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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चदशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्याने तुलसीवरप्रदानम् -
तुलसी के प्रादुर्भाव का प्रसंग -


श्रीनारायण उवाच
धर्मध्वजस्य पत्‍नी च माधवीति च विश्रुता ।
नृपेण सार्धं सा रागाद्‌रेमे वै गन्धमादने ॥ १ ॥
नारायण बोले-राजा धर्मध्वज की पत्नी जो माधवी नाम से प्रख्यात थी, गन्धमादन पर्वत पर राजा के साथ अति अनुराग से विलास करती थी ॥ १ ॥

शय्यां रतिकरीं कृत्वा पुष्पचन्दनचर्चिता ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गी पुष्पचन्दनवायुना ॥ २ ॥
स्त्रीरत्‍नमतिचार्वङ्गी रत्‍नभूषणभूषिता ।
कामुकी रसिकश्रेष्ठा रसिकेशेन संगता ॥ ३ ॥
वहाँ रति के उपयुक्त शय्या बना कर स्वयं पुष्प-चन्दन से विभूषित, सम्पूर्ण अंगों में चन्दन से लिप्त, पुष्प और चन्दन के वायु से सेवित तथा रत्नों के आभूषणों से आभूषित वह परमरसिका रमणीरत्न कामुकी रसिकेश्वर पति के साथ रमण करने में जुटी रहती थी ॥ २-३ ॥

सुरताद्विरतिर्नाऽऽसीत्तयोः सुरतविज्ञयोः ।
गतं वर्षशतं दैवं न जानीतां दिवानिशम् ॥ ४ ॥
वे दोनों रतिक्रीड़ा विशेषज्ञ रति से विरत होने का नाम ही नहीं लेते थे । उन दोनों को रति करते हुए देव-वर्ष के हिसाब से सौ वर्ष बीत गए, किन्तु उन्हें इसका ज्ञान न रहा कि कब दिन बीते, कब रात ॥ ४ ॥

ततो राजा मतिं प्राप्य सुरताद्विरराम सः ।
कामुकी सुन्दरी किंचिन्न च तृप्ति जगाम सा ॥ ५ ॥
दधार गर्भं सा सद्यो देवाब्दशतकं सती ।
श्रीगर्भा श्रीयुता सा च संबभूव दिने दिने ॥ ६ ॥
तब राजा के हृदय में विवेक का प्रादुर्भाव हुआ और वे रति-क्रीड़ा से अलग हो गए, पर वह सुन्दरी कामुकी रानी अभी तृप्त नहीं हुई थी । फिर भी उस सती ने दिव्य सौ वर्षों का गर्भ धारण कर लिया । गर्भ में लक्ष्मी का अंश आने से दिनानुदिन उसकी शोभा बढ़ने लगी ॥ ५-६ ॥

शुभक्षणे शुभदिने शुभयोगेन संयुते ।
शुभलग्ने शुभांशे च शुभस्वामिग्रहान्विते ॥ ७ ॥
कार्तिकीपूर्णिमायां च सितवारे च पाद्मजे ।
सुषाव सा च पद्मांशां पद्मिनीं सुमनोहराम् ॥ ८ ॥
पादपद्मयुगे चैव पद्मरागविराजिताम् ।
राजराजेश्वरीं लक्ष्मीं सर्वावयवसुन्दरीम् ॥ ९ ॥
अनन्तर शुभ क्षण, शुभ दिन, शुभ योग, शुभ लग्न, शुभ अंश और शुभ गृहाधिप के योग में कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि तथा शुक्रवार के दिन उसने लक्ष्मी के अंश से प्रादुर्भूत, पद्मिनी और परम सुन्दरी कन्या को जन्म दिया । उसके दोनों चरण-कमलों में पद्मराग मणि के चिह्न थे (या पद्मरागमणि के समान उसके दोनों चरण-कमलों की कान्ति थी) । उसके समस्त अंग सुन्दर थे तथा वह राज-राजेश्वरी लक्ष्मी के समान थी ॥ ७-९ ॥

राजलक्षमीलक्ष्मयुक्तां राजलक्ष्म्यधिदेवताम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यां शरत्पङ्‍कजलोचनाम् ॥ १० ॥
पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च पश्यन्तीं सस्मितां गृहम् ।
हस्तपादतलारक्तां निम्ननाभिं मनोरमाम् ॥ ११ ॥
वह राजलक्ष्मी के लक्षणों से अंकित तथा राजलक्ष्मी की अधिष्ठात्री देवता थी । उसका मुख शारदीय पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र के समान था । नेत्र शरद् ऋतु के कमल के समान थे और अधर पके हुए बिम्बाफल की समानता कर रहे थे । मुसकराती हुई वह महल (भे चारों ओर) देख रही थी । उस मनोरम कन्या के हाथ-पैर के तलुवे लाल थे और नाभि गहरी थी ॥ १०-११ ॥

तदधस्त्रिवलीयुक्तां वृत्तवल्गुनितम्बिनीम् ।
शीते सुखोष्णसर्वाङ्गीं ग्रीष्मे च सुखशीतलाम् ॥ १२ ॥
श्यामां सुकेशीं रुचिरां न्यग्रोधपरिमण्डलाम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभां सुन्दरीष्वेकसुन्दरीम् ॥ १३ ॥
नरा नार्यश्च तां दृष्ट्‍वा तुलनां दातुमक्षमा ।
तेन नाम्ना च तुलसी तां वदन्ति पुराविदः ॥ १४ ॥
सा च भूमिष्ठमात्रेण योग्या स्त्री प्रकृतिर्यथा ।
सर्वैर्निषिद्धा तपसे जगाम बदरीवनम् ॥ १५ ॥
उसके पेट पर पड़ने वाले तीन बल थे और गोल-गोल नितम्ब बहुत सुन्दर थे । शीतकाल में सुख देने के लिए उसके सम्पूर्ण अंग गरम रहते थे और उष्णकाल में वह शीतलांगी बनी रहती थी । वह सदा सोलह वर्ष की किशोरी जान पड़ती थी । उसके सुन्दर केश ऐसे थे मानो वटवृक्ष को घेरकर शोभा पाने वाले दरोह हों । उसकी कान्ति पीले चम्पे की तुलना कर रही थी । स्त्री और पुरुष उसे देखकर किसी के साथ तुलना करने में असमर्थ हो जाते थे; अतएव विद्वान् पुरुषों ने उसका नाम तुलसी रखा । भूमि पर पधारते ही वह ऐसी सुयोग्या बन गई, मानो साक्षात् प्रकृति देवी हो । सभी लोगों के निषेध (मना) करने पर भी वह तप करने के लिए बदरिकाश्रम चली गयी ॥ १२-१५ ॥

तत्र दैवाब्दलक्षं च चकार परमं तपः ।
मम नारायणः स्वामी भवितेति विनिश्चिता ॥ १६ ॥
'मेरे स्वामी (पति) नारायण हों' ऐसा संकल्प कर उसने एक लाख दिव्य वर्षों तक वहाँ तप किया ॥ १६ ॥

ग्रीष्मे पञ्चतपाः शीते तोयस्था सा च सुन्दरी ।
प्रकाशस्था वृष्टिधारां सहन्ती च दिवानिशम् ॥ १७ ॥
ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि सेवन करके जाड़े के दिनों में जल में रह कर और वर्षा काल में खुले मैदान में आसन लगा कर दिन रात वृष्टि की धारा का वेग सहन करती हुई उस सुन्दरी ने तप किया ॥ १७ ॥

विंशत्सहस्रवर्षं च फलतोयाशना च सा ।
त्रिंशद्वर्षसहस्राब्दं पत्राहारा तपस्विनी ॥ १८ ॥
चत्वारिंशत्सहस्राब्दं वाय्वाहारा कृशोदरी ।
ततो दशसहस्राब्दं निराहारा बभूव सा ॥ १९ ॥
बीस सहस्र वर्षों तक वह केवल फल और जल पर रही, फिर तीस सहस्र वर्षों तक पत्ते खाकर, चालीस सहस्र वर्षों तक वायु पीकर और दस सहस्र वर्षों तक उस पतली कमर वाली ने निराहार रह कर तप किया ॥ १८-१९ ॥

निर्लक्ष्यां चैकपादस्थां दृष्ट्‍वा तां कमलोद्‌भवः ।
समाययौ वरं दातुं परं बदरिकाश्रमम् ॥ २० ॥
निर्लक्ष्य होकर एक पैर पर खड़ी हो वह तपस्या करती रही । उसे देख कर ब्रह्मा बदरिकाश्रम में पधारे ॥ २० ॥

चतुर्मुखं च सा दृष्ट्‍वा प्राणंसीद्धंसवाहनम् ।
तामुवाच जगत्कर्ता विधाता जगतामपि ॥ २१ ॥
हंस पर बैठे हुए चतुर्मुख ब्रह्मा को देख कर उसने नमस्कार किया । अनन्तर जगत् के रचयिता ब्रह्मा ने उससे कहा ॥ २१ ॥

ब्रह्मोवाच
वरं वृणुष्व तुलसि यत्ते मनसि वाञ्छितम् ।
हरिभक्तिं च मुक्तिं वाऽप्यजरामरतामपि ॥ २२ ॥
ब्रह्मा बोले-हे तुलसि ! तुम अपने मनोवांछित वरदान भगवान् की भक्ति, मुक्ति या अजर-अमर होना-जो कुछ चाहो, मांगो ॥ २२ ॥

तुलस्युवाच
शृणु तात प्रवक्ष्यामि यन्मे मनसि वाञ्छितम् ।
सर्वज्ञस्यापि पुरतः का लज्जा मम सांप्रतम् ॥ २३ ॥
तुलसी बोली- हे तात ! मेरे मन का अभीष्ट जो है, उन्हें बता रही हूँ, सुनो ! आप सर्वज्ञाता हैं । अतः आपके सामने मुझे लज्जा किस बात की हो सकती है ? ॥ २३ ॥

अहं च तुलसी गोपी गोलोकेऽहं स्थिता पुरा ।
कृष्णप्रियाकिंकरी च तदंशा तत्सखी प्रिया ॥ २४ ॥
* पहले गोलोक में तुलसी नाम की गोपी थी और भगवान कृष्ण की प्रिया, सेविका, उनका अंश एवं उनकी प्रिय सखी थी ॥ २४ ॥

गोविन्देन सहाऽऽसक्तामतृप्तां मां च मूर्च्छिताम् ।
रासेश्वरी समागत्य चापश्य‍द्‌रासमण्डले ॥ २५ ॥
गोविन्दं भर्त्सयामास मां शशाप रुषाऽन्विता ।
याहि त्वं मानवीं योनिमित्येवं च पितामह ॥ २६ ॥
एक बार रासमण्डल में भगवान् गोविन्द के साथ क्रीड़ा में अत्यन्त आसक्त होने के कारण मुझे तृप्ति होने से पहले ही मूर्छा आ गई । उसी बीच रासेश्वरी राधा ने वहाँ आकर देख लिया । जिससे रुष्ट होकर उन्होंने गोविन्द को फटकार बतायी और मुझे शाप दिया कि-'तुम मनुष्य के यहाँ उत्पन्न हो' ॥ २५-२६ ॥

मामुवाच स गोविन्दो मदंशं त्वं चतुर्भुजम् ।
लभिष्यसि तपस्तप्त्वा भारते ब्रह्मणो वरात् ॥ २७ ॥
हे पितामह ! उस समय भगवान् गोविन्द ने मुझसे कहा, 'तुम भारत में तप कर के ब्रह्मा के वरदान द्वारा मेरे अंश चतुर्भुज विष्णु को पति के रूप में प्राप्त करोगी' ॥ २७ ॥

इत्येवमुक्त्वा देवेशेप्यन्तर्धानमवाप सः ।
देव्या भिया तनुं त्यक्त्वा लब्धं जन्म मया भुवि ॥ २८ ॥
इतना कहकर देवेश्वर भगवान् अन्तहित हो गए और राधिका देवी के भय से मैंने शरीर त्याग कर इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण कर लिया ॥ २८ ॥

अहं नारायणं कान्तं शान्तं सुन्दरविग्रहम् ।
सांप्रतं लब्धुमिच्छमि वरमेवं च देहि मे ॥ २९ ॥
मैं इस समय नारायण भगवान् को, जो कान्त, शान्त तथा सुन्दर शरीर वाले हैं, चाहती हूँ । मुझे यही वरदान देने की कृपा करें ॥ २९ ॥

ब्रह्मोवाच
सुदामा नाम गोपश्च श्रीकृष्णाङ्गसमुद्‌भवः ।
तदंशश्चातितेजस्वी चालभज्जन्म भारते ॥ ३० ॥
ब्रह्मा बोले-भगवान् श्रीकृष्ण के अंग से उत्पन्न होने वाले सुदामा नामक गोप के अति तेजस्वी अंश ने भारत में जन्म ग्रहण किया है ॥ ३० ॥

साम्प्रतं राधिकाशापाद्‌दनुवंशसमुद्‌भवः ।
शङ्खचूड इति ख्यातस्त्रैलोक्ये न च तत्समः ॥ ३१ ॥
वह राधिका जी के शाप से इस समय दानववंश में शंखचूड़ नामक प्रख्यात दानव हुआ है जिसकी बराबरी तीनों लोक में कोई नहीं कर सकता ॥ ३० ॥

गोलोके त्वां पुरा दृष्ट्‍वा कामोन्मथितमानसः ।
विलम्बितुं मा शशाक राधिकायाः प्रभावतः ॥ ३२ ॥
वह गोलोक में तुम्हें देख कर अत्यन्त कामातुर हुआ था किन्तु राधिका के प्रभाववश नियम का उल्लंघन करने में असमर्थ रहा ॥ ३२ ॥

स च जातिस्मरस्तप्त्वा त्वां ललाभ वरेण च ।
जातिस्मरा तु त्वमपि सर्वं जानासि सुन्दरि ॥ ३३ ॥
हे सुन्दरि ! उसे पूर्व जन्म का स्मरण है, इसलिए उसने तप कर के वरदान द्वारा तुम्हें प्राप्त कर लिया है और जातिस्मर होने के कारण तुम भी सब कुछ जानती ही हो ॥ ३३ ॥

अधुना तस्य पत्‍नी च भव भाविनि शोभने ।
पश्चान्नारायणं कान्तं शान्तमेव लभिष्यसि ॥ ३४ ॥
अतः हे शोभने, सुन्दरि ! इस समय उसकी पत्नी होना स्वीकार करो और पश्चात् शान्त एवं कान्त नारायण भगवान् मिल ही जायेंगे ॥ ३४ ॥

शापान्नारायणस्यैव कलया दैवयोगतः ।
प्राप्नोषि वृक्षरूपं च त्वं पूता विश्वपावनी ॥ ३५ ॥
दैवसंयोग से नारायण के ही शापवश तुम अपनी कला से वृक्ष बन कर भारत में रहोगी और तुमसे सारा विश्व पवित्र होगा ॥ ३५ ॥

प्रधाना सर्वपुष्पाणां विष्णुप्राणाधिका भवेः ।
त्वया विना च सर्वेषां पूजा च विफला भवेत् ॥ ३६ ॥
सम्पूर्ण पुष्पों में तुम प्रधान मानी जाओगी । भगवान् विष्णु तुम्हें प्राणों से अधिक प्रिय मानेंगे । तुम्हारे बिना सभी की पूजा निष्फल समझी जाएगी ॥ ३६ ॥

वृन्दावने वृक्षरूपा नाम्ना वृन्दावनीति च ।
त्वत्पत्रैर्गोपिका गोपाः पूजयिष्यन्ति माधवम् ॥ ३७ ॥
वृन्दावन में वृक्ष होने पर तुम्हारा 'वृन्दावनी' नाम होगा और तुम्हारे ही पत्रों द्वारा गोप-गोपियाँ माधव कृष्ण की अर्चना करेंगी ॥ ३७ ॥

वृक्षाधिदेवरूपेण सार्धं कृष्णेन संततम् ।
विहरिष्यसि गोपेन स्वच्छन्दं मद्वरेण च ॥ ३८ ॥
तुम वृक्ष की अधीश्वरी रूप से भगवान् कृष्ण के साथ और मेरे वरदान से उस गोप के साथ स्वच्छन्द बिहार करोगी । ॥ ३८ ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा सस्मिता हृष्टमानसा ।
प्रणनाम च धातारं तं च किंचिदुवाच ह ॥ ३९ ॥
ऐसी बात सुनकर मुसकराती हुई वह अत्यन्त प्रसन्न हुई और अनन्तर ब्रह्मा को प्रणाम कर उसने उनसे कुछ निवेदन किया ॥ ३९ ॥

तुलस्युवाच
यश मे द्विभुजे कृष्णे वाञ्छा च श्यामसुन्दरे ।
सत्यं ब्रवीमि हे तात न तथा च चतुर्भुजे ॥ ४० ॥
तुलसी बोली--तात ! मैं सत्य कह रही हूँ कि दो भुजाधारी श्यामसुन्दर कृष्ण में मेरी जैसी प्रीति है वैसी प्रीति चतुर्भुज विष्णु में नहीं है ॥ ४० ॥

अतृप्ताऽहं च गोविन्दे दैवाच्छृङ्गारभङ्गता ।
गोविन्दस्यैव वचनात्प्रार्थयामि चतुर्भुजम् ॥ ४१ ॥
दैवसंयोग से श्रृंगारभंग हो जाने के कारण मैं भगवान् कृष्ण से तृप्त न हो सकी किन्तु उन्हीं के कहने से चतुर्भुज विष्णु के लिये प्रार्थना कर रही हूँ ॥ ४१ ॥

त्वत्प्रसादेन गोविन्दं पुनरेव सुदुर्लभम् ।
ध्रुवमेव लभिष्यामि राधाभीतिं प्रमोचय ॥ ४२ ॥
आपकी कृपा से मैं पुनः अत्यन्त दुर्लभ कृष्ण को निश्चित रूप से प्राप्त करूँगी । किन्तु मुझे राधा के भय से मुक्त कर दीजिए ॥ ४२ ॥

ब्रह्मोवाच
गृहाण राधिकामन्त्रं ददे वै षोडशाक्षरम् ।
तस्याश्च प्राणतुल्या त्वं मद्वरेण भविष्यसि ॥ ४३ ॥
ब्रह्मा बोले-मैं राधा का सोलह अक्षर वाला मन्त्र तुम्हें बता रहा हूँ, उसे ग्रहण करो । उसके प्रभाव से तुम मेरे वरदान द्वारा उनके प्राणों के समान प्रिय हो जाओगी ॥ ४३ ॥

शृङ्गारं युवयोर्गोप्यमाज्ञास्यति च राधिका ।
राधासमा त्वं सुभगा गोविन्दस्य भविष्यसि ॥ ४४ ॥
राधिका स्वयं तुम दोनों को एकान्त में शृंगार करने की आज्ञा प्रदान कर देंगी तथा राधा के समान ही तुम गोविन्द की सौभाग्यवती प्रिया बन जाओगी ॥ ४४ ॥

इक्त्येवमुक्त्वा दत्त्वा च देव्यै तत्षोडशाक्षरम् ।
मन्त्रं तस्यै जगद्धाता स्तोत्रं च कवचं परम् ॥ ४५ ॥
इतना कह कर जगत् के रचयिता ब्रह्मा ने उसे राधा का षोडशाक्षर मन्त्र, स्तोत्र और श्रेष्ठ कवच प्रदान किया ॥ ४५ ॥

सर्वं पूजाविधानं च पुरश्चर्याविधिक्रमम् ।
परं शुभाशिषं कृत्वा सोऽन्तर्धानमवाप ह ॥ ४६ ॥
फिर सम्पूर्ण पूजाविधान, पुरश्चरण की विधि का क्रम और शुभाशीर्वाद देकर ब्रह्मा अन्तर्हित हो गये ॥ ४६ ॥

ता च ब्रह्मोपदेशेन पुण्ये बदरिकाश्रमे ।
जजाप परमं मन्त्रं यदिष्टं पूर्वजन्मनः ॥ ४७ ॥
पश्चात् तुलसी ने भी ब्रह्मा के उपदेश से पुण्य बदरिकाश्रम में जाकर अपने पूर्वजन्म के उस अभीष्ट मन्त्र का जप किया ॥ ४७ ॥

दिव्यं द्वादशवर्षं च पूजां चैव चकार सा ।
बभूव सिद्धा सा देवी तत्प्रत्यादेशमाप च ॥ ४८ ॥
और दिव्य बारह वर्षों तक पूजा करने के अनन्तर वह देवी सिद्ध हो गयी और उसे देवादेश प्राप्त हुआ ॥ ४८ ॥

सिद्धे तपसि मन्त्रे च वरं प्राप्य यथेप्सितम् ।
बुभुजे च महाभागं यद्विश्वेषु सुदुर्लभम् ॥ ४९ ॥
तप और मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर उसने अभीष्ट वर प्राप्त किया, जिससे विश्व-दुर्लभ महान् पुण्य-सुख उसे प्राप्त हुआ ॥ ४९ ॥

प्रसन्नमानसा देवी तत्याज तपसः क्लमम् ।
सिद्धे फले नराणां च दुःखं तत् सुखमुत्तमम् ॥ ५० ॥
तपस्या सम्बन्धी जो भी क्लेश थे, वे मन में प्रसन्नता उत्पन्न होने के कारण दूर हो गए; क्योंकि फल सिद्ध हो जाने पर मनुष्य का दुःखही उत्तम सुख के रूप में परिणत हो जाता है ॥ ५० ॥

भुक्त्वा पीत्वा च संतुष्टा शयनं च चकार सा ।
तल्पे मनोरमे तत्र पुष्पचन्दनचर्चिते ॥ ५१ ॥
इस प्रकार उसने भी भोजनपान से सन्तुष्ट होकर पुष्प-चन्दन-चर्चित एवं मनोहर शय्या पर शयन किया ॥ ५१ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने
तुलसीवरप्रदानं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृति-खण्ड में तुलसी-वर-प्रदान नामक पन्द्रहवां अध्याय समाप्त ॥ १५ ॥

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