Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - एकोनत्रिंशोऽध्यायः


नारायणं प्रति नारदप्रश्नः -
बदरिकाश्रम में नारायण से नारद का प्रश्न -


सौतिरुवाच
ददर्शाऽऽश्रममाश्चर्यं देवर्षिर्नारदस्तथा ।
ऋषेर्नारायणस्यैव बदरीवनसंयुतम् ॥ १॥
नानावृक्षलताकीर्णं पुंस्कोकिलरुतश्रुतम् ।
शरभेन्द्रैः केसरीन्द्रैर्व्याघ्रौघैः परिवेष्टितम् ॥२॥
सोति बोले-देवर्षि नारद ने ऋषि नारायण के आश्चर्यमय आश्रम को देखा, जो बदरी (बेर) के वन से युक्त, अनेक भाँति के वृक्ष एवं फलों से व्याप्त, कोकिल की मधुर कुक से कूजित, मृगों, सिंहों और व्याघ्र-समूहों से घिरा हुआ था ॥ १-२ ॥

ऋषीन्द्रस्य प्रभावेण हिंसाभयविवर्जितम् ।
महारण्यमगम्यं च स्वर्गादपि मनोहरम् ॥३॥
किन्तु ऋषीन्द्र नारायण के प्रभाव से वह स्थान हिंसा और भय से रहित था । इस प्रकार यह अगम्य महावन स्वर्ग से भी मनोहर दिखायी देता था ॥ ३ ॥

(त्रिषष्टिकोटिसिद्धौघैरावृतं सूर्यवर्चसम् ।
ऋषीन्द्राणां च पञ्चाशत्कोटिभिश्चान्वितं मुदा ॥
विद्याधराणां नृत्यं तत्पश्यन्तं सस्मितं द्विज ।
गन्धर्वकृष्णसंगीतं श्रुतवन्तं मनोहरम् ॥)
सिद्धेन्द्राणां मुनीन्द्राणामाश्रमाणां त्रिकोटिभिः ।
आवृतं चन्दनारण्यंः पारिजातवनान्वितम् ॥४॥
वह तिरसठ करोड़ सिद्धों तथा पचास करोड मुनीन्द्रों से सुसेवित था ॥ ४ ॥

ददर्श तमृषीन्द्रं च सभामध्ये मनोहरम् ।
रत्‍नसिंहासनस्थं च वसन्तं योगिनां गुरुम् ॥५॥
जपन्तं परमं ब्रह्म कृष्णमात्मानमीश्वरम् ।
प्रणनाम च तं दृष्टा ब्रह्मपुत्रश्च शौनक ॥६॥
द्विज ! विद्याधरों के नृत्य को देखते हुए तथा मुसकराते हुए ऋषीन्द्र नारायण को देखा, जो मन्पर्व-के संगीत को सुनने वाले तथा मनोहर थे । वहां तीन करोड़ सिझेन्द्रों एवं नीन्द्रों के साथ थे । वह पन्दना तथा पारिजात के वनों से घिरा हुआ था । इस प्रकार उस आश्रम में सभा के मध्य एक रत्नसिंहासन पर विराजमान उन ऋषीन्द्र को देखा, जिनका रूप मनोहर था और जो योगियों के गुरु थे । शौनक ! श्रीकृष्णस्वरूप परब्रह्म परमात्मा का जप करते हुए नारायण मुनि को देखकर ब्रह्मपुत्र नारद ने उन्हें प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥

उत्थाय सहसाऽऽलिङ्ग्य युयुजे परमाशिषम् ।
प्रपच्छ कुशलं स्नेहाच्चकारातिथिपूजनम् ॥७॥
अनन्तर ऋषि ने उठ कर सहसा उनका आलिंगन किया और उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया । पुनः स्नेहवश कुशल पूछ कर उनका अतिथिसत्कार किया ॥ ७ ॥

रत्‍नसिंहासने रम्ये वासयामास नारदम् ।
निवसन्नासने रम्ये वर्त्मश्रमविवर्जितः ॥८॥
उन्होंने उस रमणीक रत्नसिंहासन पर नारद को भी बैठाया, जिस पर बैठने से नारद का मार्गश्रम दूर हो गया ॥ ८ ॥

उवाच तमृषिश्रेष्ठं भगवन्तं सनातनम् ।
अधीत्य वेदान्सर्वाश्च पितुः स्थाने सुदुर्गमान् ॥९॥
ज्ञानं संप्राप्य योगीन्द्रान्मन्त्रं वै शंकराद्विभो ।
मनोमे नहि तृप्नोति दुर्निवारं च चञ्चलम् ॥ १०॥
पश्चात् नारद ने ऋषिश्रेष्ठ सनातन भगवान् से कहा--विभो ! पिताजी से उन अत्यन्त दुर्गम वेदों का अध्ययन तथा योगीन्द्र शंकर जी से ज्ञान और मन्त्र प्राप्त कर लेने पर भी मेरे मन को तृप्ति नहीं हो रही है, क्योकि यह मन अत्यन्त दुनिवार और चंचल है ॥ ९-१० ॥

दृष्टं मया त्वत्पदाब्जं मनसा प्रेरितेन च ।
किंचिज्ज्ञानविशेषं च लब्धुमिच्छामि सांप्रतम् ॥ ११॥
यत्र कृष्णगुणाख्यानं जन्ममृत्युजरापहम् ॥ १२॥
इसीलिए मन से प्रेरित होकर मैने आपके चरणकमल का दर्शन किया है । अब मुझे कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो रही है, जिसमें जन्म, मृत्यु एवं जरा के विनाशक भगवान् श्रीकृष्ण का गुणानुवर्णन किया गया हो ॥ ११-१२ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवाद्याश्च सुरेन्द्राश्च सुरा विभो ।
कं चिन्तयन्ति मुनयो मनवश्च विचक्षणाः ॥ १३॥
विभो ! ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि सुरेन्द्र, देवगण तथा बुद्धिमान् गुनिगण तथा मनुगण किसका चिन्तन करते हैं ? ॥ १३ ॥

कस्मात्सृष्टिश्च भवति कुत्र वा संप्रलीयते ।
को वा सर्वेश्वरो विष्णुः सर्वकारणकारकः ॥ १४॥
तस्येश्वरस्य किं रूपं कर्म वा किं जगत्पते ।
विचार्य मनसा सर्वं तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥ १५॥
सृष्टि किससे उत्पन्न होकर किसमें विलीन हो जाती है ? कौन सब का ईश्वर, विष्णु एवं समस्त कारणों का कारण है ? जगत्पते ! उस ईश्वर का रूप और कर्म मन से विचार कर आप मुझे बताने की कृपा करें ॥ १४-१५ ॥

नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य भगवानृषिः ।
कथां कथितुमारेभे पुण्यां भुवनपावनीम् ॥ १६॥
नारद की बातें सुन कर भगवान् ऋषि ने हँसकर विभुवनपावनी पुण्य कथा को कहना आरम्भ किया ॥ १६ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे
नारायणं प्रति नारदप्रश्नो नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥२९॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में नारद-प्रश्न-नामक उन्तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २९ ॥

GO TOP