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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षोडशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्यानम् -
तुलसी के साथ शंखचूड का विवाह -


श्रीनारायण उवाच
तुलसी परितुष्टा सा चास्वाप्सीद्धृष्टमानसा ।
नवयौवनसम्पन्ना प्रशंसन्ती वराङ्‌गना ॥ १ ॥
नारायण बोले-जिस समय नवयौवन से सम्पन्न सुन्दरी तुलसी भलीभांति सन्तुष्ट और प्रसन्नचित्त होकर शयन कर रही थी ॥ १ ॥

चिक्षेप पञ्चबाणश्च पञ्च बाणांश्च तां प्रति ।
पुष्पायुधेन सा विद्धा पुष्पचन्दनचर्चिता ॥ २ ॥
उसी समय कामदेव ने उस पर अपने पाँचों बाणों को चला दिया, जिससे वह पुष्पों और चन्दनों से चचित होने पर भी उस कामबाण से जलने लगी ॥ २ ॥

पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गी कम्पिता रक्तलोचना ।
क्षणं सा शुष्कतां प्राप क्षणं मूर्च्छामवाप ह ॥ ३ ॥
क्षणमुद्विग्नतां प्राप क्षणं तन्द्रां सुखावहाम् ।
क्षणं सा दहनं प्राप क्षणं प्राप प्रमत्तताम् ॥ ४ ॥
क्षणं सा चेतनां प्राप क्षणं प्राप विषण्णताम् ।
उत्तिष्ठन्तौ क्षणं तल्पाद्‌गच्छन्ती निकटं क्षणम् ॥ ५ ॥
उसके सर्वांग में रोमाञ्च हो गया । वह कांपने लगी और उसके नेत्र रक्तवर्ण हो गये । क्षण में शुष्कता, क्षण में मूर्छा, क्षण में उद्विग्नता, क्षण में आलस्य क्षण में सुख, क्षण में जलन, क्षण में प्रमत्तता, क्षण में चेतना और क्षण में विषाद उस पर दौड़ने लगे । क्षण में वह शय्या से उठकर इधर-उधर घूमने लगती और क्षण में पुनः वहीं आ जाती ॥ ३-५ ॥

भ्रमन्ती क्षणमुद्वेगाद्‌विवसन्ती क्षणं पुनः ।
क्षणभेव समुद्वेगादस्वाप्सीत्पुनरेव सा ॥ ६ ॥
क्षण में ऊबकर भ्रमण कर , क्षण में विवस्त्र हो जाती और क्षण में पुनः आकर शय्या पर लेट जाती ॥ ६ ॥

पुष्पचन्दनतल्पं च तद्‌बभूवातिकण्टकम् ।
विषमाहारकं स्वादु दिव्यरूपं फलं जलम् ॥ ७ ॥
पुष्प-चन्दन की शय्या उसे कांटे की भांति अत्यन्त चुभने लगी; दिव्य स्वाद से भरा हुआ जल और फल भी उसे विषम आहार लगने लगा ॥ ७ ॥

निलयश्च निराकारः सूक्ष्मवस्त्रं हुताशनः ।
सिन्दुरपत्रकं चैव व्रणतुल्यं च दुःखदम् ॥ ८ ॥
घर शून्य दिखाई देता था । सूक्ष्म वस्त्र अग्नि की भाँति मालूम होता था । सिन्दूरपत्र व्रण के समान दुःखदायक हो रहा था ॥ ८ ॥

क्षणं ददर्श तन्द्रायां सुवेषं पुरुषं सती ।
सुन्दरं च युवानं च सस्मितं रसिकेश्वरम् ॥ ९ ॥
चन्द्रनोक्षितसर्वाङ्‌गं रत्‍नभूषणभूषितम् ।
आगच्छन्तं माल्यवन्तं पश्यन्तं तन्मुखाम्बुजम् ॥ १० ॥
क्षणभर की तन्द्रावस्था में उस सती ने एक सुन्दर वेष वाले पुरुष को देखा । वह परम सुन्दर युवक था । उसके मुख पर मुसकान छायी थी । उसके सम्पूर्ण अंगों में चन्दन का अनुलेप था । रत्नों के बने आभूषण उसे सुशोभित कर रहे थे । उसके गले में सुन्दर माला थी । उसके नेत्र तुलसी के मुखकमल को देख रहे थे ॥ ९-१० ॥

कथयन्तं रतिकथां चुम्बन्तमधरं मुहुः ।
शयानं पुष्पतल्पे च समाश्लिष्यन्तमङ्‌गकम् ॥ ११ ॥
वह पुष्प-शय्या पर लेटकर रतिवर्धक कथाओं को कहते हुए बार-बार तुलसी का अधर चुम्बन तथा उसके अंगों का आलिंगन कर रहा था । ॥ ११ ॥

पुनरेव तु गच्छन्तमागच्छन्तं वसन्तकम् ।
कान्त क्व यासि प्राणेश तिष्ठेत्येवमुवाच सा ॥ १२ ॥
तुलसी ने पुनः देखा कि वह चला गया तथा वसन्त आ गया है । इतने में वह यह कह कर कि-हे प्राणनाथ, हे कान्त, कहाँ जा रहे हो, थोडी देर रुक जाओ, उठ बैठी ॥ १२ ॥

पुनः स्वचेतनां प्राप्य विललाप पुनः पुनः ।
एवं तपोवने सा च तस्थौ तत्रैव नारद ॥ १३ ॥
नारद ! पुनः चेतना प्राप्त होने पर (अर्थात् तन्द्रा भंग होने पर) वह बार-बार विलाप करने लगी । इस प्रकार वह देवी तपोवन में रहकर समय व्यतीत कर रही थी ॥ १३ ॥

शङ्खचूडो महायोगी जैगीषव्यान्मनोरमम् ।
कृष्णस्य मन्त्रं सम्प्राप्य प्राप्य सिद्धिं तु पुष्करे ॥ १४ ॥
उसी समय महायोगी शंखचूड ने जैगीषव्य ऋषि से श्रीकृष्ण का मनोरम मंत्र प्राप्त करके पुष्कर क्षेत्र में उसको सिद्ध किया ॥ १४ ॥

पठन्सदा तु कवचं सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
ब्रह्मेशाच्च वरं प्राप्य यत्तन्मनसि वाञ्छितम् ॥ १५ ॥
उसने समस्त मंगलों का मंगल रूप श्रीकृष्णकवच का सदा पाठ करके ब्रह्मा के प्रभु से मनोनीत वरदान भी प्राप्त कर लिया था ॥ १५ ॥

आज्ञया ब्रह्मणः सोऽपि बदरीं वै समाययौ ।
आगच्छन्तं शङ्खचूडमपश्यत्तुलसी मुने ॥ १६ ॥
नवयौवनसंपन्नं कामदेवसमप्रभम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभं रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ १७ ॥
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं शरत्पङ्‌कजलोचनम् ।
महारत्‍नगणाक्लृप्तविमानस्थं मनोहरम् ॥ १८ ॥
रत्‍नकुण्डलयुग्माढ्यगण्डस्थलविराजितम् ।
पारिजातप्रसूनाढ्यमाल्यवन्तं च सुस्थितम् ॥ १९ ॥
कस्तूरीकुङ्कुमयुतं सुगन्धितिलकोज्ज्वलम् ।
सा दृष्ट्‍वा संनिधाने तं मुखमाच्छाद्य वाससा ॥ २० ॥
मुने ! ब्रह्मा की आज्ञा से वह भी वदरिकाश्रम में गया और तुलसी ने आते हुए उसे देखा । वह नवीन यौवन से सम्पन्न और कामदेव के समान सुन्दर था । उसकी कान्ति श्वेतचम्पा के समान थी । रत्नमय अलंकारों से वह अलंकृत था । उसके मुख की शोभा शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की समता कर रही थी । उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान थे । श्रेष्ठ रत्नों की राशि से बने हुए विमान पर वह सुन्दर युवक विराजमान था । दो रत्नमय कुण्डल उसके गंडस्थल की छवि बढ़ा रहे थे । पारिजात के पुष्पों की माला उसने पहन रखी थी । उसका मुख मुसकान से भरा था । कस्तूरी और कुंकुम से युक्त सुगंधपूर्ण चन्दन द्वारा उसके अंग अनुलिप्त थे ॥ १६-२० ॥

सस्मिता तं निरीक्षन्ती सकटाक्षं पुनः पुनः ।
बभूव सा नम्रमुखी नवसङ्‌गमलज्जिता ॥ २१ ॥
ऐसे युवक को अपने समीप देखकर उसने वस्त्र से अपने मुख को (थोड़ा-सा) ढक लिया । फिर मुसकराती तथा बार-बार उसे कटाक्ष के साथ देखती हुई उसने नवीन समागम के कारण लज्जा से अपना मुख नीचे की ओर कर लिया ॥ २१ ॥

कामुकी कामबाणेन पीडिता पुलकान्विता ।
पिबन्ती तन्मुखाम्भोजं लोचनाभ्यां च संततम् ॥ २२ ॥
किन्तु काम-बाण से पीड़ित होने के कारण उस कामुकी के शरीर में रोमांच हो आया । तब वह निरन्तर अपने दोनों नेत्रों से शंखचूड के मुखकमल का पान करने लगी ॥ २२ ॥

ददर्श शङ्खचूडश्च कन्यामेकां तपोवने ।
पुष्पचन्दनतल्पस्थां वसन्तीं वाससाऽऽवृताम् ॥ २३ ॥
पश्यन्तीं तन्मुखं शश्वत्सस्मितां सुमनोहराम् ।
सुपीनकठिनश्रोणीं पीनोन्नतपयोधराम् ॥ २४ ॥
उधर शंखचूड ने भी तपोवन में अकेली उस कन्या को देखा । वह वस्त्रावृत होकर पुष्पचन्दन की शय्या पर विराजमान थी । वह अत्यन्त सुन्दरी थी और निरन्तर शंखचूड के मुख को देखती हुई मुसकरा रही थी ॥ २३-२४ ॥

मुक्तापङ्क्तिप्रभाजुष्टदन्तपङ्क्तिं सुबिभ्रतीम् ।
पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च सुनासां सुन्दरीं वराम् ॥ २५ ॥
तत्तकाञ्चनवर्णाभां शरच्चन्द्रसमप्रभाम् ।
स्वतेजसा परिवृतां सुखदृश्यां मनोरमाम् ॥ २६ ॥
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।
सिन्दूरबिन्दुना शश्वत्सीमन्ताधःस्थलोज्ज्वलाम् ॥ २७ ॥
निग्ननाभिगभीरां च तदधस्त्रिवलीयुताम् ।
करपद्मतलारक्तां नखचन्द्रैर्विभूषिताम् ॥ २८ ॥
स्थलपद्मप्रभाजुष्टं पादपद्मं च बिभ्रतीम् ।
आरक्तवर्णं ललितमलक्तकसमप्रभम् ॥ २९ ॥
स्थलपद्मैश्च जलजैः पद्मरागविराजिताम् ।
शरदिन्दुविनिन्द्यैकनखेन्द्वोघविराजिताम् ॥ ३० ॥
उसका श्रोणी भाग स्थूल और कठोर था । स्तन स्थूल एवं उन्नत थे । दांतों की पंक्तियाँ मोतियों की पंक्ति की भांति चमक रही थीं । अवरोष्ठ पके विम्बाफल के समान थे । उस सुन्दरी की नासिका बड़ी अच्छी थी । वर्ण तपाये हुए सुवर्ण के सदृश था । कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमा की तरह थी । वह अपने तेज से घिरी हुई थी । उसका दर्शन सौम्य था । वह मनोरम थी । उसके शरीर पर कस्तुरी-बिन्दुओं के साथ चन्दन-बिन्दु तथा सिन्दूरबिन्दु शोभायमान हो रहे थे । सोमन्त (मांग) का निचला भाग उज्ज्वल था । उसकी नाभि गंभीर थी । वह त्रिवली (तीन बलों) से युक्त थी । उसके करकमल का तल भाग (हथेली) लाल था । नख चन्द्राकार थे । चरणारविन्द स्थलकमल की-सी कान्ति से युक्त थे । वे (दोनों चरण) लाल, ललित तथा महावर के समान प्रभापूर्ण थे । वह स्थकमल और रक्तकमल समेत पद्मराग मणि से विभूषित थी ॥ २५-३० ॥

अमूल्यरत्‍नसंमिश्रयावकेन स्वलंकृताम् ।
मणीन्द्रमुख्यखचितक्वणन्मञ्जीररञ्जिताम् ॥ ३ १ ॥
दधतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
अमूल्यरत्‍नसंक्लृप्तमकराकृतिरूपिणा ॥ ३२ ॥
चित्रकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् ।
रत्‍नेन्द्रमुक्ताहारश्रीस्तनमध्यस्थलोसज्ज्वलाम् ॥ ३३ ॥
रत्‍नकङ्‌कणकेयूरशङ्खभूषणभूषिताम् ।
रत्‍नाङ्‍गुलीयदिव्यैरङ्‍गुल्याबलिभिर्युताम् ॥ ३४ ॥
शारदीय चन्द्रमा को तिरस्कृत करने वाले नखचन्द्रों से वह सुशोभित थी । अमूल्य रत्नों से मिश्रित महावर से वह अलंकृत थी । सर्वोत्तम मणियों के बने शब्दायमान नूपुर उसके पैरों की शोभा बढ़ा रहे थे । मालती के पुष्पों की माला से सम्पन्न केशकलाप उसके मस्तक पर शोभा पा रहे थे । उसके कानों में अमूल्य रत्नों के बने हुए मकराकृत कुंडल थे । सर्वोत्तम रत्नों से निर्मित हार उसके वक्षःस्थल को समुज्वल बना रहा था । रत्नमय कंकण, केयूर, शंख और अंगूठियाँ उस देवी की शोभा बढ़ा रही थीं ॥ ३१-३४ ॥

दृष्ट्‍वा तां ललितां कन्यां सुशीलां सुदतीं सतीम् ।
उवास तत्समीपे च मधुरं तामुवाच सः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार की सुन्दरी सुशोल, आकर्षक दाँतों वाली एवं साध्वी उस कन्या को देखकर शंखचूड उसके पास बैठ गया और मीठे शब्दों में बोला ॥ ३५ ॥

शङ्खचूड उवाच
कात्वं कस्य च कन्याऽसि धन्येमान्ये सुयोषिताम् ।
का त्वं कामिनि कल्याणिसर्वकल्याणदायिनि ॥ ३६ ॥
शंखचूड बोले-सुन्दरी ललनाओं में तुम धन्या और मान्या हो, अतः तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? हे कामिनि ! हे कल्याणि ! तुम समस्त कल्याण प्रदान करने वाली हो, इसलिए कहो तुम कौन हो ? ॥ ३६ ॥

स्वर्गभोगादिसारेऽतिविहारे हाररूपिणि ।
संसारदारसारे च मायाधारे मनोहरे ॥ ३७ ॥
जगद्विलक्षणं क्षामे मुनीनां मोहकारिणि ।
मौनं त्यक्त्वा किंकरं मां सम्भाषां कुरु सुन्दरि ॥ ३८ ॥
तुम स्वर्ग-भोग आदि का सार हो । अत्यन्त विहार करने वाली हो । हार-रूपिणी हो । संसार का सार हो । माया का आधार हो । मनोरमा हो । संसार में विलक्षण हो । छरहरे शरीर वाली हो । मुनिजनों को मोहित करने वाली हो अतः मौनभाव त्यागकर इस सेवक से कुछ बोलने की कृपा करो ॥ ३७-३८ ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा सकामा वामलोचना ।
सस्मिता नम्रवदना सकामं तमुवाच सा ॥ ३९ ॥
इस प्रकार की बातें सुनकर उस वामलोचना ने कामवासना से मुसकराते हुए मुख नीचे की ओर झुका कर उस कामुक युवक से कहना आरम्भ किया ॥ ३९ ॥

तुलस्युवाच
धर्मध्वजसुताऽहं च तपस्यायां तपोवने ।
तपस्विनीह तिष्ठामि कस्त्वं गच्छ यथासुखम् ॥ ४० ॥
तुलसी बोली-मैं धर्मध्वज की कन्या हूँ । इस तपोवन में तपस्या करने के लिए आई हूँ और यहाँ तपस्विनी होकर रह रही हूँ । तुम कौन हो ? यहाँ से सुखपूर्वक चले जाओ ॥ ४० ॥

कामिनीं कुलजातां च रहस्येकाकिनीं सतीम् ।
न पृच्छति कुले जात एवमेव श्रुतौ श्रुतम् ॥ ४१ ॥
लम्पटोऽसत्कुले जातो धर्मशास्त्रार्थवर्जितः ।
येनाश्रुतः क्षुतेरर्थः स कामीच्छति कामिनीम् ॥ ४२ ॥
आपातमधुरामन्ते चान्तकां पुरुषस्य ताम् ।
विषकुम्भाकाररूपाममृतास्यां च संततम् ॥ ४३ ॥
श्रुतियों में यह बात सुनी गई है कि किसी कुलीन एवं सती कन्या से एकान्त में कोई भी कुलीन पुरुष बात नहीं करता है । जो लम्पट, अकुलीन तथा धर्मशास्त्र के अर्थज्ञान से शून्य एवं वेदों के अर्थों के श्रवण से रहित है, वही कामी पुरुष कामिनी को चाहता है । कामिनी तत्काल रमणीय प्रतीत होती है, किन्तु अन्त में पुरुष के लिए घातक हो जाती है । क्योंकि स्त्रियां विष से भरे हुए घड़े के समान है, परन्तु उसका मुख ऐसा जान पड़ता है मानो सदा अमृत से भरा हो ॥ ४१-४३ ॥

हदये क्षुरधाराभां शश्वन्मधुरभाषिणीम् ।
स्वकार्यपरिनिष्पत्तितत्परां सततं च ताम् ॥ ४४ ॥
कामिनी का हृदय निरन्तर क्षुर (स्तुरे) की धार के समान होता है, पर वह निरन्तर मधुरवाणी बोलती रहती है । वह अपने कार्य सिद्ध करने में सदा तत्पर रहती है ॥ ४४ ॥

कार्यार्थे स्वामिवशगामन्यथैवावशां सदा ।
स्वान्तर्मलिनरूपां च प्रसन्नवदनेक्षणाम् ॥ ४५ ॥
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही वह स्वामी (पति) के वश में रहती है अन्यथा वह सदा अवश (किसी के अधीन न रहने वाली) है । उसका हृदय अत्यन्त मलिन होता है, किन्तु वह ताकती है प्रसन्न मुखमुद्रा से ॥ ४५ ॥

श्रुतौ पुराणे यासां च चरित्रमनिरूपितम् ।
तासु को विश्वसेत्प्राज्ञो ह्यप्राज्ञ इव सर्वदा ॥ ४६ ॥
वेदों और पुराणों में जिसका चरित्र न कहने योग्य बताया गया है उसके प्रति कौन बुद्धिमान् मनुष्य मूर्ख की भाँति सदा विश्वास करेगा ॥ ४६ ॥

तासां को वा रिपुर्मित्रं प्रार्थयन्तीं नवं नवम् ।
दृष्ट्‍वा सुवेशं पुरुषमिच्छन्तीं हृदये सदा ॥ ४७ ॥
स्त्रियों के शत्रु और मित्र नहीं होते हैं । वे नित्य नवसमागम चाहती हैं । सुन्दर वेश वाले पुरुष की कामना सदा हृदय में किया करती हैं ॥ ४७ ॥

बाह्ये स्वात्मसतीत्वं च ज्ञापयन्तीं प्रयत्‍नतः ।
शश्वत्कामां च रामां च कामाधारां मनोहराम् ॥ ४८ ॥
बाह्ये छलाच्छादयन्तीं स्वान्तर्मैथुनलालसाम् ।
कान्तं ग्रसन्तीं रहसि बाह्येऽतीव सुलज्जिताम् ॥ ४९ ॥
किन्तु बाहर (ऊपर) से अपने सतीत्व को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं । स्त्रियाँ सदा कामयुक्त, रमणीय, कामाधार तथा मनोहर होती हैं और अपने भीतर मैथुन की लालसा रखकर ऊपर से उसे छिपाये रहती हैं । इसी तरह वे ऊपर से बड़ी लज्जाशील बनी रहती हैं, पर एकान्त में कान्त को ग्रस लेती हैं ॥ ४८-४९ ॥

मानिनीं मैथुनाभावे कोपिनीं कलहाङ्‍कुराम् ।
सुप्रीता भूरिसंभोगात्स्वल्पमैथुनदुःखिताम् ॥ ५० ॥
इस भाँति वे अत्यन्त मानिनी स्त्रियाँ मैथुन (रति) क्रिया में कमी होने पर कोप की मूर्ति बन जाती हैं । इससे उनमें कलह का अंकुर निकल आता है । अत्यन्त सम्भोग करने से वे प्रसन्न रहती हैं और स्वल्प मैथुन करने से दुःखी हो जाती हैं । ॥ ५० ॥

सुमिष्टान्नं शीततोयमाकाङ्‍क्षन्ती च मानसे ।
सुन्दरं रसिकं कान्तं युवानं गुणिनं सदा ॥ ५१ ॥
वे मन में सदैव उत्तम भोजन और शीतल जल तथा सुन्दर, रसिक, युवा और गुणी पति की अभिलाषा रखती हैं ॥ ५१ ॥

सुखात्परमतिस्नेहं कुर्वतीं रतिकर्तरि ।
प्राणाधिकं प्रियतमं संभोगकुशलं प्रियम् ॥ ५२ ॥
रति करनेवाले पुरुष से वह पुत्र से भी अधिक स्नेह करती हैं । रति-दक्ष पुरुष उन्हें प्राणों से अधिक प्रिय होता है ॥ ५२ ॥

पश्यन्तीं रिपुतुल्यं च वृद्धं वा मैथुनाक्षमम् ।
कलहं कुर्वतीं शश्वत्तेन सार्धं सुकापनाम् ॥ ५३ ॥
मैथुन करने में असमर्थ या वृद्ध पुरुष को वे शत्रु समझती हैं । इससे अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसके साथ वे निरन्तर कलह करती रहती हैं ॥ ५३ ॥

चर्चया भक्षयन्ती तं कीनाश इव गोरजः ।
दुःसाहसस्वरूपां च सर्वदोषाश्रयां सदा ॥ ५४ ॥
झगड़ा करने पर उसे यमराज की भाँति खा लेने के लिए तैयार हो जाती हैं । इस प्रकार दुःसाहस की मूर्ति बनकर सदा समस्त दोषों को अपनाये रहती हैं ॥ ५४ ॥

शश्वत्कपटरूपां च दुःसाध्यामप्रतिक्रियाम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां दुस्त्याज्यां मोहरूपिणीम् ॥ ५५ ॥
तपोमार्गार्गलां शश्वन्मुक्तिद्वारकपाटिकाम् ॥ ५६ ॥
हरेर्भक्तिव्यवहितां सर्वमायाकरण्डिकाम् ।
संसारकारागारे च शश्वन्निगडरूपिणीम् ॥ ५७ ॥
निरन्तर कपट का रूप धारण करने वाली स्त्रियाँ दुःसाध्य तथा अप्रतीकार्य होती हैं । वे ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि के लिए भी दुस्त्यज बतायी गयी हैं । वे मोहरूपा हैं । तपस्या के मार्ग को अवरुद्ध करने के लिए अर्गलास्वरूप हैं और मुक्ति-द्वार को बंद करने के लिए कपाटरूपा हैं । वे विष्णु की भक्ति में बाधक, सम्पूर्ण माया की करण्डिका (सन्दूक) और संसार रूपी कारागार में (डाले रहने के लिए) सदा बेड़ी के समान हैं ॥ ५५-५७ ॥

इन्द्रजालस्वरूपां च मिथ्यावादिस्वरूपिणीम् ।
बिभ्रतीं बाह्मसौन्दर्यमध्याङ्‌गमतिकुत्सितम् ॥ ५८ ॥
नानाविण्मूत्रपूयानामाधारं मलसंयुतम् ।
दुर्गन्धिदोषसंयुक्तं रक्ताक्तं चाप्यसंस्कृतम् ॥ ५९ ॥
मायारूपं मायिनां च विधिना निर्मितं पुरा ।
विषरूपां मुमुक्षूणामदृश्यां चैव सर्वदा ॥ ६० ॥
इत्युक्त्वा तुलसी तं च विरराम च नारद ।
सस्मितः शङ्खचूडश्च प्रवक्तुमुगचक्रमे ॥ ६१ ॥
अतएव स्त्री इन्द्रजाल के समान होती है और मिथ्यावादी का तो उसे स्वरूप ही कहना चाहिए । बाहर से तो वह अत्यन्त सुन्दरता धारण करती है, परन्तु उसके भीतर के अंग कुत्सित भावों से भरे रहते हैं । उसका शरीर विष्ठा, मूत्र, पीब और मल आदि नाना प्रकार की दुर्गंधपूर्ण वस्तुओं का आधार है । रक्तरंजित तथा दोषयुक्त यह शरीर कभी पवित्र नहीं रहता । सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा ने मायावी व्यक्तियों के लिए इस मायास्वरूपिणी स्त्री का सर्जन किया है । मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुषों के लिए यह विष का काम करती है । अतः मोक्षाभिलाषी व्यक्ति उसे देखना भी नहीं चाहते । नारद ! शंखचूड से इस प्रकार कहकर तुलसी चुप हो गई । तब शंखचूड हँसकर कहने लगा ॥ ५८-६१ ॥

शङ्खचूड उवाच
त्वया यत्कथितं देवि न च सर्वमलीककम् ।
किंचित्सत्यमलीकं च किंचिन्मत्तो निशामय ॥ ६२ ॥
निर्मितं विविधं धात्रा स्त्रीरूपं सर्वमोहनम् ।
कृत्यारूप वास्तवं च प्रशस्यं चाप्रशंसितम् ॥ ६३ ॥
लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गासावित्रीराधिकादिकम् ।
सृष्टिसूत्रस्वरूपं चाप्याद्यं स्रष्टा तु निर्मितम् ॥ ६४ ॥
शंखचूड बोले-हे देवि ! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब मिथ्या नहीं है । कुछ सत्य भी है और कुछ असत्य भी । अब मैं भी कुछ कह रहा हूँ, सुनो ! ब्रह्मा ने सर्वमोहक स्त्रीरूप के दो भेद किये । एक है वास्तवस्वरूप और दूसरा है कृत्यास्वरूप । पहला प्रशस्त है और दूसरा अप्रशस्त । स्रष्टा ने आदिकाल में सबसे पहले लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री और राधिका आदि देवियों का निर्माण किया, जो सृष्टि का सूत्रस्वरूप हैं (अर्थात् जिनसे सृष्टि आरम्भ हुई हैं) ॥ ६२-६४ ॥

एतासामंशरूपं यत्स्त्रीरूपं वास्तवं स्मृतम् ।
तत्प्रशस्यं यशोरूपं सर्वमङ्‌गलकारणम् ॥ ६५ ॥
इन देवियों के अंश से जो अन्य स्त्रीरूप बना है, वह वास्तव में प्रशंसनीय, यशःरूप और समस्त मंगलों का कारण है ॥ ६५ ॥

शतरूपा देवहूतिः स्वधा स्वाहा च दक्षिणा ।
छायावती रोहिणी च वरुणानी शची तथा ॥ ६६ ॥
कुबेरवायुपत्‍नी साऽप्यदितिश्च दितिस्तथा ।
लोपामुद्राऽनसूया च कैटभी तुलसी तथा ॥ ६७ ॥
अहल्याऽरुन्धती मैना तारा मन्दोदरी परा ।
दमयन्ती वेदवती गङ्‌गा च यमुना तथा ॥ ६८ ॥
पुष्टिस्तुष्टिः स्मृतिर्मेधा कालिकाच वसुंधरा ।
षष्ठी मङ्‌गलचण्डी च मूर्तिवै धर्मकामिनी ॥ ६९ ॥
स्वस्तिः श्रद्धा च कान्तिश्च तुष्टिः शान्तिस्तथापरा ।
निद्रा तन्द्रा क्षुत्पिपासा संध्या रात्रिर्दिनानि च ॥ ७० ॥
संपत्तिवृत्तिकीर्त्यश्च क्रिया शोभा प्रमांशकम् ।
यत्स्त्रीरूपं च संभूतमुत्तमं तद् युगे युगे ॥ ७१ ॥
जैसे शतरूपा, देवहूति, स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, छायावती, रोहिणी, वरुणानी, इन्द्राणी, कुबेर की पत्नी, वायु की स्त्री, अदिति, दिति, लोपामुद्रा, अनसूया, कैटभी, तुलसी, अहल्या, अरुन्धती, मेना, तारा, मन्दोदरी, दमयन्ती, वेदवती, गंगा, यमुना, पुष्टि, तुष्टि, स्मृति, मेधा, कालिका, वसुन्धरा, मंगलचण्डी, षष्ठी, धर्म की पत्नी मूर्ति, स्वस्ति, श्रद्धा, कान्ति, तुष्टि, शान्ति, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, सन्ध्या, रात्रि, दिन, सम्पत्ति, वृत्ति, कीर्ति, क्रिया, शोभा, प्रभा, आदि जितने उत्तम स्त्रीरूप उत्पन्न हुए हैं वे प्रत्येक युगों में सुखप्रद हैं ॥ ६६-७१ ॥

कृत्यास्वरूपं तद्यत्तु स्वर्वेश्यादिकमेव च ।
तदप्रशस्यं विश्वेषु पुंश्चलीरूपमेव च ॥ ७२ ॥
उसी भांति स्त्री का जो दूसरा रूप है, वह कृत्या (तमः प्रधान पिशाविनी आदि) का है । स्वर्ग की अप्सरायें भी कृत्यास्वरूपा हैं । समस्त विश्व में वे प्रशंसाहीन (निन्दित) और पुंश्चली (व्यभिचारिणी) रूप से विख्यात हैं ॥ ७२ ॥

सत्त्वप्रधानं यद्‌रूपं तच्च शुद्धं स्वभावतः ।
तदुत्तमं च विश्वेषु साध्वीरूपं प्रशंसितम् ॥ ७३ ॥
तद्वास्तवं च विज्ञेयं प्रवदन्ति मनीषिणः ।
रजोरूपं तमोरूपं कृत्यासु द्विविधं स्मृतम् ॥ ७४ ॥
सत्त्वगुणप्रधान जो देवियाँ हैं वे स्वभावतः अत्यन्त शुद्ध हैं । समस्त विश्व में वे सर्वोत्तम और साध्वीरूप होने से प्रशंसित हैं । इसीलिए विद्ववन्द उसे 'वास्तवरूपा' कहते हैं । इस प्रकार कृत्या के भी रजोरूप एवं तमोरूप के कारण दो भेद बताये गये हैं ॥ ७३-७४ ॥

स्थानाभावात्क्षणाभावान्मध्यवृत्तेरभावतः ।
देहक्लेशेन रोगेण सत्संसर्गेण सुन्दरी ॥ ७५ ॥
बहुगोष्ठावृतेनैव रिपुराजभयेन च ।
रजोरूपस्य साध्वीत्वमेतेनैवोपजायते ॥ ७६ ॥
इदं मध्यमरूपं च प्रवदन्ति मनीषिणः ।
तमोरूपं दुर्निवार्यमधमं तद्विदुर्बुधाः ॥ ७७ ॥
सुन्दरि ! स्थानाभाव, समयाभाव, मध्यवर्ती दूत या दूती का न होना, शारीरिक पीड़ा, रोग, सत्संग, बहुगोष्ठी (बहुत से जनसमुदाय द्वारा घिरी रहना) शत्रु अथवा राजा से भय का प्राप्त होना-इन्हीं कारणों से रजोगुण प्रधान स्त्रियाँ अपने सतीत्व की रक्षा कर पाती हैं । इन्हीं स्त्रियों को मनीषी लोग 'मध्यमा' कहते हैं । और तमोगुण प्रधान स्त्रियाँ दुनिवार्य होती हैं । विद्वद्वन्द इसे ही 'अधमा' कहते हैं ॥ ७५-७७ ॥

न पृच्छति कुले जातः पण्डितश्च परस्त्रियम् ।
निर्जने दुर्जने वाऽपि रहस्ये वचसा स्त्रियम् ॥ ७८ ॥
आगच्छामि त्वत्समीपमाज्ञया ब्रह्मणोऽधुना ।
गान्धर्वेण विवाहेन त्वां ग्रहीष्यामि शोभने ॥ ७९ ॥
अहमेव शङ्खचूडो देवविद्रावकारकः ।
दनुवंशोद्‌भवो विश्वे सुदामाऽहं हरेः पुरे ॥ ८० ॥
यद्यपि कुलीन एवं पण्डित पुरुष निर्जन या दुर्जन स्थान में कहीं परस्त्री से कोई बात-चीत नहीं करते हैं तथापि मैं सम्प्रति ब्रह्मा ही की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ । हे शोभने ! गान्धर्व विवाह द्वारा मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा । मैं ही दन-वंश में उत्पन्न और विश्व के देवों को दलने वाला शंखचूड हूँ, जो श्रीहरि के गोलोक में पहले सुदामा नामक गोप था ॥ ७८-८० ॥

अहमष्टसु गोपेषु गोगोपीपार्षदेषु च ।
अधुना दानवेन्द्रोऽहं राधिकायाश्च शापतः ॥ ८१ ॥
जो सुप्रसिद्ध आठ गोप भगवान् के स्वयं पार्षद थे, उनमें एक मैं ही था । देवी राधिका के शाप से मैं दानवों का राजा हुआ हूँ ॥ ८१ ॥

जातिस्मरोऽहं जानामि कृष्णमन्त्रप्रभावतः ।
जातिस्मरा त्वं तुलसी संसक्ता हरिणा पुरा ॥ ८२ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्र के प्रभाव से मुझे पिछले जन्म का स्मरण है और तुम्हें भी पूर्वजन्म का स्मरण है ही, क्योंकि तुम भी पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण के पास रहनेवाली तुलसी थी ॥ ८२ ॥

त्वमेव राधिकाकोपाज्जाताऽसि भारते भुवि ।
त्वां संभोक्तुमिच्छुकोऽहं नालं राधाभयात्तदा ॥ ८३ ॥
इस समय राधिका के कोप के कारण तुम्हारा जन्म भारत-भूमि पर हुआ है । उस समय वहाँ (गोलोक में) मैं तुम्हारे सम्भोग का बड़ा इच्छुक था, पर राधा के भय के कारण उसे पूरा न कर सका ॥ ८३ ॥

इत्येवमुक्त्वा स पुमान्विरराम महामुने ।
सस्मिता तुलसी हृष्टा प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ८४ ॥
हे महामुने ! इतना कहकर वह युवक चुप हो गया । अनन्तर मुसकराती हुई तुलसी ने हर्षित होकर कहना आरम्म किया ॥ ८४ ॥

तुलस्युवाच
एवंविधो बुधो विश्वे बुधेषु च प्रशंसितः ।
कान्तमेवंविधं कान्ता शश्वदिच्छति कामतः ॥ ८५ ॥
तुलसी बोली-इस प्रकार के सद्विचार से सम्पन्न विज्ञ पुरुष ही विश्व में सदा प्रशंसित होते हैं और स्त्री ऐसे ही सत्पति की निरन्तर अभिलाषा करती है ॥ ८५ ॥

त्वयाऽहमधुना सत्यं विचारेण पराजिता ।
सनिन्दितश्चाप्यशुचिर्यः पुमांश्च स्त्रिया जितः ॥ ८६ ॥
इस समय तुम्हारे विचार से मैं वस्तुतः पराजित हो गई । जिसे स्त्री ने जीत लिया हो वह पुरुष निन्दित और अपवित्र होता है ॥ ८६ ॥

निन्दन्ति पितरोदेवा बान्धवाः स्त्रीजितं जनम् ।
स्त्रीजितं मनसा वाचा पिता भ्राता च निन्दति ॥ ८७ ॥
पितरगण और देवगण स्त्रीपराजित पुरुष की निन्दा करते हैं तथा पिता, भ्राता भी मन-वाणी से उसकी निन्दा करते रहते हैं ॥ ८७ ॥

शुध्येद्विप्रो दशाहेन जातके मृतके तथा ।
भूमिपो द्वादशाहेन वैश्यः पञ्जदशाहतः ॥ ८८ ॥
शूद्रो मासेन वेदेषु मातृवद्वर्णसंकरः ।
अशुचिः स्त्रीजितः शुद्धेच्चितादाहेन कालतः ॥ ८९ ॥
न गृह्णन्तीच्छया तस्य पितरः पिण्डतर्पणम् ।
न गृह्णन्तीच्छया देवास्तस्य पुष्पजलादिकम् ॥ ९० ॥
किं तस्य ज्ञानतपसा जपहोमप्रपूजनैः ।
किं विद्यया वा यशसा स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ ९१ ॥
जन्म तथा मृत्यु के अशौच में ब्राह्मण दस दिनों पर, क्षत्रिय बारह दिनों पर, वैश्य पन्द्रह दिनों पर और शूद्र एक मास पर शुद्ध होता है किन्तु वर्णसंकर, उसकी माता और अपवित्र स्त्रीजित पुरुष चिता पर जलते समय ही शुद्ध होते हैं, ऐसा वेदों में कहा गया है । उसके दिए हुए पिण्ड और तर्पण पितर लोग इच्छा से नहीं ग्रहण करते हैं और उसके दिये हुए पुष्पजल आदि को देवता भी स्वेच्छापूर्वक नहीं स्वीकार करते हैं । इसलिए उसे ज्ञान, तप, जप, होम और अत्यन्त पूजन करने से क्या लाभ हो सकता है एवं उसकी विद्या और यश किस काम के हो सकते हैं, जिसका मन स्त्रियों के अधीन है ॥ ८८-९१ ॥

विद्याप्रभावज्ञानार्थं मया त्वं च परीक्षितः ।
कृत्वा परीक्षां कान्तस्य वृणोति कामिनी वरम् ॥ ९२ ॥
मैंने विद्या और प्रभाव जानने के लिए ही तुम्हारी परीक्षा की है, क्योंकि कान्त की परीक्षा करके ही कामिनी उसका वरण करती है ॥ ९२ ॥

वराय गुणहीनाय वृद्धायाज्ञानिने तथा ।
दरिद्राय च मूर्खाय रोगिणे कुत्सिताय च ॥ ९३ ॥
अत्यन्तकोपयुक्ताय चात्यन्तदुर्मुखाय च ।
पङ्गुलायाङ्‌गहीनाय चान्धाय बधिराय च ॥ ९४ ॥
जडाय चैव मूकाय क्लीबतुल्याय पापिने ।
ब्रह्महत्यां लभेत्सोऽपि यः स्वकन्यां ददाति च ॥ ९५ ॥
जो व्यक्ति गुणरहित, वृद्ध, अज्ञानी, दरिद्र, मूर्ख, रोगी, निन्दित, अत्यन्त क्रोधी, अत्यन्त कटुभाषी, पंगु, अंगहीन, अन्धे, बहरे, जड़, गूंगे और नपुंसक (तुल्य) पापी को कन्या देता है, उसे ब्रह्महत्या का भागी होना पड़ता है ॥ ९३-९५ ॥

शान्ताय गुणिने चैव यूने च विदुषेऽपि च ।
वैष्णवाय सुतां दत्त्वा दशवाजिफलं लभेत् ॥ ९६ ॥
शान्त, गुणी, युवा, विद्वान्, और वैष्णव को कन्या प्रदान करने से दश अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है ॥ ९६ ॥

यः कन्यापालनं कृत्वा करोति विक्रयं यदि ।
विपदा धनलोभेन कुम्भीपाकं स गच्छति ॥ ९७ ॥
जो कन्या को पाल-पोसकर विपत्ति अथवा धनलोम के कारण उसका विक्रय करता है, उसे कुम्मीपाक नरक में जाना पड़ता है ॥ ९७ ॥

कन्यामूत्रपुरीषं च तत्र भक्षति पातकी ।
कृमिभिर्दंशितः काकैर्यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ९८ ॥
और वह पातकी वहाँ रहकर उसी कन्या का मल-मूत्र भक्षण करता है और चौदहों इन्द्रों के समय तक कीड़े और कौवे उसे काटते-नोचते रहते हैं ॥ ९८ ॥

तदन्ते व्याधयोनौ च लभते जन्म निश्चितम् ।
विक्रीणाति मांसभारं वहत्येव दिवानिशम् ॥ ९९ ॥
अन्त में वह व्याध के यहां निश्चित रूप से जन्म लेता है, जहाँ रातदिन उसे मांस का बोझा ढोना और बेचना पड़ता है ॥ ९९ ॥

इत्येवमुक्त्वा तुलसी विरराम तपोवने ।
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा तयोरन्तिकमाययौ ॥ १०० ॥
उस तपोवन में इतना कहकर तुलसी चुप हो गयी । इसी बीच उन दोनों के पास वहाँ ब्रह्मा जी आ गये ॥ १०० ॥

मूर्ध्ना ननाम तुलसी शङ्खचूडश्च नारद ।
उवास तत्र देवेशश्चोवाच च तयोहितम् ॥ १०१ ॥
हे नारद ! तुलसी और शंखचूड ने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । तब देवेश ब्रह्मा ने भी उन दोनों के हित की बातें कही ॥ १०१ ॥

ब्रह्मोवाच
किं करोषि शङ्खचूड संवादमनया सह ।
गान्धर्वेण विवाहेन त्वमस्या ग्रहणं कुरु ॥ १०२ ॥
त्वं च पुरुषरत्‍नं च स्त्रीरत्‍नं स्त्रीष्वियं सती ।
विदग्धाया विदग्धेन संगमो गुणवान्भवेत् ॥ १०३ ॥
निर्विरोधमुखं राजन्को वा त्यजति दुर्लभम् ।
योऽविरोधसुखत्यागी स पशुर्नात्र संशयः ॥ १०४ ॥
ब्रह्मा बोले-शंखचूड ! तुम इसके साथ संवाद क्या करते हो ? तुम इससे गान्धर्व विवाह करके ग्रहण कर लो । क्योंकि तुम पुरुषरत्न हो और यह स्त्रीरत्न है । विदग्ध-विदग्धा (चतुर नायक और चतुर नायिका) का संगम सुखकर होता है । राजन् ! निर्विरोध सुख अत्यन्त दुर्लभ होता है, अतः कौन उसका त्याग कर सकता है ? फिर ऐसे सुख का त्याग करने वाला पशु ही होता है, इसमें संशय नहीं ॥ १०२-१०४ ॥

किमुपेक्षसि त्वं कान्तमीदृशं गुणिनं सति ।
देवानामसुराणां च दानवानां विमर्दनम् ॥ १०५ ॥
और तुम भी साध्वी होकर ऐसे स्वामी की उपेक्षा क्यों कर रही हो, जो सुन्दर, गुणी एवं देव, असुर और दानवों का विमर्दन करने वाला है ॥ १०५ ॥

यथा लक्ष्मीश्च लक्ष्मीशे यथा कृष्णे च राधिका ।
यथा मयि च सावित्री भवानी च भवे यथा ॥ १०६ ॥
यथा धरा वराहे च यथा मेना हिमालये ।
यथाऽत्रावनसूया च दमयन्ती नले यथा ॥ १०७ ॥
रोहिणी च यथा चन्द्रे यथाकामे रतिः सती ।
यथाऽदितिः कश्यपे च वसिष्ठेऽरुन्धती यथा ॥ १०८ ॥
यथाऽहल्या गौतमे च देवहूतिश्च कर्दमे ।
यथा बृहस्पतौ तारा शतरूपा मनौ यथा ॥ १०९ ॥
यथा च दक्षिणा यज्ञे यथा स्वाहा हुताशने ।
यथा शची महेन्द्रे च यथा पुष्टिर्गणेश्वरे ॥ ११० ॥
देवसेना यथा स्कन्दे धर्मे मूर्तिर्यथा सती ।
सौभाग्यासु प्रिया त्वं च शङ्खचूडे तथा भव ॥ १११ ॥
जिस प्रकार लक्ष्मीश (विष्णु) में लक्ष्मी का, भगवान् श्रीकृष्ण में राधिका का, मुझमें सावित्री का, भव (शिव) में भवानी का, वराह भगवान् में पृथिवी का, हिमालय में मेना का, अत्रि में अनसूया का, नल में दसवन्ती का, चन्द्रमा में रोहिणी का, कामदेव में रति का, कश्यप में दिति का, वशिष्ठ में अरुन्धती दा, गौतम में अहल्या का, कर्दम में देवहूति का, बृहस्पति में तारा का, मनु में शतरूपा का, यज्ञ में दक्षिणा का, लग्नि में स्वाहा का, इन्द्र में इन्द्राणी का, गणेश्वर में पुष्टि का, स्कन्द में देवसेना का और धर्म में मूर्ति का (निश्चल) प्रेम है, उसी भाँति शंखचूड में तुम्हारा अटल प्रेम हो और उसकी सौभाग्यवती अतिप्रेयसी बनो ॥ १०६-१११ ॥

अनेन सार्धं सुचिरं सुन्दरेण च सुन्दरि ।
स्थाने स्थाने विहारं च यथेच्छं कुरु संततम् ॥ ११२ ॥
सुन्दरि ! इस सुन्दर युवक के साथ प्रत्येक स्थान में इच्छानुसार निरन्तर विहार करो ॥ ११२ ॥

पश्चात्प्राप्स्यसि गोविन्दं गोलोके पुनरेव च ।
चतुर्भुजं च वैकुण्ठे शङ्खचूडे मृते सति ॥ ११३ ॥
और शंखचूड के शरीर छोड़ देने पर तुम वैकुण्ठ में चतुर्भुज (विष्णु) तथा गोलोक में गोविन्द को पुनः प्राप्त करोगी ॥ ११३ ॥

इत्येवमाशिषं कृत्वा स्वालयं प्रययौ विधिः ।
गान्धर्वेण विवाहेन जगृहे तां च दानवः ॥ ११४ ॥
इतना कहकर ब्रह्मा अपने धाम को चले गये और दानव (शंखचूड) ने गान्धर्वविवाह द्वारा उसका पाणिग्रहण किया ॥ ११४ ॥

स्वर्गे दुन्दुभिवाद्यं च पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ।
स रेमे रामया सार्धं वासगेहे मनोहरे ॥ ११५ ॥
मूर्च्छा संप्राप तुलसी नवसंगमसंगता ।
निमग्ना निर्जने साध्वी संभोगसुखसागरे ॥ ११६ ॥
चतुःषष्टिकलामानं चतुःषष्टिविधं सुखम् ।
कामशास्त्रे यन्निरुक्तं रसिकानां यथेप्सितम् ॥ ११७ ॥
अङ्गप्रत्यङ्गसंश्लेषपूर्वकं स्त्रीमनोहरम् ।
तत्सर्वं सुखशृङ्गारं चकार रसिकेश्वरः ॥ ११८ ॥
उसके उत्सव में स्वर्ग से देवों ने नगाड़े बजाये और पुष्पों की वर्षा की, अनन्तर उसने अपने मनोहर वास-भवन में उस रमणी के साथ रमण किया । उस नव समागम में तुलसी को मूर्छा आ गयी किन्तु पश्चात् वह पतिव्रता निर्जन स्थानों में जाकर सम्भोग सुख के सागर में निमग्न रहने लगी । चौंसठ कलाओं द्वारा चौंसठ प्रकार के सुख तथा कामशास्त्र में रसिकों के लिए कहे गये यथेच्छ सुख एवं स्त्री के मनोहर अंग-प्रत्यंग के आलिंगन सुख आदि समस्त सुखश्रृंगार को उस रसिकेश्वर ने उसके साथ प्राप्त किया ॥ ११५-११८ ॥

अतीव रम्ये देशे च सर्वजन्तुविवर्जिते ।
पुष्पचन्दनतल्पे च पुष्पचन्दनवायुना ॥ ११९ ॥
अत्यन्त रमणीक प्रदेश में, जो सभी जन्तुओं से शून्य था, पुष्पचन्दन की शय्या पर पुष्पचन्दन के (मन्द, सुगन्ध) वायु में उसने अति आनन्द प्राप्त किया ॥ ११९ ॥

पुष्पोद्याने नदीतीरे पुष्पचन्दनचर्चिते ।
गृहीत्वा रसिका रामां पुष्पचन्दनचर्चिताम् ॥ १२० ॥
भूषितां भूषणैः सर्वैरतीवसुमनोहराम् ।
सुरतेर्विरतिर्नास्ति तयोः सुरतविज्ञयोः ॥ १२१ ॥
नदी के किनारे पुष्पवाटिका में पुष्पचन्दन-चचित शय्या पर पुष्पचन्दन से भूषित उस रसिकप्रिया को भूषण आदि से अत्यन्त सुसज्जित करके दानवेन्द्र ने मनोहारिणी के साथ सुरत-सम्भोग किया । अनन्तर वे दोनों सुरतवेत्ता इतने आनन्दमग्न हो गए कि उन्हें उससे कभी विरति ही नहीं होती थी ॥ १२०-१२१ ॥

जहार मानसं भर्तुर्लीलया तुलसी सती ।
चेतनां रसिकायाश्च जहार रसभाववित् ॥ १२२ ॥
उस सती तुलसी ने अपनी लीलाओं द्वारा पति का मन अपने अधीन कर लिया और उस रसिक ने भी उस रसीली कामिनी की चेतना को अपने अधीन कर लिया ॥ १२२ ॥

वक्षसश्चन्दनं बाह्वोस्तिलकं विजहार सा ।
स च जग्राह तस्याश्च सिन्दूरबिन्दुपत्रकम् ॥ १२३ ॥
उस रतिक्रीड़ा में तुलसी ने उसके वक्षःस्थल का चन्दन और बाँह पर का तिलक मिटा दिया, तो उस युवक ने भी उसका सिन्दूरबिन्दु-पत्र ले लिया ॥ १२३ ॥

स तद्वक्षसि तस्याश्च नखरेखां ददौ मुदा ।
सा ददौ तद्वामपार्श्वे करभूषणलक्षणम् ॥ १२४ ॥
उन्होंने आनन्दविभोर होकर उस कामिनी के वक्षःस्थल में नख-रेखा बनायी, तो उस कामिनी ने भी उसके बायें हाथ में अपने हाथ के भूषण के चिह्न बना दिये ॥ १२४ ॥

राजा तदोष्ठपुटके ददौ दशनदंशनम् ।
तद्‌गण्डयुगले सा च प्रददौ तच्चतुर्गुणम् ॥ १२५ ॥
राजा ने उसके होंठ को अपने दांतों से काट लिया, तो उसके दोनों कपोलों में उससे चौगुना उस सुन्दरी ने भी काट लिया ॥ १२५ ॥

सुरतेविरतौ तौ च समुत्थाय परस्परम् ।
सुवेशं चक्रतुस्तत्र यत्तन्मनसि वाञ्छितम् ॥ १२६ ॥
पुनः रति करने के अनन्तर दोनों उठकर एक दूसरे को यथेष्ट ढंग से सजाने लगे ॥ १२६ ॥

कुङ्कुमाक्तचन्दनेन सा तस्मै तिलकं ददौ ।
सर्वाङ्‌गे सुन्दरे रम्ये चकार चानुलेपनम् ॥ १२७ ॥
सुवासितं च ताम्बूलं वह्निशुद्धे च वाससी ।
पारिजातस्य कुसुमं माल्यं चैव सुशोभनम् ॥ १२८ ॥
अमूल्यरत्‍ननिर्माणमङ्गुलीयकमुत्तमम् ।
सुन्दरं च मणिवरं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ १२९ ॥
दासी तवाहमित्येवं समुच्चार्य पुनः पुनः ।
ननाम परया भक्त्या स्वामिनं गुणशालिनम् ॥ १३० ॥
तुलसी ने उसको कुंकुम मिश्रित चन्दन का तिलक लगाया और उसके सुन्दर सर्वांग में अनुलेपन कर दिया । अत्यन्त सुवासित ताम्बूल अग्निविशुद्ध दो वस्त्र और पारिजात का पुष्प ग्रहण करउ सी की सुन्दर माला से अपने को विभूषित किया । अमूल्य रत्नों की अंगूठी, जो तीनों लोकों में दुर्लभ एवं सुन्दर श्रेष्ठ मणि से बनी थी, शंखचूड को पहनाकर उससे बार-बार कहने लगी कि मैं आप की दासी हूँ । फिर उसने अपने गुणशाली स्वामी को भक्तिभाव के साथ प्रणाम किया ॥ १२७-१३० ॥

सस्मिता तन्मुखाम्भोजं लोचनाभ्यां पपौ पुनः ।
निमेषरहिताभ्यां च सकटाक्षं च सुन्दरम् ॥ १३१ ॥
अनन्तर तुलसी मुसकराकर अपने अपलक नेत्रों से कटाक्ष के साथ शंखचूड के मुखकमल का पान करने लगी ॥ १३१ ॥

स च तां च समाकृष्य चकार वक्षसि प्रियाम् ।
सस्मितं वाससा छन्नं ददर्शं मुखपंकजम् ॥ १३२ ॥
उस समय उस युवक ने उसे अपनी ओर खींचकर अपनी छाती से चिपका लिया और मन्द मुसकान से सुशोभित उस प्रेयसी के मुखकमल को देखा, जो वस्त्र से आवृत था ॥ १३२ ॥

चुचुम्ब कठिने गण्डबिम्बोष्ठे पुनरेव च ।
ददौ तस्यै वस्त्रयुग्मं वरुणादाहृतं च यत् ॥ १३३ ॥
तदा हृतां रत्‍नमालां त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् ॥ १३४ ॥
उपरान्त उसके कठिन गण्डस्थल का चुम्बन करके पुनः बिम्बाफल के समान ओठों का चुम्बन किया । फिर वरुण के यहाँ से लाया हुआ वस्त्र और तीनों लोकों में विख्यात रत्नमाला उसे पहनाई ॥ १३३-१३४ ॥

ददौमञ्जीरयुग्मं च स्वाहायाश्च हृतं चयत् ।
केयूरयुग्मं छायाया रोहिण्याश्चैव कुण्डलम् ॥ १३५ ॥
अङ्गुलीयकरत्‍नानि रत्याश्च वरभूषणम् ।
शङ्खं सुरुचिरं चित्रं यद्‌दत्तं विश्वकर्मणा ॥ १३६ ॥
विचित्रपीठकश्रेणीं शय्यां चापि सुदुर्लभाम् ।
भूषणानि च दत्त्वा च परीहारं चकार ह ॥ १३७ ॥
स्वाहा से छीनकर लाये हुए दोनों नूपुर, छाया के दोनों केयूर (बहूँटा), रोहिणी के कुण्डल, रति की अंगूठी एवं आभूषण, विश्वकर्मा के दिये हुए शंख, सुन्दर चित्र, अनेक प्रकार के आसन, सुदुर्लभ शय्या और बहुत-से गहने देकर पहनाये ॥ १३५-१३७ ॥

निर्ममे कबरीभारं तस्याश्च माल्यसंयुतम् ।
सुचित्रं पत्रकं गण्डे जयलेखसमं तथा ॥ १३८ ॥
उसके जूड़े को माला से सजाया । गण्डस्थल पर जयलेखा के समान सुन्दर पत्र-रचना की ॥ १३८ ॥

चन्द्रलेखात्रिभिर्युक्तं चन्दनेन सुगन्धिना ।
परितः परितश्चित्रैः सार्धं कुङ्कुमबिन्दुभिः ॥ १३९ ॥
सुगन्धित चन्दन की तीन चन्द्रलेखाओं से युक्त किया । फिर चारों ओर कुंकुमविन्दुओं के साथ अनेक चित्र बनाये ॥ १३९ ॥

ज्वलत्प्रदीपाकारं च सिन्दूरतिलकं ददौ ।
तत्पादपद्मयुगले स्थलपद्मविनिन्दिते ॥ १४० ॥
चित्रालक्तकरागं च नखरेषु ददौ मुदा ।
स्ववक्षसि मुहुर्न्यस्तं सरागं चरणाम्बुजम् ॥ १४१ ॥
हे देवि तव दासोऽहमित्युच्चार्य पुनः पुनः ।
रत्‍ननिर्माणयानेन तां च कृत्वा स्ववक्षसि ॥ १४२ ॥
तपोवनं परित्यज्य राजा स्थानान्तरं ययौ ।
मलये देवनिलये शैले शैले वने वने ॥ १४३ ॥
स्थाने स्थानेऽतिरम्ये च पुष्पोद्यानेऽतिनिर्जने ।
कन्दरे कन्दरे सिन्धुतीरे तीरेऽतिसुन्दरे ॥ १४४ ॥
पुष्पभद्रानदीतीरे नीरवातमनोहरे ।
पुलिने पुलिने दिव्यं नद्यां नद्यां नदे नदे ॥ १४५ ॥
मधौ मधुकराणां च मधुरध्वनिनादिते ।
विनिस्यन्दे सूपवने नन्दने गन्धमादने ॥ १४६ ॥
देवोद्याने देववने चित्रे चन्दनकानने ।
चम्पकानां केतकीनां माधवीनां च माधवे ॥ १४७ ॥
कुन्दानां मालतीनां च कुमुदाम्भोजकानने ।
कल्पवृक्षे कल्पवृक्षे पारिजातवने वने ॥ १४८ ॥
निर्जने काञ्चनस्थाने धन्ये काञ्चनपर्वते ।
काञ्चीवने किञ्जलके कञ्चुकेकाञ्चनाकरे ॥ १४९ ॥
पुष्पचन्दनतल्पे च पुंस्कोकिलरुते श्रुते ।
पुष्पचन्दनसंयुक्तः पुष्पचन्दनवायुना ॥ १५० ॥
कामुक्या कामुकः कामात्स रेमे रामया सह ।
न तृप्तो दानवेन्द्रश्च तृप्ति नैव जगाम सा ॥ १५१ ॥
जलते हुए दीपक के आकार में सिन्दूर का तिलक लगाया स्थलकमल से भी उत्तम उसके दोनों चरणारविन्द में महावर लगाया तथा नखों को रंगा फिर रंगे हुए उसके चरणकमल को थोड़ी देर के लिए अपने वक्षःस्थल पर रखकर बार-बार कहा--हे देवि ! मैं तुम्हारा दास हूँ । अनन्तर उस कामिनी को अपनी छाती से चिपकाकर राजा रत्नखचित विमान द्वारा उस तपोवन से दूसरे स्थान में चला गया । इस प्रकार मलय पर्वत पर, देव-स्थानों में, पर्वतों पर, जंगलों में, रमणीक स्थानों में, अति निर्जन पुष्पवाटिकाओं में, कन्दराओं में, अत्यन्त सुन्दर सिन्धुनदी के जल में तथा तट पर, सुन्दर वन में, पुष्पभद्रा नदी के तट पर, सुन्दर जलवायु से युक्त नदी-तटों पर, दिव्य नदियों एवं नदों के किनारे, मधुमास में भ्रमरों की मधुर ध्वनि से गुंजित उपवनों में, झरनों के पास, नन्दन वन में, गन्धमादन पर्वत पर, देवोद्यान में, चित्र वन में, चन्दनवन में तथा चम्पा, केतकी, माधवी-लता, कुन्द, मालती, कुमुद, कमल, कल्पवृक्ष, एवं पारिजात के वनों में, निर्जन काञ्चनस्थान में, रम्य सुमेरुपर्वत पर, कांचीवन में, किञ्जलक वन में तथा काञ्चनाकर (सोने की खान) में पुष्पचन्दन की शय्या पर, कोकिल की कूक सुनते हुए, पुष्पचन्दन के वायु से सम्पृक्त और पुष्पचन्दन से सुशोभित होकर वह कामुक कामुकी रमणी के साथ कामभाव से रमण करता रहा । किन्तु उन दोनों (कामुक-कामुकी) को सम्भोग से तृप्ति नहीं हुई ॥ १४०-१५१ ॥

हविषा कृष्णवर्त्मेव ववृधे मदनस्तयोः ।
तया सह समागत्य स्वाश्रमं दानवस्ततः ॥ १५२ ॥
रम्यं क्रीडालयं कृत्वा विजहार पुनस्ततः ।
एवं संबुभुजे राज्यं शङ्खचूडः प्रतापवान् ॥ १५३ ॥
घृत डालने से अग्नि की भांति उन दोनों में कन्दर्प की अतिवृद्धि हो गयी । पश्चात् वह दानव उसके साथ अपने घर आया और एक अलग रमणीक रतिगृह बनवा कर पुनः उसके साथ सम्भोग करने में जुट गया । इस प्रकार प्रतापी शंखचूड ने राज्य का सुखानुभव किया । ॥ १५२-१५३ ॥

एकमन्वन्तरं पूर्णं राजराजेश्वरो बली ।
देवानामसुराणां च दानवानां च संततम् ॥ १५४ ॥
गन्धर्वाणां किन्नराणां राक्षसानां च शास्तिदः ।
हृताधिकारा देवाश्च चरन्ति भिक्षुका यथा ॥ १५५ ॥
उस बली राजराजेश्वर ने एक मन्वन्तर के पूर्ण समय तक देवों, असुरों, दानवों, गन्धर्वो, किन्नरों और राक्षसों पर शासन किया । उसके द्वारा अधिकार छिन जाने पर देवगण भिक्षुक की भांति इधर-उधर घूमने लगे ॥ १५४-१५५ ॥

पूजाहोमादिकं तेषां जहार विषयं बलात् ।
आश्रयं चाधिकारं च शस्त्रास्त्रभूषणादिकम् ॥ १५६ ॥
शंखचूड ने उनके पूजाहोमादि, राज्य, निवास स्थान, अधिकार तथा शस्त्रास्त्र और भूषणादि को बलात् ले लिया ॥ १५६ ॥

निरुद्यमा सुराः सर्वे चित्रपुत्तलिका यथा ।
ते च सर्वे विषण्णाश्च प्रजग्मुर्ब्रह्मणः सभाम् ॥ १५७ ॥
जिससे उद्यमहीन देवगण चित्र-पुत्तलिका (गुड़िया) की भांति बने रहे । अनन्तर अत्यन्त दुःखी होकर वे सब ब्रह्मा की सभा में गये ॥ १५७ ॥

वृत्तान्तं कथयामासू रुरुदुश्च भृशं मुहुः ।
तदा ब्रह्मा सुरैः सार्धं जगाम शंकरालयम् ॥ १५८ ॥
वहाँ अपना वृत्तान्त कहकर बहुत रोने लगे । तब ब्रह्मा उन्हें साथ लेकर शिव जी के पास गए ॥ १५८ ॥

सर्वं संकथयामास विधाता चन्द्रशेखरम् ।
ब्रह्मा शिवश्च तैः सार्धं वैकुण्ठं च जगाम ह ॥ १५९ ॥
विधाता ने चन्द्रशेखर शिव से सारा वृत्तान्त कह सुनाया, जिसे सुनने के उपरान्त शिव उन्हें साथ लेकर वैकुण्ठ गये ॥ १५९ ॥

सुदुर्लभं परं धाम जरामृत्युहरं परम् ।
संप्राप च वरं द्वारमाश्रमाणां हरेरहो ॥ १६० ॥
भगवान् शिव जरा और मृत्यु से रहित उस अत्यन्त दुर्लभ लोक में पहुँचकर, श्रीहरि के भवन के परम श्रेष्ठ द्वार पर उपस्थित हुए । ॥ १६० ॥

ददर्श द्वारपालाश्च रत्‍नसिंहासनस्थितान् ।
शोभितान्पीतवस्त्रांश्च रत्‍नभूषणभूषितान् ॥ १६१ ॥
वहां उन्होंने रत्न के सिंहासनों पर विराजमान द्वारपालों को देखा, जो पीताम्बर और रत्नों के भूषणों से सुशोभित हो रहे थे ॥ १६१ ॥

वनमालान्वितान्सर्वाञ्श्यामसुन्दरविग्रहान् ।
शङ्खचक्रगदापद्मधरांश्चैव चतुर्भुजान् ॥ १ ६२ ॥
तथा वनमाला पहने वे सभी द्वारपाल श्यामसुन्दर थे और चारों भुजाओं में शंख चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए थे । ॥ १६२ ॥

सस्मितान्पद्मवक्त्रांश्च पद्मनेत्रान्मनोहरान् ।
ब्रह्मा तान्कथयामास वृत्तान्तं गमनार्थकम् ॥ १६३ ॥
मुसकान भरे कमलमुख एवं कमलनेत्र वाले उन मनोहर द्वारपालों से ब्रह्मा ने वहाँ आने का समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १६३ ॥

तेऽनुज्ञां च ददुस्तस्मै प्रविवेश तदाज्ञया ।
एवं च षोडश द्वारान्निरीक्ष्य कमलोद्‌भवः ॥ १६४ ॥
देवः सार्धं तानतीत्य प्रविवेश हरेः सभाम् ।
देवर्षिभिः परिवृतां पार्षदैश्च चतुर्भुजैः ॥ १६५ ॥
अनन्तर उन लोगों ने ब्रह्मा आदि को भीतर जाने की अनुमति प्रदान की । इस प्रकार सोलह द्वारों को पार करके ब्रह्मा देवों के साथ भगवान् की उस सभा में पहुंचे, जहाँ देवर्षिगण तथा चतुर्भुज पार्षदगण शोभायमान थे ॥ १६४-१६५ ॥

नारायणस्वरूपैश्च सर्वैः कौस्तुभभूषितैः ।
पूर्णेन्दुमण्डलाकारां चतुरस्रा मनोहरम् ॥ १६६ ॥
मणीन्द्रसारनिर्माणां हीरासारसुशोभिताम् ।
अमूल्यरत्‍नखचितां रचितां स्वेच्छया हरेः ॥ १६७ ॥
वहाँ के सभी पार्षद नारायण स्वरूप और कौस्तुभ मणि से भूषित थे । वह सभा भी पूर्ण चन्द्रमा की भांति मण्डलाकार, चौकोर, मनोहर, श्रेष्ठ मणियों के सार भाग से सुरचित, हीरों के सारभाग से सुशोभित, अमूल्य रत्नों से खचित, तथा भगवान् विष्णु की इच्छा से बनी थी ॥ १६६-१६७ ॥

माणिक्यमालाजालाढ्यां मुक्तापङ्क्तिविभूषिताम् ।
मण्डितां मण्डलाकारै रत्‍नदर्पणकोटिभिः ॥ १६८ ॥
विचित्रैश्चित्ररेखाभिर्नानाचित्रविचित्रिताम् ।
पद्मरागेन्द्ररचितै रचितां पद्मकृत्रिमैः ॥ १६९ ॥
सोपानशतकैर्युक्तां स्यमन्तकविनिर्मितैः ।
पट्टसूत्रग्रन्थियुतैश्चारुचन्दनपल्लवै ॥ १७० ॥
इन्द्रनीलमणिस्तम्भैर्वेष्टितां सुमनोरमाम् ।
सद्‌रत्‍नपूर्णकुम्भानां समूहैश्च समन्विताम् ॥ १७१ ॥
माणिक्यमालाएं जाली के रूप में शोभा दे रही थीं । और दिव्य मोतियों की झालरें उसकी छबि बढ़ा रही थीं । मंडलाकार करोड़ों रत्नमय दर्पणों से वह सभा सुशोभित थी । उसकी दीवारों में लिखित अनेक प्रकार के विचित्र चित्र उसकी सुन्दरता बढ़ा रहे थे । सर्वोत्कृष्ट पद्मराग मणि से निर्मित कृत्रिम कमलों से वह परम सुशोभित थी । स्यमन्तक मणि से बनी हुई सैकड़ों सीढ़ियाँ उस भवन की शोभा बढ़ाती थीं । रेशम की डोरी में गुंथे हुए दिव्य चन्दन-वृक्ष के सुन्दर पल्लव बंदनवार का काम दे रहे थे । वहाँ के खंभों का निर्माण इन्द्रनील मणि से हुआ था । उत्तम रत्नों से भरे कलशों से संयुक्त वह सभा अत्यन्त मनोरम जान पड़ती थी ॥ १६८-१७१ ॥

पारिजातप्रसूनानां मालाजालैर्विराजिताम् ।
कस्तूरीकुङ्‌कमाक्तैश्च सुगन्धिचन्दनद्रवैः ॥ १७२ ॥
सुसंस्कृतां तु सर्वत्र वासितां गन्धवायुना ।
विद्याधरीसमूहानां संगीतैश्च मनोहराम् ॥ १७३ ॥
पारिजात पुष्पों के बहुत-से हार उसे अलंकृत किये हए थे । कस्तुरी एवं कुंकुम से युक्त सुगंधपूर्ण चंदन के द्रव से वह भवन सुसज्जित तथा सुसंस्कृत किया गया था । सुगंधित वायु से वह सभा सब ओर से सुवासित थी और विद्याधरियों के संगीत से मनोहर थी ॥ १७२-१७३ ॥

सहस्रयोजनायामां परिपूर्णां च किंकरैः ।
ददर्श श्रीहरिं ब्रह्मा शंकरश्च सुरैः सह ॥ १७४ ॥
वसन्तं तन्मध्यदेशे यथेन्दुं तारकावृतम् ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणचित्रसिंहासनस्थितम् ॥ १७५ ॥
किरीटिनं कुण्डलिनं वनमालाविभूषितम् ।
शङ्‌खचक्रगदापद्मधारिणं च चतुर्भुजम् ॥ १७६ ॥
नवीननीरदश्यामं सुन्दरं सुमनोहरम् ।
अमूल्यरत्‍ननिर्माणसर्वाभरणभूषितम् ॥ १७७ ॥
एक सहस्र योजन विस्तृत उसका क्षेत्र सेवकों से परिपूर्ण था । इस प्रकार वहाँ शंकर आदि देवों समेत ब्रह्मा ने भगवान् श्री हरि का दर्शन किया । वे उस (भवन) के मध्य प्रदेशमें तारों से घिरे चन्द्रमा की भाँति सुशोभित, अमूल्य रत्नों से निर्मित अद्भुत सिंहासन पर विराजमान, किरीट, कुण्डल एवं वनमाला से सुशोभित, चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए, नवीन जलधर की भांति श्यामल, सुन्दर, अत्यन्त मनोहर और अमूल्य रत्नों से निर्मित समस्त आभूषणों से विभूषित थे ॥ १७४-१७७ ॥

चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं बिभ्रतं केलिपङ्‌कजम् ।
पुरतो नृत्यगीतं च पश्यन्तं सस्मितं मुदा ॥ १७८ ॥
उनके सम्पूर्ण अंग चन्दन से अनुलिप्त थे । एक हाथ में कमल शोभा पा रहा था । भगवान् का श्रीविग्रह अतिशय शान्त था ॥ १७८ ॥

शान्तं सरस्वतीकान्तं लक्ष्मीधृतपदाम्बुजम् ।
भक्तप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं सुवासितम् ॥ १७९ ॥
गङ्‌गया परया भक्त्या सेवितं श्वेतचामरैः ।
सर्वैश्च स्तूयमानं च भक्तिनम्रात्मत्मकंधरैः ॥ १८० ॥
लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा में संलग्न थीं । भगवान् भक्तों के दिए सुवासित ताम्बूल खा रहे थे । गंगा उन पर अत्यन्त भक्तिपूर्वक श्वेत चामर डुला रही थीं । उपस्थित समाज अत्यन्त भक्ति-विनम्र होकर उनकी स्तुति कर रहा था ॥ १७९-१८० ॥

एवं विशिष्टं तं दृष्ट्‍वा परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मादयः सुराः सर्वे प्रणम्य तुष्टुवुस्तदा ॥ १८१ ॥
इस प्रकार सुशोभित उस परिपूर्णतम प्रभु को देख कर ब्रह्मा आदि देवगण उन्हें प्रणाम कर के स्तुति करने लगे ॥ १८१ ॥

पुलकाङ्‌कितसर्वाङ्‌गाः साश्रूनेत्राः सगद्‌गदा ।
भक्त्या परमया भक्ता भीता नम्रात्मकंधराः ॥ १८२ ॥
उन देवों के सर्वांग में रोमांच, नेत्रों में आँसू एवं वाणी गद्गद थी । वे भीत भक्तगण अत्यन्त भक्ति से कन्धे झुकाए हुए थे ॥ १८२ ॥

पुटाञ्जलियुतो भूत्वा विधाता जगतामपि ।
वृत्तान्तं कथयामास विनयेन हरेः पुरः ॥ १८३ ॥
पश्चात् जगत् के विधाता ब्रह्मा ने भगवान के सामने हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १८३ ॥

हरिस्तद्वचनं श्रुत्वा सर्वज्ञः सर्वभाववित् ।
प्रहस्योवाच ब्रह्माणं रहस्यं च मनोहरम् ॥ १८४ ॥
सर्वज्ञ एवं समस्त भावों के वेत्ता भगवान् विष्णु उनकी बात सुन कर हँस पड़े और फिर ब्रह्मा से मनोहर रहस्य की बात बताने लगे ॥ १८४ ॥

शङ्‌खचूडस्य वृत्तान्तं सर्वं जानामि पद्मज ।
मद्‌भक्तस्य च गोपस्य महातेजस्विनः पुरा ॥ १८५ ॥
सुराः शृणुत तत्सर्वमितिहासं पुरातनम् ।
गोलोकस्यैव चरितं पापघ्नं पुण्यकारणम् ॥ १८६ ॥
भगवान् बोले-विधाता ! मैं शंखचूड़ का समस्त वृत्तान्त जानता हूँ, जो पहले मेरा भक्त एवं महातेजस्वी गोप था । देवगण ! मैं उसका सभी पुरातन इतिहास बता रहा हूँ, जो गोलोक का ही पापनाशक एवं पुण्यजनक चरित है, सुनो ॥ १८५-१८६ ॥

सुदामा नाम गोपश्च पार्षदप्रवरो मम ।
स प्राप दानवीं योनिं राधाशापात्सुदारुणात् ॥ १८७ ॥
तत्रैकदाऽहमगमं स्वालयाद्‌रासमण्डलम् ।
विहाय मानिनीं राधां मम प्रणाधिकां पराम् ॥ १८८ ॥
सा मां विरजया सार्धं विज्ञाय किंकरीमुखात् ।
पश्चात्क्रुधा साऽऽजगाम मां ददर्श च तत्र च ॥ १८९ ॥
सुदामा नामक गोप मेरा एक श्रेष्ठ पार्षद था, जो राधा के अत्यन्त दारुण शापवश दानव-योनि में पहुंच गया है । एक बार मैं अपनी प्राणेश्वरी राधा को छोड़ कर अपने भवन से रासमण्डल में गया । उस समय राधिका जी किसी सेविका के मुख से विरजा के साथ मेरा रहना सुन कर क्रोधावेश में वहां आयीं । उन्होंने हमें देख लिया ॥ १८७-१८९ ॥

विरजां च नदीरूपां मां ज्ञात्वा च तिरोहितम् ।
पुनर्जगाम सा रुष्टा स्वालयं सखिभिःसह ॥ १९० ॥
किन्तु विरजा को नदी रूप में और मुझे तिरोहित देख कर वे उसी क्रोधावेश में सखियों समेत पुनः निजी भवन में लौट गयीं ॥ १९० ॥

मां दृष्ट्‍वा मन्दिरेदेवी सुदामसहितं पुरा ।
भृशं मां भर्त्सयामास मौनीभूतं च सुस्थिरम् ॥ १९१ ॥
पुनः वहाँ मन्दिर में सुदामा समेत मुझे देख कर वे मुझे बहुत डाँटने लगीं, किन्तु मैं एक दम मौन और सुस्थिर था ॥ १९१ ॥

तच्छ्रुत्वा च सुमहांश्च सुदामा तां चुकोप ह ।
स च तां भर्त्सयामास कोपेन मम संनिधौ ॥ १९२ ॥
वह सुनकर महान् पार्षद सुदामा को सहन न हो सका । उसने कोप किया और मेरे समीप ही राधा को फटकार बतायी ॥ १९२ ॥

तच्छ्रुत्वा सा कोपयुक्ता रक्तपङ्‌कजलोचना ।
बहिष्कर्तुं चकाराऽज्ञां संत्रस्ता मम संसदि ॥ १९३ ॥
उसे सुनकर राधा के नेत्र अत्यन्त क्रोध से रक्त कमल की भाँति (लाल) हो गए । उन्होंने संत्रस्त होकर मेरी सभा से उसे निकालने की आज्ञा दे दी ॥ १९३ ॥

सखीलक्षं समुत्तस्थौ दुर्वारं तेजसोज्ज्वलम् ।
बहिश्चकार तं तूर्णं जल्पन्तं च पुनः पुनः ॥ १९४ ॥
अनन्तर एक लाख सखियों का समूह उठा और उस दुर्वार तेजस्वी को तुरन्त बाहर निकाल दिया, जो बार-बार बक रहा था ॥ १९४ ॥

सा च तद्वचनं श्रुत्वा समारुष्टा शशाप तम् ।
याहि रे दानवीं योनिमित्येवं दारुणं वचः ॥ १९५ ॥
अनन्तर उसकी बातें सुन कर राधा ने रोष भरे शब्दों में यह दारुण वचन कहा-'रे दुष्ट । तू दानवी योनि में जा' ॥ १९५ ॥

तं गच्छन्तं शपन्तं च रुदन्तं मां प्रणम्य च ।
वारयामास सा तुष्टा रुदती कृपया पुनः ॥ १ ९६ ॥
शाप होने पर वह मुझे प्रणाम कर के रोते हुए जा रहा था, उसे देख कर राधा को अत्यन्त करुणा हुई । वे सन्तुष्ट होकर स्वयं रोती हुई कृपा कर के उसे जाने से रोकने लगीं ॥ १९६ ॥

हे वत्स तिष्ठ मा गच्छ क्व यासीति पुनः पुनः ।
समुच्चार्य च तत्पश्चाज्जगाम सा च विस्मिताः ॥ १९७ ॥
गोप्यश्च रुरुदुः सर्वा गोपाश्चेति सुदुःखिताः ।
ते सर्वे राधिका चापि तत्पश्चाद्‌बोधिता मया ॥ १९८ ॥
आयास्यति क्षणार्धेन कृत्वा शापस्य पालनम् ।
सुदामंस्त्वमिहाऽऽगच्छेत्युवाच सा निवारिता ॥ १९९ ॥
गोलोकस्य क्षणार्धेन चैकमन्वन्तरं भवेत् ।
पृथिव्यां जगतां धातुरित्येवं वचनं ध्रुवम् ॥ २०० ॥
स एव शङ्खचूडश्च पुनस्तत्रैव यास्यति ।
महाबलिष्ठो योगीशः सर्वमायाविशारदः ॥ २०१ ॥
'हे वत्स ! ठहरो, मत जाओ, कहाँ जा रहे हो ऐसा बार-बार कहने लगीं । पश्चात् उन्हें रोदन करते और आश्चर्यचकित देख कर सभी गोप-गोपियाँ दुःखी होकर रोदन करने लगीं । तब मैंने राधिका समेत उन सभी को समझा कर शांत किया और कहा-'वह आधे क्षण में शाप का पालन कर पुनः यहाँ आ जायगा । ' किन्तु मना करने पर भी राधा जी कहती ही रहीं-हे सुदामन् ! तू यहाँ आ, वहाँ मत जा । ' हे जगत् के रक्षक ब्रह्मन् ! गोलोक के आधे क्षण में ही भूमण्डल पर एक मन्वन्तर का समय हो जाता है । ब्रह्मन् ! इस प्रकार यह सब कुछ पूर्व निश्चित व्यवस्था के अनुसार ही हो रहा है । अतः सम्पूर्ण मायाओं का पूर्ण ज्ञाता, अपर बल-शाली योगीश यह शंखचूड़ समय पर पुनः उस गोलोक में ही चला जाएगा ॥ १९७-२०१ ॥

मम शूलं गृहीत्वा च शीघ्रं गच्छत भारतम् ।
शिवः करोतु संहारं मम शूलेन रक्षसः ॥ २०२ ॥
अतः शंकर मेरा शूल लेकर भारत देश में चले जायें और मेरे शूल से उस राक्षस का वध करें ॥ २०२ ॥

ममैव कवचं कण्ठे सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
बिभर्ति दानवः शश्वत्संसारविजयी ततः ॥ २०३ ॥
उस दानव के कंठ में समस्त मंगलों का मंगल मेरा कवच पड़ा हुआ है । इसीलिए वह संसार में निरन्तर विजयी हो रहा है ॥ २०३ ॥

कवचे संस्थिते तत्र न कोऽपि हिंसितुं क्षमः ।
तद्याच्यां च करिष्यामि विप्ररूपोऽहमेव च ॥ २०४ ॥
ब्रह्मन् ! उसके कण्ठ में जब तक वह रहेगा, उसको कोई भी मार नहीं सकता है । अतः मैं ब्राह्मण रूप होकर उससे उसकी याचना करूंगा ॥ २०४ ॥

सतीत्वभङ्‌गस्तत्पत्‍न्या यत्र काले भविष्यति ।
तत्रैव काले तन्मृत्युरिति दत्तो वरस्त्वया ॥ २०५ ॥
और जिस समय उसकी पत्नी का सतीत्व भंग होगा उसी समय उसकी मृत्यु होगी, ऐसा तुमने उसे वरदान भी दिया है ॥ २०५ ॥

तत्पत्‍न्याश्चोदरे वीर्यमर्पयिष्यामि निश्चितम् ।
तत्क्षणेनैव तन्मृत्युर्भविष्यति न संशयः ॥ २०६ ॥
एतदर्थ मैं उसकी पत्नी के उदर में निश्चित रूप से वीर्य स्थापित करूँगा और उसी क्षण उसकी मृत्यु भी होगी, इसमें संशय नहीं है ॥ २०६ ॥

पश्चात्सा देहमुत्सृज्य भविष्यति प्रिया मम ।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो ददौ शूलं हराय च ॥ २०७ ॥
शूलं दत्त्वा ययौ शीघ्रं हरिरभ्यन्तरं मुदा ।
भारतं च ययुर्देवा ब्रह्मरुद्रपुरोगमाः ॥ २०८ ॥
पश्चात् वह स्त्री देह त्याग कर मेरी प्रेयसी होगी । इतना कह कर जगत् के स्वामी श्रीहरि ने शिव को अपना शूल दे दिया और प्रसन्न होकर वे अपने भवन में चले गए । अनन्तर ब्रह्मा ने शिव को आगे कर के वहाँ से प्रस्थान किया और देवगण भी भारत में चले गये ॥ २०७-२०८ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड में तुलसी-उपाख्यान नामक सोलहवां अध्याय समाप्त ॥ १६ ॥

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