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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - प्रथमोऽध्यायः भगवत्स्तुतितत्स्वरूयमायास्वरूपवर्णनम् -
प्रकृति तथा उसके अंश आदि का वर्णन - नारद उवाच गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती । सावित्री वै सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता ॥ १ ॥ नारद बोले--गणेश की माता दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री--ये पाँच देवियों प्रकृति कहलाती हैं। इन्हीं पर सृष्टि निर्भर है ॥ १ ॥ आविर्बभूव सा केन का वा सा ज्ञानिनां वरा । किंवा तल्लक्षणं ब्रूहि साऽभवत्पञ्चधा कथम् ॥ २ ॥ ज्ञानियों में श्रेष्ठ वह प्रकृति किसके द्वारा उत्पन्न होती है ? उसका रूप क्या है ? उसका लक्षण क्या है ? और वह पांच प्रकार की कैसे होती है ? इसे बताने की कृपा करें ॥ २ ॥ सर्वासां चरितं पूजाविधानं कथमीप्सितम् । अवतारं कुत्र कस्यास्तन्मां व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥ तथा उन सब का चरित और पूजा का विधान, उनकी इच्छा और किसका कहाँ अवतार हुआ है यह भी बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥ नारायण उवाच प्रकृतेर्लक्षणं वत्स को वा वक्तुं क्षमो भवेत् । किंचित्तथाऽपि वक्ष्यामि यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रतः ॥ ४ ॥ नारायण बोले-वत्स ! प्रकृति का लक्षण कहने में कौन समर्थ हो सकता है। तो भी जो कुछ धर्म के मुख से मैंने सुना है उसे तुम्हें बता रहा हूँ ॥ ४ ॥ प्रकृष्टवाचकः प्रश्च कृतिश्च सृष्टिवाचकः । सृष्टौ प्रकृष्टा या देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता ॥ ५ ॥ (प्रकृति शब्द में) प्र का अर्थ है 'प्रकृष्ट' और कृति का अर्थ है 'सृष्टि'। अतः सृष्टि करने में प्रकृष्ट गुण सम्पन्न होने वाली देवी को 'प्रकृति' कहा गया है ॥ ५ ॥ गुणे प्रकृष्टसत्त्वे च प्रशब्दो वर्तते श्रुतौ । मध्यमे कृश्च रजसि तिशब्दस्तमसि स्मृतः ॥ ६ ॥ वेद में प्रशब्दका प्रकृष्ट सत्त्वगुण अर्थ बताया गया है, कृ शब्द का मध्यम रजोगुण और ति शब्द का तमोगुण अर्थ कहा है ॥ ६ ॥ त्रिगुणात्मस्वरूपा या सर्वशक्तिसमन्विता । प्रधाना सृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेनकथ्यते ॥ ७ ॥ इस प्रकार त्रिगण स्वरूप वाली सर्वशक्तिमती को सृष्टि में प्रधान होने के नाते 'प्रकृति' कहा गया है ॥ ७ ॥ प्रथमे वर्तते प्रश्च कृतिः स्यात्सृष्टिवाचकः । सृष्टेराद्या च या देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता ॥ ८ ॥ प्रथम अर्थ में प्रशब्द और सृष्टि अर्थ में कृति शब्द का प्रयोग होता है । अतः सृष्टि की आदि देवी को 'प्रकृति' कहते हैं । ॥ ८ ॥ योगेनाऽऽत्मा सृष्टिविधौ द्विधारूपोबभूवसः । पुमांश्च दक्षिणार्धाङ्गो वामाङ्गःप्रकृतिः स्मृतः ॥ ९ ॥ सृष्टि विधान काल में यह परब्रह्म योग द्वारा दो रूपों में प्रकट होते हैं । उनके दाहिने अंग से उत्पन्न होने वाले को 'पुरुष' और बायें अंग से उत्पन्न होने वाली को 'प्रकृति' कहते हैं ॥ ९ ॥ सा च ब्रह्मस्वरूपा स्यान्माया नित्या सनातनी । यथाऽऽत्मा च तथा शक्तिर्यथाऽग्नौ दाहिका स्मृता ॥ १० ॥ वह ब्रह्मस्वरूपा माया जो नित्य और सनातनी' है, वह अग्नि में दाहिका शक्ति की भांति आत्मा की शक्तिरूप है ॥ १० ॥ अत एव हि योगीन्द्रः स्त्रीपुंभेदं न मन्यते । सर्वं ब्रह्ममयं ब्रह्मञ्छश्वत्पश्यति नारद ॥ ११ ॥ नारद ! इसीलिए योगीन्द्र लोग स्त्रीपुरुष का भेद नहीं मानते हैं । वे सबको निरन्तर ब्रह्ममय देखते हैं ॥ ११ ॥ स्वेच्छामयस्येच्छया च श्रीकृष्णस्य सिसृक्षया । साऽविर्बभूव सहसा मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ १२ ॥ ब्रह्मन् ! वह ईश्वरी मूल प्रकृति स्वेच्छा. मय भगवान् श्रीकृष्ण की सृष्टि करने वाली इच्छा द्वारा सहसा प्रकट हुई है ॥ १२ ॥ तदाज्ञया पञ्चविधा सृष्टिकर्मणि भेदतः । अथ भक्तानुरोधाद्वा भक्तानुग्रहविग्रहा ॥ १३ ॥ अतः उनकी आज्ञा से सृष्टिकर्म में वह पाँच प्रकार का रूप धारण करती है, अथवा भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिए या भक्तों के अनुरोध से भगवती प्रकृति विविध रूप धारण करती है ॥ १३ ॥ गणेशमाता दुर्गा या शिवरूपा शिवप्रिया । नारायणी विष्णुमाया पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी ॥ १४ ॥ ब्रह्मादिदेवैर्मुनिभिर्मनुभिः पूजिता सदा । सर्वाधिष्ठातृदेवी सा ब्रह्मरूपा सनातनी ॥ १५ ॥ यशोमङ्गलवर्मश्रीसत्यपुण्यप्रदायिनी । मोक्षहर्षप्रदात्रीयं शोकदुःखार्तिनाशिनी ॥ १६ ॥ गणेश की माता दुर्गा, शिव (कल्याण) रूपा और शिव की प्रिया हैं । उस पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी, नारायणी, विष्णु की माया का ब्रह्मादि देवगण, मुनिगण और मनुगण सदैव पूजन करते रहते हैं, वह सब की अधिष्ठात्री देवी एवं सनातनी ब्रह्मरूपा है । वह यश, मङगल, धर्म, श्री, सत्य, पुण्य, मोक्ष एवं हर्ष प्रदान करने वाली शोक-दुःख का नाश करने वाली है ॥ १४-१६ ॥ शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणा । तेजःस्वरूपा परमा तदधिष्ठातृदेवता ॥ १७ ॥ शरण में आये हुए दीनों की रक्षा में सदा संलग्न रहती है । वह परम तेजःस्वरूपा है । उसे तेज की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है ॥ १७ ॥ सर्वशक्तिस्वरूपा च शक्तिरीशस्य संततम् । सिद्धेश्वरी सिद्धरूपा सिद्धिदा सिद्धिदेश्वरी ॥ १८ ॥ वह सर्वशक्तिस्वरूपा है तथा शंकर को नित्य शक्ति प्रदान करती है । वह सिद्धेश्वरी, सिद्धिरूपा, सिद्धि देने वाली और सिद्धि देने वाले की अधीश्वरी है ॥ १८ ॥ बुद्धिर्निद्रा क्षुत्पिपासा छाया तन्द्रा दया स्मृतिः । जातिः क्षान्तिश्च शान्तिश्च कान्तिर्भ्रान्तिश्च चेतना ॥ १९ ॥ तुष्टिः पुष्टिस्तथा लक्ष्मीर्वृत्तिर्माता तथैव च । सर्वशक्तिस्वरूपा सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ २० ॥ बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति शान्ति, कान्ति, भ्रान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, वृत्ति तथा माता नाम से प्रसिद्ध देवियाँ परमात्मा कृष्ण की सर्वशक्ति स्वरूपा प्रकृति हैं ॥ १९-२० ॥ उक्तः श्रुतौ श्रुतगुणश्चातिस्वल्पो यथाऽऽगमम् । गुणोऽस्त्यनन्तोऽनन्ताया अपरां च निशामय ॥ २१ ॥ श्रुति में इनके सुविख्यात गुण का अत्यन्त संक्षेप से वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमों में उपलब्ध होता है । ये अनन्ता हैं । अतएव इनमें गुण भी अनन्त हैं । अब इनके दूसरे रूप का वर्णन सुनो ॥ २१ ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा या पद्मा च परमात्मनः । सर्वसंपत्स्वरूपा या तदधिष्ठातृदेवता ॥ २२ ॥ परमात्मा विष्णु की शक्ति पद्मा शुद्ध सत्त्व स्वरूपा, समस्त सम्पत्ति स्वरूपा तथा सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ २२ ॥ कान्ता दान्ताऽतिशान्ता च सुशीला सर्वमङ्गला । लोभान्मोहात्कामरोषान्मदाहंकारतस्तथा ॥ २३ ॥ त्यक्ताऽनुरक्ता पत्युश्च सर्वाद्या च पतिव्रता । प्राणतुल्या भगवतः प्रेमपात्री प्रियंवदा ॥ २४ ॥ वह परम सुन्दरी, अनुपम संयमरूपा, अत्यन्त शान्तरूपा, सुशीला और सर्वमंगलमयी है । वह लोभ, मोह, कान, रोष, मद और अहंकार आदि दुर्गुणों से रहित है । भक्तों पर अनुग्रह करना तया अपने स्वामी श्रीहरि से प्रेम करना उनका स्वभाव है । वह सबकी आदि कारण और पतिव्रता हैं । भगवान् की प्रेमपात्री, प्रियंवदा एवं प्राणतुल्य हैं ॥ २३-२४ ॥ सर्वसस्यात्मिका सर्वजीवनोपायरूपिणी । महालक्ष्मीश्च वैकुण्ठे पतिसेवापरायणा ॥ २५ ॥ समस्त अन्नमयी, सबकी जीवन-रक्षा स्वरूप वह महालक्ष्मी वैकुण्ठ में पतिसेवापरायण रहती हैं ॥ २५ ॥ स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मीश्च राजसु । गृहे च गृहलक्ष्मीश्च मर्त्यानां गृहिणां तथा ॥ २६ ॥ वही स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं की राजलक्ष्मी और गृहों में गृहस्थ मनुष्यों की गृहलक्ष्मी हैं ॥ २६ ॥ सर्वेषु प्राणिद्रव्येषु शोभारूपा मनोहरा । प्रीतिरूपा पुण्यवतां प्रभारूपा नृपेषु च ॥ २७ ॥ वह सभी प्राणियों और जड़ पदार्थों की शोभा, परम मनोहर, पुण्यात्माओं की प्रीति एवं राजाओं की प्रभा है ॥ २७ ॥ वाणिज्यरूपा वणिजां पापिनां कलहङ्करी । दयामयी भक्तमाता भक्तानुग्रहकारिका ॥ २८ ॥ वह बनियों में व्यापार रूप से और पापियों में कलह रूप से विराजती हैं । वह दयामयी, भक्तों की माता और भक्तों पर अनुग्रह करने वाली है ॥ २८ ॥ चपले चपला भक्तसम्पदो रक्षणाय च । जगज्जीवन्मृतं सर्वं यया देव्या विना मुने ॥ २९ ॥ मुने ! वह विद्युत् की चञ्चलता है तथा भक्तों की सम्पत्ति की रक्षा करने वाली है । उसके बिना समस्त जगत् जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है ॥ २९ ॥ शक्तिर्द्वितीया कथिता वेदोक्ता सर्वसंमता । सर्वपूज्या सर्ववन्द्या चान्यां मत्तो निशामय ॥ ३० ॥ इस प्रकार मैंने वेदोक्त सर्वसम्मत प्रकार से दूसरी शक्ति का वर्णन कर दिया । वह सर्वपूज्या एवं सबकी वन्द्या है । अब अन्य देवी के गुण बता रहा हूँ, सुनो ॥ ३० ॥ वाग्बुद्धिविद्याज्ञानाधिदेवता परमात्मनः । सर्वविद्यास्वरूपा या सा च देवो सरस्वती ॥ ३१ ॥ परमात्मा की वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री सर्वविद्यास्वरूपा देवी को सरस्वती कहा जाता है ॥ ३१ ॥ सुबुद्धिः कविता मेधा प्रतिभा स्मृतिदा नृणाम् । नानाप्रकारसिद्धान्तभेदार्थकल्पनाप्रदा ॥ ३२ ॥ वह सज्जनों को उत्तम बुद्धि, कविता, मेघा, प्रतिभा एवं स्मृति प्रदान करती है । अनेक प्रकार के सिद्धान्तभेदों और अर्थों की कल्पना-शक्ति वही देती है ॥ ३२ ॥ व्याख्याबोधस्वरूपा च सर्वसन्देहभञ्जनी । विचारकारिणी ग्रन्थकारिणो शक्तिरूपिणी ॥ ३३ ॥ वह व्याख्या तथा बोध स्वरूपा है । समस्त सन्देहों को दूर करने वाली, विचार करने वाली और ग्रन्थों का निर्माण करने वाली शक्ति है ॥ ३३ ॥ सर्वसंगीतसंधानतालकारणरूपिणी । विषयज्ञानवाग्रूपा प्रतिविश्वं च जीविनाम् ॥ ३४ ॥ ययाविना च विश्वौघो मूकोमृतसमः सदा । व्याख्यामुद्राकरा शान्ता वीणापुस्तकधारिणी ॥ ३५ ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा या सुशीला श्रीहरिप्रिया । हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसन्निभा ॥ ३६ ॥ जपन्ती परमात्मानं श्रीकृष्णं रत्नमालया । तपःस्वरूपा तपसां फलदात्री तपस्विनी ॥ ३७ ॥ सिद्धिविद्यास्वरूपा च सर्वसिद्धिप्रदा सदा । देवी तृतीया गदिता श्रीयुक्ता जगदम्बिका ॥ ३८ ॥ समस्त संगीत की संधि तथा ताल का कारण उसी का रूप है । प्रत्येक विश्व में जीवों के लिए वह विषय, ज्ञान और वाणी रूपा है । उसके बिना विश्व-समूह सदा मूक एवं मृतक तुल्य है । उसका एक हाथ व्याख्या की मुद्रा में सदा उठा रहता है । वह शान्तरूपा है तथा हाथ में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती है । वह शुद्धसत्त्वस्वरूपा, सुशीला और विष्णु की प्रिया है । हिम (बर्फ) चन्दन, कुन्द, चन्द्र, कुमुद और कमल के समान श्वेत वर्ण वाली वह सरस्वती देवी रत्नों की माला पर परमात्मा श्री कृष्ण के नामों का जप करती है । वह तपःस्वरूपा, तपस्वियों के तप का फल देनेवाली, तपस्विनी, सिद्धिविद्यास्वरूपा तथा सर्वदा समस्तसिद्धिप्रदायिनी है ॥ ३४-३८ ॥ यथागमं यथाकिंचिदपरां संनिबोध मे । माता चतुर्णां वेदानां वेदाङ्गानां च च्छन्दसाम् ॥ ३९ ॥ संध्यावन्दनमन्त्राणां तन्त्राणां च विचक्षणा । द्विजातिजातिरूपा च जपरूपा तपस्विनी ॥ ४० ॥ ब्राह्मण्यतेजोरूपा च सर्वसंस्कारकारिणी । पवित्ररूपा सावित्री गायत्री ब्रह्मणः प्रिया ॥ ४१ ॥ शास्त्रानुसार उसकी थोड़ी-सी व्याख्या करके अब मैं चौथी देवी का वर्णन कर रहा हूँ, सुनो ! वह देवी चारों वेद, वेदांग, छन्दःशास्त्र, सन्ध्या-वन्दन के मन्त्रों एवं तन्त्रों की जननी है । द्विजाति वर्गों के लिए उसने अपना यह रूप धारण किया है । वह जपरूपा, तपस्विनी, ब्रह्मण्यतेजोरूपा, समस्त संस्कारों को सुसम्पन्न करने वाली, एवं पवित्र रूपा सावित्री या गायत्री है । वह ब्रह्मा की प्रिय शक्ति है ॥ ३९-४१ ॥ तीर्थानि यस्या संस्पर्श दर्शं वाञ्छन्ति शुद्धये । शुद्धस्फटिकसंकाशा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ॥ ४२ ॥ परमानन्दरूपा च परमा च सनातनी । परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाणपददायिनी ॥ ४३ ॥ ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठातृदेवता । यत्पादरजसा पूतं जगत्सर्वं च नारद ॥ ४४ ॥ तीर्थगण अपनी शुद्धि की कामना से उस देवी का स्पर्श और दर्शन चाहते हैं । वह शुद्ध स्फटिक के समान कान्तिवाली, शुद्ध सत्त्वरूप वाली, परमानन्दरूपा, परमा, सनातनी, परब्रह्मरूपा, निर्वाण (कैवल्य) पद प्रदान करने वाली (परब्रह्म की) ब्रह्मतेजोमयी शक्ति और उसकी अधिष्ठात्री देवता है । नारद ! उसके चरणरज से यह सारा संसार पवित्र हुआ है ॥ ४२-४४ ॥ देवी चतुर्थी कथिता पञ्चमीं वर्णयामि ते । प्रेमप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी ॥ ४५ ॥ प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाद्या सुन्दरी वरा । सर्वसौभाग्ययुक्ता च मानिनो गौरवान्विता ॥ ४६ ॥ वामार्धाङ्गस्वरूपा च सुगुणैस्तेजसा समा । परावरा सर्वमाता परमाद्या सनातनी ॥ ४७ ॥ परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता । रासक्रीडाधिदेवी च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ४८ ॥ इस प्रकार मैं चार देवियों का वर्णन कर चुका । अब तुम्हें पांचवीं देवी का वर्णन सुना रहा हूँ । वह (परब्रह्म के) प्रेम और प्राणों की अधिदेवता, तथा पञ्चप्राणस्वरूपिणी है । वह श्रीकृष्ण की प्राणाधिक प्रिया है । सम्पूर्ण देवियों में अग्रगण्य है । वह परम सुन्दरी समस्त सौभाग्य सम्पन्ना, मानिनी, गौरवशालिनी, (भगवान् श्रीकृष्ण की) वामार्धागिनी अपने उत्तम गुणों तथा तेज में (परब्रह्म की) समानता प्राप्त करने वाली, परावर, सबकी माता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, सर्वपूजिता और परमात्मा कृष्ण की रासक्रीड़ा की अधीश्वरी देवी है ॥ ४५-४८ ॥ रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता । रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी ॥ ४९ ॥ गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका । परमाह्लादरूपा च सन्तोषामर्षरूपिणी ॥ ५० ॥ निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी । निरीहा निरहंकारा भक्तानुग्रहविग्रहा ॥ ५१ ॥ वेदानुसारध्यानेन विज्ञेया सा विचक्षणैः । दृष्टिर्दृष्टा सहस्रेषु सुरेन्द्रैर्मुनिपुंगवैः ॥ ५२ ॥ रासमण्डल में प्रकट होकर उसकी शोभा बढ़ाने वाली, रासेश्वरी, सुरसिका, तथा रासस्थल में निवास करने वाली वह देवी गोलोक की निवासिनी हे । गोपी का वेष बनानेवाली परमाह लादरूपा, सन्तोष और अमर्ष का रूप धारण करने वाली, तीनों गुणों से रहित, निराकारा, निलिप्ता, आत्मस्वरूपिणी, निरीहा, निरहंकारा, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए शरीर धारण करने वाली उस देवी को बुद्धिमान् लोग वेदानुसार ध्यान द्वारा ही जान पाते हैं । इस प्रकार सहस्रों श्रेष्ठ मुनिगण एवं सुरेन्द्र वृन्द ध्यान द्वारा उसका दर्शन करते हैं ॥ ४९-५२ ॥ वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नालंकारभूषिता । कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टश्रीयुक्ता भक्तविग्रहा ॥ ५३ ॥ वह अग्नि-शुद्ध (नीले रंग के दिव्य) वस्त्र धारण करती है । वह अनेक प्रकार के अलंकारों से भूपित, करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा से सेवित, श्रीयुक्त तथा भक्तों के लिए शरीर धारण करने वाली है ॥ ५३ ॥ श्रीकृष्णभक्तदास्यैकदायिनी सर्वसंपदाम् । अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या ॥ ५४ ॥ यत्पादपद्मसंस्पर्शपवित्रा च वसुंधरा । ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वदृष्टा च भारते ॥ ५५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के भक्तों को सकल संपत्तियों से श्रेष्ठ एकमात्र दास्यभक्ति प्रदान करने वाली यही देवी है । वह वृषभानु की पुत्री होकर प्रकट हुई है । वराहावतार में उसके चरण कमल के पावन स्पर्श से यह पूरी पवित्र हो गयी है । और जिसे ब्रह्मा आदि देवता नहीं देख सके थे वही यह देवी भारतवर्ष में उनसे दृष्टीगोचर हो रही है ॥ ५४-५५ ॥ स्त्रिरत्नसारसंभूता कृष्णवक्षःस्थलोज्ज्वला । यथा धने नवधने लोला सौदामिनी मुने ॥ ५६ ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि प्रतप्तं ब्रह्मणा पुरा । यत्पादपद्मनखरदृष्टये चाऽन्त्यशुद्धये ॥ ५७ ॥ स्वप्नेऽपि नैव दृष्टा स्यात्प्रत्यक्षे तु च का कथा । तेनैव तपसा दृष्टा भूरिवृन्दावने वने ॥ ५८ ॥ कथिता पञ्चमी देवी सा राधा परिकीर्तिता । अंशरूपा कलारूपा कलाशांशसमुद्भवा ॥ ५९ ॥ प्रकृतेः प्रतिविश्वं च रूपं स्यात्सर्वयोषितः । परिपूर्णतमाः पञ्चविधा देव्यः प्रकीर्तिताः ॥ ६० ॥ या या प्रधानांशरूपा वर्णयामि निशामय । प्रधानांशस्वरूपा च गङ्गा भुवनपावनी ॥ ६१ ॥ विष्णुपादाब्जसंभूता द्रवरूपा सनातनी । पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदिन्धनरूपिणी ॥ ६२ ॥ TEXT NOT LEGIBLE ॥ ५६-६२ ॥ दर्शनस्पर्शनस्नानपानैर्निर्वाणदायिनी । गोलोकस्थानगमनसुसोपानस्वरूपिणी ॥ ६३ ॥ दर्शन, स्पर्शन, स्नान और पान करने से गंगा मोक्ष प्रदान करती हैं तथा गोलोक धाम में पहुँचने के लिए सुन्दर सीढ़ी के रूप में वे विराजमान है ॥ ६३ ॥ पवित्ररूपा तीर्थानां सरितां च परा वरा । शंभुमौलिजटामेरुमुक्तापङ्क्तिस्वरूपिणी ॥ ६४ ॥ उनका रूप पवित्र है । वे तीयों तथा नदियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । वे शंकर के जटाजूट में मोतियों की पंक्ति जैसी लगती हैं ॥ ६४ ॥ तपःसंपादिनी सद्यो भारते च तपस्विनाम् । शङ्खपद्मक्षीरनिभा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ॥ ६५ ॥ निर्मला निरहंकारा साध्वी नारायणप्रिया । प्रधानांशस्वरूपा च तुलसी विष्णुकामिनी ॥ ६६ ॥ विष्णुभूषणरूपा च विष्णुपादस्थिता सती । तपः संकल्पपूजादि सद्यः संपादनी मुने ॥ ६७ ॥ भारतवर्ष में तपस्वियों के तप को सद्यः सम्पन्न कराने वाली हैं । उनका शुद्ध एवं सरवमय स्वरूप चन्द्रमा, श्वेतकमल या दूध के समान धवल है । वे मल और अहंकार से रहित हैं । वे परम साध्वी गंगा भगवान् नारायण को बहुत प्रिय हैं । विष्णु-प्रिया तुलसी को प्रकृति देवी का प्रधान अंग माना गया है । ये पतिव्रता विष्णु के आभूषण स्वरूप हैं । ये सदा विष्णु के चरण में विराजमान रहती हैं । मुने ! तपस्या, संकल्प और पूजा आदि सभी शुभ कर्म इन्हीं से शीघ्र सम्पन्न होते हैं ॥ ६५-६७ ॥ सारभूता च पुष्पाणां पवित्रा पुण्यदा सदा । दर्शनस्पर्शनाभ्यां च सद्यो निर्वाणदायिनी ॥ ६८ ॥ ये पुष्पों में मुख्य, पवित्र, सदा पुण्यप्रदा और दर्शन-स्पर्शन से शीघ्र निर्वाण पद प्रदान करने वाली है ॥ ६८ ॥ कलौ कलुषशुष्केध्मदाहनायाग्निरूपिणी । यत्पादपद्मसंस्पर्शात्सद्यःपूता वसुंधरा ॥ ६९ ॥ कलियुग में पापरूपी सुखी लकड़ी को जलाने के लिए ये अग्निरूप हैं । इनके चरण-कमलों के स्पर्श से यह पृथिवी पवित्र हो गयी है ॥ ६९ ॥ यत्स्पर्शदर्शं वाञ्छन्ति तीर्थानामात्मशुद्धये । यया विना च विश्वेषु सर्वं कर्मास्ति निष्फलम् ॥ ७० ॥ अपनी शुद्धि के लिए तीर्थ भी इनका दर्शन-स्पर्शन चाहते हैं । इनके बिना विश्व में सभी कर्म निष्फल समझे जाते हैं ॥ ७० ॥ मोक्षदा या मुमुक्षूणां कामिनां सर्वकामदा । कल्पवृक्षस्वरूपा च भारते वृक्षरूपिणी ॥ ७१ ॥ इनकी कृपा से मुमुक्षु जन मुक्त हो जाते हैं । ये भक्तों की सकल कामनायें पूर्ण करती हैं । भारत में वृक्ष होकर ये कल्पवृक्ष का काम करती हैं ॥ ७१ ॥ त्राणाय भारतानां च प्रजानां परदेवता । प्रधानांशस्वरूपा च मनसा कश्यपात्मजा ॥ ७२ ॥ शंकरप्रियशिष्या च महाज्ञानविशारदा । नागेश्वरस्यानन्तस्य भगिनी नागपूजिता ॥ ७३ ॥ नागेश्वरी नागमाता सुन्दरी नागवाहिनी । नागेन्द्रगणयुक्ता सा नागभूषणभूषिता ॥ ७४ ॥ नागेन्द्रवन्दिता सिद्धयोगिनी नागवासिनी । विष्णुभक्ता विष्णुरूपा विष्णुपूजापरायणा ॥ ७५ ॥ तपःस्वरूपा तपसां फलदात्री तपस्विनी । दिव्यं त्रिलक्षवर्षं च तपस्तप्तं यया हरेः ॥ ७६ ॥ भारतवासियों का त्राण करने के लिए इनका यहाँ पधारना हुआ है । ये प्रजाओं की परम देवता हैं । प्रकृति देवी के एक अन्य प्रधान अंश का नाम देवी 'मनसा' है । ये कश्यप की मानसपुत्री हैं; अतः 'मनसा' देवी कहलाती है । ये शंकर की प्रिय शिष्या, महाज्ञानविशारदा तथा अनन्त नामक नाग की भगिनी हैं । ये नागपूजिता, नागेश्वरी, नागमाता, सुन्दरी, नागवाहिनी, नागेन्द्र गण से युक्त, नाग के भूषणों से भूषित, नागेन्द्रवन्दिता, सिद्धयोगिनी, नाग पर वास करने वाली, विष्णुभक्ता, विष्णुरूपा, विष्णु की पूजा में निरत रहने वाली, तपःस्वरूपा, तप का फल देने वाली एवं तपस्विनी हैं । इन्होंने देव-वर्ष के हिसाब से तीन लाख वर्षों तक श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए तप किया है ॥ ७२-७६ ॥ तपस्विनीषु पूज्या च तपस्विषु च भारते । सर्पमन्त्राधिदेवी च ज्वलन्तो ब्रह्मतेजसा ॥ ७७ ॥ ब्रह्मस्वरूपा परमा ब्रह्मभावनतत्परा । जरत्कारुमुनेः पत्नी कृष्णशम्भुपतिव्रता ॥ ७८ ॥ आस्तीकस्य मुनेर्माता प्रवरस्य तपस्विनाम् । प्रधानांशस्वरूपा या देवसेना च नारद ॥ ७९ ॥ वे भारतवर्ष में समस्त तपस्विनी और तपस्वियों में पूज्य एवं श्रेष्ठ हैं । सर्प-मन्त्रों की अधिदेवी, ब्रह्मतेज से प्रज्वलित, ब्रह्मस्वरूप तथा ब्रह्मचिन्तन में अत्यन्त तत्पर रहती हैं । वे कृष्ण एवं शंभु के अंशभूत जरत्कार की पतिव्रता पत्नी हैं । तपस्विवर आस्तीक मुनि की ये माता हैं । नारद ! प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं ॥ ७७-७९ ॥ मातृका सा पूज्यतमा सा च षष्ठी प्रकीर्तिता । शिशूनां प्रतिविश्वं तु प्रतिपालनकारिणी ॥ ८० ॥ वे सब से श्रेष्ठ मातृका मानी जाती हैं । उन्हें लोग षष्ठी देवी कहते हैं । प्रत्येक विश्व में वे बच्चों का पालन करती हैं ॥ ८० ॥ तपस्विनी विष्णुभक्ता कार्तिकेयस्य कामिनी । षष्ठांशरूपा प्रकृतेस्तेन षष्ठी प्रकीर्तिता ॥ ८१ ॥ वे तपस्विनी, विष्णु-भक्ता और कात्तिकेय की पत्नी हैं । प्रकृति का छठा अंश होने से वे 'षष्ठी' कही जाती हैं ॥ ८१ ॥ पुत्रपौत्रप्रदात्री च धात्री च जगतां सदा । सुन्दरी युवती रम्या सततं भर्तुरन्तिके ॥ ८२ ॥ पे जगत् के लिए सदा पुत्रपौत्रदात्री तथा धात्री हैं और अपने पति के समीप सुन्दरी एवं रमणीक युवती के रूप में वे सदा विद्यमान रहती हैं ॥ ८२ ॥ स्थाने शिशुनां परमा वृद्धरूपा च योगिनी । पूजा द्वादशमासेषु यस्याः षष्ठ्यास्तु संततम् ॥ ८३ ॥ बच्चों के लिए वे परम वृद्धा योगिनी हैं । लोग बारहों मास निरन्तर इनकी पूजा करते हैं ॥ ८३ ॥ पूजा च सूतिकागारे परषष्ठदिने शिशोः । एकविंशतितमे चैव पूजा कल्याणहेतुकी ॥ ८४ ॥ सन्तान उत्पन्न होने पर छठे दिन या इक्कीसवें दिन सूतिकागृह में इनकी पूजा होती है ॥ ८४ ॥ शश्वन्नियमिता चैषा नित्या काम्याऽप्यतः परा । मातृरूपा दयारूपा शश्वद्रक्षणकारिणी ॥ ८५ ॥ जले स्थले चान्तरिक्षे शिशूनां स्वप्नगोचरा । ये निरन्तर नियमिता, नित्या, काम्या और परा रूप में रहती हैं । ये मातृरूपा, दयामयी, निरन्तर रक्षा करने वाली हैं । जल, स्थल तथा आकाश में ये शिशुओं को स्वप्न में दिखायी देती हैं ॥ ८५.५ ॥ प्रधानांशस्वरूपा या देवी मङ्गलचण्डिका ॥ ८६ ॥ प्रकृति देवी का एक प्रधान अंश मंगलचंडी के नाम से विख्यात है ॥ ८६ ॥ प्रकृतेर्मुखसंभूता सर्वमङ्गलदा सदा । सृष्टौ मङ्गलरूपा च संहारे कोपरूपिणी ॥ ८७ ॥ तेन मङ्गलचण्डी सा पण्डितैः परिकीर्तिता । प्रतिमङ्गलवारेषु प्रतिविश्वेषु पूजिता ॥ ८८ ॥ यह देवी प्रकृति के मुख से उत्पन्न होकर सदा समस्त मंगलों का संपादन करती रहती हैं । सृष्टि के समय मंगलरूपा और संहार के समय कोपरूपा होने के कारण इन्हें पण्डितों ने मंगलचण्डी' कहा है । प्रत्येक मंगलवार को विश्व भर में ये पूजित होती, हैं ॥ ८७-८८ ॥ पञ्चोपचारैर्भक्त्या च योषिद्भिः परिपूजिता । पुत्रपौत्रधनैश्वर्ययशोमङ्गलदायिनी ॥ ८९ ॥ स्त्रियाँ भक्तिपूर्वक पंचोपचार द्वारा इनको भलीभांति पूजती हैं, जिससे ये उन्हें पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य, शोभा और मंगल प्रदान करती हैं ॥ ८९ ॥ शोकसंतापपापार्तिदुःखदारिद्यनाशिनी । परितुष्टा सर्ववाञ्छाप्रदात्री सर्वयोषिताम् ॥ ९० ॥ प्रसन्न होने पर ये समस्त स्त्रियों के शोक, सन्ताप, पाप, कष्ट, दुःख-दारिद्र्य का नाश करके उनकी सकल कामनायें पूर्ण करती हैं ॥ ९० ॥ रुष्टा क्षणेन संहर्तुं शक्ता विश्वं महेश्वरी । प्रधानांशस्वरूपा च काली कमललोचना ॥ ९१ ॥ किन्तु यही माहेश्वरी रुष्ट होने पर क्षण मात्र में सारे विश्व का संहार करने में समर्थ हो जाती हैं । देवी काली को प्रकृति देवी का प्रधान अंश मानते हैं । इनके नेत्र काल के समान हैं ॥ ९१ ॥ दुर्गाललाटसंभूता रणे शुम्भनिशुम्भयोः । दुर्गार्धांशस्वरूपा स्याद् गुणैः सा तेजसा समा ॥ ९२ ॥ शुम्भनिशुम्भ के युद्ध में दुर्गा के ललाट से काली प्रकट हुई भीं । इन्हें दुर्गा का आधा अंश माना जाता है । ये गुण और तेज में उन्हीं के समान हैं ॥ ९२ ॥ कोटिसूर्यप्रभाजुष्टदिव्यसुन्दरविग्रहा । प्रधाना सर्वशक्तीनां वरा बलवती परा ॥ ९३ ॥ सर्वसिद्धिप्रदा देवी परमा सिद्धियोगिनी । कृष्णभक्ता कृष्णतुल्या तेजसा विक्रमैर्गुणैः । कृष्णभावनया शश्वत्कृष्णवर्णा सनातनी ॥ ९४ ॥ करोड़ों सूर्य की प्रभा से युक्त दिव्य सुन्दर शरीर वाली, समस्त शक्तियों में श्रेष्ठ, अत्यन्त बलवती, समस्त सिद्धियों को देने वाली, परम सिद्ध योगिनी तथा भगवान् कृष्ण की भक्ता काली देवी तेज, गुण और पराक्रम में उन्हीं के समान हैं । वे सनातनी देवी भगवान् कृष्ण में अपनी शुद्ध भावना रखने के कारण निरन्तर कृष्ण-वर्ण की रहती हैं ॥ ९३-९४ ॥ ब्रह्माण्डे सकलं हर्तुं शक्ता निःश्वासमात्रतः । रणं दैत्यैः समं तस्याः क्रीडया लोकरक्षया ॥ ९५ ॥ वे अपने निःश्वास मात्र से समस्त ब्रह्माण्ड का संहार करने में सदैव समर्थ हैं । इसलिए दैत्यों के साथ उनकी रण-क्रीड़ा केवल लोक रक्षार्थ होती है । ९५ ॥ धर्मार्थकाममोक्षांश्च दातुं शक्ता सुपूजिता । ब्रह्मादिभिः स्तूयमाना मुनिभिर्मनुभिर्नरैः ॥ ९६ ॥ प्रधानांशस्वरूपा च प्रकृतिश्च वसुंधरा । आधारभूता सर्वेषां सर्वसस्यप्रसूतिका ॥ ९७ ॥ सुपूजित होने पर वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करती हैं । इसीलिए ब्रह्मादि देवगण, मुनिगण, मनुगण और मनुष्यवृन्द उनकी सदैव स्तुति करते हैं । यह वसुन्धरा (पृथ्वी) भी प्रकृति देवी के प्रधान अंश से उत्पन्न हुई हैं । सम्पूर्ण जगत् इन्हीं पर ठहरा है । ये सर्वसस्यप्रसूतिका (सकल अन्नों को उत्पन्न करने वाली) कही जाती हैं ॥ ९६-९७ ॥ रत्नाकारा रत्नगर्भा सर्वरत्नाकराश्रया । प्रजादिभिः प्रजेशैश्च पूजिता वन्दिता सदा ॥ ९८ ॥ सर्वोपजीवरूपा च सर्वसंपद्विधायिनी । यया विना जगत्सर्वं निराधारं चराचरम् ॥ ९९ ॥ ये रत्नों की खान, रत्नों से परिपूर्ण तथा सकल रत्नों की आधार हैं । राजा और प्रजा सभी लोग इनकी पूजा एवं स्तुति करते हैं । सब को जीविका प्रदान करने के लिए ही उन्होंने यह रूप धारण कर रखा है । वे सम्पूर्ण सम्पत्ति का विधान करती हैं । वे न रहें तो सारा चराचर जगत् कहीं भी नहीं ठहर सकता ॥ ९८-९९ ॥ प्रकृतेश्च कला या यास्ता निबोध मुनीश्वर । यस्य यस्य च याः पत्न्यस्ताः सर्वा वर्णयामि ते ॥ १०० ॥ स्वाहादेवी वह्निपत्नी त्रिषु लोकेषु पूजिता । यया विना हविर्दत्तं न ग्रहीतुं सुराः क्षमाः ॥ १०१ ॥ मुनीश्वर ! प्रकृति की उन कलाओं को तथा वे जिन-जिन की स्त्रियाँ हैं, वह सब भी मैं तुम्हें बता रहा हूँ । स्वाहा देवी अग्नि की पत्नी हैं जो तीनों लोकों में पूजित होती हैं । उनके बिना हवि प्रदान करने पर भी देव-गण उसे ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं ॥ १००-१०१ ॥ दक्षिणा यज्ञपत्नी च दीक्षा सर्वत्र पूजिता । यया विना च विश्वेषु सर्वं कर्म च निष्फलम् ॥ १०२ ॥ यज्ञ की दक्षिणा और दीक्षा दो पत्नियां हैं, जो सर्वत्र पूजित होती हैं । उनके बिना समस्त विश्व में सभी कर्म निष्फल रहते हैं ॥ १०२ ॥ स्वधा पितॄणां पत्नी च मुनिभिर्मनुभिर्नरैः । पूजिता पैतृकं दानं निष्फलं च यया विना ॥ १०३ ॥ स्वधा पितरों की पत्नी हैं, उन्हें मुनिगण, मनुगण और नरगण पूजते रहते हैं । उनके बिना सभी पैतृक दान निष्फल होता है ॥ १०३ ॥ स्वस्तिदेवी वायुपत्नी प्रतिविश्वेषु पूजिता । आदानं च प्रदानं च निष्फलं च यया विना ॥ १०४ ॥ पुष्टिर्गणपतेः पत्नी पूजिता जगतीतले । यया विना परिक्षीणाः पुमांसो योषितोऽपि च ॥ १०५ ॥ स्वस्ति देवी वायुदेव की पत्नी हैं । उनकी पूजा प्रत्येक विश्व में की जाती है । उनके बिना सभी आदान-प्रदान निष्फल होते हैं । पुष्टि गणपति की पत्नी हैं, जो इस भूतल पर पूजित होती हैं । उनके बिना सभी स्त्री-पुरुष अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं ॥ १०४-१०५ ॥ अनन्तपत्नी तुष्टिश्च पूजिता वन्दिता सदा । यया विना न संतुष्टाः सर्वलोकाश्च सर्वतः ॥ १०६ ॥ तुष्टि अनन्त की पत्नी हैं । सब लोग उनकी पूजा और वंदना करते हैं । उनके बिना समस्त लोक सब भाँति असन्तुष्ट रहते हैं ॥ १०६ ॥ ईशानपत्नी संपत्तिः पूजिता च सुरैर्नरैः । सर्वे लोका दरिद्राश्च विश्वेषु च यया विना ॥ १०७ ॥ ईशान की पत्नी सम्पत्ति देवों एवं मनुष्यों से सदैव पूजित होती हैं । उनके बिना विश्व भर की जनता दरिद्र कहलाती है ॥ १०७ ॥ धृतिः कपिलपत्नी च सर्वैः सर्वत्र पूजिता । सर्वे लोका अधीराः स्युर्जगत्सु च यया विना ॥ १०८ ॥ धृति कपिल की पत्नी हैं । सभी लोग सर्वत्र उनका स्वागत करते हैं । उनके बिना संसार के सभी लोग अधीर रहते हैं ॥ १०८ ॥ यमपत्नी क्षमा साध्वी सुशीला सर्वपूजिता । समुन्मत्ताश्च रुद्राश्च सर्वे लोका यया विना ॥ १०९ ॥ क्षमा यम की पत्नी हैं । वह सुशीला पतिव्रता एवं सब की पूज्या हैं । उनके बिना समस्त लोक उन्मत्त और भयंकर हो जाता है ॥ १०९ ॥ क्रीडाधिष्ठातृदेवी सा कामपत्नी रतिः सती । केलिकौतुकहीनाश्च सर्वे लोका यथा विना ॥ ११० ॥ काम की पत्नी रति हैं । वे पतिव्रता एवं क्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं । उनके बिना समस्त लोक केलि और कौतुक से वंचित हो जाते हैं ॥ ११० ॥ सत्यपत्नी सती मुक्तिः पूजिता जगतां प्रिया । यया विना भवेल्लोको बन्धुतारहितः सदा ॥ १११ ॥ सत्य की पत्नी मुक्ति हैं । वह सती समस्त संसार को प्रिय हैं । इसीलिए वह पूजित होती हैं । उनके विना समस्त लोक सदा बन्धुता-रहित हो जाता है ॥ १११ ॥ मोहपत्नी दया साध्वी पूजिता च जगत्प्रिया । सर्वलोकाश्च सर्वत्र निष्ठुराश्च यया विना ॥ ११२ ॥ दया मोह की पत्नी हैं । वे साध्वी, पूज्य एवं जगत्प्रिय हैं । उनके बिना समस्त लोक निष्ठुर माने जाते हैं ॥ ११२ ॥ पुण्यपत्नी प्रतिष्ठा सा पुण्यरूपा च पूजिता । यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतसमं मुने ॥ ११३ ॥ मुने ! पुण्य की पत्नी प्रतिष्ठा हैं । वे पुण्य रूपा देवी सर्वत्र पूजित होती हैं । उनके बिना समस्त जगत् जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है ॥ ११३ ॥ सुकर्मपत्नी कीर्तिश्च धन्या मान्या च पूजिता । यया विना जगत्सर्वं यशोहीनं मृतं यथा ॥ ११४ ॥ सुकर्म की पत्नी कीर्ति है, जो धन्या, मान्या एवं पूज्या हैं । उनके बिना सम्पूर्ण जगत् यशोहीन होने से मृतक की भाँति हो जाता है ॥ ११४ ॥ क्रिया उद्योगपत्नी च पूजिता सर्वसंगता । यया विना जगत्सर्वमुच्छिन्नमिव नारद ॥ ११५ ॥ क्रिया उद्योग की पत्नी हैं । इन आदरणीया देवी से सब लोग सहमत हैं । नारद ! इनके बिना यह समस्त जगत् उच्छिन्न-सा हो जाता है ॥ ११५ ॥ अधर्मपत्नी मिथ्या सा सर्वधूतैश्च पूजिता । यया विना जगत्सर्वमुच्छिन्नं विधिनिर्मितम् ॥ ११६ ॥ मिथ्या, अधर्म की पत्नी हैं । धूर्त लोग इस देवी की पूजा करते हैं । इसके बिना विधि-रचित यह सारा जगत् अस्तित्वहीन दिखाई देता है । ॥ ११६ ॥ सत्ये अदर्शना या च त्रेतायां सूक्ष्मरूपिणी । अर्धावयवरूपा च द्वापरे संहृता ह्रिया ॥ ११७ ॥ कलौ महाप्रगल्भा च सर्वत्र व्याप्तिकारणात् । कपटेन सह भ्रात्रा भ्रमत्येव गृहे गृहे ॥ ११८ ॥ सत्ययुग में यह देवी अदृश्य थी । त्रेता में सूक्ष्म रूप से, द्वापर में लज्जा के कारण सिकुड़कर आधे शरीर से और कलियुग में सर्वत्र व्याप्त होने के कारण महाप्रगल्म होकर रहती हैं । अपने भाई कपट के साथ घर-घर घूमती है ॥ ११७-११८ ॥ शान्तिर्लज्जा च भार्ये द्वे सुशीलस्य च पूजिते । याभ्यां विना जगत्सर्वमुन्मत्तमिव नारद ॥ ११९ ॥ सुशील की शान्ति और लज्जा ये दो माननीया पत्नियां हैं । नारद ! इनके बिना समस्त जगत् उन्मत्त की भांति दिखायी देता है ॥ ११९ ॥ ज्ञानस्य तिस्रो भार्याश्च बुद्धिर्मेधा स्मृतिस्तथा । याभिर्विना जगत्सर्वं मूढं मृतसमं सदा ॥ १२० ॥ ज्ञान की बुद्धि, मेधा और स्मृति ये तीन भाएं हैं, जिनके बिना यह सारा जगत् मूढ़ता के कारण मृतक के समान हो जाता है ॥ १२० ॥ मूर्तिश्च धर्मपत्नी सा कान्तिरूपा मनोहरा । परमात्मा च विश्वौघा निराधारा ययाविना ॥ १२१ ॥ मूर्ति, धर्म की पत्नी है । कमनीय कान्ति वाली यह सब को मुग्ध किये रहती हैं । इसके बिना परमात्मा एवं विश्व समूह भी निराधार हो जाता है ॥ १२१ ॥ सर्वत्र शोभारूपा च लक्ष्मीर्मूर्तिमती सती । श्रीरूपा मूर्तिरूपा च मान्या धन्या च पूजिता ॥ १२२ ॥ इसके स्वरूप को अपनाकर ही साध्वी लक्ष्मी सर्वत्र शोभा पाती है । श्री और मूर्ति दोनों इसके स्वरूप हैं । यह परम मान्य, धन्य एवं सुपूज्य हैं ॥ १२२ ॥ कालाग्निरुद्रपत्नी च निद्रा या सिद्धयोगिनाम् । सर्वलोकाः समाच्छन्ना मायायोगेन रात्रिषु ॥ १२३ ॥ निद्रा कालाग्नि रुद्र की पत्नी है, जो रात्रि में समस्त लोकों को मायायोग से आच्छन्न करके सिद्धयोगियों को भी अभिभूत कर देती है । ॥ १२३ ॥ कालस्य तिस्रो भार्याश्च संध्या रात्रिर्दिनानिच । याभिर्विना विधात्रा च संख्यां कर्तुं न शक्यते ॥ १२४ ॥ काल की संध्या, रात्रि और दिन ये तीन स्त्रियाँ हैं, इनके बिना ब्रह्मा भी संख्या बताने में असमर्थ हैं ॥ १२४ ॥ क्षुत्पिपासे लोभभार्ये धन्ये मान्ये च पूजिते । याभ्यां व्याप्तं जगत्क्षोभयुक्तं चिन्तितमेव च ॥ १२५ ॥ क्षुधा तथा पिपासा लोभ की स्त्रियाँ हैं, जो लोक में धन्या, मान्या होकर पूजित हो रही हैं । इन्हीं के कारण सारा जगत् क्षुब्ध और चिन्तित रहता है । ॥ १२५ ॥ प्रभा च दाहिकाचैव द्वे भार्ये तेजसस्तथा । याभ्यां विना जगत्स्रष्टुं विधाता च नहीश्वरः ॥ १२६ ॥ तेज की प्रभा और दाहिका दो स्त्रियाँ हैं, जिनके बिना विधाता भी जगत् की सृष्टि करने में असमर्थ हैं ॥ १२६ ॥ कालकन्ये मृत्युजरे प्रज्वरस्य प्रिये प्रिये । याभ्यां जगत्समुच्छिन्नं विधात्रा निर्मिते विधौ ॥ १२७ ॥ काल की पुत्रियाँ-जरा और मृत्यु-ज्वर की प्रिय भार्याएँ हैं । इनकी सत्ता न रहे तो ब्रह्मा के बनाये हुए जगत् की व्यवस्था भी बिगड़ जाय ॥ १२७ ॥ निद्राकन्या च तन्द्रा सा प्रीतिरन्यासुखप्रिये । याभ्यां व्याप्तं जगत्सर्वं विधिपुत्र विधेर्विधौ ॥ १२८ ॥ हे ब्रह्मपुत्र ! निद्रा की कन्या तन्द्रा और प्रीति ये दोनों सुख की स्त्रियाँ हैं । ये दोनों ब्रह्म-रचित समस्त जगत् में व्याप्त हैं ॥ १२८ ॥ वैराग्यस्य च द्वे भार्ये श्रद्धा भक्तिश्च पूजिते । याभ्यां शश्वज्जगत्सर्वं जीवन्मुक्तमिदं मुने ॥ १२९ ॥ मुने ! श्रद्धा और भक्ति ये वैराग्य की दो आदरणीय स्त्रियाँ हैं, जिनके द्वारा यह समस्त संसार निरन्तर जीवन्मुक्त हो सकता है ॥ १२९ ॥ अदितिर्देवमाता च सुरभिश्च गवां प्रसूः । दितिश्च दैत्यजननी कद्रूश्च विनता दनुः ॥ १३० ॥ उपयुक्ताःसृष्टिविधावेताश्च प्रकृतेः कलाः । कलाश्चान्याः सन्ति बह्व्यस्तासु काश्चिन्निबोध मे ॥ १३१ ॥ अदिति देवों की माता हैं । सुरभी गौओं की जननी है तथा दैत्यों की माता दिति हैं और इसी भाँति कदू, विनता एवं दनु भी सृष्टि-विधान में उपयोगी होने के कारण प्रकृति की कलाएँ हैं । इस प्रकार प्रकृति देवी की अन्य भी अनेक कलाएँ हैं, जिनमें से कुछ को मैं बता रहा हूँ, सुनो ॥ १३०-१३१ ॥ रोहिणी चन्द्रपत्नी च संज्ञा सूर्यस्य कामिनी । शतरूपा मनोर्भार्या शचीन्द्रस्य च गेहिनी ॥ १३२ ॥ रोहिणी चन्द्रमा की पत्नी हैं । संज्ञा सूर्य की कान्ता हैं । शतरूपा मनु की स्त्री हैं । शची इन्द्र की भार्या हैं ॥ १३२ ॥ तारा बृहस्पतेर्भार्या वसिष्ठस्याप्यरुन्धती । अहल्या गौतमस्त्री स्यादनसूयाऽत्रिकामिनी ॥ १३३ ॥ तारा बृहस्पति की पत्नी हैं और वशिष्ठ की अरुन्धती, गौतम की अहल्या तथा अत्रि की अनुसूया पत्नी हैं ॥ १३३ ॥ देवहूतिः कर्दमस्य प्रसूतिर्दक्षकामिनी । पितॄणां मानसी कन्या मेनका साऽम्बिकाप्रसूः ॥ १३४ ॥ देवहूति कर्दम की और प्रसूति दक्ष की पत्नियां हैं । पितरों की मानसी कन्या मेनका पार्वती की माता हैं ॥ १३४ ॥ लोपामुद्रा तथाऽऽहूतिः कुबेरस्य तु कामिनी । वरुणानी यमस्त्री च बलेर्विन्ध्यावलीति च ॥ १३५ ॥ कुन्ती च दमयन्ती च यशोदा देवकी सती । गान्धारी द्रौपदी शैब्या सावित्री सत्यवत्प्रिया ॥ १३६ ॥ वृषभानुप्रिया साध्वी राधामाता कलावती । मन्दोदरी च कौसल्या सुभद्रा कैकयी तथा ॥ १३७ ॥ रेवती सत्यभामा च कालिन्दी लक्ष्मणा तथा । मित्रविन्दा नाग्नजिती तथा जाम्बवती परा ॥ १३८ ॥ लक्ष्मणा रुक्मिणी सीता स्वयं लक्ष्मीः प्रकीर्तिता । कला योजनगंधा च व्यासमाता महासती ॥ १३९ ॥ इसी प्रकार कुबेर की पत्नी लोपामुद्रा और आहूति तथा वरुणानी, यम की स्त्री, बलि की पत्नी विन्ध्यावली, कुन्ती, दमयन्ती, यशोदा, सती देवकी, गान्धारी, द्रौपदी, शब्या, सत्यवान् की प्रिया सावित्री, राधिका जी की माता तथा वृषभानु की पतिव्रता पत्नी कलावती, मन्दोदरी, कौसल्या, सुभद्रा, कैकेयी, रेवती, सत्यमामा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, मित्रविन्दा, नाग्नजिती, जाम्बबती, लक्ष्मणा, रुक्मिणी और सीता जो स्वयं लक्ष्मी कहलायीं, व्यासमाता महासती योजनगन्धा ॥ १३५-१३९ ॥ बाणपुत्री तथोषा च चित्रलेखा च तत्सखी । प्रभावती भानुमती तथा मायावती सती ॥ १४० ॥ रेणुका च भृगोर्माता हलिमाता च रोहिणी । एकाऽनंशा च दुर्गा सा श्रीकृष्णभगिनी सती ॥ १४१ ॥ बाण की पुत्री उषा, उसकी सखी चित्रलेखा, प्रभावती, भानुमती, सती मायावती, भार्गव (परशुराम) की माता रेणुका, बलराम की माता रोहिणी, और श्रीकृष्ण की परम साध्वी भगिनी दुर्गास्वरूपा एकानंशा (प्रकृति की कलायें हैं) ॥ १४०-१४१ ॥ बह्व्यः सन्ति कलाश्चैव प्रकृतेरेव भारते । या याश्च ग्रामदेव्यस्ताः सर्वाश्च प्रकृतेः कलाः ॥ १४२ ॥ इस प्रकार प्रकृति की अनेक कलाएँ भारत में विख्यात हैं । जो-जो ग्राम देवियाँ हैं वे सभी प्रकृति की कलाएँ हैं ॥ १४२ ॥ कलांशांशसमुद्भूताः प्रतिविश्वेषु योषितः । योषितामपमानेन प्रकृतेश्च पराभवः ॥ १४३ ॥ इसी भांति प्रत्येक विश्व में जितनी स्त्रियाँ हैं, उन सब को प्रकृति की कला का के अंश का अंश समझना चाहिए । (इसलिए) उनका अपमान करने पर प्रकृति का अपमान होता है ॥ १४३ ॥ ब्राह्मणी पूजिता येन पतिपुत्रवती सती । प्रकृतिः पूजिता तेन वस्त्रालंकारचन्दनैः ॥ १४४ ॥ जिसने वस्त्र, अलंकार एवं चन्दन से पति-पुत्र बाली सती ब्राह्मणी का पूजन किया है, उसने प्रकृति की पूजा की है ॥ १४४ ॥ कुमारी चाष्टवर्षीया वस्त्रालंकारचन्दनैः । पूजिता येन विप्रस्य प्रकृतिस्तेन पूजिता ॥ १४५ ॥ जिसने वस्त्र, आभूषण तथा चन्दन द्वारा ब्राह्मण की अष्टवर्षीया कुमारी की पूजा की है, उसने प्रकृति की पूजा की है ॥ १४५ ॥ सर्वाः प्रकृतिसंभूता उत्तमाधममध्यमाः । सत्त्वांशाश्चोत्तमा ज्ञेयाः सुशीलाश्च पतिव्रताः ॥ १४६ ॥ संसार की उत्तम, मध्यम और अधम सभी स्त्रियाँ प्रकृति से ही उत्पन्न हैं, जिनमें सत्त्व अंश से उत्पन्न होने वाली स्त्रियाँ सुशीला एवं प्रतिव्रता होने के कारण उत्तम कही गयी हैं ॥ १४६ ॥ मध्यमा रजसश्चांशास्ताश्च भोग्याः प्रकीर्तिताः । सुखसंभोगवत्यश्च स्वकार्ये तत्पराः सदा ॥ १४७ ॥ अधमास्तमसश्चांशा अज्ञातकुलसंभवाः । दुर्मुखाः कुलटा धूर्ताः स्वतन्त्राः कलहप्रियाः ॥ १४८ ॥ जिन्हें भोग ही प्रिय है, वे राजस अंश से प्रकट स्त्रियाँ, 'मध्यम' श्रेणी की कही गई हैं । वे सुख-भोग में आसक्त होकर सदा अपने कार्य में लगी रहती हैं । प्रकृति देवी के तामस अंश से उत्पन्न स्त्रियाँ अधम कहलाती हैं । उनके कुल का कुछ पता नहीं रहता । वे मुख से दुर्वचन बोलने वाली, कुलटा, धूर्त, स्वेच्छाचारिणी और कलहप्रिया होती हैं ॥ १४७-१४८ ॥ पृथिव्यां कुलटा याश्च स्वर्गे चाप्सरसां गणाः । प्रकृतेस्तमसश्चाशाः पुंश्चल्यः परिकीर्तिताः ॥ १४९ ॥ पृथिवी की कुलटायें और स्वर्ग की वेश्यायें प्रकृति के तम अंश से उत्पन्न हैं । अतः इन्हें पुंश्चली कहा जाता है ॥ १४९ ॥ एवं निगदितं सर्वं प्रकृतेर्भेदपञ्चकम् । ताः सर्वाः पूजिताः पृथ्व्यां पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ १५० ॥ इस प्रकार मैंने प्रकृति के पाँचो भेद तुम्हें बता दिए । वे सभी देवियाँ पृथ्वी पर इस पुण्य क्षेत्र भारत में पूजित हुई हैं ॥ १५० ॥ पूजिता सुरथेनाऽऽदौ दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी । द्वितीया रामचन्द्रेण रावणस्य वधार्थिना ॥ १५१ ॥ प्रकृति की दूसरी कला, भीषण कष्टों का नाश करने वाली भी दुर्गा जी हैं, जिनकी उपासना सर्वप्रथम राजा सुरथ ने की थी । पश्चात् रावण-वधार्थ भगवान् रामचन्द्र ने भी उनकी आराधना की ॥ १५१ ॥ तत्पश्चाज्जगतां माता त्रिषु लोकेषु पूजिता । जाताऽऽदौ दक्षपत्न्यां च निहन्तुं दैत्यदानवान् ॥ १५२ ॥ उसके पश्चात् वह जगन्माता तीनों लोकों में पूजित हुईं । दैत्य-दानवों के विनाशार्थ वह सब से पहले दक्ष की पत्नी में अवतरित हुई थीं ॥ १५२ ॥ ततो देहं परित्यज्य यज्ञे भर्तुश्च निन्दया । जज्ञे हिमवतः पत्न्यां लेभे पशुपतिं पतिम् ॥ १५३ ॥ अनन्तर उन्होंने यज्ञ में पति की निन्दा के कारण देह त्याग कर हिमवान् की पत्नी मेना से जन्म ग्रहण किया और पशुपति (शिव) को पति के रूप में प्राप्त किया ॥ १५३ ॥ गणेशश्च स्वयं कृष्णः स्कन्दो विष्णुकलोद्भवः । बभूवतुस्तौ तनयौ पश्चात्तस्याश्च नारद ॥ १५४ ॥ नारद ! स्वयं कृष्ण ही गणेश हुए हैं और स्कन्द विष्णु की कला से उत्पन्न हुए हैं । ये दोनों शिव के पुत्र कहे जाते हैं ॥ १५४ ॥ लक्ष्मीर्मङ्गलभूपेन प्रथमं परिपूजिता । त्रिषु लोकेषु तत्पश्चाद्देवतामुनिमानवः ॥ १५५ ॥ लक्ष्मी की पूजा सर्वप्रथम राजा मंगल ने की । अनन्तर तीनों लोकों में देवता, मुनि एवं मनुष्यों द्वारा वह पूजित हुई ॥ १५५ ॥ सावित्री प्रथमं चापि भक्त्या वै परिपूजिता । तत्पश्चात्त्रिषु लोकेषु देवतामुनिमानवैः ॥ १५६ ॥ सावित्री की प्रथम पूजा भक्ति ने की । उसके पश्चात् तीनों लोकों में देव, मुनि एवं मानवों ने उनकी पूजा की ॥ १५६ ॥ आदौ सरस्वती देवी ब्रह्मणा परिपूजिता । तत्पश्चात्त्रिषु लोकेषु देवतामुनिमानवैः ॥ १५७ ॥ सर्वप्रथम ब्रह्मा ने सरस्वती देवी का सम्मान किया । अनन्तर तीनों लोकों में देवता, मुनि और मनुष्य वृन्दों ने उनकी अर्चना की ॥ १५७ ॥ प्रथमं पूजिता राधा गोलोके रासमण्डले । पौर्णमास्यां कार्तिकस्य कृष्णेन परमात्मना ॥ १५८ ॥ कात्तिकी पूर्णिमा के दिन सर्वप्रथम गोलोक के रासमण्डल में परमात्मा श्रीकृष्ण ने राधिका की पूजा की ॥ १५८ ॥ गोपिकाभिश्च गोपैश्च बालिकाभिश्च बालकैः । गवां गणैः सुरगणैस्तत्पश्चान्मायया हरेः ॥ १५९ ॥ पश्चात् गोपिकाओं, गोपों और उनके बालक-बालिकाओं तथा गौओं, देवों एवं विष्णु की माया ने उनकी पूजा की ॥ १५९ ॥ तदा ब्रह्मादिभिर्देवैर्मुनिभिर्मनुभिस्तथा । पुष्पधूपादिभिर्भक्त्या पूजिता वन्दिता सदा ॥ १६० ॥ अनन्तर ब्रह्मा आदि देवगण, मुनिगण और मनुष्यों ने भक्तिपूर्वक पुष्प, धूप आदि के द्वारा राधा की पूजा-वन्दना की ॥ १६० ॥ पृथिव्यां प्रथमं देवी सुयत्नेन च पूजिता । शंकरेणोपदिष्टेन पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ १६१ ॥ पृथिवी पर पुण्य क्षेत्र भारत में सर्वप्रथम सुयज्ञ ने शंकर जी के उपदेश देने पर राधा देवी की पूजा की ॥ १६१ ॥ त्रिषु लोकेषु तत्पश्चादाज्ञया परमात्मनः । पुष्पधूपादिभिर्भक्त्या पूजिता मुनिभिः सुरैः ॥ १६२ ॥ तत्पश्चात् परमात्मा की आज्ञा से तीनों लोकों में मुनिगण और देवगण भक्तिपूर्वक पुष्प, धूपादि द्वारा उनकी पूजा की ॥ १६२ ॥ कला या या सुसंभूताः पूजितास्ताश्च भारते । पूजिता ग्रामदेव्यश्च ग्रामे च नगरे मुने ॥ १६३ ॥ मुने ! इस प्रकार (प्रकृति से उत्पन्न) जितनी कलाएँ हैं वे भारत में ग्रामदेवियाँ होकर गाँवों और नगरों में पूजित होती हैं । ॥ १६३ ॥ एवं ते कथितं सर्वं प्रकृतेश्चरितं शुभम् । यथागमं लक्षणं च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६४ ॥ इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रकृति का सभी शुभचरित और शास्त्रानुसार उनका लक्षण बता दिया । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ १६४ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे प्रकृतिस्वरूपतद्भेदवर्णन नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में प्रकृति-स्वरूप और उसका भेद वर्णन नामक पहला अध्याय समाप्त ॥ १ ॥ |