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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टमोऽध्यायः पृथिव्युपाख्याने पृथिवीस्तोत्रम् -
पृथ्वी का उपाख्यान - नारद उवाच हरेर्निमेषमात्रेण ब्रह्मणः पात एव च । तस्य पाते प्राकृतिकः प्रलयः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ श्रीनारद बोले--भगवान् के निमेष (पलक भाँजने) मात्र से ब्रह्मा का पात (अन्त) होता है और उनका अन्त होना प्राकृतिक प्रलय कहा जाता है ॥ १ ॥ प्रलये प्राकृते चोक्तं तत्रादृष्टा वसुंधरा । जलप्लुतानि विश्वानि सर्वे लीना हराविति ॥ २ ॥ वसुंधरा तिरोभूता कुत्र वा तत्र तिष्ठति । सृष्टेर्विधानसमये साऽऽविर्भूता कथं पुनः ॥ ३ ॥ उस प्राकृत प्रलय में यह वसुन्धरा पृथिवी (जल में) अदृश्य हो जाती है और समस्त विश्व जलमग्न रहता है, इस प्रकार सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण में विलीन हो जाता है ॥ २ ॥ कथं बभूव सा धन्या मान्या सर्वाश्रया जया । तस्याश्च जन्मविस्तारं वद मङ्गलकारणम् ॥ ४ ॥ तो, यह पृथिवी अदृश्य होकर कहाँ रहती है और सृष्टि के आरम्भ में पुनः कैसे प्रकट हो जाती है ? धन्या, भान्या, सबकी आश्रयरूपाएवं विजयशालिनी होने का सौभाग्य उसे पुनः कैसे प्राप्त होता है ? आप कृपयः पृी के मंगलमय चरित्र को विस्तार से बताने की कृपा करें ॥ ३-४ ॥ श्रीनारायण उवाच सर्वादिसृष्टौ सर्वेषां जन्म कृष्णादिति श्रुतिः । आविर्भावस्तिरोभावः सर्वेषु प्रलयेषु च ॥ ५ ॥ श्रीनारायण बोले-सम्पूर्ण सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् कृष्ण से सब को उत्पत्ति होती है और समस्त प्रलयों के अवसर पर प्राणों उन्हीं में लीन भो हो जाते हैं, ऐसा श्रुति कहती है ॥ ५ ॥ श्रूयतां वसुधाजन्म सर्वमङ्गलमङ्गलम् । विघ्ननिघ्नं परं पापनाशनं पुण्यवर्धनम् ॥ ६ ॥ अब पृथ्वी के जन्म का प्रसंग सुनो, जो समस्त मंगलों का मंगल, विघ्ननाशक, उत्तम, पापनाशक एवं पुण्यवर्द्धक है ॥ ६ ॥ अहो केचिद्वदन्तीति मधुकैटभमेदसा । बभूव वसुधा धन्या तद्विरुद्धमतं शृणु ॥ ७ ॥ कुछ लोगों का कहना है कि यह पृथ्वी मधु-कैटभ नामक दैत्य के मेद से उत्पन्न हुई, जो पूर्वोक्त मत से विरुद्ध है । इसका आख्यान सुनो ॥ ७ ॥ ऊचतुस्तौ पुरा विष्णुं तुष्टौ युद्धेन तेजसा । आवां जहि न यत्रोर्वी पयसा संवृतेति च ॥ ८ ॥ तयोर्जीवनकाले न प्रत्यक्षा च भवेत्स्फुटम् । ततो बभूव मेदश्च मरणानन्तरं तयोः ॥ ९ ॥ मेदिनीति च विख्यातेत्युक्ता यैस्तन्मतं शृणु । जलधौता कृशा पूर्वं वर्धिता मेदसा यतः ॥ १० ॥ प्राचीन काल में उन दोनों (मधु, कैटम) दैत्यों ने युद्धस्थल में भगवान् विष्णु के तेज (पराक्रम) से प्रसन्न होकर कहा--'जहाँ पृथ्वी जल से तुको न हो, वहाँ हम दोनों को मारो' । इससे यह स्पष्ट होता है कि उन दोनों के जोवनकाल में पृथ्वो सष्ट दिखलाई नहीं पड़ती थी । वे जब मर गए तब उनके शरीर से मेद निकला । उसी से पृथ्वी बनी । इसलिए पृथ्वी को मेदिनी कहते हैं । इस मत का स्पष्टीकरण सुनो । पहले सर्वत्र जल ही जल दृष्टि-गोचर हो रहा था । पृथ्वी जल से ढकी थी । मेद से केवल उसका स्पर्श हुआ । अत: लोग उसे 'मेदिनी' कहने लगे ॥ ८-१० ॥ कथयामि च तज्जन्म सार्थकं सर्वसंमतम् । पुरा श्रुतं च श्रुत्युक्तं धर्मवक्त्राच्च पुष्करे ॥ ११ ॥ अब मैं उसका सार्थक और सर्वसम्मत जन्म सुना रहा हूँ, जिसे प्राचीनकाल में पुष्कर क्षेत्र में धर्म के मुख से मैंने सुना था और वह वेदानुसार भी हैं ॥ ११ ॥ महाविराट्शरीरस्य जलस्थस्य चिरं स्फुटम् । मलो बभूव कालेन सर्वाङ्गव्यापको ध्रुवम् ॥ १२ ॥ जल में रहने वाले महाविराट के शरीर में बहुत दिनों से सर्वाङ्गन्यापी मल जम गया था, जो चिरकाल से स्पष्ट हो रहा था ॥ १२ ॥ सह च प्रविष्टः सर्वेषां तल्लोम्नां विवरेषु च । कालेन महता तस्माद्बभूव वसुधा मुने ॥ १३ ॥ मुने ! वह उनके सभी लोमविवरों में प्रविष्ट हो गया था, जो मनय पार पृथ्वी रूप में प्रकट हुआ ॥ १३ ॥ प्रत्येकं प्रतिलोम्नां च स्थिता कूपेषु सा स्थिरा । आविर्भूता तिरोभूता सा चला च पुनः पुनः ॥ १४ ॥ इस प्रकार उनके प्रकलोम रूप में एक-एक पृथ्वी अवस्थित है, जो सृष्टि के समय प्रकट होता है और प्रलयकाल में तिरोहित हो जाता है । वह बार-बार चलायमान भी होती है ॥ १४ ॥ आविर्भूता सृष्टिकाले तज्जलात्पर्युपस्थिता । प्रलये च तिरोभूता जलाभ्यन्तरवस्थिता ॥ १५ ॥ सृष्टि के समय प्रकट होकर जल के ऊपर स्थिर रहना और प्रलयकाल में उस जल के भीतर तिरोहित हो जाना, यही उसका नियम है ॥ १५ ॥ प्रतिविश्वेषु वसुधा शैलकाननसंयुता । सप्तसागरसंयुक्ता सप्तद्वीपमिता सती ॥ १६ ॥ प्रत्येक विश्व में यह पृथ्वी पर्वत, जंगल, सातों सागरों और सातों द्वीपों से युक्त रहता है ॥ १६ ॥ हिमाद्रिमेरुसंयुक्ता ग्रहचन्द्रार्कसंयुता । ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च सुरैर्लोकैस्तथा नुता ॥ १७ ॥ उसी भाँति हिमालय, मेरु, ग्रह, चन्द्र तथा सूर्य से संयुक्त रह कर ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवों और समस्त लोकों से परिपूर्ण रहती है ॥ १७ ॥ पुण्यतीर्थसमायुक्ता पुण्यभारतसंयुता । काञ्चनीभूमिसंयुक्ता सर्वदुर्गसमन्विता ॥ १८ ॥ पुण्य ताों, पुण्य भारत देश, सुवर्णमयी भूमि (सोने की खानि सुमेरु) और समस्त दुर्गों से युक्त रहती है ॥ १८ ॥ पातालाः सप्त तदधस्तदूर्ध्वे ब्रह्मलोकतः । ध्रुवलोकश्च तत्रैव सर्वं विश्वं च तत्र वै ॥ १९ ॥ पाताल आदि सात लोक उसके नीचे और ब्रह्म लोक आदि मात लोक तथा ध्रुव लोक इसके कार स्थित हैं । इसी प्रकार सारा विश्व उसी पर स्थित रहता है ॥ १९ ॥ एवं सर्वाणि विश्वानि पृथिव्यां निर्मितानि वै । ऊर्ध्वं गोलोकवैकुण्ठौ नित्यौ विश्वपरौ च तौ ॥ २० ॥ इस प्रकार इस पृथ्वी पर अखिल विश्व का निर्माण हुआ है । ऊपर गोलोक और वैकुण्ठ लोक नित्य हैं एवं विश्व से परे हैं ॥ २० ॥ नश्वराणि च विश्वानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि च । प्रलये प्राकृते ब्रह्मन्ब्रह्मणश्च निपातने ॥ २१ ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार ब्रह्मा के अन्त होने पर, जो प्राकृत प्रलय कहा जाता है, जितने कृत्रिम-अकृतिम विच हैं, सब का नाश हो जाता है ॥ २१ ॥ महाविराडादिसृष्टौ सृष्टः कृष्णेन चाऽऽत्मना । नित्ये स्थितः स प्रलये काष्ठाकाशेश्वरैः सह ॥ २२ ॥ सृष्टि के आदि काल में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं 'महाविराट् की सृष्टि करते हैं, जो प्रलय में भी नित्य दिशा, आकाश एवं ईश्वरों (महान् देवों) के साथ स्थित रहता है ॥ २२ ॥ क्षित्यधिष्ठातृदेवी सा वाराहे पूजिता सुरैः । मनुभिर्मुनिभिर्विप्रैर्गन्धर्वादिभिरेव च ॥ २३ ॥ विष्णोर्वराहरूपस्य पत्नी सा श्रुतिसंमता । तत्पुत्रो मङ्गलो ज्ञेयः सुयशा मङ्गलात्मजः ॥ २४ ॥ (भगवान् के) वराहावतार के समय पृथ्वी की आधिष्ठात्री देवी, जो देव, मनु, मुनि, ब्राह्मण और गन्धर्व-गणों से पूजित हुई है, वराह रूप भगवान् विष्णु को श्रुतिसम्मत पत्नी है । उन्हीं के पुत्र मंगल हैं और मंगल के पुत्र सुयशा हैं ॥ २३-२४ ॥ नारद उवाच पूजिता केन रूपेण वाराहे च सुरैर्मही । वराहेण च वाराही सर्वैः सर्वाश्रया सती ॥ २५ ॥ तस्याः पूजाविधानं चाऽप्यधश्चोद्धरणक्रमम् । मङ्गलं मङ्गलस्यापि जन्म वासं वद प्रभो ॥ २६ ॥ नारद बोले-प्रभो ! देवताओं ने वाराहकल्प में पृथ्वी की किस रूप से पूजा की थी ? सब को आश्रय प्रदान करने वाली इस साध्वी देवी को उस कल्प में स्वयं भगवान् वाराह ने तथा अन्य सब ने भी पूजा की थी । भगवन् ! इसके पूजन का विधान, जल के नाचे से इसके ऊपर उठने का क्रम एवं मंगल के जन्म का कल्याणमय प्रसंग विस्तार के साथ बताने की कृपा करें ॥ २५-२६ ॥ नारायण उवाच वाराहे च वराहश्च ब्रह्मणा संस्तुतः पुरा । उद्दधार महीं हत्वा हिरण्याक्षं रसातलात् ॥ २७ ॥ नारायण बोले-पूर्वकाल में वराहावतार के समय ब्रह्मा ने वराह भगवान् की स्तुति की, जिससे उन्होंने हिरण्याक्ष को मार कर रसातल से इस पृथ्वी का उद्धार किया ॥ २७ ॥ जले तां स्थापयामास पद्मपत्रं यथाऽर्णवे । तत्रैव निर्ममे ब्रह्मा सर्वं विश्वं मनोहरम् ॥ २८ ॥ समुद्र में कमलपत्र की भांति इस पृथ्वी को जल में स्थापित किया । उस पर ब्रह्मा ने समस्त मनोहर विश्व की रचना की ॥ २८ ॥ दृष्ट्वा तदधिदेवीं च सकामां कामुको हरिः । वराहरूपी भगवान्कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ २९ ॥ कृत्वा रतिकरीं शय्यां मूर्तिं च सुमनोहराम् । क्रीडां चकार रहसि दिव्यवर्षमहर्निशम् ॥ ३० ॥ अनन्तर करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान वराह रूपी भगवान् विष्णु ने कामभाव से पृथ्वी को अधिष्ठात्री देवी (वाराही) को देखा, जो उस समय कामातुर हो रही थी । भगवान् ने रतिकोड़ा के योग्य शय्या और अत्यन्त मनोहर अपना रूप बना कर एकान्त में उसके साथ एक दिव्य वर्ष तक दिन रात भोग किया ॥ २९-३० ॥ सुखसंभोगसंस्पर्शान्मूर्च्छां संप्राप सुन्दरी । विदग्धया विदग्धेन संगमोऽतिसुखप्रदः ॥ ३१ ॥ उस सुख-सम्भोग के अन्त में वह सुन्दरी मूच्छित सी हो गयी क्योंकि रति-दक्षा नायिका का रति-दक्ष नायक के साथ समागम अति सुखदायी होता है ॥ ३१ ॥ विष्णुस्तदङ्गसंश्लेषाद्बुबुधे न दिवानिशम् । वर्षान्ते चेतनां प्राप्य कामी तत्याज कामुकीम् ॥ ३२ ॥ विष्णु को उसके अंगों का संग होने पर दिन रात का ज्ञान ही नहीं रहा । वर्ष के अन्त में उन्हें ज्ञान हुआ । तब उन्होंने उस सुन्दरी देवी का संग छोड़ दिया ॥ ३२ ॥ दधार पूर्वरूपं हि वाराहं चैव लीलया । पूजां चकार भक्त्या च ध्यात्वा च धरणीं सतीम् ॥ ३३ ॥ धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः सिन्दूरैरनुलेपनैः । वस्त्रैः पुष्पैश्च बलिभिः संपूज्योवाच तां हरिः ॥ ३४ ॥ और पूर्व की भाँति पुनः सहज ही में वाराह रूप धारण कर लिया । पश्चात् उन्होंने इस धरणी सती का भक्तिपूर्वक ध्यान-पूजन किया । धूप, दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, चन्दन, वस्त्र, पुष्प और बलि द्वारा उसकी अर्चना करके भगवान् विष्णु ने उससे कहा ॥ ३३-३४ ॥ महावराह उवाच सर्वाधारा भव शुभे सर्वैः संपूजिता सती । मुनिभिर्मनुभिर्देवैः सिद्धैर्वा मानवादिभिः ॥ ३५ ॥ बलोच्छ्वासाज्जलत्यागगृहारम्भप्रवेशने । वापीतडागारम्भे च शुभे च कृषिकर्मणि ॥ ३६ ॥ तव पूजां करिष्यन्ति संभ्रमेण सुरादयः । मूढा ये न करिष्यन्ति यास्यन्ति नरकं च ते ॥ ३७ ॥ महावराह बोले-शभे ! मुनिगण, मनुगण, देवों, सिद्धों और मनुष्यों आदि के द्वारा भलीभाँति पूजित हो कर तुम सब को आश्रय प्रदान करने वाली बनो । गृहारम्भ तथा गृहप्रवेश के समय और वावली, तालाब, कूप आदि खनने तथा (इनमें) जल बढ़ाने तथा (इनसे) जल निकालने के समय और शुभ कृषि कर्म में देवादि गण तुम्हारी पूजा करेंगे । जो मूढ़ उस समय पूजा नहीं करेंगे उन्हें नरकगामी होना पड़ेगा ॥ ३५-३७ ॥ वसुधोवाच वहामि सर्वं वाराहरूपेणाहं तवाज्ञया । लीलामात्रेण भगवन्विश्वं च सचराचरम् ॥ ३८ ॥ मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिङ्गं शिलां तथा । शङ्खं प्रदीपं रत्नं च माणिक्यं हीरकं मणिम् ॥ ३९ ॥ यज्ञसूत्रं च पुष्पं च पुस्तकं तुलसीदलम् । जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च सुवर्णकम् ॥ ४० ॥ गोरोचनां चन्दनं च शालग्रामजलं तथा । एतान्वोढुमशक्ताऽहं क्लिष्टा च भगवञ्छृणु ॥ ४१ ॥ वसुधा बोली-भगवन् ! आपकी आज्ञा से वाराह रूप धारण कर के मैं बड़ी सरलता से सचराचर समस्त विश्व का वहन करूंगी । किन्तु भगवन् ! एक मेरी प्रार्थना है, उसे सुन लेने को कुपा करें---मोती, शुक्ति (सीपी), भगवान की पूजा, शिवलिंग, शालग्राम शिला, शंख, प्रदीप, रत्न, माणिक्य, हीरा, मणि, यज्ञोपवीत, पुष्प, पुस्तक, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पों की माला, कपूर, सुवर्ण, गोरोचन, चन्दन और शालग्राम का जल वहन करने में मैं असमर्थ रहूंगी तथा क्लेश का अनुभव करूँगी ॥ ३८-४१ ॥ श्रीभगवानुवाच द्रव्याण्येतानि ये मूढा अर्पयिष्यन्ति सुन्दरि । यास्यन्ति कालसूत्रं ते दिव्यं वर्षशतं त्वयि ॥ ४२ ॥ भगवान् बोले-सुन्दरी ! जो मूढ़ इन वस्तुओं को तुम्हारे ऊपर रखेगा, वह दिव्य सौ वर्ष पर्यन्त कालसूत्र नामवः नरक में रहेगा ॥ ४२ ॥ इत्येवमुक्त्वा भगवान्विरराम च नारद । बभूव तेन गर्भेण तेजस्वी मङ्गलग्रहः ॥ ४३ ॥ नारद ! इतना कह कर भगवान् चुप हो गए और अनन्तर उस पृथ्वी के गर्भ से तेजस्वी मंगल नामक ग्रह का जन्म हुआ ॥ ४३ ॥ पूजां चक्रुः पृथिव्याश्च ते सर्वे चाऽऽज्ञया हरेः । दध्युः काण्वोक्तमार्गेण तुष्टुवुः स्तवनेन च ॥ ४४ ॥ अनन्तर भगवान् की आज्ञा से उपस्थित सब लोग काण्वोक्त पद्धति से पृथ्वी की पूजा और स्तुति करने लगे ॥ ४४ ॥ दद्युर्मूलेन मन्त्रेण नैवेद्यादिकमेव च । संस्तुता त्रिषु लोकेषु पूजिता सा बभूव ह ॥ ४५ ॥ मूल मंत्र का उच्चारण करके उन्होंने नैवेद्य आदि वस्तुएँ अर्पित की । इस प्रकार तीनों लोकों में पृथ्वी की पूजा होने लगी ॥ ४५ ॥ नारद उवाच किं ध्यानं स्तवनं किंवा तस्य मूलं च किं वद । गूढं सर्वपुराणेषु श्रोतुं कौतूहलं मम ॥ ४६ ॥ नारद बोले-उसका ध्यान, स्तुति, और मूल-मंत्र क्या है ? सभी पुराणों में छिपे हुए इस प्रनंग को सुनने के लि मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है । अतः बताने की कृपा करें ॥ ४६ ॥ नारायण उवाच आदौ च पृथिवीदेवी वराहेण सुपूजिता । ततो हि ब्रह्मणा पश्चात्ततश्च पृथुना पुरा ॥ ४७ ॥ नारायण बोले-पूर्व काल में सर्वप्रथम वराह रूप भगवान् विष्णु ने इस पृथ्वी की पूजा की । पश्चात् ब्रह्मा और तदनन्तर राजा पृथु ने उस देवी की अर्चना की ॥ ४७ ॥ ततः सर्वैर्मुनीन्द्रैश्च मनुभिर्नारदादिभिः । ध्यानं च स्तवनं मन्त्रं शृणु वक्ष्यामि नारद ॥ ४८ ॥ ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं वां वसुधायै स्वाहा । इत्यनेन तु मन्त्रेण पूजिता विष्णुना पुरा ॥ ४९ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गीं सर्वभूषणभूषिताम् ॥ ५० ॥ रत्नाधारां रत्नगर्भा रत्नाकरसमन्विताम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां वन्दितां भजे ॥ ५१ ॥ उपरान्त सभी मुनीन्द्रगण, मनुगण और नारदादि ऋषियों ने उनका सम्मान किया । नारद ! अब ध्यान, स्तुति और मन्त्र बता रहा हूँ, सुनो ! 'ओं ह्रीं क्लीं श्रीं वां वसुधायै स्वाहा' इस मन्त्र से भगवान् विष्णु ने पहले पृथ्वी की पूजा की थी । ध्यान का स्वरूप यह है-पृथ्वी देवी के शरीर का वर्ण श्वेत चम्पा के समान है, सैकड़ों चन्द्रमा के समान कान्ति है, सम्पूर्ण अंगों में चन्दन लगा हुआ है । सब प्रकार के आभूषणों से ये विभूषित हैं । ये समस्त रत्नों की आधारभूता और रत्नगर्भा हैं । रत्नों की खाने इनको गौरवान्वित किए हुए हैं । ये अग्निशुद्ध रेशमी वस्त्र धारण किए रहती हैं । इनके मुख पर मुसकान छायी है । सभी लोग इनकी वंदना करते हैं । ऐसी पृथ्वी की मैं वंदना करता हूँ ॥ ४८-५१ ॥ ध्यानेनानेन सा देवी सर्वेर्वै पूजिता भवेत् । स्तवनं श्रृणु विप्रेन्द्र काण्वशाखोक्तमेव च ॥ ५२ ॥ विप्रन्द्र ! इसी ध्यान द्वारा यह पृथ्वी देवी सबसे पूजित होती हैं, अब मैं काण्वशाख क्त स्तुति बता रहा हूँ, सुनो ॥ ५२ ॥ विष्णुरुवाच यज्ञसूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे । जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे ॥ ५३ ॥ सर्वाधारं सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते । सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे स्थिरे ॥ ५४ ॥ सर्वसस्यालये सर्वसस्याढ्ये सर्वसस्यदे । सर्वसस्यहरे काले सर्वसस्यात्मिके क्षिते ॥ ५५ ॥ मङ्गले मङ्गलाधारे माङ्गल्ये मङ्गलप्रदे । मङ्गलार्थे मङ्गलाशे मङ्गलं देहि मे परम् ॥ ५६ ॥ पुण्यस्वरूपे पुण्यानां बीजरूपे सनातनि । पुण्याश्रये पुण्यवतामालये पुण्यदे भवे ॥ ५७ ॥ स्त्रीरत्नरूपे रत्नौघे रत्नसारवरप्रदे ॥ ५८ ॥ भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे । भूमिपाहंकाररूपे भूमिं देहि वसुंधरे ॥ ५९ ॥ इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां संपूज्य च यः पठेत् । कोट्यन्तरे जन्मनि स संभवेद्भूमिपेश्वरः ॥ ६० ॥ भूमिदानकृतं पुण्यं लभते पठनाज्जनः । दत्तापहारजात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ६१ ॥ अम्बुवीचीभूखननात्पापान्मुच्येत स ध्रुवम् । अन्यकूपे कुपदजात्पापान्मुच्येत स ध्रुवम् ॥ ६२ ॥ परभूश्राद्धजात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः । भूमौ वीर्यत्यागपापाद्दीपादिस्थापनात्तथा ॥ ६३ ॥ पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पठनान्मुने । अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ६४ ॥ विष्णु बोले-हे जय देने वाली ! मुझे विजय दो । तुम भगवान् यज्ञवराह की पत्नी हो । जये ! तुम्हारी कमी पराजय नहीं होती है । तुम विजय का आधार, विजयशील और विजयदायिनी हो । तुम सब की आधारभूमि हो । सर्ववी जस्वरूपिणी तथा सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हो । समस्त कामनाओं को देने वाली देवी ! तुम मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु प्रदान करो । स्थिर स्वभाव वाली ! तुम धान्यों का आलय, समस्त धान्यों से भूषित, सब प्रकार के अन्न देने वाली, विशेष समय पर सब धान्यों का अपहरण करने वाली, समस्त धान्यस्वरूपा और सहनशीला हो । मंगल-मूर्ति, मंगल का आधार, मंगलमय, मंगल देने वाली, मंगलस्वरूप और मंगल अंशों से पूर्ण हो, अतः मुझे परम मंगल प्रदान करो । तुम पुण्य स्वरूप वाली, पुण्यों की बीजस्वरूपा, सनातनी, पुण्यों का आधार, पुण्यवालों का मन्दिर, पुण्यदायिनी, भवस्वरूपा, स्त्रीरत्न, रत्न-समूह से युक्त तथा रत्नराशि देने वाली हो । भूमे ! तुम भूमिपालकों का सर्वस्व, भूमिपालपरायणा, एवं भूमिपलों के अहंकार का मूर्त रूप हो । वसुन्धरे ! मुझे भूमि प्रदान करो । इस प्रकार जो वसुधा की अर्चना कर के इस महापुण्य स्तोत्र का पाठ करता है, वह करोड़ों जन्म तक भूमिपालक राजा होता है । इसके पाठ करने से मनुष्य को भूमिदान का पुण्य फल प्राप्त होता है । (कोई वस्तु) दान कर के पुनः उसका अपहरण करने से जो पाप लगता है, उससे इस स्तोत्र के पाठक को मुक्ति मिल सकती है, इसमें संशय नहीं । इसी प्रकार दूसरे के कुएँ को बिना उससे आज्ञा लिए खोदने से, अम्बुवीची योग में पृथ्वी को खोदने से और दूसरे की भूमि पर श्राद्ध करने से जो पाप लगता है, उस पाप से इस स्तोत्र का पाठक मुक्त हो जाता है । मुने ! पृथ्वी पर वीर्यपात करने से तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उससे भी इस स्तोत्र के पाठक को मुक्ति मिल जाती है । इस स्तोत्र का पाठ करने से बुद्धिमान् पुरुष को सौ अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ५३-६४ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायण- संवादे पृथिव्युपाख्याने पृथिवीस्तोत्रं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में पृथ्वीस्तोत्र-वर्णन नामक आठवां अध्याय समाप्त ॥ ८ ॥ |