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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - दशमोऽध्यायः गङ्गोपाख्यानम् -
गंगा की उत्पत्ति का वर्णन - नारद उवाच श्रुतं पृथिव्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् । गङ्गोपाख्यानमधुना वद वेदविदां वर ॥ १ ॥ भारतं भारतीशापादाजगाम सुरेश्वरी । विष्णुस्वरूपा परमा स्वयं विष्णुपदी सती ॥ २ ॥ कथं कुत्र युगे केन प्रार्थिता प्रेरिता पुरा । तत्क्रमं श्रोतुमिच्छामि पापघ्नं पुण्यदं शुभम् ॥ ३ ॥ नारद बोले-हे वेदविदों में श्रेष्ठ ! पृथ्वी का अत्यन्त सुमनोहर उपाख्यान तो मैंने सुन लिया, किन्तु अव गंगा का उपाख्यान सुनाने की कृपा करें । सुरेश्वरी (गंगा), जो विष्णुस्वरूपा एवं विष्णुपदी नाम से विख्यात हैं, सरस्वती के शाप से भारतवर्ष में किस प्रकार और किस युग में पधारी ? किसकी प्रार्थना एवं प्रेरणा से उन्हें वहाँ जाना पड़ा ? वह पापनाशक, पवित्र एवं पुण्यप्रद प्रसंग मैं सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥ नारायण उवाच राजराजेश्वरः श्रीमान्सगरः सूर्यवंशजः । तस्य भार्या च वैदर्भी शैव्या च द्वे मनोहरे ॥ ४ ॥ सत्यस्वरूपः सत्येष्ठः सत्यवाक्सत्यभावनः । सत्यधर्मविचारज्ञः परं सत्ययुगोद्भवः ॥ ५ ॥ नारायण बोले--सूर्य वंश में उत्पन्न श्रीमान् महाराजाधिराज सगर के, वैदर्भी और शैव्या नाम की अत्यन्त मनोहर दो स्त्रियां थीं, वह राजा सत्यमूर्ति, सत्यप्रिय, सत्यवक्ता, सत्यभावक और सत्यधर्म-विचार के ज्ञाता, श्रेष्ठ तथा सत्य युग में उतान्न हए थे ॥ ४-५ ॥ एकस्यामेव पुत्रश्च बभूव सुमनोहरः । असमञ्ज इति ख्यातः शैव्यायां कुलवर्धनः ॥ ६ ॥ उनकी शैव्या नामक पत्नी में एक कन्या और 'असमंजस' नामक एक अत्यन्त मनोहर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो कुल को बढ़ाने वाला था ॥ ६ ॥ अन्या चाऽऽराधयामास शंकरं पुत्रकामुकी । बभूव गर्भस्तस्याश्च शिवस्य तु वरेण च ॥ ७ ॥ उनकी दूसरी पत्नी वैदर्भी ने पुत्र की कामना से भगवान् शंकर की आराधना की । शंकर के वरदान से उसे भी गर्भ धारण हुआ । ॥ ७ ॥ गते शताब्दे पूर्णे च मांसपिण्डं सुषाव सा । तद् दृष्ट्वा च शिवं ध्यात्वा रुरोदोच्चैः पुनः पुनः ॥ ८ ॥ अनन्तर सौ वर्ष व्यतीत होने पर उसने एक मांस-पिण्ड उत्पन्न किया, जिसे देख कर शिव का ध्यान करती हुई वह बार-बार रोने लगी ॥ ८ ॥ शंभुर्ब्राह्मणरूपेण तत्समीपं जगाम ह । चकार संविभज्यैतत्पिण्डं षष्टिसहस्रधा ॥ ९ ॥ तब ब्राह्मण के वेष में भगवान् शंकर ने उसके समीप जा कर उस मांस-पिण्ड का भेदन किया, जिससे उसमें से साठ सहस्र पुत्र उत्पन्न हुए । ॥ ९ ॥ सर्वे बभूवुः पुत्राश्च महाबलपराक्रमाः । ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभाजुष्टकलेवराः ॥ १० ॥ वे सभी पुत्र महाबली, पराक्रमी और ग्रीष्मऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान तेजस्वी शरीर धारण किए हुए थे ॥ १० ॥ कपिलर्षेः कोपदृष्ट्या बभूवुर्भस्मसाच्च ते । राजा रुरोद तच्छ्रुत्वा जगाम मरणं शुचा ॥ ११ ॥ (कुछ दिन के पश्चात्) भगवान् कपिल मुनि की कोपदृष्टि से वे सभी भस्म हो गए । उसे सुन कर राजा ने बड़ा रुदन किया और शोकाकुल होकर प्राण त्याग कर दिया ॥ ११ ॥ तपश्चकारासमञ्जो गङ्गानयनकारणात् । तपः कृत्वा लक्षवर्षं ममार कालयोगतः ॥ १२ ॥ उपरान्त असमंजस ने गंगा लाने के लिए तप करना आरम्भ किया । एक लाख वर्षों तक तप करने पर कालयोग से उनकी मृत्यु हो गयी ॥ १२ ॥ दिलीपस्तस्य तनयो गङ्गानयनकारणात् । तपः कृत्वा लक्षवर्षं ययौ लोकान्तरं नृपः ॥ १३ ॥ पश्चात् उनके पुत्र दिलीप ने गंगा लाने के लिए एक लाख वर्षों तक तप कया किन्तु कालयोग से वे भी दिवंगत हो गए ॥ १३ ॥ अंशुमांस्तस्य पुत्रश्च गङ्गानयनकारणात् । तपः कृत्वा लक्षवर्षं मृतश्च कालयोगतः ॥ १४ ॥ उनके पुत्र अंशुमान् ने भी गंगा लाने के लिए एक लाख वर्षों तक तप किया और अन्त में कलयोग से उन्हें भी शरीर छोड़ देना पड़ा ॥ १४ ॥ भगीरथस्तस्य पुत्रो महाभागवतः सुधीः । वैष्णवो विष्णुभक्तश्च गुणवानजरामरः ॥ १५ ॥ उनके भगीरथ नामक अत्यन्त बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जो महान् भगवदुपासक, वैष्णव, विष्णुभक्त, गुणवान् और अजर-अमर था ॥ १५ ॥ तपः कृत्वा लक्षवर्षं गङ्गानयनकारणात् । ददर्श कृष्णं हृष्टास्यं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १६ ॥ द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम् । परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ १७ ॥ स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् । ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्नुतम् ॥ १८ ॥ निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् । ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ १९ ॥ वह्निशुद्धांशुकाधानं रत्नभूषणभूषितम् । तुष्टाव दृष्ट्वा नृपतिः प्रणम्य च पुनः पुनः ॥ २० ॥ लीलया च वरं प्राप्य वाञ्छितं वंशतारकम् । तत्राऽऽजगाम गङ्गा सा स्मरणात्परमात्मनः ॥ २१ ॥ तं प्रणम्य प्रतस्थौ च तत्पुरः संपुटाञ्जलिः । उवाच भगवांस्तत्र तां दृष्ट्वा सुमनोहराम् । कुर्वतो स्तवनं दिव्यं पुलकाञ्चितविग्रहाम् ॥ २२ ॥ एक लाख वर्षों तक तप करने के उपरान्त उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त हुआ । उस समय भगवान् के श्रीविग्रह से ग्रीष्मकालीन करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश फैल रहा था । उनकी दो भुजाएँ थीं । वे हाथ में मुरली लिये हुए थे । उनकी किशोर अवस्था थी । वे गोप के वेश में पधारे थे । भक्तों पर कृपा करने के लिए उन्होंने यह रूप धारण कर लिया था । मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण परिपूर्णतम परब्रह्म हैं । वे चाहे जैसा रूप बना सकते हैं । उस समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि उनकी स्तुति कर रहे थे और मुनियों ने उनके सामने अपने मस्तक झुका रखे थे । सदा निलिप्त, सब के साक्षी, निर्गुण, प्रकृति से परे तथा भक्तों पर अनुग्रह करने वाले उन भगवान् श्रीकृष्ण का मुख मुसकान से सुशोभित था । विशुद्ध चिन्मय वस्त्र तथा दिव्य रत्नों से निर्मित आभूषण उनके श्रीविग्रह को सुशोभित कर रहे थे । उनकी यह दिव्य झांकी पाकर भगीरथ ने उन्हें बार-बार प्रणाम किया तथा स्तुति की । अनन्तर वंश को तारने वाला वरदान उन्होंने भगवान् से सहज ही में प्राप्त कर लिया और परमात्मा के स्मरण करने पर गंगा भी उसी स्थान में आ गयीं । वे भगवान् को प्रणाम करके उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयीं । भगवान् ने उन्हें पुलकायमान शरीर से दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर स्तुति करते हुए देख कर उनसे कहा ॥ १६-२२ ॥ श्रीकृष्ण उवाच भारतं भारतीशापाद्गच्छ शीघ्रं सुरेश्वरि ॥ २३ ॥ सगरस्य सुतान्सर्वान्पूतान्कुरु ममाऽज्ञया । त्वत्स्पर्शवायुना पूता यास्यन्ति मम मन्दिरम् ॥ २४ ॥ श्रीकृष्ण बोले-हे सुरेश्वरि ! भारती सरस्वती के शाप वश तुम भारत में जाओ मेरी आज्ञा से वहाँ सगर के पुत्रों को पवित्र करो । वे तुम्हारे स्पर्श-वायु से पवित्र होकर मेरे धाम में चले जायेंगे ॥ २३-२४ ॥ बिभ्रतो दिव्यमूर्तिं ते दिव्यस्यन्दनगामिनः । मत्पार्षदा भविष्यन्ति सर्वकालं निरामयाः ॥ २५ ॥ और वहाँ दिव्य मूर्ति धारण कर दिव्य रथ पर गमन करने वाले तथा सब समय निरामय रहने वाले मेरे पार्षद होंगे ॥ २५ ॥ कर्मभोगं समुच्छिद्य कृतं जन्मनि जन्मनि । नानाविधं महत्स्वल्पं पापं स्याद्भारते नृभिः ॥ २६ ॥ गङ्गायाः स्पर्शवातेन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् । स्पर्शनं दर्शनाद्देव्याः पुण्यं दशगुणं ततः ॥ २७ ॥ उनके प्रत्येक जन्म का (दुष्कृत) कर्म भोग नष्ट होकर सुकृत रूप में परिणत हो जायगा । श्रुति कहती है कि भारतवर्ष में मनुष्यों द्वारा उपाजित करोड़ों जन्मों के पाप गंगा के वायु के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते हैं । देवी (गंगा) के दर्शन से स्पर्श करने में दश गुना अधिक पुण्य प्राप्त होता है ॥ २६-२७ ॥ मौसलस्नानमात्रेण सामान्यदिवसे नृणाम् । कोटिजन्मार्जितं पापं नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ॥ २८ ॥ सामान्य दिनों में भी मौसल (चुपके डुबकी लगाने मात्र) स्नान से मनुष्यों के करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट होते हैं, ऐसा श्रुतियों में सुना गया है ॥ २८ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । नानाजन्माजितान्येव कामतोऽपि कृतानि च ॥ २९ ॥ तानि सर्वाणि नश्यन्ति मौसलस्नानतो नृणाम् । पुण्याहस्नानजं पुण्यं वेदा नैव विदन्ति च ॥ ३० ॥ अनेकों जन्मों में अजित ब्रह्महत्या आदि अनेकों पाप, चाहे वे कामनावश ही किए गये हों, मनुष्यों के मौसल स्नान से नष्ट हो जाते हैं । और पुण्य दिनों में स्नान करने से उत्पन्न पुण्य का वर्णन तो वेद भी नहीं कर सकते हैं ॥ २९-३० ॥ केचिद्विदन्ति ते देवि फलमेव यथागमम् । ब्रह्मविष्णुशिवाद्याश्च सर्वं नैव विदन्ति च ॥ ३१ ॥ देवि ! कुछ लोग शास्त्र से ही तुम्हारे फल को जान पाते हैं । वैसे तो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि भी तुम्हारे फल को नहीं जानते हैं ॥ ३१ ॥ सामान्यदिवसस्नानसंकल्पं शृणु सुन्दरि । पुण्यं दशगुणं चैव मौसलस्नानतः परम् ॥ ३२ ॥ सुन्दरी ! साधारण दिनों के स्नान-संकल्प को, जो मौसल स्नान से दश गुने अधिक पुण्य प्रदान करता है, बता रहा हूँ, सुनो ॥ ३२ ॥ ततस्त्रिंशद्गुणं पुण्यं रविसंक्रमणे दिने । अमायां चापि तत्तुल्यं द्विगुणं दक्षिणायने ॥ ३३ ॥ ततो दशगुणं पुण्यं नराणामुत्तरायणे । चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामनन्तं पुण्यमेव च ॥ ३४ ॥ रविवार के दिन संक्रान्ति होने पर उस दिन गंगास्नान करने से मौसल-स्नान की अपेक्षा तीस गुना अधिक पुण्य प्राप्त होता है । अमावास्या के दिन भी उसके सभान पुण्य होता है । उसी भाँति दक्षिणायन सूर्य में दुगुना, उत्तरायण सूर्य में उससे दशगुना अधिक और चातुर्मास्य (चौमासे) की पूर्णिमा में अनन्त पुण्य होता है ॥ ३३-३४ ॥ अक्षयायां च तत्तुल्यं नैतद्वेदे निरूपितम् । असंख्यपुण्यफलदमेतेषु स्नानदानकम् ॥ ३५ ॥ अक्षय तिथि में उसी (चातुर्मास्य-पूर्णिमा) के समान पुण्य होता है, यह वेद में भी नहीं बताया गया है । इन दिनों में स्नान करने से असंख्य पुण्य की प्राप्ति होती है ॥ ३५ ॥ सामान्यदिवसे स्नानं ध्यानाच्छतगुणं फलम् । मन्वन्तरेषु देवेशि युगादिषु तथैव च ॥ ३६ ॥ हे देवेशि ! सामान्य दिनों में स्नान करने से ध्यान से सौगुने अधिक फल प्राप्त होता है, उसी भांति मन्वन्तरों और युगादिकों में भी फल कहा गया है ॥ ३६ ॥ माघस्य सितसप्तम्यां भीष्माष्टम्यां तथैव च । तथाऽशोकाष्टमीतिथ्यां नवम्यां च तथा हरेः ॥ ३७ ॥ ततोऽपि द्विगुणं पुण्यं नन्दायां तव दुर्लभम् । दशपापहरायां तु दशम्यां सुमहत्फलम् ॥ ३८ ॥ नन्दोपमं च वारुण्यां महत्पूर्वं चतुर्गुणम् । ततश्चतुर्गुणं पुण्यं द्विमहत्पूर्वके सति ॥ ३९ ॥ पुण्यं कोटिगुणं चैव सामान्यस्नानतो भवेत् । चन्द्रसूर्योपरागेषु स्मृतं दशगुणं ततः ॥ ४० ॥ पुण्येऽप्यर्धोदये काले ततः शतगुणं फलम् । सर्वेषामेव संकल्पो वैष्णवानां विपर्ययः ॥ ४१ ॥ माध की शुक्ल सप्तमी, भीष्माष्टमी, अशोकाष्टमी और रामनवमी के दिन (गंगास्नान से) जो पुण्य प्राप्त होता है, उससे दुगुना पुण्य नन्दा (तिथि) में प्राप्त होता है तथा दश पाप हरण करने वाली दशमी में अत्यन्त महान् पुण्य फल प्राप्त होता है । नन्दा के समान ही वारुणी में पुण्य प्राप्त होता है, महावारुणी में उससे चौगुना और महामहावारुणी में उससे भी चौगुना अधिक पुण्य प्राप्त होता है, जो सामान्य दिनों के पुण्य-फल की अपेक्षा करोड़ गुना अधिक है । चन्द्र-सूर्य के ग्रहण के अवसर पर स्नान करने से उससे दश गुना अधिक पुण्य होता है । इसी प्रकार अर्घोदय योग में स्नान करने से सौगुना अधिक फल प्राप्त होता है । और लोगों की अपेक्षा वैष्णवों का गंगा-स्नान-संकल्प भिन्न होता है ॥ ३७-४१ ॥ फलसंधानरहिता जीवन्मुक्ताश्च वैष्णवाः । मत्प्रीतिभक्तिकामास्ते सर्वदा सर्वकर्मसु ॥ ४२ ॥ वैष्णव लोग सर्वदा सभी कर्मों की फलासक्ति से रहित और जीवन्मुक्त होते हैं । वे मुझमें सदैव प्रीति-भक्ति की कामना रखते हैं ॥ ४२ ॥ गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे विशेत्परः । जीवन्मुक्त वैष्णवं तं वेदाः सर्वे वदन्ति च ॥ ४३ ॥ क्योंकि भगवान् विष्णु का मन्त्र गुरु के मुख से निकल कर जिसके कर्णविवर में प्रविष्ट होता है, उसे सभी वेद जीवन्मुक्त वैष्णव कहते हैं ॥ ४३ ॥ पुरुषाणां शतं पूर्वं पैतृकं च परं शतम् । मातामहस्य च तात मातरं मातृमातरम् ॥ ४४ ॥ भगिनीं भ्रातरं चैव भागिनेयं च मातुलम् । श्वश्रूं च श्वशुरं चैव गुरुपत्नीं गुरोः सुतम् ॥ ४५ ॥ गुरुं च ज्ञानदातारं मित्रं च सहचारिणम् । भृत्यं शिष्यं तथा चेटीं प्रजां स्याश्रमसंनिधौ ॥ ४६ ॥ उद्धरेदात्मना सार्धं मन्त्रग्रहणमात्रतः । मन्त्रग्रहणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ ४७ ॥ वैष्णव मंत्र के ग्रहणमात्र से मनुष्य अपने पूर्व की सौ पीढ़ी, बाद की सौ पीड़ी, मातामह की सौ पीढ़ी, माता, नानी, भगिनी, भाई, भानजा, मामा, सास-ससुर, गुरुपत्नी, गुरु-पुत्र, ज्ञान देने वाले गुरु, सहचारी मित्र, नौकर, शिष्य, नौकरानी और आश्रम (घर आदि) के समीप रहने वाली प्रजा (पड़ोसी) का भी उद्धार कर देता है । मन्त्र ग्रहण मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त होता है ॥ ४४-४७ ॥ तस्य संस्पर्शनात्पूतं तीर्थं च भुवि भारते । तस्यैव पादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ॥ ४८ ॥ भारत-भूतल के तीर्थ उसके स्पर्श से पवित्र होते हैं और उसी के चरण रज से वसुन्धरा (पृथ्वी) पवित्र होती है ॥ ४८ ॥ पादोदकस्थानमिदं तीर्थमेव भवेद्ध्रुवम् । अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं यद्विष्णोरनिवेदितम् ॥ ४९ ॥ खादन्ति नो वैष्णवाश्च सदा नैवेद्यभोजिनः । विष्णोनिवेदितान्नं च नित्यं ये भुञ्जते नराः ॥ ५० ॥ पूतानि सर्वतीर्थानि तेषां च स्पर्शनादहो । विष्णोः पादोदकं पुण्यं नित्यं ये भुञ्जते नराः ॥ ५१ ॥ तत्पापानि पलायन्ते वैनतेयादिवोरगाः । तेषां दर्शनमात्रेण पूतं च भुवनत्रयम् ॥ ५२ ॥ उसके पादोदक का स्थान निश्चित ही तीर्थ होता है । विष्णु को निवेदन न किया गया अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है । उसे वैष्णव गण कभी नहीं खाते हैं । क्योंकि वे सदैव नैवेद्य (विष्णु का प्रसाद) ही भोजन करते हैं । जो मनुष्य नित्य विष्णु को भोग लगा कर अन्न ग्रहण करते हैं, उनके स्पर्श से सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं । भगवान् विष्णु के पुण्य पादोदक का नित्य पान करने वाले मनुष्यों के साथ पाप उसी तरह भाग जाते हैं जैसे गरुड़ को देख कर सर्प माग जाते हैं । उनके दर्शन मात्र से तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं ॥ ४९-५२ ॥ विष्णोः सुदर्शनं चक्रं सततं तांश्च रक्षति । मद्गुणश्रवणाद्ये च पुलकाङ्कितविग्रहाः ॥ ५३ ॥ गद्गदाः साश्रुनेत्राश्च नरास्ते वैष्णवोत्तमाः । पुत्रादपि परः स्नेहो मयि येषां निरन्तरम् ॥ गृहाद्याश्च मयि न्यस्तास्ते नरा वैष्णवोत्तमाः ॥ ५४ ॥ विष्णु का सुदर्शन चक्र उनकी निरन्तर रक्षा करता है । मेरे गुणों के श्रवण-मनन आदि करते ही उनका शरीर पुलकायमान हो उठता है और वे गद्गद तथा अश्रुपूर्ण हो जाते हैं, ऐसे व्यक्ति उत्तम वैष्णव हैं । जिन लोगों का मुझमें निरन्तर पुत्र से भी बढ़ कर स्नेह रहता है और गृह आदि सब कुछ मेरे भरोसे छोड़ देते है वे उत्तम वैष्णव हैं ॥ ५३-५४ ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं मत्तः सर्वं चराचरम् । सर्वेषामहमेवेश इतिज्ञा वैष्णवोत्तमाः ॥ ५५ ॥ यहाँ से लेकर ब्रह्म-लोक तक यह समस्त चराचर जगत् मुझ (श्रीकृष्ण) से ही उत्पन्न होता है और मैं ही सब का अधीश्वर हूँ, ऐसा ज्ञान रखने वाले वैष्णव उत्तम हैं ॥ ५५ ॥ असंख्यकोटिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः । प्रलये मयि लीयन्ते चेतिज्ञा वैष्णवोत्तमाः ॥ ५६ ॥ असंख्य करोड़ ब्रह्माण्ड और ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि सभी प्रलय के समय मुझ में लीन होते हैं, ऐसा जानने वाले वैष्णव उत्तम हैं ॥ ५६ ॥ तेजः स्वरूपं परमं भक्तानुग्रहविग्रहम् । स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ॥ ५७ ॥ सर्वे प्राकृतिका मत्त आविर्भूतास्तिरोहिताः । इति जानन्ति ये देवि ते नरा वैष्णवोत्तमाः ॥ ५८ ॥ देवि ! मैं तेजः स्वरूप, श्रेष्ठ, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए शरीर धारण करने वाला, स्वच्छामय, निर्गण, निरीह और प्रकृति से परे हूँ तथा समस्त प्राकृतिक सृष्टि मुझसे ही उत्पन्न और मुझमें ही तिरोहित होती है । ऐसा जानने वाले मनुष्य उत्तम वैष्णव हैं ॥ ५७-५८ ॥ इत्येवमुक्त्वा देवेशो विरराम तयोः पुरः । उवाच तं त्रिपथगा भक्तिनम्रात्मकंधरा ॥ ५९ ॥ उन दोनों के सामने ऐसा कह कर देवेश (भगवान् श्रीकृष्ण) चुप हो गए । अनन्तर भक्तिपूर्वक शिर झुकाये गंगा ने कहा ॥ ५९ ॥ गङ्गोवाच यामि चेद्भारतं नाथ भारतीशापतः पुरा । तवाऽऽज्ञया च राजेन्द्र तपसा चैव सांप्रतम् ॥ ६० ॥ गंगा बोलीं--हे नाथ ! पूर्व काल के सरस्वती-शापवश मैं आपकी आज्ञा और राजेन्द्र (भगीरथ) के तप के कारण अभी भारत जा रही हूँ ॥ ६० ॥ यानिकानि च पापानि मह्यं दास्यन्ति पापिनः । तानि मे केन नश्यन्ति तदुपायं वद प्रभो ॥ ६१ ॥ किन्तु हे प्रभो ! वहाँ पापी लोग पाप की राशि मुझ पर लाद देंगे । उसका नाश कैसे होगा ? बताने की कृपा करें ॥ ६१ ॥ कति कालं परिमितं स्थितिर्मे तत्र भारते । कदा यास्यामि सर्वेश तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ६२ ॥ हे सर्वेश ! भारत में कितने दिनों तक मेरी स्थिति रहेगी और कब आपके परमोत्तम विष्णुलोक में जाऊँगी ? ॥ ६२ ॥ ममान्यद्वाञ्छितं यद्यत्सर्वं जानासि सर्ववित् । सर्वान्तरात्मन्सर्वज्ञ तदुपायं वद प्रभो ॥ ६३ ॥ प्रभो ! आप सर्ववेत्ता हैं, इसलिए मेरी अन्य कामनाओं को भी जानते हैं । हे सबके अन्तरात्मा और सर्वज्ञ ! मेरे मनोरथ के पूर्ण होने का उपाय बताएँ ॥ ६३ ॥ श्रीकृष्ण उवाच जानामि वाञ्छितं गङ्गे तव सर्वं सुरेश्वरि । पतिस्ते रुद्ररूपोऽयं लवणोदो भविष्यति ॥ ६४ ॥ श्रीकृष्ण बोले--गंगे ! सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारे सभी मनोरथों को जानता हूँ । रुद्र का रूप यह लवणसमुद्र तुम्हारा पति होगा ॥ ६४ ॥ ममैवांशः समुद्रश्च त्वं च लक्ष्मीस्वरूपिणी । विदग्धाया विदग्धेन संगमो गुणवान्भुवि ॥ ६५ ॥ समुद्र मेरा ही अंश है और तुम लक्ष्मी स्वरूपिणी हो । चतुर नायक का चतुर नायिका के साथ समागम भूतल पर गुणवान् माना गया है ॥ ६५ ॥ यावत्यः सन्ति नद्यश्च भारत्याद्याश्च भारते । सौभाग्यं तव तास्वेव लवणोदस्य सौरते ॥ ६६ ॥ अद्यप्रभृति देवेशि कलेः पञ्चसहस्रकम् । वर्षं स्थितिस्ते भारत्या भुवि शापेन भारते ॥ ६७ ॥ भारत में सरस्वती आदि अन्य जितनी नदियाँ होंगी, उन सब में समुद्र के लिए तुम्हीं सबसे अधिक सौभाग्यवती भानी जाओगी । देवेशि ! कलियुग के पाँच सहस्र वर्षों तक तुम्हें सरस्वती के शाप से भारतवर्ष में रहना पड़ेगा ॥ ६६-६७ ॥ नित्यं वारिधिना सार्धं करिष्यसि रहो रतिम् । त्वमेव रसिका देवी रसिकेन्द्रेण संयुता ॥ ६८ ॥ तुम वहाँ एकान्त स्थान में रसिकेन्द्र समुद्र के साथ नित्य क्रीड़ा करोगी । क्योंकि तुम अत्यन्त रसविलासिनी हो ॥ ६८ ॥ त्वां तोषयन्ति स्तोत्रेण भगीरथकृतेन च । भारतस्था जनाः सर्वे पूजयिष्यन्ति भक्तितः ॥ ६९ ॥ भारतनिवासी सभी लोग भक्तिपूर्वक भगीरथ-निर्मित स्तोत्र द्वारा तुम्हारी स्तुति और पूजा करेंगे ॥ ६९ ॥ ध्यानेन कौथुमोक्तेन ध्यात्वा त्वां पूजयिष्यति । यः स्तौति प्रणमेन्नित्यं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ७० ॥ कौथुमी शाखा की पद्धति के अनुसार जो तुम्हारा नित्य ध्यान, पूजा, स्तुति और प्रणाम करेंगे, वे अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त करेंगे ॥ ७० ॥ गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ७१ ॥ सैकड़ों योजन की दूरी से जो 'गंगे-गंगे' कहता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकार विष्णुलोक को प्राप्त करता है ॥ ७१ ॥ सहस्रपापिनां स्नानाद्यत्पापं ते भविष्यति । मद्भक्तदर्शने तावत्तदेव हि विनश्यति ॥ ७२ ॥ सहस्रों पापियों के स्नान करने से जो पाप तुम्हें होगा, वह मेरे भक्तों के दर्शन करने से उसी समय नष्ट हो जायगा ॥ ७२ ॥ पापिनां तु सहस्राणां शवस्पर्शेन यत्तव । मन्मन्त्रोपासकस्नानात्तदघं च विनश्यति ॥ ७३ ॥ उसी प्रकार सहस्रों पापियों के शव-स्पर्श से जो पाप तुम्हें प्राप्त होगा, वह मेरे मन्त्रों के उपासक भक्तों के स्नान करने से नष्ट हो जायगा ॥ ७३ ॥ यत्र यत्र भवेद्गङ्गे मन्नामगुणकीर्तनम् । तत्रैव त्वमधिष्ठानं करिष्यस्यघमोचनात् ॥ ७४ ॥ गंगे ! जिस-जिस स्थान पर मेरे नाम व गुणों का कीर्तन होगा, वहीं पाप नाश करने के कारण तुम्हारा निवास होगा ॥ ७४ ॥ सार्धं सरिद्भिः श्रेष्ठाभिः सरस्वत्यादिभिः शुभे । तत्तु तीर्थं भवेत्सद्यो यत्र मद्गुणकीर्तनम् ॥ ७५ ॥ शुभे ! जहाँ-कहीं मेरे गुणों का कीर्तन होगा वहाँ सरस्वती आदि श्रेष्ठ नदियों के साथ तुम्हारे रहने से वह (स्थान) सद्यः तीर्थ बन जायगा ॥ ७५ ॥ यद्रेणुस्पर्शमात्रेण पूतो भवति पातकी । रेणुप्रमाणं वर्षं च स वैकुण्ठे वसेद्ध्रुवम् ॥ ७६ ॥ वहाँ के रेणु-स्पर्शमात्र से पातकी पवित्र होकर वैकुण्ठ में उतने रेणु प्रमाण वर्षों तक निश्चित रूप से निवास करेंगे ॥ ७६ ॥ स्नास्यन्ति त्वयि ये भक्ता मन्नामस्मृतिपूर्वकम् । समुत्सृजन्ति प्राणांश्च ते गच्छन्ति हरेः पदम् ॥ ७७ ॥ जो भक्त पुरुष मेरे नामों का स्मरण करते हुए तुम में स्नान करके प्राण-परित्याग करेंगे, वे विष्णु-पद को प्राप्त करेंगे ॥ ७७ ॥ पार्षदप्रवरास्ते च भविष्यन्ति हरेश्चिरम् । असंख्यकं प्राकृतिकं लयं द्रक्ष्यन्ति ते नराः ॥ ७८ ॥ वे विष्णु के चिरस्थायी पार्षद होंगे और वहाँ रहकर असंख्य प्राकृतिक प्रलय का दर्शन करेंगे ॥ ७८ ॥ मृतस्य बहुपुण्येन तच्छवं त्वयि विन्यसेत् । प्रयाति स च वैकुण्ठं यावदस्थ्नां स्थितिस्त्वयि ॥ ७९ ॥ मृतक प्राणी के बहुपुण्य होने पर ही उसका शव तुम्हारे जल में डाला जायगा और जब तक उसकी अस्थि तुम्हारे भीतर रहेगी उतने समय तक वह वैकुण्ठ में रहेगा ॥ ७९ ॥ कायव्यूहं ततः कृत्वा भोजयित्वा स्वकर्मजम् । तस्मै ददामि सारूप्यं तं करोमि च पार्षदम् ॥ ८० ॥ फिर मैं उसे उसके कर्मजन्य शारीरिक भोग भोगा कर अन्त में सारूप्य मोक्ष प्रदान करता हूँ तथा अपना पार्षद बना लेता हूँ ॥ ८० ॥ अज्ञानी त्वज्जलस्पर्शाद्यदि प्राणान्समुत्सृजेत् । तस्मै ददामि सारूप्यं तं करोमि च पार्षदम् ॥ ८१ ॥ अज्ञानी प्राणी यदि तुम्हारे जल का स्पर्श करके अपने प्राणों का परित्याग करता है, तो मैं उसे सारूप्य मोक्ष देकर अपना पार्षद बनाता हूँ ॥ ८१ ॥ अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणांस्त्वन्नामस्मृतिपूर्वकम् । तस्मै ददामि सारूप्यमसंख्यं प्राकृतं लयम् ॥ ८२ ॥ यदि मनुष्य तुम्हारे नाम का स्मरण करते हुए कहीं अन्यत्र प्राणोत्सर्ग करता है, तो मैं उसे असंख्य प्राकृत प्रलयों तक सालोक्य मोक्ष देता हूँ ॥ ८२ ॥ अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणान्मन्नामस्मृतिपूर्वकम् । तस्मै ददामि सालोक्यं यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ ८३ ॥ मेरे नामों के स्मरणपूर्वक अन्यत्र प्राण परित्याग करने वाले मनुष्य को ब्रह्मा की आयु तक सालोक्य (मोक्ष) प्रदान करता हूँ ॥ ८३ ॥ तीर्थेऽप्यतीर्थे मरणे विशेषो नास्ति कश्चन । मन्मन्त्रोपासकानां च नित्यं नैवेद्यभोजिनाम् ॥ ८४ ॥ पूतं कर्तुं स शक्तो हि लीलया भुवनत्रयम् । रत्नेन्द्रसारनिर्माणयानेन सह पार्षदैः ॥ सद्यः स याति गोलोकं मम तुल्यो भवेद्ध्रुवम् ॥ ८५ ॥ मेरे मंत्रों की उपासना तथा नित्य मेरे नैवेद्यों का भोजन करने वाले पुरुष चाहे तीर्थ में मरें या अतीर्थ में, कोई अन्तर नहीं पड़ता । ऐसा व्यक्ति सहज ही में त्रिलोकी को भी पवित्र कर देता है तथा वह मेरे तुल्य होकर मेरे पार्षदों के साथ उत्तम रत्नों के सार से बने हुए विमान से गोलोक में चला जाता है ॥ ८४-८५ ॥ मद्भक्तबान्धवा ये ये ते ते पुण्यधियः शुभे । ते यान्ति रत्नयानेन गोलोकं च सुदुर्लभम् ॥ ८६ ॥ शुभे ! मेरे भक्तों के जितने पुण्यात्मा बान्धव होते हैं, वे भी रत्नखचित विमानों द्वारा अत्यन्त दुर्लभ गोलोक में जाते हैं ॥ ८६ ॥ यत्र यत्र मृता ये च ज्ञानाज्ञानेन वा सति । जीवन्मुक्ताश्च ते पूता भक्तसंनिधिमात्रतः ॥ ८७ ॥ ज्ञानी, अज्ञानी किसी भी अवस्था में रह कर वे जहाँ कहीं प्राण परित्याग करते हैं, केवल भक्तों की सन्निध मात्र से वे पवित्र एवं जीवन्मुक्त होते हैं ॥ ८७ ॥ इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तां च तमुवाच भगीरथम् । स्तुहि गङ्गामिमां भक्त्या पूजां कुरु च सांप्रतम् ॥ ८८ ॥ गंगा जी से इतना कह कर भगवान् श्री हरि ने भगीरथ से भी कहा-सम्प्रति भक्तिपूर्वक इस गंगा की स्तुति और पूजा करो ॥ ८८ ॥ भगीरथस्तां तुष्टाव पूजयामास भक्तितः । ध्यानेन कौथुमोक्तेन स्तोत्रेण च पुनः पुनः ॥ ८९ ॥ पश्चात् भगीरथ ने भक्तिपूर्वक कौथुमी शाखा के अनुसार ध्यान, पूजन और स्तोत्र द्वारा गंगा की बार-बार स्तुति की ॥ ८९ ॥ श्रीकृष्णं प्रणनामाथ परमात्मानमीश्वरम् । भगीरथश्च गङ्गा च सोऽन्तर्धानं गतो हरिः ॥ ९० ॥ फिर परमात्मा एवं ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और गंगा को भगीरथ ने प्रणाम किया तथा भगवान् अन्तर्धान हो गए ॥ ९० ॥ नारद उवाच स्तोत्रेण केन ध्यानेन केन पूजाक्रमेण च । पूजां चकार नृपतिर्वद वेदविदां वर ॥ ९१ ॥ नारद बोले-वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! राजा भगीरथ ने किस स्तोत्र, ध्यान और पूजा-क्रम से उनकी आराधना की, वह बताने की कृपा करें ॥ ९१ ॥ श्रीनारायण उवाच स्नात्वा नित्यक्रियां कृत्वा धृत्वा धौते च वाससी । पादौ प्रक्षाल्य चाऽऽचम्य संयतो भक्तिपूर्वकम् ॥ ९२ ॥ गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवम् । संपूजयेन्नरः शुद्धः सोऽधिकारी च पूजने ॥ ९३ ॥ श्री नारायण बोले-स्नान तथा नित्यक्रिया करने के उपरान्त दो स्वच्छ वस्त्र पहन कर पाद-प्रक्षालन और आचमन करने के उपरान्त भक्ति और संयमपूर्वक गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती की अर्चना करे ॥ ९२-९३ ॥ गणेशं विघ्ननाशाय निष्पापाय दिवाकरम् । वह्निं स्वशुद्धये विष्णुं मुक्तये पूजयेन्नरः ॥ ९४ ॥ शिवं ज्ञानाय ज्ञानेशं शिवां बुद्धिविवृद्धये । संपूज्यैतल्लभेत्प्राज्ञो विपरीतमतोऽन्यथा ॥ ९५ ॥ विघ्न-निवारण के लिए गणेश की, पाप नाश के लिए सूर्य की, आत्म-शुद्धि के लिए अग्नि की, मुक्ति के लिए विष्णु की, ज्ञान के लिए शिव की और बुद्धि-वृद्धि के लिए पार्वती की पूजा करनी चाहिए । क्योंकि इन देवों की आराधनाकरने से प्राज्ञ को उक्त फल की प्राप्ति होती है और न करने से विपरीत फल भी मिलता है ॥ ९४-९५ ॥ दध्यावनेन तद्ध्यानं शृणु नारद तत्त्वतः । ध्यानं च कौथुमोक्तं वै सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९६ ॥ नारद ! कौथुमी शाखानुसार समस्त पापों के नाशक जिस ध्यान को भगीरथ ने किया था, उसे यथार्थतः सुनो ॥ ९६ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां गङ्गा पापप्रणाशिनीम् । कृष्णविग्रहसंभूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ॥ ९७ ॥ वह्निशुद्धाशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् । शरत्पूर्णेन्दुशतकप्रभाजुष्टकलेवराम् ॥ ९८ ॥ ईषद्धासप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् । नारायणप्रियां शान्तां सत्सौभाग्यसमन्विताम् ॥ ९९ ॥ बिभृतो कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुताम् । सिन्दूरबिन्दुललितां सार्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ १०० ॥ कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् । पक्वबिम्बसमानैकचार्वोष्ठपुटमुत्तमम् ॥ १०१ ॥ श्वेत चम्पा के समान कान्तिपूर्ण वर्ण वाली, पापविनाशिनी, भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर से उत्पन्न होने वाली और उनके समान श्रेष्ठ उन सती गंगा का ध्यान करे, जो अग्नि के समान शुद्ध वस्त्र धारण किए हुए हैं, जो रत्नों के भूषणों से भूषित हैं, शरत्कालीन पूर्णिमा के सैकड़ों चन्द्रमा के समान प्रभापूर्ण हैं, जिनके प्रसन्न मुख पर मुसकराहट है और जो नित्ययौवना हैं । वे शास्त्रस्वरूपिणी देवी भगवान् नारायण की प्रिया हैं । सत्सौभाग्य कभी उनसे दूर नहीं हो सकता । उनके सिर पर सघन अलकावली है । मालती के पुष्पों की माला उनकी शोभा बढ़ा रही है । उनके ललाट पर चन्दन-बिन्दुओं के साथ सिन्दूर की बिन्दी है जिससे उनका लालित्य बढ़ रहा है । गण्डस्थल पर कस्तुरी से पत्ररचना की गई है, जो नाना प्रकार के चित्रों से सुशोभित है । उनके ओष्ठपुट बिम्बाफल के समान सुन्दर है ॥ ९७-१०१ ॥ मुक्तापङ्क्तिप्रभाजुष्टदन्तपङ्क्तिमनोहराम् । सुचारुवक्त्रनयना सकटाक्षमनोरमाम् ॥ १०२ ॥ दांतों की पंक्तियाँ मोतियों की पंक्तियों की भांति प्रभापूर्ण और मनोहर हैं, अत्यन्त सुन्दर मुख एवं नेत्र मनोरम कटाक्ष करने वाले हैं ॥ १०२ ॥ कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् । बृहच्छ्रोणीं सुकठिनां रम्भास्तम्भविनिन्दिताम् ॥ १०३ ॥ युगल स्तन कठोर और श्रीफल (बेल) के आकार वाले हैं । नितम्ब भाग विस्तृत और अत्यन्त कठोर है । ऊरु कदलीस्तम्भ को तिरस्कृत करने वाले हैं ॥ १०३ ॥ स्थलपद्मप्रभाजुष्टपादपद्मयुगं धराम् । रत्नाभरणसंयुक्तं कुङ्कुमाक्तं सयावकम् ॥ १०४ ॥ देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् । सुरसिद्धमुनीन्द्रादिदत्तार्घ्यैः संयुतं सदा ॥ १०५ ॥ तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् । मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां स्वर्गभोगदम् ॥ १०६ ॥ युगल चरणकमल स्थलकमल की भाँति प्रभापूर्ण हैं । उन चरणों में रत्नों के आभूषण तथा कुंकुम मिश्रित महावर लगा हुआ है । देवराज इन्द्र के मुकुट में लगे हुए मन्दार के फूलों के रजः कण से इन देवी के श्री चरणों की लालिमा गाढ़ी हो गई है । देवता, सिद्ध और मुनीन्द्र अर्घ्य लेकर सदा सामने खड़े हैं । तपस्वियों के मुकुट में रहने वाले भौंरों की पंक्ति से इनके चरण संयुक्त हैं । इनके पावन चरण मुमुक्षु को मुक्ति देने वाले हैं तथा कामना वालों को स्वर्ग भोग देने वाले हैं ॥ १०४-१०६ ॥ वरां वरेण्या वरदां भक्तानुग्रहविग्रहाम् । श्रीविष्णोः पददात्रीं च भजे विष्णुपदीं सतीम् ॥ १०७ ॥ इस प्रकार श्रेष्ठ, आदरणीय, वर देने वाली, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए अधीर रहने वाली, भगवान् श्री विष्णु का पद देने वाली तथा विष्णुपदी नाम से विख्यात सती गंगा की मैं उपासना करता हूँ ॥ १०७ ॥ इति ध्यानेन चानेन ध्यात्वा त्रिपथगां शुभाम् । दत्त्वा संपूजयेद्बह्मन्नुपचारांश्च षोडश ॥ १०८ ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार के ध्यान से तीन मार्गों से विचरण करने वाली (गंगा) का ध्यान कर के कल्याणी गंगा का स्मरण कर षोडशोपचार पूजन करे ॥ १०८ ॥ आसनं पाद्यमर्घ्यं च स्नानीयं चानुलेपनम् । धूपं दीपं च नैवेद्यं ताम्बूलं शीतलं जलम् ॥ १०९ ॥ वसनं भूषणं माल्यं गन्धमाचमनीयकम् । मनोहरं सुतल्पं च देयान्येतानि षोडश ॥ ११० ॥ आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नानार्थ जल, अनुलेपन (चन्दन), धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, भूषण, माला, गन्ध, आचमन और अत्यन्त मनोहर शय्या, यही अर्पण करने योग्य सोलह उपचार हैं ॥ १०९-११० ॥ दत्त्वा भक्त्या संप्रणमेत्स्तुत्वा तां संपुटाञ्जलि । संपूज्यैवंप्रकारेण सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ १११ ॥ इन्हें भक्तिपूर्वक समर्पण करने के अनन्तर हाथ जोड़ कर स्तुति और प्रणाम करे । इस प्रकार पूजा करने से उसे अश्वमेध का फल प्राप्त होता है ॥ १११ ॥ स्तोत्रं वै कौथुमोक्तं च संवादं विष्णुवेधसोः । शृणु नारद वक्ष्यामि पापघ्नं च सुपुण्यदम् ॥ ११२ ॥ ॐ नमो गङ्गायै । श्रीब्रह्मोवाच श्रोतुमिच्छामि देवेश लक्ष्मीकान्त नमः प्रभो । विष्णो विष्णुपदीस्तोत्रं पापघ्नं पुण्यकारणम् ॥ ११३ ॥ नारद ! कौथुमोक्त स्तोत्र तुम्हें बता रहा हूँ, जिसमें विष्णु और ब्रह्मा का संवाद हुआ है । वह स्तोत्र पापनाशक तथा अत्यन्त पुण्यप्रद है । सुनो ! ब्रह्मा बोले-देवेश, लक्ष्मीकान्त, प्रभो, विष्णो ! आपको नमस्कार है । मैं आपसे गंगा का पापनाशक एवं पुण्यकारक स्तोत्र सुनना चाहता हूँ ॥ ११२-११३ ॥ श्रीनारायण उवाच शिवसंगीतसंमुग्धश्रीकृष्णाङ्गद्रवोद्भवाम् । राधाङ्गद्रवसंभूतां तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११४ ॥ नारायण बोले-शिव के संगीत पर अत्यन्त मुग्ध हुए भगवान् श्रीकृष्ण और राधा के द्रवीभूत अंग से उतान्न होने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११४ ॥ या जन्मसृष्टेरादौ च गोलके रासमण्डले । संनिधाने शंकरस्य तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११५ ॥ सृष्टि के आदि काल में गोलोक के रासमण्डल में भगवान् शंकर के समीप रहने बाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११५ ॥ गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे । कार्तिकीपूर्णिमाजातां तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११६ ॥ गोपों और गोपिकाओं से व्याप्त शुभ राधा-महोत्सव के अवसर पर कार्तिक की पूर्णिमा के दिन उत्पन्न होने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११६ ॥ कोटियोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये लक्षगुणा ततः । समावृता या गोलोकं तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११७ ॥ करोड़ों योजन चौड़ी और उससे लाखगुनी अधिक लम्बी होकर गोलोक को आवृत करने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११७ ॥ षष्टिलक्षैर्योजनैर्या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा । समावृता या वैकुण्ठं तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११८ ॥ साठ लाख योजन चौड़ी और उससे चौगुनी लम्बी होकर समस्त वैकुण्ठ को घेरने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११८ ॥ विंशल्लक्षैर्योजनैर्या ततोदैर्घ्ये चतुर्गुणा । समावृता ब्रह्मलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ ११९ ॥ बीस लाख योजन चौड़ी तथा उससे चौगुनी लम्बी होबार ब्रह्मलोक को आवृत करने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ११९ ॥ त्रिंशल्लक्षैर्योजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता शिवलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम्. ॥ १२० ॥ तीन लाख योजन चौड़ी और उससे पंचगुनी लम्बी होकर शिव लोक को घेरने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२० ॥ षड्योजनसुविस्तीर्णा दैर्घ्ये दशगुणा ततः । मन्दाकिनी येन्द्रलोके तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२१ ॥ छह योजन चौड़ी और उससे दशगुनी लम्बी होकर मन्दाकिनी नाम से इन्द्रलोक में विराजने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२१ ॥ लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये शतगुणा ततः । आवृता ध्रुवलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२२ ॥ एक लाख योजन चौड़ी और उससे सातगुनी लम्बी होकर ध्रुव लोक को घेरे रहने वाली उन गंगा को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १२२ ॥ लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षड्गुणिता ततः । आवृता चन्द्रलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२३ ॥ एक लाख योजन चौड़ी एवं उससे छह गुनी लम्बी होकर चन्द्रलोक को आवृत करने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२३ ॥ योजनैः षष्टिसाहस्रैर्दैर्घ्ये दशगुणा ततः । आवृता सूर्यलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२४ ॥ सात सहस्र योजन चौड़ी और उससे दश गुनी लम्बी होकर सूर्य लोक को घेरने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२४ ॥ लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षड्गुणिता ततः । आवृता सत्यलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२५ ॥ एक लाख योजन चौड़ी तथा उससे छह गुनी लम्बी होकर सत्यलोक को आवृत करने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२५ ॥ दशलक्षैयोजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः । आवृता या तपोलोकं तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२६ ॥ दश लाख योजन चौड़ी और उससे पाँच गुनी लम्बी होकर तपोलोक को घेरने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२६ ॥ सहस्रयोजना या च दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः । आवृता जनलोकं या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२७ ॥ एक सहस्र योजन चौड़ी एवं उससे सातगुनी लम्बी होकर जनलोकः को आवत करने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२७ ॥ सहस्रयोजनायामा दैर्ध्ये सप्तगुणा ततः । आवृता या च कैलासं तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२८ ॥ सहस्र योजन चौड़ी और उसरो सात गुनी लम्बी होकर कैलास को घेर कर स्थित रहने वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२८ ॥ पाताले या भोगवती विस्तीर्णा दशयोजना । कतो दशगुणा दैर्ध्ये तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १२९ ॥ दश योजन चौड़ी और उससे दश गुनी लम्बी होकर पाताल में भोगवती' नाम से विराजमान उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १२९ ॥ क्रोशैकमात्रविस्तीर्णा ततः क्षीणा न कुत्रचित् । क्षितौ चालकनन्दा या तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १३० ॥ इस भूतल पर एक कोश चौड़ी तथा कहीं भी उससे क्षीण न होने वाली अलकनन्दा नाम से विराजमान गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १३० ॥ सत्ये या क्षीरवर्णा च त्रेतायामिन्दुसंनिभा । द्वापरे चन्दनाभा च तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १३१ ॥ सत्ययुग में दुग्ध के समान (वर्णवाली), त्रेता में चन्द्रमा के समान और द्वापर में चन्दन के समान कान्ति वाली उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १३१ ॥ जलप्रभा कलौ या च नान्यत्र पृथिवीतले । स्वर्गे च नित्यं क्षीराभा तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १३२ ॥ कलियुग में जो केवल पुथ्वी पर जल की प्रभा से पूर्ण रहती है अन्यत्र नहीं और स्वर्ग में नित्य क्षीर की भांति कान्तिमती रहती हैं, उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १३२ ॥ यस्याः प्रभाव अतुलः पुराणे च श्रुतौ श्रुतः । या पुण्यदा पापहर्त्री तां गङ्गा प्रणमाम्यहम् ॥ १३३ ॥ पुराण और वेदों में जिनका अतुलनीय प्रभाव सुना जाता है और जो पुण्यदायिनी एवं पापविनाशिनी है उन गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १३३ ॥ यत्तोयकणिकास्पर्शः पापिनां च पितामह । ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत् ॥ १३४ ॥ इत्येवं कथितं ब्रह्मन्गङ्गापद्यैकविंशतिम् । स्तोत्ररूपं च परमं पापघ्नं पुण्यबीजकम् ॥ १३५ ॥ पितामह, ब्रह्मन् ! जिनके जल की बंद मात्र के स्पर्श होने से पापियों के करोड़ों जन्मों के अजित ब्रह्महत्या आदि पाप नष्ट हो जाते हैं, उन्हीं गंगा का इक्कीस पद्यों में निर्मित यह स्तोत्र तुम्हें बता दिया । यह उत्तम, पापनाशक और पुण्य का कारण है ॥ १३४-१३५ ॥ नित्यं यो हि पठेद्भक्त्या संपूज्य च सुरेश्वरीम् । अश्वमेधफलं नित्यं लभते नात्र संशयः ॥ १३६ ॥ जो देवेश्वरी गंगा की अर्चना कर के भक्तिपूर्वक नित्य इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, उन्हें नित्य अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १३६ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रं भार्याहीनो लभेत्प्रियाम् । रोगान्मुच्येत रोगी च बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ १३७ ॥ उसी प्रकार पुत्रहीन को पुत्र और स्त्रीविहीन को स्त्री की प्राप्ति होती है । रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति उससे मुक्त हो जाता है ॥ १३७ ॥ अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः । यः पठेत्प्रातरुत्थाय गङ्गास्तोत्रमिदं शुभम् ॥ १३८ ॥ शुभं भवेत्तु दुःस्वप्नं गङ्गास्नानफलं भवेत् ॥ १३९ ॥ प्रातःकाल उठ कर इस शुभ गंगा-स्तोत्र का पाठ करने वाला अल्प कीर्तिकारी मूर्ख भी अत्यन्त यशस्वी पण्डित हो जाता है । उसके दुःस्वप्न सुस्वप्न हो जाते हैं और गंगास्नान का फल प्राप्त होता है ॥ १३८-१३९ ॥ नारायण उवाच भगीरथोऽनया स्तुत्या स्तुत्वा गङ्गा च नारद । जगाम तां गृहीत्वा च यत्र नष्टाश्च सागराः ॥ १४० ॥ नारायण बोले-नारद ! भगीरथ ने इस स्तोत्र से गंगा की स्तुति करके उन्हें लेकर उसी स्थान की यात्रा की, जहाँ सगर के (साठ हजार) पुत्र नष्ट हो गए थे ॥ १४० ॥ वैकुण्ठं ते ययुस्तूर्णं गङ्गायाः स्पर्शवायुना । भगीरथेन साऽऽनीता तेन भागीरथी स्मृता ॥ १४१ ॥ वायु द्वारा गंगा का स्पर्श होते ही वे सभी पुत्र वैकुण्ठ धाम में चले गए । भगीरथ गंगा को ले आए, इस कारण गंगा को 'भागीरथी' कहा गया है ॥ १४१ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं गङ्गोपाख्यानमुत्तमम् । पुण्यदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४२ ॥ इस प्रकार गंगा का पूरा परमोत्तम उपाख्यान तुम्हें बता दिया, जो पुण्य और मोक्ष का दाता एवं सब का सार रूप है अब आगे और क्या सुनना चाहते हो ॥ १४२ ॥ नारद उवाच शिवसंगीतसंमुग्धे श्रीकृष्णे द्रवतां गते । द्रवतां च गतायां च राधायां किं बभूव ह ॥ १४३ ॥ तत्रस्थाश्च जना ये ये ते च किं चक्रुरुद्यमम् । एतत्सर्वं सुविस्तीर्णं प्रभो वक्तुमिहार्हसि ॥ १४४ ॥ नारद बोले-शिव के संगीत से मुग्ध होकर भगवान् श्रीकृष्ण और राधिका जी के द्रवीभूत (जलमय) हो जाने के पश्चात् क्या हुआ ? उस समय वहाँ जो लोग उपस्थित थे, उन्होंने कौन-सा उत्तम कार्य किया ? हे प्रभो ! यह सब बातें विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें ॥ १४३-१४४ ॥ नारायण उवाच कार्तिकीपूर्णिमायां च राधायाः सुमहोत्सवे । कृष्णा संपूज्य तां राधामवसद्रासमण्डले ॥ १४५ ॥ नारायण बोले-कार्तिकी पूर्णिमा के दिन भगवान् श्रीकृष्ण ने राधिका जी के उस सुन्दर महोत्सव में राधा की भली भांति पूजा करके रासमण्डल में उनके साथ निवास किया । ॥ १४५ ॥ कृष्णेन पूजितां तां तु संपूज्याऽऽदृतमानसाः । ऊचुर्ब्रह्मादयः सर्वे ऋषयः सनकादयः ॥ १४६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे कृष्णसंगीतं च सरस्वती । जगौ सुन्दरतानेन वीणया च मनोहरम् ॥ १४७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा सम्पूजित होने पर ब्रह्मा आदि सभी सनकादि ऋषियों ने भी उनकी पूजा की और निवेदन किया । इसी बीच सरस्वती ने अपनी वीणा की सुन्दर तान पर भगवान् श्रीकृष्ण का मनोहर संगीत गाना आरम्भ कर दिया । ॥ १४६-१४७ ॥ तुष्टो ब्रह्मा ददौ तस्यै महारत्नाढ्यमालिकाम् । शिरोमणीन्द्रसारं च सर्वब्रह्माण्डदुर्लभम् ॥ १४८ ॥ तब ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उन्हें एक उत्तम रत्नों की बनी माला प्रदान की । श्रेष्ठ मणियों के सार भाग से रचित एक ऐसी उत्तम चूड़ामणि अर्पित की जो समस्त ब्रह्माण्ड में दुर्लभ है ॥ १४८ ॥ कृष्णः कौस्तुभरत्नं च सर्वरत्नात्परं वरम् । अमूल्यरत्नखचितं हारसारं च राधिका ॥ १४९ ॥ श्रीकृष्ण ने समस्त रत्नों में श्रेष्ठ कौस्तुभ मणि मेंट की । राधिका ने अमूल्य रत्नों से निर्मित उत्तम हार प्रदान किया ॥ १४९ ॥ नारायणश्च भगवान्वनमालां मनोहराम् । अमूल्यरत्नकलितं लक्ष्मीर्मकरकुण्डलम् ॥ १५० ॥ भगवान् नारायण ने मनोहर वनमाला तथा लक्ष्मी ने अमूल्य रत्नों से निर्मित मकराकृति कुण्डल प्रदान किए ॥ १५० ॥ विष्णुमाया भगवती मूलप्रकृतिरीश्वरी । दुर्गा नारायणीशानी विष्णुभक्तिं सुदुर्लभाम् ॥ १५१ ॥ विष्णु की माया भगवती मूल प्रकृति ने, जो ईश्वरी, दुर्गा, नारायणी और ईशानी नाम से विख्यात हैं, अत्यन्त दुर्लभ विष्णु-भक्ति दी ॥ १५१ ॥ धर्मबुद्धिं च धर्मस्तु यशश्च विपुलं भवे । वह्निशुद्धांशुकं वह्निर्वायुश्च मणिनूपुरम् ॥ १५२ ॥ धर्म ने धार्मिक बुद्धि के साथ-साथ संसार में महायश प्रदान किया । अग्नि ने चिन्मय वस्त्र और वायु ने मणिमय नपुर अर्पित किए ॥ १५२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शंभुर्ब्रह्मणा प्रेरितो मुहुः । जगौ श्रीकृष्णसंगीतं रासोल्लाससमन्वितम् ॥ १५३ ॥ इतने में ब्रह्मा से बार-बार प्रेरित होकर शिव भी रास के उल्लास से युक्त श्रीकृष्ण का गीत गाने लगे ॥ १५३ ॥ मूर्छां प्रापुः सुराः सर्वे चित्रपुत्तलिका यथा । क्षणेन चेतनां प्राप्य ददृशुः रासमण्डलम् ॥ १५४ ॥ स्थलं सर्वं जलाकीर्णं हीनराधाहरिं तथा । अत्युच्चैः रुरुदुः सर्वे गोपा गोप्यः सुरा द्विजाः ॥ १५५ ॥ उसे सुन कर समस्त देववृन्द मूच्छित होकर चित्र की भांति निश्चेष्ट हो गए, किन्तु एक क्षण के उपरान्त चेतना प्राप्त होने पर उन्होंने रासमण्डल की ओर देखा, तो सम्पूर्ण स्थल जलमय हो गया था और भगवान् श्रीकृष्ण तथा राधा जी का कहीं पता नहीं था । अनन्तर गोपगण, गोपिकाएँ देवता और ब्राह्मण गण (अधीर होकर) अति उच्च स्वर से विलाप करने लगे ॥ १५४-१५५ ॥ ध्यानेन धाता बुबुधे सर्वमेतदभीप्सितम् । गतश्च राधया सार्धं श्रीकृष्णो द्रवतामिति ॥ १५६ ॥ ततो ब्रह्मादयः सर्वे तुष्टुवुः परमेश्वरम् । स्वमूर्तिं दर्शय विभो वाञ्छितो वर एष नः ॥ १५७ ॥ उस समय ब्रह्मा ने ध्यान लगा कर भगवान् की सभी अभीप्सित बातों को जान लिया और कहा कि भगवान् श्रीकृष्ण राधा जी समेत जलमय हो गए हैं । पश्चात् ब्रह्मा आदि समस्त देवगण परमेश्वर की स्तुति करते हुए कहने लगे 'विभो ! हमें आप अपनी मूर्ति का दर्शन करायें यही हम लोगों की बड़ी अभिलाषा है ॥ १५६-१५७ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी । तामेव शुश्रुवुः सर्वे सुव्यक्तां मधुरां शुभाम् ॥ १५८ ॥ इस बीच वहाँ आकाशवाणी हुई, जो अत्यन्त स्पष्ट, मधुर और शुभ थी । उसे सभी लोगों ने सुना । उसने कहा-देवगण ! सर्वात्मा मैं और भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाली यह मेरी शक्ति तो वर्तमान हैं ही । अब हम दोनों का विग्रह देखकर क्या करोगे ॥ १५८-१५९ ॥ सर्वात्माऽहमियं शक्तिर्भक्तानुग्रहविग्रहा । ममाप्यस्याश्च हे देवा देहेन च किमावयोः ॥ १५९ ॥ मनवो मानवाः सर्वे मुनयश्चैव वैष्णवाः । मन्मन्त्रपूता मां द्रष्टुमागमिष्यन्ति मत्पदम् ॥ १६० ॥ मनुगण, मनुष्यवृन्द, समस्त मुनि-समूह और वैष्णव लोग मेरे मन्त्र से पवित्र होकर मुझे देखने के लिए मेरे धाम में आयेंगे ॥ १६० ॥ मूर्तिं द्रष्टुं च सुव्यग्रा यूयं यदि सुरेश्वराः । करोतु शंभुस्तत्रैव मदीयं वाक्यपालनम् ॥ १६१ ॥ स्वयं विधाता त्वं ब्रह्मन्नाज्ञां कुरु जगद्गुरो । कर्तुं शास्त्रविशेषं च वेदाङ्गं सुमनोहरम् ॥ १६२ ॥ अपूर्वमन्त्रनिकरैः सर्वाभीष्टफलप्रदैः । स्तोत्रैश्च कवचैर्ध्यानैर्युतं पूजाविधिक्रमैः ॥ १ ६३ ॥ मन्मन्त्रं कवचं स्तोत्रं कृत्वा यत्नेन गोपय । भवन्ति विमुखा ये न जनानां यत्करिष्यति ॥ १६४ ॥ सहस्रेषु शतेष्वेको मन्मन्त्रोपासको भवेत् । ते ते जना मन्त्रपूताश्चाऽऽगमिष्यन्ति मत्पदम् ॥ १६५ ॥ अन्यथा च भविष्यन्ति सर्वे गोलोकवासिनः । निष्फलं भविता सर्वं ब्रह्माण्डं चैव वेधसः ॥ १६६ ॥ सुरेश्वरवृन्द ! यदि तुम लोग मुझे देखने के लिए अत्यन्त चिन्तित हो रहे हो, तो शिव जी से कहो कि उसी स्थान पर मेरे वचनों का पालन करें और ब्रह्मन् ! जगद्गुरो ! तुम स्वयं विधाता हो । शंकर से कह दो कि वे वेदों के अंगभूत परम मनोहर विशिष्ट शास्त्र अर्थात् तन्त्रशास्त्र का निर्माण करें । उसमें सम्पूर्ण अभीष्ट फल देने वाले बहुत-से अपूर्व मंत्र उद्धृत हों, स्तोत्र, ध्यान, पूजा-विधि, मन्त्र और कवच-इन सब से वह शास्त्र सम्पन्न हो । मेरे मंत्र और कवच का निर्माण करके उसे गुप्त रखने का प्रयत्न करो । जो मुझसे विमुख रहें, उन्हें इसका उपदेश नहीं करना चाहिए । सैकड़ों एवं सहस्रों मनुष्यों में कोई एक ही मनुष्य मेरे मन्त्र का उपासक होगा । इससे जो-जो मनुष्य मेरे मन्त्र से पवित्र होंगे वे ही मेरे धाम में आएंगे । यदि मेरे धाम में न आ सकें तो वे सब गोलोक के निवासी हो जायेंगे तब ब्रह्मा का सुरक्षित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निष्फल हो जायगा ॥ १६१-१६६ ॥ जनाः पञ्चप्रकाराश्च युक्ताः स्रष्टुर्भवे भवे । पृथिवीवासिनः केचित्केचित्स्वर्गनिवासिनः ॥ १६७ ॥ अधोनिवासिनः केचिद्ब्रह्मलोकनिवासिनः । केचिद्वा वैष्णवाः केचिन्मम लोकनिवासिनः ॥ १६८ ॥ इदं कर्तुं महादेवः करोतु सुरसंसदि । प्रतिज्ञां सुदृढां सद्यस्ततो मूर्तिं च पश्यसि ॥ १६९ ॥ ब्रह्मा की प्रत्येक सृष्टि में पाँच प्रकार के प्राणी हैं—पृथ्वीनिवासी, स्वर्गनिवासी, पातालनिवासी, ब्रह्मलोकनिवासी और मेरे लोक के निवासी वैष्णव लोग । यदि देव-सभा में महादेव ऐसा शास्त्र-निर्माण करने के लिए सुदृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं, तो तुरन्त मेरी मूर्ति का दर्शन हो जाएगा ॥ १६७-१६९ ॥ इत्येवमुक्त्वा गगने विरराम सनातनः । तद् दृष्ट्वा तां जगद्धाता तमुवाच शिवं मुदा ॥ १७० ॥ भगवान् सनातन आकाश में इतना कह कर चुप हो गए । इसे देखकर जगत्पति ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर (भगवान्) शंकर से उसकी पूर्ति के लिए अनुरोध किया ॥ १७० ॥ ब्राह्मणो वचनं श्रुत्वा ज्ञानेशो ज्ञानिनां वरः । गङ्गातोयं करे धृत्वा स्वीचकार वचस्तु सः ॥ १७१ ॥ ब्रह्मा की बात सुन कर ज्ञानिप्रवर और ज्ञानेश्वर शिव ने गंगाजल हाथ में लेकर उसकी स्वीकृति के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा की ॥ १७१ ॥ संयुक्तं विष्णुमायाद्यैर्मन्त्राद्यैः शास्त्रमुत्तमम् । वेदसारं करिष्यामि कृष्णाज्ञापालनाय च ॥ १७२ ॥ कि-'भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा के पालनार्थ मैं विष्णु की माया और मन्त्रों आदि से संयुक्त तथा वेद के सारभूत एक उत्तम शास्त्र (तन्त्रशास्त्र) की रचना करूँगा' ॥ १७२ ॥ गङ्गातोयमुपस्पृश्य मिथ्या यदि वदेज्जनः । स याति कालसूत्रं च यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ १७३ ॥ यदि गंगाजल लेकर कोई प्राणी मिथ्या बोलता है, तो ब्रह्मा की आयु पर्यन्त वह कालसूत्र (नरक) में रहता है ॥ १७३ ॥ इत्युक्ते शंकरे ब्रह्मन्गोलोके सुरसंसदि । आविर्बभूव श्रीकृष्णो राधया सह तत्पुरः ॥ १७४ ॥ ब्रह्मन् ! गोलोक की उस देव-सभा में शंकर के इस प्रकार प्रतिज्ञा करने पर राधा समेत भगवान् श्रीकृष्ण तुरन्त प्रकट हो गए ॥ १७४ ॥ ते तं दृष्टा च संहृष्टाः संस्तूय पुरुषोत्तमम् । परमानन्दपूर्णाश्च चक्रुश्च पुनरुत्सवम् ॥ १७५ ॥ उन्हें देखकर देवताओं ने पुरुषोत्तम भगवान् को स्तुति की और परमानन्दमग्न होकर उस उत्सव कां पुनः आरम्भ किया ॥ १७५ ॥ कालेन शंभुर्भगवाञ्छास्त्रदीपं चकार सः । इत्येवं कथितं सर्वं सुगोप्यं च सुदुर्लभम् ॥ १७६ ॥ कुछ समय के उपरान्त भगवान् शंकर ने शास्त्रदीप की (शास्त्रीय मत को प्रकाशित करने वाले सात्त्विक तन्त्रशास्त्र) की रचना की । इस प्रकार मैंने समस्त वृत्तान्त सुना दिया, जो अत्यन्त गोपनीय और सुदुर्लभ है ॥ १७६ ॥ सा चैवं द्रवरूपा या गङ्गा गोलोकसंभवा । राधाकृष्णाङ्गसंभूता भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ॥ १७७ ॥ स्थाने स्थाने स्थापिता सा कृष्णेन परमात्मना । कृष्णस्वरूपा परमा सर्वब्रह्माण्डपूजिता ॥ १७८ ॥ इस प्रकार वही द्रवरूपा गंगा है जो गोलोक में उत्पन्न हुई थीं । राधा और कृष्ण के अंग से उत्पन्न हुई गंगा भुक्ति और मुक्ति दोनों को देने वाली हैं । परमात्मा श्रीकृष्ण की व्यवस्था के अनुसार जगह-जगह रहने का सुअवसर इन्हें प्राप्त हो गया । श्रीकृष्ण-स्वरूपा इन आदरणीया गंगा को सम्पूर्ण ब्रह्मांड के लोग पूजते हैं ॥ १७७-१७८ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गङ्गोपाख्यानं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड में गंगोपाख्यानवर्णन नामक दसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १० ॥ |