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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्वितीयोऽध्यायः


देवदेव्युत्पत्तिः -
श्रीकृष्ण और राधा से देव-देवियों की उत्पत्ति का वर्णन -


नारद उवाच
समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं विभो ।
विबोधनार्थं बोधस्य व्यासतो वक्तुमर्हसि ॥ १ ॥
नारद बोले-विभो ! मैंने संक्षेपतः देवियों का समस्त चरित सुन लिया, किन्तु ज्ञान-वृद्धि के लिए इसे पुनः विस्तार के साथ कहने की कृपा करें ॥ १ ॥

सृष्टिराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।
कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदां वर ॥ २ ॥
वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ ! सृष्टि-विधान के समय सृष्टि की आद्या देवी कैसे प्रकट हुईं ? और वह पांच रूपों में कैसे हो गई ? ॥ २ ॥

भूता या याश्च कलया तया त्रिगुणया भवे ।
व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि सांप्रतम् ॥ ३ ॥
इस संसार में देवी की त्रिगुणमयी कला से जो-जो देवियाँ उत्पन्न हुई, उनका चरित्र मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥

तासां जन्मानुकथनं ध्यानं पूजाविधिं परम् ।
स्तोत्रं कवचमैश्वर्यं शौर्यं वर्णय मङ्गलम् ॥ ४ ॥
आप उनके जन्म की कथा, उनके ध्यान, पूजा का उत्तम विधान, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य और मंगलदायक शौर्य वर्णन करने की कृपा करें ॥ ४ ॥

नारायण उवाच
नित्यात्मा च नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा ।
विश्वेषां गोलकं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ॥ ५ ॥
श्रीनारायण बोले-दिशाओं की भांति आत्मा, आकाश और काल नित्य हैं, एवं विश्व-गोल तथा गोलोकधाम नित्य हैं ॥ ५ ॥

तदेकदेशो वैकुण्ठो लम्बभागः स नित्यकः ।
तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीना सनातनी ॥ ६ ॥
उसके एक प्रदेश के लम्बे भाग में स्थित वैकुण्ठ भी नित्य है । उसी प्रकार ब्रह्म में लीन रहने वाली सनातनी प्रकृति भी नित्य है ॥ ६ ॥

यथाऽग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।
शश्वद्युक्ता न भिन्नासा तथा प्रकृतिरात्मनि ॥ ७ ॥
जिस प्रकार अग्नि में दाहिका शक्ति, चन्द्र और कमल में शोभा तथा सूर्य में प्रभा निरन्तर युक्त रहती है कभी भिन्न नहीं होती । उसी प्रकार परमात्मा में प्रकृति नित्य विराजमान रहती है ॥ ७ ॥

विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।
विना मृदा कुलालो हि घटं कर्तुं नहीश्वरः ॥ ८ ॥
जिस भांति विना सुवर्ण के सोनार कुण्डल (आदि आभूषण) बनाने में असमर्थ रहता है, बिना मिट्टी के कुम्हार घट आदि नहीं बना सकता है ॥ ८ ॥

न हि क्षमस्तथा ब्रह्मा सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।
सर्वशक्तिस्वरूपा सा तया स्याच्छक्तिमान्सदां ॥ ९ ॥
उसी भाँति बिना प्रकृति के परमात्मा सृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं । जिसके सहारे थीहरि सदा शक्तिमान् बने रहते हैं, वह प्रकृति देवी ही शक्तिस्वरूपा है ॥ ९ ॥

ऐश्वर्यवचनःशक्तिः पराक्रम च वाचकः ।
तत्स्वरूपा तयोर्दात्री या सा शक्तिः प्रकीर्तिता ॥ १० ॥
(शक्ति शब्द में) शक् का अर्थ है ऐश्वर्य और ति का अर्थ है पराक्रम । ये दोनों जिसके स्वरूप हैं तथा जो इन दोनों गुणों को प्रदान करती है, उसे शक्ति कहा जाता है ॥ १० ॥

समृद्धिबुद्धिसंपत्तियशसां वचनो भगः ।
तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा ॥ ११ ॥
भग शब्द समृद्धि, बुद्धि, सम्पत्ति एवं यश का बोधक है । उससे सम्पन्न होने के कारण शक्ति को भगवती कहा जाता है; क्योंकि वह सदैव भगस्वरूपा है ॥ ११ ॥

तया युक्तः सदाऽऽत्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
स च स्वेच्छामयः कृष्णः साकारश्च निराकृतिः ॥ १२ ॥
उसी से सदैव युक्त रहने के कारण परमात्मा भगवान् कहा जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण, स्वेच्छामय एवं निराकार होते हुए भी साकार हैं ॥ १२ ॥

तेजोरूपं निराकारं ध्यायन्ते योगिनः सदा ।
वदन्ति ते परं ब्रह्म परमात्मानमीश्वरम् ॥ १३ ॥
अदृश्यं सर्वद्रष्टारं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।
सर्वदं सर्वरूपान्तमरूपं सर्वपोषकम् ॥ १४ ॥
उन परब्रह्म परमात्मा एवं ईश्वर को योगी लोग सदा तेजोरूप निराकार कह कर उनका ध्यान करते हैं, वे अदृश्य रहते हुए भी सब को देखने वाले, सर्वज्ञाता, समस्त के कारण, सर्वप्रद, समस्त रूपों में रहने वाले, रूपरहित तथा सब के पोषक हैं ॥ १३-१४ ॥

वैष्णवास्तं न मन्यन्ते तद्‌भक्ताः सूक्ष्मदर्शिनः ।
वदन्ति इति ते कस्य तेजस्तेजस्विनं विना ॥ १५ ॥
तेजोमण्डलमध्यस्थं ब्रह्मतेजस्विनं परम् ।
स्वेच्छामयं सर्वरूपं सर्वकारणकारणम् ॥ १६ ॥
अतीव सुन्दरं रूपं बिभ्रतं सुमनोहरम् ।
किशोरवयसं शान्तं सर्वकान्तं परात्परम् ॥ १७ ॥
किन्तु उनके सूक्ष्मदर्शी भक्त वैष्णव जन ऐसा नहीं स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि बिना तेजस्वी व्यक्ति के वह तेज किसका कहा जायगा । इस लिए उस तेजोमण्डल के मध्य में वह परम तेजस्वी परब्रह्म स्थित रहते हैं, जो स्वेच्छामय, सर्वरूप तथा समस्त कारणों के कारण हैं । वे अत्यन्त सुन्दर और अत्यन्त मनोहर रूप धारण कर के किशोरावस्था में वर्तमान रहते हैं । वे शान्त, सब के कान्त और परात्पर (श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ) हैं ॥ १५-१७ ॥

नवीननीरदाभासं रासैकश्यामसुन्दरम् ।
शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचकलोचनम् ॥ १८ ॥
मुक्तासारमहास्वच्छदन्तपङ्क्तिमनोहरम् ।
मयूरपुच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ॥ १९ ॥
सुनासं सस्मितं शश्वद्‌भक्तानुग्रहकारकम् ।
ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ॥ २० ॥
द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्‍नभूषणभूषितम् ।
सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ॥ २१ ॥
सर्वेश्वर्यप्रदं सर्वं स्वतन्त्रं सर्वमङ्गलम् ।
परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धिदं सिद्धिकारणम् ॥ २२ ॥
उनका श्याम विग्रह नवीन मेघ की कान्ति का परमधाम है । इनके विशाल नेत्र शरत् काल के मध्याहन में खिले हुए कमलों की शोभा को तुच्छ करने वाले हैं । मोतियों की शोभा को छीनने वाली उनकी सुन्दर दन्तपंक्ति है । मुकुट में मोरपंख सुशोभित है । मालती की माला से वे अनुपम शोभा पा रहे हैं । उनकी नासिका सुन्दर है । मुख पर मुस्कान छायी है । वे परम मनोहर प्रभु भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए व्याकुल रहते हैं । प्रज्वलित अग्नि के समान विशुद्ध पीताम्बर से उनका विग्रह परम मनोहर हो गया है । उनकी दो भुजाएँ हैं । हाथ में बांसुरी सुशोभित है । वे रत्नमय भूषणों से भूषित, सब के आधार, सब के ईश, समस्त शक्तियों से युक्त, प्रभु, समस्त ऐश्वर्यों के प्रदाता, सर्वरूप स्वतन्त्र, सर्वमंगल, परिपूर्णतम, सिद्ध, सिद्धिदायक और सिद्धि के कारण हैं ॥ १८-२२ ॥

ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वदेवंरूपं सनातनम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार के सनातन रूप का वैष्णव गण निरन्तर ध्यान करते हैं । उनकी कृपा से जन्म, मृत्यु., जरा, व्याधि, शोक और भय का अत्यन्त नाश हो जाता है ॥ २३ ॥

ब्रह्मणो वयसा यस्य निमेष उपचर्यते ।
स चाऽऽत्मा परमं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥ २४ ॥ ।
ब्रह्मा की पूर्ण आयु उनके एक निमेष के बराबर है, वे ही परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं ॥ २४ ॥

कृषिस्तद्‌भक्तिवचनो नश्च तद्‌दास्यवाचकः ।
भक्तिदास्यप्रदाता यः स कृष्णः परिकीर्तितः ॥ २५ ॥
(कृष्ण शब्द में) 'कृष' का अर्थ है भक्ति और 'न' का अर्थ है दास्य । इसलिए भक्ति और दास्य भाव के प्रदायक भगवान् कृष्ण हैं, ऐसा कहा जाता है ॥ २५ ॥

कृषिश्च सर्ववचनो नकारो बीजवाचकः ।
सर्वबीजं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥ २६ ॥
'कृष' समस्त वाची है और ण, का अर्थ है बीज । अतः समस्त बीजस्वरूप परब्रह्म 'कृष्ण' कहे गए हैं ॥ २६ ॥

असंख्यब्रह्मणां पाते कालेऽतीतेऽपि नारद ।
यद्‌गुणानां नास्ति नाशस्तत्समानो गुणेन च ॥ २७ ॥
स कृष्णः सर्वसृष्ट्यादौ सिसृक्षुस्त्वेक एव च ।
सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः ॥ २८ ॥
स्वेच्छामयःस्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
स्त्रीरूपा वामभागांशाद्‌दक्षिणांशः पुमान् स्मृतः ॥ २९ ॥
नारद ! असंख्य ब्रह्मा की आयु पर्यन्त जिनके गुणों का नाश नहीं होता है उनके समान गुण में कोई नहीं है वे सृष्टि के आदि में एकाकी थे । उस समय उनके मन में सृष्टि करने की इच्छा हुई । अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिए उन्मुख हुए थे । उनका स्वरूप स्वेच्छामय है । वे अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गए । उनका वामांश स्त्री रूप में और दक्षिण भाग पुरुष रूप में आविर्भूत हुए ॥ २७-२९ ॥

तां ददर्श महाकामी कामाधारः सनातनः ।
अतीव कमनीयां च चारुचम्पकसंनिभाम् ॥ ३० ॥
पूर्णेन्दुबिम्बसदृशनितम्बयुगलां पराम् ।
सुचारुकदलीस्तम्भसदृशश्रोणिसुन्दरीम् ॥ ३१ ॥
श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् ।
पुष्ट्या युक्तां सुललितां मध्यक्षीणां मनोहराम् ॥ ३२ ॥
अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ३३ ॥
शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्ती संततं मुदा ।
कृष्णस्य सुन्दरमुखं चन्द्रकोटिविनिन्दकम् ॥ ३४ ॥
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।
समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम् ॥ ३५ ॥
सुवक्रकबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ।
रत्‍नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् ॥ ३६ ॥
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टशोभासमन्विताम् ।
गमने राजहंसीं तां दृष्ट्या खञ्जनगञ्जनीम् ॥ ३७ ॥
वे सनातन, महाकामी तथा कामाधार पुरुष उस दिव्य रमणी को देखने लगे । उस रमणी की कान्ति मनोहर चंपा के समान थी । पूर्णचन्द्र-मंडल के समान उसके गोल-गोल नितम्ब थे । सुंदर कदली-स्तंभ के समान उसके ऊरु भाग थे । सुन्दर विल्बफल के समान उसके दोनों स्तन थे । उसका शरीर पुष्ट एवं कमनीय था । मध्यभाग (कटि-प्रदेश) पतला था । वह सुन्दरी शान्त, मन्द मुसकान से युक्त तथा टेढ़ी चितवन वाली थी । उसने अग्नि के समान चमकने वाले वस्त्र तथा रत्नों के आभूषण धारण कर रखे थे । वह अपने चकोररूपी चक्षुओं के द्वारा श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र का निरन्तर हर्षपूर्वक पान कर रही थी । श्रीकृष्ण का मुखमण्डल इतना भव्य था कि उसके सामने करोड़ों चन्द्र भी नगण्य थे । उस देवी के ललाट के ऊपरी भाग में कस्तूरी की बिदी थी । नीचे चन्दन की छोटी-छोटी बिदियाँ थीं । साथ ही मध्य ललाट में सिंदूर की बिंदी भी शोभा पा रही थी । प्रियतम के प्रति अनुरक्त चित्त वाली उस देवी के केश' घुघराले थे । मालती के पुष्पों का सुन्दर हार उसे सुशोभित कर रहा था । करोड़ों चन्द्रों की प्रभा से सुप्रकाशित परिपूर्ण शोभा से इस देवी का श्रीविग्रह सम्पन्न था । यह अपनी चाल से राजहंस एवं खंजन पक्षी के गर्व को नष्ट कर रही थी ॥ ३०-३७ ॥

मतिमात्रं तया सार्धं रासेशो रासमण्डले ।
रासोल्लासेषु रहसि रासक्रीडां चकार ह ॥ ३८ ॥
नानाप्रकारशृङ्गारं शृङ्गारो मूर्तिमानिव ।
चकार सुखसंभोगो यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ ३९ ॥
रासेश्वर श्रीकृष्ण उस देवी को देख कर रास के उल्लास में उल्लसित हो उठे । वे उसके साथ रासमण्डल में पधारे । एकान्त में रासक्रीड़ा होने लगी । मानो स्वयं श्रृंगार ही मूर्तिमान् होकर नाना प्रकार की शृंगारोचित चेष्टाओं के साथ रसमयी क्रीड़ा कर रहा हो । उस रास में उन्होंने एक ब्रह्मा की आयु पर्यन्त उसके साथ सुख-सम्भोग किया ॥ ३८-३९ ॥

ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।
चकार वीर्याधानं च नित्यानन्दः शुभक्षणे ॥ ४० ॥
पश्चात् जगत् के पिता उन नित्यानन्द ने परिश्रान्त होकर शुभमुहूर्त में उसके गर्भ में वीर्य का निक्षेप किया ॥ ४० ॥

गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत ।
निःससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः ॥ ४१ ॥
महासुरतखिन्नाया निःश्वासश्च बभूव ह ।
तदाधारश्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् ॥ ४२ ॥
स च निःश्वासवायुश्च सर्वाधारो बभूव ह ।
निःश्वासवायुः सर्वेषां जीविनां च भवेषु च ॥ ४३ ॥
सुव्रत ! रतिक्रीड़ा के अन्त में उस कामिनी के शरीर से, जो भगवान् के तेज से श्रान्त हो गयी थी, प्रस्वेद बह चला और उस महासुख से खिन्न होने के कारण उसका निःश्वास जोर-जोर से चलने लगा । उसके शरीर से निकले हुए प्रस्वेद-जल से सम्पूर्ण विश्वगोल का निर्माण हुआ । और उसका निःश्वास वायु सब का आधार हुआ । संसार में सभी जीवों का निःश्वास वायु हुआ ॥ ४१-४३ ॥

बभूव मूर्तिमद्वायोर्वामाङ्गात्प्राणवल्लभा ।
तत्पत्‍नी सा च तत्पुत्राः प्राणाः पञ्च च जीविनाम् ॥ ४४ ॥
उस मूर्तिमान् वायु के बायें अंग से उसकी प्राणवल्लभा पत्नी प्रकट हुई । उससे पांच पुत्र उत्पन्न हुए, जो जीवधारियों के प्राण रूप हैं ॥ ४४ ॥

प्राणोऽपानः समानश्चैवोदानो व्यान एव च ।
बभूवुरेव तत्पुत्रा अधः प्राणाश्च पञ्च च ॥ ४५ ॥
प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान यही पाँचों उसके पुत्र हैं । पाँच अधः प्राण भी हैं ॥ ४५ ॥

धर्मतोयाधिदेवश्च बभूव वरुणो महान् ।
तद्वामाङ्‌गाच्च तत्पत्‍नी वरुणानी बभूव सा ॥ ४६ ॥
फिर उस स्वेद-जल से जल के महान् अधिदेव वरुण उत्पन्न हुए, जिनके बाँयें भाग से उनकी पत्नी वरुणानी उत्पन्न हुई ॥ ४६ ॥

अथ सा कृष्णशक्तिश्च कृष्णाद्‌गर्भं दधार ह ।
शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्ती ब्रह्मतेजसा ॥ ४७ ॥
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण की उस शक्ति ने उनके द्वारा गर्भ धारण किया, जो सौ मन्वन्तर के समय तक ब्रह्म-तेज से प्रज्वलित रहा ॥ ४७ ॥

कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।
कृष्णस्य सङ्गिनी शश्वत्कृष्णवक्षःस्थलस्थिता ॥ ४८ ॥
शतमन्वन्तरातीतकाले परमसुन्दरी ।
सुषावाण्डं सुवर्णाभं विश्वाधार लयं परम् ॥ ४९ ॥
तब भगवान् कृष्ण के प्राणों की अधिदेवता, उनके प्राणों की प्यारी, उनकी संगिनी और उनके वक्षःस्थल पर निरन्तर विराजमान उस परम सुन्दरी ने सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान अण्डा उत्पन्न किया, जो समस्त विश्व का परम आधार हुआ ॥ ४८-४९ ॥

दृष्ट्‍वा चाण्डं हि सा देवी हृदयेन विदूयता ।
उत्ससर्ज च कोपेन तदण्डं गोलके जले ॥ ५० ॥
उस अण्डे को देख कर उस देवी ने हार्दिक दुःख प्रकट करती हुई क्रोध से उस अंडे को विश्वगोलक के अथाह जल में छोड़ दिया ॥ ५० ॥

दृष्ट्‍वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार ह ।
शशाप देवी देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ॥ ५१ ॥
यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले सुनिष्ठुरे ।
भव त्वमनपत्याऽपि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ॥ ५२ ॥
भगवान् कृष्ण ने स्त्री द्वारा उस अण्डे का उस प्रकार का त्याग देख कर हा-हाकार करते हुए उसी समय उस देवी को यथोचित शाप दिया---'हे कोपस्वभाव वाली एवं अत्यन्त निष्ठुरे ! तुमने सन्तान का त्याग किया है, अतः आज से सदैव के लिए तू निश्चित ही सन्तानहीना होकर रहेगी ॥ ५१-५२ ॥

या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।
अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ॥ ५३ ॥
और तेरे अंश से उत्पन्न होने वाली जितनी देवांगनाएँ होंगी, वे तुम्हारी ही भांति नित्ययौवना किन्तु सन्तानहीना होंगी ॥ ५३ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवोजिह्वाग्रात्सहसा ततः ।
आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ॥ ५४ ॥
अनन्तर उसी क्षण उस देवी की जिह वा के अग्र भाग से एक शुक्ल वर्ण की मनोहरा कन्या सहसा उत्पन्न हुई ॥ ५४ ॥

पीतवस्त्रपरिधाना वीणापुस्तकधारिणी ।
रत्‍नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता ॥ ५५ ॥
वह पीताम्बर धारण किए हुई थी । उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे । समस्त शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी ॥ ५५ ॥

अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपा बभूव ह ।
वामार्धाङ्‍गा च कमला दक्षिणार्धा च राधिका ॥ ५६ ॥
इसके उपरान्त कुछ काल व्यतीत होने पर वह देवी दो रूपों में प्रकट हुई, जिसके बायें भाग से कमला और दाहिने से राधिका का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ५६ ॥

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह ।
दक्षिणार्धः स्याद्‌द्विभुजो वामार्धश्च चतुर्भुजः ॥ ५७ ॥
इसी बीच भगवान् कृष्ण भी दो रूपों में प्रकट होकर दाहिने भाग से दो भुजा वाले श्रीकृष्ण और बाँयें भाग से चार भुजा वाले विष्णु हुए ॥ ५७ ॥

उवाच वाणीं श्रीकृष्णस्त्वमस्य भव कामिनी ।
अत्रैव मानिनी राधा नैव भद्रं भविष्यति ॥ ५८ ॥
एवं लक्ष्मीं संप्रददौ तुष्टो नारायणाय वै ।
संजगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्धं जगत्पतिः ॥ ५९ ॥
भगवान् कृष्ण ने सरस्वती से कहा कि 'तुम विष्णु की पत्नी बनो । यहाँ (मेरे साथ) माननीया राधिका रहेगी । इसी से कल्याण होगा । ' इसी प्रकार लक्ष्मी से भी कह कर उन्होंने लक्ष्मी को नारायण (विष्णु) को प्रदान कर दिया । फिर तो जगत्पति (विष्णु) उन दोनों को साथ लेकर वैकुण्ठ चले गए ॥ ५८-५९ ॥

अनपत्ये च ते द्वे च यतो राधांशसंभवे ।
नारायणाङ्गादभवन्पार्षदाश्च चतुर्भुजाः ॥ ६० ॥
तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः ।
बभूवुः कमलाङ्गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः ॥ ६१ ॥
मूल प्रकृति रूप राधा के अंश से उत्पन्न होने के कारण वे दोनों (लक्ष्मी और सरस्वती) सन्तानहीना हुई । फिर नारायण (विष्णु) के अंग से विष्णु अनेक पार्षद उत्पन्न हुए, जो तेज, अवस्था, रूप और गुणों में विष्णु के ही समान थे । लक्ष्मी के अंग से करोड़ों दासियाँ उत्पन्न हो गई, जो उन्हीं के समान थीं ॥ ६०-६१ ॥

अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।
आसन्नसंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ॥ ६२ ॥
मुने ! अनन्तर गोलोकनाथ (भगवान् श्रीकृष्ण) के लोम-कूपों से असंख्य गोप उत्पन्न हुए, जो अवस्था और तेज में उन्हीं के समान थे ॥ ६२ ॥

रूपेण सुगुणेनैव वेषाद्वा विक्रमेण च ।
प्राणतुल्याः प्रियाः सर्वे बभूवु पार्षदा विभोः ॥ ६३ ॥
रूप, उत्तम गुण, वेष और पराक्रम में विभु श्रीकृष्ण के समान वे गोपगण उन्हीं के प्राणप्रिय पार्षद हुए ॥ ६३ ॥

राधाङ्‌गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।
राधातुल्याश्च सर्वास्ता नान्यतुल्याः प्रियंवदाः ॥ ६४ ॥
ऐसे ही राधा जी के लोम-कूपों से बहुत-सी गोपकन्याएँ उत्पन्न हुई, जो राधा के समान ही अनुपम मधुरभाषिणी थीं ॥ ६४ ॥

रत्‍नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।
अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन संततम् ॥ ६५ ॥
रत्नों के भूषणों से भूषित एवं निरन्तर स्थिर यौवन वाली वे सभी स्त्रियाँ भगवान् कृष्ण के (पहले) शाप के कारण सन्तानहीन हुई ॥ ६५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः ।
आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी ॥ ६६ ॥
विप्र ! इसी बीच भगवान् कृष्ण की देह से सनातनी विष्णु माया दुर्गा सहसा प्रकट हुई ॥ ६६ ॥

देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
बुद्ध्यधिष्ठातृदेवो सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ६७ ॥
इन्हें नारायणी, ईशाना एवं सर्वशक्तिस्वरूपिणी कहा जाता है । ये परमात्मा कृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ ६७ ॥

देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ॥ ६८ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्यकोटिसमप्रभा ।
ईषद्धासप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ॥ ६९ ॥
देवियों की बीज रूप, मूल प्रकृति, ईश्वरी, परिपूर्णतमा, तेजःस्वरूपा, तीनों (सत्त्व, रज, तम) गुणमयी, तप्त सुवर्ण के समान वर्ण वाली, करोड़ों सूर्य के समान चमकने वाली, मन्द मुसुकान से सुशोभित प्रसन्न मुख वाली और सहस्र भुजाओं वाली हैं ॥ ६८-६९ ॥

नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषिता ॥ ७० ॥
तीन नेत्रों वाली वे दुर्गा अनेक भांति के शस्त्रास्त्रों को हाथों में लिये रहती हैं । वे अग्निशुद्ध वस्त्रों एवं रत्नों के आभूषणों से विभूषित हैं । ॥ ७० ॥

यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः ।
सर्वविश्वस्थिता लोका मोहिता मायया यया ॥ ७१ ॥
समस्त स्त्रियाँ उनके अंश की कला से उत्पन्न हुई हैं और उनकी माया समस्त विश्व को मोहित करने में समर्थ हैं ॥ ७१ ॥

सर्वैश्वर्यप्रदात्री च कामिनां गृहमेधिनाम् ।
कृष्णभक्तिप्रदात्री च वैष्णवानां च वैष्णवी ॥ ७२ ॥
वह सकाम भाव से उपासना करने वाले गृहस्थों को सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करती हैं । वही कृष्णभक्ति देने वाली तथा विष्णु-भक्तों के लिए विष्णुरूपधारिणी भी हैं ॥ ७२ ॥

मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी ।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीः सा गृहलक्ष्मीर्गृहेष्वसौ ॥ ७३ ॥
तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा सा नृपेषु च ।
या चाग्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे ॥ ७४ ॥
शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मेषु च सुशोभना ।
सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥ ७५ ॥
वे मोक्ष चाहने वालों को मोक्ष और सुखेच्छुकों को सुख प्रदान करती हैं । वही स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और गृहस्थों के घर गृहलक्ष्मी के रूप में रहती हैं । वही तप करने वालों में तपस्या रूप से, राजाओं में राजलक्ष्मी रूप से, अग्नि में दाहिका रूप से, भास्कर में प्रभारूप से, चन्द्रमा में शोभारूप से, कमलों में सौन्दर्य रूप से तथा परमात्मा श्रीकृष्ण में समस्त शक्ति रूप से विराजमान रहती हैं ॥ ७३-७५ ॥

यया च शक्तिमानात्मा यया वै शक्तिमज्जगत् ।
यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ॥ ७६ ॥
उनसे आत्मा तथा सारा जगत् शक्तिमान् होता है और उनके बिना समस्त जगत् जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है ॥ ७६ ॥

या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी ।
स्थितिरूपा बुद्धिरूपा फलरूपा च नारद ॥ ७७ ॥
नारद ! वे इस संसार रूपी वृक्ष के लिए बीजस्वरूपा हैं । वे स्थितिरूपा, बुद्धिरूपा और फलरूपा भी हैं ॥ ७७ ॥

क्षुत्पिपासा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा क्षमा धृतिः ।
शान्तिर्लज्जा तुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी ॥ ७८ ॥
सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुपस्थितः ।
रत्‍नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः ॥ ७९ ॥
वही क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा (आलस्य), क्षमा, धृति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति, और कान्ति आदि रूपा हैं । अनन्तर वे देवेश कृष्ण की स्तुति करके उनके सामने खड़ी हो गईं । राधिकेश्वर (भगवान् श्रीकृष्ण) ने उन्हें रत्नसिंहासन प्रदान किया ॥ ७८-७९ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।
पद्मनाभनाभिपद्मान्निःससार पुमान्मुने ॥ ८० ॥
मुने ! इसी बीच स्त्री सहित ब्रह्मा वहाँ आये । ब्रह्मा विष्णु के नाभिकमल से प्रकट हुए थे ॥ ८० ॥

कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः ।
चतुर्मुखस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ ८१ ॥
सुदती सुन्दरी श्रेष्ठा शतचन्द्रसमप्रभा ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषिता ॥ ८२ ॥
रत्‍नसिंहासने रम्ये स्तुता वै सर्वकारणम् ।
उवास स्वामिना सार्धं कृष्णस्य पुरतो मुदा ॥ ८३ ॥
वे तपस्वी, ज्ञानियों में श्रेष्ठ, कमण्डलुधारी और ब्रह्मतेज से देदीप्यमान ब्रह्मा श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे । उस समय सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान कान्ति वाली, सुन्दर दाँतों वाली तथा अग्निशुद्ध वस्त्र एवं रत्न-निर्मित आभूषणों से अलंकृत वह सुन्दरी देवी उन सर्वकारण (श्रीकृष्ण) की स्तुति करके पतिदेव के साथ श्रीकृष्ण के सामने रत्नमय सिंहासन पर आनन्दपूर्वक बैठ गईं ॥ ८१-८३ ॥

एवस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
वामार्धाङ्गो महादेवो दक्षिणो गोपिकापतिः ॥ ८४ ॥
इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण किये । उनका बायाँ आधा अंग महादेव हुआ और दाहिने आधे अंग से वे गोपीपति (श्रीकृष्ण) ही रहे ॥ ८४ ॥

शुद्धस्फटिकसंकाशः शतकोटिरविप्रभः ।
त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्मधरो हरः ॥ ८५ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभजटाभारधरः परः ।
भस्मभूषणगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः ॥ ८६ ॥
दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्वभूषणभूषितः ।
बिभ्रद्‌दक्षिणहस्तेन रत्‍नमालां सुसंस्कृताम् ॥ ८७ ॥
प्रजपन्पञ्चवक्त्रेण ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
सत्यस्वरूपं श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वम् ॥ ८८ ॥
कारणं कारणानां च सर्वमङ्गलमङ्गलम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ॥ ८९ ॥
संस्तूय मृत्योर्मृत्युं तं जातो मृत्युंजयाभिधः ।
रत्‍नसिंहासने रम्ये समुवास हरेः पुरः ॥ ९० ॥
महादेव की कान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान थी । एक अरब सूर्य के समान वे प्रकाशमान थे । वे त्रिशूल और पट्टिश धारण किये हुए थे । बाघम्बर पहने हुए थे । उनकी जटाओं की आभा तपाये हुए सुवर्ण जैसी थी । अंगों में भस्म रमा हुआ था । मुख पर मुसकराहट और मस्तक पर चन्द्रमा की शोभा हो रही थी । वे दिगम्बर (नग्न), नीलकंठ तथा सों के आभूषणों से विभूषित थे । उनके दाहिने हाथ में सुसंस्कृत रत्नमाला थी । वे (अपने) पांच मुखों से ब्रह्मज्योतिः स्वरूप, सनातन, सत्यरूप, परमात्मा, ईश्वर, कारणों के कारण, समस्त मंगलों के मंगल, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा भय को हरने वाले और मृत्यु की भी मृत्यु भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करके 'मृत्युञ्जय' कहलाये और भगवान् के सम्मुख ही उनकी आज्ञा से रमणीक रत्न सिंहासन पर आसीन हो गए ॥ ८५-९० ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे
देवदेव्युत्पत्तिर्नाम द्वितीयाऽध्यायः ॥ २ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में देव और देवी की उत्पत्ति नामक दूसरा अध्याय समाप्त ॥ २ ॥

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