![]() |
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - त्रिंशोऽध्यायः भगवत्स्तुतितत्स्वरूयमायास्वरूपवर्णनम् -
परमात्मा श्रीकृष्ण तथा प्रकृति की महिमा का वर्णन - श्रीनारायण उवाच लम्बोदरो हरिरुमापतिरादिशेष- ब्रह्मादयः सुरगणा मनवो मुनीन्द्राः वाणीशिवात्रिपथगाकमलादिकाश्च संचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ १॥ श्रीनारायण बोले-गणेश, विष्ण, शिव, आदि शेष तथा ब्रह्मा आदि देवगण, मन, मुनीन्द्रवृन्द, सरस्वती, गौरी, गंगा और कमला आदि देवियों भी जिन भगवान के चरण-कमल का चिन्तन करती हैं, उन भगवान् का चिन्तन करना सबका कर्तव्य है ॥ १ ॥ संसारसागरमतीव गभीरघोरं दावाग्निसर्पपरिवेष्टितचेष्टिताङ्गम् । संलङ्घ्य गन्तुमभिवाञ्छति यो हि दास्यं संचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम् ॥२॥ जो गम्भीर और घोर इस संसार-सागर को, जिसका अंग दावाग्निरूपी सों से घिरा है, पार करना चाहता है, वह दास्य भाव से भगवान् के चरण-कमल की चिन्तना करे ॥ २ ॥ गोवर्धनोद्धरणकीर्तिरतीवखिन्ना भूर्धारिता च दशनाग्रत एव चाऽऽर्द्रा । विश्वानि लोमविवरेषु बिभर्तुरादेः संचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम् ॥३॥ गोवर्द्धन का उद्धार करने वाले भगवान् ने इस दीनमुली पृथिवी को अपने दांतों के अग्र भाग पर रख कर इसका उद्धार किया था और (जीवों के) भरण-पोषण करने वाले उन आदि देव के लोमविवरों में अनेक विश्व निहित हैं । ऐसे भगवान् के चरणकमल का स्मरण अवश्य करना चाहिए ॥ ३ ॥ वेदाङ्गवेदमुखनिःसृतकीर्तिरंशै- र्वेदाङ्गवेदजनकस्य हरेर्विधातुः । जन्मान्तकादिभयशोकविदीर्णदेहः संचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम् ॥४॥ (शिक्षा, कल्प आदि) छहों वेदांग और वेदगण अपने मुख से जिसकी कीर्ति का सदैव वर्णन करते हैं तथा जो अपने अंश से वेदांग-सहित वेद के उत्पादक हैं, ऐसे विधाता भगवान् हरि के चरण-कमलों का स्मरण वह व्यक्ति करे जिसका शरीर जन्म-मरण आदि के भय और शोक से विदीर्ण हो गया है ॥ ४ ॥ गोपाङ्गनावदनपङ्कजषट्पदस्य रासेश्वरस्य रसिकारमणस्य पुंसः । वृन्दावने विहरतो व्रजवेषविष्णोः सचिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम् ॥५॥ जो गोपियों के मुखकमल के भ्रमर हैं और वृन्दावन में विहार करते हैं, उन व्रजवेषधारी, विष्णुरूप परम पुरुष, रसिकरमण, रासेश्वर श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का चिन्तन करना चाहिए ॥ ५ ॥ चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः । त्वं चापि नारदमुने परमादरेण संचिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ॥६॥ जिनके नेत्रों की पलक गिरने पर जगद्विधाता ब्रह्मा की आयु समाप्त हो जाती है उनके कर्म का वर्णन करने में भूतल पर कौन समर्थ है ? इसलिए नारद मुने ! तुम भी परम आदर से उसी भगवान् के चरण-कमल का चिन्तन करो ॥ ६ ॥ यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः । कलाविशेषा भवपाद्ममुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः ॥७॥ तुम लोग और हम लोग सभी उन भगवान् की कला के अंशमात्र हैं । उसी प्रकार मनुगण तथा संसारपारगामी मुख्य मुनिगण भी उनकी कला के कलांश ही हैं । महादेव और ब्रह्मा भी कलाविशेष हैं और महान् विराट् पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं ॥ ७ ॥ सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम्। कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ॥८॥ सहस्र सिरों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं, परन्तु कर्म के पृष्ठ भाग में वे शेषनाग ऐसे जान पड़ते हैं मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठा हो । वे भगवान् कूर्म श्रीकृष्ण की कला के अंशमात्र हैं ॥ ८ ॥ गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किंचन स्फुटम् । न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्मपुत्र ॥९॥ अतः उस व्यापक एवं गोलोक नाथ के निर्मल यश का वर्णन वेद एवं पुराण में किंचिन्मात्र भी प्रकट नहीं हुआ । ब्रह्मा आदि मुख्य देवगण भी उसके वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सके । इसलिए उसी सर्वेश्वर एवं मुख्य देव की आराधना करो ॥ ९ ॥ विश्वेषु सर्वेषु च विश्वधाम्नः सन्त्येव शश्वद्विधिविष्णुरुद्राः । तेषां च संख्याः श्रुतयश्च देवाः परं न जानन्ति तमीश्वरं भज ॥ १०॥ उस विश्वधाम भगवान् के सभी विश्वों में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश निरन्तर स्थित रहते हैं, उनकी संख्याएँ वेद तथा देवगण नहीं जानते हैं । अतः उस परमेश्वर की सेवा करो ॥ १० ॥ करोति सृष्टिं स विधेर्विधाता विधाय नित्यां प्रकृतिं जगत्प्रसूम् । ब्रह्मादयः प्राकृतिकाश्च सर्वे भक्तिप्रदां श्रीं प्रकृतिं भजन्ति ॥ ११॥ वही परमेश्वर ब्रह्मा की सृष्टि करते हैं और वे ब्रह्मा जगत् को उत्पन्न करनेवाली उस नित्य प्रकृति की रचना करके सृष्टि करते हैं । इसीलिए ब्रह्मा आदि देवगण और प्राकृतिक मनुष्य सभी, उस भक्तिप्रद की प्रकृति की आराधना करते हैं ॥ ११ ॥ ब्रह्मस्वरूपा प्रकृतिर्न भिन्ना यया च सृष्टिं कुरुते सनातनः । स्त्रियश्च सर्वा कलया जगत्सु माया च सर्वे च तया विमोहिताः ॥ १२॥ वह ब्रह्मस्वरूपा प्रकृति ब्रह्म से भिन्न नही है । वे सनातन भगवान् उस प्रकृति द्वारा सृष्टि करते हैं । उसी प्रकृति की कला से संसार की सारी स्त्रियाँ प्रकट हुई हैं । प्रकृति ही माया है । उससे सब विमोहित हैं ॥ १२ ॥ नारायणी सा परमा सनातनी शक्तिश्च पुंसः परमात्मनश्च । आत्मेश्वरश्चापि यया च शक्तिमां- स्तया विना स्रष्टुमशक्त एव ॥ १३॥ वह सनातनी नारायणी, परमात्मा पुरष की परमा शक्ति है, जिससे वे आत्मेश्वर शक्तिमान् कहे जाते हैं, और उस (माया) के बिना वे सृष्टि करने में असमर्थ भी रहते हैं ॥ १३ ॥ गत्वा विवाहं कुरु वत्स सांप्रतं कर्तुं प्रयुक्तश्च पितुर्निदेशः । गुरोर्निदेशप्रतिपालको भवेः सर्वत्र पूज्यो विजयी च संततम् ॥ १४॥ बत्रा ! इस समय तुम पिता की आज्ञा का पालन रूप विवाह अवश्य करो, क्योंकि गुरु की आज्ञा का पालन करने से तुम सर्वन सदेव पूज्य और विजयी बने रहोगे ॥ १४ ॥ स्वपत्नीं पूजयेद्यो हि वस्त्रालंकारचन्दनैः । प्रकृतिस्तस्य संतुष्टा यथा कृष्णो द्विजार्चने ॥ १५॥ क्योंकि जो अपनी पत्नी का वस्त्र आभूषण और चन्दनों द्वारा पूजा (सम्मान) करता है, उस पर वह प्रकृति उसी तरह परम प्रसन्न होती है जैसे ब्राह्मण की अर्चना करने पर भगवान कृष्ण ॥ १५ ॥ सा च योषित्स्वरूपा च प्रतिविश्वेषु मायया । योषितामपमानेन पराभूता च सा भवेत् ॥१६॥ इस प्रकार प्रत्येक विश्व में वह माया स्त्री रूप से विद्यमान है । इसलिए स्त्री का अपमान करने से वह अपमानित होती है ॥ १६ ॥ दिव्या स्त्री पूजिता येन पतिपुत्रवती सती । प्रकृतिः पूजिता तेन सर्वमङ्गलदायिनी ॥ १७॥ इसलिए पतिपुत्रवाली दिव्य स्त्री की जिसने पूजा की उसने मानों सर्वमंगलप्रदा प्रकृति की पूजा की है ॥ १७ ॥ मूलप्रकृतिरेका सा पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी । सृष्टौ पञ्चविधा सा च विष्णुमाया सनातनी ॥ १८॥ पूर्णब्रह्मस्वरूप वाली वह मूल प्रकृति एक ही है किन्तु वह विष्णु की सनातनी माया सृष्टि के समय पाँच रूपों में प्रकट होती हैं । ॥ १८ ॥ प्राणाधिष्ठातृदेवी या कृष्णस्य परमात्मनः । सर्वासां प्रेयसी कान्ता सा राधापरिकीर्तिता ॥ १९॥ इस मांति भगवान् कृष्ण के प्राणों की उस अधिष्ठात्री देवी को, जो समस्त प्रकृतियों में उन्हें सबसे अधिक प्रिय हैं, 'राधा' कहा गया है ॥ १९ ॥ नारायणप्रिया लक्ष्मीः सर्वसंपत्स्वरूपिणी । वागधिष्ठातृदेवी या सा च पूज्या सरस्वती ॥२०॥ समस्त सम्पत्तियों का रूप धारण करने वाली लक्ष्मी, जो नारायण की प्रिया हैं , दूसरी प्रकृति हैं एवं वाणी की अधिष्ठात्री देवी पूज्या सरस्वती तीसरी प्रकृति हैं ॥ २० ॥ सावित्री वेदमाता च पूज्यरूपा विधेः प्रिया । शंकरस्य प्रिया दुर्गा यस्याः पुत्रो गणेश्वरः ॥२१॥ ब्रह्मा की प्रिया वेदमाता सावित्री चौथी और शंकर की प्रिया दुर्गा, जिनके पुत्र गणेश हैं । पांचवीं प्रकृति हैं ॥ २१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे भगवत्स्तुतितत्स्वरूयमायास्वरूपवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥३०॥ ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में भगवत्स्तुति, तत्स्वरूप एवं मायास्वरूप वर्णन नामक तीसवां अध्याय समाप्त ॥ ३० ॥ ब्रह्मखंड समाप्त । |