Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तमोऽध्यायः


युगतन्माहात्म्यमन्वन्तरकालेश्वरगुणनिरूपणम् -
कलियुग-चरित्र, कालमान तथा गोलोक की श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन -


नारायण उवाच
पुण्यक्षेत्रे ह्याजगाम भारते सा सरस्वती ।
गङ्गाशापेन कलया स्वयं तस्थौ हरेः पदम् ॥१॥
नारायण बोले--गंगा के शाप के कारण सरस्वती अपनी एक कला से पुण्य क्षेत्र भारत में पधारी और पूर्ण अंश से स्वयं भगवान् के निकट रहीं ॥ १ ॥

भारती भारतं गत्वा ब्राह्मी च ब्रह्मणः प्रिया ।
वागधिष्ठातृदेवी सा तेन वाणी च कीर्तिता ॥२॥
सरस्वती भारत में जाने के कारण भारती ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ब्राह्मी और वाणी को अधिष्ठात्री देवी होने के कारण वाणी नाम से विख्यात हुई ॥ २ ॥

सर्वं विश्वं परिव्याप्य स्रोतस्येव हि दृश्यते ।
हरिः सरःसु तस्येयं तेन नाम्ना सरस्वती ॥३॥
विष्णु सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रहते हुए भी सागर के जल-स्रोत में शयन करते देखे जाते हैं । इस प्रकार सरस् (सरोवर या जलस्रोत) से सम्पर्क होने के कारण विष्णु -प्रिया वाणी सरस्वती नाम से विख्यात हुई ॥ ३ ॥

सरस्वती नदी सा च तीर्थरूपातिपावनी ।
पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ॥४॥
नदी रूप में पवार कर ये सरस्वती परम पावन तीर्थ बन गईं, जो पापियों के पाप रूपी ईंधन को जलाने के लिए प्रज्वलित अग्निरूपा हैं ॥ ४ ॥

पश्चाद्भगीरथानीता महीं भागीरथी शुभा ।
समाजगाम कलया वाणीशापेन नारद ॥५॥
नारद ! तत्पश्चात् सरस्वती के शाप वश गंगा भी अपनी कला से भगीरथ के द्वारा पृथिवी पर पचारी । इसी से उनका शुभ नाम 'भागीरथी' पड़ा ॥ ५ ॥

तत्रैव समये तां च दधार शिरसा शिवः ।
वेगं सोढुमशक्ताया भुवः प्रार्थनया विभुः ॥६॥
उसी आगमन-काल में शिव ने उन्हें अपने शिर पर धारण किया था; क्योंकि उनकी यात्रा के वेग को सहन न कर सकने के कारण पृथ्वी ने विभु (शिव) से प्रार्थना की थी ॥ ६ ॥

पद्मा जगाम कलया सा च पद्मावती नदी ।
भारतं भारती शापात्स्वयं तस्थौ हरेः पदम् ॥७॥
पमा (लक्ष्मी) भी सरस्वती के शाप वश अपनी एक कला से भारत में जाकर 'पद्मावती' नामक नदी हुई और स्वयं संपूर्ण अंश से भगवान् के समीप ही रहीं ॥ ७ ॥

ततोऽन्यया सा कलया चालभज्जन्म भारते ।
धर्मध्वजसुता लक्ष्मीर्विख्याता तुलसीति च ॥८॥
तदनन्तर वे अपनी एक दूसरी कला से भारत में धर्मध्वज के यहाँ पुत्री रूप में प्रकट हुई । उस समय उनका नाम तुलसी पड़ा ॥ ८ ॥

पुरा सरस्वतीशापात्तत्पश्चाद्धरिशापतः ।
बभूव वृक्षरूपा सा कलया विश्वपावनी ॥९॥
पहले सरस्वती के शाप से और पश्चात् भगवान् के शाप से वह विश्वपावनी लक्ष्मी अपनी कला द्वारा 'वृक्ष' रूप में परिणत हो गयीं ॥ ९ ॥

कलौ पञ्चसहस्रं च वर्षं स्थित्वा च भारते ।
जग्मुस्ताश्च सरिद्‌रूपं विहाय श्रीहरेः पदम् ॥ १०॥
भारत में कलि युग के पांच सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर वे सभी अपने नदी रूपों का त्याग कर श्रीहरि के धाम में चली जायेंगी ॥ १० ॥

यानि सर्वाणि तीर्थानि काशी वृन्दावनं विना ।
यास्यन्ति सार्धं ताभिश्च हरेर्वैकुण्ठमाज्ञया ॥ ११ ॥
काशी और वृन्दावन के अतिरिक्त अन्य सभी तीर्थगण भी भगवान् की आज्ञा से उन लोगों के साथ वैकुण्ठ चले जायंगे ॥ ११ ॥

शालग्रामो हरेर्मूर्तिर्जगन्नाथश्च भारतम् ।
कलेर्दशसहस्रान्ते ययौ त्यक्त्वा हरेः पदम् ॥ १२॥
कलि के दशसहस्र वर्ष के अनन्तर भगवान् की शालग्राम मूर्ति और जगन्नाथ जी भारत छोड़कर विष्णुलोक चले जायंगे ॥ १२ ॥

वैष्णवाश्च पुराणानि शङ्खाश्च श्राद्धतर्पणम् ।
वेदोक्तानि च कर्माणि ययुः सार्धमेव च ॥ १३॥
वैष्णवगण, पुराण, शंख, श्राद्ध, तर्पण और वेदोक्त कर्म भी उनके साथ चले जायेंगे ॥ १३ ॥

हरिपूजा हरेर्नाम तत्कीर्तिगुणकीर्तनम् ।
वेदाङ्गानि च शास्त्राणि ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १४॥
भगवान् की पूजा, भगवान् का नाम, उनके गुणों का कीर्तन, वेद के छह अंग (शिक्षा, कल्प आदि) एवं शास्त्र उनके साथ चले जायेंगे ॥ १४ ॥

सन्तश्च सत्यं धर्मश्च वेदाश्च ग्रामदेवताः ।
व्रतं तपस्याऽनशनं ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १५॥
सन्त, सत्य, धर्म, वेद, ग्राम के देवता, व्रत, तपस्या और उपवास उन के साथसाथ चले जायेंगे ॥ १५ ॥

वामाचाररताः सर्वे मिथ्याकापट्यसंयुताः ।
तुलसीवर्जिता पूजा भविष्यति ततः परम् ॥ १६॥
(अनन्तर सभी लोग) वाममार्गी शास्त्रविरुद्ध आचरण करने वाले होकर झूठ, और कपट से पूर्ण व्यवहार करेंगे । उसके बाद बिना तुलसी के विष्णु की पूजा होगी ॥ १६ ॥

एकादशोविहीनाश्च सर्वे धर्मविवर्जिताः ।
हरिप्रसङ्गविमुखा भविष्यन्ति ततः परम् ॥ १७॥
सभी लोग एकादशी व्रत से रहित,, धर्मशून्य तथा हरि की चर्चा से विमुख होंगे ॥ १७ ॥

शठाः क्रूरा दाम्भिकाश्च महाहंकारसंयुताः ।
चौराश्च हिंसकाः सर्वे भविष्यन्ति ततः परम् ॥ १८॥
मनुष्य शठ, क्रूर, दम्भी (पाखण्डी), महाहंकारी चोर एवं हिंसक होंगे ॥ १८ ॥

पुंसां भेदस्तथा स्त्रीणां विवाहो वादनिर्णयः ।
स्वस्वामिभेदो वस्तूनां न भविष्यत्यतः परम् ॥ १९॥
स्त्री-पुरुषों में (अधिकार या कार्य का) कोई भेद नहीं रहेगा । विवाह-सम्बन्ध उठ जाएगा । वाद (मुकदमे) का (उचित) निर्णय नहीं होगा । अपने या पराये स्वामी का भेद तथा अपनी परायी वस्तुओं का भेद आगे चलकर नहीं रहेग । ॥ १९ ॥

सर्वे जनाः स्त्रीवशाश्च पुंश्चल्यश्च गृहे गृहे ।
तर्जनैर्भर्त्सनैः शश्वत्स्वामिनं ताडयन्ति च ॥२०॥
सभी पुरुष स्त्री के अधीन होकर रहेंगे, घर-घर में स्त्रियाँ पुंश्चली (व्यभिचारिणी) होंगी और निरन्तर अपने स्वामियों की तर्जना-मर्त्सना किया करेंगी ॥ २० ॥

गृहेश्वरी च गृहिणी गृही भृत्याधिकोऽधमः ।
चेटी भूत्यासमा वध्वः श्वश्रूश्च श्वशुरस्तथा ॥२१ ॥
कर्तारो बलिनो गेहे योनिसंबन्धिबान्धवाः ।
विद्यासंबन्धिभिः सार्धं संभाषाऽपि न विद्यते ॥२२॥
गृहिणी घर की स्वामिनी बनेगी, पुरुष नौकर से भी अधिक अधम समझा जायगा । अन्य स्त्रियाँ नौकरानी की भाँति रहेंगी । उसी भाँति सास-ससुर भी रहेंगे । घर में जो बलवान् होंगे, उन्हीं को कर्ता-धर्ता माना जाएगा । भाई-बन्धु वे ही माने जायेंगे जिनका सम्बन्ध योनि या जन्म को लेकर रहेगा (जैसे पुत्र, भाई आदि) । किन्तु विद्या-सम्बन्ध रखने वाले (गुरुभाई आदि) से कोई बात भी नहीं करेगा ॥ २१-२२ ॥

यथाऽपरिचिता लोकास्तथा पुंसश्च बान्धवाः ।
सर्वकर्मक्षमाः पुंसो योषितामाज्ञया विना ॥२३॥
अपरिचित लोगों की भांति भाई-बन्धुओं से लोग व्यवहार करेंगे । पुरुष स्त्री की आज्ञा के बिना कोई काम नहीं करेगा ॥ २३ ॥

ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा जात्याचारविनिर्णयः ।
संध्या च यज्ञसूत्रं च भावलुप्तं न संशयः ॥२४॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रवर्ग अपने-अपने जातीय आचारविचार को छोड़ देंगे । संध्यावंदन और यज्ञोपवीत आदि संस्कार तो बंद ही हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं ॥ २४ ॥

म्लेच्छाचारा भविष्यन्ति वर्णाश्चत्वार एव च ।
म्लेच्छशास्त्रं पठिष्यन्ति स्वशास्त्राणि विहाय ते ।
ब्रह्मक्षत्रविशां वंशाः शूद्राणां सेवकाः कलौ ॥२५॥
चारों वर्ण के लोग म्लेच्छाचारी होंगे और अपने शास्त्रों को छोड़कर म्लेच्छों के शास्त्र पढेंगे और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के वंशज कलियग में शूद्रों के सेवक होंगे ॥ २५ ॥

सूपकारा भविष्यन्ति धावका वृषवाहकाः ।
सत्यहीना जनाः सर्वे सस्यहीना च मेदिनी ॥२६॥
सभी जाति के लोग भण्डारी होंगे, दुत बनेंगे और बैल पर लादने का काम करेंगे, सत्य से रहित (झूठे) होंगे एवं पृथ्वी भी सस्य (फसल) से हीन होती रहेगी ॥ २६ ॥

फलहीनाश्च तरवोऽपत्यहीनाश्च योषितः ।
क्षीरहीनास्तथा गावः क्षीरं सर्पिर्विवर्जितम् ॥२७॥
वृक्षों में फल नहीं लगेंगे, स्त्रियां सन्तानहान होंगी, गौओं में दूध नहीं होगा और दूध में घं । नहीं होगा ॥ २७ ॥

दम्पती प्रीतिहीनौ च गृहिणः सुखवर्जिताः ।
प्रतापहीना भूपाश्च प्रजाश्च करपीडिताः ॥२८॥
दम्पति (पति पत्नी) में प्रति नहीं होगी, गृही (गृहस्थ) को सुख नहीं मिलेगा । राजाओं में प्रताप नहीं होगा और प्रजावर्ग कर (मालगुजारी) आदि से पीड़ित रहेगा ॥ २८ ॥

जलहीना नदा नद्यो दीर्घिकाः कन्दरादयः ।
धर्महीनाः पुण्यहीना वर्णाश्चत्वार एव च ॥२९॥
नद, नदी, बावली और झरने आदि जल से शून्य होंगे, तथा चारों वर्ण के लोग धर्महान और पुण्यहान होंगे ॥ २९ ॥

लक्षेषु पुण्यवान्कोऽपि न तिष्ठति ततः परम् ।
कुत्सिता विकृताकारा नरा नार्यश्च बालकाः ॥३०॥
लाखों में कोई एक पुण्यवान् होगा, और पुरुष, स्त्री एवं बालक कुत्सित विचार तथा विकृताकार वाले (टेढ़े, लूले) होंगे ॥ ३० ॥

कुवार्ताः कुत्सितपथा भविष्यन्ति ततः परम् ।
केचिद्‌ग्रामाश्च नगरा नरशून्या भयानकाः ॥३१॥
वे बुरी बातें बोला करेंगे तथा कुमार्ग पर चलेंगे । कुछ गाय और नगर जनरहित होने के कारण भयानक मालम होंगे ॥ ३१ ॥

केचिस्त्वल्पकुटीरेण नरेण च समन्विताः ।
अरण्यानि भविष्यन्ति ग्रामेषु नगरेषु च ॥३२॥
कुछ में छोटी-छोटी झोपड़ियो वाले मनुष्य रहेंगे । इस प्रकार प्राम और नगर अरण्य के समान हो जायंगे ॥ ३२ ॥

अरण्यवासिनः सर्वे जनाश्च करपीडिताः ।
सस्यानि च भविष्यन्ति तडागेषु नदीषु च ॥३३॥
सभी जंगलनिवासी लोग भी कर से पीड़ित रहेंगे । तालावों और नदियों में खेतो होगी ॥ ३३ ॥

क्षेत्राणि सस्यहीनानि प्रकृष्टान्यर्थतः परम् ।
हीनाः प्रकृष्टा धनिनो बलदर्पसमन्विताः ॥३४॥
खेतों में अच्छी खेती (फसल) नहीं होगी । अन्छो खेती से अमदनी नहीं होगी । नीच उता माने जायेंगे, धनिक वर्ग बलवान् और अहंकारी होंगे ॥ ३४ ॥

प्रकृष्टवंशजा हीना भविष्यन्ति कलौ युगे ।
अलीकवादिनो धूर्ताः शठा वै सत्यवादिनः ॥ ३५ ॥
कलियुग में उत्तम वंश वाले नीच काम कर नीच कहलायेंगे । झूठ बोलने वाले, धूर्त, एवं शठ लोग सत्यवादी कहे जायगे ॥ ३५ ॥

पापिनः पुण्यवन्तश्चाप्यशिष्टः शिष्ट एव च ।
जितेन्द्रिया लम्पटाश्च पुंश्चल्यश्च पतिव्रताः ॥ ३६ ॥
पापी लोग पुण्यवान् कहे जायँगे, अशिष्ट लोग शिष्ट माने जायंगे । लम्पट पुरुष जितन्द्रिय कहे जायेंगे और पुंश्चली स्त्रियां पतिव्रता कही जायँगी ॥ ३६ ॥

तपस्विनः पातकिनो विष्णुभक्ता अवैष्णवाः ।
हिंसकाश्च दयायुक्ताश्चौराश्च नरघातिनः ॥ ३७ ॥
पातको लोग तपस्वी कहे जायेंगे, वैष्णव धर्म को मानने वाले लोग विष्णु के भक्त कहे जायेंगे । हिमा करने वाले दयालु कहे जायँगे । चोर लोग मनुष्यों की हत्या करेंगे । ॥ ३७ ॥

भिक्षूवेषधरा धूर्ता निन्दन्त्युपहसन्ति च ।
भूतादिसेवानिपुणा जनानां मोदकारिणः ॥ ३८ ॥
धूर्त लोग भिक्षु (संन्यासियों) के वेप बनाये चारों ओर निन्दा तथा उपहास करते फिरेंगे । भूत, प्रेत आदि के उपासक चतुर लोग लोकप्रिय कहलायेंगे ॥ ३८ ॥

पूजितास्ते भविष्यति वञ्चका ज्ञानदुर्बलाः ।
वामना व्याधियुक्ताश्च नरा नार्यश्च सर्वतः ॥ ३९ ॥
वे ही नाममात्र के ज्ञानी एव बञ्चक लोग सबसे पृजित होंगे । सब ओर पुरुष तथा स्त्रियाँ बौने तथा रोगी होंगे ॥ ३९ ॥

अल्पायुषो जरायुक्ता यौवनेषु कलौ युगे ।
पलिता षोडशे वर्षे महावृद्धास्तु विंशतौ ॥ ४० ॥
इस भाँति कलियुग में मनुष्य अल्पायु होंगे, युवावस्था में ही उन्हें बुढ़ाई आने लगेगी । सोलहवें वर्ष तक सब बाल पर जायेंगे औरवास में महावृद्ध हो जायगे ॥ ४० ॥

अष्टवर्षा च युवती रजोयुक्ता च गर्भिणी ।
वासरान्ते प्रसूता स्त्री षोडशे च जरान्विता ॥ ४१ ॥
स्त्रियाँ आठवें वर्ष में युवती हो जायगी और उसी अवस्था में मासिक धर्म होने लगेगा एवं वे गर्भिण । भी होने लगेंगी । प्रत्येक वर्ष के अन्त में वे बच्चा पैदा करंगी और सोलहवें वर्ष तक वृद्धा हो जायेंगी ॥ ४१ ॥

एताः काश्चित्सहस्रेषु वन्ध्याश्चापि कलौ युगे ।
कन्याविक्रयिणः सर्वे वर्णाश्चत्वार एव च ॥ ४२ ॥
कलियुग में सहस्रों में कुछ स्त्रियाँ बन्ध्या भी होंगी और वारों वर्ण के लोग कन्या-विक्रय करेंगे ॥ ४२ ॥

मातृजायावधूनां च जारोपार्जनतत्पराः ।
कन्यानां भगिनीनां च जारोपार्जनजीविनः ॥ ४३ ॥
माना, स्त्री, यह तभी जार (उपपति) से जीविधा प्राप्त करने में तत्पर रहेगी । पुरुष कन्याओं एवं भगिनियों के जार पति द्वारा अपनी जीविका चलायेंगे ॥ ४३ ॥

हरेर्नाम्नां विक्रयिणो भविष्यन्ति कलौ युगे ।
स्वयमुत्सृज्य दानं च कीर्तिवर्धनहेतवे ॥ ४४ ॥
लोग कलियुग में भगवान् के नाम का विक्रय करेंगे और अपनी कति बढ़ाने के निमित्त स्वयं वस्तु का दान करेंगे ॥ ४४ ॥

तत्पश्चान्मनसाऽऽलोच्य स्वयमुलङ्‍घयिष्यति ।
देववृत्ति ब्रह्मवृत्तिं वृत्ति गुरुकुलस्य च ॥ ४५ ॥
स्वदत्तां परदत्तां वा सर्वमुल्लङ्‍घयिष्यति ।
कन्यकागामिनः केचित्केचिद्‌च्छ्‍वश्रभिगामिनः ॥ ४६ ॥
केचिद्‌वधूगामिनश्च केचित्सर्वत्रगामिनः ।
भगिनीगामिनः केचित्सपत्‍नीमातृगामिनः ॥ ४७ ॥
भ्रातृजायागामिनश्च भविष्यन्ति कलौ युगे ।
अगम्यागमनं चैव करिष्यन्ति गृहे गृहे ॥ ४८ ॥
किन्तु पश्चात् मन में सोचकर उसको वापस ले लेंगे । देववृत्ति, ब्राह्मणवृत्ति, अथवा गुरुकुल वृत्ति-वाहे वह अपनी दी हुई हो अथवा दूसरे की--कलि के मानव उसे छीन लेंगे । कलियुग में कोई व्यक्ति कन्यागामी, कोई श्वश्रूगामी, कोई वधूगामी और कोई सर्वगामी होंगे । कोई भगिनीगामी, कोई सौतेली मां के साथ गमन करने वाले और कोई भाई की स्त्री के साथ गमन करने वाले होंने । घर-घर में लोग अगम्या स्त्री के साथ गमन करेंगे ॥ ४५-४८ ॥

आत्मयोनिं परित्यज्य विहरिष्यन्ति सर्वतः ।
पत्‍नीनां निर्णयो नास्ति भर्तृणां च कलौ युगे ॥ ४९ ॥
केवल अपनी योनि (माता) को छोड़कर सभी स्त्रियों के साथ विहार करेंगे । इसलिए कलियुग में पत्नियों और पतियों का निर्णय नहीं हो सकेगा (अर्थात् सभी स्त्री-पुरुषों में अवैध व्यवहार होंगे) ॥ ४९ ॥

प्रजानां चैव वस्तूनां ग्रामाणां च विशेषतः ।
अलीकवादिनः सर्वे सर्वे चौर्यार्थलम्पटाः ॥ ५० ॥
प्रजा किन्हीं ग्रामों और धनों पर अपना पूर्ण अधिकार नहीं प्राप्त कर सकेगी । प्रायः सब निष्प्रयोजन झूठ बोलेंगे । मभी चोर और लम्पट हो ॥ ५० ॥

परस्परं हिंसकाश्च सर्वे च नरघातिनः ।
ब्रह्मक्षत्रविशां वंशा भविष्यन्ति च पापिनः ॥ ५१ ॥
सभी एक-दूसरे की हिंसा करेंगे और मनुष्यघाती होंगे । ब्राह्मण क्षत्रिय, एवं वैश्य-साथके वंशज पर कर्म करेंगे ॥ ५१ ॥

लाक्षालोहरसानां च व्यापारं लवणस्य च ।
वृषवाहा विप्रवंशाः शूद्राणां शवदाहिनः ॥ ५२ ॥
ब्राह्मणों के वंशज लाह, लोहा, रस और नमक के व्यापार करेंगे, बैलों पर लादने का कार्य करेंगे एवं शूद्रों के शव जलायेंगे ॥ ५२ ॥

शूद्रान्नभोजिनः सर्वे सर्वे च वृषलीरताः ।
पञ्चपर्वपरित्यक्ताः कुहूरात्रिषु भोजिनः ॥ ५ ३ ॥
सभी लोग शूद्रों के अन्न खायँगे और शूद्र की स्त्रियों के साथ रमण करेंगे । विप्र पंचयज नहीं करेंगे और अमावस्या की रात्रि में भोजन भी करेंगे ॥ ५३ ॥

यज्ञसूत्रविहीनाश्च संध्याशौचविहीनकाः ॥ ५४ ॥
यज्ञोपवीत का त्याग कर संध्या वंदन और शौच कर्म से विहीन होंगे ॥ ५४ ॥

पुंश्चली वार्धुषाऽवीरा कुट्टिनी च रजस्वला ।
विप्राणां रन्धनागारे भविष्यन्ति च याचिकाः ॥ ५५ ॥
पुंश्चली, सूदखोर, पति-पुत्रहीन, कुटनी एवं रजस्वला स्त्री ब्राह्मणों के भोजनालय में भोजन बनाने का काम करेंगी ॥ ५५ ॥

अन्नानां निर्णयो नास्ति योनीनां च विशेषतः ।
आश्रमाणां जनानां च सर्वे म्लेच्छाः कलौ युगे ॥ ५६ ॥
अन्नों में, स्त्रियों में और आश्रमवासी मनुष्यों में कोई नियम नहीं रहेगा । कलियुग में सभी मलेच्छ हो जायेंगे ॥ ५६ ॥

एवं कलौ संप्रवृत्ते सर्वे म्लेच्छमया भवे ।
हस्तप्रमाणे वृक्षे चाङ्गुष्ठमाने च मानवे ॥ ५७ ॥
इस प्रकार घोर कलियुग के आ जाने पर संसार में सभी म्लेच्छ हो जायेंगे । उस समय एक हाथ के वृक्ष होंगे और अंगूठे के बराबर मनुष्य होंगे ॥ ५७ ॥

विप्रस्य विष्णुयशसः पुत्रः कल्की भविष्यति ।
नारायणकलांशश्च भगवान्बलिनां बली ॥ ५८ ॥
तब विष्णुयशा नामक ब्राह्मण के यहाँ नारायण की कला के अंश से महाबली कल्की भगवान् पुत्ररूप में प्रकट होंगे ॥ ५८ ॥

दीर्घेण करवालेन दीर्घघोटकवाहनः ।
म्लेच्छशून्यां च पृथिवीं त्रिरात्रेण करिष्यति ॥ ५९ ॥
वे एक बहुत ऊँचे घोड़े पर बैठकर लम्बी तलवार से तीन रात में ही पृथ्वी को म्लेच्छों से शून्य कर देंगे ॥ ५९ ॥

निर्म्लेच्छां वसुधां कृत्वा चान्तर्धानं करिष्यति ।
अराजका च वसुधा दस्युग्रस्ता भविष्यति ॥ ६० ॥
इस भाँति पृथिवी को म्लेच्छ-रहित करके वे स्वयं अन्तर्धान हो जायेंगे । उस समय समस्त पृथिवी पर अराजकता फैल जाएगी और चारों ओर चोर-डाकुओं का उपद्रव दह जायगा ॥ ६० ॥

स्थूलप्रमाणं षड्रात्रं वर्षाधाराप्लुता मही ।
लोकशून्या वृक्षशून्या गृहशून्या भविष्यति ॥ ६१ ॥
ततश्च द्वादशादित्याः करिष्यन्त्युदयं मुने ।
प्राप्नोति शुष्कतां पृथ्वी समा तेषां च तेजसा ॥ ६२ ॥
पश्चात् छह रात्रि तक मोटी धार से इतनी वर्षा होगी कि पृथ्वी पर जल ही जल दिखाई देगा । प्राणी, वृक्ष तथा घर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा । इसके बाद एक साथ बारह आदित्य उदय होकर अपने तेज से इस पृथ्वी को सुखा डालेंगे ॥ ६१-६२ ॥

कलौ गते च दुर्धर्षे संप्रवृत्ते कृते युगे ।
तपसत्यसमायुक्तो धर्मः पूर्णो भविष्यति ॥ ६३ ॥
यों होने पर दुर्धर्ष कलियुग समाप्त हो जाएगा और कृतयुग का आरम्भ होगा, जिसमें तप और सत्य से युक्त धर्म का पूर्णरूप से प्राकट्य होगा ॥ ६३ ॥

तपस्विनश्च धर्मिष्ठा वेदज्ञा ब्राह्मणा भुवि ।
पतिव्रताश्च धर्मिष्ठा योषितश्च गृहे गृहे ॥ ६४ ॥
उस समय भूतल पर ब्राह्मण लोग तपस्वी, अत्यन्त धार्मिक और वेदज्ञाता होंगे तथा घर-घर में स्त्रियाँ अत्यन्त धार्मिक और पतिव्रता होंगी ॥ ६४ ॥

राजानः क्षत्रियाः सर्वे विप्रभक्ताः स्वधर्मिणः ।
प्रतापवन्तो धर्मिष्ठाः पुण्यकर्मरताः सदा ॥ ६५ ॥
क्षत्रिय राजा होंगे । वे सभी अपने धर्मों के पालन करने वाले, ब्राह्मण के भक्त, प्रतापी, धर्मिष्ठ एवं सदा पुण्य कर्म से निरत रहने वाले होंगे ॥ ६५ ॥

वैश्या वाणिज्यनिरता विप्रभक्ताश्च धार्मिकाः ।
शूद्राश्च पुण्यशीलाश्च धर्मिष्ठा विप्रसेविनः ॥ ६६ ॥
वैश्य व्यापार कर्म में संलग्न रहकर ब्राह्मणों के भक्त तथा धार्मिक होंगे । उसी प्रकार शूद्र भी पुण्य स्वभाव वाले धर्मिष्ठ होकर ब्राह्मणों के सेवक होंगे ॥ ६६ ॥

विप्रक्षत्रविशां वंशा विष्णुयज्ञपरायणाः ।
विष्णुमन्त्ररताः सर्वे विष्णुभक्ताश्च वैष्णवाः ॥ ६७ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वंश वाले विष्णु-यज्ञ का अनुष्ठान करते रहेंगे । वे वैष्णव, भगवान् विष्णु के मन्त्र की उपासना में संलग्न और विष्णु के भक्त होंगे ॥ ६७ ॥

श्रुतिस्मृतिपुराणज्ञा धर्मज्ञा ऋतुगामिनः ।
लेशो नास्ति ह्यधर्माणां धर्मपूर्णे कृते युगे ॥ ६८ ॥
वे श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों के ज्ञाता, धर्म के वेत्ता तथा ऋतुकाल में स्त्री-प्रसंग करने वाले होंगे । इस प्रकार धर्मपूर्ण उस कृतयुग में अधर्म का लेश भी नहीं रहेगा ॥ ६८ ॥

धर्मस्त्रिपाच्च त्रेतायां द्विपाच्च द्वापरे स्मृतः ।
कलौ प्रवृत्ते पादात्मा सर्वलोपस्ततः परम् ॥ ६९ ॥
धर्म त्रेतायुग में तीन पैर से, द्वापर में दो पैर से और कलियुग में एक पैर से रहता है । अनन्तर समस्त का लोप हो जाता है ॥ ६९ ॥

वाराः सप्त यथा विप्र तिथयः षोडश स्मृताः ।
यथा द्वादश मासाश्च ऋतवश्च षडेव हि ॥ ७० ॥
विप्र ! जिस प्रकार सात दिन, सोलह तिथियाँ और बारह मास बताये गये हैं उसी भाँति छह ऋतुएँ भी होती हैं ॥ ७० ॥

द्वौ पक्षौ चायने द्वे च चतुर्भिः प्रहरैर्दिनम् ।
चतुर्भिः प्रहरै रात्रिर्मासस्त्रिंशद्‌दिनैस्तथा ॥ ७१ ॥
(मास में) दो पक्ष, (वर्ष में) दो अयन, चार पहर का दिन, चार पहर की रात्रि और तीस दिन का मास होता है ॥ ७१ ॥

वर्षः पञ्चविधो ज्ञेयः कालसंख्यां निबोध मे ।
यथा चाऽऽयान्ति यान्त्येव तथा युगचतुष्टयम् ॥ ७२ ॥
वर्ष पाँच प्रकार का होता है । अब तुम्हें काल की संख्या बता रहा हूँ, जिस प्रकार दिन आते-जाते रहते हैं उसी प्रकार चारों युग आते-जाते रहते हैं ॥ ७२ ॥

वर्षे पूर्णे नराणां च देवानां च दिवानिशम् ।
शतत्रये षष्ट्यधिके नराणां च युगे गते ।
देवानां च युगो ज्ञेयः कालसंख्याविदां मतः ॥ ७३ ॥
मनुष्यों के एक वर्ष पूरा होने पर देवों का एक दिन-रात होता है । काल-संख्या वेत्ताओं के मत में मनुष्यों के तीन सौ साठ युगों के व्यतीत होने पर देवों का 'एक युग' होता है ॥ ७३ ॥

मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ।
मन्वन्तरसमं ज्ञेयं चेन्द्रायुः परिकीर्तितम् ॥ ७४ ॥
दिव्य एकहत्तर युगों का एक मन्वन्तर होता है । और मन्वन्तर के समान ही इन्द्र की आय होती है ॥ ७४ ॥

अष्टाविंशतिमे चेन्द्रे गते ब्राह्मं दिवानिशम् ।
अष्टोत्तरे वर्षशते गते पातो विधेर्भवेत् ॥ ७५ ॥
इस प्रकार अट्ठाईस इन्द्र के गत होने पर 'ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है । इस प्रकार के एक सौ आठ वर्ष बीत जाने पर ब्रह्मा को आयु पूरी होती है ॥ ७५ ॥

प्रलयः प्राकृता ज्ञेयस्तत्रादृष्टा वसुंधरा ।
जलप्लुतानि विश्वानि ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७६ ॥
ऋषयो जीविनः सर्वे लीनाः कृष्णे परात्परे ।
तत्रैव प्रकृतिर्लीना तेन प्राकृतिको लयः ॥ ७७ ॥
उसे ही 'प्राकृत प्रलय' जानना चाहिए । उस समय पृथिवी अदृश्य रहती है और सारा विश्व जल में लीन हो जाता है । ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि देवता, ऋषिगण तथा समस्त जीवगण परापर भगवान् श्रीकृष्ण में विलीन हो जाते हैं और प्रकृति भी उन्हीं में लीन होती है । इसीलिए यह 'प्राकृतिक लय, कहा जाता है ॥ ७६-७७ ॥

लये प्राकृतिकेऽतीते पाते च ब्रह्मणो मुने ।
निमेषमात्रः कालश्च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ७८ ॥
मुने ! ब्रह्मा के पतन रूप उस प्राकृतिक लय के व्यतीत होने पर परमात्मा कृष्ण का एक निमेष काल (पलक भांजना) होता है । ॥ ७८ ॥

एवं नश्यन्ति सर्वाणि ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ।
स्थितौ गोलोकवैकुण्ठौ श्रीकृष्णश्च सपार्षदः ॥ ७९ ॥
इस प्रकार अखिल ब्रह्माण्ड का नाश हो जाता है, किन्तु गोलोक और वैकुण्ठलोक तथा पार्षदों समेत भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ववत् विराजमान रहते हैं ॥ ७९ ॥

निमेषमात्रः प्रलयो यत्र विश्वं जलप्लुतम् ।
निमेषानन्तरे काले पुनः सृष्टिः क्रमेण च ॥ ८० ॥
उनके निमेष मात्र काल में प्रलय होता है--सारा विश्व जलमग्न हो जाता है और निमेष के अनन्तर क्रमशः पुनः सृष्टि का क्रम चालू हो जाता है । ॥ ८० ॥

एवं कतिविधा सृष्टिर्लयः कतिविधोऽपि वा ।
कतिकृत्वो गतायातः संख्यां जानाति कः पुमान् ॥ ८१ ॥
इस प्रकार कितने बार सृष्टि हुई तथा कितने बार प्रलय हुआ, और कितने कल्प गये और आये, इसकी संख्या कौन पुरुष जान सकता है ॥ ८१ ॥

सृष्टीनां च लयानां च ब्रह्माण्डानां च नारद ।
ब्रह्मादीनां च विध्यण्डे संख्यां जानाति कः पुमान् ॥ ८२ ॥
नारद ! सृष्टियों, प्रलयों और ब्रह्माण्डों तथा ब्रह्माण्डों के भीतर रहने वाले ब्रह्मा आदि की संख्या कौन पुरुष जान सकता है ॥ ८२ ॥

ब्रह्माण्डानां च सर्वेषामीश्वरश्चैक एव सः ।
सर्वेषां परमात्मा च श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ॥ ८३ ॥
परमात्मा श्रीकृष्ण ही सभी ब्रह्माण्डों के मात्र ईश्वर और वही सबके परमात्मा हैं तथा प्रकृति से परे हैं ॥ ८३ ॥

ब्रह्मादयश्च तस्यांशास्तस्यांशश्च महाविराट् ।
तस्यांशश्च विराट् क्षुद्रस्तस्यांशा प्रकृतिः स्मृता ॥ ८४ ॥
ब्रह्मा आदि देवता, महाविराट और क्षुद्र विराटसब उसी परमात्मा के अंश हैं और प्रकृति भी उन्हीं का अंश है ॥ ८४ ॥

स च कृष्णो द्विधाभूतो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ॥ ८५ ॥
वही भगवान् श्रीकृष्ण दो रूपों में विभक्त हो गए-एक द्विभुज और दूसरे चतुर्भुज । चतुर्भुज विष्णु वकुण्ठ में विराजते हैं और द्विभुज स्वयं श्रीकृष्ण गोलोक में निवास करते हैं ॥ ८५ ॥

ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं प्राकृतिकं भवेत् ।
यद्यत्प्राकृतिकं सृष्टं सर्वं नश्वरमेव च ॥ ८६ ॥
ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त समस्त चराचर प्राकृतिक कहे जाते हैं । जो-जो प्राकृतिक हैं, वे सब नश्वर हैं ॥ ८६ ॥

विद्ध्येकं सृष्टिमूलं तत्सत्यं नित्यं सनातनम् ।
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म निर्लिप्तं निर्गुणं परम् ॥ ८७ ॥
निरुपाधि निराकारं भक्तानुग्रहविग्रहम् ।
अतीव कमनीयं च नवीननीरदप्रभम् ॥ ८८ ॥
सभी सृष्टियों का मूल कारण वही एक श्रीकृष्ण हैं जो सत्य, नित्य, सनातन, स्वेच्छामय परब्रह्म, निर्लिप्त, निर्गुण, प्रकृति से परे, उपाधिशून्य तथा निराकार हैं । फिर भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे शरीर धारण करते हैं । वे अत्यन्त कमनीय हैं । उनकी अंगकान्ति नूतन जलघर के समान है ॥ ८७-८८ ॥

द्विभुजं मुरलीहस्तं गोपवेषं किशोरकम् ।
सर्वज्ञं सर्वसेव्यं च परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८९ ॥
उनके दो भुजाएँ हैं, हाथ में मुरली है, गोप जैसा वेश तथा किशोरावस्था है । सबके ज्ञाता, सबके सेव्य, परमात्मा एवं ईश्वर हैं ॥ ८९ ॥

करोति धाता ब्रह्माण्डं ज्ञानात्मा कमलोद्‌भवः ।
शिवो मृत्युंजयश्चैव संहर्ता सर्वतत्त्ववित् ॥ ९० ॥
यस्य ज्ञानाद्यत्तपसा सर्वेशस्तत्समो महान् ।
महाविभूतियुक्तश्च सर्वज्ञः सर्वदः स्वयम् ॥ ९१ ॥
सर्वव्यापी सर्वपाता प्रदाता सर्वसंपदाम् ।
विष्णुः सर्वेश्वरः श्रीमान्यस्य ज्ञानाज्जगत्पतिः ॥ ९२ ॥
उनके नाभिकमल से उत्पन्न होकर ज्ञानत्मा ब्रह्मा ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और समस्त तत्त्वों के वेत्ता एवं मृत्यु को जीतने वाले शिव (सृष्टि) संहार का कार्य करते हैं । उन्हीं के दिये ज्ञान से तथा उन्हीं के लिए किये गये तप के प्रभाव से वे उनके समान ही महान् एवं सर्वेश्वर हुए हैं । उन परमात्मा श्रीकृष्ण के ज्ञान के प्रभाव से ही भगवान् विष्णु महान विभूति से सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वव्यापी, सब के रक्षक, सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने में समर्थ, सर्वेश्वर तथा समस्त जगत् के अधिपति हुए हैं ॥ ९०-९२ ॥

महामाया च प्रकृतिः सर्वशक्तिमतीश्वरी ।
यज्ज्ञानाद्यस्य तपसा यद्‌भक्त्या यस्य सेवया ॥ ९३ ॥
उन्हीं के ज्ञान, तप, भक्ति और सेवा द्वारा प्रकृति समस्त शक्तिमती महामाया और ईश्वरी हुई हैं ॥ ९३ ॥

सावित्री वेदमाता च वेदाधिष्ठातृदेवता ।
पूज्या द्विजानां वेदज्ञा यज्ज्ञानाद्यस्य सेवया ॥ ९४ ॥
उन्हीं के ज्ञान और सेवा करने से माता सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी और द्विजों की पूज्या हुई हैं ॥ ९४ ॥

सर्वविद्याधिदेवी सा पूज्या च विदुषां पुरा ।
यत्सेवया यत्तपसा यस्य ज्ञानात्सरस्वती ॥ ९५ ॥
उन्हीं की सेवा, तप और ज्ञान से सरस्वती समस्त विद्याओं की अधिदेवी और विद्वानों की पूज्या हुई हैं ॥ ९५ ॥

यत्सेवया यत्तपसा प्रदात्री सर्वसंपदाम् ।
धनदस्याधिदेवी सा महालक्ष्मीः सनातनी ॥ ९६ ॥
उन्हीं की सेवा और तप करके सनातनी महालक्ष्मी समस्त सम्पत्ति की प्रदात्री और धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी हुई हैं ॥ ९६ ॥

यत्सेवया यत्तपसा सर्वविश्वेषु पूजिता ।
सर्वज्ञानाधिदेवी सा सर्वसंपत्प्रदायिनी ॥ ९७ ॥
सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या सर्वेशं प्राप या पतिम् ।
सर्वस्तुता च सर्वज्ञा दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ॥ ९८ ॥
उन्हीं की सेवा के तथा तप के भाव से दुर्गा समस्त विश्व में पूजित, सम्पूर्ण ज्ञान की अधीश्वरी, समस्त सम्पत्तियों को देने वाली, सबकी ईश्वरी, सबकी वन्द्या, सर्वाधीश्वर (शिव) को पति के रूप में प्राप्त करने वाली, सबकी स्तुत्य, सर्वज्ञ एवं भयंकर पीड़ा को मिटाने वाली हैं ॥ ९७-९८ ॥

कृष्णवामाशसंभूता कृष्णप्राणाधिदेवता ।
कृष्णप्राणाधिका प्रेम्णा राधिका कृष्णसेवया ॥ ९९ ॥
सर्वाधिक च रूपं च सौभाग्यं मानगौरवम् ।
कृष्णवक्षःस्थलस्थानं पत्‍नीत्वं प्राप सेवया ॥ १०० ॥
उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के बाँयें भाग से उत्पन्न होने वाली राधिका ने भी, जो प्रेम के कारण उनके प्राणों की अधिदेवी हैं तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, उनकी सेवा के प्रभाव से सर्वाधिक सौन्दर्य, सौभाग्य, मान और गौरव के साथ उनके वक्षःस्थल पर अपना स्थान तथा उनका पत्नीत्व प्राप्त किया है ॥ ९९-१०० ॥

तपश्चकार सा पूर्वं ऽ शतशृङ्‍गे च पर्वते ।
दिव्यं युगसहस्रं च निराहाराऽतिकर्शिता ॥ १०१ ॥
राधा ने पूर्वकाल में शतशृङ्ग पर्वत पर दिव्य सहस्र युगों तक तप किया था, जिसमें निराहार रहने के कारण वे अत्यन्त कृशकाय हो गयी थीं ॥ १०१ ॥

कृशां निःश्वासरहितां दृष्ट्‍वाचन्द्रकलोपमाम् ।
कृष्णो वक्षःस्थले कृत्वा रुरोद कृपया विभुः ॥ १०२ ॥
तब उन्हें कृश, श्वास-रहित, चन्द्र की (एक) कला की भाँति (सूक्ष्म) देखकर विभु भगवान् कृष्ण उन्हें अपने वक्षःस्थल से लगाकर करुणावश रोने लगे ॥ १०२ ॥

वरं तस्यै ददौ सारं सर्वेषामपि दुर्लभम् ।
मम वक्षःस्थले तिष्ठ मयि ते भक्तिरस्त्विति ॥ १०३ ॥
फिर उन्होंने राधा को सर्वदुर्लभ सारभूत वर प्रदान किया । वे बोले-'प्राणवल्लभे' तुम मेरे वक्षःस्थल पर सदैव रहो और मुझमें तुम्हारी भक्ति हो ॥ १०३ ॥

सौभाग्येन च मानेन प्रेम्णा वै गौरवेण च ।
त्वं मे श्रेष्ठा परं प्रेम्णा ज्येष्ठा त्वं सर्वयोषिताम् ॥ १०४ ॥
सौभाग्य, मान, प्रेम, एवं गौरव के द्वारा तुम मेरी श्रेष्ठा तथा अत्यन्त प्रेम के कारण सभी स्त्रियों में ज्येष्ठा पत्नी बनो ॥ १०४ ॥

वरिष्ठा च गरिष्ठा च संस्तुता पूजिता मया ।
सततं तव साम्योऽहं राध्यश्च प्राणवल्लभे ॥ १०५ ॥
तुम सबसे अधिक महत्त्व तथा गौरव प्राप्त करो मैं सदा तुम्हारी स्तुति करूँगा, पूजा करूँगा । तुम सदा मुझे अपने अधीन समझो । मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य रहूँगा' ॥ १०५ ॥

इत्युक्त्वा जगतां नाथश्चके तच्चेतनां ततः ।
सपत्‍नीरहितां तां च चकार प्राणवल्लभाम् ॥ १०६ ॥
इतना कहकर जगत् के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें सचेत किया और अपनी उन प्राणवल्लभा को सपत्नी के कष्ट से मुक्त कर दिया ॥ १०६ ॥

अन्या या याश्च देव्यो वै पूजितास्तस्य सेवया ।
तपस्या यादृशी यासां तासां तादृक्फलं मुने ॥ १०७ ॥
जिन-जिन देवताओं की जो-जो देवियाँ पति द्वारा सम्मानित हुई हैं, उनके उस सम्मान में श्रीकृष्ण की आराधना ही कारण है । मुने ! जिनकी जैसी तपस्या है, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त हुआ है ॥ १०७ ॥

दिव्यं वर्षसहस्रं च तपस्तप्त्वा हिमालये ।
दुर्गा च तत्पदं ध्यात्वा सर्वपूज्या बभूव ह ॥ १०८ ॥
जैसे हिमालय पर्वत पर दुर्गा जी दिव्य सहस्र वर्षों तक तप और उनके चरणों के ध्यान करने के कारण सर्वपूज्या हो गईं ॥ १०८ ॥

सरस्वती तपस्तप्त्वा पर्वते गन्धमादने ।
लक्षवर्षं च दिव्यं च सर्ववन्द्या बभूव सा ॥ १०९ ॥
सरस्वती गन्धमादन पर्वत पर एक लाख दिव्य वर्षों तक तप कर के सब को वन्द्या हुई हैं ॥ १०९ ॥

लक्ष्मीर्युगशतं दिव्यं तपस्तप्त्वा च पुष्करे ।
सर्वसंपत्प्रदात्री सा चाभवत्तस्य सेवया ॥ ११० ॥
लक्ष्मी पुष्कर क्षेत्र में दिव्य सौ युगों तक तप कर के उनकी सेवा के प्रभाव से समस्त सम्पत्तियों को प्रदान करने वाली हुई हैं ॥ ११० ॥

सावित्री मलये तप्त्वा द्विजपूज्या बभूव सा ।
षष्टिवर्षसहस्रं च दिव्यं ध्यात्वा च तत्पदम् ॥ १११ ॥
सावित्री मलयाचल पर दिव्य साठ सहस्र वर्षों तक तप और उनके चरणों का ध्यान कर के द्विजों को पूज्या हुई हैं ॥ १११ ॥

शतमन्वन्तरं तप्तं शंकरेण पुरा विभो ।
शतमन्वन्तरं चैव ब्रह्मणा तस्य भक्तितः ॥ ११२ ॥
शतमन्वन्तरं विष्णुस्तप्त्वा पाता बभूव ह ।
शतमन्वन्तरं धर्मस्तप्त्वा पूज्यो बभूव ह ॥ ११३ ॥
विभो ! पूर्व काल में शंकर ने और ब्रह्मा ने सौ मन्वन्तरों के समय तक भक्तिपूर्वक तप किया था । तथा उतने ही दिन विष्णु भी तप करके समस्त चराचर के रक्षक बने । सौ मन्वन्तरों तक तप कर के धर्म पूज्य हुए ॥ ११२-११३ ॥

मन्वन्तरं तपस्तेपे शेषो भक्त्या च नारद ।
मन्वन्तरं च सूर्यश्च शक्रश्चन्द्रस्तथा गुरुः ॥ ११४ ॥
नारद ! एक मन्वन्तर के समय तक शेष, सूर्य, इन्द्र, चन्द्रमा और बृहस्पति ने भक्तिपूर्वक तप किया था ॥ ११४ ॥

दिव्यं शतयुगं चैव वायुस्तप्त्वा च भक्तितः ।
सर्वप्राणः सर्वपूज्यः सर्वाधारो बभूव सः ॥ ११५ ॥
वायु दिव्य सौ युगों तक भक्तिपूर्वक तप कर के सब के प्राण, सब के पूज्य और सब के आधार हुए हैं ॥ ११५ ॥

एवं कृष्णस्य तपसा सर्वे देवाश्च पूजिताः ।
मुनयो मानवा भूपा ब्राह्मणाश्चैव पूजिताः ॥ ११६ ॥
इसी भांति भगवान् कृष्ण का तप करके समस्त देवगण, मुनिगण, मनुष्यवृन्द, राजा लोग और ब्राह्मणगण पूजित हुए हैं ॥ ११६ ॥

एवं ते कथितं सर्वं पुराणं च यथागमम् ।
गुरुवक्त्राद्यथा ज्ञातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११७ ॥
इस प्रकार मैंने पुराण और आगम का सारभूत तत्त्व गुरु जी के मुख से जैसा सुना था, वैसा तुम्हें बता दिया, अब और क्या सुनन । चाहते हो ॥ ११७ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
युगतन्माहात्म्यमन्वन्तरकालेश्वरगुणनिरूपणं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में युग, युग-माहात्म्य, मन्वन्तरकाल और ईश्वर-गुण निरूपण नामक सातवाँ अध्याय समाप्त ॥ ७ ॥

GO TOP