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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षष्ठोऽध्यायः सरस्वत्युपाख्यानम् -
लक्ष्मी, सरस्वती एवं गंगा का परस्पर शाप - नारायण उवाच सरस्वती सा वैकुण्ठे स्वयं नारायणान्तिके । गङ्गाशापेन कलया कलहाद्भारते सरित् ॥ १ ॥ पुण्यदा पुण्यजननी पुण्यतीर्थस्वरूपिणी | पुण्यवद्भिर्निषेव्या च स्थितिः पुण्यवतां मुने ॥ २ ॥ नारायण बोले-वैकुण्ठ में स्वयं नारायण के समीप रहने वाली वह सरस्वती देवी, जिन्हें कलह के कारण गंगा ने शाप दे दिया था, भारत में कलारूप से नदी होकर प्रकट हुईं । मुने ! वह (सरस्वती नदी) पुण्यप्रदा, पुण्य की जननी, पुण्यतीर्थस्वरूपा हैं । पुण्यात्मा लोगों को उनका सेवन करना चाहिए । उनके तटों पर पुण्यात्माओं की स्थिति है ॥ १-२ ॥ तपस्विनां तपोरूपा तपस्याकाररूपिणी । कृतपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ॥ ३ ॥ तपस्वी लोगों की तपस्या रूप और तपस्या की मूर्ति रूप बह नदी (प्राणियों के) किए हुए पाप रूप (सूखी) लकड़ी को जलाने के लिए प्रज्वलित अग्नि रूपा है ॥ ३ ॥ ज्ञाने सरस्वतीतोये गतं यैर्मानवैर्भुवि । तेषां स्थितिश्च वैकुण्ठे सुचिरं हरिसंसदि ॥ ४ ॥ भूतल पर सरस्वती के जल में जो ज्ञानपुरस्सर शरीर त्याग करते हैं, वे वैकुण्ठ में भगवान् की सभा में बहुत दीर्घ काल तक रहते हैं ॥ ४ ॥ भारते कृतपापश्च स्नात्वा तत्रैव लीलया । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोके वसेच्चिरम् ॥ ५ ॥ अतः भारत की उस नदी में स्नान करने से पापी लोग सहज ही में समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में चिरकाल तक निवास करते हैं ॥ ५ ॥ चतुर्दश्यां पौर्णमास्यामक्षयायां दिनक्षये । ग्रहणे च व्यतीपातेऽन्यस्मिन्पुण्यदिनेऽपि च ॥ ६ ॥ अनुषङ्गेण यः स्नाति हेलया श्रद्धयाऽपि वा । सारूप्यं लभते नूनं वैकुण्ठे स हरेरपि ॥ ७ ॥ चतुर्दशी, पूर्णिमा, अक्षय तृतीया, दिनक्षय, ग्रहण, व्यतीपात और अन्य पुण्य पर्यों में जो कोई उत्कट इच्छा से या श्रद्धा से या खेल के रूप में ही स्नान करता है, वह वैकुण्ठ लोक में निश्चित रूप से भगवान् के सारूप्यमोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ६-७ ॥ सरस्वतीमन्त्रकं च मासमेकं तु यो जपेत् । महामूर्खः कवीन्द्रश्च स भवेन्नात्र संशयः ॥ ८ ॥ सरस्वती का मन्त्र एक मास तक जपने से महामूर्ख मनुष्य भी कवीन्द्र होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ८ ॥ नित्यं सरस्वतीतोये यः स्नात्वा मुण्डयेन्नरः । न गर्भवासं कुरुते पुनरेव स मानवः ॥ ९ ॥ सरस्वती के जल में नित्य स्नान करते हुए जो मुण्डन कराता है, वह मनुष्य कभी भी गर्भवास नहीं करता है ॥ ९ ॥ इत्येवं कथितं किंचिद्भारतीगुणकीर्तनम् । सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १० ॥ इस प्रकार मैंने सरस्वती का कुछ गुण-गान कर दिया, जो सुखप्रद और मोक्षप्रद होते हुए तत्त्वरूप है, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १० ॥ सौतिरुवाच नारायणवचः श्रुत्वा नारदो मुनिसत्तमः । पुनः पप्रच्छ संदेहच्छेदं शौनक सत्वरम् ॥ ११ ॥ सौति बोले-शौनक ! नारायण की बात सुन कर मुनिश्रेष्ठ नारद ने उन सन्देह-नाशक (नारायण) से पुनः प्रश्न किया ॥ ११ ॥ नारद उवाच कयं सरस्वतीदेवी गङ्गाशापेन भारते । कलया कलहेनैव समभूत्पुण्यदा सरित् ॥ १२ ॥ नारद बोले-कलह के कारण ही गंगा ने सरस्वती को शाप दिया और वे (सरस्वती) अपनी एक कला से पुण्य नदी होकर भारतवर्ष में प्रकट हुई-ऐसा क्यों हुआ ? ॥ १२ ॥ श्रवणे श्रुतिसाराणां वर्धते कौतुकं मम । कथामृतानां नो तृप्तिः केन श्रेयसि तृप्यते ॥ १३ ॥ यह कथा वेदों का सार रूप तथा अमृत रूप है । मुझे इसके सुनने में कौतुक बढ़ रहा है । क्यों न हो, कल्याण से किसको तृप्ति होती है ? ॥ १३ ॥ कथं शशाप सा गङ्गा पूजितां तां सरस्वतीम् । शान्तसत्त्वस्वरूपा च पुण्यदा सर्वदा नृणाम् ॥ १४ ॥ गंगा ने पूज्य सरस्वती को कैसे शाप दिया । क्योंकि गंगा मनुष्यों को पुण्य देने वालो तथा शान्त और सत्त्व स्वरूप वाली हैं ॥ १४ ॥ तेजीस्विन्योर्द्वयोर्वादकारणं श्रुतिसुन्दरम् । सुदुर्लभं पुराणेषु तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १५ ॥ अतः इन दोनों तेजस्विनी देवियों के वाद-विवाद का कारण, जो सुनने में सुखप्रद और पुराणों में अत्यन्त दुर्लभ है, मुझे बताने की कृपा करें ॥ १५ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि कथामेतां पुरातनीम् । यस्याः स्मरणमात्रेण सर्वपापात्प्रमुच्यते ॥ १६ ॥ नारायण बोले-नारद ! मैं इस पुरानी कथा को तुम्हें सुना रहा हूँ, जिसके स्मरण मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १६ ॥ लक्ष्मीः सरस्वती गङ्गा तिस्रो भार्या हरेरपि । प्रेम्णा समास्तास्तिष्ठन्ति सततं हरिसंनिधौ ॥ १७ ॥ भगवान् विष्णु की लक्ष्मी, गंगा और सरस्वती ये तीन पत्नियां थीं, जो प्रेमपूर्वक समान भाव से उनके निकट निरन्तर रहती थीं ॥ १७ ॥ चकार सैकदा गङ्गा विष्णोर्मुखनिरीक्षणम् । सस्मिता च सकामा च सकटाक्षं पुनः पुनः ॥ १८ ॥ एक बार गंगा सकामा होकर मुसकराती हुई भगवान् विष्णु के मुख को देख रही थीं और बार-बार उन पर कटाक्ष कर रही थीं ॥ १८ ॥ विभुर्जहास तद्वक्त्रं निरीक्ष्य च मुदा क्षणम् । क्षमां चकार तद्दृष्टया लक्ष्मीर्नैव सरस्वती ॥ १९ ॥ भगवान् विष्णु भी उनका मुख देख कर उस समय प्रसन्न मुख से हंस रहे थे । उसे देख कर लक्ष्मी ने उस पर ध्यान नहीं दिया, किन्तु सरस्वती उसको सहन न कर सकीं ॥ १९ ॥ बोधयामास तां पद्मा सत्त्वरूपा च सस्मिता । क्रोधाविष्टा च सा वाणी न च शान्ता बभूव ह ॥ २० ॥ (यह देख कर) सत्त्वरूपा लक्ष्मी ने प्रेमभाव से सरस्वती को भली भांति समझाया, किन्तु क्रोधावेश में आ जाने के कारण वे शान्त न हो सकीं ॥ २० ॥ उवाच गङ्गाभर्तारं रक्तास्या रक्तलोचना । कम्पिता कोपवेगेन शश्वत्प्रस्फुरिताधरा ॥ २१ ॥ (क्रोध के मारे) तमतमाया मुख भौर लाल-लाल आँखें कर के सरस्वती ने, जो कोप के वेग से काँप रही थीं और जिनका अधरोष्ठ निरन्तर फडक रहा था, गंगा और पति विष्णु से कहा ॥ २१ ॥ सरस्वत्युवाच सर्वत्र समताबुद्धिः सद्भर्तुः कामिनीः प्रति । धर्मिष्ठस्य वरिष्ठस्य विपरीता खलस्य च ॥ २२ ॥ सरस्वती बोलीं-जो पति धार्मिक और श्रेष्ठ होता है, उसका अपनी सभी कामिनी स्त्रियों पर समता का भाव रहता है और दुष्ट पति की इससे विपरीत बुद्धि रहती है ॥ २२ ॥ ज्ञातं सौभाग्यमधिकं गङ्गायां ते गदाधर । कमलायां च तत्तुल्यं न च किंचिन्मयि प्रभो ॥ २३ ॥ गदाधर ! प्रभो ! मैं जानती हूँ कितुम्हारा प्रेम गंगा में अधिक है, इसी से उसका सौभाग्य अधिक है और लक्ष्मी में भी तुम्हारा प्रेम उसी के समान है, किन्तु मुझमें तुम्हारा कुछ भी प्रेम नहीं है ॥ २३ ॥ गङ्गायाः पद्मया सार्धं प्रीतिश्वापि सुसंमता । क्षमा चकार तेनेदं विपरीतं हरिप्रिया ॥ २४ ॥ गंगा का प्रेम लक्ष्मी से भी है । इसीलिए लक्ष्मी ने इस विरुद्धाचरण को भी क्षमा कर दिया है । ॥ २४ ॥ किं जीवनेन मेऽत्रैव दुर्भगायाश्च सांप्रतम् । निष्फलं जीवनं तस्या या पत्युः प्रेमवञ्चिता ॥ २५ ॥ और मैं दुर्भगा (अभागिनी) हूँ, अत: अब इस (अभागे) जीवन को रख कर क्या करूंगी ? क्योंकि जो स्त्री अपने पति के प्रेम से वंचित है, उसका जीवन व्यर्थ है । ॥ २५ ॥ त्वां सर्वेशं सत्त्वरूपं ये वदन्ति मनीषिणः । ते मूर्खा न वेदज्ञा न जानन्ति मतिं तव ॥ २६ ॥ और तुम्हें (विष्णु को) जो बुद्धिमान् लोग सर्वाधीश्वर तथा सत्त्व रूप कहते हैं, वे मूर्ख न तो वेद ही जानते हैं और न तुम्हारे विवेक को ही जानते हैं ॥ २६ ॥ सरस्वतीवचः श्रुत्वा दृष्ट्वा ता कोपसंयुताम् । मनसा तु समालोच्य स जगाम बहिः सभाम् ॥ २७ ॥ सरस्वती की ऐसी बातें सुनकर और उन्हें अत्यन्त क्रुद्ध देखकर विष्णु ने मन में कुछ विचार किया और अनन्तर वे उस समा से उठकर बाहर चले गये ॥ २७ ॥ गते नारायणे गङ्गामवोचन्निर्भयं रुषा । वागधिष्ठातृदेवी सा वाक्यं श्रवणदुःसहम् ॥ २८ ॥ हे निर्लज्जे सकामे त्वं स्वामिगर्वं करोषि किम् । अधिकं स्वामिसौभाग्यं विज्ञापयितुमिच्छसि ॥ २९ ॥ नारायण के बाहर चले जाने पर वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती ने निर्भय होकर क्रोध से अत्यन्त कर्णकटु वचन गंगा से कहने लगी-'निर्लज्जे, कामातुरे ! क्या तू स्वामी का गर्व करती है ? क्या तू अधिक पति-सौभाग्य जनाना चाहती है ॥ २८-२९ ॥ मानहानिं करिष्यामि तवाद्य हरिसंनिधौ । किं करिष्यति ते कान्तो मम वै कान्तवल्लभे ॥ ३० ॥ विष्णु के निकट ही आज मैं तेरी मानहानि करूँगी । क्योंकि तू पति की बड़ी प्यारी है न । देखती हूँ तेरा पति मेरा क्या कर लेता है ॥ ३० ॥ इत्येवमुक्त्वा गङ्गाया जिघृक्ष केशमुद्यताम् । वारयामास तां पद्मा मध्यदेशस्थिता सती ॥ ३१ ॥ इतना कहकर सरस्वती ने गंगा का केश-पाश पकड़ना चाहा किन्तु लक्ष्मी ने दोनों के बीच में खड़ी होकर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया ॥ ३१ ॥ शशाप वाणी तां पद्मां महाकोपवती सती । वृक्षरूपा सरिद्रूपा भविष्यसि न संशयः ॥ ३२ ॥ अनन्तर महाकोप करने वाली सती सरस्वती ने पद्मा (लक्ष्मी) को भी शाप दे दिया-'तू वृक्ष और नदी का रूप धारण करेगी, इसमें संशय नहीं ॥ ३२ ॥ विपरीतं यतो दृष्ट्वा किंचिन्नो वक्तुमर्हसि । संतिष्ठसि सभामध्ये यथा वृक्षो यथा सरित् ॥ ३३ ॥ क्योंकि विपरीत आचरण देख करके भी तू सभा के मध्य वृक्ष और नदी की भांति खड़ी रही कुछ बोली नहीं ॥ ३३ ॥ शापं श्रुत्वा च सा देवी न शशाप चुकोप न । तत्रैव दुःखिता तस्थौ वाणीं धृत्वा करेण च ॥ ३४ ॥ इस प्रकार का शाप सुनकर भी कमला ने सरस्वती को न तो शाप ही दिया और न क्रोध ही किया । केवल सरस्वती का हाथ पकड़े उसी स्थान पर दुःख का अनुभव करती हुई वे खड़ी रह गयीं ॥ ३४ ॥ अत्युद्धतां च तां दृष्ट्वा कोपप्रस्फुरितानना । उवाच गङ्गा तां देवीं पद्मां पद्मविलोचना ॥ ३५ ॥ क्रोध से तमतमाये हुए मुख बाली अत्यन्त उद्धत सरस्वती को देख कर कमलनेत्रा गंगा ने कमला देवी से कहा ॥ ३५ ॥ गङ्गोवाच त्वमुत्सृज महोग्रा तां पद्मे किं मे करिष्यति । वाग्दुष्टा वागधिष्ठात्री देवीयं कलहप्रिया ॥ ३६ ॥ गंगा बोलीं--भद्र ! महाकोप करने वाली इस दुष्टा को तुम छोड़ दो । यह मेरा क्या कर लेगी । वाणी की अधिष्ठात्री देवी होती हुई भी अत्यन्त झगड़ालू है ॥ ३६ ॥ यावती योग्यताऽस्याश्च यावती शक्तिरेव वा । तया करोतु वादं च मया सार्धं सुदुर्मुखा ॥ ३७ ॥ इसलिए इसकी जितनी योग्यता और जितनी शक्ति है उसके अनुसार यह कटुभाषिणी मुअसे वाद-विवाद कर ले ॥ ३७ ॥ स्वबलं यन्मम बलं विज्ञापयितुमर्हतु । जानन्तु सर्वे ह्युभयोः प्रभावं विक्रमं सति ॥ ३८ ॥ आज यह मेरी और अपनी शक्ति की परीक्षा कर ले । सभी लोग हम दोनों के प्रभाव और पराक्रम को जान लें ॥ ३८ ॥ इत्येवमुक्त्वा सा देवी वाच्यं शापं ददाविति । सरित्स्वरूपा भवतु सा या त्वामशपद्रुषा ॥ ३९ ॥ अधोमर्त्यं सा प्रयातु सन्ति यत्रैव पापिनः । कलौ तेषां च पापांशं लभिष्यति न संशयः ॥ ४० ॥ इतना कहकर गंगा देवी ने सरस्वती को शाप दिया कि-'जिसने रोष भरे शब्दों से लक्ष्मी को शाप दिया है, वह स्वयं भी नदी-रूप में हो जाय और नीचे मर्त्यलोक में जहाँ पापियों का समूह निवास करता है, वहाँ रहे तथा कलियुग में उनके पापांशों को भी प्राप्त करे, इसमें संशय नहीं ॥ ३९-४० ॥ इत्येवं वचनं श्रुत्वा तां शशाप सरस्वती । त्वमेव यास्यसि महीं पापिपापं लभिष्यसि ॥ ४१ ॥ इतनी बात सुनकर सरस्वती ने भी गंगा को शाप दिया कि-तू भी पृथ्वी पर जायगी और पापियों के पाप को प्राप्त करेगी ॥ ४१ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र भगवानाजगाम ह । चतुर्भुजश्चतुर्भिश्च पार्षदैश्च चतुर्भुजैः ॥ ४२ ॥ इसी बीच चतुर्भुज भगवान् विष्णु अपने चतुर्भुज पार्षदों समेत वहाँ आ गये ॥ ४२ ॥ सरस्वतीं करे धृत्वा वासयामास वक्षसि । बोधयामास सर्वज्ञः सर्वज्ञानं पुरातनम् ॥ ४३ ॥ उन्होंने सरस्वती का दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें अपने वक्षःस्थल से चिपका लिया और उन सर्वज्ञ ने अपने पुरातन ज्ञान द्वारा उन्हें भलीभांति समझाया ॥ ४३ ॥ श्रुत्वा रहस्यं तासां च शापस्य कलहस्य च । उवाच दुःखितास्ताश्च वाक्यं सामयिकं विभुः ॥ ४४ ॥ विभु विष्णु ने उन स्त्रियों के शाप-कलह का रहस्य सुनकर दुःखानुभव करने वाली उन पत्नियों से समयोचित वाक्य कहा ॥ ४४ ॥ श्रीभगवानुवाच लक्ष्मि त्वं कलया गच्छ धर्मध्वजगृहं शुभे । अयोनिसंभवा भूमौ तस्य कन्या भविष्यसि ॥४५॥ तत्रैव दैवदोषेण वृक्षत्वं च लभिष्यसि । मदंशस्यासुरस्यैव शङ्खचूडस्य कामिनी ॥४६॥ श्री भगवान् बोले-हे शुममूति लक्ष्मि ! तुम पृथ्वी पर जाकर धर्मध्वज के घर अपने अंश से अयोनिजा (योनि से उत्पन्न न होने वाली) कन्या होकर प्रकट होओ । वहाँ मेरे अंश से उत्पन्न होनेवाले शंखचूड़ की पत्नी बनकर दैववश वहाँ वृक्ष का रूप भी धारण करोगी ॥ ४५-४६ ॥ भूत्वा पश्चाच्च मत्पत्नी भविष्यसि न संशयः । त्रैलोक्यपावनी नाम्ना तुलसीतिच भारते ॥४७॥ पश्चात् यहाँ आकर मेरी पत्नी हो जाओगी और भारत में तुम्हारा त्रैलोक्यपावन 'तुलसी' नाम पड़ेगा ॥ ४७ ॥ कलया च सरिद्भूत्वा शीध्रं गच्छ वरानने । भारतं भारतीशापान्नाम्ना पद्मावती भव ॥४८॥ गङ्गे यास्यसि चांशेन पश्चात्त्वं विश्वपावनी । भारतं भारतीशापात्पापदाहाय देहिनाम् ॥४९॥ हे सुमुखी ! सरस्वती के शाप वश तुम भारत में शीघ्र जाओ । वहाँ अंशमात्र से नदी का रूप धारण करने पर तुम्हारा नाम पद्मावती होगा । गंगे ! इसके पश्चात् तुम भी भारती के शाप वश भारत में पापियों के पाप विनाशार्थ अपने अंश से विश्वपावनी नदी होकर रहो ॥ ४८-४९ ॥ भगीरथस्य तपसा तेन नीता सुदुष्करात् । नाम्ना भागीरथी पूता भविष्यसि महीतले ॥५०॥ भगीरथ की दुष्कर तपस्या के कारण तुम्हें वहां जाना पड़ेगा । भूतल पर सब लोग तुम्हें भागीरथी कहेंगे ॥ ५० ॥ मदंशस्य समुद्रस्य जाया जाये ममाऽऽज्ञया । मत्कलांशस्य भूपस्य शन्तनोश्च सुरेश्वरि ॥५१॥ हे सुरेश्वरि ! मेरे अंश से उत्पन्न समुद्र और मेरे ही अंश से उत्पन्न होने वाले राजा शान्तनु की भी पत्नी तुम मेरी आज्ञा से बनना ॥ ५१ ॥ गङ्गाशापेन कलया भारतं गच्छ भारति । कलहस्य फलं भुङ्क्ष्व सपत्नीभ्यां सहाच्युते ॥५२॥ स्वयं च ब्रह्मसदनं ब्रह्मणः कामिनी भव । गङ्गा यातु शिवस्थानमत्र पद्मैव तिष्ठतु ॥५३॥ हे भारति ! गंगा के शाप से तुम भी अपने अंश से भारत में जाकर अपनी सपत्नियों के साथ कलह करने का फल भोगो । फिर स्वयं ब्रह्मा के घर जाकर उनकी पत्नी बनो तथा स्वयं गंगा मी शिव जी के यहाँ चली जाय । यहाँ केवल लक्ष्मी ही रहे ॥ ५२-५३ ॥ शान्ता च क्रोधरहिता मद्भक्ता मत्स्वरूपिणी । महासाध्वी महाभागा सुशीला धर्मचारिणी ॥५४॥ क्योंकि यह शान्त, क्रोधहीन, मेरी भक्त, मेरे स्वरूप को धारण करने वाली महापतिव्रता, पुण्यात्मा, सुशीला और धर्मचारिणी है ॥ ५४ ॥ यदंशकलया सर्वा धर्मिष्ठाश्च पतिव्रताः । शान्तरूपाः सुशीलाश्च प्रतिविश्वेषु योषितः ॥५५॥ प्रत्येक विश्व में इसके अंश की कला से उत्पन्न होकर स्त्रियाँ धार्मिक, पतिव्रता, शान्तमूर्ति और सुशील होती हैं ॥ ५५ ॥ तिस्रो भार्यास्त्रयः शालास्त्रयो भृत्याश्च बान्धवाः । ध्रुवं वेदविरुद्धाश्च न ह्येतेमङ्गलप्रदाः ॥५६॥ क्योंकि तीन स्त्रियों, तीन घरों, तीन सेवकों और तीन बन्धुओं का होना निश्चित रूप से वेदविरुद्ध है । ये मंगलप्रद नहीं होते ॥ ५६ ॥ स्त्री पुंवच्च गृहे येषां गृहिणां स्त्रीवशः पुमान् । निष्फलं जन्मवै तेषामशुभं च पदे पदे ॥५७॥ जिसके घर में स्त्री, पुरुष की भांति (लोक-व्यवहार करती) रहती हैं और पुरुष स्त्री के वश में रहता है, उसका जन्म निष्फल है और पद-पद पर उसका अशुभ होता है ॥ ५७ ॥ मुखदुष्टा योनिदुष्टा यस्य स्त्री कलहप्रिया । अरण्यं तेन गन्तव्यं महारण्यं गृहाद्वरम् ॥५८॥ जिसकी स्त्री मुख की कटुभाषिणी, पुंश्चली एव झगड़ालू है, उसे जंगल में रहना चाहिए, क्योंकि उसके लिए धर की अपेक्षा महावन ही अच्छा है ॥ ५८ ॥ जलानां च स्थलानां च फलानां प्राप्तिरेव च । सततं सुलभा तत्र न तेषां तद्गृहेऽपि च ॥५९॥ कारण वहाँ उसे जल, स्थल और फल तो मिलही जाते हैं । ये फल-जल आदि जंगल में निरन्तर सुलभ रहते हैं, घर पर नहीं मिल सकते ॥ ५९ ॥ वरमग्नौ स्थितिर्हिंस्रजन्तूनां संनिधौ सुखम् । ततोऽपि दुःखं पुंसां च दुष्टस्त्रीसंनिधौ ध्रुवम् ॥६०॥ अग्नि में कूदना अच्छा है, हिसक जानवरों के समीप रहना सुखकर है, किन्तु पुरुषों के लिए दुष्ट स्त्री के साथ रहना उससे भी अधिक दुःखप्रद होता है, यह निश्चित है ॥ ६० ॥ व्याधिज्वाला विषज्वाला वरं पुंसां वरानने । दुष्टस्त्रीणां मुखज्वाला मरणादतिरिच्यते ॥६१॥ हे सुमुखी ! व्याधि की ज्वाला (ताप) तथा विष को ज्वाला (तीक्ष्णता) अच्छी है, किन्तु दुष्ट स्त्रियों के मुख की ज्वाला (वचन-कटुता) मरण से भी अधिक दुःखप्रद होती है ॥ ६१ ॥ पुंसश्च स्त्रीजितस्येह जीवितं निष्फलं ध्रुवम् । यदह्ना कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥६२॥ इस लोक में स्त्री के अधीन रहने वाले पुरुषों का जीवन वस्तुतः निष्फल है । वह दिन में जो (उत्तम) कार्य करता है, उसका भी फलभागीयह नहीं होता ॥ ६२ ॥ स निन्दितोऽत्र सर्वत्र परत्र नरकं व्रजेत् । यशः कीर्तिविहीनो यो जीवन्नपि मृतो हि सः ॥६३॥ वह इस लोक में सर्वत्र निन्दा का पात्र बनता है, और मरने पर नरक में जाता है । अतः यश एवं कीति से रहित होने पर वह जीवित रहते हुए भी मतक है ॥ ६३ ॥ बह्वीनां च सपत्नीनां नैकत्र श्रेयसी स्थितिः । एकभार्यः सुखी नैव बहुभार्यः कदाचन ॥६४॥ अनेक सपत्नियों का एक स्थान पर रहना श्रेयस्कर नहीं होता है । और एक ही स्त्री का पति बनने से सुख प्राप्त होता है अनेक स्त्रियों के पति बनने से कभी नहीं ॥ ६४ ॥ गच्छ गङ्गे शिवस्थानं ब्रह्मस्थानं सरस्वति । अत्र तिष्ठतु मद्गेहे सुशीला कमलालया ॥६५॥ अतः हे गंगे ! तुम शिव के यहाँ जाओ और हे सरस्वति ! तुन ब्रह्मा के यहाँ चली जाओ । यहाँ केवल सुशील लक्ष्मी ही मेरे घर में रहे ॥ ६५ ॥ सुसाध्या यस्य पत्नी च सुशीला च पतिव्रता । इह स्वर्गसुखं तस्य धर्ममोक्षौ परत्र च ॥६६॥ क्योंकि जिसकी पत्नी सरल स्वभाव वाली, सुशीला और पतिव्रता होती है, उसे स्वर्गसुस यहीं प्राप्त होता है परलोक में उसे केवल धर्म-मोक्ष प्राप्त होते हैं ॥ ६६ ॥ पतिव्रता यस्य पत्नी स च मुक्तः शुचिः सुखी । जीवन्मृतोऽशुचिर्दुःखी दुःशीलापतिरेव यः ॥६७॥ जिसकी पत्नी पतिव्रता है वह (सब दुःखों से) मुक्त, पवित्र और सुखी रहता है । और दुःशीला (बुरे स्वभाव वाली) स्त्री का पति जीवित रहते हए भी मतक, अपबित्र और दुःखी रहता है ॥ ६७ ॥ इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम च नारद । अत्युच्चै रुरुदुर्देव्यः समालिङ्ग्य परस्परम् ॥६८॥ नारद ! इतना कह कर जगत् के स्वामी (विष्णु) चुप हो गए । उधर देवियाँ परसर एक-दूसरी को पकड़-पकड़ कर ऊंचे स्वर से रोने लगीं ॥ ६८ ॥ ताश्च सर्वाः समालोच्य क्रमेणोचुः सदीश्वरम् । कम्पिताः साश्रुनेत्राश्च शोकेन च भयेन च ॥६९॥ अनन्तर भय से कम्पित, आँखों में आँसू भरे और शोक से खिन्न (हीन-दीन) होती हुई उन स्त्रियों ने क्रमशः महाप्रभु (विष्णु) से कहना आरम्भ किया ॥ ६९ ॥ सरस्वत्युवाच प्रायश्चित्तं देहि नाथ दुष्टायां जन्मशोधकम् । सत्स्वामिना परित्यक्ताः कुत्र जीवन्तिकाः स्त्रियः ॥७०॥ सरस्वती बोलीं- हे नाथ ! मुझ दृष्टा स्त्री का जन्म पवित्र करने वाला प्रायश्चित्त बता दें । क्योंकि उत्तम स्वभाव वाले पति द्वारा त्यागी गईं कौन स्त्रियाँ कहाँ जीवित रहती हैं ? ॥ ७० ॥ देहत्यागं करिष्यामि ध्रुवं योगेन भारते । अत्युच्चतो निपतनं प्राप्तुमर्हति निश्चितम् ॥७१॥ अतः भारत में मैं योग द्वारा निश्चित रूप से अपना देह-त्याग करूंगी । क्योंकि अत्यन्त ऊँचाई पर पहुँच जाने के बाद पतन होना निश्चित है ॥ ७१ ॥ गङ्गोवाच अहं केनापराधेन त्वया त्यक्ता जगत्पते । देहत्यागं करिष्यामि निर्दोषाया वधं लभ ॥७२॥ गंगा बोलीं-हे जगत्पते ! किस अपराध से आपने मेरा त्याग किया है ? मैं भी शरीर छोड़ दूंगी, जिससे आपको मुझ निर्दोष के वध करने का फल मिले ॥ ७२ ॥ निर्दोषकामिनीत्यागं कुरुते यो जनो भवे । स याति नरकं कल्पं किं ते सर्वेश्वरस्य वा ॥७३॥ क्योंकि संसार में जो पुरुष अपनी निर्दोष स्त्री का त्याग करता है, उसे एक कल्प तक नरका-वास करना पड़ता है । चाहे वह सर्वेश्वर तुम्हीं क्यों न हो ॥ ७३ ॥ लक्ष्मीरुवाच नाथ सत्त्वस्वरूपस्त्वं कोपः कथमहो तव । प्रसादं कुरु चास्मभ्यं सदीशस्य क्षमा वरा ॥७४॥ लक्ष्मी बोलीं-हे नाथ ! आपका स्वरूप रात्व गुण प्रधान है । आश्चर्य है, आपको कोप कैसे हो गया ? आप हम लोगों पर प्रसन्न हो जायें; क्योंकि उत्तम स्वभाव वाले स्वामी का क्षमा करना ही उत्तम गुण है ॥ ७४ ॥ भारतं भारतीशापाद्यास्यामि कलया यदि । कतिकालं स्थितिस्तत्र कदा द्रक्ष्यामि ते पदम् ॥७५॥ और यदि सरस्वती के शाप देने के कारण मैं अपने अंश से भारत में जाऊँगी, तो कितने दिन वहाँ रह कर पुनः आपके चरणों का दर्शन करूँगी ॥ ७५ ॥ दास्यन्ति पापिनः पापं मह्यं स्नानावगाहनात् । केन तस्माद्विमुक्ताऽहमागमिष्यामि ते पदम् ॥७६॥ वहाँ पापी लोग (मुझमें) स्नान कर के मुझे अपना पाप दे जायेंगे तब फिर दिसके द्वारा उस पाप से मुक्त होकर मैं यहाँ आपके स्थान पर आ सकूँगी ? ॥ ७६ ॥ कलया तुलसीरूपा धर्मध्वजसुता सती । भूत्वा कदा लभिष्यामि त्वत्पादाम्बुजमच्युत ॥७७॥ हे अच्युत ! कला रूप से धर्मध्वज की तुलसी नामक कन्या होकर मैं कब आपका चरण-कमल प्राप्त करूँगी ? ॥ ७७ ॥ वृक्षरूपा भविष्यामि तदधिष्ठातृदेवता । मामुद्धरिष्यसि कदा तन्मे ब्रूहि कृपानिधे ॥७८॥ हे कृपानिधे ! मैं वृक्ष रूप एवं उसकी अधिष्ठात्री देवता होकर वहाँ रहूँगी, तो आप मेरा उद्धार कब करेंगे, यह बताने की कृपा करें ॥ ७८ ॥ गङ्गा सरस्वतीशापाद्यदि यास्यति भारतम् । शापेन मुक्ता पापाच्च कदा त्वां वा लभिष्यति ॥७९॥ सरस्वती के शापवश यदि गंगा भारत में जायगी, तो वह कब शाप-पाप से मुक्त हो कर आपको प्राप्त करेगी ॥ ७९ ॥ गङ्गाशापेन सा वाणी यदि यास्यति भारतम् । कदा शापाद्विनिर्मुच्य लभिष्यति पदं तव ॥८०॥ एवं गंगा के शाप से यदि सरस्वती भारत जायगी, तो वह भी कब शाप से मुक्त हो कर आपके चरणों में आएगी ? ॥ ८० ॥ तां वाणीं ब्रह्मसदनं गङ्गां वा शिवमन्दिरम् । गन्तुं वदसि हे नाथ तत्क्षमस्व च मद्वचः ॥८१॥ हे नाथ ! जो आप सरस्वती को ब्रह्मा के यहाँ तथा गंगा को शिव के यहां जाने के लिए कह रहे हैं, उसे क्षमा करें ॥ ८१ ॥ इत्युक्त्वा कमला कान्तपदं धृत्वा ननाम च । स्वकेशैर्वेष्टयित्वा च रुरोद च पुनः पुनः ॥८२॥ इतना कह कर लक्ष्मी ने विष्णु के चरण पकड़ लिए, उन्हें प्रणाम किया और अपने केसों से भगवान् के चरणों को आवेष्टित कर के बार-बार रोने लगीं ॥ ८२ ॥ उवाच पद्मनाभस्तां पद्मां कृत्वा स्ववक्षसि । ईषद्धासः प्रसन्नास्यो भक्तानुग्रहकारकः ॥८३॥ भक्तों पर अनुग्रह करने वाले कमलनाभ भगवान् विष्णु ने लक्ष्मी को अपने वक्षःस्थल से लगा लिया एवं प्रसन्न मुख से मुसकराते हुए कहा ॥ ८३ ॥ नारायण उवाच त्वद्वाक्यमाचरिष्यामि स्ववाक्यं च सुरेश्वरि । समतां च करिष्यामि शृणु तत्क्रममेव च ॥८४॥ नारायण बोले-हे सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारी बातें स्वीकार कर रहा है और अपने वचन की भी रक्षा करूँग । साथ ही तुम तीनों में समत ! कर दूंगा, अतः सुनो ॥ ८४ ॥ भारती यातु कलया सरिद्रूपा च भारतम् । अर्धांशा ब्रह्मसदनं स्वयं तिष्ठतु मद्गृहे ॥८५॥ सरस्वती कलामात्र से नदी बन कर भारत चली जायें, अर्धांश से ब्रह्मा के घर जायें और पूर्ण अंश से स्वयं मेरे पास रहें ॥ ८५ ॥ भगीरथेन नीता सा गङ्गा यास्यति भारतम् । पूतं कर्तुं त्रिभुवनं स्वयं तिष्ठतु मद्गृहे ॥८६॥ ऐसे ही गंगा भगीरथ के सत्प्रयत्न से अपने कलांश से त्रिलोकी को पवित्र करने के लिए भारत में जायें और स्वयं पूर्ण अंश से मेरे भवन में रहें ॥ ८६ ॥ तत्रैव चन्द्रमौलेश्च मौलिं प्राप्स्यति दुर्लभम् । ततः स्वभावतः पूताऽप्यतिपूता भविष्यति ॥८७॥ वहाँ चन्द्रमौलि (शिव) का वह दुर्लभ मस्तक (शिर) भी उन्हें प्राप्त हो जायेगा इससे स्वभावतः पवित्र होती हुई भी गंगा और पवित्र हो जायेंगी ॥ ८७ ॥ कलांशांशेन गच्छ त्वं भारते कमलोद्भवे । पद्मावती सरिद्रूपा तुलसी वृक्षरूपिणी ॥८८॥ हे कमलोद्भवे ! तुम भी अपने अशांश मात्र से भारत में पद्मावती नामक नदी और तुलसी नामक वृक्ष होकर रहो ॥ ८८ ॥ कलौ पञ्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम् । युष्माकं सरितां भूयो मद्गृहे चाऽऽगमिष्यथ ॥८९॥ कलियुग में पांच सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर तुम लोग नदी भाव से मुक्त हो जावंगी । फिर मेरे यहाँ लौट आओगी ॥ ८९ ॥ संपदां हेतुभूता च विपत्तिः सर्वदेहिनाम् । विना विपत्तेर्महिमा केषां पद्मे भवेद्भवे ॥९०॥ हे पद्म ! देहधारियों को सम्पत्ति की प्राप्ति में विपत्ति कारण होती है, क्योंकि इस संसार में बिना विपत्ति का सामना किए किसी को भी गौरव प्राप्त नहीं होता ॥ ९० ॥ मन्मन्त्रोपासकानां च सतां स्नानावगाहनात् । युष्माकं मोक्षणं पापात्पापिस्पर्शनहेतुकात् ॥९१॥ मेरे मन्त्रों की उपासना करने वाले सज्जनों के स्नान करने मे तुम पापियों के स्पर्श जन्य पाप से छुटकारा पाजाओगी ॥ ९१ ॥ पृथिव्यां यानि तीर्थानि सन्त्यसंख्यानि सुन्दरि । भविष्यन्ति च पूतानि भद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९२॥ सुन्दरी ! भारत में जितने असंख्य तीर्थ हैं, वे सभी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से पवित्र हो जायँगे ॥ ९२ ॥ मन्मन्त्रोपासका भक्ता भ्रमन्ते भारते सति । पूतं कर्तुं भारतं च सुपवित्रां वसुंधराम् ॥९३॥ साध्वी ! मेरे मन्त्रों के उपासक भक्त गण भारत देश और पृथ्वी को पवित्र करने के लिए भारत में भ्रमण करते रहते हैं ॥ ९३ ॥ मद्भक्ता यत्र तिष्ठन्ति पादं प्रक्षालयन्ति च । तत्स्थानं च महातीर्थं सुपवित्रं भवेध्रुवम् ॥९४॥ मेरे मक्त लोग जहाँ ठहरते हैं और जहाँ चरण प्रक्षालन करते हैं, वह स्थान निश्चित रूप से महातीर्थ होकर अत्यन्त पवित्र हो जाता है ॥ ९४ ॥ स्त्रीघ्नो गोघ्नः कृतघ्नश्च ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगः । जीवन्मुक्तो भवेत्पूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९५॥ स्त्री हत्या, गोहत्या और ब्रह्महत्या करने वाला, कृतघ्न एवं गुरुपत्नीगामी भी मेरे भक्तों के दर्शनस्पर्शन करने से पवित्र होकर जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ ९५ ॥ एकादशीविहीनश्च संध्याहीनोऽपि नास्तिकः । नरघाती भवेत्सूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९६॥ एकादशी व्रत विहीन, संध्या न करने वाला, नास्तिक और मनुष्यघाती भी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से पवित्र हो जाते हैं ॥ ९६ ॥ असिजीवी मषीजीवी धावकः शूद्रयाजकः । वृषवाहो भवेत्पूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९७॥ अस्त्र-शस्त्रों से जीविका चलाने वाला, मुनीमी से जीविका चलाने वाला, दौत्य कर्म से जीविका चलाने वाला, शूद्रों को पुजाने वाला तथा बैल जोतने वाला ब्राह्मण भी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से पवित्र हो जाते हैं ॥ ९७ ॥ विश्वासघाती मित्रघ्नो मिथ्यासाक्ष्यप्रदायकः । न्यासहारी भवेत्पूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९८॥ विश्वासघात करने वाला, मित्र की हत्या करने वाला, झूठी गवाही देने वाला और घरोहर को हड़प जाने वाला व्यक्ति भी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से शुद्ध हो जाता है, ॥ ९८ ॥ ऋणग्रस्तो वार्धुषिको जारजः पुंश्चलीपतिः । पूतश्च पुंश्चलीपुत्रो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥९९॥ ऋणग्रस्त, सूदखोर, वर्णसंकर, पुंश्चली स्त्री का पति और पश्चली स्त्री का पुत्र भी मेरे भक्तों के दर्शन-पशन करने से शुद्ध हो जाता है ॥ ९९ ॥ शूद्राणां सूपकारश्च देवलो ग्रामयाजकः । अदीक्षितो भवेत्पूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ १००॥ शूद्रों का भण्डारी, मन्दिर का पुजारी, गाँव-गाँव में यज्ञ कराने वाला और दीक्षा रहित मनुष्य मेरे भक्तों के दर्शन- स्पर्शन से शुद्ध हो जाता है ॥ १०० ॥ अश्वत्थघातकश्चैव मद्भक्तानां च निन्दकः । अनिवेदितभोजी च पूतो मद्भक्तदर्शनात् ॥ १०१॥ पीपल के पेड़ को काटने वाला, मेरे भक्तों का निन्दक तथा बिना निमत्रण के भोजन करने वाला भी मेरे भक्तों के दर्शन से शुद्ध हो जाता है ॥ १०१ ॥ मातरं पितरं भार्यां भ्रातरं तनयं सुताम् । गुरोः कुलं च भगिनीं वंशहीनं च बान्धवम् ॥ १०२॥ श्वश्रूं च श्वशुरं चैव यो न पुष्णाति नारद । स महापातकी पूतो मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ १०३॥ नारद ! माता-पिता, स्त्री, भ्राता, पुत्री, गुरु के कुल, भगिनी, वंशहीन बन्धु और सास-ससुर की सेवा न करने वाला महापातकी भी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से पवित्र हो जाता है ॥ १०२-१०३ ॥ देवद्रव्यापहारी च विप्रद्रव्यापहारकः । लाक्षालोहरसानां च विक्रेता दुहितुस्तथा ॥ १०४॥ महापातकिनश्चेते शूद्राणां शवदाहकाः । भवेयुरेते पूताश्च मद्भक्तस्पर्शदर्शनात् ॥ १०५॥ देवताओं और ब्राहाणों के द्रव्य का अपहरण करने वाला तथा लाख (लाह), लोह, रम (भस्म) एवं कन्या का विक्रेता और शूद्रों का शव (मुर्दा) जलाने वाले महापातकी भी भी मेरे भक्तों के दर्शन-स्पर्शन से शुद्ध हो जाते हैं ॥ १०४-१०५ ॥ लक्ष्मीरुवाच भक्तानां लक्षणं ब्रूहि भक्तानुग्रहकारक । येषां संदर्शनस्पर्शात्सद्यःपूता नराधमाः ॥ १०६॥ लक्ष्मी बोलीं-हे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले ! आप उन भक्तों के लक्षण बताने की कृपा करें, जिनके दर्शन-स्पर्शन से अधम मनुष्य तुरन्त पवित्र हो जाते हैं ॥ १०६ ॥ हरिभक्तिविहीनाश्च महाहंकारसंयुताः । स्वप्रशंसारता धूर्ताः शठा वै साधुनिन्दकाः ॥ १०७॥ क्योंकि विष्णु की भक्ति से रहित, महान् अहंकारी, अपनी प्रशंसा में निमग्न रहने वाले, धूर्त, शठ, साधुओं की निन्दा करने वाले भी आपके भक्तों के दर्शन और स्पर्श से सद्यः पवित्र हो जाते हैं ॥ १०७ ॥ पुनन्ति सर्वतीर्थानि येषां स्नानावगाहनात् । येषां च पादरजसा पूता पादोदकान्मही ॥ १०८॥ उन भक्तों के नहाने-धोने से रामस्त तीर्थ पवित्र होते हैं जिनके चरणरज और पादोदक से यह पृथ्वी पवित्र हो जाती है ॥ १०८ ॥ येषां संदर्शनं स्पर्शं देवा वाञ्छन्ति भारते । सर्वेषां परमो लाभो वैष्णवानां समागमः ॥ १०९॥ भारत में जिनके दर्शन-स्पर्शन के लिए देवता भी लालायित रहते हैं, उन सब वैष्णवों का समागम सभी प्राणियों के लिए परम लाभप्रद है ॥ १०९ ॥ नह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ॥ ११०॥ जलमयतीर्थ ही तीर्थ नहीं है और न मृण्मय एवं प्रस्तरमय देवता ही देवता हैं; क्योंकि वे दीर्घकाल तक सेवा करने पर पवित्र करते हैं । अहो ! साक्षात् देवता तो विष्णु भक्तों को मानना चाहिए जो क्षण भर में पवित्र कर देते हैं ॥ ११० ॥ सौतिरुवाच महालक्ष्मीवचः श्रुत्वा लक्ष्मीकान्तश्च सस्मितः । निगूढतत्त्वं कथितुमृषिश्रेष्ठोपचक्रमे ॥ १११॥ सौति बोले-हे ऋषिश्रेष्ठ ! महालक्ष्मी की बातें सुन कर लक्ष्मीकान्त विष्णु ने मन्द-मन्द हँसते हुए अत्यन्त गूढ तत्त्व को बताना आरम्भ किया ॥ १११ ॥ श्रीनारायण उवाच- भक्तानां लक्षणं लक्ष्मि गूढं श्रुतिपुराणयोः । पुण्यस्वरूपं पापघ्नं सुखदं भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ११२॥ श्री नारायण बोले-हे लक्ष्मि ! भक्तों का लक्षण श्रुतियों और पुराणों में गूढ़ बताया गया है, जो पुण्य रूप, पापनाशक, सुखप्रद और मुक्ति-मुक्ति का प्रदायक है ॥ ११२ ॥ सारभूतं गोपनीयं न वक्तव्यं खलेषु च । त्वां पवित्रां प्राणतुल्यां कथयामि निशामय ॥ ११३॥ यह सारभूत होने के नाते अत्यन्त गोपनीय है, दुष्टों से इसकी चर्चा कभी नहीं करनी चाहिए । किन्तु तुम पवित्र एवं प्राणसमान हो, इसीलिए तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ११३ ॥ गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे विशेद्वरः । वदन्ति वेदवेदाङ्गात्तं पवित्रं नरोत्तमम् ॥ ११४॥ भगवान् विष्णु का मन्त्र गुरु के मुख से निकलकर जिसके कर्ण विवर में प्रविष्ट होता है, वह वेदवेदांग से मी पवित्र और नरोत्तम कहा जाता है ॥ ११४ ॥ पुरुषाणां शतं पूर्वं पूतं तज्जन्ममात्रतः । स्वर्गस्थं नरकस्थं वा मुक्तिं प्राप्नोति तत्क्षणात् ॥ ११५॥ उसके जन्ममात्र से उसके सौ पूर्वज शुद्ध हो जाते हैं, और वे स्वर्ग नरक में कहीं भी हों, उसी क्षण उनकी मुक्ति हो जाती है ॥ ११५ ॥ यैः कैश्चिद्यत्र वा जन्म लब्धं येषु च जन्तुषु । जीवन्मुक्तास्ते च पूता यान्ति काले हरेः पदम् ॥ ११६॥ यदि उन पूर्वजों में से किन्हीं का कहीं जन्म हो गया हो तो उन्होंने जिस योनि में जन्म पाया है, वहीं उनमें जीवन्मुक्तता आ जाती है और समयानुसार वे परम धाम में चले जाते हैं ॥ ११६ ॥ मद्भक्तियुक्तो मत्पूजानियुक्तो मद्गुणान्वितः । मद्गुणश्लाघनीयश्च मन्निविष्टश्च संततम् ॥ ११७॥ मुझमें भक्ति रखने वाला मनुष्य मेरी पूजा में निरन्तर नियुक्त तथा मेरे गुणानुवाद में तल्लीन रह कर मेरे गुणों की ही प्रशंसा करता है और सतत मेरा ध्यान करता रहता है ॥ ११७ ॥ मद्गुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः । सगद्गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृतिरेव च ॥ ११८॥ मेरे गुणों को सुनते ही वह आनन्दविभोर होकर पुलकित हो जाता है, और उसकी वाणी गद्गद हो जाती है । उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता है ॥ ११८ ॥ न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् । ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥ ११९॥ वह सुख या सालोक्य आदि चारों प्रकार की मुक्ति नहीं चाहता है, ब्रह्मत्व और अमरत्व भी नहीं चाहता , केवल मेरी सेवा ही करना चाहता है ॥ ११९ ॥ इन्द्रत्वं च मनुत्वं च देवत्वं च सुदुर्लभम् । स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वर्गेऽपि नहि वाञ्छति ॥ १२०॥ इसी प्रकार इन्द्रत्व, मनुत्व, अत्यन्त दुर्लभ देवत्व और स्वर्गराज्यादि के भोग को वह स्वप्न में भी नहीं चाहता है ॥ १२० ॥ ब्रह्माण्डानि विनश्यन्ति देवा ब्रह्मावयस्तथा । कल्याणभक्तियुक्तश्च मद्भक्तो न प्रणश्यति ॥ १२१॥ प्रत्येक ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाता है एवं ब्रह्मादि देवगण विनष्ट हो जाते हैं; किन्तु मेरी कल्याणकारिणी भक्ति से युक्त मेग भक्त कभी नष्ट नहीं होता है ॥ १२१ ॥ भ्रमन्ति भारते भक्ता लब्ध्वा जन्म सुदुर्लभम् । तेऽपि यान्ति महीं पूतां कृत्वा तीर्थं ममाऽऽलयम् ॥ १२२॥ इस प्रकार भारत में अत्यन्त दुर्लभ जन्म ग्रहण कर वे भक्तगण चारों ओर भ्रमण किया करते हैं और पृथिवी तथा तीर्थों को पवित्र करके अन्त में मेरे धाम में पहुंच जाते हैं ॥ १२२ ॥ इत्येतत्कथितं सर्वं कुरु पद्मे यथोचितम् । तदाज्ञाताश्च ताश्चक्रुर्हरिस्तस्थौ सुखासने ॥ १२३॥ पने ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सब सुना दिया । अब तुम्हें जो उचित मालूम पड़े वह करो । अनन्तर भगवान् की आज्ञा शिरोधार्य कर के उन्होंने वैसाही किया और भगवान् विष्णु अपने सुखासन पर विराजमान हो गए ॥ १२३ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायण- संवादे सरस्वत्युपाख्यानं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में सरस्वती का उपाख्यान नामक छठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥ |