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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकादशोऽध्यायः गङ्गोपाख्यानम् -
गंगा का उपाख्यान - नारद उवाच कलेः पञ्चसहस्राब्दे समतीते सुरेश्वरी । क्व गता सा महाभागा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ नारद बोले-कलियुग के पाँच सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर महाभागा गंगा कहाँ जाएंगी ? यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ श्रीनारायण उवाच भारतं भारतोशापात्समागत्येश्वरेच्छया । जगाम तं च वैकुण्ठं शापान्ते पुनरेव सा ॥ २ ॥ नारायण बोले-सरस्वती के शापवश गंगा जी भारत में आयीं और शाप के अन्त होने पर श्रीहरि की आज्ञा से वे पुनः वैकुण्ठ में चली जायेंगी ॥ २ ॥ भारतं भारती त्यक्त्वा चागमत्तद्धरेः पदम् । पद्मावती च शापान्ते गङ्गायाश्चैव नारद ॥ ३ ॥ नारद ! गंगा-शाप के अन्त होने पर सरस्वती और पद्मावती (लक्ष्मी) भी भारत को त्याग कर विष्णु लोक में पधारेंगी ॥ ३ ॥ गङ्गा सरस्वती लक्ष्मीश्चैतास्तिस्रः प्रिया हरेः । तुलसीसहिता ब्रह्मंश्चतस्रः कीर्तिताः श्रुतौ ॥ ४ ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार भगवान् विष्णु की गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी ये तीन स्त्रियाँ हैं । तुलसी समेत चार पत्नियाँ वेद में प्रसिद्ध हैं ॥ ४ ॥ नारद उवाच हेतुना केन दैवी वै विष्णुपादाब्जसंभवा । धातुः कमण्डलुस्था च शंकरस्य शिरोगता ॥ ५ ॥ बभूव सा मुनिथच्छे गङ्गा नारायणप्रिया । अहो केन प्रकारेण तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥ नारद बोले -गंगा देवी भगवान् विष्णु के चरणकमल से क्यों निकली, ब्रह्मा के कमण्डल में क्यों स्थित हुई और शंकर के मस्तक पर कैसे पहुँची ? मुनिश्रेष्ठ ! वही गंगा भगवान् विष्णु की प्रिया किस प्रकार हुई, यह सब मुझे बताने की कृपा करें ॥ ५-६ ॥ श्रीनारायण उवाच पुरा बभूव गोलोके सा गङ्गा द्रवरूपिणी । राधाकृष्णाङ्गसंभूता तदंशा तत्स्वरूपिणी ॥ ७ ॥ नारायण बोले-पूर्वकाल में गंगा गोलोक में जल रूप से विराजमान थीं । राधा और कृष्ण के अंग से उत्पन्न यह गंगा उनका अंश और उन्हीं का स्वरूप हैं ॥ ७ ॥ द्रवाधिष्ठातृरूपा या रूपेणाप्रतिमा भुवि । नवयौवनसंपन्ना रत्नाभरणभूषिता ॥ ८ ॥ जल की अधिष्ठात्री देवी गंगा भूतल पर अनुपम रूपवती, नवयौवना और रत्नों के आभूषणों से विभूषिता थीं ॥ ८ ॥ शरन्मध्याह्नपद्मास्या सस्मिता सुमनोहरा । तप्तकाञ्जनवर्णाभा शरचन्द्रसमप्रभा ॥ ९ ॥ शरद् ऋतु के मध्याह्नकाल में कमल की भांति उनका मुस्कान भरा मुख परम मनोहर था । उनकी आभा तपाये हुए सुवर्ण के सदृश थी । तेज में वह शरत्काल के चन्द्रमा को भी लज्जित कर रही थीं ॥ ९ ॥ स्निग्धप्रभाऽतिसुस्निग्धा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी । सुपीनकठिनश्रोणी सुनितम्बयुगं वरम् ॥ १० ॥ पीनोन्नतं सुकठिनं स्तनयुग्मं सुवर्तुलम् । सुचारुनेत्रयुगलं सुकटाक्षं सुवक्रिमम् ॥ ११ ॥ वक्रिमं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् । सिन्दूरबिन्दुललितं सार्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ १२ ॥ कस्तूरीपत्रिकायुक्तं गण्डयुग्मं मनोहरम् । बन्धूककुसुमाकारमधरोष्ठं च सुन्दरम् ॥ १३ ॥ पक्वदाडिमबीजाभदन्तपङ्क्तिसमुज्ज्वलम् । वाससी वह्निशुद्धे च नीवीयुक्ते च बिभ्रती ॥ १४ ॥ स्निग्ध प्रभा के कारण उनके शरीर में अत्यन्त चिकनाहट थी । उनका शुद्ध सात्त्विक स्वरूप था । उनकी श्रोणी मांसल और कठोर थी । दोनों नितम्ब मनोहर थे । दोनों कुच स्थूल, उत्तुंग तथा गोल थे । दोनों नेत्र सुन्दर कटाक्ष एवं सुन्दर भंगिमा सहित आकर्षक थे । धुंघराले केशपाश पर मालतीमाला शोभायमान थी । ललाट पर चन्दन-बिंदुओं के साथ सिदूर की संदर बिंदी थी । दोनों मनोहर कपोलों पर कस्तूरी से पत्र-रचनायें हुई थीं । अधरोष्ठ दुपहरिया के विकसित पुष्प के समान सुन्दर था । दाँतों को अत्यंत उज्ज्वल पंक्ति पके हुए अनार के दानों की भाँति चमक रही थी । अग्निशुद्ध दो दिव्य वस्त्रों को उन्होंने धारण कर रखा था ॥ १०-१४ ॥ सा सकामा कृष्णपार्श्वे समुत्तस्थे सुलज्जिता । वाससा मुखमाच्छाद्य लोचनाभ्यां विभोर्मुखम् ॥ १५ ॥ निमेषरहिताभ्यां च पिबन्ती सततं मुदा । प्रफुल्लवदना हर्षान्नवसंगमलालसा ॥ १६ ॥ इस प्रकार अत्यन्त सज-धज कर कामुकीभाव से लजाती हुई वह भगवान् श्रीकृष्ण के समीप विराजमान हो गई । उनका मुखमंडल हर्ष से खिल रहा था । हृदय में नव-संगम की लालसा थी । इसलिए वे आँचल से अपना मुख ढककर अपलक नेत्रों से भगवान् के मुख रूपी अमृत का निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक पान कर रही थीं ॥ १५-१६ ॥ मूर्च्छिता प्रभुरूपेण पुलकाङ्कितविग्रहा । एतस्मिन्नन्तरे तत्र विद्यमाना च राधिका ॥ १७ ॥ गोपीत्रिंशत्कोटियुक्ता कोटिचन्द्रसमप्रभा । कोपेन रक्तपद्मास्या रक्तपङ्कजलोचना ॥ १८ ॥ भगवान् के रूप-दर्शन में वे इतना विभोर थीं कि मूच्छित-सी मालूम हो रही थी और उनके शरीर में रोमांच हो रहा था । उस समय वहाँ राधिका जी उपस्थित हो गई, जो तीस करोड़ गोपियों से युक्त तथा करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रभापूर्ण थीं । क्रोध के कारण उनका मुख रक्तकमल की भांति (लाल) हो गया और नेत्र रक्तकमल के समान हो गए ॥ १७-१८ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभा मत्तवारणगामिनी । अमूल्यरत्नखचितनानाभरणभूषिता ॥ १९ ॥ माणिक्यखचितं हारममूल्यं वह्निशौचकम् । पीताभवस्त्रयुगलं नीवीयुक्तं च बिभ्रती ॥ २० ॥ श्वेत चम्पा के समान उनके शरीर का रंग था तथा मतवाले हाथी को भांति चाल थी । अमूल्य रत्नों के बने अनेक भांति के आभूषणों तथा मणियों से खचित अमूल्य हार से वे सुशोभित थीं । उन्होंने अग्नि-विशुद्ध दो पीत वस्त्र इजारबंद के साथ धारण कर रखे थे ॥ १९-२० ॥ स्थलपद्मप्रभाजुष्टं कोमलं च सुरञ्जितम् । कृष्णदत्तार्घ्यसंयुक्तं विन्यस्यन्ती पदाम्बुजम् ॥ २१ ॥ रत्नेन्द्रराजखचितविमानादवरुह्य च । सेव्यमाना च सखिभिः श्वेतचामरवायुना ॥ २२ ॥ उनके चरण-कमल स्थलकमल की भाँति कान्तिपूर्ण, कोमल एवं अत्यन्त रंजित थे, जिन पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्घ्य प्रदान किया था । इस प्रकार के चरणों का विन्यास करती (डग भरती) हुई परमोत्तम रत्नों से खचित विमान से वे नीचे उतरीं । सखियाँ स्वच्छ चवर के वायु से उनकी सेवा कर रही थीं ॥ २१-२२ ॥ कस्तूरीबिन्दुतिलकं चन्दनेन्दुसमन्वितम् । दीप्तदीपप्रभाकारं सिन्दूरारुणसुन्दरम् ॥ २३ ॥ उनके भाल के मध्य में चन्दन के चन्द्रमा युक्त कस्तुरी की बिन्दी की तिलक थी, जोप्रदीप्त दीप-प्रभा के समान आकृति वाली और सिन्दूर की अरुणिमा से अत्यंत सुन्दर थी ॥ २३ ॥ दधती भालमध्ये च सीमान्ताधस्तदुज्ज्वलम् । पारिजातप्रसूनादिमालायुक्तं सुवक्रिमम् ॥ २४ ॥ सुधारुकबरीभारं कम्पयन्ती च कम्पिता । सुचारुनासा संयुक्तमोष्ठं कम्पयती रुषा ॥ २५ ॥ उनके सीमन्त का निचला भाग परम स्वच्छ था । पारिजात के पुष्पों की सुन्दर माला उनके गले में सुशोभित थी । अपनी सुन्दर अलकावली को कंपाती हुई वे स्वयं भी कम्पित हो रही थीं । रोष के कारण उनके सुन्दर रागयुक्त ओष्ठ फड़क रहे थे ॥ २४-२५ ॥ गत्वा तस्थौ कृष्णपार्श्वे रत्नसिंहासने वरे । सखीनां च समूहैश्च परिपूर्णा विभोः सभा ॥ २६ ॥ वे जाकर रत्न-सिंहासन पर कृष्ण के बगल में विराजमान हो गई । परमेश्वर (कृष्ण) की सभा सखियों के समूहों से भर गई ॥ २६ ॥ तां च दृष्ट्वा समुत्तस्थौ कृष्णः सादरमच्युतः । संभाष्य मधुरालापैःसस्मितश्चससंभ्रमः ॥ २७ ॥ उन्हें देख कर अच्युत श्रीकृष्ण उठ कर उनका आदर करके मन्द मुसकान के साथ मधुर वाणी में उनसे बातचीत करने लगे ॥ २७ ॥ प्रणेमुरतिभक्ताश्च गोपा नम्रात्मकंधराः । तुष्टुवुस्ते च भक्त्या तं तुष्टाव परमेश्वरः ॥ २८ ॥ अनन्तर गोपगणों ने भयभीत होकर उन्हें प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक स्तुति प्रारंभ कर दी । परमेश्वर श्रीकृष्ण भी उनकी स्तुति करने लगे ॥ २८ ॥ उत्थाय गङ्गा सहसा संभाषां च चकार सा । कुशलं परिपप्रच्छ भीताऽतिविनयेन च ॥ २९ ॥ गंगा ने भी सहसा उटकर उनका स्तवन किया और भयभीत होकर अत्यन्त विनय के साथ उनसे कुशल पूछा ॥ २९ ॥ नमभावस्थिता त्रस्ता शुष्ककण्ठौष्ठतालुका । ध्यानेन शरणापन्ना श्रीकृष्णचरणाम्बुजे ॥ ३० ॥ उस समय भय के कारण गंगा के कंठ, ओष्ट और ताल सूख गये थे । वे विनीत भाव से खड़ी थीं । उन्होंने ध्यान के द्वारा श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की शरण ली ॥ ३० ॥ तद्धृत्पद्मे स्थितः कृष्णो भीतायै चाभयं ददौ । बभूव स्थिरचित्ता सा सर्वेश्वरवरेण च ॥ ३१ ॥ अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके हृदयकमल में स्थित होकर उन्हें अभयदान दिया और वे सर्वेश्वर भगवान् के वरदान से शांतचित्त हुई ॥ ३१ ॥ ऊर्ध्वं सिहासनस्थां च राधां गङ्गा ददर्श सा । सुस्निग्धा सुखदृश्यां च ज्वलन्तीं ब्रह्मतेजसा ॥ ३२ ॥ पश्चात् गंगा ने ऊपर सिंहा सनासीन श्री राधिकाजी को देखा, जो अत्यन्त स्निग्ध, देखने में अत्यन्त सुखकर और ब्रह्मतेज से प्रदीप्त हो रही थीं ॥ ३२ ॥ असंख्यब्रह्मणामाद्यां चाऽऽदिसृष्टिं सनातनीम् । यथा द्वादशवर्षीयां कन्यां च नवयौवनाम् ॥ ३३ ॥ असंख्य ब्रह्मा की आदि जननी, आदि सृष्टिरूपा तथा सनातनी राधाजी की वह मूर्ति, नवयौवनभूषित बारह वर्ष वाली कन्या के समान प्रतीत हो रही थी ॥ ३३ ॥ विश्ववृन्दे निरुपमां रूपेण च गुणेन च । शान्तां कान्तामनन्तां तामाद्यन्तरहितां सतीम् ॥ ३४ ॥ शुभां सुभद्रां सुभगां स्वामिसौभाग्यसंयुताम् । सौन्दर्यसुन्दरीं श्रेष्ठां सुन्दरीष्वखिलासु च ॥ ३५ ॥ समस्त विश्व में उनके सदृश रूपवती और गुणवती कोई भी नहीं है । वे परम शान्त, कमनीय, अनन्त, आदि-अन्त से रहित, सती, शुभ, अत्यन्त भद्ररूप, सुन्दरी, पति-सौभाग्य से युक्त, सौन्दर्य की रानी तथा सकल सुन्दरियों में श्रेष्ठ थीं ॥ ३४-३५ ॥ कृष्णार्धाङ्गी कृषसमां तेजसा वयसा त्विषा । पूजितां च महालक्ष्म्या महालक्ष्मीश्वरेण च ॥ ३६ ॥ प्रच्छाद्यमानां प्रभया सभामीशस्य सुप्रभाम् । सखीदत्तं च ताम्बूलं गृह्णतीमन्यर्लभम् ॥ ३७ ॥ वे भगवान् श्रीकृष्ण की अर्धागिनी, उनके समान तेज, अवस्था और कान्ति से युक्त, महालक्ष्मीश्वर द्वारा पूजित होनेवाली महालक्ष्मी, भगवान् की उस सभा को अपनी कान्ति से आच्छादित करनेवाली एवं अत्यन्त प्रभाव से पूर्ण थीं । सखियों का दिया हुआ दुर्लभ पान वे ग्रहण कर रही थीं ॥ ३६-३७ ॥ अजन्यां सर्वजननीं धन्यां मान्या च मानिनीम् । कृष्णप्राणाधिदेवीं च प्राणप्रियतमां रमाम् ॥ ३८ ॥ वे स्वयं जन्मरहित, समस्त की जननी, धन्या, मान्या, मानिनी, भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी, उनके प्राणों की प्रियतमा एवं रमा रूप हैं ॥ ३८ ॥ दृष्ट्वा रासेश्वरी तृप्तिं न जगाम सुरेश्वरी । निमेषरहिताभ्यां च लोचनाभ्यां पपौ च ताम् ॥ ३९ ॥ रासेश्वरी राधिका जी को इस भांति देखकर गंगा को तृप्ति नहीं हो रही थी । वे अपने अनिमेषलोचनों से उनकी मधुर छवि का एकटक दर्शनपान कर रही थीं ॥ ३९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे राधा जगदीशमुवाच सा । वाचा मधुरया शान्ता विनीता सस्मिता मुने ॥ ४० ॥ मुने ! इसी बीच शान्त, विनीत राधिका ने मन्द-मन्द हँसती हुई मधुरवाणी में जगदीश भगवान् श्रीकृष्ण से कहा ॥ ४० ॥ राधिकोवाच केयं प्राणेश कल्याणी सस्मिता त्वन्मुखाम्बुजम् । पश्यन्तीं सततं पार्श्वे सकामा रक्तलोचना ॥ ४१ ॥ राधिका बोली-हे प्राणेश ! यह कल्याणमूर्ति कौन है, जो तुम्हारे पार्व में बैठकर सस्मित भाव से तुम्हारे मुखकमल को निरन्तर देख रही है ? काम उत्पन्न होने से इसके नेत्र लाल हो गये हैं ॥ ४१ ॥ मूर्छां प्राप्नोति रूपेण पुलकाङ्कितविग्रहा । वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य निरीक्षन्ती पुनः पुनः ॥ ४२ ॥ तुम्हारे रूप पर (मोहित होकर) मूच्छित सी हो रही है । इसके शरीर में रोमांच हो गया है और वस्त्र से अपना मुख ढककर बार-बार तुम्हें देख रही है ॥ ४२ ॥ त्वं चापि मां संनिरीक्ष्य सकामः सस्मितः सदा । मयि जीवति गोलोके भूता दुर्वृत्तिरीदृशी ॥ ४३ ॥ तुम मुझे ही देखकर सदैव सस्मित भाव से कामुक होते थे; किन्तु अब मेरे रहते हुए भी गोलोक में इस प्रकार का दुराचार हो रहा है ॥ ४३ ॥ त्वमेव चैवं दुर्वृत्तं वारं वारं करोषि च । क्षमां करोमि ते प्रेम्णा स्त्रीजातिः स्निग्धभाजसा ॥ ४४ ॥ तुम इस प्रकार का दुर्व्यवहार बार-बार करते आये हो, किन्तु तुम्हारे प्रेम के कारण मैं क्षमा करती आयी हूँ क्योंकि स्त्री जाति कोमल स्वभाव की भोली-भाली होती है ॥ ४४ ॥ संगृह्येमां प्रियामिष्टां गोलोकाद्गच्छ लम्पट । अन्यथा नहि ते भद्रं भविष्यसि सुरेश्वर ॥ ४५ ॥ सुरेश्वर ! (यदि ऐसा ही करना है) तो इसे लेकर यहाँ गोलोक से चले जाओ; अन्यथा तुम्हारा कल्याण नहीं होगा ॥ ४५ ॥ दृष्टस्त्वं विरजायुक्तो मया चन्दनकानने । क्षता कृता मया पूर्वं सखीनां वचनादहो ॥ ४६ ॥ क्योंकि पहले भी एक बार मैंने चन्दनवन में तुम्हें विरजा के साथ देखा था; किन्तु सखियों के कहने से मैंने क्षमा कर दी थी ॥ ४६ ॥ त्वया मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं पुरा । देहं संत्यज्य विरजा नदीरूपा बभूव सा ॥ ४७ ॥ मेरा शब्द सुनते ही तुमने उसे पहले ही तिरोहित कर दिया था । तब, वह (विरजा) अपनी देह का त्याग कर नदी रूप में परिणत हो गई ॥ ४७ ॥ कोटियोजनविस्तीर्णा ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा । अद्यापि विद्यमाना सा तव सत्कीर्तिरूपिणी ॥ ४८ ॥ जो एक करोड़ योजन चौड़ी और उससे चौगुने योजन लम्बी होकर तुम्हारी सत्कीति के रूप में आज भी विद्यमान है ॥ ४८ ॥ गृहं मयि गतायां च पुनर्गत्वा तदन्तिकम् । उच्चैररौषीर्विरजे विरजे चेति संस्मरन् ॥ ४९ ॥ तदा तोयात्समुत्थाय सा योगात्सिद्धयोगिनी । सालंकारा मूर्तिमती ददौ तुभ्यं च दर्शनम् ॥ ५० ॥ जब मैं घर चली गयी तो पुनः उसके समीप जाकर--हा विरजे, हा विरजे ! कहकर तुम उच्च स्वर से (गला' फाड़कर) रोने लगे । उस समय उस सिद्ध योगिनी ने योग द्वारा जल से निकल कर अलंकारों से सज-धज कर तुम्हें अपना दर्शन दिया ॥ ४९-५० ॥ ततस्तां च समाश्लिष्य वीर्याधानं कृतं त्वया । ततो बभूवस्तस्यां च समुद्राः सप्त चैव हि ॥ ५१ ॥ अनन्तर तुमने उसका गाहालिंगन कर उसमें वीर्याधान किया । तब उससे सात समुद्रों की उत्पत्ति हुई ॥ ५१ ॥ दृष्टस्त्वं शोभया गोप्या युक्तश्चम्पककानने । सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया ॥ ५२ ॥ दूसरी बार चम्पक वन में शोभागोपी के साथ (रति करते हुए) तुम पकड़े गये थे । वहाँ भी मेरा शब्द सुनते ही तुमने उसे छिपा दिया ॥ ५२ ॥ शोभा देहं परित्यज्य प्राविशच्चन्द्रमण्डलम् । ततस्तस्याः शरीरं च स्निग्धं तेजो बभूव ह ॥ ५३ ॥ संविभज्य त्वया दत्तं हृदयेन विदूयता । रत्नाय किंचित्स्वर्णाय किंचिन्सतिवराय च ॥ ५४ ॥ किंचित्स्त्रीणां मुखाब्जेभ्यः किंचिद्राज्ञे च किंचन । किंचित्प्रकृष्टवस्त्रेभ्यो रौप्येभ्यश्चापि किंचन ॥ ५५ ॥ किंचिच्चन्दनपङ्तेभ्यस्तोयेभ्यश्चापि किंचन । किंचित्किसलयेभ्यश्च पुष्पेभ्यश्चापि किंचन ॥ ५६ ॥ किंचित्फलेभ्यः सस्येभ्यः सुपक्वेभ्यश्च किंचन । नृपदेवगृहेभ्यश्च संस्कृतेभ्यश्च किंचन ॥ किंचिन्नूतनवस्त्रेभ्यो गोरसेभ्यश्च किंचन ॥ ५७ ॥ अनन्तर शोभा ने देहत्याग कर चन्द्रमण्डल में प्रवेश किया और उसका शरीर परम स्निग्ध तेज बन गया । तब तुमने हार्दिक समवेदना प्रकट करते हुए उस तेज का विभाग कर रत्न, सुवर्ण, श्रेष्ठ वुद्धिवाले मनुष्य, स्त्रियों के मुखकमल, राजा, उत्तम वस्त्र, चांदी, चन्दनपंक, जल, नूतन पल्लव, पुष्प, फल, पके अन्न, सुसंस्कृत राजगृह और देवमंदिरों में थोड़ा-थोड़ा करके बांट दिया ॥ ५३-५७ ॥ दृष्टस्त्वं प्रभया गोप्या युक्तो वृन्दावने वने । सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया ॥ ५८ ॥ फिर तुम वृन्दावन में प्रभा गोपी के साथ समागम करते देखे गये । मेरा शब्द सुनते ही तुमने उसे अन्तर्हित कर दिया ॥ ५८ ॥ प्रभा देहं परित्यज्य प्राविशत्सूर्यमण्डलम् । ततस्तस्याः शरीरं च तीक्ष्णं तेजो बभूव ह ॥ ५९ ॥ किन्तु प्रभा अपना शरीर छोड़ कर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट हो गयी और उसकी देह तीक्ष्ण तेज में परिणत हो गयी ॥ ५९ ॥ संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा च रुदता पुरा । विभज्य चक्षुषोर्दत्तं लज्जया मद्भयेन च ॥ ६० ॥ हुताशनाय किंचिच्च नृपेभ्यश्चापि किंचन । किंचित्पुरुषसंघेभ्यो देवेभ्यश्चापि किंचन ॥ ६१ ॥ किंचिद्दस्युगणेभ्यश्च नागेभ्यश्चापि किंचन । ब्राह्मणेभ्यो मुनिभ्यश्च तपस्विभ्यश्च किंचन ॥ ६२ ॥ स्त्रीभ्यः सौभाग्ययुक्ताभ्यो यशस्विभ्यश्च किंचन । तच्च दत्त्वा च सर्वेभ्यः पूर्वं रोदितुमुद्यतः ॥ ६३ ॥ रोते हुए तुमने प्रेम से उस तेज का विभाजन किया और लज्जा तथा मेरे भय के कारण, नेत्र, अग्नि, राजा, जनसमुदाय, देवता, चोरगण, नागगण, ब्राह्मण, मुनि, तपस्वी, सौभाग्यवती स्त्री और यशस्वी व्यक्तियों में बाँट दिया । इस प्रकार वह तेज सभी लोगों को देकर तुम पहले की भाँति रोने लगे ॥ ६०-६३ ॥ शान्त्या गोप्या युतस्त्वं च दृष्टो वै रासमण्डले । वसन्ते पुष्पशय्यायां माल्यवांश्चन्दनोक्षितः ॥ ६४ ॥ पुन: तुम रासमण्डल के अवसर पर बसन्त के समय का लेप लगाये और पुष्प माला धारण किये पुष्प की शय्या पर शान्ति गोपी के साथ (विहार करते) देखे गये थे ॥ ६४ ॥ रत्नप्रदीपैर्युक्तश्च रत्ननिर्मितमन्दिरे । रत्नभूषणभूषाढ्यो रत्नभूषितया सह ॥ ६५ ॥ त्वया दत्तं च ताम्बूलं भुक्तवत्यै सुवासितम् । तया दत्तं च ताम्बूलं भुक्तवांस्त्वं पुरा विभो ॥ ६६ ॥ विभो ! उस रत्न जड़े हुए महल में रत्नप्रदीप के प्रकाश में तुम दोनों रत्नों के भूषणों से भूषित होकर एक दूसरे को सुवासित पान खिला रहे थे ॥ ६५-६६ ॥ सद्यो मच्छब्दमात्रेण तिरोधानं कृतं त्वया । शान्तिर्देहं परित्यज्य भिया लीना त्वयिप्रभो ॥ ६७ ॥ प्रभो ! उस समय मेरा शब्द सुनते ही तुमने उसे छिपा दिया किन्तु भयभीत होकर वह शान्ति अपनी देह त्याग कर तुममें लीन हो गयी ॥ ६७ ॥ ततस्तस्याः शरीरं च गुणश्रेष्ठं बभूव ह । संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा च रुदता पुरा ॥ ६८ ॥ विश्वे विषयिणे किंचित्सत्त्वरूपाय विष्णवे । शुद्धसत्त्वस्वरूपायै किंक्तिलक्ष्म्यै पुरा विभो ॥ ६९ ॥ त्वन्मन्त्रोपासकेभ्यश्च वैष्णवेभ्यश्च किंचन । तपस्विभ्यश्च धर्माय धर्मिष्ठेभ्यश्च किंचन ॥ ७० ॥ और उसका शरीर श्रेष्ठ गुण में परिवर्तित हो गया । अनन्तर सप्रेम रुदन करते हुए तुमने उसका विभाजन करके विश्व में विषयी, सत्त्वरूप विष्णु और शुद्ध सत्त्व स्वरूपा महालक्ष्मी, तुम्हारे मन्त्र के उपासक वैष्णवगण, तपस्वीगण, धर्म और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को सौंप दिया ॥ ६८-७० ॥ मया पूर्वं हि दृष्टस्त्वं गोप्या च क्षमया सह । सुवेषवान्माल्यवांश्च गन्धचन्दनसंयुतः ॥ ७१ ॥ फिर मैंने क्षमा गोपी के साथ तुम्हें देखा था । तुम उस समय उत्तम वेष बनाये-पुष्पमाला पहने और सुगंधित चन्दन से चर्चित थे ॥ ७१ ॥ रत्नभूषितया चारुचन्दनोक्षितया तया । सुखेन मूर्च्छितस्तल्पे पुष्पचन्दनसंयुते ॥ ७२ ॥ श्लिष्टोऽभून्निद्रया सद्यः सुखेन नवसंगमात् । मया प्रबोधितौ सा च भवांश्च स्मरणं कुरु ॥ ७३ ॥ पुष्प और चन्दन से सुवासित उस शय्या पर तुम रत्नों के आभूषणों से विभूषित तथा सुन्दर चन्दन से चर्चित उस रमणी के साथ सुखविहार कर रहे थे; अनन्तर नवसमागम के कारण तुम दोनों शीघ्र ही निद्रामग्न हो गये । तब मैंने ही तुम दोनों को जगाया, यह स्मरण करो ॥ ७२-७३ ॥ गृहीतं पीतवस्त्रं ते मुरली च मनोहरा । वनमाला कौस्तुभश्चाप्यमूल्यं रत्नकुण्डलम् ॥ ७४ ॥ पश्चात्प्रदत्तं प्रेम्णा च सखीनां वचनादहो । लज्जया कृष्णवर्णोऽभूदद्यापि च भवान्प्रभो ॥ ७५ ॥ उस समय मैंने तुम्हारा पीताम्बर, मनोहर मुरली, वनमाला, कौस्तुभमणि और अमूल्य रत्नकुण्डल ले लिये । किन्तु प्रेमवश और सखियों के कहने से मैंने पुनः तुम्हें उन चीजों को लौटा दिया । प्रभो ! उसी लज्जा के कारण आप कृष्ण वर्ण के हो गये, जो आज भी दिखाई दे रहे हैं ॥ ७४-७५ ॥ क्षमा देहं परित्यज्य लज्जया पृथिवीं गता । ततस्तस्याः शरीरं च गुणश्रेष्ठं बभूव ह ॥ ७६ ॥ और क्षमा ने लज्जित होकर देह त्याग दी तथा पृथिवी में प्रवेश किया । उसका शरीर श्रेष्ठ गुणों में परिणत हो गया ॥ ७६ ॥ संविभज्य त्वया दत्तं प्रेम्णा च रुदता पुरा । किंचिद्दत्तं विष्णवे च वैष्णवेभ्यश्च किंचन ॥ ७७ ॥ धर्मिष्ठेभ्यश्च धर्माय दुर्बलेभ्यश्च किंचन । तपस्विभ्योऽपि देवेभ्यः पण्डितेभ्यश्च किंचन ॥ ७८ ॥ तब प्रेम का आँसू बहाते हुए तुमने उसका विभाग कर विष्णु, वैष्णवों, धर्मनिष्ठों, धर्म, दुबलों, तपस्वियों, देवताओं और पण्डितों को थोड़ा-थोड़ा करके बाँट दिया ॥ ७७-७८ ॥ एतत्ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि । त्वद्गुणं बहुविस्तारं जानामि च परं प्रभो ॥ ७९ ॥ प्रभो ! यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? मैं तुम्हारे गुणों को बहुत विस्तार से जानती हूँ ॥ ७९ ॥ इत्येवमुक्त्वा सा राधा रक्तपङ्कजलोचना । गङ्गा वक्तुं समारेभे नम्रास्यां लज्जिता सतीम् ॥ ८० ॥ इतना कहकर लालकमल के समान नेत्रों वाली राधा ने गंगा से कहना आरम्भ किया, जो लज्जित होकर कारण नीचे मुख किये खड़ी थी ॥ ८० ॥ गङ्गा रहस्यं योगेन ज्ञात्वा वै सिद्धयोगिनी । तिरोभूय सभामध्यात्स्वजलं प्रविवेश सा ॥ ८१ ॥ उस समय सिद्धयोगिनी गंगा योग द्वारा समस्त रहस्य जानकर से तिरोहित होकर अपने जल में प्रविष्ट हो गयीं ॥ ८१ ॥ राधा योगेन विज्ञाय सर्वत्रावस्थितां च ताम् । पानं कर्तुं समारेभे गण्डूषात्सिद्धयोगिनी ॥ ८२ ॥ अनन्तर सिद्धयोगिनी राधिका ने भी योग द्वारा गंगा को सब स्थानों में जलरूप से अवस्थित देखकर अंजलि से उठाकर पीना आरम्भ कर दिया ॥ ८२ ॥ गङ्गा रहस्यं योगेन ज्ञात्वा वै सिद्धयोगिनी । श्रीकृष्णचरणाम्भोजं परमं शरणं ययौ ॥ ८३ ॥ इस रहस्य को सिद्ध योगिनी गंगा ने योगबल से जान कर भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमल की शरण ली ॥ ८३ ॥ गोलोकं चैव वैकुण्ठं ब्रह्मलोकादिकं तथा । ददर्श राधा सर्वत्र नैव गङ्गा ददर्श सा ॥ ८४ ॥ अनन्तर राधिका ने गोलोक, वैकृष्ट और ब्रह्मलोक आदि समस्त लोकों में सभी स्थान में हूंढा किन्तु गंगा कहीं भी दिखायीनी ॥ ८४ ॥ सर्वतो जलशून्यं च शुष्कं गोलोकपङ्कजम् । जलजन्तुसमहैश्च मृतदेहैः समिन्वतम् ॥ ८५ ॥ चारों ओर जलशन्य दिखायी देता था । गोलोक का कमल भी सूख गया था । जल-जन्तों अपने शरीर छोड़ चुके थे ॥ ८५ ॥ ब्रह्मविष्णुशिवानन्तधर्मेन्द्रेन्दुदिवाकराः । मनवो मानवाः सर्वे देवाः सिद्धास्तपस्विनः ॥ ८६ ॥ गोलोकं च समाजग्मुः शुष्ककण्ठौष्ठतालुकाः । सर्वे प्रणेमुर्गोविन्दं सर्वेशं प्रकृतेः परम् ॥ ८७ ॥ वरं वरेण्यं वरदं वरिष्ठं वरकारणम् । वरेशं च वरार्हं च सर्वेषां प्रवरं प्रभुम् ॥ ८८ ॥ निरीहं च निराकारं निर्लिप्तं च निराश्रयम् । निर्गुणं च निरुत्साहं निर्व्यूहं च निरञ्जनम् ॥ ८९ ॥ स्वेच्छामयं च साकारं भक्तानुग्रहविग्रहम् । सत्यस्वरूपं सत्येशं साक्षिरूपं सनातनम् ॥ ९० ॥ परं परेशं परमं परमात्मानमीश्वरम् । प्रणम्य तुष्टुवुः सर्वे भक्तिनम्रात्मकंधराः ॥ ९१ ॥ सगद्गदाः साश्रुनेत्राः पुलकाङ्कितविग्रहाः । सर्वे संस्तूय सर्वेशं भगवन्तं परं हरिम् ॥ ९२ ॥ अनन्तर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त, धर्म, इन्द्र, सूर्य, मनु, मानव, समस्त देव. मित और तपस्वी-सभी कण्ठ, ओंठ और तालू के सूख जाने पर (विह वल होकर) गोलोक में आये । प्रकृति से परे सर्वेश गोविन्द को प्रणाम किया । उत्तम, परमपूज्य, वरप्रद, सबसे महान्, बर के कारण, वर के प्रभु, वर देने योग्य, वरप्रद, सबके परम प्रभु, निरीह, निराकार, निलिप्त, निराश्रय, निर्गुण, निरुत्साह, अशरीरी, निरञ्जन, स्वेच्छामय, साकार, भक्तों के अनुग्रहार्थ प्रकट होने वाले, सत्यस्वरूप, सत्येश, साक्षीरूप, सनातन, श्रेष्ठ, श्रेष्ठाधीश्वर एवं परमात्मा ईश्वर को प्रणाम करके वे सब उनकी स्तुति करने लगे । भक्ति के कारण उनके कंधे झुक गए थे । उनकी वाणी गद्गद हो गयी थी । आँखों में आँसू भर आये थे । उनके सभी अंगों में पुलकावली छायी थी । सबने उन परात्पर ब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की ॥ ८६-९२ ॥ ज्योतिर्मयं परं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् । अमूल्यरत्नखचितचित्रसिंहासनस्थितम् ॥ ९३ ॥ स समय ज्योतिरूप परब्रह्म, जो समस्त कारणों के कारण हैं, अमूल्य रत्नों द्वारा खचित चित्र-विचित्र सिंहासन पर सुशोभित हो रहे थे ॥ ९३ ॥ सेव्यमानं च गोपालैः श्वेतचामरवायुना । गोपालिकानृत्यगीतं पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ ९४ ॥ गोपालगण श्वेत चामर से उनकी सेवा कर रहे थे और वे प्रसन्नमुख से मन्द मुसकान करते हुए गोपियों का नृत्य-गान देख रहे थे ॥ ९४ ॥ वल्गुवेषैः परिवृतं गोपैश्च शतकोटिभिः । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं रत्नभूषणभूषितम् ॥ ९५ ॥ नवीननीरदश्यामं किशोरं पीतवाससम् । यथा द्वादशवर्षीयं बालं गोपालरूपिणम् ॥ ९६ ॥ सुन्दर वेष बनाये हुए सौ करोड़ गोपगण उन्हें चारों ओर से घेर कर सेवा कर रहे थे । श्रीकृष्ण का शरीर चन्दन से चर्चित तथा रत्नों के भूषणों से भूषित था । उनका वर्ण नूतन धन की भांति श्याम था । वे किशोरावस्था से युक्त तथा पीताम्बर से भूषित बारह वर्ष के गोपालबालक के रूप में विराजमान थे ॥ ९५-९६ ॥ कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहम् । स्वतेजसा परिवृतं सुखदृश्यं मनोहरम् ॥ ९७ ॥ कोटिकन्दर्पसौन्दर्यलीलालावण्यविग्रहम् । दृश्यमानं च गोपीभिः सस्मिताभिश्च संततम् ॥ ९८ ॥ करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा से पूर्ण, पुष्ट और श्रीसम्पन्न शरीर धारण करके वे अपने तेज को चारों ओर फैला रहे थे । उनका वह मनोहर रूप आनन्द से देखने योग्य था । करोड़ों कन्दपों के सौन्दर्य से बढ़े-चढ़े उस रूप को मुसकराती हुई गोपियाँ सतत देख रही थीं ॥ ९७-९८ ॥ भूषणैर्भूषिताभिश्च महारत्नविनिर्मितैः । पिबन्तीभिर्लोचनाभ्यां मुखचन्द्रं प्रभोर्मुदा ॥ ९९ ॥ प्राणाधिकप्रियतमाराधावक्षःस्थलस्थितम् । तया प्रदत्तं ताम्बूलं भुक्तवन्तं सुवासितम् ॥ १०० ॥ परिपूर्णतमं रासे ददृशुः सर्वतः सुराः । मुनयो मानवाः सिद्धास्तपसा च तपस्विनः ॥ १०१ ॥ प्रहृष्टमानसाः सर्वे जग्मुः परमविस्मयम् । महारत्नों के भूषणों से भूषित वे गोपियाँ प्रसन्न मुखमुद्रा में भगवान् श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र का अपने नेत्रों से पान कर रही थी । और प्राणों से भी अधिक प्रिय राधा उनके वक्षःस्थल पर शोभा पा रही थीं । उनके दिये हुए सुवासित पान ये चबा रहे थे । ऐसे ये देवाधिदेव परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण रासमंडल में विराजमान थे । वहीं देवगण, मुनिगण, मानवगण, सिद्धों और तपस्वियों ने उनके दिव्य दर्शन प्राप्त किये । सनको महान् आश्चर्य हुआ ॥ ९९-१०१.५ ॥ परस्परं समालोच्य ते तमूचुश्चतुर्मुखम् ॥ १०२ ॥ नन्तर आपस में विचार-विमर्श करके उन लोगों ने अपना अभिप्राय भगवान् जगदीश्वर से निवेदन करने के हेतु ब्रह्मा से कहा ॥ १०२ ॥ निवेदितुं जगन्नाथं स्वाभिप्रायमभीप्सितम् ॥ ब्रह्मा तद्वचनं श्रुत्वा स्थितं विष्णोस्तु दक्षिणे ॥ १०३ ॥ वामतो वामदेवस्य चागमत्कृष्णमुत्तमम् । परमानन्दयुक्तं च परमानन्दरूपकम् ॥ १०४ ॥ सर्वं कृष्णमयं धाता चापश्यद्रासमण्डले । सर्वं समानवेषं च समानासनसंस्थितम् ॥ १०५ ॥ द्विभुजं मुरलीहस्तं वनमालाविभूषितम् । मयूरपुच्छचूडं च कौस्तुभेन विराजितम् ॥ १०६ ॥ अतीव कमनीयं च सुन्दरं शान्तविग्रहम् । गुणभूषणरूपेण तेजसा वयसा त्विषा ॥ १०७ ॥ वाससा यशसा कीर्त्या मूर्त्या सुन्दरया समम् । परिपूर्णतमं सर्वं सर्वैश्वर्यसमन्वितम् ॥ १०८ ॥ ब्रह्मा देवों की बातें सुनकर विष्णु को दाहिने और महादेव को बायें करके भगवान् श्रीकृष्ण के समीप पहुंचे । उन्होंने उस रासमण्डल में सबको परमानन्दयुक्त और परमानन्दस्वरूप भगवान् कृष्णमय देखा । वहाँ सभी लोग समान वेष, समान सिंहासन पर स्थित, दो भुजाधारी, हाथ में मुरली लिये हुए, वनमाला से भूषित, (मकुट में) मोरपंख लगाये, कौस्तुभमणि से सुशोभित, अत्यन्त सुन्दर एवं शान्त स्वरूप थे । तथा गुण, भूषण, रूप, तेज, अवस्था, तेज, वस्त्र, यश, आकृति, मूर्ति और सुन्दरता में सब एक जैसे थे । सभी व्यक्ति समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न तथा परिपूर्णतम थे ॥ १०३-१०८ ॥ कः सेव्यः सेवको वेति दृष्ट्वा निर्वक्तुमक्षमः । क्षणं तेजः स्वरूपं च रूपराशियुतं क्षणम् ॥ निराकारं च साकारं ददर्श द्वैधलक्षणम् ॥ १०९ ॥ एकमेव क्षणं कृष्णं राधया सहितं परम् । प्रत्येकासनसंस्थं च तया च सहितं क्षणम् ॥ ११० ॥ उन्हें देखकर कौन स्वामी है और कौन सेवक, इसका निर्णय करने में ब्रह्मा भी समर्थ न हो सके । क्योंकि क्षण मात्र में तेजःस्वरूप, क्षण में रूपराशियुक्त, क्षण में कहीं अकेले कृष्ण और कहीं राधा समेत तथा कहीं क्षण में राधासमेत कृष्ण प्रत्येक सिंहासनों पर बैठे दीख पड़ते थे ॥ १०९-११० ॥ राधारूपधरं कृष्णं कृष्णरूपकलत्रकम् । किं स्त्रीरूपं च पुंरूपं विधाता ध्यातुमक्षमः ॥ १११ ॥ राधारूप कृष्ण और कृष्णरूप राधा को देखकर कौन स्त्री रूप है और कौन पुरुष रूप, इस रहस्य को विधाता नहीं समझ सके ॥ १११ ॥ हृत्पद्मस्थं च श्रीकृष्णं धाता ध्यानेन चेतसा । चकार स्तवनं भक्त्या प्रणम्याथ त्वनेकधा ॥ ११२ ॥ तब उन्होंने अपने हृदय-कमल में स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान किया और भक्तिपूर्वक अनेक बार प्रणाम करके स्तुति करने लगे ॥ ११२ ॥ ततः स चक्षुरुन्मील्य पुनश्च तदनुज्ञया । अपश्यत्कृष्णमेकं च राधावक्षः स्थलस्थितम् ॥ ११३ ॥ अनन्तर भगवान् की आज्ञा से ब्रह्मा ने नेत्र खोला तो राधाजी के वक्षःस्थल पर स्थित एक भगवान् श्रीकृष्ण ही उन्हें दिखायी पड़े ॥११३ ॥ स्वपार्षदैः परिवृतं गोपीमण्डलमण्डितम् । पुनः प्रणेमुस्तं दृष्ट्वा तुष्टुवुश्च पुनश्च ते ॥ ११४ ॥ जो अपने पार्षदों से घिरे हुए गोपीमण्डल से मण्डित थे । देवों ने उन्हें देखकर बार-बार प्रणाम और बार-बार स्तुति की ॥ ११४ ॥ विज्ञाय तदभिप्रायं तानुवाच सुरेश्वरः । सर्वा मा सर्वयज्ञेशः सर्वेशः सर्वभावनः ॥ ११५ ॥ उनके अभिप्राय को जानकर देवों के अधीश्वर, सबके आत्मा, समस्त यज्ञों के ईश, समस्त (चराचर) के ईश और और सबके स्रष्टा भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा ॥ ११५ ॥ श्रीभगवानुवाच आगच्छ कुशलं ब्रह्मन्नागच्छ कमलायते । इहाऽऽगच्छ महादेव शश्वत्कुशलमस्तु वः ॥ ११६ ॥ श्री भगवान बोले-ब्रह्मन, कमलापते ! आओ, और महादेव ! यहाँ आओ, तुम लोगों की निरन्तर कुशल हो ॥ ११६ ॥ आगताः स्थ महाभागा गङ्गानयनकारणात् । गङ्गा मच्चरणाम्भोजे भयेन शरणं गता ॥ ११७ ॥ महाभागो ! तुम लोग गंगा को ले जाने के लिए यहाँ आये हो । किन्तु गंगा भयभीत होकर हमारे चरणकमलों में छिपी हैं ॥ ११७ ॥ राधेमां पातुमिच्छन्ती दृष्ट्वा मत्संनिधानतः । दास्यामीमां बहिः कृत्वा यूयं कुरुत निर्भयाम् ॥ ११८ ॥ राधिका मेरे समीप उसे देखकर उसका पान करना चाहती हैं । अतः मैं इसे तुम लोगों को दे रहा हूँ । तुम लोग इसे यहाँ से बाहर ले जाकर निर्भय बनाओ ॥ ११८ ॥ श्रीकृष्णस्य वचः श्रुत्वा सस्मितः कमलोद्भवः । तुष्टाव सर्वाराध्यां तां राधां श्रीकृष्णपूजिताम् ॥ ११९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की बातें सुनकर हँसते हुए ब्रह्मा भगवान् की पूज्या और सब की आराध्या श्री राधिका की स्तुति करने लगे ॥ ११९ ॥ वक्त्रैश्चतुर्भिः संस्तूय भक्तिनम्रात्मकंधरः । धाता चतुर्णां वेदानामुवाच चतुराननः ॥ १२० ॥ चारों वेदों के प्रणेता चतुरानन ब्रह्मा ने भक्ति से कंधों को झुकाकर अपने चारों मुखों से स्तुति करके यह कहा ॥ १२० ॥ ब्रह्मोवाच गङ्गा त्वदङ्गसंभूता प्रभोर्वै रासमण्डले । युवयोर्द्रवरूपा या मुग्धयोः शंकरः स्वराट् ॥ १२१ ॥ कृष्णांशा च त्वदंशा च त्वत्कन्यासदृशी प्रिया । त्वन्मन्त्रग्रहणं कृत्वा करोतु तव पूजनम् ॥ १२२ ॥ भविष्यति पतिस्तस्या वैकुण्ठे च चतुर्भुजः । भूगतायाः कलायाश्चलवणोदश्चवारिधिः ॥ १२३ ॥ ब्रह्मा बोले–देवी ! वह गंगा आपके तथा भगवान् श्रीकृष्ण के अंग से समुत्पन्न है । आप दोनों महानुभाव रासमंडल में पधारे थे । शंकर के संगीत ने आपको मुग्ध कर दिया था । उसी अवसर पर यह द्रव रूप में प्रकट हो गई । इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण का और आपका अंश होने के कारण यह आपकी प्रिय कन्या के सदृश है । यह आपके मन्त्र को ग्रहण करके आपका पूजन करे । इसके पति वैकुण्ठनिवासी चतुर्भुज विष्णु होंगे और अपनी कलामात्र से पृथ्वी पर जाने पर, लवण समुद्र इसका पति होगा ॥ १२१-१२३ ॥ गोलोकस्य च या राधा सर्वत्रस्था तथात्मिका । तदात्मिका त्वं देवेशि सर्वदा च तवाऽऽत्मजा ॥ १२४ ॥ देवेशि ! जो राधा गोलोक में है वे सर्वत्र हैं । आप इसकी माता हैं और यह सर्वदा आपकी कन्या है ॥ १२४ ॥ ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा स्वीचकार च सस्मिता । वह्निर्बभूव सा कृष्णपादाङ्गुष्ठनखाग्रतः ॥ १२५ ॥ तत्रैव संवृता शान्ता तस्थौ तेषां च मध्यतः । उवास तोयादुत्थाय तदधिष्ठातृदेवता ॥ १२६ ॥ तत्तोयं ब्रह्मणा किंचित्स्थापितं च कमण्डलौ । किंचिद्दधार शिरसि चन्द्रार्धे चन्द्रशेखरः ॥ १२७ ॥ ब्रह्मा की बात सुनकर राधा ने मन्दहास करती हुई अपनी स्वीकृति प्रदान की । अनन्तर गंगा भगवान् श्रीकृष्ण के चरण के अंगूठे के नखाग्र भाग से बाहर निकलकर वहीं उन लोगों के बीच चूंघट काढ़कर शान्त भाव से अवस्थित हो गई । फिर जलस्वरूपा गंगा से उसकी अधिष्ठात्री देवी बाहर आयीं । उस जल के स्वल्प भाग को ब्रह्मा ने अपने कमण्डल में रखा और चन्द्रशेखर शिव ने अपने शिर के चन्द्रार्द्ध भाग में उस जल का कुछ अंश धारण कर लिया ॥ १२५-१२७ ॥ गङ्गायं राधिकामन्त्रं प्रददौ कमलोद्भवः । तत्स्तोत्र कवचं पूजाविधानं ध्यानमेव च ॥ १२८ ॥ सर्वं तत्सामवेदोक्तं पुरश्चर्याक्रमं तथा । गङ्गा तामेव संपूज्य वैकुण्ठं प्रययौ सती ॥ १२९ ॥ नन्तर ब्रह्मा ने गंगा को श्री राधा के मंत्र की दीक्षा दी । साथ ही राधा के स्तोत्र, कवच, पूजाविधान, ध्यान तथा सामवेदानुसार पुरश्चरण का समस्त क्रम बता दिया । सती गंगा ने उन नियमों द्वारा राधा की पूजा करके वैकुण्ठ की यात्रा की ॥ १२८-१२९ ॥ लक्ष्मीः सरस्वती गङ्गा तुलसी विश्वपावनी । एता नारायणस्यैवचतस्रो योषितो मुने ॥ १३० ॥ मुने ! इस प्रकार लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और विश्व को पावन करने वाली तुलसी-ये चारों देवियाँ हैं ॥ १३० ॥ अथ तं सम्मितः कृष्णो ब्रह्माणं समुवाच ह । सर्वं कालस्य वृत्तान्तं दुर्बोध्यमविपश्चिताम् ॥ १३१ ॥ तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने मुसकराकर ब्रह्मा को काल का समस्त वृत्तान्त बताया, जो अपण्डितों के लिए दुर्बोध्य है ॥ १३१ ॥ श्रीकृष्ण उवाच गृहाण गङ्गा हे ब्रह्मन् हे विष्णो हे महेश्वर । शृणु कालस्य वृत्तान्तं यदतीतं निशामय ॥ १३२ ॥ श्रीकृष्ण बोले-ब्रह्मन् ! विष्णो ! और महेश्वर ! तुम लोग गंगा को स्वीकार करो और काल का अतीत वृत्तान्त तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ १३२ ॥ यूयं च येऽन्यदेवाश्च मुनयो मनवस्तथा । सिद्धास्तपस्विनश्चैव ये येऽत्रैव समागताः ॥ १३३ ॥ ते ते जीवन्ति गोलोके कालचक्रविवर्जिते । जलप्लुत सर्वविश्वमागतं प्राकृते लये ॥ १३४ ॥ तुम लोग तथा अन्य देवगण एवं मुनिगण, मनुवृन्द और सिद्ध; तपस्वी आदि जितने यहाँ उपस्थित हैं, वे सब कालचक्ररहित गोलोक में जीवित रहेंगे, क्योंकि इस समय प्राकृत लय होने के कारण समस्त विश्व जलमग्न हो गया है ॥ १३३-१३४ ॥ ब्रह्माद्या येऽन्यविश्वस्थास्ते लीना अधुना मयि । वैकुण्ठं च विना सर्वं सजलं पश्य पद्मज ॥ १३५ ॥ ब्रह्मन् ! विविध ब्रह्मांड में रहने वाले जितने ब्रह्मा आदि प्रधान देवता हैं, वे सब सम्प्रति मुझमें लीन हो गये हैं, क्योंकि वैकुण्ट को छोड़कर सबके सब जलमग्न हैं, देखो ! ॥ १३५ ॥ गत्वा सृष्टिं कुरु पुनर्ब्रह्मलोकादिकं परम् । सब्रह्माण्डं विरचय पश्चाद्गङ्गा च यास्यति ॥ १३६ ॥ तुम लोग जाकर पुनः ब्रह्मलोक आदि समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि आरम्भ करो और पश्चात् गंगा भी वहाँ जायगी ॥ १३६ ॥ एवमन्येषु विश्वेषु सृष्ट्वा ब्रह्मादिकं पुनः । करोम्यहं पुनः सृष्टिं गच्छ शीघ्रं सुरैः सह ॥ १३७ ॥ सी प्रकार अन्य ब्रह्मांडों में भी मैं ब्रह्मा आदि की सृष्टि करके पुनः सबका सर्जन कर रहा हूँ । तुम देवताओं के साथ शीघ्र जाओ ॥ १३७ ॥ मच्चक्षुषोर्निमेषेण ब्रह्मणः पतनं भवेत् । गताः कतिविधास्ते च भविष्यन्ति च वेधसः ॥ १३८ ॥ मेरे पलक भाँजने मात्र से ब्रह्मा की आयु समाप्त होती है, इस प्रकार कितने ब्रह्मा बीत चुके और कितने होंगे कहा नहीं जा सकता ॥ १३८ ॥ इत्युक्त्वा राधिकानाथो जगामान्तःपुरं मुने । देवा गत्वा पुनः सृष्टिं चक्रुरेव प्रयत्नतः ॥ १३९ ॥ स प्रकार राधिकानाथ श्रीकृष्ण जी कहकर अन्तःपुर में चले गये और देवगण जाकर पुनः प्रयत्नपूर्वक सृष्टि करने लगे ॥ १३९ ॥ गोलोके च स्थिता गङ्गा वैकुण्ठे शिवलोकके । ब्रह्मलोके तथाऽन्यत्र यत्र यत्र पुरा स्थिता ॥ १४० ॥ तत्रैव सा गता गङ्गा चाऽज्ञया परमात्मनः । निर्गता विष्णुपादाब्जात्तेन विष्णुपदी स्मृता ॥ १४१ ॥ फिर तो गंगा को गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक और ब्रह्मलोक तथा अन्यत्र भी जिस-जिस स्थान में रहने के लिए परमात्मा श्रीकृष्ण ने आज्ञादी थी, उस-उस स्थान के लिए उसने प्रस्थान कर दिया । भगवान् विष्णु के चरण कमल से निकलने के कारण गंगा को 'विष्णुपदी' कहा जाता है ॥ १४०-१४१ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं गङ्गोपाख्यानमुत्तमम् । सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४२ ॥ इस प्रकार मैंने गंगा का समस्त उपास्यान तुम्हें सुना दिया, जो सुखदायक, मोक्षप्रद और तत्त्वरूप है अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १४२ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गङ्गोपाख्यानं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखंड में गंगोपाख्यान नामक ग्यारहवां अध्याय समाप्त ॥ ११ ॥ |