलिए ब्राह्मण शुद्धि करने के उपरान्त स्नान करके दो धुले हुए वस्त्र पहन कर चरण धोकर आचमन कर के प्रातःसन्ध्या सम्पन्न करे । इस प्रकार जो कुलीन द्विज तीनों काल में संध्योपासना करता है, वह सभी तीर्थों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त करता है । क्योंकि तीनों संध्याओं से रहित प्राणी सभी कर्मों के अयोग्य है ॥ ४९-५१ ॥

यदह्ना कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ।
नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यस्तुपश्चिमाम् ॥५२॥
स शूद्रवद्‌बहिः कार्यः सर्वस्माद्‌द्विजकर्मणः ।
पूर्वा संध्यां परित्यज्य मध्यमां पश्चिमां तथा ॥५३॥
ब्रह्महत्यामात्महत्यां प्रत्यहं लभते द्विजः ।
एकादशीविहीनो यः संध्याहीनश्च यो द्विजः ॥५४॥
कल्पं व्रजेत्कालसूत्रं यथा हि वृषलीपतिः ।
प्रातः संध्यां विधायैवं गुरुमिष्टं सुरं रविम् ॥५५॥
ब्रह्माणमीशं विष्णुं च मायां पद्मां सरस्वतीम् ।
प्रणम्य गुरुभाज्यं च दर्पणं मधु काञ्चनम् ॥५६॥
स्पृष्ट्वा स्नानादिकं काले कुर्यात्साधकसत्तमः ।
पुष्करिण्यां तु वाप्यां वा यदा स्नानं समाचरेत् ॥५७॥
समुद्धृत्य पञ्च पिण्डानादौ धर्मी विचक्षणः ।
नद्यां नदे कन्दरे वा तीर्थे वा स्नानमाचरेत् ।५८॥
ऐसा व्यक्ति दिन में जो कर्म करता है उसका फल उसे नहीं मिलता है । जो द्विज प्रातः और संध्या समय की संध्या को सम्पन्न नहीं करता है, उसे शूद्र की भाँति सभी द्विजकर्मों से पृथक् रखना चाहिए । क्योंकि प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल की संध्या को न करने वाला द्विज प्रतिदिन ब्रह्महत्या और आत्महत्या का भागी होता है । इसी भाँति जो एकादशी व्रत और संध्या से हीन है, वह द्विज शुद्रा से सम्बन्ध रखने वाले पापी की भांति कालसूत्र नामक नरक में कल्पपर्यन्त पड़ा रहता है । इस प्रकार प्रातः सन्ध्या सम्पन्न करके गुरु, इष्टदेव, सूर्य, ब्रह्मा, शिव, विष्णु, देवी, लक्ष्मी और सरस्वस्ती को प्रणाम करे । अनन्तर गुरु, घृत, दर्पण, मधु और सुवर्ण का स्पर्श करके उत्तम साधक समयानुसार स्नान आदि करे । जब पोखर या बावली में स्नान करे तब धर्मात्मा एवं विद्वान् पुरुष पहले उसमें से पांच पिंड मिट्टी निकालकर बाहर फेंक दे । नदी, नद, गुफा या तीर्थ में स्नान करना चाहिए ॥ ५२-५८ ॥

कुर्यात् स्नात्वा तु संकल्पं ततः स्नानं पुनर्मुने ।
श्रीकृष्णप्रीतिकामश्च वैष्णवानां महात्मनाम् ॥५९॥
मुने ! स्नान करके संकल्प करे । तदनन्तर पुनः स्नान के लिए संकल्प करे । वैष्णव महात्माओं का संकल्प भगवान् श्रीकृष्ण के प्रीत्यर्थ होता है ॥ ५९ ॥

संकल्पो गृहिणां चैव कृतपातकनाशनः ।
विप्रः कृत्वा तु संकल्पं मृदं गात्रे प्रलेपयेत् ॥६०॥
वेदोक्तमन्त्रेणानेन देहशुद्धिकृते नरः ।
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ॥६१॥
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ।
उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ॥६२॥
आरुह्य मम गात्राणि सर्वं पापं प्रमोचय ।
पुण्यं देहि महाभागे स्नानानुज्ञां कुरुष्व माम् ॥६३॥
इत्युक्त्वा च जले नाभिप्रमाणे मन्त्रपूर्वकम् ।
चतुर्हस्तप्रमाणां च कृत्वा मण्डलिकां शुभाम् ॥६४॥
तीर्थान्यावाहयेत्तत्र हस्तं दत्त्वा तपोधन ।
यानि यानि च तीर्थानि सर्वाणि कथयामि ते ॥६५॥
और गृहस्थों का वह संकल्प किए हुए पापों के नाश के उद्देश्य से होता है । ब्राह्मण संकल्प करके शरीर में वेदोक्त मंत्रों द्वारा मिट्टी लगाए । (मन्त्र) हे वसुन्धरे ! तुम अश्वों और रथों से आक्रान्त हो । विष्णु ने भी तुम्हें (अपने चरणों से) आक्रान्त किया है । मृत्तिके ! मैंने जो पाप किए हैं उनका अपहरण कर लो । सैकड़ों भुजाओं से सुशोभित वराहरूपधारी श्रीकृष्ण ने एकार्णव के जल से तुम्हारा उद्धार किया है । तुम मेरे अंगों पर आरूढ़ हो समस्त पापों को दूर कर दो । महाभागे ! मुझे पुण्य प्रदान करो और मुझे स्नान करने के लिए आज्ञा दो । तपोधन ! इस प्रकार कह कर नाभि-प्रमाण जल में मन्त्रपूर्वक चार हाथ लम्बा-चौड़ा शुभ मण्डल बनाये और उसमें हाथ लगाकर तीर्थों का आवाहन करे । जो-जो तीर्थ हैं, उन सब का वर्णन कर रहा हूँ ॥ ६०-६५ ॥

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ॥६६॥
हे गंगे, यमुने, पोदावरि, सरस्वति, नर्मदे, सिन्धु तथा कावेरि ! इस जल में निवास करो ॥ ६६ ॥

नलिनी नन्दिनी सीता मालिनी च महापगा ।
विष्णुपादाब्जसंभूता गङ्गा त्रिपथगामिनी ॥६७॥
पद्मावती भोगवती स्वर्णरेखा च कौशिकी ।
दक्षा पृथ्वी च सुभगा विश्वकाया शिवाऽमृता ॥६८॥
विद्याधरी सुप्रसन्ना तथा लोकप्रसाधिनी ।
क्षेमा च वैष्णवी शान्ता शान्तिदा गोमती सती ॥६९॥
सावित्री तुलसी दुर्गा महालक्ष्मीः सरस्वती ।
कृष्णप्राणाधिका राधा लोपामुद्रा दिती रतिः ॥७०॥
अहल्या चादितिः संज्ञा स्वधा स्वाहाऽप्यरुन्धती ।
शतरूपा देवहूतिरित्याद्याः संस्मरेत्सुधीः ॥७१॥
उपरान्त नलिनी, नन्दिनी, सीता, महानदी मालिनी और भगवान् विष्णु के चरण-कमल से उत्पन्न त्रिपथगामिनी गंगा, पद्मावती, भोमवती, स्वर्णरेखा, कौशिकी, दक्षा, पृथिवी, सुभगा, विश्वकाया, शिवामृता, सुप्रसन्ना विद्याधरी, लोकप्रसाधिनी, क्षेमा, वैष्णावी, शान्ता, शान्तिदा, गोमती, सती, सावित्री, तुलसी, दुर्गा, महालक्ष्मी, सरस्वती, श्रीकृष्णप्राणाधिका राधिका, लोपामुद्रा, दिति, रति, अहल्या, अदिति, संज्ञा, स्वाहा, स्वधा, अरुन्धती, शतरूपा और देवदूति आदि का स्मरण बुद्धिमान् पुरुष करे ॥ ६७-७१ ॥

स्मृत्वा स्नात्वा महापूतः कुर्यात्तु तिलकं बुधः ।
बाह्वोर्मूले ललाटे च कण्ठदेशे च वक्षसि ॥७२॥
स्नान द्वारा महापवित्र होकर पण्डित को अपनी बाहु के मूलभाग, ललाट, कण्ठ और वक्षःस्थल में तिलक लगाना चाहिए ॥ ७२ ॥

स्नानं दानं तपो होमो देवता पितृकर्म च ।
तत्सर्वं निष्फलं याति ललाटे तिलकं विना ॥७३॥
क्योंकि बिना तिलक लगाए स्नान, दान, तप, हवन, देवकर्म, पितृकर्म-सब कुछ निष्फल हो जाता है ॥ ७३ ॥

ब्राह्मणस्तिलकं कृत्वा कुर्यात्संध्यां च तर्पणम् ।
नमस्कृत्य सुरान्भक्त्या गृहं गच्छेन्मुदाऽन्वितः ॥७४॥
ब्राह्मण, को सर्वप्रथम तिलक लगा कर संध्या-तर्पण कार्य सुसम्पन्न करना चाहिए । उपरान्त भक्तिपूर्वक देवों को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक घर जाना चाहिए ॥ ७४ ॥

प्रक्षाल्य पादौ यत्‍नेन धृत्वा धौते च वाससी ।
मन्दिरं प्रविशेत्प्राज्ञ इत्याह हरिरेव च ॥७५॥
वहाँ यत्नपूर्वक पैर धोकर धुले हुए दो वस्त्र धारण करे । तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष मन्दिर में जाय, यह साक्षात् हरि का ही कथन है ॥ ७५ ॥

विना पादक्षालनं यः स्नात्वा विशति मन्दिरम् ।
तस्य स्नानादिकं नष्टं जपहोमादिपञ्चकम् ॥७६॥
जोस्नानोपरान्त बिना चरण प्रक्षालन किए मन्दिर में प्रवेश करता है, उसके स्नानादि और जप, हवन आदि पाँच कर्म नष्ट हो जाते हैं ॥ ७६ ॥

परिधाय स्निग्धवस्त्रं गृहं च प्रविशेद्‌गृही ।
रुष्टा लक्ष्मीर्गृहाद्याति शापं दत्त्वा सुदारुणम् ॥७७॥
जो गृहस्थ पुरुष जल से भीगे या तेल से तर वस्त्र पहन कर गृह में प्रवेश करता है, उससे रुष्ट होकर लक्ष्मी उसके गृह से निकल जाती हैं और अत्यन्त दारुण शाप देती हैं ॥ ७७ ॥

जङ्‍घोर्ध्वतश्च यो विप्रःपादौ प्रक्षालयेद्यदा ।
तावद्‌भवति चाण्डालो यावद्‌गङ्गां न पश्यति ॥७८॥
जो ब्राह्मण चरण धोने के समय जंघा के ऊपर तक घोडालता है, उससे वह तब तक चाण्डाल बना रहता है, जब तक मंगाजी का दर्शन नहीं कर लेता है ॥ ७८ ॥

उपविश्याऽऽसने ब्रह्मञ्छुचिराचम्य साधकः ।
पूजां कुर्यात्तु वेदोक्तो भक्तियुक्तो हि संयतः ॥७९॥
ब्रह्मन् ! पवित्र साधक आसन पर बैठ कर आचमन करे । उपरान्त संयम एवं भक्तिपूर्वक वेदोक्त विधि से इष्टदेव की पूजा करे ॥ ७९ ॥

शालग्रामे मणौ मन्त्रे प्रतिमायां जले स्थले ।
गोपृष्ठे वा गुरौ विप्रे प्रशस्तमर्चनं हरेः ॥८०॥
शालग्राम, मणि, मन्त्र,प्रतिमा, जल, स्थल, गोपृष्ट, गुरु और ब्राह्मण में भगवान् की अर्चना प्रशस्त मानी गयी है ॥ ८० ॥

सर्वेषु शस्ता पूजा च शालग्रामे च नारद ।
सुराणामेव सर्वेषां यत्राधिष्ठानमेव च ॥८१॥
किन्तु नारद ! भगवान् की सब से प्रशस्त पूजा शालग्राम में होती है । क्योंकि उसमें सभी देवों का अधिष्ठान रहता है ॥ ८१ ॥

स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ।
शालग्रामोदकेनैव योऽभिषेकं समाचरेत् ॥८२॥
अतः जिसने शालग्राम-जल से अभिषेक किया, वह मानो समस्त तीर्थों में स्नान और सभी यज्ञों की दीक्षा ग्रहण कर चुका ॥ ८२ ॥

शालग्रामजलं भक्त्या नित्यमश्नाति यो नरः ।
जीवन्मुक्तः स च भवेद्यात्यन्ते कृष्णमन्दिरम् ॥८३॥
क्योंकि जो नित्य भक्तिपूर्वक शालग्राम जल का पान करता है वह जीवन्मुक्त होता है और अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण के धाम में पहुँचता है ॥ ८३ ॥

शालग्रामशिलाचक्रं यत्र तिष्ठति नारद ।
सचक्रो भगवांस्तत्र सर्वतीर्थानि निश्चितम् ॥८४॥
नारद ! शालग्राम शिला का चक्र जहाँ रहता वहाँ समस्त तीर्थ और चक्र समेत भगवान् अवश्य रहते हैं । ८४ ॥

तत्र यो हि मृतो देही ज्ञानाज्ञानेन दैवतः ।
रत्‍ननिर्मितयानेन स याति श्रीहरेः पदम् ॥८५॥
अतः वहाँ जो देहधारी भाग्यवश जानकर या अनजान में अपनी देह का त्याग करता है, वह रत्नखचित विमान पर बठ कर श्री विष्णु भगवान् के घाम को जाता है ॥ ८५ ॥

शालग्रामं विनाऽन्यत्र कः साधुः पूजयेद्धरिम् ।
कृत्वा तत्र हरेः पूजां परिपूर्ण फलं लभेत् ॥८६॥
कौन ऐसा साधु पुरुष है, जो शालग्राम शिला के सिवा अन्यत्र भगवान् की पूजा करेगा ? क्योंकि उसमें भगवान् की अर्चना करने से परिपूर्ण फल की प्राप्ति होती है ॥ ८६ ॥

पूजाधारश्च कथितः श्रूयतां पूजनक्रमः ।
हरेः पूजां बहुमतां कथयामि यथागमम् ॥८७॥
इस प्रकार मैंने भगवान की पूजा का आधार बता दिया, अब बहुमत से निश्चित और शास्त्र के अनुकूल पूजन-क्रम के बारे में सुनो ॥ ८७ ॥

कश्चिद्‌ददाति हरये चोपचारांश्च षोडश ।
सुन्दराणि पवित्राणि नित्यं भक्त्या च वैष्णवः ॥८८॥
कोई वैष्णव भक्तिभाव से सोलह सुन्दर और पवित्र उपचार भगवान् को नित्य अर्पित करते हैं ॥ ८८ ॥

कश्चिद्‌द्वादश वस्तूनि पञ्च वस्तूनि कश्चन ।
येषामेव यथा शक्तिर्भक्तिर्मूलं च पूजने ॥८९॥
इसी प्रकार कोई बारह और कोई पाँच वस्तुओं का उपचार समर्पित करते हैं । किन्तु जिन लोगों की जैसी शक्ति और भक्ति हो उन्हें उसी के अनुसार पूजन करना चाहिए । पूजा की जड़ है-भगवान् के प्रति भक्ति ॥ ८९ ॥

आसनं वसनं पाद्यमर्घ्यमाचमनीयकम् ।
पुष्पं चन्दनधूपं च दीपं नैवैद्यमुत्तमम् ॥९०॥
गन्धं माल्यं च शय्यां च ललितां सुविलक्षणाम् ।
जलमन्नं च ताम्बूलं साधारं देयमेव च ॥९१॥
आसन, वस्त्र, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, पुष्प, चन्दन, दीप, उत्तम नैवेद्य, सुगन्ध, माला, सुन्दर और विलक्षण शय्या, जल, अन्न, ताम्बूल--सामान्यतः अर्पित करने योग्य सोलह उपचार हैं ॥ ९०-९१ ॥

गन्धान्नतल्पताम्बूलं विना द्रव्याणि द्वादश ।
पाद्यार्घ्यजलनैवेद्यपुष्पाण्येतानि पञ्च च ॥९२॥
सर्वाण्येतानि मूलेन दद्यात्साधकसत्तमः ।
गुरूपदिष्टं मूलं च प्रशस्तं सर्वकर्मसु ॥९३॥
गन्ध, अन्न, शय्या और ताम्बूल को छोड़ कर शेष द्रव्य बारह उपचार हैं । पाद्य, अर्घ्य, जल, नैवेद्य और पुष्प--ये पाँच उपचार हैं । श्रेष्ठ साधक ये सभी वस्तुएँ मूल मन्त्र द्वारा अर्पित करे । गुरु के उपदेश से प्राप्त मूल मन्त्र समस्त कर्मों में प्रशस्त कहा गया है ॥ ९२-९३ ॥

आदौ कृत्वा भूतशुद्धिं प्राणायामं ततः परम् ।
अङ्गप्रत्यङ्‍गयोर्न्यासं मन्त्रन्यासं ततः परम् ॥९४॥
वर्णन्यासं विनिर्वर्त्य चार्घ्यपात्रं विनिर्दिशेत् ।
त्रिकोणमण्डलं कृत्वा तत्र कूर्मं प्रपूजयेत् ॥९५॥
सर्वप्रथम भूत-शुद्धि करके प्राणायाम करे । तदनन्तर अंगन्यास, प्रत्यंगन्यास और वर्णन्यास कर के अध्यपात्र प्रस्तुत करे । पहले त्रिकोण मण्डल बना कर उसमें कूर्म (कच्छप भगवान्) की पूजा करे ॥ ९४-९५ ॥

जलेनाऽऽपूर्य शङ्खं च तत्र संस्थापयेद्‌द्विजः ।
जलं संपूज्य विधिवत्तीर्थान्यावाहयेत्ततः ॥९६॥
अनन्तर द्विज जलपूर्ण शंख वहाँ रख कर उस जल की सबिधि अर्चा करके उसमें समस्त तीर्थों का आवाहन करे ॥ ९६ ॥

पूजोपकरणं तेन जलेन क्षालयेत्पुनः ।
ततो गृहीत्वा पुष्पं च कृत्वा योगासनं शुचिः ॥९७॥
ध्यानेन गुरुदत्तेन ध्यायेत्कृष्णमनन्यधीः ।
ध्यात्वा पाद्यादिकं सर्वं दद्यान्मूलेन साधकः ॥९८॥
पुनः उसी जल से पूजा की समस्त वस्तुओं को प्रक्षालित करे । इसके बाद पवित्र साधक पुष्प लेकर योगासन पर बैठे और गुरु के बताए हुए ध्यान के अनुसार अनन्य भाव से भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करे । इस प्रकार ध्यान-साधक मूल मंत्र का उच्चारण करते हुए पाद्य आदि सभी उपचार अर्पित करे ॥ ९७-९८ ॥

अङ्गप्रत्यङ्गदेवं च तन्त्रोक्तं पूजयेद्धरिम् ।
मूलं जप्त्वा यथाशक्ति देवे मन्त्रं समर्पयेत् ॥९९॥
इस प्रकार तंत्र के अनुसार अंग-प्रत्यंग देवताओं के साथ भगवान् विष्णु की पूजा करे । मूलमंत्र यथाशक्ति जप करके इष्टदेव को मंत्र समर्पित करे ॥ ९९ ॥

दत्त्वोपहारं विविधं स्तुत्वा च कवचं पठेत् ।
ततः कृत्वा परीहारं मूर्ध्ना च प्रणमेद्‌भुवि ॥ १००॥
पुनः बनेक भाँति के उपहार प्रदान करके स्तुति पाठ एवं कवच पाठ करे । पश्चात् विसर्जन करके भूमि पर माथा टेक कर नमस्कार करे ॥ १०० ॥

कृत्वा वै देवपूजां च यज्ञं कुर्याद्विचक्षणः ।
श्रौतस्मार्ताग्नियुक्तं च बलिं दद्यात्ततो मुने ॥ १०१॥
मुने ! इस प्रकार देवपूजा करके बुद्धिमान् पुरुष श्रौत तथा स्मार्त अग्नि से युक्त यज्ञ का अनुष्ठान करे । मुने ! यज्ञ के पश्चात् दिक्पाल आदि को बलि देनी चाहिए ॥ १०१ ॥

नित्यश्राद्धं यथाशक्ति दानं वित्तानुरूपकम् ।
कृत्वा कृती स विहरेत्क्रम एष श्रुतौ श्रुतः ॥ १०२॥
फिर यथाशक्ति नित्य श्राद्ध और वैभव के अनुसार दान करे । यह सब करके पुण्यात्मा साधक आवश्यक आहार-विहार में प्रवृत्त हो ॥ १०२ ॥

इति ते कथितं सर्वं वेदोक्तं सूत्रमुत्तमम् ।
आह्निकस्य च विप्राणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १०३॥
इस प्रकार मैंने ब्राह्मणों का वेदोक्त उत्तम आह्निकसूत्र तुम्हें बता दिया अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १०३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे
शिवनारदसंवाद आह्निकनिरूपणं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥२६॥
श्रीब्रह्मवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में आह्निकनिरूपण नामक छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २६ ॥

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