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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुर्दशोऽध्यायः तुलस्युपाख्याने वेदवतीप्रस्तावः -
वेदवती की कथा तथा सीता और द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त - नारायण उवाच लक्ष्मीं तौ च समाराध्य चोग्रेण तपसा मुने । प्रत्येकं वरमिष्टं च संप्रापतुरभीप्सितम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-मुने ! उन दोनों (धर्मध्वज और कुशध्वज) ने अपनी उग्र तपस्या द्वारा लक्ष्मी की आराधना करके अपने प्रत्येक अभीष्ट को प्राप्त कर लिया ॥ १ ॥ महालक्ष्म्या वरेणैव तौ पृथ्वीशौ बभूवतुः । धनवन्तौ पुत्रवन्तौ धर्मध्वजकुशध्वजौ ॥ २ ॥ महालक्ष्मी के वरदान से वे दोनों धर्मध्वज और कुशध्वज पृथ्वीपति (राजा), धनवान् और पुत्रवान् हो गये ॥ २ ॥ कुशध्वजस्य पत्नी व देवी मालावती सती । सा सुषाव च कालेन कमलांशां सुतां सतीम् ॥ ३ ॥ कुछ काल बीतने पर कुशध्वज की पत्नी परमसाध्वी मालावती ने एक सती कन्या को उत्पन्न किया, जो लक्ष्मी का अंश थी ॥ ३ ॥ सा च भूतलसंबन्धाज्ज्ञानयुक्ता बभूव ह । कृत्वा वेदध्वनिं स्पष्टमुत्तस्थौ सूतिकागृहे ॥ ४ ॥ वह भूमिष्ठ होते ही ज्ञान से सम्पन्न हो गयी । उस कन्या ने जन्म लेते ही सूतिका-गृह में स्पष्ट स्वर से वेद-मन्त्रों का उच्चारण किया और उठकर खड़ी हो गई ॥ ४ ॥ वेदध्वनिं सा चकार जातमात्रेण कन्यका । तस्मात्तां ते वेदवती प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ५ ॥ इसीलिए विद्वान्-पुरुष उसे 'वेदवती' कहते हैं ॥ ५ ॥ जातमात्रेण सुस्नाता जगाम तपसे वनम् । सर्वैर्निषिद्धा यत्नेन नारायणपरायणा ॥ ६ ॥ उत्पन्न होने पर उसने भलीभाँति स्नान किया और तप के हेतु वन की ओर चल दिया । सभी लोगों के द्वारा यत्नपूर्वक निषेध करने पर भी नारायणपरायणा होने के कारण वह नहीं रुक सकी ॥ ६ ॥ एकमन्वन्तरं चैव पुष्करे च तपस्विनी । अत्युग्रां वै तपस्यां तु लीलया च चकार सा ॥ ७ ॥ तथाऽपि पुष्टा न कृशा तवयौवनसंयुता । शुश्राव खे च सहसा सा वाचमशरीरिणीम् ॥ ८ ॥ जन्मान्तरे ते भर्ता च भविष्यति हरिः स्वयम् । ब्रह्मादिभिर्दुराराध्यं पतिं लप्स्यसि सुन्दरि ॥ ९ ॥ यद्यपि उस तपस्विनी ने पुष्कर क्षेत्र में एक मन्वन्तर के समय तक अत्यन्त उग्र तपस्या लीलापूर्वक सम्पन्न की तो भी वह दुर्बल नहीं हुई अपितु पुष्ट और नवयौवन से विभूषित रही । उसने सहसा आकाश में आकाशवाणी सुनी-हे सुन्दरि ! जन्मान्तर में भगवान् विष्णु स्वयं तुम्हें पति रूप में मिलेंगे । ब्रह्मादि देवों के लिए भी जो दुराराध्य हैं, वे तुम्हारे पति होंगे । ' ॥ ७-९ ॥ इति श्रुत्वा तु सा रुष्टा चकार च पुनस्तपः । अतीव निर्जनस्थाने पर्वते गन्धमादने ॥ १० ॥ यह सुन कर उसने रुष्ट होकर गन्धमादन पर्वत के अति निर्जन स्थान में पुनः तप करना आरम्भ किया ॥ १० ॥ तत्रैवं सुचिरं तप्त्वा विश्वस्य समुवास सा । ददर्श पुरतस्तत्र रावणं दुर्निवारणम् ॥ ११ ॥ वहाँ चिरकाल तक तप कर के विश्वस्त हो वहीं रहने लगी । एक दिन उसने अपने सामने दुनिदार रावण को देखा ॥ ११ ॥ दृष्ट्वा साऽतिथिभक्त्या च पाद्यं तस्मै ददौ किल । सुस्वादु फलमूलं च जलं चापि सुशीतलम् ॥ १२ ॥ तच्च भुक्त्वा स पापिष्ठश्चावासीत्तत्समीपतः । चकार प्रश्नमिति तां का त्वं कल्याणि चेति च ॥ १३ ॥ अनन्तर उसने अतिथि-सेवा के रूप में पाद्य (पादप्रक्षालनार्थ जल), अत्यन्त स्वादिष्ठ फल और शीतल जल उसे प्रदान किया । वह पापी रावण उसे खा-पीकर वहीं रह गया और उससे पूछने लगा कि-'हे कल्याणि ! तुम कौन हो । ' ॥ १२-१३ ॥ तां च दृष्ट्वा वरारोहां पीनोन्नतपयोधराम् । शरत्पद्मनिभास्यां च सस्मितां सुदतीं सतीम् ॥ १४ ॥ मूर्च्छामवाप कृपणः कामबाणप्रपीडितः । तां करेण समाकृष्य संभोगं कर्तुमुद्यतः ॥ १५ ॥ उस सुन्दरी सती साध्वी कन्या को, जिसके स्तन स्थूल और उन्नत थे, मुख शरत्काल के कमल की तरह मनोहर था, मुख पर मंद मुसकान की छटा छायी रहती थी और दांत आकर्षक थे, देख कर रावण कामबाण से पीड़ित तथा दीन होकर मूच्छित हो गया । फिर हाथ से उसे खींच कर संभोग करने के लिए तैयार हो गया ॥ १४-१५ ॥ सा सती कोपदृष्ट्या च स्तम्भितं तं चकार ह । स जडो हस्तपादैश्च किञ्चिद्वक्तुं न च क्षमः ॥ १६ ॥ यह देख कर उस सती ने क्रुद्ध होकर उसे स्तम्भित कर दिया, जिससे वह जड़ की भांति निश्चेष्ट हो गया-न हाथ पैर हिला सकता था और न कुछ बोल ही सकता था ॥ १६ ॥ तुष्टाव मनसा देवीं पद्मांशां पद्मलोचनाम् । सा तत्स्तवेन संतुष्टा प्राकृतं तं मुमोच ह ॥ १७ ॥ अनन्तर उसने कमला के अंश से उत्पन्न होने वाली उस कमललोचना की मानसिक स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर उस कन्या ने उस मूर्ख को मुक्त कर दिया ॥ १७ ॥ शशाप च मदर्थे त्वं विनश्यसि सबान्धवः । स्पृष्टाऽहं च त्वया कामाद्विसृजाम्यवलोकय ॥ १८ ॥ और शाप भी दिया कि-मेरे ही लिए तुम सपरिवार विनष्ट हो जाओगे । तुमने कामातुर होकर मेरा स्पर्श कर लिया है । अतः तुम्हारे सामने ही मैं इस शरीर का त्याग कर रही हूँ ॥ १८ ॥ इत्युक्त्वा सा च योगेन देहत्यागं चकार ह । गङ्गायां तां च संन्यस्य स्वगृहं रावणो ययौ ॥ १९ ॥ ऐसा कह कर उसने योग द्वारा अपनी देह को त्याग दिया । पश्चात् रावण ने उस शव को गंगा में डाल कर अपने घर का रास्ता लिया ॥ १९ ॥ अहो किमद्भुतं दृष्टं किं कृतं वा मयाऽधुना । इति संचिन्त्य संस्मृत्य विललाप पुनः पुनः ॥ २० ॥ 'अहो ! मने कैसा आश्चर्य देखा और मैंने इस समय कैसा (अनुचित) कार्य किया' ऐसा सोचकर स्मरण कर नह रावण चार-चार बिलाप करने लगा ॥ २० ॥ सा च कालान्तरे साध्वी बभूव जनकात्मजा । सीतादेवीति विख्याता यदर्थे रावणो हतः ॥ २१ ॥ वही साध्वी कुमारी कालान्तर में राजा जनक की पुत्री सीता देवी हुई, जिसके निमित रावण मारा गया ॥ २१ ॥ महातपस्विनी सा च तपसा पूर्वजन्मनः । लेभे रामं च भर्तारं परिपूर्णतमं हरिम् ॥ २२ ॥ उस महातपस्विनी ने पूर्व जन्म की तपस्या के कारण परिपूर्णता जावान् राको पति रूप में प्राप्त किया ॥ २२ ॥ संप्राप्य तपसाऽऽराध्य स्वामिनं च जगत्पतिम् । सा रमा सुचिरं रेमे रामेण सह सुन्दरी ॥ २३ ॥ उस सुन्दरीरमा ने तप द्वारा जगत्पति राम को स्वामी के रूप में पादार सेवा करतो हई चिरकाल तक उनके साथ रमण किया ॥ २३ ॥ जातिस्मरा स्म स्मरति तपसश्च क्रमं पुरा । सुखेन तज्जहौ सर्वं दुःखं चापि सुखं फले ॥ २४ ॥ उसे पूर्व जन्म की बातें स्मरण यो । फिर भी पूर्व समय में तपस्या से जो कष्ट हुआ था, उस पर उसने ध्यान नहीं दिया । वर्तमान सुख के सामने उसने सम्पूर्ण पूर्व कलशों को स्मृति का त्याग कर दिया ॥ २४ ॥ नानाप्रकारविभवं चकार सुचिरं सती । संप्राप्य सुकुमारं तमतीव नवयौवनम् ॥ २५ ॥ गुणिनं रसिकं शन्तं कान्तवेषमनुत्तमम् । स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरं तथा लेभे यथेप्सितम् ॥ २६ ॥ अत्यन्त सुकुमार, अतिनव-योवन-सम्पन्न, गुणी, रसिक, शान्तस्थमाव, अत्यन्त कामनाय, स्त्रियों के लिए चित्ताकर्षक तथा मनोऽभिलषित स्वामी को पाकर वेदवती ने चिरकाल तक नाना प्रकार के सुखों का उपभोग किया ॥ २५-२६ ॥ पितुर्वचः पालनार्थं सत्यसंधो रघूत्तमः । जगाम काननं पश्चात्कालेन च बलीयसा ॥ २७ ॥ सत्यप्रतिज्ञ एवं रघुश्रेष्ठ भगवान् राम, कुछ दिनों के उपरान्त पिता के वचन को रक्षा करने के लिए वन में चले गए ॥ २७ ॥ तस्थौ समुद्रनिकटे सीतया लक्ष्मणेन च । ददर्श तत्र वह्निं च विप्ररूपधरं हरिः ॥ २८ ॥ अनन्तर बलवान् काल के वश में होकर वे सीता-लक्ष्मण के साथ समुद्र के निकट ठहरे । वहाँ भगवान् ने विप्ररूपधारी अग्नि को देखा ॥ २८ ॥ यं रामं दुःखितं दृष्ट्वा स च दुःखी बभूव ह । उवाच किञ्चित्सत्येष्टं सत्यं सत्यपरायणः ॥ २९ ॥ भगवान् राम को दु:खी देखकर वह ब्राह्मण रूपधारी अग्नि स्वयं दुःखी हो गया और सत्यपरायण होने के नाते सत्यप्रिय और सत्यमूर्ति (राम) से कुछ कहने लगा ॥ २९ ॥ वह्निरुवाच भगवन्छ्रूयतां वाक्यं कालेन यदुपस्थितम् । सीताहरणकालोऽयं तवैव समुपस्थितः ॥ ३० ॥ अग्नि बोले-भगवन् ! मेरी एक बात सुनने की कृपा करें । यह सीता के हरण का समय उपस्थित है, क्योंकि देव (भाग्य) अत्यन्त दुनिवार होता है । दैव से बढ़ कर कोई बलवान् नहीं है । अतः मेरी माता (सीता) को आप मुझे सौंप दीजिए और उसकी छाया को अपने पास रख लीजिए ॥ ३०-३१ ॥ दैवं च दुर्निवार्यं वै न च दैवात्परं बलम् । मत्प्रसूं मयि संन्यस्य च्छायां रक्षान्तिकेऽधुना ॥ ३१ ॥ पुनः परीक्षा के समय आपको सीता लौटा दूंगा । देवों ने इसी निमित्त मुझे भेजा है । मैं ब्राह्मण नहीं अग्नि हूँ ॥ ३२ ॥ दास्यामि सीतां तुभ्यं च परीक्षासमये पुनः । देवैः प्रस्थापितोऽहं च न च विप्रो हुताशनः ॥ ३२ ॥ यह सुन कर राम ने लक्ष्मण को बिना बताये ही हृदय से दुःखी होते हुए भी स्वतन्त्रता से इसकी स्वीकृति प्रदान की ॥ ३३ ॥ रामस्तद्वचनं श्रुत्वा न प्रकाश्य च लक्ष्मणम् । स्वछन्दं स्वीचकारासौ हृदयेन विदूयता ॥ ३३ ॥ नारद ! अग्नि ने तुरन्त सीता की साँति एका माथा सीता को उत्पन्न कर, जो गुण और रूप में सीता के ही समान थी, राम को सौंप दिया ॥ २४ ॥ वह्नियोगेन सीतावन्मायासीता चकार ह । तत्तुल्यगुणरूपाङ्गीं ददौ रामाय नारद ॥ ३४ ॥ अनन्तर वह (ब्राह्मण) सीता को लेकर चला गया और इस गोप्य रहस्य को किसी से बताने के लिए निषेध भी कर गया । इसीलिए इस रहस्य को लक्ष्मण भी नहीं जान सके थे और अन्य की तो बात ही क्या ॥ ३५ ॥ सीतां गृहीत्वा स ययौ गोप्यं वक्तुं निषेध्य च । लक्ष्मणो नैव बुबुधे गोप्यमन्यस्य का कथा ॥ ३५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे रामो ददर्श कनकं मृगम् । सीता तं प्रेरयामास तदर्थे यत्नपूर्वकम् ॥ ३६ ॥ इसी बीच राम को सुवर्ण का मृग (बना मारीच) दिखायी पड़ा, जिसको लाने के लिए सीता ने बड़े प्रयत्न से राम को भेजा ॥ ३६ ॥ संन्यस्य लक्ष्मणं रामो जानक्या रक्षणे वने । स्वयं जगाम हन्तुं तं विव्यधे सायकेन च ॥ ३७ ॥ भगवान राम ने उस वन में जानकी की रक्षा के लिए लक्ष्मण को नियुक्त करके स्वयं उस मग को मारने के लिए ले गए । उन्होंने बाण से उसे मार गिराया ॥ ३७ ॥ लक्ष्मणेति च शब्दं वै कृत्वा मायामृगस्तदा । प्राणांस्तत्याज सहसा पुरो दृष्ट्वा हरिं स्मरन् ॥ ३८ ॥ मरते समय उस मृग (मारीच) ने-है लक्ष्मण !' ऐसा कह कर अपने सामने स्थित राम को देखते तथा स्मरण करते हुए सहसा प्राणों को छोड़ दिया ॥ ३८ ॥ मृगरूपं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय च । रत्ननिर्मितयानेन वैण्कुठ स जगाम ह ॥ ३९ ॥ मृग का शरीर त्याग कर बह दिव्य देह से सम्पन्न हो गया और रत्न-निर्मित विमान पर सवार होकर वैकुण्ठ धाम को चला गया ॥ ३९ ॥ वैकुण्ठस्य महाद्वारे किंकरो द्वारपालयोः । जयविजययोश्चैव बलवांश्च जयाभिधः ॥ ४० ॥ वैकुण्ठ के महाद्वार पर रहने वाले जय-विजय नामक दो द्वारपालों का वह जय नामक बलवान् सेवक था ॥ ४० ॥ शापेन सनकादीनां संप्राप्य राक्षसीं तनुम् । पुनर्जगाम तद्द्वारमादौ स द्वारपालयोः ॥ ४१ ॥ सनक, सनातन आदि कुमारों के शाप वश उसने राक्षसी शरीर प्राप्त किया था, किन्तु अब पुनः वह अपने उसी पद पर पहुँच गया ॥ ४१ ॥ अथ शब्दं च सा श्रुत्वा लक्ष्मणेति च विक्लवम् । सीता तं प्रेरयामास लक्ष्मणं रामसंनिधौ ॥ ४२ ॥ अनन्तर सीता ने हे लक्ष्मण ! इस कष्ट भरे शब्द को सुन कर लक्ष्मण को राम के समीप भेज दिया ॥ ४२ ॥ गते च लक्ष्मणे रामं रावणो दुर्निवारणः । सीतां गृहीत्वा प्रययो लङ्कामेव स्वलीलया ॥ ४३ ॥ लक्ष्मण के राम के पास चले जाने पर दुनिवार रावण ने अपनी लीला से जानकी का अपहरण करके लंका की ओर चल दिया ॥ ४३ ॥ विषसाद च रामश्च वने दृष्ट्वा च लक्ष्मणम् । तूर्णं च स्वाश्रमं गत्वा सीतानैव ददर्श सः ॥ ४४ ॥ मूर्छां संप्राप्य सुचिरं विललाप भृशं पुनः । पुनर्बभ्राम गहने तदन्वेषणपूर्वकम् ॥ ४५ ॥ उधर लक्ष्मण को वन में देखकर राम विषाद में डूब गए तथा मूच्छित हो गए । फिर वे उसी क्षण अपने आश्रम पर गए और सीता को वहाँ न देख चिर काल तक विलाप करके सीता को खोजते हुए वे बार-जार वन में चक्कर लगाने लगे ॥ ४४-४५ ॥ काले संप्राप्य तद्वार्तां गृध्रद्वारा नदीतटे । सहायं वानरं कृत्वा बबन्धे सागरं हरिः ॥ ४६ ॥ लङ्कां गत्वा रघुश्रेष्ठो जघान सायकेन च । सबान्धवं रावणं च सीतां संप्राप्य दुःखिताम् ॥ ४७ ॥ कुछ समय बाद (उन्हें गोदावरी) नदी के तट पर गीध (जटायु) द्वारा जानकी का समाचार मिला । तब वानरों की सहायता से सागर में पुल बाँधकर वे लंका पहुँचे । रघुश्रेष्ठ राम ने वहाँ जाकर बाण से सपरिवार रावण का नाश किया और दुःखिनी सीता को प्राप्त किया ॥ ४६-४७ ॥ तां च वह्निपरीक्षां वै कारयामास सत्वरम् । हुताशनस्तत्र काले वास्तवी जानकीं ददौ ॥ ४८ ॥ अनन्तर बहुत शीघ्र ही उन्होंने जानकी को अग्नि परीक्षा-करायी । उस समय अग्नि ने प्रकट होकर उन्हें वास्तविक जानकी प्रदान की । ॥ ४८ ॥ छाया चोवाच वह्निं च रामं च विनयान्विता । करिष्यामीति किमहं तदुपायं वदस्व मे ॥ ४९ ॥ पश्चात् विनयावनत होकर उस छाया (सीता) ने अग्नि और राम से कहा-'अब मैं क्या करूँ, बताने की कृपा करें ॥ ४९ ॥ वह्निरुवाच त्वं गच्छ तपसे देवि पुष्करं च सुपुण्यदम् । कृत्वा तपस्यां तत्रैव स्वर्गलक्ष्मीर्भविष्यसि ॥ ५० ॥ अग्नि बोले---देवि ! तम अत्यन्त पुण्यप्रद पुष्कर क्षेत्र में जाकर तप करो । ऐसा करने से तुम स्वर्ग की लक्ष्मी हो जाओगी ॥ ५० ॥ सा च तद्वचनं श्रुत्वा प्रणम्य पुष्करे तपः । कृत्वा त्रिलक्षवर्षं च स्वर्गे लक्ष्मीर्बभूव ह ॥ ५१ ॥ उसने उनकी बातें सुन कर पुष्वर में अत्यन्त तप किया और दिव्य तीन लाख वर्ष तक तप करने के उपरान्त स्वर्ग की लक्ष्मी हो गयी ॥ ५१ ॥ सा च कालेन तपसा यज्ञकुण्डसमुद्भवा । कामिनी पाण्डवानां च द्रौपदी द्रुपदात्मजा ॥ ५२ ॥ पुनः कुछ दिन के अनन्तर वह यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न होकर राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी हुई, जो पाँचों पाण्डवों की पत्नी बनी ॥ ५२ ॥ कृतयुगे वेदवती कुशध्वजसुता शुभा । त्रेतायां रामपत्नी च सीतेति जनकात्मजा ॥ ५३ ॥ तच्छाया द्रौपदी देवी द्वापरे द्रुपदात्मजा । त्रिहायणीति सा प्रोक्ता विद्यमाना युगत्रये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार कृतयुग में वही कल्याणी वेदवती कुशध्वज की कन्या, त्रेता में जनक-पुत्री सीता बन कर राम की पत्नी और द्वापर में सीता की छाया रूप से द्रुपदकुमारी द्रौपदी हुई । इस प्रकार तीनों युगों में वर्तमान रहने के कारण उसे 'त्रिहायणी' कहा जाता है ॥ ५३-५४ ॥ नारद उवाच प्रियाः पञ्च कथं तस्या बभूवुर्मुनिपुंगव । इति मे चित्तसंदेह दूरं कुरु महाप्रभो ॥ ५५ ॥ नारद बोले-मुनिश्रेष्ठ ! महाप्रभो ! द्रौपदी के पांच पति कैसे हुए । मेरे मन का यह सन्देह दूर करने की कृपा करें ॥ ५५ ॥ श्रीनारायण उवाच लङ्कायां वास्तवी सीता रामं संप्राप नारद । रूपयौवनसंपन्ना छाया सा बहु विह्वला ॥ ५६ ॥ नारायण बोले-नारद ! लंका में भगवान राम को चारतविक जानकी मिल जाने पर वह रूप-यौवनसम्पन्ना छाया बहुत व्याकुल हुई ॥ ५६ ॥ रामाग्न्योराज्ञया तप्त्वा ययाचे शंकरं वरम् । कामातुरा पतिव्यग्रा प्रार्थयन्ती पुनः पुनः ॥ ५७ ॥ पतिं देहि पतिं देहि पतिं देहि त्रिलोचन । पतिं देहि पतिं देहि पञ्चवारं चकार सा ॥ ५८ ॥ पश्चात् राम और अग्नि की आज्ञा से तप फरके उसने शंकर से वरदान मांगा । उसने कामातुर तथा पति के लिए व्यग्र होकर 'शंकर ! मुझे पति दीजिए' इस वाक्य का पांच बार उच्चारण कर दिया ॥ ५७-५८ ॥ शिवस्तत्प्रार्थनां श्रुत्वा सस्मितो रसिकेश्वरः । प्रिये तव प्रियाः पञ्च भवन्त्विति वरं ददौ ॥ ५९ ॥ तब रसिकेश्वर शंकर ने उसकी प्रार्थना सुन कर मुसकराते हुए कहा-'प्रिये ! तुम्हारे पाँच पति होंगे ॥ ५९ ॥ तेनाऽऽसीत्पाण्डवानां च पञ्चानां कामिनी प्रिया । इत्येवं कथितं सर्वं प्रस्तुतं वस्तुतः शृणु ॥ ६० ॥ इसीलिए वह पाँचों पाण्डवों की पत्नी हुई । यह सब (जो बीच की बातें थीं) बता चुका, अब प्रस्तुत को विषय वस्तुतः सुनो ॥ ६० ॥ अथ संप्राप्य लङ्कायां सीतां रामो मनोहराम् । विभीषणाय तां लङ्कां दत्त्वाऽयोध्यां ययौ पुनः ॥ ६१ ॥ इसके उपरान्त राम ने लंका में मनोहारिणी सीता को प्राप्त करके वहाँ का राज्य विभीषण को सौंपा और फिर अयोध्या के लिए प्रस्थान किया ॥ ६१ ॥ एकादशसहस्राब्दं कृत्वा राज्यं च भारते । जगाम सर्वैर्लोकैश्च सार्धं वैकुण्ठमेव च ॥ ६२ ॥ ग्यारह सहस्र वर्षों तक भारत में राज्यसुखानुभव करने के अनन्तर समस्त जनों के साथ वे वैकुण्ठ धाम को चले गए । ॥ ६२ ॥ कमलांशा वेदवती कमलायां विवेश सा । कथितं पुण्यमाख्यानं पुण्यदं पापनाशनम् ॥ ६३ ॥ और लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न हुई वेदवती लक्ष्मी में प्रविष्ट हो गयी । इस प्रकार यह पुण्यरूप, पुण्यप्रद और पापनाशक आख्यान तुम्हें बता दिया ॥ ६३ ॥ सततं मूर्तिमन्तश्च वेदाश्चत्वार एव च । सन्ति यस्याश्च जिह्वाग्रे सा च वेदवती स्मृता ॥ ६४ ॥ उसकी जिह वा के अग्रभाग पर निरन्तर चारों वेद मूर्तिमान् होकर बिराजमान रहते थे, इसीलिए उसे वेदवती कहा गया है ॥ ६४ ॥ कुशध्वजसुताख्यानमुक्तं संक्षेपतस्तव । धर्मध्वजसुताख्यानं निबोध कथयामि ते ॥ ६५ ॥ इस भाँति कुशध्वज की सुता का आख्यान तुम्हें संक्षेप में सुना दिया है, अब धर्मध्वज की कन्या का आख्यान सुना रहा हूँ, सुनो ? ६५ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने वेदवतीप्रस्तावोनाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड में तुलसी के उपाख्यान-प्रसंग में वेदवती की प्रस्तावना नामक चौदहवा अध्याय समाप्त ॥ १४ ॥ |