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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - अष्टाविंशोऽध्यायः


ब्रह्मस्वरूपवैकुण्ठादिवर्णनं, नारदप्रस्थानम् -
परमात्मा के स्वरूप का निरूपण -


नारद उवाच
श्रुतं सर्वं जगन्नाथ त्वत्प्रसादाज्जगद्‌गुरो ।
भवान्ब्रह्मस्वरूपं च वद ब्रह्मनिरूपणम् ॥ १॥
प्रभो किं ब्रह्म साकारं किं निराकारमीश्वर ।
किं तद्विशेषणं किंवाऽप्यविशेषणमेव च ॥२॥
किंवा दृश्यमदृश्यं वा लिप्तं देहिषु किं न वा ।
किंवा तल्लक्षणं शस्तं वेदे वा किं निरूपितम् ॥३॥
ब्रह्मातिरिक्ता प्रकृतिः किंवा ब्रह्मस्वरूपिणी ।
प्रकृतेर्लक्षणं किंवा सारभूतं श्रुतौ श्रुतम् ॥४॥
प्राधान्यं कस्य सृष्टौ च द्वयोर्मध्ये वरं परम् ।
विचार्य मनसा सर्वं सर्वज्ञ वद मां ध्रुवम् ॥५॥
नारद बोले--जगन्नाथ, जगदगुरो! आपकी कृपा से सब कुछ सुन चुका, अब आप ब्रह्म का स्वरूप तथा ब्रह्मतत्त्व का निरूपण करने की कृपा करें। प्रभो! ब्रह्म साकार है या निराकार? क्या उनका कुछ विशेषण भी है ? अथवा वह विशेषणों से रहित है ? वह दृश्य है या अदृश्य ? वह देहधारियों की देह में लिप्त रहता है या नहीं? शास्त्रों और वेदों में उसका लक्षण क्या बताया गया है। प्रकृति ब्रह्म से पृथक् है था ब्रह्मस्वरूपिणी? वेद में प्रकृति का सारभूत लक्षण क्या है ? सृष्टि में किलको प्रवानता है? दोनों में कौन श्रेष्ठ है? सर्वज्ञ! यह सब मन से विचार द्वारा निश्चित करके मुझे बताने की कृपा करें॥ १-५ ॥

नारदस्य वचः श्रुत्वा पञ्चवक्त्रः प्रहस्य च ।
भगवान्कर्तुमारेभे परब्रह्मनिरूपणम् ॥६॥
नारद की बातें सुन कर पांच मुख वाले भगवान् शिव ने हँस कर परब्रह्म का निरूपण करना आरम्भ किया ॥ ६ ॥

महादेव उवाच
यद्यत्पृष्टं त्वया वत्स निगूढं ज्ञानमुत्तमम् ।
सुदुर्लभं च वेदेषु पुराणेषु च नारद ॥७॥
महादेव बोले-वत्स नारद ! तुमने जो निगढ़ एवं प.मोत्तम जान के विषय में पूछा है, वह वेदों और पुराणों में अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ७ ॥

अहं ब्रह्मा च विष्णुश्च शेषो धर्मो महान्विराट् ।
सर्वं निरूपितं ब्रह्मन्नस्माभिः श्रुतिभिर्मुने ॥८॥
यद्विशेषणयुक्तं च दृश्यं प्रत्यक्षमेव च ।
तन्निरूपितमस्माभिर्वेदे वेदविदां वर ॥९॥
ब्रह्मन् ! मुने ! शिव, ब्रह्मा, विष्णु, शेष, धर्म और महान् विराट-इन सब का हमने तथा श्रुतियों ने भी निरूपण किया है । वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारद ! जो विशेष तथा प्रत्यक्ष दृश्य तत्त्व है, उसका हम लोगोंने वेद में निरूपण किया है ॥ ८-९ ॥

वैकुण्ठे च पुरा पृष्टे धर्मेण ब्रह्मणा तदा ।
यदुवाच हरिः किंचिन्निबोध कथयामि ते ॥ १०॥
सारभूतं च तत्त्वानामज्ञानान्धकलोचनम् ।
द्वैधभ्रमतमोध्वंससुप्रकृष्टप्रदीपकम् ॥ ११॥
एक बार वैकुण्ठ में मेरे, ब्रह्मा के तथा धर्म के पूछने पर भगवान् विष्णु ने जो कुछ कहा था, वहीं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! वह तत्त्वों का सारभूत, अज्ञानी-अन्धे के नेत्र और द्वैध भ्रम रूपी अंधकार का नाशक अत्यन्त प्रज्ज्वलित प्रदीप है ॥ १०-११ ॥

परमात्मस्वरूपं च परं ब्रह्म सनातनम् ।
सर्वदेहस्थितं साक्षिस्वरूपं देहि कर्मणाम् ॥ १२॥
सनातन परब्रह्म परमात्मस्वरूप है । वह समस्त देहों में स्थित और जीवों के कर्मों का साक्षी है ॥ १२ ॥

प्राणाः पञ्च स्वयं विष्णुर्मनो ब्रह्मा प्रजापतिः ।
सर्वज्ञानस्वरूपोऽहं शक्तिः प्रकृतिरीश्वरी ॥ १३॥
(सभी जीवों के) पाँचों प्राण स्वयं विष्णु, मन प्रजापति ब्रह्मा, समस्त ज्ञानस्वरूप मैं (शिव) और ईश्वरी प्रकृति शक्ति है ॥ १३ ॥

आत्माधीना वयं सर्वे स्थिते तस्मिन्वयं स्थिताः ।
गते गताश्च परमे नरदेवमिवानुगाः ॥ १४॥
राजा के अनुचरों की भांति हम सभी परमात्मा के अधीन हैं । शरीर में उसके स्थित रहने पर हम लोग स्थित रहते हैं और उस परम (महान् ) के चले जाने पर चले जाते हैं ॥ १४ ॥

जीवस्तत्प्रतिबिम्बं च सर्वभोगी हि कर्मणाम् ।
यथाऽर्कचन्द्रयोर्बिम्बं जलपूर्णघटेषु च ॥ १५॥
बिम्बं घटेषु भग्नेषु प्रलीनं चन्द्रसूर्ययोः ।
तथा लयप्रसङ्‍गे स जीवो ब्रह्मणि लीयते ॥ १६॥
जीव उसी परमात्मा का प्रतिबिम्ब है और कमों का भोग करता है । जैसे जलपूर्ण घट में सूर्य-चन्द्र का प्रतिबिम्ब दिखायी पड़ता है और घट के फूट जाने पर वह प्रतिबिम्ब चन्द्रमा और सूर्य में विलीन हो जाता है, उसी भांति प्रलय के समय जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है ॥ १५-१६ ॥

एकमेव परं ब्रह्म शेषे वत्स भवक्षये ।
वयं प्रलीनास्तत्रैव जगदेतच्चराचरम् ॥ १७॥
वत्स ! (महाप्रलय में) इस संसार के नष्ट हो जाने पर एक वही परब्रह्म शेष रह जाता है और हम सब तथा यह चचरमय सम्पूर्ण जगत् उसी में विलीन हो जाते हैं ॥ १७ ॥

तच्च ज्योतिःस्वरूपं च मण्डलाकारमेव च ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डकोटिकोटिसमप्रभम् ॥ १८॥
वह परब्रह्म ज्योतिःस्वरूप भण्टाका औ-मत के मध्याहमलनरोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण है ॥ १८ ॥

आकाशामिव विस्तीर्णं सर्वव्यापकमव्ययम् ।
सुखदृश्यं यथा चन्द्रबिम्बं योगिभिरेव च ॥ १९॥
आकाश की भांति विस्तृत, बधापर, अन्दर तथा योगियों को चन्द्रविम्ब की, गांति सूखभय दिखायी देता है ॥ १९ ॥

वदन्ति योगिनस्तत्तु परं ब्रह्म सनातनम् ।
दिवानिशं च ध्यायन्ते सत्यं तत्सर्वमङ्गःलम् ॥ २०॥
योगी लोग उसे सनातन परब्रह्म और दि.-27 मंगलमय सत्य स्वरूप का ध्यान करते रहते हैं ॥ २० ॥

निरीहं स निराकारं परमात्मानमीश्वरम् ।
स्वेच्छामयं स्वतन्त्रं च सर्वकारणकारणम् ॥ २१ ॥
वह निरीह (इच्छारहित), मिका पट्टीन), परमात्मा चार, स्वेच्छामय, स्वतन्त्र एवं समस्त कारणों का कारण है ॥ २१ ॥

परमानन्दरूपं च परमानन्दकारणम् ।
परं प्रधानं पुरुषं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥ २२॥
तत्रैव लीना प्रकृतिः सर्वबीजस्वरूपिणी ।
यथाऽग्नौ दाहिका शक्तिः प्रभा सूर्ये यथा मुने ॥ २३॥
यथा ददुग्धे च धावल्यं जले शैत्यं यथैव च ।
यथा शब्दश्च गगने यथा गन्धः क्षितौ सदा ॥ २४॥
परमानना , पर दाहारण, उत्तम प्रधान पुरुष, गुण (सत्त्व, रज, तम) से हीन और प्रकृति से परे है । प्रलय के नाम रस में लीनजस्वरुपिणी प्रकृति लीन होती है । ठीक उसी तरह जैसे अग्नि में उसकी दाहिका शक्ति, सूर्य प्रया, दुग्ब घालता और जल में शीतलता लीन रहती है । मुने ! जैसे आकाश में शब्द और पृथ्वी में गंध मंदारिद्यमान है उसी तरह निर्गुण ब्रह्म में निर्गुण प्रकृति सर्वदा स्थित है ॥ २२-२४ ॥

तथा हि निर्गुणं ब्रह्म निर्गुणा प्रकृतिस्तथा ।
सृष्ट्युन्मुखेन तद्‌बह्म चांशेन पुरुषः स्मृतः ॥ २५ ॥
वही ब्रह्मा, सृष्टि के समय अंश से पुरुष रूप होता है । वत्स ! उसी को सगुण, प्राकृत और विषयी कहा जाता है ! ॥ २५ ॥

स एव सगुणो वत्स प्राकृतो विषयी स्मृतः ।
त्रिगुणा सा हि तत्रैव परस्येच्छामयी स्मृता ॥ २६॥
उसी में त्रिगुण रूप वाली परा कृति गाशायामयी होकार रहती है ॥ २६ ॥

यथा मृदा कुलालश्च घटं कर्तुं क्षमं सदा ।
तथा प्रकृत्या तद्‍ब्रह्म सृष्टिं स्रष्टुं क्षमो मुने ॥ २७ ॥
मुने ! जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी द्वारा घड़े बनाने में सदैव समर्थ रहता है उसी भांति वह ब्रह्म प्रकृति द्वारा समस्त सृष्टि करने में समर्थ है ॥ २७ ॥

स्वर्णेन कुण्डलं कर्तुं स्वर्णकारो क्षमं यथा ।
तथा ब्रह्म तया सार्द्धं सृष्टिं कर्तुमिहेश्वरः ॥ २८ ॥
जिस प्रकार सुनार सुवर्ण द्वारा कुण्डल आदि (भषण) बनाने में सदैव समर्थ रहता है उसी भांति वह ब्रह्म प्रकृति द्वारा सृष्टि करने में समर्थ है ॥ २८ ॥

कुलालसृष्टा न च मृन्नित्या चैव सनातनी ।
न स्वर्णकारसृष्टं तत्स्वर्णं वा नित्यमेव च ॥ २९॥
कुम्हार की रचनोपयोगी मिट्टी न नित्य और न सनातनी (सदैव रहने वाली) है । उसी प्रकार सुवर्णकार का रचनोपयोगी सुवर्ण नित्य और सनातन नहीं है ॥ २९ ॥

नित्यं तत्परमं ब्रह्म नित्या च प्रकृतिः स्मृता ।
द्वयोः समं च प्राधान्यमिति केचिद्वदन्ति हि ॥ ३० ॥
किन्तु वह परब्रह्म और प्रकृति नित्य है, क्योंकि दोनों की प्रधानता समान है, ऐसा कुछ लोगों का कहना है ॥ ३० ॥

मृदं स्वर्णं समाहर्तुं कुलालस्वर्णकारकौ ।
न समर्थौ च मृत्स्वर्णं तयोराहरणे क्षमम् ॥३१ ॥
कुम्हार और सुनार स्वयं भिट्टी और सुवर्ण पैदावार के लाने में समर्थ नहीं है तथा मिट्टी और सुवर्ण भी कुम्हार और सुनार को ले जाने पर शक्ति नहीं रखते । अतः मिट्टी और कुम्हार को घट मैतथा सुवर्ण और सुनार की कुंडलमें समानरूप से प्रधानता है ॥ ३१ ॥

तस्मात्तत्प्रकृतेर्ब्रह्म परमेव च नारद ।
इति केचिद्वदन्त्येवं द्वयोर्वै नित्यता ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
गा ! अतः प्रकृति से ब्रह्म श्रेष्ठ है । इस अंकार कुछ लोग उन दोनों की निश्चित नित्यता बतलाते हैं ॥ ३२ ॥

केचिद्वदन्ति तद्‌ब्रह्म स्वयं च प्रकृतिः पुमान् ।
ब्रह्मातिरिक्तप्रकृतिर्वदन्तीति च केचन ॥ ३२ ॥
कुछ लोग कहते हैं कि वही ब्रह्म प्रकृति (स्त्री) और पुरुष दोनों होता है । कुछ लोग प्रकृति को ब्रह्म से अतिरिक्त मानते हैं ॥ ३३ ॥

तद्‌ब्रह्म परमं धाम सर्वकारणकारणम् ।
तद्‌ब्रह्मलक्षणं ब्रह्मन्निदं किंचिच्छ्रुतौ श्रुतम् ॥ ३४॥
यह ब्रह्म, पर चार, मस्त कारणों का कारण है । ब्रह्मन् ! उस ब्रह्म का लक्षण श्रुति में कुछ इस प्रकार सुना गया है ॥ ३४ ॥

ब्रह्म चाऽऽत्मा च सर्वेषां निर्लिप्तं साक्षिरूपि च ।
सर्वव्यापी च सर्वादि लक्षणं च श्रुतौ श्रुतम् ॥ ३५ ॥
वह प्रा समी का आत्मा, निलिप्त, साक्षिरूप, सर्वव्यापी एवं सब का आदिकारण है, वेद में ऐसा सुना है ॥ ३५ ॥

तद्‌ब्रह्म शक्तिः प्रकृतिः सर्वबीजस्वरूपिणी ।
यतस्तच्छक्तिमद्‌ब्रह्म चेदं प्रकृतिलक्षणम् ॥ ३६ ॥
सर्पजस्वरूपिणी प्रकृति उस ब्रह्म की शक्ति है । क्योंकि प्रकृति के लक्षण में 'ब्रह्म शक्तिमान् है ऐसा कहा गया है ॥ ३६ ॥

तेजोरूपं च तद्‌ब्रह्म ध्यायन्ते योगिनः सदा ।
वैष्णवास्तन्न मन्यन्ते मद्‌भक्ताः सूक्ष्मबुद्धयः ॥३७॥
उस ब्रह्म के उस तेजोरूप का सभी योगी सदैव ध्यान करते हैं । किन्तु सूक्ष्म बुद्धि वाले मेरे भक्त वैष्णवण ऐसा नहीं मानते ॥ ३७ ॥

तत्तेजः कस्य नाऽऽश्चर्यं ध्यायन्ते पुरुषं विना ।
कारणेन विना कार्यं कुतो वा प्रभवेद्‌भुवि ॥ ३८॥
बिना पुरुष के केवल उस तेज का ध्यान करना किसे आश्चर्य में नहीं डालता ? पृथ्वी पर बिना कारण के कार्य का होना कहाँ सम्भव है ? ॥ ३८ ॥

ध्यायन्ते वैष्णवास्तस्मात्तत्र रूपं मनोहरम् ।
स्वेच्छामयस्य पुंसश्च साकारस्याऽऽत्मनः सदा ॥ ३९ ॥
इसीलिए वैष्णवगण सदैव उसमें स्वेच्छामय पुरुष के मनोहर रूप का, जो परमात्मा का साकार रूप है, ध्यान किया करते हैं ॥ ३९ ॥

तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्यकोटिसमप्रभे ।
नित्य स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च ॥४० ॥
करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान पोमंडलाकार तेजःपुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छिपा हुआ है, जिसका नाम गोलोक है ॥ ४० ॥

लक्षकोट्यां योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।
रत्‍नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चाऽऽमृतं सदा ॥४१ ॥
वह मनोहर लोक बारों ओर से लक्षकोटि योजन विस्तृत है । सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्नों के सारतत्त्व से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपाङ्‌गनाओं से वह लोक भरा हुआ है । ॥ ४१ ॥

सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम् ।
नानारत्‍नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ॥४२ ॥
उसे सुखपूर्वक देखा जा सकता है । चन्द्रमंडल के समान ही वह गोलाकार है । रत्नेद्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है ॥ ४२ ॥

ऊर्ध्वं च नित्यं वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ॥४३ ॥
कामधेनुभिराकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
वृन्दावनवनाच्छन्नं विरजावेष्टितं मुने ॥४४॥
मुने ! इस प्रकार वह गोलोक उसी नित्य वैकुण्ठ बाम से पचास करोड़ योजन ऊपर है । वह गी, गोप, गोपी से युक्त, कल्पवृक्ष मदिन, कामधेनओं से भरा हुआ, रासमण्डल से सुशोभित, वृन्दावन नामक वन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है ॥ ४३-४४ ॥

शतशृङ्‍गैः शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम् ।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः ॥४५॥
शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम् ।
रत्‍नप्राकारपरिखाविचित्रेण विराजितम् ॥४६॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणं लक्षमन्दिरसुन्दरम् ।
आश्रमं चतुरस्रं च चन्द्रबिम्बाकृतं वरम् ॥४७॥
गोलोकमध्यदेशस्थमतीव सुमनोहरम् ।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम् ॥४८॥
कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः ॥४९॥
वहाँ सैकड़ों स्वर्णमय शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है । सुवर्ण-निर्मित लक्ष कोटि मनोहर आश्रम हैं, जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यन्त दीप्तिमान एवं श्रीसम्पन्न दिखाई देता है । उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है, जो अकेला ही सौ मंदिरों से युक्त है । वह रत्नों के बने विचित्र पफोटो तथा खाइयों से सुशोभित हैं । उसका अमल्य रत्नों से निर्माण हुआ है । वह लाखों मन्दिर के समान सुन्दर है, वह आधग चौकोर है । चन्द्रबिम्ब के सभान उसका आकार है । वह गोलोक के मध्य देश में अवस्थिा एवं अत्यन्त सन्दर है । वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात वनों से सुशोभित है । उप आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं, उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है । इसलिए उत्तम ज्योतिः पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं । हीरा के सारभाग से बनीं उनकी सीढ़ियाँ अत्यन्त सुन्दर हैं ॥ ४५-४९ ॥

मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः ।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम् ॥५०॥
षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्‍नदीपकैः ।
रत्‍नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ॥५१॥
नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम् ।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् ॥ ५२॥
मणियों के तत्त्व भाग के बने किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं । अनेक भांति के चित्रविचित्र उपकरणों से वह आश्रम अत्यन्त सुसज्जित है उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नों के दीपकों से अत्यन्त प्रदीप्त हैं । उस आश्रम में अत्यन्त अमूल्य मणियों का बना एक रत्नखचित रमणीय सिंहासन है । उस पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं । उनकी अंग-कान्ति नवीन मेघमाला के समान श्याम है । वे किशोरावस्था के बालक हैं ॥ ५०-५२ ॥

शरन्मध्यान्हामार्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।
शतपार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम् ॥५३॥
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम् ॥५४॥
सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम् ॥५५॥
उनक, जाँखों से शरत् ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान प्रभा निकलती रहती है और उनका मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति शभ किरणों से युक्त है । उनका सौन्दर्य कोटि कन्दर्पोंकी लावण्यलीला को तिरस्कृत कर रहा है । उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है । उनके मुख पर मुसकराहट खेलती रहती है । उनके हाथ में मुरली शोमा पाती है । उनकी मनोहर छवि अत्यन्त प्रशंसनीय है । वे परम मंगलमय हैं । अग्नि में तपाकर शुद्ध किए गए सुवर्ण के समान रंग वाले दो पीताम्बर धारण करने से उनका श्रीविग्रह परम उज्जवल प्रतीत होता है ॥ ५३-५५ ॥

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं कौस्तुभेन विराजितम् ।
आजानुमालतीमालावनमालाविभूषितम् ॥५६॥
उनके सम्पूर्ण अंग चन्दन-चचित, कौस्तुभमणि से सुशोभित तथा जानु (घुटनों) तक लटकती हुई मालतीमाला और वनमाला से विभूषित हैं ॥ ५६ ॥

त्रिभङ्गभङ्ग्यसंयुक्तं मणिमाणिक्यभूषितम् ।
मयूरपुच्छचूडं च सद्‌रत्‍नमुकुटोज्ज्वलम् ॥५७॥
रत्‍नकेयूरवलयरत्‍नमञ्जीररञ्जितम् ।
रत्‍नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलसुशोभितम् ॥५८॥
त्रिभंगी छवि से युक्त और मणियों से अलंकृत हैं । मोरपंख का मुकुट धारण करते हैं । उत्तम रत्नमय मुकुट से उनका मस्तक जगमगाता रहता है । रत्नों के बाजूबन्द, कंगन और मंजीर से उनके हाथ-पैर सुशोभित हैं । उनके गंडस्थल रत्नमय युगल कुंडल से सुशोभित हैं ॥ ५७-५८ ॥

मुक्तापङ्‍क्तिसदृक्षामदशनं सुमनोहरम् ।
पक्वबिम्बाधरोष्ठं च नासिकोन्नतिशोभनम् ॥५९॥
दीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिः समन्ततः ।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम् ॥६०॥
मोतियों की पंक्ति के समान कान्तिपूर्ण उनके दाँत अत्यन्त मनोहर हैं । पके हुए बिम्बफल के समान उनके ओट हैं । उनकी उन्नत नासिका अत्यन्त सुन्दर है । चारों ओर से घेरकर मंद मुसकान करती हुई गोपिकाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती हैं । वे गोपियाँ स्थिर यौवन से युक्त, मंद मुसकान से सुशोभित तथा उत्तम रत्नों के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं ॥ ५९-६० ॥

भूषिताभिश्च सद्‌रत्‍ननिर्मितैर्भूषणैः परम् ।
सुरेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च मुनिभिर्मानवेन्द्रकैः ॥६१॥
ब्रह्मविष्णुशिवानन्तधर्माद्यैर्वन्दितं मुदा ।
भक्तप्रियं भक्तनाथं भक्तानुग्रहकारकम् ॥६२॥
ऐसे उन परब्रह्म की मुनीन्द्र, सुरेन्द्रः मुनि, मानवेन्द्र तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं अनन्त धार्मिकजन सदा वंदना किया करते हैं । वे भक्तों के प्रिय, भक्तों के नाथ और भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले हैं ॥ ६१-६२ ॥

रासेश्वरं सुरसिकं राधावक्षःस्थलस्थितम् ।
एवं रूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः ॥६३॥
मुने ! इस प्रकार उस रासेश्वर, अत्यन्त रसिक, राधा जी के वक्षःस्थल पर विराजमान निराकार परमात्मा का वैष्णव गण सदैव ध्यान करते हैं ॥ ६३ ॥

सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ॥६४॥
वही परमात्मा, ईश्वर हम लोगों के ध्येय हैं, उन्हीं को अविनाशी, परब्रह्म एवं सनातन भगवान् कहा गया है ॥ ६४ ॥

स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च ॥६५॥
सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ॥६६॥
गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः ।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ॥६७॥
सर्वान्तरात्मा सर्वत्र प्रत्यक्षः सर्वगः स्मृतः ।
कृषिश्च सर्ववचनो नकारश्चाऽऽत्मवाचकः ॥६८॥
वे स्वेच्छामय निर्गुण, निरीह, प्रकृति से परे, समस्त का आधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ, सब कुछ, सर्वेश्वर, सब के पूज्य, समस्त सिद्धियों के प्रदाता हैं । वही एकमात्र भगवान् हैं, जो गोलोक में द्विभुज होकर गोपवेश में स्वयं रहते हैं । गोपाल पार्षदों से घिरे हुए वे परिपूर्णतम, श्रीकृष्ण, श्रीमान् राधिकेश्वर, सब के अन्तरात्मा, सब स्थानों में प्रत्यक्ष होने योग्य और सर्वगामी हैं । (कृष्ण शब्द में) कृष् शब्द का समस्त और नकार का आत्मा अर्थ है इसीलिए वे सर्वात्मा परब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं ॥ ६५-६८ ॥

सर्वात्मा च परं ब्रह्म तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।
कृषिश्च सर्ववचनो नकारश्चाऽऽदिवाचकः ॥६९॥
सर्वादिपुरुषो व्यापी तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।
स एवांशेन भगवान्वैकुण्ठे च चतुर्भुजः ॥७०॥
चतुर्भुजैः पार्षदैस्तैरावृतः कमलापतिः ।
स एव कलया विष्णुः पाता च जगतां प्रभुः ॥७१॥
श्वेतद्वीपे सिन्धुकन्यापतिरेव चतुर्भुजः ।
एतत्ते कथितं सर्वं परब्रह्मस्वरूपकम् ॥७२॥
अस्माकं चिन्तनीयं च सेव्यं वन्दितमीप्सितम् ।
इत्युक्त्वा शंकरस्तत्र विरराम च शौनक ॥७३॥
कृष् का अर्थ आदि और नकार का अर्थ आत्मा है । इसलिए वे सर्वव्यापी परमेश्वर सब के आदिपुरुष हैं । वही भगवान् अपने अंश से चतुर्भुज होकर वैकुण्ठ में चार भुजाओं वाले पार्षदों समेत लक्ष्मीपति रूप से निवास करते हैं । वही अपनी कला (अंश) मात्र से विष्णु होकर समस्त जगत् की रक्षा करते है और श्वेतद्वीप में सिन्धुकन्या लक्ष्मी के पति होकर चार भुजाओं से स्थित हैं । इस प्रकार मैंने परब्रा का स्वरूप सभी प्रकार से तुम्हें बता दिया, जो हम लोगों के चिन्तनीय, सुसेवा के योग्य और प्रिय एवं स्मरणीय है । शौनक ! इतना कह कर शंकर चुप हो गए ॥ ६९-७३ ॥

गन्धर्वराजस्तोत्रेण तुष्टुवे तं च नारदः ।
मुनिस्तोत्रेण संतुष्टो भगवानादिरच्युतः ॥७४॥
ज्ञानं मृत्युंजयस्तस्मै प्रददौ वरमीप्सितम् ।
मुनीन्द्रस्तं संप्रणम्य प्रहृष्टवदनेक्षणः ॥७५॥
तदाज्ञया पुण्यरूपं ययौ नारायणाश्रमम् ॥७६॥
तव नारद ने गन्धर्वराज द्वारा रचे गए स्तोत्र से उनकी पुनः स्तुति की । उपरान्त आदि भगवान् अच्युत मृत्युंजय (शिव) ने मुनि के उस स्तोत्र से प्रसन्न होकर उन्हें मनोवांछित उत्तम ज्ञान प्रदान किया । और मुनीन्द्र नारद ने अपने प्रसन्न मुख तथा नेत्र द्वारा अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए उन्हें प्रणाम किया । पश्चात् उनकी आज्ञा से नारद उस पुण्य रूप नारायणाश्रम की ओर चले गए ॥ ७४-७६ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मस्वरूपवैकुण्ठादिवर्णनं नारदप्रस्थानं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥२८॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुरण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्मस्वरूप एवं वैकुण्ठादिवर्णन समेत नारदप्रस्थान नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २८ ॥

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