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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - नवमोऽध्यायः पृथिव्युपाख्यानम् -
पृथ्वी का उपाख्यान - नारद उवाच भूमिदानकृतं पुण्यं पापं तद्धरणेन यत् । परभूमौ श्राद्धपापं कूपे कूपदजं तथा ॥ १ ॥ अम्बुवीचीभूखननवीजत्यागजमेव च । दीपादिस्थापनात्पापं श्रोतुमिच्छामि यत्नतः ॥ २ ॥ नारद बोले-मैं भूमिदान करने से प्राप्त होने वाले पुण्य और उसके अपहरण से लगने वाले पाप तथा दुसरे की भूमि पर श्राद्ध करने, कूप खोदने, अम्वुवीची योग में पृथ्वी का उपयोग करने, भूमि पर वीर्यपात करने और दीपादि रखने से लगने वाले पाप के बारे में सुनना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥ अन्यद्वा पृथिवीजन्यं पापं यत्प्रश्नतः परम् । यदस्ति तत्प्रतीकारं वद वेदविदां वर ॥ ३ ॥ वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! मेरे पूछने के अतिरिक्त अन्य भी जो पश्वीजन्य पाप हैं, उनको उनके प्रतीकार सहित बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥ नारायण उवाच वितस्तिमानां भूमिं च यो ददाति च भारते । संध्यापूताय विप्राय स यायाद्विष्णुमन्दिरम् ॥ ४ ॥ नारायण बोले-भारत में संध्या कर्म से पवित्र ब्राह्मण को जो एक बित्ता भी भूमि अर्पित करता है, वह भगवान् विष्णु के धाम में जाता है ॥ ४ ॥ भूमिं च सर्वसस्याढ्यां ब्राह्मणाय ददाति यः । भूमिरेणुप्रमाणे च वर्षे विष्णुपदे वसेत् ॥ ५ ॥ जो सम्पूर्ण सस्यों से हरी-भरी भूमि ब्राह्मण को देता है, वह उस भूमि के रजः कण के समान वर्ष-पर्यन्त विष्णुलोक में निवास करता है ॥ ५ ॥ ग्रामं भूमिं च धान्यं च यो ददात्याददाति यः । सर्वपापाद्विनिर्मुक्तौ चोभौ वैकुण्ठवासिनौ ॥ ६ ॥ गाँव, भूमि और धान्य का दान देने और लेने वाले दोनों समस्त पाप से मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक के निवासी होते हैं ॥ ६ ॥ भूमिं ददाति यः काले यः साधुश्चानुमोदते । स प्रयाति च वैकुण्ठं मित्रगोत्रसमन्वितः ॥ ७ ॥ भूमिदान का तत्काल अनुमोदन करने वाला सज्जन भी अपने मित्र एवं सगोत्रियों समेत वैकुण्ठ लोक को प्राप्त करता है ॥ ७ ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेत्तु यः । कालसूत्रे तिष्ठति स यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ८ ॥ अपनी अथवा दूसरे की दी हुई ब्राह्मण की भूमि अपहरण करने वाला प्राणी चन्द्र-सूर्य के समय तक कालसूत्र (नरक) में स्थान पाता है ॥ ८ ॥ तत्पुत्रपौत्रप्रभृतिर्भूमिहीनः श्रिया हतः । सुखहीनो दरिद्रः स्यादन्ते याति च रौरवम् ॥ ९ ॥ और उसके पुत्र-पौत्र आदि परिवार भूमिहीन, धनरहित और सुख से वंचित एवं दरिद्र होते हैं तथा अन्त में रौरव नरक में गिरते हैं ॥ ९ ॥ गवां मार्गं विनिष्कृष्य यश्च सस्यं ददाति सः । दिव्यं वर्षशतं चैव कुम्भीपाके च तिष्ठति ॥ १० ॥ जो गोचर भूमि जोत कर उसमें खेती करता है, वह दिव्य सौ वर्षों तक कुम्भीपाक नरक में रहता है ॥ १० ॥ गोष्ठं तडागं निष्कृष्य मार्गं सत्यं ददाति यः । स च तिष्ठत्यसीपत्रे यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ११ ॥ गौओं के रहने के स्थान और तालाब को तोड़ कर जो आने जाने का मार्ग बनाता है या उसमें खेती करता है, वह चौदह इन्द्रों के समय तक 'असिपत्र' नामक नरक में निवास करता है ॥ ११ ॥ न पञ्चपिण्डमुद्धृत्य स्नाति कूपे परस्य यः । प्राप्नोति नरकं चैव न स्नानफलमेव च ॥ १२ ॥ यमी भूमौ च रहसि बीजत्यागं करोति यः । स्निग्धरेणुप्रमाणं च वर्षं तिष्ठति रौरवे ॥ १३ ॥ पाँच मुट्ठी मिट्टी निकाले बिना जो किसी अन्य के कूप या तालाब में स्नान करता है, वह स्नान-फल से वंचित होता है तथा नरक में गिरता है । जो कामान्ध व्यक्ति एकान्त में भूमि पर वीर्यपात करता है, उसे उस भीगी हुई भूमि के रजःकण के बराबर वर्षों तक रौरव नरक में रहना पड़ता है ॥ १२-१३ ॥ अम्बुवीच्यां भूखननं यः करोति च मानवः । स याति कृमिदंशं च स्थितिस्तत्र चतुर्युगम् ॥ १४ ॥ अम्बुवीची योग में भूमि खोदने वाला व्यक्ति चारों युगों के समय तक 'कृमिदंश' नामक नरक में रहता है ॥ १४ ॥ परकीये लुप्तकूपे कूपं मूढः करोति यः । पुष्करिण्यां च लुप्तायां तां ददाति च यो नरः ॥ १५ ॥ सर्वं फलं परस्यैव तप्तसूर्मि व्रजेत्तु सः । तत्र तिष्ठति संतप्तो यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ १६ ॥ दूसरे के लुप्त कूप तथा लुप्त बावली को अपने नाम से बनवाने वाला मनुष्य चौदहों इन्द्रों के समय तक 'तप्पसूमि' नामक नरक में रहता है और उसके बनवाने का समस्त फल दूसरे को हो जाता है ॥ १५-१६ ॥ परकीयतडागे च पङ्कमुद्धत्य चोत्सृजेत् । रेणुप्रमाणवर्षं च ब्रह्मलोके वसेन्नरः ॥ १७ ॥ जो दूसरे की भूमि में बनाये हुए तालाब से कीचड़ निकालकर पुनः उस तालाब से कोई स्वार्थ नहीं रखता है, वह मनुष्य वहाँ के रजःकण के बराबर वर्षों तक ब्रह्मलोक में निवास करता है ॥ १७ ॥ पिण्डं पित्रे भूमिभर्तुर्न प्रदाय च मानवः । श्राद्धं करोति यो मूढो नरकं याति निश्चितम् ॥ १८ ॥ दूसरे की भूमि में श्राद्ध करते समय उस भूस्वामी को (कुछ) श्राद्धान्न दिये बिना जो मूढ़ मनुष्य उस श्राद्ध कर्म को सम्पन्न करता है उसे निश्चित नरक होता है ॥ १८ ॥ भूमौ दीपं योऽर्पयति सोऽन्धः सप्तसु जन्मसु । भूमौ शङ्खं च संस्थाप्य कुष्ठं जन्मान्तरेलभेत् ॥ १९ ॥ भूमि पर दीपक रखने वाला सात जन्मों तक अन्धा होता है और भूमि पर शंख रखने वाला दूसरे जन्म में कुष्ठ का रोगी होता है ॥ १९ ॥ मुक्तामाणिक्यहीरं च सुवर्णं च मणि तथा । यश्च संस्थापयेद्भूमौ दरिद्रः सप्तजन्मसु ॥ २० ॥ मोतो, माणिक्य, होरा, सुवर्ण और मणि को भूमि पर रखने वाला मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है ॥ २० ॥ शिवलिङ्गं शिलामर्च्यां यश्चार्पयति भूतले । शतमन्वन्तरं यावत्कृमिभक्षे स तिष्ठति ॥ २१ ॥ जो शिवलिंग तथा पूजनीय शिला (शालिग्राम) को पृथिवी पर रखता है, वह सो मन्वन्तरों के समय तक 'कृमिभक्ष' नामक नरक में रहता है । ॥ २१ ॥ सूक्तं मन्त्रं शिलातोयं पुष्पं च तुलसीदलम् । यश्चार्पयति भूमौ च स तिष्ठेन्नरके युगम् ॥ २२ ॥ (वैदिक) सूक्त, मन्त्र, (शालग्राम) शिला का जल (चरणामृत), पुष्प और तुलसीदल को भूमि पर रखने से मनुष्य चारों युगों के समय तक नरक में रहता है ॥ २२ ॥ जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं रोचनां तथा । यो मूढश्चार्पयेद्भूमौ स याति नरकं ध्रुवम् ॥ २३ ॥ भूमि पर जप-माला (रुद्राक्ष आदि), पुष्पमाला, कपूर तथा गोरोचन रखनेवाला मूढ़ निश्चित ही नरक प्राप्त करता है ॥ २३ ॥ मुने चन्दनकाष्ठं च रुद्राक्षं कुशमूलकम् । संस्थाप्य भूमौ नरके वसेन्मन्वन्तरावधि ॥ २४ ॥ मुने ! चन्दन काष्ठ, रुद्राक्ष, कुश का मूल भाग भूमि पर रखने से मन्वन्तर के समय तक नरक में रहना पड़ता है ॥ २४ ॥ पुस्तकं यज्ञसूत्रं च भूमौ संस्थापयेत्तु यः । न भवेद्विप्रयोनौ च तस्य जन्मान्तरे जनिः ॥ २५ ॥ जो पुस्तक तथा यज्ञोपवीत भूमिपर रखता है, वह मनुष्य जन्मान्तर में ब्राह्मण के यहाँ जन्मग्रहण नहीं करता है ॥ २५ ॥ ब्रह्महत्यासमं पापमिह वै लभते ध्रुवम् । ग्रन्थियुक्तं यज्ञसूत्रं पूज्यं स्यात्सर्ववर्णकैः ॥ २६ ॥ तथा उसे निश्चित ही ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है । गांठ में बँधे हुए यज्ञसूत्र की पूजा करना सभी द्विजातियों के लिए अत्यावश्यक है ॥ २६ ॥ यज्ञं कृत्वा तु यो भूमिं क्षीरेण नहि सिञ्चति । स याति तप्तसूर्मिं च संतप्तः सर्वजन्मसु ॥ २७ ॥ यज्ञ करने के अनन्तर जो यज्ञभूमि को क्षीर (दूध) से सिंचित नहीं करता है, वह सभी जन्मों में संतप्त होकर 'तप्त सुर्मि' नामक नरक को प्राप्त करता है ॥ २७ ॥ भूकम्पे ग्रहणे यो हि करोति खननं भुवः । जन्मान्तरे महापापी सोऽङ्गहीनो भवेद्ध्रुवम् ॥ २८ ॥ भूकम्प और ग्रहण के समय भी जो पृथ्वी का खनन करता है, वह महापापी जन्मान्तर में निश्चित रूप से अंगहीन होता है ॥ २८ ॥ भवनं यत्र सर्वेषां भूमिस्तेन प्रकीर्तिता । वसु रत्नं या दधाति वसुधा च वसुंधरा ॥ २९ ॥ इस पर सबके भवन बने हैं, इसलिए यह भूमि हो जाता है और वसु (धन) धारण करने के कारण 'वसुधा तथा 'बनुन्धर' कहलाती है ॥ २९ ॥ हरेरूरौ च या जाता सा चोर्वी परिकीर्तिता । धरा धरित्री धरणी सर्वेषां धरणात्तु या ॥ ३० ॥ (महाविराट्) भगवान् के ऊरु से उत्पन्न होने के कारण 'उर्वो' एवं सभी को धारण करने के कारण घरा, धरित्री और धरणी कही जाती है ॥ ३० ॥ इज्या च यागभरणात्क्षोणी क्षीणालये च या । महालये क्षयं याति क्षितिस्तेन प्रकीर्तिता ॥ ३१ ॥ यागों का भरण-पोषण करने के कारण 'इज्या' प्रलय में क्षीण होने के कारण क्षोणी' और महाप्रलय में नष्ट होने के कारण 'क्षिति' कही जाती है । ॥ ३१ ॥ काश्यपी कश्यपस्येयमचला स्थितिरूपतः । विश्वंभरा तद्भरणाच्चान्ताऽनन्तरूपतः ॥ ३२ ॥ कश्यप की पुत्री होने से 'काश्यपी', स्थिर रूप होने से 'अचला', समस्त विश्व का भरण (पोषण) करने के कारण 'विश्वम्भरा' तथा अनन्त रूप होने से 'अनन्ता' कहलाती है ॥ ३२ ॥ पृथ्वीयं पृथुकन्यात्वाद्विस्तृतत्वान्मही मुने ॥ ३३ ॥ मुने ! (राजा') पृथु की कन्या होने से यह पृथ्वी' और विस्तृत होने से 'मही' कही जाती है ॥ ३३ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायण- संवादे पृथिव्युपाख्यानं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ ब्रह्मवैर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में पृथ्वी-आख्यान नामक नवा अध्याय समाप्त ॥ ९ ॥ |