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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - सप्तविंशोऽध्यायः शिवोपदेशभक्ष्याभक्ष्यादिविवरणम् -
ब्राह्मणों के लिए भक्ष्याभक्ष्य आदि का निरूपण - नारद उवाच भक्ष्यं किं वाऽप्यभक्ष्यं च द्विजानां गृहिणां प्रभो । यतीनां वैष्णवानां च विधवाब्रह्मचारिणाम् ॥१॥ किं कर्तव्यमकर्तव्यमभोग्यं भोग्यमेव वा । सर्वं कथय सर्वज्ञ सर्वेश सर्वकारण ॥२॥ नारद बोले--प्रभो ! गृहस्थ द्विज, यति, वैष्णव, विधवा और ब्रह्मचारी के लिए क्या भक्ष्य और क्या अभक्ष्य है ? तथा उनके कर्तव्य और अकर्तव्य, भोग्य और अमोग्य सभी बातें बताने की कृपा करें; क्योंकि आप सर्वज्ञ, सब के ईश और सब के कारण हैं ॥ १-२ ॥ महेश्वर उवाच कश्चित्तपस्वी विप्रश्च निराहारो चिरं मुनिः । कश्चित्समीरणाहारी फलाहारी च कश्चन ॥३॥ महेश्वर बोले-कुछ तपस्वी ब्राह्मण मुनि निराहार होते हैं । कोई वायु का आहार और कोई फलाहार करते हैं ॥ ३ ॥ अन्नाहारी यथाकाले गृही च गृहिणीयुतः । येषामिच्छा च या ब्रह्मन्रुचीनां विविधा गतिः ॥४॥ ब्रह्मन् ! गृहिणी समेत गृहस्थ लोग यथासमय अन्न का आहार करते हैं । इसी प्रकार जिसकी जैसी रुचि होती है वे वैसा ही करते हैं; क्योंकि रुचियों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ॥ ४ ॥ हविष्यान्नं ब्राह्मणानां प्रशस्तं गृहिणां सदा । नारायणोच्छिष्टमिष्टमभक्ष्यमनिवेदितम् ॥५॥ किन्तु ब्राह्मण गृही के लिए हविष्यान्न का भोजन सदैव प्रशस्त बताया गया है । नारायण का उच्छिष्ट प्रसाद ही उनके लिए अभीष्ट भोजन है । अभक्ष्य वह है जो (भगवान् को) निवेदित नहीं किया गया है ॥ ५ ॥ अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं यद्विष्णोरनिवेदितम् । विण्मूत्रं सर्वथा प्रोक्तमन्नं च हरिवासरे ॥६॥ क्योंकि भगवान् विष्णु को अर्पित न किया गया अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है । इसी प्रकार एकादशी के दिन सब प्रकार का अन्न-जल मल-मूत्र के तुल्य कहा गया है ॥ ६ ॥ ब्राह्मणः कामतोऽन्नं च यो भुङ्क्ते हरिवासरे । त्रैलोक्यजनितं पापं सोऽपि भुङ्क्ते न संशयः ॥७॥ इसलिए जो ब्राह्मण स्वेच्छा या परेच्छा से एकादशी के दिन अन्न भोजन करते हैं वे तीनों लोकों के पाप भक्षण करते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ७ ॥ न भोक्तव्यं न भोक्तव्यं न भोक्तव्यं च नारद । गृहिभिब्रह्मिणैरन्नं संप्राप्ते हरिवासरे ॥८॥ नारद ! इसलिए एकादशी के दिन गृहस्थ ब्राह्मणों को अन्न कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ८ ॥ गृही शैवश्च शाक्तश्च ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः । प्रयाति कालसूत्रं च भुक्त्वा च हरिवासरे ॥९॥ हरिवासर के दिन गृही, शैव एवं शाक्त ब्राह्मण विचार की कमी के कारण अन्न भक्षण करने पर कालसूत्र नामक नरक को प्राप्त होते हैं ॥९॥ कृमिभिः शालिमानैश्च भक्षितस्तत्र तिष्ठति । विण्मूत्रभोजनं कृत्वा यावदिन्द्राश्चतुर्दश । १०॥ वहाँ उसे वे ही अन्न कीड़े होकर काट-काट कर खाते हैं। इस प्रकार वह प्राणी मल-मूत्र का भोजन करते हुए चौदह इन्द्र के समय तक वहाँ नरक में निवास करता है॥१०॥ जन्माष्टमीदिने रामनवमीदिवसे हरेः । शिवरात्रौ च यो भुङ्क्ते सोऽपि द्विगुणपातकी ॥ ११॥ इसी प्रकार (भगवान् कृष्ण की) जन्माष्टमी, रामनवमी और शिवरात्रि के दिन अन्न भक्षण करने वाले को दूना पातक लगता है॥११॥ उपवासासमर्थश्च फलं मूलं जलं पिबेत् । नष्टे शरीरे स भवेदन्यथा चाऽऽत्मघातकः ॥ १२॥ उपवास करने में असमर्थ होने पर फल, मूल और जल ग्रहण करे; अन्यथा शरीर नष्ट हो जाने पर मनुष्य आत्महत्या के पाप का भागी होता है॥१२॥ सकृद्भुङ्क्ते हविष्यान्नं विष्णोनैवेद्यमेव च । न भवेत्प्रत्यवायी स चोपवासफलं लभेत् ॥ १३॥ जो व्रत के दिन एक बार हविष्यान्न का भोजन या भगवान् विष्णु का नैवेद्य भोजन कर के रह जाता है वह (अन्न खाने का) दोषी नहीं होता; अपितु उसे उपवास का फल भी प्राप्त हो जाता है॥१३॥ एकादश्यामनाहारी गृही विप्रश्च भारते । स च तिष्ठति वैकुण्ठे यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ १४॥ इसीलिए भारतवर्ष में गृहस्थ ब्राह्मण एकादशी के दिन अनाहार (उपवास) करते हैं, जिससे वे वैकुण्ठ लोक में ब्रह्मा की आयु तक निवास करते हैं ॥१४॥ गृहिणां शैवशाक्तानामिदमुक्तं च नारद । विशेषतो वैष्णवानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् ॥ १५॥ नारद! गृही, शैव, शाक्त और विशेषकर वैष्णव यति तथा ब्रह्मचारियों के लिए यह सब कहा गया है ॥१५॥ नित्यनैवेद्यभोजी यः श्रीविष्णोः स हि वैष्णवः । नित्यं शतोपवासानां जीवन्मुक्तफलं लभेत् ॥ १६॥ भगवान् विष्णु का नित्य नैवेद्य भोजन करने वाला ब्राह्मण वैष्णव है उसे नित्य सौ उपवास और जीवन्मुक्त होने का फल प्राप्त होता है ॥१६॥ वाञ्छन्ति तस्य संस्पर्श तीर्थान्यखिलदेवताः । आलापं दर्शनं चैव सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १७॥ उसके स्पर्शन, दर्शन और बातचीत करने के लिए सभी तीर्थ एवं दवगण इच्छुक रहते हैं। इसलिए कि वह समस्त पापों का महान् नाशक होता है॥१७॥ द्विस्विन्नमन्नं पृथुकं शुद्धं देशविशेषके । नात्यचतशस्तं विप्राणां भक्षणे न निवेदने ॥ १८॥ दो बार पकाया हुआ अन्न तथा चिउरा, जो देश विशेष में शुद्ध माना गया है, ब्राह्मणों के खाने के लिए और भगवान् को समर्पित करने के लिए बहुत प्रशस्त नहीं माना गया है॥१८॥ अभक्ष्यं वै यतीनां च विधवाब्रह्मचारिणाम् । ताम्बूलं च यथा ब्रह्मन्तथैतद्वस्तु न ध्रुवम् ॥ १९॥ ब्रह्मन्! संन्यासी, विधवा, और ब्रह्मचारियों के लिए उक्त चीजें तांबूल की तरह अभक्ष्य हैं। ॥।१९॥ ताम्बूलं विधवास्त्रीणां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् । तपस्विनां च विप्रेन्द्र गोमांससदृशं स्मृतम् ॥२०॥ विप्रेन्द्र ! विधवा स्त्रियों, यतियों, ब्रह्मचारियों और तपस्वियों के लिए ताम्बूल गोमांस के समान बताया गया है॥२०॥ सर्वेषां ब्राह्मणानां यदभक्ष्यं शृणु नारद । यदुक्तं सामवेदे च हरिणा चाऽऽह्निकक्रमे ॥२१॥ नारद! समस्त ब्राह्मणों के लिए जो अभक्ष्य है और जिसे सामवेद के दैनिक त्राः-प्रकरण में स्वयं हरि ने कहा है, उसे सुनो॥२१॥ ताम्रपात्रे पयःपानमुच्छिष्टे घृतभोजनम् । दुग्धं लवणसार्धं च सद्यो गोमांसभक्षणम् ॥२२॥ ताम्बे के पात्र में दुग्ध, जूठे में घी एवं नमक के साथ दूध पीना तलाल गोमांस भक्षण के समान है॥२२॥ नारिकेलोदकं कांस्ये ताम्रपात्रे स्थितं मधु । ऐक्षवं ताम्रपात्रस्थं सुरातुल्यं न संशयः ॥२३॥ काँसे और तांबे के पात्र में नारियल का जल तथा तांबे के पात्र में मधु और ईस का स मदिरा के समान होता है, इसमें संशय नहीं॥२३॥ उत्थाय वामहस्तेन यस्तोयं पिबति द्विजः । सुरापी च स विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः ॥२४॥ जो द्विज उठकर बाँये हाथ से जल पीता है उसे शराबी और सभी धर्मों से बहिष्कृत जानना चाहिए॥२४॥ अनिवेद्यं हरेरन्नं भुक्तशेषं च नित्यशः । पीतशेषजलं चैव गोमांससदृशं मुने ॥२५॥ मुने! भगवान् विष्णु को निवेदन न किया हुआ अन्न, खाने से बचा हा जूठा भोजन और पीने से शेष रहा जल भी गोमांस के समान (निषिद्ध) है ॥२५॥ वानिङ्गणफलं चैव गोमांसं कार्तिके स्मृतम् । माघे च मूलकं चैव कलम्बीशयने तथा ॥२६॥ श्वेतवणं च तालं च मसूरं मत्स्यमेव च । सर्वेषां ब्राह्मणानां च त्याज्यं सर्वत्र देशके ॥२७॥ मत्स्यांश्च कामतो भुक्त्वासोपवासस्त्र्यहं वसेत् । प्रायश्चित्तं ततः कृत्वा शुद्धिमाप्नोति वाडवः ॥२८॥ इसी प्रकार कार्तिक में बैगन, गाघ में मूली तथा चौमासे में करमी साग नहीं खाना चाहिए। श्वेत वर्ण का ताड़ फल, मसूर और मत्स्य, किसी भी देश के किसी भी ब्राह्मण को नहीं खाना चाहिए। स्वेच्छा से मछली खाने पर तीन दिन के उपवास के उपरान्त प्रायश्चित्त करने से ब्राह्मण शुद्ध होता है॥२६-२८॥ प्रतिपत्सु च कूष्माण्डमभक्ष्यं ह्यर्थनाशनम् । द्वितीयायां च बृहतीं भोजनेन स्मरेद्धरिम् ॥२९॥ प्रतिपदा के दिन कूष्पागड (कुम्हड़ा) अभक्ष्य है। उससे अर्थनाश होता है। द्वितीया के दिन बनभौटा खाना निषिद्ध है। ऐसा करने पर भगवान् विष्णु का स्मरण करे॥२९॥ अभक्ष्यं च पटोलं च शत्रुवृद्धिकरं परम् । तृतीयायां चतुर्थ्यां च मूलकं धननाशनम् ॥३०॥ तृतीया को परवल शत्रुबुद्धिारक होता है, अतः उस दिन उसे नहीं खाना चाहिए। चतुर्थी को मूली खाने से बननाश होता है॥३०॥ कलङ्ककारणं चैव पञ्चम्यां बिल्वभक्षणम् । तिर्यग्योनिं प्रापयेत्तु षष्ठ्या वै निम्बभक्षकम् ॥३१॥ पंचम में विल्व (बेल) भक्षण करना कलंक का कारण होता है। षष्ठी में नाम खाने से पक्षी आदि योनियों की प्राप्ति होत है॥ ३१ ॥ रोगवृद्धिकरं चैव नराणां तालभक्षणम् । सप्तम्यां च तथा तालं शरीरस्य च नाशकम् ॥३२॥ सप्तमी में ताड़ फल मक्षण करने से मनुष्यों को रोग होता है और ताड़ शरीर का भी नाशक है॥ ३२ ॥ नारीकेलफलं भक्ष्यमष्टम्यां बुद्धिनाशकम् । तुम्बी नवम्यां गोमांसं दशम्यां च कलम्बिका ॥३३॥ अष्टमी में नारियल खाने से बुद्धि नाश होता है। नवमी में लौकी गोमांस के समान तथा दशमी के दिन कलम्बी का साग गोमांस के समान त्याज्य है ॥ ३३ ॥ एकादश्यां तथा शिम्बी द्वादश्यां पूतिका तथा । त्रयोदश्यां च वार्ताकी न भक्ष्या पुत्रनाशनम् ॥ ३४॥ एकादशी को सेम, द्वादशी को पूलिका (पोई) और त्रयोदशी को भाटाखाने से पुत्र नाश होता है॥ ३४ ॥ चतुर्दश्यां माषभक्ष्यं महापापकरं परम् । पञ्चदश्यां तया मांसमभक्ष्यं गृहिणां मुने ॥ ३५ ॥ मुने! चतुर्दशी को उरद खाना महापापकारी है। अमावस्या को मांस भक्षण गृहस्थों के लिए सर्वथा अभक्ष्य है॥ ३५ ॥ गृहिणां प्रोक्षितं मांसं भक्ष्यमन्यदिनेषु च । प्रातःस्नाने तथा श्राद्धे पार्वणे व्रतवासरे ॥ ३६॥ प्रशस्तं सार्षपं तैलं पक्वतैलं च नारद । कुहूपूर्णेन्दुसंक्रान्तिचतुर्दश्यष्टमीषु च ॥ ३७॥ रवौ श्राद्धे व्रताहे च पृष्टं स्त्रीतिलतैलकम् । मांसं च रक्तशाकं च कांस्यपात्रे च भोजनम् ॥३८॥ गृहस्थों के लिए अन्य दिनों में यज्ञीय मांस भक्ष्य कहा गया है। नारद! प्रातःकाल के स्नान में, पार्वण बाद में और व्रत के दिन सरसों का तेल तथा पका तेल प्रशस्त कहा गया है। अमोवस्था, पूणिभा, संक्रान्ति, चतुर्दशी, अष्टमी, रविवार, श्राद्ध और व्रतवार में स्त्री-सहवास तथा तिल या तेल निषिद्ध हैं। उसी प्रकार उस दिन मात, खतपर्ण का साग और कांसे के पात्र में भोजन भी निषिद्ध है ॥ ३६-३८ ॥ निषिद्धं शयनं चैव कूर्ममांसं च मन्त्रितम् । निषिद्धं सर्ववर्णानां दिवा स्वस्त्रीनिषेवणम् ॥३९ ॥ सभी वर्ण के मनुष्यों के लिए दिन में शयन, कछुवे का मांत और स्त्री सम्भोग-सर्वथा निषिद्ध हैं।॥ ३९ ॥ रात्रौ च दधिभक्ष्यं च शयनं संध्ययोर्दिने । रजस्वलास्त्रीगमनमेतन्नरककारणम् ॥४०॥ रात्रि में दही खाने से, दोनों सध्याओं में (सायं-प्रातः) शयन करने से तथा रजस्वला स्त्री के साथ सम्भोग करने से नरक प्राप्त होता है॥ ४० ॥ उदक्यवीरयोरन्नं पुंश्चल्यलभक्षकम् । शूद्रान्नं याजकान्नं च शूद्रश्राद्धान्नमेव च ॥४१ ॥ रजस्वला स्त्री अन्न, पुरनली (व्यभिचारिणी) का अन्न, शूद्र का अन्न, याजक (यज्ञ कराने वाले, पुजारी और पुरोहितों) के अन्न तथा शूद्र के श्रद्धान्न सर्वथा अमक्ष्य हैं ॥ ४१ ॥ अभक्ष्यान्नं च विप्रर्षे यदन्नं वृषलीपतेःव् । ब्रह्मन्वार्धुषिकान्नं च गणकान्नभमक्षकम् ॥४२ ॥ विप्रर्षे! वृषलीपति (शूद्र) का अन्न, सूदखोर का अन्न, गणक (ज्योतिषी) का अन्न असक्ष्य होता है ॥ ४२॥ अग्रदानिद्विजान्नं च चिकित्साकारकस्य च । हस्तचित्राहरौ तैलमग्राह्यं चाप्यभक्षकम् ॥४३ ॥ अग्रदानी ब्राह्मण (महापात्र) तथा वैद्य के अन्न अमक्ष्य हैं। हस्त और चित्रा नक्षत्रों में तेल अग्राह्य एवं अमक्ष्य है॥ ४३ ॥ मूले मृगे भाद्रपदे मांसं गोमांसतुल्यकम् । मघायां कृत्तिकायां वै चोत्तरासु च नारद ॥४४॥ करोति मैथुनं यो हि कुम्भिपाकं स च व्रजेत् । रोाहिण्यां च विशाखायां मैत्रे चैवोत्तरासु च । अमायां कृत्तिकायां च द्विजैः क्षौरं विवर्जितम् ॥४५ ॥ कृत्वा तु मैथुनं क्षौरं यो देवांस्तर्पयेत्पितॄन्न् । रुधिरं तद्भवेत्तोयं दाता च नरकं व्रजेत् ॥४६॥ यत्कर्तव्यमकर्तव्यं यद्भोज्यं यदभोज्यकम् । सर्वं तुभ्यं निगदितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥४७॥ मूल तथा मृगशिरा नक्षत्रों में और भादों मास में मांस-मक्षण गो-मांस के समान होता है। नारद ! सवा कृत्तिका तथा उत्तरा नक्षत्रों में जो व्यक्ति मैथुन करता है वह कुंभीपाक नरक में जाता है रोहिणी विशाखा, अनुराधा, उत्तरात्रय तथा कृत्तिका नक्षत्रों में और अमावास्या तिथि को दिजों के लिए और कर्म जित है। जो मैथुन करके देवताओं तथा पितरों का तर्पण करता है, उसका वह जल रक्त के समान होता है तथा उसे देने वाला नरक में पड़ता है। नारद ! जो करना चाहिए, जो नहीं करना चाहिए, जो भक्ष्य है और जो अभक्ष्य है, वह सब तुम्हें बताया गया । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥४४-४७॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे नारदं प्रति शिवोपदेशभक्ष्याभक्ष्यादिविवरणं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥२७॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में भक्ष्याभक्ष्यवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २७ ॥ |