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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तदशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्याने तुलसीशंखचूडसंभोगः -
पुष्पदन्त का दूत बनकर शंखचूड़ के पास जाना -


श्रीनारायण उवाच
ब्रह्मा शिवं संनियोज्य संहारे दानवस्य च ।
जगाम स्वालयं तूर्णं यथास्थानं महामुने ॥ १ ॥
नारायण बोले–महामुने ! ब्रह्मा शिव को दानव शंखचूड़ का संहार करने के लिए नियुक्त कर के स्वयं शीघ्र अपने धाम में चले गए ॥ १ ॥

चन्द्रभागानदीतीरे घटमूले मनोहरे ।
तत्रतस्थौ महादेवो देवनिस्तारहेतवे ॥ २ ॥
दूतं कृत्वा पुष्पदन्तं गन्धर्वेश्वरमीप्सितम् ।
शीघ्रं प्रस्थापयामास शङ्‌खचूडान्तिकं मुदा ॥ ३ ॥
अनन्तर चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित एक मनोहर वट वृक्ष के नीचे देवों का अभ्युदय करने के विचार से शिव ने आसन जमा लिया । उन्होंने गन्धर्वराज पुष्पदन्त को दूत बना कर तुरन्त हर्षपूर्वक शंखचूड़ के पास भेजा ॥ २-३ ॥

स चेश्वराज्ञया शीघ्रं ययौ तन्नगरं वरम् ।
महेन्द्रनगरोत्कृष्टं कुबेरभवनाधिकम् ॥ ४ ॥
शिव की आज्ञा से वह दूत शीघ्र दानव के उस नगर की ओर चल पड़ा, जो महेन्द्र की पुरी (अमरावती) से उत्कृष्ट और कुबर के भवन से अधिक सुशोभित था ॥ ४ ॥

पञ्चयोजनविस्तीर्णं दैर्घ्यै तद्‌द्विगुणं मुने ।
स्फाटिकाकारमणिभिः समन्तात्परिवेष्टितम् ।
सप्तभिः परिखाभिश्च दुर्गमाभिः समन्वितम् ॥ ५ ॥
मुने ! वह नगर पाँच योजन चौड़ा और दस योजन लंबा था । वह स्फटिक के समान मणियों से चारों ओर घिरा हुआ था और सात दुर्गम परिखाओं (खाइयों) से युक्त था ॥ ५ ॥

ज्वलदग्निनिभैर्नित्यं शोभितं रत्‍नकोटिभिः ।
युक्तं च वीथिशतकैर्मणिवेदिसमन्वितैः ॥ ६ ॥
एवं प्रज्वलित अग्नि के समान करोड़ों रत्नों से शोभित, मणि की वोदयों और सैकड़ों वीथियों (गलियों) से समन्वित था ॥ ६ ॥

परितो वणिजां संघैर्नानावस्तुविराजितैः ।
सिन्दूराकारमणिभिर्निर्मितैश्च विचित्रितैः ॥ ७ ॥
भूषितं भूषितैर्दिव्यैराश्रमैः शतकोटिभिः ।
गत्वा ददर्श तन्मध्ये शङ्‌खचूडालयं वरम् ॥ ८ ॥
अतीव वलयाकारं यथा पूर्णेन्दुमण्डलम् ।
ज्यलदग्निशिखाभिश्च परिखाभिश्चतसृभिः ॥ ९ ॥
चारों ओर वैश्यों की अनेक प्रकार की वस्तुओं से सजी हुई दुकानों से सुशोभित तथा सिन्दूराकार मणियों के चित्र-विचित्र सौ करोड़ दिव्य भवनों से विभूषित था । इस प्रकार वहाँ पहुँच कर उस दूत ने शंखचूड़ का वह सुन्दर भवन देखा जो चन्द्रमण्डल की भाँति अत्यन्त गोलाकार और प्रज्वलित अग्निशिखा की भांति चार परिखाओं (खाइयों) से घिरा था ॥ ७-९ ॥

सुदुर्गमं च शत्रूणामन्येषा सुगमं सुखम् ।
अत्युच्चैर्गगनस्पर्श्यमणिप्राकारवेष्टितम् ॥ १० ॥
शत्रुओं के लिए अत्यन्त दुर्गम और अन्य के लिए सुखप्रद तथा अत्यन्त ऊँची मणिनिर्मित दीवारों से आवृत था ॥ १० ॥

राजितं द्वादशद्वारैर्द्वारपालसमन्वितैः ।
रत्‍नकृत्रिमपद्माढ्यै रत्‍नदर्पणभूषितैः ॥ ११ ॥
मणीन्द्रसारखचितैः शोभितं लक्षमन्दिरैः ।
शोभितं रत्‍नसोपानै रत्‍नस्तम्भविराजितैः ॥ १२ ॥
रत्‍नचित्रकपाटाद्यैः सद्‌रत्‍नकलशान्वितैः ।
रत्‍नप्रतिमपद्माद्यै रत्‍नदर्पणभूषितम् ॥
रलेन्द्रचित्रराजीभिःसुदीप्ताभिर्विराजितम् ॥ १३ ॥
द्वारपाल समेत बारह दरवाजों से सुशोभित और रत्नों के बने कमलों तथा रत्नों के दर्पणों से भूषित तथा मणियों के सार भाग से निर्मित एक लक्ष मन्दिरों से वह भवन शोभायमान था । रत्नों के सोपान (सीढ़ियाँ), रत्नों के स्तम्भ, रत्नों के चित्र-विचित्र किवाड़, उत्तम रत्नों के कलश, रत्नों के कमल, रत्नों के दर्पण एवं उत्तम रत्नों की चित्र विचित्र पंक्तियाँ वहाँ की शोभा बढ़ा रही थीं ॥ ११-१३ ॥

परितो रक्षितं शश्वद्‌दानवैः शतकोटिभिः ।
दिव्यास्त्रधारिभिः शूरैर्महाबलपराक्रमैः ॥ १४ ॥
सुन्दरैश्च सुवेषैश्च नानालंकारभूषितैः ।
तान् दृष्ट्‍वा पुष्पदन्तोऽपि वरद्वारं ददर्श सः ॥ १५ ॥
वहाँ चारों ओर से सौ करोड़ दानव पहरा दे रहे थे, जो दिव्य अस्त्रों से सम्पन्न, शूर, महाबली, महापराक्रमी, सुन्दर और उत्तम वेष तथा विविध अलंकारों से भूषित थे । उन्हें देखने के उपरान्त पुष्पदन्त ने प्रमुख द्वार को देखा ॥ १४-१५ ॥

द्वारे नियुक्तं पुरुषं शूलहस्तं च सस्मितम् ।
तिष्ठन्तं पिङ्‌गलाक्षं च ताम्रवर्णं भयंकरम् ॥ १ ६ ॥
वहाँ बैठा हुआ द्वारपाल हाथ में शल लिए हुए, मुसकराता हुआ, पिंगलाक्ष, ताँबे के समान वर्ण वाला और भयंकर दिखायी देता था ॥ १६ ॥

कथयामास वृत्तान्तं जगाम तदनुज्ञया ।
अतिक्रम्य नवद्वारं जगामाभ्यन्तरं पुरम् ॥ १७ ॥
उससे सारा समाचार कह कर दूत ने उसकी आज्ञा से भीतर प्रवेश किया । इस प्रकार नौ द्वारों को पार कर के वह भीतर पहुँच गया ॥ १७ ॥

न कैश्चिद्वारितो दूतो दूतरूपेण तस्य च ।
गत्वा सोऽभ्यन्तरं द्वारं द्वारपालमुवाच ह ॥ १८ ॥
रणस्य सर्ववृत्तान्तं विज्ञापयितुमीश्वरम् ।
स च तं कथयित्वा च दूतं गन्तुमुवाच ह ॥ १९ ॥
उसे दूत समझ कर किसी ने रोका नहीं । अनन्तर उसने भीतर जाकर द्वारपाल से सब वृत्तान्त कह दिया, जो उसके स्वामी से कहना था । वृत्तान्त सुनने के उपरान्त उसने दूत को भीतर जाने की अनुमति प्रदान की ॥ १८-१९ ॥

स गत्वा शङ्खचूडं तं ददर्श सुमनोहरम् ।
सभामण्डलमध्यस्थं स्वर्णसिंहासनस्थितम् ॥ २० ॥
मणीन्द्रखचितं चित्रं रत्‍नदण्डसमन्वितम् ।
रत्‍नकृत्रिमपुष्पैश्च प्रशस्तं शोभितं सदा ॥ २१ ॥
इस प्रकार भीतर जाकर दूत ने अतिमनोहर शंखचूड़ को दखा, जो सभामण्डल के मध्य ऐसे स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान था, जो उत्तम मणियों से निर्मित, चित्र विचित्र रत्नदण्डों से भूषित और रत्नों के बने पुष्पों से रमणीय एवं शोभित था ॥ २०-२१ ॥

भृत्येन हस्तविधृतं स्वर्णच्छत्रं मनोहरम् ।
सेवितं पार्षदगणैर्व्यजनैः श्वेतचामरैः ॥ २२ ॥
सुवेषं सुन्दरं रम्यं रत्‍नभूषणभूषितम् ।
माल्यानुलेपनं सूक्ष्मवस्त्रं च दधतं मुने ॥ २३ ॥
दानवेन्द्रैः परिवृतं सुवेषैश्च त्रिकोटिभिः ।
शतकोटिभिरन्यैश्च भ्र्मद्‌भिः शस्त्रधारिभिः ॥ २४ ॥
एवंभूतं च तं दृष्ट्‍वा पुष्पदन्तः सविस्मयः ।
उवाच रणवृत्तान्तं यदुक्तं शंकरेण च ॥ २५ ॥
उसके मस्तक पर सोने का सुन्दर छत्र तना था, जिसे एक भृत्य ने ले रखा था । उस छत्र में मणियाँ जड़ी हुई थीं । वह विचित्र छत्र रत्नमय दंड से सुशोभित था । रत्ननिर्मित कृत्रिम पुष्प उसकी शोभा को और भी बढ़ा रहे थे । सफेद एवं चमकीले चंवर हाथ में लेकर अनेक पार्षद शंखचूड की सेवा में संलग्न थे । उत्तम वेष एवं रत्नमय भूषणों से विभूषित होने के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था । मुने ! उसके गले में माला थी । शरीर पर चंदन का अनुलेपन था । वह दो महीन उत्तम वस्त्र पहने हुए था । उस समय सुन्दर वेष वाले असंख्य प्रसिद्ध दानवों से वह घिरा था और असंख्य दूसरे दानव हाथों में अस्त्र लिए इधर-उधर घूम रहे थे । ऐसे वैभव-सम्पन्न शंखचूड़ को देखकर पुष्पदन्त को महान् आश्चर्य हुआ । अनन्तर उसने शंकर के कथनानुसार युद्ध का वृत्तान्त कहना प्रारम्भ किया ॥ २२-२५ ॥

पुष्पदन्त उवाच
राजेन्द्र शिवदूतोऽहं पुष्पदन्ताभिधः प्रभो ।
यदुक्तं शंकरेणैव तद्‌ब्रवीमि निशामय ॥ २६ ॥
पुष्पदन्त ने कहा-राजेन्द्र ! मैं शिव का दूत हूँ, पुष्पदन्त मेरा नाम है । प्रभो ! शंकर जी ने जो कुछ कहा है मैं उसे कह रहा हूँ । आप सुनने की कृपा करें ! ॥ २६ ॥

राज्यं देहि च देवानामधिकारं च सांप्रतम् ।
देवाश्च शरणापन्ना देवेशे श्रीहरौ परे ॥ २७ ॥
आप इस समय देवों के अधिकार और उनके राज्य उन्हें लौटा दें । क्योंकि देव लोग देवाधीश्वर भगवान् श्रीहरि (विष्णु) की शरण में पहुंच गये हैं ॥ २७ ॥

दत्त्वा त्रिशूलं हरिणा तुभ्यं प्रस्थापितः शिवः ।
चन्द्रभागानदीतीरे वटमूले त्रिलोचनः ॥ २८ ॥
उन्होंने शंकर जी को त्रिशूल देकर तुम्हारे पास (युद्धार्थ) भेजा है । वे त्रिलोचन चन्द्रभागा नदी के तट पर वट वृक्ष के नीचे ठहरे हुए हैं ॥ २८ ॥

विषयं देहि तेषां च युद्धं वा कुरु निश्चितम् ।
गत्वा वक्ष्यामि किं शम्भुं तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥ २९ ॥
अत: देवों को उनका राज्य लौटा दें या निश्चित रूप से युद्ध करें । मुझ यह भी आप बता दें कि मैं लौट कर शम्भु से क्या कहूँगा ॥ २९ ॥

दूतस्य वचनं श्रुत्वा शङ्खचूडः प्रहस्य च ।
प्रभाते ह्यागमिष्यामि त्वं च गच्छेत्युवाच ह ॥ ३० ॥
स गत्वोवाच तूर्णं तं वटमूलस्थमीश्वरम् ।
शङ्‍खचूडस्य वचनं तदीयं यत्परिच्छदम् ॥ ३१ ॥
दूत की बातें सुनकर शंखचूड़ ने हंसकर कहा-'मैं प्रातःकाल वहाँ आऊँगा, तुम जाओ । ' यह सुन कर दूत ने शीघ्रता से जाकर वट वृक्ष के नीच ठहरे हुए शिव से शंखचूड़ की बात (उत्तर) और उसके सेवकों आदि का वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ३०-३१ ॥

एतस्मिन्नन्तरे स्कन्द आजगाम शिवान्तिकम् ।
वीरभद्रश्च नन्दी च महाकालः सुभद्रकः ॥ ३२ ॥
विशालाक्षश्च बाणश्च पिङ्‌गलाक्षो विकम्पनः ।
विरूपो विकृतिश्चैव मणिभद्रश्च बाष्कलः ॥ ३३ ॥
कपिलाक्षो दीर्घदंष्ट्रो विकटस्ताम्रलोचनः ।
कालङ्‌कटो बलीभद्रः कालजिह्वःकुटीचरः ॥ ३४ ॥
बलोन्मत्तो रणश्लाघी दुर्जयो दुर्गमस्तथा ।
अष्टौ च भैरवा रौद्रा रुद्राश्चैकादश स्मृताः ३५ ॥
वसवो वासवाद्याश्च आदित्या द्वादश स्मृताः ।
हुताशनश्च चन्द्रश्च विश्वकर्माऽश्विनौ च तौ ॥ ३६ ॥
कुबेरश्च यमश्चैव जयन्तो नलकूबरः ।
वायुश्च वरुणश्चैव बुधो वै मङ्‌गलस्तथा ॥ ३७ ॥
धर्मश्च शनिरीशानः कामदेवश्च वीर्यवान् ।
उग्रदंष्ट्रा चोग्रचण्डा कोट्‍टरी कैटभी तथा ॥ ३८ ॥
स्वयं शतभुजा देवी भद्रकाली भयंकरी ।
रत्‍नेन्द्रराजखचितविमानोपरि संस्थिता ॥ ३९ ॥
उसी बीच वहाँ शिव के पास (दल समेत) कार्तिकेय आये, जिनके स.थ वीरभद्र, नन्दी, महाकाल, सुभद्र, विशालाक्ष, बाण, पिंगलाक्ष, विकम्पन, निरूप, विकृति, मणिभद्र, बाष्कल, कपिलाक्ष, तीर्घदंष्ट्र (लम्बे दाँत वाले), विकट, ताम्रलोचन, कालंकट, बलीभद्र, कालजिह्व, कुटीचर, बलोन्मत्त, रणश्लाघी, दुर्जय, दुर्गम, आठों भयंकर भैरव, ग्यारह रुद्र, आठो वसु, वासव आदि बारहों आदित्य, अग्नि, चन्द्र, विश्वकर्मा, अश्विनीकुमार, कुबेर, यम, जयन्त, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध, मंगल, धर्म, ईशान, शनि, पराक्रमी कामदेव तथा उग्रदंष्ट्रा, उग्रचण्डा, कोट्टरी, कैटभी, स्वयं शतभुजा देवी तथा भयंकरी मद्रकाली भी आयी थीं । वे देवी अतिशय श्रेष्ठ रन द्वारा निर्मित विमान पर बैठी थीं ॥ ३२-३९ ॥

रक्तवस्त्रपरीधाना रक्तमाल्यानुलेपना ।
नृत्यन्ती च हसन्ती च गायन्ती सुस्वरं मुदा ॥ ४० ॥
वे रक्त वर्ण के वस्त्र, रक्तवर्ण की माला तथा रक्तवर्ण का अनुलेपन धारण कर के नाचती, हँसती एवं हर्ष के उल्लास में भर कर मीठे स्वरों में गाना गा रही थीं ॥ ४० ॥

अभयं ददती भक्तमभया सा भयं रिपुम् ।
बिभ्रती विकटां जिह्वां सुलोलां योजनायताम् ॥ ४१ ॥
भक्त को निर्भय और शत्रु को भयभीत करने वाली वे देवी विकट जिह्वा धारण किए थीं, जो योजन भर लंबी तथा लपलपा रही थी ॥ ४१ ॥

खर्परं वर्तुलाकारं गम्भीरं योजनायतम् ।
त्रिशूलं गगनस्पर्शि शक्तिं वै योजनायताम् ॥ ४२ ॥
शङ्खं चक्रं गदां पद्मं शरांश्चापं भयंकरम् ।
मुद्‌गरं मुसलं वज्रं खड्गं फलकमुज्ज्वलम् ॥ ४३ ॥
उनके हाथ में एक योजन विस्तृत, वर्तलाकार तथा गंभीर खप्पर था वे गगनस्पर्शी त्रिशूल, एक योजन लम्बी शक्ति, शंख, चक्र, गदा पद्म, भीषण धनुष, मुद्गर, मुशल, वज्र और अत्यंत विस्तृत एवं चमकीला खङ्ग धारण किए हुई थीं ॥ ४२-४३ ॥

वैष्णवास्त्रं वारुणास्त्रमाग्नेयं नागपाशकम् ।
नारायणास्त्रं ब्रह्मास्त्रं गान्धर्वं गारुडं तथा ॥ ४४ ॥
पार्जन्यं वै पाशुपतं जृम्भणास्त्रं च पार्वतम् ।
माहेश्वरास्त्रं वायव्यं दण्डं संमोहनं तथा ॥
अव्यर्थमस्त्रशतकं दिव्यास्त्रशतकं परम् ॥ ४५ ॥
आगत्य तत्रतस्थौ सा योगिनीनां त्रिकोटिभिः ।
सार्धं वै डाकिनीनां च विकटानां त्रिकोटिभिः ॥ ४६ ॥
वैष्णवास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेय अस्त्र, नागपाश, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, गान्धर्व, गारुड, पार्जन्य, पाशुपत, जृम्भणास्त्र, पार्वत, माहेश्वरास्त्र, वायव्य, दण्ड, सम्मोहनास्त्र, सैकड़ों अमोघ अस्त्र और सौ तेजस्वी दिव्यास्त्रों को धारण करके भद्रकाली तीन करोड़ योगिनियों एवं तीन करोड़ विकट रूप वाली डाकिनियों के साथ विराजमान थीं ॥ ४४-४६ ॥

भूतप्रेतपिशाचाश्च कूष्माण्डा ब्रह्मराक्षसाः ।
वेतालाश्चैव यक्षाश्च राक्षसाश्चैव किन्नराः ॥ ४७ ॥
ताभिश्चैव सह स्कन्दो नत्वा वै चन्द्रशेखरम् ।
पितुः पार्श्वे सभायां च समुवास भवाज्ञया ॥ ४८ ॥
इस प्रकार भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, बेतालगण, यक्षगण, राक्षसगण और किन्नर लोगों को भी साथ लेकर कार्तिकेय ने अपने पिता चन्द्रशेखर को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से उस सभा में उनके पास ही बैठ गये ॥ ४७-४८ ॥

अथ दूते गते तत्र शङ्खचूडः प्रतापवान् ।
उवाच तुलसी वार्तां गत्वाऽभ्यन्तरमेव च ॥ ४९ ॥
दूत के चले जाने पर प्रतापी राजा शंखचूड ने अन्तःपुर में जाकर तुलसी से सब बातें बतायीं ॥ ४९ ॥

रणवार्तां च सा श्रुत्वा शुष्ककण्ठोष्ठतालुका ।
उवाच मधुरं साध्वी हृदयेन विदूयता ॥ ५० ॥
रण की बातें सुनकर उस सुन्दरी के कण्ठ, ओंठ और ताल सूख गये । हृदय में दुःखानुभव करती हुई भी वह पतिव्रता पति से मधुरवाणी में कहने लगी ॥ ५० ॥

तुलस्युवाच
हे प्राणनाथ हे बन्धो तिष्ठ मे वक्षसि क्षणम् ।
हे प्राणाधिष्ठातृदेव रक्ष मे जीवनं क्षणम् ॥ ५१ ॥
तुलसी बोली-हे प्राणनाथ, हे बन्धो ! क्षण भर आप मेरी छाती से लगे रहें । हे मेरे प्राणों के अधिष्ठातृ देव ! क्षण भर मेरे जीवन की रक्षा करें ॥ ५१ ॥

भुङ्क्ष्व जन्मसु भोग्यं तद्यद्वै मनसि वाञ्छितम् ।
पश्यामि त्वां क्षणं किंचिल्लोचनाभ्यां पिपासिता ॥ ५२ ॥
कई जन्मों से मन में जो अभिलषित भोग्य पदार्थ हों उनका उपभोग कर लें । मैं अपने नेत्रों से कुछ क्षण तो आदरपूर्वक आपके दर्शन कर लूं ॥ ५२ ॥

आन्दोलयन्ति प्राणा मे मनोदाहश्च संततम् ।
दुःस्वप्नं च मया दृष्टं चाद्यैव चरमे निशि ॥ ५३ ॥
मेरे प्राण फड़फड़ा रहे हैं और मन निरन्तर जल रहा है । मैंने आज ही रात्रि के अन्तिम समय दुःस्वप्न देखा है ॥ ५३ ॥

तुलसीवचनं श्रुत्वा भुक्त्वा पीत्वा नृपेश्वरः ।
उवाच वचनं प्राज्ञो हितं सत्यं यथोचितम् ॥ ५४ ॥
तुलसी की ऐसी बातें सुन कर विद्वान् राजाधीश्वर शंखचूड़ ने खा-पीकर उससे सत्य, हितकर एवं यथार्थ वचन कहे ॥ ५४ ॥

शङ्खचूड उवाच
कालेन योजितं सर्वं कर्मभणेनिबन्धनम् ।
शुभं हर्षं सुखं दुःखं भय शोकममङ्‌गलम् ॥ ५५ ॥
शंखचूड बोले-कर्म-भोग का सारा निबन्ध काल के सूत्र में बँधा है । शुभ, हर्ष, सुख, दुःख, भय, शोक और अमंगल-सभी कालके अधीन हैं ॥ ५५ ॥

कालेभवन्ति वृक्षाश्च शाखावन्तश्च कालतः ।
क्रमेण पुष्पवन्तश्च फलवन्तश्च कालतः ॥ ५६ ॥
काल द्वारा ही वृक्ष उत्पन्न होता है, काल द्वारा ही वह शाखाओं आदि से युक्त होता है और काल द्वारा उसमें क्रमशः पुष्प-फल लगते हैं ॥ ५६ ॥

तेषां फलानि पक्वानि प्रभवन्त्येव कालतः ।
ते सर्वे फलिनः काले काले कालं प्रयान्ति च ॥ ५ ७ ॥
काल ही उन फलों को पकाता है । बाद में काल के प्रभाव से फूल-फल कर वह सम्पूर्ण वृक्ष काल कवलित हो जाता है ॥ ५७ ॥

भवन्ति काले भूतानि काले कालं प्रयान्ति च ।
काले भवन्ति विश्वानि काले नश्यन्ति सुन्दरि ॥ ५८ ॥
हे सुन्दरि ! उसी प्रकार प्राणी काल द्वारा उत्पन्न होते हैं और काल द्वारा ही विनष्ट भी होते हैं । काल द्वारा ही यह सारा विश्व उत्पन्न होता है और काल द्वारा नष्ट होता है ॥ ५८ ॥

स्रष्टा च काले सृजति पाता पाति च कालतः ।
संहर्ता संहरेत्काले संचरन्ति क्रमेण ते ॥ ५९ ॥
काल की महिमा स्वीकार कर के ब्रह्मा सृष्टि करते हैं और विष्णु पालन में तत्पर रहते हैं । रुद्र का संहार कार्य भी काल के संकेत पर ही निर्भर है । सभी क्रमशः कालानुसार अपने व्यापार में नियुक्त होते हैं ॥ ५९ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवादीनामीश्वरः प्रकृतेः परः ।
स्रष्टा पाता च संहर्ता स कृत्स्नांशेन सर्वदा ॥ ६० ॥
वे (श्रीकृष्ण) ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि समस्त देवों के ईश्वर, प्रकृति से परे एवं अपने सम्पूर्ण अंश से विश्व के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं ॥ ६० ॥

काले स एव प्रकृतिं निर्माय स्वेच्छया प्रभुः ।
निर्माय प्राकृतान्सर्वान्विश्वस्थांश्च चराचरान् ॥ ६१ ॥
वे ही प्रभु समयानुसार स्वेच्छा से प्रकृति को उत्पन्न करके उसके द्वारा चराचर समस्त विश्व की सृष्टि करते हैं ॥ ६१ ॥

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं कृत्रिममेव च ।
प्रवदन्ति च कालेन नश्यत्यपि हि नश्वरम् ॥ ६२ ॥
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानं तमीश्वरम् ॥ ६३ ॥
इसलिए यहाँ से ब्रह्मलोक तक सब कृत्रिम कहलाते हैं और वे नश्वर पदार्थ समय से नष्ट भी होते हैं । अतः उन सत्यमूर्ति, परब्रह्म, राधाधीश्वर की ही उपासना करो, जो तीनों गुणों से परे, सर्वाधीश्वर, समस्त रूप, सब के आत्मा, अनन्त और ईश्वर हैं ॥ ६२-६३ ॥

जनं जनेन सृजति जनं पाति जनेन यः ।
हरेज्जनं जनेनैव तं कृष्णं भज संततम् ॥ ६४ ॥
वे प्राणी से प्राणीको उत्पन्न करते हैं, प्राणी से प्राणी की रक्षा करते हैं और प्राणी से ही प्राणी का संहार करते हैं । अतएव उन कृष्ण का भजन करो ॥ ६४ ॥

यस्याऽऽज्ञया वाति वातः शीघ्रगामी च संततम् ।
यस्याऽऽज्ञया च तपनस्तपत्येव यथाक्षणम् ॥ ६५ ॥
जिनकी आज्ञा से वायु निरन्तर शीघ्रगामी होकर चलता है, जिनकी आज्ञा से सूर्य समय पर तपता है ॥ ६५ ॥

यथाक्षणं वर्षतीन्द्रो मृत्युश्चरति जन्तुषु ।
यथाक्षणं दहत्यग्निश्चन्द्रो भ्रमति भीतवत् ॥ ६६ ॥
इन्द्र समय पर वर्षा करते हैं, मृत्यु समस्त जीवों में विचरण करता है, अग्नि जलाता है, और भयभीत की भाँति चन्द्रमा नित्य घूमा करता है ॥ ६६ ॥

मृत्योर्मृत्यं कालकालं यमस्य च यमं परम् ।
विभुं स्रष्टुश्च स्रष्टारं पातुः पालकमेव च ॥ ६७ ॥
संहर्तारं च संहर्तुस्तं कृष्णं शरणं व्रज ।
को बन्धुश्चैव केषां वा सर्वबन्धुं भज प्रिये ॥ ६८ ॥
प्रिये ! जो मृत्यु के मृत्यु काल के काल, यमराज के श्रेष्ठ शासक, व्यापक, ब्रह्मा के भी स्रष्टा, पालक के भी पालक तथा संहार करने वाले के भी संहारक हैं, उन श्रीकृष्ण की शरण में जाओ । प्रिये ! यहाँ कौन किनका बन्धु है ? जो सब के बन्धु हैं, उन्हीं को भजो ॥ ६७-६८ ॥

अहं को वा त्वं च का वा विधिना योजितः पुरा ।
त्वया सार्धं कर्मणा च पुनस्तेन वियोजितः ॥ ६९ ॥
(देखो !) मैं कौन था और तुम कौन थी । किन्तु ब्रह्मा ने कर्मानुसार हम दोनों को एक साथ कर दिया और अब कर्मानुसार ही हम दोनों को पृथक् भी कर रहे हैं ॥ ६९ ॥

अज्ञानी कातरः शोके विपत्तौ च न पण्डितः ।
सुखं दुःखं भ्रमत्येव चक्रनेमिक्रमेण च ॥ ७० ॥
शोक में और विपत्ति आने पर अज्ञानी जीव कातर हो जाता है किन्तु ज्ञानी पुरुष वैसा नहीं होता है । क्योंकि सुख और दुःख चक्के की नेमि (पुट्ठी) के अनुसार आते-जाते रहते हैं ॥ ७० ॥

नारायणं तं सर्वेशं कान्तं प्राप्स्यसि निश्चितम् ।
तपः कृतं यदर्थे च पुरा बदरिकाश्रमे ॥ ७१ ॥
इसलिए सर्वाधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हें पति रूप में अवश्य मिलेंगे, जिसके निमित्त बदरिकाश्रम में पहले तुमने तप किया था ॥ ७१ ॥

मया त्वं तपसा लब्धा ब्रह्मणश्च वरेण हि ।
हरेरर्थे तव तपो हरिं प्राप्स्यसि कामिनि ॥ ७२ ॥
हे कामिनि ! मैंने तप करके ब्रह्मा के वरदान द्वारा तुम्हें प्राप्त किया था और तुम्हारा तप तो भगवान् के लिए था, इसलिए तुम भगवान् को अवश्य प्राप्त करोमी ॥ ७२ ॥

वृन्दावने च गोविन्दं गोलोके त्वं लभिष्यसि ।
अहं यास्यामि तल्लोकं तनुं त्यक्त्वा च दानवीम् ॥ ७३ ॥
वृन्दावन और गोलोक में भगवान् गोविन्द तुम्हें मिलेंगे और मैं भी इस दानवीय शरीर को छोड़कर उसी लोक में जाऊँगा ॥ ७३ ॥

तत्र द्रक्ष्यसि मां त्वं च त्वां द्रक्ष्यामि च संततम् ।
आगमं राधिकाशापाद्‌भारतं च सुदुर्लभम् ॥ ७४ ॥
वहाँ तुम हमें देखोगी और मैं तुम्हें निरन्तर देखा करूंगा । यहाँ अति दुर्लभ भारत प्रदेश में श्री राधा जी के शाप से हम दोनों आ गए थे ॥ ७४ ॥

पुनर्यास्यामि तत्रैव कः शोको मे शृणु प्रिये ।
त्वं हि देहं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय च ॥ ७५ ॥
तत्कालं प्राप्स्यसि हरिं मा कान्ते कातरा भव ।
इत्युक्त्वा च दिनान्ते च तया सार्धं मनोहरे ॥ ७६ ॥
सुष्वाप शोभने तल्पे पुष्पचन्दनचर्चिते ।
नानाप्रकारविभवे चचार रत्‍नमन्दिरे ॥ ७७ ॥
प्रिये ! फिर वहीं चलेंगे । इसमें शोक करने की कौन-सी बात है । तुम भी इस देह को त्याग कर दिव्य रूप धारण कर के तत्काल भगवान् से मिलोगी । अतः हे कान्ते ! व्यर्थ में कातर मत हो । ' इतना कह कर शंखचूड़ ने दिन के अवसान में मनोहर, सुशोभित तथा पुष्पचन्दनचर्चित शय्या पर उसके साथ शयन किया । उसका शयन-कक्ष रत्नों का बना हुआ तथा अनेक प्रकार के ऐश्वर्यों से भरा पड़ा था ॥ ७५-७७ ॥

रत्‍नप्रदीपसंयुक्ते स्त्रीरत्‍नं प्राप्य सुन्दरीम् ।
निनाय रजनीं राजा क्रीडाकौतुकमङ्‌गलैः ॥ ७८ ॥
कृत्वा वक्षसि कान्तां तां रुदतीमतिदुःखिताम् ।
कृशोदरी निराहारां निमग्नां शोकसागरे ॥ ७९ ॥
पुनस्तां बोधयामास दिव्यज्ञानेन बोधवित् ।
पुरा कृष्णेन यद्‌दत्तं भाण्डीरे तत्त्वमुत्तमम् ॥ ८० ॥
रत्नों के प्रदीपों से सुसज्जित उस मन्दिर में उस स्त्रीरत्न . (तुलसी) के साथ राजा क्रीड़ा के मांगलिक कौतुकों को करते हुए रात्रि बिताने लगा । अनन्तर रोती हुई, अत्यन्त दुःखित, क्षीण कटि वाली, भोजन से रहित तथा शोक-समुद्र में डूबी हुई उस रमणी को अपनी छाती से लगा कर बोधवेत्ता शंखचूड़ उसे दिव्य ज्ञान का उपदेश देने लगा । उस तत्त्वज्ञान को उसने पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण से भाण्डीर बन में प्राप्त किया था ॥ ७८-८० ॥

स च तस्यै ददौ तच्च सर्वशोकहरं परम् ।
ज्ञानं संप्राप्य सा देवी प्रसन्नवदनेक्षणा ॥ ८१ ॥
समस्त शोकहारी उस ज्ञान को पाकर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हो गयी । प्रसन्नता से उसके मुख और नेत्र खिल उठे ॥ ८१ ॥

क्रीडां चकार हर्षेण सर्वं मत्वाऽतिनश्वरम् ।
तौ दम्पती च क्रीडार्तौ निमग्नौसुखसागरे ॥ ८२ ॥
सब को नश्वर समझ कर उस दम्पति ने हर्ष से क्रीड़ा की और क्रीड़ा करते हुए वे सुखसागर में निमग्न हो गए ॥ ८२ ॥

पुलकाङ्‌किसर्वाङ्‍गौ मूच्छितौ निर्जने वने ।
अङ्‌गप्रत्यङ्‌गसंयुक्तौ सुप्रीतौ सुरतोत्सुकौ ॥ ८३ ॥
मुने ! उस निर्जन स्थान में उनके सर्वांग में रोमांच हो गया । रति करने के लिए उनके अंग-प्रत्यंग अति प्रेम से संयुक्त हो गए ॥ ८३ ॥

एकाङ्‌गौ च तथा तौ द्वौ चार्धनारीश्वरौ यथा ।
प्राणेश्वरं च तुलसी मेने प्राणाधिकं परम् ॥ ८४ ॥
प्राणाधिकां च तां मेने राजा प्राणाधिकेश्वरीम् ।
तौ स्थितौ सुखसुप्तौ च तन्द्रितौ सुन्दरौ समौ ॥ ८५ ॥
सुवेषौ सुखसंभोगादचेष्टौ सुमनोहरौ ।
क्षणं सचेतनौ तौ च कथयन्तौ रसाश्रयाम् ॥ ८६ ॥
अर्द्धनारीश्वर (शिव) की भांति उन दोनों के अंग मिलकर एक हो गये । उस समय तुलसी अपने प्राणेश्वर को प्राणों से अधिक मानने लगी और राजा ने भी उस प्राणेश्वरी को प्राणों से अधिक समझा । वे दोनों आनन्दपूर्वक सो गए । तन्द्रावस्था में दोनों समान रूप से सुन्दर लगते थे । उन दोनों का वेष बहुत बढ़िया था । वे दोनों सुख-संभोग के कारण निश्चेष्ट होने पर अत्यन्त मनोहर लगते थे । क्षण भर के बाद चेतना प्राप्त करने पर वे दोनों सरस, मनोहर एवं दिव्य कथा एक दूसरे को सुनाते थे ॥ ८४-८६ ॥

कथां मनोहरां दिव्यां हसन्तौ च क्षणं पुनः ।
भुक्तवन्तौ च ताम्बूलं प्रदत्तं च परस्परम् ॥ ८७ ॥
तथा आपस में एक दूसरे के दिए हुए सुवासित ताम्बूल खाते थे ॥ ८७ ॥

परस्परं सेवितौ च सुप्रीत्या श्वेतचामरैः ।
क्षणं शयानौ सानन्दौ वसन्तौ च क्षणं पुनः ॥ ८८ ॥
क्षणं केलिनियुक्तौ च रसभावसमन्वितौ ।
सुरताद्विरतिर्नास्ति तौ तद्विषयपण्डितौ ॥ ८९ ॥
सततं जययुक्तौ द्वौ क्षणं नैव पराजितौ ॥ ९० ॥
अति प्रेम से एक दूसरे को श्वेत चामर डुला कर सुखी करते थे । क्षण में दोनों सानन्द शयन करते थे, क्षण में बैठ जाते थे और क्षण में कामुक भाव में मग्न होकर रति क्रीड़ा करने लगते थे । इस प्रकार रति विषय के विशेषज्ञ उन दोनों को सुरत करने से विरति नहीं होती थी । इसलिए दोनों निरन्तर विजयी होते थे, पराजित तो कभी होते ही नहीं ॥ ८८-९० ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
तुलस्युपाख्याने तुलसीशत्‍नचूडसंभोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में तुलसीशंखचूडसम्भोगवर्णन नामक सत्रहवां अध्याय समाप्त ॥ १७ ॥

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