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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्वादशोऽध्यायः


गङ्गोपाख्यानम् -
गंगोपाख्यान-वर्णन -


नारद उवाच
लक्ष्मीः सरस्वती गङ्गा तुलसी लोकपावनी ।
एता नारायणस्यैव चतस्रश्च प्रिया इति ॥ १ ॥
गङ्गा जगाम वैकुण्ठमिदमेव श्रुतं मया ।
कथं सा तस्य पत्‍नी च बभूव ब्रूहि केशव ॥ २ ॥
नारद बोले-लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और लोकपावनी तुलसी, ये चारों देवियाँ भगवान् विष्णु की ही पत्नियां हैं, और यह भी मैं सुन चुका हूँ कि गंगा वैकुण्ठ को चली गयीं । अतः हे केशव ! वह (गंगा) उन (विष्णु) की पत्नी कैसे हुई, यह बताने की कृपा करें ॥ १-२ ॥

श्रीनारायण उवाच
गङ्गा जगाम वैकुण्ठं तत्पश्चाच्च गतो विधिः ।
गत्वोवाच तया सार्धं प्रणम्यजगदीश्वरम ॥ ३ ॥
नारायण बोले-गंगा के वैकुण्ठ में चले जाने पर उनके पीछे ब्रह्मा भी वहाँ पहुँचे और गंगा के साथ ही भगवान् जगदीश्वर को प्रणाम करके उनसे कहने लगे ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
राधाकृष्णाङ्गसंभूता या देवी द्रवरूपिणी ।
तदधिष्ठातृदेवीयं रूपेणाप्रतिमो भुवि ॥ ४ ॥
नवयौवनसंपन्ना सुशीला सुन्दरी वरा ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च क्रोधाहंकारवर्जिता ॥ ५ ॥
ब्रह्मा बोले-श्रीराघा और भगवान् श्रीकृष्ण के अंग से यह जलमयी गंगा उत्पन्न होकर जल की अधिष्ठात्री देवी हैं । ये भूतल पर अनुपम रूपवती एवं नवीन युवावस्था से भूषित, सुशीला, परम सुन्दरी, शुद्ध सत्त्वस्वरूपा और क्रोध-अहंकार से रहित हैं ॥ ४-५ ॥

यदङ्‌गसंभवा नान्यं वृणोतीयं च तं विना ।
तत्रापि मानिनी राधा महातेजस्विनी वरा ॥ ६ ॥
यह जिनके अंग से उत्पन्न हुई हैं उन्हें छोड़ किसी दूसरे को पति नहीं बनाना चाहतीं । किन्तु वहाँ की महातेजस्विनी राधा अत्यन्त मानिनी हैं ॥ ६ ॥

समुद्यता पातुमिमां भीतेयं बुद्धिपूर्वकम् ।
विवेश चरणाम्भोजे कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ७ ॥
वे इनका पान कर लेने के लिए एकदम तैयार हो गयी थीं; पर भयभीत होते हुए भी इन्होंने बुद्धि से काम लिया-परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणकमल में ये प्रविष्ट हो गईं ॥ ७ ॥

सर्वं विशुष्कं गोलोकं दृष्ट्‍वाऽहमगमं तदा ।
गोलोकं यत्र कृष्णश्च सर्ववृत्तान्तलब्धये ॥ ८ ॥
समस्त विश्व को सूखा हुआ देखकर मैं भगवान् श्रीकृष्ण से समस्त वृत्तान्त जानने के लिए गोलोक में गया ॥ ८ ॥

सर्वान्तरात्मा सर्वं नो ज्ञात्वाऽभिप्रायमेव च ।
बहिश्चकार गङ्गा च पादाङ्गुष्ठनखाग्रतः ॥ ९ ॥
वहाँ सबके अन्तरात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने मेरा सम्पूर्ण अभिप्राय जानकर अपने चरण के अंगूठे के नखाग्र भाग से गंगा को बाहर निकाला ॥ ९ ॥

दत्त्वाऽस्यै राधिकामन्त्रं पूरयित्वा च गोलकम् ।
संप्रणम्य च राधेशं गृहीत्वाऽत्राऽगमं विभो ॥ १० ॥
विभो ! अनन्तर मैंने गंगा को राधिकामन्त्र प्रदान किया और इसके जल से ब्रह्मांड-गोलक को पूर्ण कराया । उपरान्त राधा और श्रीकृष्ण के चरणों में मस्तक झुकाकर इसे साथ लेकर यहाँ आया ॥ १० ॥

गान्धर्वेण विवाहेन गृहाणेमां सुरीश्वरीम् ।
सुरेश्वरस्त्वं रसिको रसिका रसभावनः ॥ ११ ॥
अतः गान्धर्व विवाह द्वारा इस सुरेश्वरी को आप अपनाइए । क्योंकि आप सुरेश्वर, रसिकः, एवं रसिकों के रस के स्रष्टा हैं ॥ ११ ॥

त्वं रत्‍नं पुंसु देवेश स्त्रीरत्‍नं स्त्रीष्वियं सती ।
विदग्धाया विदग्धेन संगमो गुणवान्भवेत् ॥ १२ ॥
फिर आप पुरुषों में रत्न हैं और यह सती स्त्रियों में रत्न मानी जाती है । और विदग्ध (चतुर पुरुष) का विदग्धा (कलापूर्ण नायिका) के साथ समागम सुखकर बताया गया है ॥ १२ ॥

उपस्थितां च यः कन्यां न गृह्णाति मदेन च ।
तं विहाय महालक्ष्मी रुष्टा याति न संशयः ॥ १३ ॥
जो व्यक्ति पास आयी हुई कन्या को अभिमान के कारण स्वीकार नहीं करता है, उससे महालक्ष्मी रुष्ट होकर उसे छोड़कर चली जाती है, इसमें संशय नहीं ॥ १३ ॥

यो भवेत्पण्डितः सोऽपि प्रकृतिं नावमन्यते ।
सर्वे प्राकृतिकाः पुंसः कामिन्यः प्रकृतेः कलाः ॥ १४ ॥
जो पण्डित होता है, वह प्रकृति (रूपधारी स्त्री) का अपमान नहीं करता है । क्योंकि पुरुष गण प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं और स्त्रियाँ प्रकृति की कलायें हैं ॥ १४ ॥

त्वमेवभगवानाद्यो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
अर्धाङ्गो द्विभुजः कृष्णोप्यर्धाङ्गेन चतुर्भुजः ॥ १५ ॥
केवल आप भगवान् श्री हरि ही उस प्रकृति से परे निर्गुण प्रभु हैं । परिपूर्णतम श्रीकृष्ण दो भागों में विभक्त हुए हैं । आधे से तो दो भुजाधारी श्रीकृष्ण बने रहे और उनका आधा अंग आप चतुर्भुज श्रीहरि के रूप में प्रकट हो गया ॥ १५ ॥

कृष्णवामाङ्गसंभूता परमा राधिका पुरा ।
दक्षिणाङ्गात्स्वयं सा च वामाङ्गात्कमला यथा ॥ १६ ॥
पूर्वकाल में परमोत्तम राधिका भी भगवान् श्रीकृष्ण के बायें अंग से उत्पन्न हुई थीं । फिर वे दो रूपों में परिणत हुईं । दाहिने अंश में तो वे स्वयं रहीं और उनके वामांश से लक्ष्मी का प्रायट्य हुआ और उन्हीं की तरह गंगा भी प्रकट हुई । ॥ १६ ॥

तेन त्वां सा वृणोत्येव यतस्त्वद्‌देहसंभवा ।
स्त्रीपुंसौ वै तथैकाङ्‌गौ यथा प्रकृतिपूरुषौ ॥ १७ ॥
इसीलिए यह तुम्हारी देह से उत्पन्न होने के कारण तुम्हारा वरण करना चाहती है । क्योंकि प्रकृति और पुरुष की भांति स्त्री-पुष भी एक ही अंग हैं ॥ १७ ॥

इत्येवमुक्त्वा धाता च तां समर्प्य जगाम सः ।
गान्धर्वेण विवाहेन तां जग्राह हरिः स्वयम् ॥ १८ ॥
ब्रह्मः इस प्रकार कहकर गंगा को उन्हें सौंप कर चले गये । पश्चात् स्वयं विष्णु ने गान्धर्व विवाह द्वारा गंगा को ग्रहण कर लिया ॥ १८ ॥

शय्यां रतिकरीं कृत्वा पुष्पचन्दनचर्चिताम् ।
रेमे रमापतिस्तत्र गङ्गया सहितो मुदा ॥ १९ ॥
फिर पुष्पों की चंदन चचित उत्तम शय्या बनाकर विष्णु ने उस पर गंगा के साथ आनन्द से रमण किया ॥ १९ ॥

गां पृथ्वीं च गता यस्मात्स्वस्थानं पुनरागता ।
निर्गता विष्णुपादाच्च गङ्गा विष्णुपदी स्मृता ॥ २० ॥
गंगा के (पृथ्वी) पर जाकर पुनः अपने स्थान को लौट आने से उन्हें गंगा, और भगवान् विष्णु के पाद (चरण) से निकलने के कारण विष्णुपदी कहा जाता है ॥ २० ॥

मूर्छां संप्राप सा देवी नवसंगममात्रतः ।
रसिका सुखसंभोगाद्‌रसिकेश्वरसंयुता ॥ २१ ॥
इस प्रकार रतिकों में प्रधान भगवान् विष्णु के साथ समागम होने पर उस नवसंगममात्र से रसिका देवी गंगा मूच्छित हो गयीं ॥ २१ ॥

तद्‌दृष्ट्‍वा दुःखितावाणी सापत्‍न्येर्ष्याविवर्जिता ।
नित्यमीर्ष्यति तां वाणी न च गङ्‍गा सरस्वतीम् ॥ २२ ॥
उनको वह अवस्था देखकर सरस्वती को बड़ा दुःख हुआ, क्योंकि उस समय सापत्न्य-ईर्ष्या (सवतिया डाह) नहीं थी । पर बाद में सरस्वती गंगा से नित्य ईर्ष्या करने लगीं; यद्यपि गंगा सरस्वती से कभी ईर्ष्या नहीं करती थीं ॥ २२ ॥

गङ्गया सहितस्यैव तिस्रो भार्या रमापतेः ।
सार्धं तुलस्या पश्चाच्च चतस्रो ह्यभवन्मुने ॥ २३ ॥
मुने ! इस प्रकार रमापति विष्णु की गंगा समेत तीन पत्नियां हुईं । बाद में तुलसी सहित चार पत्नियाँ हो गईं ॥ २३ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे गङ्गोपाख्यानं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में गंगोपाख्यान नामक बारहवां अध्याय समाप्त ॥ १२ ॥

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