![]() |
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुर्थोऽध्यायः सरस्वतीकवचम् -
सरस्वती-पूजा का विधान तथा कवच - नारद उवाच श्रुतं सर्वमपूर्वं च त्वत्प्रसादात्सुधोपमम् । अधुना प्रकृतीनां च व्याप्तं वर्णय भोः प्रभो ॥ १ ॥ नारद बोले-प्रभो ! आपकी कृपा से मैंने सारा अमृतोपम वृत्तान्त सुन लिया, अब प्रकृतियों का व्यष्टि रूप में वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ कस्याः पूजा कृता केन कथं मर्त्ये प्रकाशिता । केन वा पूजिता का वा केन का वा स्तुता मुने ॥ २ ॥ मुने ! किस देवी की पूजा सर्वप्रथम किसने की है और वह मर्त्यलोक में कैसे प्रकाशित हुई । वहाँ किसने किसकी पूजा की और किसने किसकी स्तुति की ॥ २ ॥ कवचं स्तोत्रकं ध्यानं प्रभावं चरितं शुभम् । काभिः काभ्यो वरो दत्तस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥ उनके कवच, स्तोत्र, ध्यान, प्रभाव एवं चरित के साथ-साथ यह भी मुझे बताने की कृपा कीजिये कि किन्होंने किनको वर दिये हैं ॥ ३ ॥ नारायण उवाच गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती । सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता ॥ ४ ॥ नारायण बोले-गणेश की माता दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री, इन्हीं पांच रूपों में प्रकृति सृष्टिविधान के अवसर पर प्रकट हुई थी ॥ ४ ॥ आसां पूजा प्रभावश्च प्रसिद्धः परमाद्भुतः । सुधोपमं च चरितं सर्वमङ्गलकारणम् ॥ ५ ॥ इनकी पूजा और प्रभाव परम अद्भुत एवं प्रसिद्ध है । इनका अमतोपमचरित्र समस्त मंगलों का कारण है ॥ ५ ॥ प्रकृत्यंशाः कलायाश्च तासां च चरितं शुभम् । सर्वं वक्ष्यामि ते ब्रह्मन्सावधानं निरामय ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! जो प्रकृति की अंशभूता और कलास्वरूपा देवियाँ हैं, उनके पुण्य चरित्र तुम्हें बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ६ ॥ वाणी वसुंधरा गङ्गा षष्ठी मङ्गलचण्डिका । तुलसी मानसी निद्रा स्वधा स्वाहा च दक्षिणा ॥ ७ ॥ तेजसा मत्समास्ताश्च रूपेण च गणेन च ॥ ८ ॥ संक्षेपमासां चरितं पुण्यदं श्रुतिसुन्दरम् । जीवकर्मविपाकं च तच्च वक्ष्यामि सुन्दरम् ॥ ९ ॥ वाणी (सरस्वती), वसुन्धरा (पृथ्वी), गंगा, षष्ठी, मंगलचण्डिका, तुलसी, मानसी, निद्रा, स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा–ये देवियाँ तेज, रूप, गुण में मेरे समान हैं । संक्षेप में मैं इनका पुण्यदायक तथा श्रवणसुखद चरित्र और जीवों का सुन्दर कर्म-विपाक भी बताऊँगा ॥ ७-९ ॥ दुर्गायाश्चैव राधाया विस्तीर्णं चरितं महत् । तच्च पश्चात्प्रवक्ष्यामि संक्षेपात्क्रमतः शृणु ॥ १० ॥ दुर्गा और राधिका के महान् विस्तृत चरित को पश्चात् संक्षेप में कहूँगा, अभी क्रमशः सुनो ॥ १० ॥ आदौ सरस्वतीपूजा श्रीकृष्णेन विनिर्मिता । यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डितः ॥ ११ ॥ मुनिश्रेठ ! सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने ही सरस्वती जी की पूजा आरम्भ की है, जिनकी कृपा से मूर्ख भी पण्डित हो जाता है ॥ ११ ॥ आविर्भूता यदा देवी वक्त्रतः कृष्णयोषितः । इयेष कृष्णं कामेन कामुकी कामरूपिणी ॥ १२ ॥ स च विज्ञाय तद्भावं सर्वज्ञः सर्वमातरम् । तामुवाच हितं सत्यं परिणामसुखावहम् ॥ १३ ॥ भगवान् कृष्ण की स्त्री के मुख से उत्पन्न सरस्वती देवी ने जिस समय कामरूपिणी और कामुकी होकर कृष्ण को पाने की इच्छा प्रकट की, उस समय उनका भाव ताड़कर सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने सबकी माता सरस्वती से हितकर, सत्य और परिणाम में सुखदायक वचन कहा ॥ १२-१३ ॥ श्रीकृष्ण उवाच भज नारायणं साध्वि मदंशं च चतुर्भुजम् । युवानं सुन्दरं सर्वगुणयुक्तं च मत्समम् ॥ १४ ॥ कामदं कामिनीनां च तासां तं कामपूरकम् । कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलान्यक्कृतमन्मथनम् ॥ १५ ॥ श्रीकृष्ण बोले-पतिव्रते ! मेरे अंश से उत्पन्न नारायण (विष्णु) चार भुजा धारणकर, मेरे समान ही युवा, सुन्दर और समस्त गुणों से युक्त हैं, तुम उन्हीं की (पत्नी होकर) सेवा करो । वे समस्त कामिनियों की इच्छाओं के पूरक, कामपद, करोड़ों कन्दर्प के समान सुन्दर तथा लीला में कामदेव को भी परास्त करने वाले हैं । ॥ १४-१५ ॥ कान्ते कान्तं च मां कृत्वा यदि स्थातुमिहेच्छसि । त्वत्तो बलवती राधा न ते भद्रं भविष्यति ॥ १६ ॥ कान्ते ! मुझे पतिरूप में स्वीकार कर यदि तुम यहाँ रहना चाहती हो तो राधा तुमसे बलवती हैं, अतः तुम्हारा कल्याण नहीं होगा । ॥ १६ ॥ यो यस्माद्बलवान्वाणि ततोऽन्यं रक्षितुं क्षमः । कथं परान्साधयति यदि स्वयमनीश्वरः ॥ १७ ॥ सरस्वती ! जो जिससे बलवान् होता है, वह उससे अन्य की रक्षा कर सकता है, किन्तु जो स्वयं असमर्थ है, वह दूसरों की रक्षा कैसे कर सकता है ? ॥ १७ ॥ सर्वेशः सर्वशास्ताऽहं राधां राधितुमक्षमः । तेजसा मत्समा सा च रूपेण च गुणेन च ॥ १८ ॥ मैं सभी का अधीश्वर और शासक हूँ पर, राधा का शासक होने में असमर्थ है; क्योंकि वह तेज, रूप और गुणों में मेरे ही समान है ॥ १८ ॥ प्राणाधिष्ठातृदेवी सा प्राणांस्त्यक्तुं च कः क्षमः । प्राणतोऽपि प्रियः कुत्र केषां वाऽस्ति च कश्चन ॥ १९ ॥ वह मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी है । फिर मला प्राणों का परित्याग कौन कर सकता है ? जबकि प्राण से भी अधिक प्रिय कोई किसी का नहीं है ॥ १९ ॥ त्वं भद्रे गच्छ वैकुण्ठं तव भद्रं भविष्यति । पतिं तमीश्वरं कृत्वा मोदस्व सुचिरं सुखम् ॥ २० ॥ अतः भद्रे ! तुम वैकुण्ठ जाओ, वहाँ तुम्हारा कल्याण होगा । उन ईश्वर (विष्णु) को पतिरूप में स्वीकार कर चिरकाल तक सहर्ष सुख का अनुभव करो ॥ २० ॥ विवर्जिता लोभमोहकामकोपेन हिंसया । तेजसा त्वत्समा लक्ष्मी रूपेण च गुणेन च ॥ २१ ॥ वहाँ लक्ष्मी भी तुम्हारी ही भांति लोभ, मोह, काम, क्रोध और हिंसा भाव से रहित तथा तेज, रूप और गुणों में तुम्हारे ही समान हैं ॥ २१ ॥ तया सार्धं तव प्रीत्या सुखं कालः प्रयास्यति । गौरवं चापि तत्तुल्यं करिष्यति पतिर्द्वयोः ॥ २२ ॥ उसके साथ प्रीतिपूर्वक रहने से तुम्हारा जीवन सुखमय होगा और (तुम्हारे) पति महोदय दोनों का आदर भी समान भाव से करेंगे ॥ २२ ॥ प्रतिविश्वेषु ते पूजां महतीं ते मुदाऽन्विताः । माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भेषु सुन्दरि ॥ २३ ॥ मानवा मनवो देवा मुनीन्द्राश्च मुमुक्षवः । सन्तश्च योगिनः सिद्धाः नागगन्धर्वकिंनराः ॥ २४ ॥ मद्वरेण करिष्यन्ति कल्पे कल्पे यथाविधि । भक्तियुक्ताश्च दत्त्वा वै चोपचारांश्च षोडश ॥ २५ ॥ काण्वशाखोक्तविधिना ध्यानेन स्तवनेन च । जितेन्द्रियाः संयुताश्च पुस्तकेषु घटेऽपि च ॥ २६ ॥ कृत्वा सुवर्णगुटिकां गन्धचन्दनचर्चिताम् । कवचं ते ग्रहीष्यन्ति कण्ठे वा दक्षिणे भुजे ॥ २७ ॥ सुन्दरी ! मेरे वर के प्रभाव से प्रत्येक विश्व में हर्षित मानवगण, मनुगण, देवगण, मुमुक्षु, मुनीन्द्र, सन्त, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और किन्नर प्रत्येक कल्प में माघशुक्ल पञ्चमी को विद्यारम्भ के अवसर पर तुम्हारा महान् पूजोत्सव करेंगे । उस समय वे भक्ति के साथ षोडशोपचार पूजन करेंगे । उन संयमशील .जितेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा कण्वशाखा में कही हुई विधि के अनुसार तुम्हारा ध्यान और पूजन होगा । वे कलश या पुस्तक में तुम्हारा आवाहन करेंगे । तुम्हारे कवच को भोजपत्र पर लिखकर उसे सोने की डिब्बी में रख गंध एवं चन्दन आदि से सुपूजित करके लोग अपने गले में अथवा दाहिनी भुजा में धारण करेंगे ॥ २३-२७ ॥ पठिष्यन्ति च विद्वांसः पूजाकाले च पूजिते । इत्युक्त्वा पूजयामास तां देवीं सर्वपूजितः ॥ २८ ॥ पूजाकाल में तथा उसके उपरान्त विद्वान् लोग तुम्हारा स्तुति-पाठ करेंगे । इतना कहकर सर्वपूजित भगवान् श्रीकृष्ण ने उस देवी की पूजा की ॥ २८ ॥ ततस्तत्पूजनं चक्रुर्ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । अनन्तश्चापि धर्मश्च मुनीन्द्राः सनकादयः ॥ २९ ॥ अनन्तर ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, अनन्त, धर्म और मुनीन्द्र सनकादिकों ने भी उस देवी की पूजा की ॥ २९ ॥ सर्वे देवाश्च मनवो नृपा वा मानवादयः । बभूव पूजिता नित्या सर्वलोकैः सरस्वती ॥ ३० ॥ इस प्रकार समस्त देवगण, मनु-वृन्द, राजगण और मानव आदि के द्वारा वह देवी समस्त लोकों से नित्य पूजित होने लगी ॥ ३० ॥ नारद उवाच पूजाविधानं स्तवनं ध्यानं कवचमीप्सितम् । पूजोपयुक्तं नैवेद्यं पुष्पं वा चन्दनादिकम् ॥ ३१ ॥ वद वेदविदां श्रेष्ठ श्रोतुं कौतूहलं मम । वर्धते सांप्रतं शश्वत्किमिदं श्रुतिसुन्दरम् ॥ ३२ ॥ नारद बोले-हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! आप सरस्वती देवी की पूजा का विधान, स्तवन, ध्यान, अभीष्ट कवच, पूजोपयोगी नैवेद्य, पुष्प तथा चन्दन आदि बताने की कृपा करें ! इस कर्णसुखद विषय को सुनने के लिए सम्प्रति मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है ॥ ३१-३२ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि काण्वशाखोक्तपद्धतिम् । जगन्मातुः सरस्वत्याः पूजाविधिसमन्विताम् ॥ ३३ ॥ नारायण बोले-नारद ! मैं तुम्हें काण्व शाखा में कही हुई पद्धति बताता हूँ, जिसमें जगन्माता सरस्वती का पूजाविधान निरूपित है ॥ ३३ ॥ माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भदिनेऽपि च । पूर्वेऽह्नि संयमं कृत्वा तत्र स्यात्संयतः शुचिः ॥ ३४ ॥ स्नात्वा नित्यक्रियां कृत्वा घटं संस्थाप्य भक्तितः । संपूज्य देवषट्कं च नैवेद्यादिभिरेव च ॥ ३५ ॥ गणेशं च दिनेशं च वह्नि विष्णुं शिवं शिवाम् । संपूज्य संयतोऽग्रे च ततोऽभीष्टं प्रपूजयेत् ॥ ३६ ॥ माघ की शुक्ल-पञ्चमी विद्यारम्भ की मुख्य तिथि है । पूर्व दिन में संयम करके उस दिन संयमशील एवं पवित्र हो स्नान और नित्य क्रिया के पश्चात् कलश स्थापन करे । फिर नैवेद्य आदि उपचारों से छहों देवों-गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती की सर्व प्रथम अर्चना करके पश्चात् इष्टदेव (सरस्वती) की अर्चना करे ॥ ३४-३६ ॥ ध्यानेन वक्ष्यमाणेन ध्यात्वा बाह्यघटे बुधः । ध्यात्वा पुनः षोडशोपचारैस्तां पूजयेद्व्रती ॥ ३७ ॥ बुद्धिमान् व्रती आगे कहे जाने वाले ध्यान-मंत्र से बाह्य कलश में उनका ध्यान करके षोडशोपचार से उनका पूजन करे ॥ ३७ ॥ पूजोपयुक्तं नैवेद्यं यद्यद्वेदे निरूपितम् । वक्ष्यामि सांप्रतं किंचिद्यथाधीतं यथागमम् ॥ ३८ ॥ पूजा के उपयुक्त वेदानुसार जोजो नैवेद्य बताये गये हैं उन्हें मैं सम्प्रति अपने शास्त्राध्ययनानुसार बता रहा हूँ ॥ ३८ ॥ नवनीतं दधिं क्षीरं लाजांश्च तिललड्डुकान् । इक्षुमिक्षुरसं शुक्लवर्णं पक्वगुडं मधु ॥ ३९ ॥ स्वस्तिकं शर्करां शुक्लधान्यस्याक्षतमक्षतम् । अस्विन्नशुक्लधान्यस्य पृथुकं शुक्लमोदकम् ॥ ४० ॥ घृतसैन्धवसंस्कारैर्हविष्यैर्व्यञ्जनैस्तथा । यवगोधूमचूर्णानां पिष्टकं घृतसंस्कृतम् ॥ ४१ ॥ पिष्टकं स्वतिकस्यापि पक्वरम्भाफलस्य च । परमान्नं च सघृतं मिष्टान्नं च सुधोपमम् ॥ ४२ ॥ नारिकेलं तदुदकं केशरं मूलमार्द्रकम् । पक्वरम्भाफलं चारु श्रीफलं बदरीफलम् ॥ ४३ ॥ कालदेशोद्भव पक्वफलं शुक्लं सुसंस्कृतम् । सुगन्धि शुक्लपुष्पं च गन्धाढ्यं शुक्लचन्दनम् ॥ ४४ ॥ नवनीत (मक्खन), दही, क्षीर (दुग्ध), धान का लावा, तिल के लड्डू, सफेद गन्ना और उसका रस, गुड़, मधु, स्वस्तिक (एक प्रकार का पकवान) शक्कर या मिश्री, सफेद धान का चावल जो टूटा न हो (अक्षत), बिना उबाले हुए धान का चिउड़ा, सफेद लड्डु, घी और सेंधा नमक डालकर तैयार किये गये व्यंजन के साथ शास्त्रोक्त हविष्यान्न, जौ अथवा गेहूँ के आटे से घृत में तले हुए पदार्थ, पके हुए स्वच्छ केले का पिष्टक, उत्तम अन्न को घृत में पकाकर उससे बना हुआ अमृत के समान मधुर मिष्टान्न, नारियल, नारियल का जल, केशर, मूली, अदरक, पका केला, सुन्दर श्रीफल (बेल), बेर और देशकालानुसार उपलब्ध ऋतुफल तथा अन्य भी पवित्र स्वच्छ वर्ण के फल (ये नैवेद्य तथा) सुगंधित श्वेत पुष्प, अधिक गन्धवाला श्वेत चन्दन, नूतन श्वेतवस्त्र, अत्यन्त मनोहर शंख, श्वेत पुष्पों की माला और मोती, हीरा आदि के आभूषण सरस्वती देवी को अर्पण करना चाहिए ॥ ३९-४४ ॥ नवीनं शुक्लवस्त्रं च शङ्खं च सुमनोहरम् । माल्यं च शुक्लपुष्पाणां मुक्ताहीरादिभूषणम् ॥ ४५ ॥ वेद में जो उनका प्रशस्त ध्यान बताया गया है, वह कर्णसुखावह और भ्रमभञ्जनककारी है । उसे मैं बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४५ ॥ यद्दृष्टं च श्रुतौ ध्यानं प्रशस्तं श्रुतिसुन्दरम् । तन्निबोध महाभाग भ्रमभञ्जनकारणम् ॥ ४६ ॥ सरस्वती का श्रीविग्रह शुक्लवर्ण, मन्द मुसकान से युक्त अत्यन्त मनोहर, करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा से युक्त पुष्ट और शोभासम्पन्न है ॥ ४६ ॥ सरस्वतीं शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम् । कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम् ॥ ४७ ॥ बे अग्निशुद्धवस्त्र पहने हुई, मुसकराती हुई, अत्यन्त मनोहर तथा रत्नों के सार भाग से बने उत्तम आभूषणों से भूषित हैं ॥ ४७ ॥ वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां सुमनोहराम् । रत्नसारेन्द्रखचितवरभूषणभूषिताम ॥ ४८ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों, श्रेष्ठ मुनियों, मनुओं एवं मनुष्यों द्वारा वन्दित एवं सुपूजित उन सरस्वती की मैं भक्तिपूर्वक वन्दना करता हूँ ॥ ४८ ॥ सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः । वन्दे भक्त्या वन्दिता तां मुनीन्द्रमनुमानवैः ॥ ४९ ॥ इस प्रकार ध्यान करके मूल मंत्र से पूजन की सभी सामग्री सरस्वती को समर्पित कर दे । फिर कवच का पाठ करके बुद्धिमान साधक देवी को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे ॥ ४९ ॥ एवं ध्यात्वा च मूलेन सर्वं दत्त्वा विचक्षणः । संस्तूय कवचं धृत्वा प्रणमेद्दण्डवद्भुवि ॥ ५० ॥ येषां स्यादिष्टदेवीयं तेषां नित्यं शुभं मुने । विद्यारम्भे च सर्वेषां वर्षान्ते पञ्चमीदिने ॥ ५१ ॥ सर्वोपयुक्तमूलं च वैदिकाष्टाक्षरः परः । येषां यदुपदेशो वा तेषां तन्मूलमेव च सरस्वतीचतुर्थ्यन्तो वह्निजायान्त एव च ॥ ५२ ॥ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा । लक्ष्मीमायादिकं चैव मन्त्रोऽयं कल्पपादपः ॥ ५३ ॥ पुरा नारायणश्चेमं वाल्मिकाय कृपानिधिः । प्रददौ जाह्नवीतीरे पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ५४ ॥ भृगुर्ददौ च शुक्राय पुष्करे सूर्यपर्वणि । चन्द्रपर्वणि मारीचो ददौ वाक्पतये मुदा ॥ ५५ ॥ मुने ! यह देवी जिन लोगों को इष्ट हो जाती हैं, उन्हें नित्य कल्याण की प्राप्ति होती है । विद्यारम्भ के दिन और वर्ष के अन्त में माघ-शुक्ल-पञ्चमी के दिन सभी को सरस्वती देवी की पूजा करनी चाहिए । 'श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा' यह वैदिक अष्टाक्षर मूल-मंत्र परम श्रेष्ठ एवं सबके लिए उपयोगी है । अथवा जिनको जिस मंत्र के द्वारा उपदेश प्राप्त हुआ है, उनके लिए वही मूल-मंत्र है । 'सरस्वती' शब्द के साथ चतुर्थी विभक्ति जोड़कर अन्त में 'स्वाहा' शब्द लगा लेना चाहिए । इसके आदि में लक्ष्मी का बीज (श्रीं) और मायाबीज (ह्रीं) लगावे । यह (श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा) मंत्र साधक के लिए कल्पवृक्षरूप है । सर्वप्रथम कृपानिधान नारायण ने पुण्यक्षेत्र भारत में गंगा-तट पर वाल्मिकि को यह मंत्र प्रदान किया था फिर सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्कर क्षेत्र में भृगु ने शुक्र को यह मंत्र दिया । फिर चन्द्रग्रहण के अवसर पर मरीचि- नन्दन कश्यप ने प्रसन्न होकर बृहस्पति को प्रदान किया ॥ ५०-५५ ॥ भृगवे च ददौ तुष्टो ब्रह्मा बदरिकाश्रमे । आस्तीकाय जरत्कारुर्ददौ क्षीरोदसंन्निधौ ॥ विभाण्डक ददौ मेरौ ऋष्यशृङ्गाय धीमते ॥ ५६ ॥ शिवः कणादमुनये गौतमाय ददौ मुने । सूर्यश्च याज्ञवल्क्याय तथा कात्यायनाय च ॥ ५७ ॥ अनन्तर बदरिकाश्रम में ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर भृगु को, जरत्कारु ने क्षीरसागर के तट पर आस्तीक को और विभाण्डक ने मेरुपर्वत पर बुद्धिमान् ऋष्यशङ्ग को यह मंत्र बताया ॥ ५६ ॥ शेषः पाणिनये चैव भरद्वाजाय धीमते । ददौ शाकटायनाय सुतले बलिसंसदि ॥ ५८ ॥ मुने ! शिव ने कणाद और गौतम मुनि को तथा सूर्य ने याज्ञवल्क्य और कात्यायन को इस मंत्र का उपदेश किया । अनन्त शेष ने पाताल में बलि की सभा में उस मंत्र को प्राप्त करके, पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज तथा शाकटायन को यह मंत्र बता दिया ॥ ५७-५८ ॥ चतुर्लक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् । यदि स्यात्सिद्धमन्त्रो हि बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ५९ ॥ चार लाख जप करने से मनुष्यों को इसकी सिद्धि होती है । मंत्र के सिद्ध हो जाने पर मनुष्य बृहस्पति के समान (विद्वान्) होता है ॥ ५९ ॥ कवचं शृणु विप्रेन्द्र यद्दत्तं विधिना पुरा । विश्वश्रेष्ठं विश्वजयं भृगवे गन्धमादने ॥ ६० ॥ विप्रेन्द्र ! पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर ब्रह्मा ने भृगु को जो विश्व में सर्वश्रेष्ठ तथा विश्व पर विजय दिलाने वाला कवच प्रदान किया था, उसे मैं बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ ६० ॥ भृगुरुवाच ब्रह्मन्ब्रह्मविदां श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानविशारद । सर्वज्ञ सर्वजनक सर्वपूजकपूजित ॥ ६१ ॥ भग बोले ब्रह्मन् ! आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ, ब्रह्मज्ञान में विशारद, सर्वज्ञाता, सबके जनक और सबके पूज्य हैं ॥ ६१ ॥ सरस्वत्याश्च कवचं ब्रूहि विश्वजयं प्रभो । अयातयाममन्त्राणां समूहो यत्र संयुतः ॥ ६२ ॥ प्रभो ! मुझे सरस्वती का 'विश्वजय' नामक कवच बताने की कृपा करें, जिसमें सद्यः फलदायक मंत्रों का समूह सम्मिलित है ॥ ६२ ॥ ब्रह्मोवाच शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् । श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ ६३ ॥ ब्रह्मा बोले-वत्स ! मैं तुम्हें वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला कवच बता रहा हूँ । यह कवच वेदों का तत्त्व, सुनने में सुखप्रद, वेदों में प्रतिपादित तथा उनसे अनुमोदित है ॥ ६३ ॥ उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने । रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ ६४ ॥ अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् । अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ ६५ ॥ रासेश्वर प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक के वृन्दावन वाले रासमण्डल में रास के समय मुझे यह कवच बताया था । यह अत्यन्त गोपमीय और कल्पवृक्ष के समान है । इसमें अश्रुत एवं अद्भुत मन्त्रों का समूह सम्मिलित है ॥ ६४-६५ ॥ यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मन्बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः । यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ॥ ६६ ॥ ब्रह्मन् ! इसके धारण और पाठ करने से बृहस्पति बुद्धिमान् हुए और भगवान् शुक्र दैत्यों के पूज्य बने ॥ ६६ ॥ पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः । स्वायंभुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ६७ ॥ पाठ और धारण करने से वाल्मिक मुनि कवीन्द्र और उत्तम वक्ता हुए । इसी के घारण से स्वायम्भुव मनु सर्वपूजित हुए ॥ ६७ ॥ कणादौ गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः । ग्रन्थं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ ६८ ॥ इसी भांति कणाद, गौतम, कण्व, पाणिनि, शाकटायन, दक्ष और स्वयं कात्यायन ने इसको धारण करके ग्रन्यों का निर्माण किया ॥ ६८ ॥ धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च । चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ ६९ ॥ इसे धारण करके स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यास ने बड़ी सरलता से वेदों का विभाग करके समस्त पुराणों की रचना की ॥ ६९ ॥ शातातपश्च संवर्तो वशिष्ठश्च पराशरः । यद्धृत्वा पठनाद्ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ७० ॥ ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चाऽऽस्तीको देवलस्तथा । जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ७१ ॥ इसे धारण करके शातातप, संवर्त, वशिष्ठ, पराशर एवं याज्ञवल्क्य ने ग्रंथों का निर्माण किया । ऋष्यशृंग, भरद्वाज, आस्तीक, देवल, जैगीषव्य, और जाबालि भी इसी के धारण के प्रभाव से सर्वपूजित हुए ॥ ७०-७१ ॥ कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः । स्वयं बृहस्पतिश्छन्दो देवो रासेश्वरः प्रभुः ॥ ७२ ॥ सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थेऽपि च साधने । कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ७३ ॥ विप्रेन्द्र ! इस कवच के प्रजापति ऋषि, स्वयं बृहती छन्द और रासेश्वर प्रभु देवता, हैं । समस्त तत्त्वों के परिज्ञान, सर्वार्थ साधन और सभी प्रकार की कविताओं के प्रणयन में इसका विनियोग किया जाता है ॥ ७२-७३ ॥ ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः । श्रीं वाग्देवतायै स्वाहाभालं मे सर्वदाऽवतु ॥ ७४ ॥ नों ह्रीं स्वरूपिणी सरस्वती के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें । ओं श्री बाग्देवता के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे ललाट की रक्षा करें । ॥ ७४ ॥ ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रं पातु निरन्तरम् । ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु ॥ ७५ ॥ ॐ ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु । ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा श्रोत्रसदाऽवतु ॥ ७६ ॥ ओं ह्रीं सरस्वती के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे निरन्तर कानों की रक्षा करें । ओं श्रीं ह्रीं भारती के लिए श्रद्धा की आहुति दे जाती है । वे सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें । ओं ह्रीं वाग्वादिनी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करें । ओं ह्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे कान की सदा रक्षा करें ॥ ७५-७६ ॥ ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपङ्क्ती सदाऽवतु । ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ॥ ७७ ॥ ओं ह्रीं ब्राह्मी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे दाँतों की पंक्तियों की सदा रक्षा करें । 'ऐं' यह एकाक्षर मंत्र मेरे कंठ की सदा रक्षा करे ॥ ७७ ॥ ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदाऽवतु । श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ७८ ॥ ओं श्रीं ह्रीं मेरी ग्रीवा की और 'श्रीं' कन्धों की सदा रक्षा करे । श्री विद्या की अधिष्ठात्री देवी को श्रद्धा को आहुति दी जाती है । वे सदा वक्षःस्थल की रक्षा करें ॥ ७८ ॥ ॐ ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् । ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ७९ ॥ ओं ह्रीं विद्यास्वरूपा देवी के लिए आहुति दी जाती है । वे मेरी नाभि की रक्षा करें । ओं ह्रीं क्लीं वाणी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे मेरे पृष्ठ भाग की सदा रक्षा करें ॥ ७९ ॥ ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु । ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ८० ॥ ओं सर्ववर्णात्मिका देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे दोनों चरणों की रक्षा करें । ओं वाग की अधिष्ठात्री देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करें ॥ ८० ॥ ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु । ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु ॥ ८१ ॥ ओं सर्वकण्ठवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे पूर्व दिशा में सदा रक्षा करें ओं ह्रीं जिह्वाग्रवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे अग्निकोण में रक्षा करें ॥ ८१ ॥ ॐ ऐं श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा । सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ ८२ ॥ 'ओं ऐं ह्रीं श्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा' यह मन्त्रराज दक्षिण दिशा में सदा रक्षा करे ॥ ८२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदाऽवतु । कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ८३ ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं' यह तीन अक्षर वाला मंत्र नैर्ऋत्य कोण में सदा रक्षा करे । कविजिह्वाग्रवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सदा पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें ॥ ८३ ॥ ॐ सदम्बिकायै स्वाहा वायव्यै मां सदाऽवतु । ॐ गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ८४ ॥ ओं सदम्बिका देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे वायव्य कोण में मेरी रक्षा करें । ओं गद्यपद्यवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें ॥ ८४ ॥ ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदाऽवतु । ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ॥ ८५ ॥ ओं सर्वशास्त्रवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें । ओं सर्वपूजिता देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सदा ऊवं भाग में रक्षा करें ॥ ८५ ॥ ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाऽधो मां सदाऽवतु । ॐ ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ ८६ ॥ 'ऐ ह्रीं' पुस्तकवासिनी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे सदा निम्न भाग में रक्षा करें । ओं ग्रन्थ बीजस्वरूपा देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है । वे चारों ओर से मेरी रक्षा करें । ॥ ८६ ॥ इति ते कथितं विप्र सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम् ॥ ८७ ॥ विप्र ! यह विश्वजय नामक कवच, जो समस्त मंत्र-समुदायों का साक्षात् शरीर और ब्रह्मस्वरूप है, तुम्हें बता दिया ॥ ८७ ॥ पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्धमादने । तव स्रेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ८८ ॥ इसको पहले समय गन्धमादन पर्वत पर धर्म के मुख से मैंने सुना था । केवल तुम्हारे स्नेहवश मैंने उसे कहा है, अत: किसी को बताना नहीं ॥ ८८ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः । प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ८९ ॥ वस्त्र, अलंकार और चन्दनों द्वारा गुरु की सविधि अर्चना और भूमि पर दण्डवत्प्रणाम करके यह कवच बुद्धिमान् को धारण करना चाहिए ॥ ८९ ॥ पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् । यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ९० ॥ पाँच लाख जप करने से यह कवच सिद्ध होता है और सिद्ध हो जाने पर वह पुरुष बृहस्पति के समान हो जाता है ॥ ९० ॥ महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् । शक्नोति सर्वं जेतुं स कवचस्य प्रभावतः ॥ ९१ ॥ वह महावक्ता एवं त्रैलोक्यविजयी कवीन्द्र होता है । इस कवच के प्रभाव से वह सब कुछ जीत सकता है ॥ ९१ ॥ इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने । स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ ९२ ॥ मुने ! इस प्रकार काण्व शाखा में प्रतिपादित कवच, स्तोत्र, पूजाविधान, ध्यान और वन्दन भी मैंने तुम्हें बता दिये ॥ ९२ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सरस्वतीकवचं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में सरस्वतीकवच नामक चौथा अध्याय समाप्त ॥ ४ ॥ |