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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चमोऽध्यायः याज्ञवल्क्योक्तवाणीस्तवनम् -
याज्ञवल्क्य द्वारा सरस्वती की स्तुति - नारायण उवाच वाग्देवतायाः स्तवनं श्रूयतां सर्वकामदम् । महामुनिर्याज्ञवल्क्यो येन तुष्टाव तां पुरा ॥ १ ॥ नारायण बोले—मैं तुम्हें सरस्वती का सकलकामनादायक स्तोत्र बता रहा हूँ, जिसके द्वारा महामुनि याज्ञवल्क्य ने पहले उनकी स्तुति की थी ॥ १ ॥ गुरुशापाच्च स मुनिर्हतविद्यो बभूव ह । तदा जगाम दुःखार्तो रविस्थानं च पुण्यदम् ॥ २ ॥ जब मुनि याज्ञवल्क्य की विद्या गुरु के शाप के कारण नष्ट हो गयी तब अत्यन्त दुःखी हुए और सूर्य के पुण्यप्रद स्थान की ओर चल पड़े ॥ २ ॥ संप्राप्य तपसा सूर्यं कोणार्के दृष्टिगोचरे । तुष्टाव सूर्यं शोकेन रुरोद च पुनः पुनः ॥ ३ ॥ कोणार्क क्षेत्र में पहुँच कर तप द्वारा सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन करके स्तुति करने लगे तथा शोक से बार-बार रोने भी लगे ॥ ३ ॥ सूर्यस्तं पाठयामास वेदवेदाङ्गमीश्वरः । उवाच स्तुहि वाग्देवीं भक्त्या च स्मृतिहेतवे ॥ ४ ॥ सूर्य भगवान् ने उन्हें वेद-वेदांग का अध्ययन कराया और कहा कि तुम स्मरण-शक्ति प्राप्त करने के लिए सरस्वती की भक्तिपूर्वक स्तुति करो ॥ ४ ॥ तमित्युक्त्वा दीननाथो ह्यन्तर्धानं जगाम सः । मुनिः स्नात्वा च तुष्टाव भक्तिनम्रात्मकंधरः ॥ ५ ॥ दीनों के स्वामी सूर्य उन्हें इस भौति कह कर अन्तहित हो गए और मुनि स्नानोपरांत भक्तिपूर्वक सिर झुका कर देवी की स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥ याज्ञवल्क्य उवाच कृपा कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् । गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६ ॥ याज्ञवल्क्य बोले-हे संसार की माता ! गुरु के शाप से मेरा तेज नष्ट हो गया है । मेरी स्मृति और विद्या भी जाती रही । आप मेरे ऊपर कृपा करें ॥ ६ ॥ ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां विद्याधिदेवते । प्रतिष्ठां कवितां देहि शक्तिं शिष्यप्रबोधिकाम् ॥ ७ ॥ ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम् । प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् ॥ ८ ॥ हे विद्याधिदेवता ! मुझे ज्ञान, स्मृति, विद्या, प्रतिष्ठा, कवित्व-शक्ति, शिष्यों को प्रबोधन कराने वाली शक्ति तथा ग्रन्थ निर्माण करने की शक्ति प्रदान करें । साथ ही मुझे अपना उत्तम एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य बना लीजिए । मुझे प्रतिभा तथा सत्पुरुषों की सभा में विचार प्रकट करने की उत्तम क्षमता दीजिए ॥ ७-८ ॥ लुप्तां सर्वां दैववशान्नवं कुरु पुनः पुनः । यथाऽङ्कुरं जनयति भगवान्योगमायया ॥ ९ ॥ दुर्भाग्यवश मेरी नष्ट हुई इन सब चीजों को आप पुनःपुनः उसी प्रकार नवीन कर दें जिस प्रकार भगवान् योगमाया द्वारा अंकुर उत्पन्न करते हैं ॥ ९ ॥ ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतीरूपा सनातनी । सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १० ॥ मैं उन सरस्वती देवी को बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ, जो ब्रह्मस्वरूपा, परम ज्योतिःस्वरूपा, सनातनी (नित्या) और समस्त विद्याओं की अधीश्वरी हैं ॥ १० ॥ यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा । ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ११ ॥ जिनके विना सम्पूर्ण जगत् निरन्तर जीवित रहते हुए भी सदा मृतक के समान है, उन जानाधिदेवी सरस्वती को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा । वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १२ ॥ जिनके विना समस्त जगत् सदा मूक (गूंगे) और उन्मत्त की भाँति रहता है, उन वाणी को अधिष्ठात्री देवी को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा । वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः ॥ १३ ॥ हिम (बर्फ), चन्दन, कुन्दपुष्प, चन्द्र, कुमुद और श्वेत कमल के समान वर्ण (रंग) वाली तथा वर्णों की अधिष्ठात्री देवी अक्षरस्वरूपा सरस्वती को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १३ ॥ विसर्गबिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च । इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः ॥ १४ ॥ विसर्ग, विन्दु और मात्रा -इन तीनों का जो अधिष्ठान है, वह आप हैं-इस प्रकार साधु पुरुष आपकी महिमा का गान करते हैं । ऐसी भारती देवी को बार-बार नमस्कार है ॥ १४ ॥ मया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्तुं न शक्नुते । कालसंख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १५ ॥ संख्या करने वाले लोग जिनके बिना संख्या नहीं कर सकते, उन कालसंख्या-स्वरूपिणी देवी को बार-बार नमस्कार है ॥ १५ ॥ व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता । भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १६ ॥ व्याख्या स्वरूपा, व्याख्या की अधिष्ठात्री देवता और भ्रम तथा सिद्धान्त रूप वाली देवी को बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥ स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी । प्रतिभा कल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः ॥ १७ ॥ जो स्मरणशक्ति, ज्ञानशक्ति, बुद्धिशक्ति तथा प्रतिभाशक्ति एवं कल्पनाशक्ति स्वरूपा हैं. उन भगवती को बार-बार नमस्कार है ॥ १७ ॥ सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै । बभूव जडवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ १८ ॥ एक बार सनत्कुमार ने ब्रह्मा से ज्ञान के विषय में प्रश्न किया । किन्तु वे (ब्रह्मा) सिद्धान्त रूप में कुछ कहने में असमर्थ होने के कारण जड़वत् हो गए । ॥ १८ ॥ तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः । उवाच स च तं स्तौहि वाणीमिति प्रजापते ॥ १९ ॥ उस समय वहाँ ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण आये और उन्होंने सरस्वती का उत्तम स्तोत्र ब्रह्मा को बताया ॥ १९ ॥ स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाऽऽज्ञया परमात्मनः । चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ॥ २० ॥ परमात्मा की आज्ञा से ब्रह्मा ने उसी स्तोत्र द्वारा सरस्वती की स्तुति की और उनकी कृपा से उत्तम सिद्धान्त के विवेचन में वे सफल हो गए ॥ २० ॥ यदाऽप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुंधरा । बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ २१ ॥ इसी प्रकार एक बार पृथ्वी ने अनन्त नाग से ज्ञान की चर्चा की, किन्तु वे भी सिद्धान्त को न बता सके, प्रत्युत मूकवत् हो गए ॥ २१ ॥ तदा त्वां च स तुष्टाव संत्रस्तः कश्यपाज्ञया । ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम् ॥ २२ ॥ फिर धबराये हुए नाग ने कश्यप की आज्ञा से सरस्वती की स्तुति की । पश्चात् उन्होंने भ्रमनिवारक एवं निर्मल सिद्धान्त का निर्माण किया ॥ २२ ॥ व्यासः पुराणसूत्रं समपृच्छद्वाल्मिकिं यदा । मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम् ॥ २३ ॥ व्यास ने वाल्मिकि मुनि से पुराणों का सूत्र पूछा, किन्तु मौन रहने के अतिरिक्त वे भी कुछ न कह सके । अनन्तर वे जगदम्बिका रूप तुम्हारा ही स्मरण करने लगे ॥ २३ ॥ तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः । स प्राप निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम् ॥ २४ ॥ तुम्हारे वरदान से मुनीश्वर ने उन्हें सिद्धान्त बताया जिससे उन्होंने प्रमाद का ध्वंस करने वाला निर्मल ज्ञान प्राप्त किया ॥ २४ ॥ पुराणसूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः । त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्करे ॥ २५ ॥ तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह । पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण की कला (अंश) से उत्पन्न व्यास ने पुराण सूत्र सुनने के उपरान्त पुष्कर क्षेत्र में सौ वर्षों तक आप (सरस्वती) का ध्यान पूजन किया, फिर आपसे वरदान प्राप्त करके वे कवीन्द्र हुए ॥ २५.५ ॥ तदा वेदविभागं च पुराणानि चकार ह ॥ २६ ॥ यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं शिवा शिवम् । क्षणं त्वामेव संचिन्त्य तस्यै ज्ञानं ददौ विभुः ॥ २७ ॥ पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् । दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे ॥ २८ ॥ तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम् । उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥ २९ ॥ उसी समय उन्होंने वेदों का विभाजन और पुराणों की रचना की । जिस समय महेन्द्र पर्वत पर पार्वती ने शंकर से तत्त्वज्ञान पूछा था, उस समय शिव ने क्षण भर आपका ध्यान करके पार्वती को ज्ञान दिया । फिर इन्द्र ने बृहस्पति से व्याकरणशास्त्र के विषय में पूछा, तो उन्होंने पुष्कर क्षेत्र में दिव्य सौ वर्षों तक आपका ध्यान-पूजन किया । अनन्तर आपसे वरदान पाकर दिव्य सौ वर्षों तक इन्द्र को अर्थ समेत व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कराया ॥ २६-२९ ॥ अध्यापिताश्च यः शिष्या यैरधीतं मुनीश्वरैः । ते च त्वां परिसंचिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरि ॥ ३० ॥ हे सुरेश्वरि ! जिन मुनीश्वरों ने स्वयं अध्ययन किया और अपने शिष्यों को अध्ययन कराया, वे लोग उस कार्य में आपका भली भाँति ध्यान कर के ही प्रवृत्त हए ॥ ३० ॥ त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः । दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ ३१ ॥ जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चक्त्रश्चतुर्मुखः । यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः ॥ ३२ ॥ श्रेष्ठ मुनिगण, मनुगण, दैत्य, देव, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि ने आपकी स्तुति और पूजा की है । जिन (आप) की स्तुति करने में शेष, शिव और ब्रह्मा भी जड़ की भांति हो गए उनकी स्तुति भला एक मुख वाला मैं मानव कैसे कर सकता हूँ ॥ ३१-३२ ॥ इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकंधरः । प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः ॥ ३३ ॥ इतना कह कर याज्ञवल्क्य ने भक्तिपूर्वक कन्धे को झुकाए हुए, देवी को प्रणाम किया और निराहार रह कर बार-बार रोदन किया ॥ ३३ ॥ तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेनादृष्टाऽप्युवाच तम् । सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह ॥ ३४ ॥ उस समय ज्योतिः स्वरूपा सरस्वती ने उनसे न देखी जाने पर भी कहा–'तुम सुप्रख्यात कवि हो, जाओ । ' यों कह कर देवी वैकुंठ को चली गई ॥ ३४ ॥ महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेकं च यः पठेत् । स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद्ध्रुवम् ॥ ३५ ॥ महामूर्ख एवं अत्यन्त कठोर बुद्धि वाला मनुष्य भी यदि एक वर्ष तक इसका पाठ करेगा तो वह निश्चित रूप से पण्डित, मेधावी और महान् कवि होगा ॥ ३५ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे याज्ञवल्क्योक्तवाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में याज्ञवल्क्योक्त सरस्वती स्तोत्र नामक पाँचवा अध्याय समाप्त ॥ ५ ॥ |