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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रयोदशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्यानम् -
तुलसी के कथा-प्रसंग में राजा वृषध्वज का चरित्र-वर्णन -


नारद उवाच
नारायणप्रिया साध्वी कथं सा च बभूव ह ।
तुलसी कुत्र संभूता का वा सा पूर्वजन्मनि ॥ १ ॥
कस्य वा सा कुले जाता कस्य कन्या तपस्विनी ।
केन वा तपसा सा च संप्राप प्रकृतेः परम् ॥ २ ॥
निर्विकल्पं निरीहं च सर्वसाक्षिस्वरूपकम् ।
नारायणं परं ब्रह्म परमात्मानमीश्वरम् ॥ ३ ॥
सर्वाराध्यं च सर्वेशं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।
सर्वाधारं सर्वरूपं सर्वेषां परिपालकम् ॥ ४ ॥
नारद बोले-पतिव्रता तुलसी भगवान् नारायण की प्रेयसी कैसे बनी ? कहाँ उसका जन्म हुआ ? वह पूर्व जन्म में कौन थी ? किसके कुल में उसने जन्म ग्रहण किया ? वह तपस्विनी किसकी कन्या थी ? और किस तप के प्रभाव से उसने प्रकृति से परे, निर्विकल्प, निरीह, सबके साक्षीरूप, नारायण, परब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, सबके आराध्य देव, सबके ईश, सर्वज्ञ, सबके कारण, सर्वाधार, सबके स्वरूप और सबके परिपालक श्रीहरि को पति-रूप में प्राप्त किया ? ॥ १-४ ॥

कथमेतादृशी देवी वृक्षत्वं समवाप ह ।
कथं साऽप्यसुरग्रस्ता संबभूव तपस्विनी ॥ ५ ॥
ऐसी देवी को वृक्ष क्यों होना पड़ा ? और वह तपस्विनी देवी कैसे असुर के चंगुल में फंस गई ? ॥ ५ ॥

संदिग्धं मे मनो लोलं प्रेरयेन्मां मुहुर्मुहुः ।
छेत्तुमर्हसि संदेहं सर्वसंदेहभञ्जन ॥ ६ ॥
हे समस्त सन्देह के भजन करने वाले, मेरे इस सन्देह का नाश करें, क्योंकि मेरा चपल मन बारबार संदेह में पड़ जाता है ॥ ६ ॥

श्रीनारायण उवाच
मनुश्च दक्षसावर्णिः पुण्यवान्वैष्णवः शुचिः ।
यशस्वी कीर्तिमांश्चैव विष्णोरंशसमुद्‌भवः ॥ ७ ॥
नारायण बोले-दक्ष साबणि नामक मनु पुण्यात्मा, विष्णु के उपासक, सदाचारी, यशस्वी, कीर्तिमान् और भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे ॥ ७ ॥

तत्पुत्रो धर्मसावर्णिर्धर्मिष्ठो वैष्णवः शुचिः ।
तत्पुत्रो विष्णुसावर्णिवैष्णवश्च जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
उनके पुत्र धर्मसावणि, धर्मात्मा, विष्णु-भक्त और सदाचारी हुए उनके पुत्र विष्णुसावणि, भगवान् विष्णु के उपासक और जितेन्द्रिय हुए ॥ ८ ॥

तत्पुत्रो देवसावर्णिर्विष्णुव्रतपरायणः ।
तत्पुत्रो राजसावर्णिर्महाविष्णुपरायणः ॥ ९ ॥
उनके पुत्र देव सावर्णि भगवान् विष्णु के महान् भक्त हुए और उनके पुत्र राजसावणि महाविष्णु के परम उपासक हुए ॥ ९ ॥

वृषध्वजश्च तत्पुत्रो वृषध्वजपरायणः ।
यस्याऽऽश्रमे स्वयं शंभुरासीद्‌देवयुगत्रयम् ॥ १० ॥
उनके पुत्र वृषध्वज हुए, जो भगवान् शंकर के परम उपासक थे । उनके आश्रम में स्वयं भगवान् शंकर ने तीन दैवयुग तक निवास किया था ॥ १० ॥

पुत्रादपि परः स्नेहो नृपे तस्मिञ्छिवस्य च ।
न च नारायणं मेने न च लक्ष्मीं सरस्वतीम् ॥ ११ ॥
उस राजा में शिव का स्नेह पुत्र से भी बढ़कर हो गया था; इसलिए वह राजा नारायण, लक्ष्मी और सरस्वती को कभी नहीं पूजता था ॥ ११ ॥

पूजां च सर्वदेवानां दूरीभूता चकार सः ।
भाद्रे मासि महालक्ष्मी पूजां मत्तोऽत्यजन्नृपः ॥ १२ ॥
माघे सरस्वतीपूजां दूरीभूतां चकार सः ।
यज्ञं च विष्णुपूजां च निनिन्दे न चकार सः ॥ १३ ॥
उसने सम्पूर्ण देवों की पूजा त्याग दी तथा शिव-निरत होकर उसने भाद्रपद में महालक्ष्मी-पूजन एवं माघ मास में सरस्वती-पूजन भी त्याग दिये । इसी प्रकार यज्ञ और विष्णुपूजन भी उसने छोड़ दिये तथा उनकी निन्दा की ॥ १२-१३ ॥

न कोऽपि देवो भूपेन्द्रं शशाप शिवकारणात् ।
भ्रष्टश्रीर्भव भूपेति चाशपत्तं दिवाकरः ॥ १४ ॥
शूलं गृहीत्वा तं सूर्यं धृतवाञ्छकरः स्वयम् ।
पित्रा सार्धं दिनेशश्च ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १५ ॥
शंकर के कारण कोई भी देवता उस राजेन्द्र को शाप नहीं देता था । किन्तु एक गर सूर्य ने इस राजा को शाप दे दिया--'तुम्हारी श्री नष्ट हो जाये । ' इस पर क्रुद्ध होकर भगवान् शंकर स्वयं शूल लेकर सूर्य पर टूट पड़े । तब सूर्य अपने पिता (कश्यप) के साथ ब्रह्मा की शरण में गए ॥ १४-१५ ॥

शिवस्त्रिशूलहस्तश्च ब्रह्मलोकं ययौ क्रुधा ।
ब्रह्मा सूर्यं पुरस्कृत्य वैकुण्ठं च ययौ भिया ॥ १६ ॥
हाथ में त्रिशूल लिए शंकर भी क्रोधावेश में ब्रह्मलोक पहुँच गये । इससे भयभीत होकर ब्रह्मा सूर्य को आगे करके वैकुण्ठ चले गये ॥ १६ ॥

शूलं गृहीत्वा तत्रापि धृतवाञ्छंकरो रविम् ।
ब्रह्मकश्यपमार्तण्डाः संत्रस्ताः शुष्कतालुकाः ॥ १७ ॥
शूल लिए शिव ने वहाँ भी पहुंच कर सूर्य को पकड़ लिया । यह देखकर ब्रह्मा, कश्यप तथा सूर्य अत्यन्त संत्रस्त हुए, उनके तालू सूख गए ॥ १७ ॥

नारायणं च सर्वेशं ते ययुः शरणं भिया ।
मूर्ध्ना प्रणेमुस्ते गत्वा तुष्टुवुश्च पुनः पुनः ॥ १८ ॥
भय से उन्होंने सर्वेश भगवान् नारायण की शरण लो । वहाँ पहुँच कर उन्होंने शिर से प्रणाम करके उनकी बार-बार स्तुति की ॥ १८ ॥

सर्वे निवेदनं चक्रुर्भियस्ते कारणं हरौ ॥ १९ ॥
अनन्तर उन लोगों ने भगवान् विष्णु से अपने भय का कारण निवेदन किया ॥ १९ ॥

नारायणश्च कृपयाऽभयं तेभ्यो ददौ मुने ।
स्थिरा भवत हे भीता भयं किं वो मयि स्थिते ॥ २० ॥
मुने ! भगवान् विष्णु ने अत्यन्त कृपा करके उन्हें अभयदान दिया है भीर ! स्थिर हो जाओ । मेरे रहते तुम्हें कोई भय नहीं ॥ २० ॥

स्मरन्ति ये यत्र यत्र मां विपत्तौ भयान्विताः ।
तांस्तत्र गत्वा रक्षामि चक्रहस्तस्त्वरान्वितः ॥ २१ ॥
विपत्ति आने पर भयभीत प्राणी जहाँ कहीं मेरा स्मरण करता है, वहीं मैं चक्रहस्त पहुँचकर उसकी रक्षा करता हूँ ॥ २१ ॥

पाताऽहं जगतां देवाः कर्ताऽहं सततं सदा ।
स्रष्टा च ब्रह्मरूपेण संहर्ता शिवरूपतः ॥ २२ ॥
देवो ! मैं ही इस जगत् का सदा कर्ता और पालयिता हूँ । ब्रह्मा के रूप से मैं इसको सृष्टि करता हूँ तथा शिवरूप से संहार करता हूँ ॥ २२ ॥

शिवोहं त्वमहं चापि सूर्योऽहं त्रिगुणात्मकः ।
विधाय नानारूपं च कुर्या सृष्ट्यादिकाः क्रियाः ॥ २३ ॥
मैं ही त्रिगुणात्मक रूप से शिव, ब्रह्मा तथा सूर्य हूँ । इस प्रकार मैं नाना रूप धारण करके सृष्टि आदि क्रियायें करता हूँ ॥ २३ ॥

यूयं गच्छत भद्रं वो भविष्यति भयं कुतः ।
अद्यप्रभृति वो नास्ति मद्वराच्छंकराद्‌भयम् ॥ २४ ॥
इसलिए तुम लोग जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा, भय दूर हो जायगा । मेरे वरदान द्वारा आज से तुम्हें शंकर का भय नहीं होगा ॥ २४ ॥

आशुतोषः स भगवाञ्छंकरश्च सतां गतिः ।
भक्ताधीनश्च भक्तेशो भक्तात्मा भक्तवत्सलः ॥ २५ ॥
भगवान् शिव आशुतोष, सज्जनों के रक्षक, भक्तों के अधीन, भक्तों के स्वामी, भक्तों के आत्मा एवं भक्तों के प्रिय हैं ॥ २५ ॥

सुदर्शनं शिवश्चैव मम प्राणाधिकप्रियौ ।
ब्रह्माण्डेषु न तेजस्वी हे ब्रह्मन्ननयोः परः ॥ २६ ॥
ब्रह्मन् ! यह सुदर्शन चक्र और शिव, ये दोनों मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं । समस्त ब्रह्माण्डों में इन दोनों से अधिक दूसरा तेजस्वी नहीं है ॥ २६ ॥

शस्तः स्रष्टुं महादेवः सूर्यकोटिं च लीलया ।
कोटिं च ब्रह्मणामेवं किमसाध्यं च शूलिनः ॥ २७ ॥
महादेव लीलापूर्वक करोड़ों सूर्यों की सृष्टि करने में समर्थ हैं और इसी प्रकार वे करोड़ों ब्रह्माओं की भी सृष्टि कर सकते हैं । शंकर के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ॥ २७ ॥

बाह्यज्ञानं तत्र किंचिद्ध्यायतो मां दिवानिशम् ।
मन्नाम मद्‌गुणं भक्त्या पञ्चवक्त्रेण गीयते ॥ २८ ॥
दिनरात मेरा ही ध्यान करने के कारण उन्हें बाह्य ज्ञान कुछ नहीं रहता है । वे अपने पाँचों मुखों से भक्तिपूर्वक मेरा हा नाम गुण गाया करते हैं । ॥ २८ ॥

अहमेवं चिन्तयामि तत्कल्याणं दिवानिशम् ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ॥ २९ ॥
इसीलिए मैं भी दिनरात उनके कल्याण का चिन्तन करता हूँ । क्योंकि जो जिस प्रकार से मुझसे मिलता है, मैं भी उसी प्रकार उसकी सेवा में तत्पर रहता हूँ ॥ २९ ॥

शिवस्वरूपो भगवाञ्छिवाधिष्ठातृदेवता ।
शिवो भवति यस्माच्च शिवं तेन विदुर्बुधाः ॥ ३० ॥
भगवान् शिवस्वरूप होकर शिव (कल्याण) के अधिष्ठातृ देवता हैं । क्योंकि जिससे शिव (कल्याण) प्राप्त होता है, विद्वानों ने उसे शिव (कल्याणमूर्ति) कहा है ॥ ३० ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र चागमच्छंकरः स्वयम् ।
शूलहस्तो वृषारूढो रक्तपङ्‍कजलोचनः ॥ ३१ ॥
इतने में स्वयं शंकर वहाँ आ पहुंचे । उनके हाथ में त्रिशूल था, आँखें रक्तकमल के समान लाल थीं और वे वृषभ पर आरूढ़ थे ॥ ३१ ॥

अवरुह्य वृषात्तूर्णं भक्तिनम्रात्मकंधरः ।
नमाम भक्त्या तं शान्तं लक्ष्मीकान्तं परात्परम् ॥ ३२ ॥
शीघ्रता से बैल की पीठ पर से उतर कर उन्होंने भक्ति से अपने कन्धे को झुका लिया और शान्त एवं परात्पर भगवान् लक्ष्मीकान्त को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥ ३२ ॥

रत्‍नसिंहासनस्थं च रत्‍नालंकारभूषितम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं चक्रिणं वनमालिनम् ॥ ३३ ॥
उस समय भगवान् विष्णु रत्नों के सिंहासन पर सुखासीन, रत्नों के अलंकारों से भूषित, किरीट-कुण्डलों से अलंकृत तथा चक्र एवं वनमाला धारण किये हुए थे ॥ ३३ ॥

नवीननीरदश्यामं सुन्दरं च चतुर्भुजम् ।
चतुर्भुजैः सेवितं च श्वेतचामरवायुना ॥ ३४ ॥
वे नवीन मेधके समान श्याम वर्ण, सुन्दर, चतुर्भुज तथा चार भुजाओं वाले पार्षदों के द्वारा श्वेत चामर से सुसेवित हो रहे थे ॥ ३४ ॥

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भूषितं पीतवाससा ।
लक्ष्मीप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं च नारद ॥ ३५ ॥
नारद ! उनका सर्वाग शरीर चन्दन से चर्चित तथा पीताम्बर से सुशोभित था । वे लक्ष्मी का दिया हुआ ताम्बूल खा रहे थे ॥ ३५ ॥

विद्याधरीनृत्यगीतं शृण्वन्तं सस्मितं मुदा ।
ईश्वरं परमात्मानं भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ३६ ॥
तथा चन्द भयुकान करते हुए प्रसन्नता से विद्यापरियों के संगीत सुन रहे थे । ऐसे परमात्मा ईश्वर भक्तों पर कृपा करने के लिए हो शरीर धारण करते हैं ॥ ३६ ॥

तं ननाम महादेवो ब्रह्माणं च ननाम सः ।
ननाम सूर्यो भक्त्या च संत्रस्तश्चन्द्रशेखरम् ॥ ३७ ॥
महादेव ने उन्हें और ब्रह्मा दोनों को नमस्कार किया । तब सूर्य ने चन्द्रखिर (शिव) को डरते-डरते भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥ ३७ ॥

कश्यपश्च महाभक्त्या तुष्टाव च नमाम च ।
शिवः संस्तूय सर्वेशं समुवास सुखासने ॥ ३८ ॥
कश्यप जी ने भी महान् भक्ति से उनका स्तुति र सस्कार किया । अनन्तर शिव सर्वाधीश्वर विष्णु की भलीभांति स्तुति करके सुखासनपर रिजवानहो गये ॥ ३८ ॥

सुखासने सुखासीनं विश्रान्तं चन्द्रशेखरम् ।
श्वेतचामरवातेन सेवितं विष्णुपार्षदैः ॥ ३९ ॥
तब सुखासन पर आराम से बैठे हुए चन्द्रशेखर को अत्यन्त श्रान्त देखकर विष्णु के पार्षदों ने अपने खेत चार से उनको सेवा आरम्भ कर दी ॥ ३९ ॥

अक्रोधं सत्त्वसंसर्गात्प्रसन्नं सस्मितं मुदा ।
स्तूयमानं पञ्चवक्त्रैः परं नारायणं विभुम् ॥ ४० ॥
तमुवाच प्रसन्नात्मा प्रसन्नं सुरसंसदि ।
पीयूषतुल्यं मधुरं वचनं सुमनोहरम ॥ ४१ ॥
सत्त्व (गुण) के संसर्ग से क्रोध-रहित, प्रसन्न, मुसकराते हुए और अपने पांचों मुखों द्वारा श्रेष्ठ एवं व्यापक नारायण की स्तुति करने वाले शिव से उस देवसमा में प्रसन्नात्मा विष्णु ने अमृत के समान अत्यन्त भनोहर एवं मधुर वचन कहा ॥ ४०-४१ ॥

श्रीभगवानुवाच
अत्यन्तमुपहास्यं च शिवप्रश्नं शिवेऽशिवम् ।
लौकिकं वैदिकं चैव त्वां पृच्छामि तथाऽपि शम् ॥ ४२ ॥
भगवान् (विष्ण) बोले-शिव (कल्याणरूप) से शिव (कल्याण) का प्रश्न करना यद्यपि अति उपहास की बात है, तथापि लोक और वेद के अनुसार कल्याण का प्रश्न पूछ रहा हूँ ॥ ४२ ॥

तपसां फलदातारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
संपत्प्रश्नं तपःप्रश्नमयोग्यं त्वां च सांप्रतम् ॥ ४३ ॥
क्योंकि तुम तपस्या का फल प्रदान करते हो और समस्त सम्पदाओं के प्रदाता हो, अतः सम्प्रति तुमसे सम्पत्ति और तप का भी प्रश्न करना अनुचित है ॥ ४३ ॥

ज्ञानाधिदेवे सर्वज्ञे ज्ञानं पृच्छमि किं वृथा ।
निरापदि विपत्प्रश्नमलं मृत्युंजये हरे ॥ ४४ ॥
इसी प्रकार ज्ञान के अधीश्वर और सर्वज्ञ से ज्ञान का प्रश्न करना भी व्यर्थ है । आपत्तिरहित मृत्युजेता शिव से विपत्ति का भी प्रश्न करना व्यर्थ है ॥ ४४ ॥

त्वामेवाऽऽगने प्रश्नमलं स्वाश्रममागमे ।
आगतोऽसि कथं वेगादित्युवाच रमापतिः ॥ ४५ ॥
फिर अपने आधार को प्राप्त करने वाले तुम्हीं से आगमन का प्रश्न करना व्यर्थ है । (तब मेरा यह प्रश्न है कि) इतने वेग से क्यों आये हो ? ॥ ४५ ॥

श्रीमहादेव उवाच
वृषध्वजं च मद्‌भक्तं मम प्राणाधिकप्रियम् ।
सूर्यः शशाप इति मे हेतुरागमकोपयोः ॥ ४६ ॥
महादेव बोले-मेरे भक्त और मेरे प्राणों से अधिक प्रिपाको मुर्य ने प दिया है । इसी कारण मैं क्रुद्ध हुआ और यहाँ तक आ गया ॥ ४६ ॥

पुत्रवात्सल्यशोकेन सूर्ये हन्तुं समुद्यतः ।
स ब्रह्माणं प्रपन्नश्च ससूर्यश्च विधिस्त्वयि ॥ ४७ ॥
पुत्र-वात्सल्य के शो.: से पूर्व को भरने के लिए तैयार हो गया था, जिससे वह (भागकर) ब्रह्मा की शरण में पहुँचा और उसे लेकर ब्रह्मा आपकी शरण में जाये हैं ॥ ४७ ॥

त्वां ये शरणमापन्ना ध्यानेन वचसाऽपि वा ।
निरापदस्ते निःशंका जरा मृत्युश्च तैर्जितः ॥ ४८ ॥
ध्यान द्वारा अथवा वाणी द्वारा ही जो आपकी शरण में आते हैं, वे सर्वथा आपतियों से मुका और जरा एवं मृत्यु से रहित हो जाते हैं ॥ ४८ ॥

साक्षाद्ये शरणापन्नास्तत्फलं किं वदामि भोः ।
हरिस्मृतिश्चाभयदा सर्वमङ्गलदा सदा ॥ ४९ ॥
फिर जो साक्षात् आपके शरणागत हैं, उनका फल मैं क्या बताऊँ ? विष्णु का केवल स्मरण भी सदा अभयप्रद और समस्त-मंगल-प्रदायक होता है ॥ ४९ ॥

किं मे भक्तस्य भविता तन्मे ब्रूहि जगत्प्रभो ।
श्रीहतस्यास्य मूढस्य सूर्यशापेन हेतुना ॥ ५० ॥
जगत्प्रभो ! सूर्य के शाप से मेरा भक्त श्रीहत और मूढ़ हो गया है, अब उसका क्या होगा ? यह बताने की कृपा करें ॥ ५० ॥

श्रीभगवानुवाच
कालोऽतियातो दैवेन युगानामेकविंशतिः ।
वैकुण्ठे घटिकार्धेन शीघ्रं याहि नृपालयम् ॥ ५१ ॥
वृषध्वजो मृतः कालाद्‌दुर्निवार्यात्सुदारुणात् ।
हंसध्वजश्च तत्पुत्रो मृतः सोऽपि श्रिया हतः ॥ ५२ ॥
भगवान् (विष्णु) बोले-दैव की प्रेरणा से बहुत समय बीत गया । इक्कीस युग समाप्त हो गए । यद्यपि वैकुंठ में अभी आधी घड़ी का समय बीता है । अतः अब तुम उस राजा के यहाँ जाओ । अत्यन्त दारुण और दुनिवार कॉल ने वृषध्वज को अपना ग्रास बना लिया है । उसको पुत्र हंसध्वज भी श्रीहत होकर मर चुका है ॥ ५१-५२ ॥

तत्पुत्रौ च महाभागौ धर्मध्वजकुशध्वजौ ।
हतश्रियौ सूर्यशापात्तो वै परमवैष्णवौ ॥ ५३ ॥
राज्यभ्रष्टौ श्रिया भ्रष्टौ कमलातापसावुभौ ।
तयोश्च भार्ययोर्लक्ष्मीः कलया च जनिष्यति ॥ ५४ ॥
संपद्युक्तौ तदा तौ च नृपश्रेष्ठौ भविष्यतः ।
मृतस्ते सेवकः शंभो गच्छ यूयं च गच्छत ॥ ५५ ॥
उसके धर्मध्वज और कुशध्वज नामक दो परम वैष्णव महाभाग्यवान् पुत्र मा सूर्य के शाप से हतश्रीक हो गये हैं कमला (लक्ष्मी) के उपासक वे दोनों तपस्वी, श्रीभ्रष्ट तथा राज्यभ्रष्ट भी हो गये हैं । अतः जब लक्ष्मी अपनी कला से उन दोनों की पत्नियों से अवतार लेंगो तब वे दोनों राजकुमार श्रीसम्पन्न हो जायेंगे । शम्भो ! तुम्हारा भक्त मर चुका है । अतः तुम यहाँ से जाओ । देवताओ ! तुम लोग भी यहाँ से प्रस्थान करो ॥ ५३-५५ ॥

इत्युक्त्वा च सलक्ष्मीकः सभातोऽभ्यन्तरं गतः ।
देवा जग्मुश्च संहृष्टाः स्वाश्रमं परया मुदा ॥ ५६ ॥
शिवश्च तपसे शीघ्रं परिपूर्णतमो ययौ ॥ ५७ ॥
इतना कहकर भगवान् विष्णु लक्ष्मी समेत सभा से उठे और अन्तःपुर में चले गये । देवता गण भी अत्यन्त हर्षित होकर प्रसन्न भन से अपने-अपने आश्रमों में चले गये । अनन्तर परिपूर्णतम शिव उसी क्षण तप करने के लिए चल पड़े ॥ ५६-५७ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्यानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में तुलसी-उपाख्यान नामक तेरहवां अध्याय समाप्त ॥ १३ ॥

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