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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टादशोऽध्यायः तुलस्युपाख्याने शिवशङ्खचूडसंवादः -
शंखचूड का भगवान् शंकर से वार्तालाप - श्रीनारायण उवाच श्रीकृष्णं मनसा ध्यात्वा राजा कृष्णपरायणः । ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय पुष्पतल्पान्मनोहरात् ॥ १ ॥ श्रीनारायण बोले-कृष्णपरायण राजा शंखचूड ने ब्राह्म मुहूर्त में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके अपनी मनोहर पुष्पशय्या का त्याग किया ॥ १ ॥ रात्रिवासः परित्यज्य स्नात्वा मङ्गलवारिणा । धौते च वाससी धृत्वा कृत्वा तिलकमुज्ज्वलम् ॥ २ ॥ रात के वस्त्र को त्याग कर मंगल-जल से स्नान करके दो धुले वस्त्रों को धारण किया और उज्ज्वल तिलक लगाया ॥ २ ॥ चकाराऽऽह्निकमावश्यमभीष्टगुरुवन्दनम् । दध्याज्यं मधु लाजांश्च सोऽपश्यद्वस्तु मङ्गलम् ॥ ३ ॥ रत्नश्रेष्ठं मणिश्रेष्ठं वस्त्रश्रेष्ठं च काञ्चनम् । ब्राह्मणेभ्यो ददौ भक्त्या यथा नित्यं च नारद ॥ ४ ॥ नारद ! प्रातःकाल का आवश्यक नित्य कर्म-इष्ट-गुरु-वन्दन करके दही, घृत, मधु, लावा, इन मांगलिक वस्तुओं का दर्शन किया और नित्य की भाँति उत्तम रत्न, श्रष्ठ मणि, उत्तम वस्त्र तथा सुवर्ण भक्तिपूर्वक दान किये ॥ ३-४ ॥ अमूल्यरत्नं यत्किंचिन्मुक्तामाणिक्यहीरकम् । ददौ विप्राय गुरुवे यात्रामङ्गलहेतवे ॥ ५ ॥ अनन्तर मांगलिक यात्रा के निमित्त अमूल्य रत्न, कुछ मोती एवं मणि की वस्तुएँ और हीरा ब्राह्मण और गुरु को अर्पित किया ॥ ५ ॥ गजरत्नं चाश्वरत्नं धेनुरत्नं मनोहरम् । ददौ सर्वं दरिद्राय विप्रार्थं मङ्गलाय च ॥ ६ ॥ पुन: मंगलार्थ श्रेष्ठ हाथी, उत्तम घोड़े तथा मनोहर श्रेष्ठ धेनु दरिद्र ब्राह्मणों को बांटने लगा ॥ ६ ॥ कोशागारसहस्रं च नगराणां त्रिलक्षकम् । ग्रामाणां शतकोटिं च ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥ ७ ॥ उपरान्त एक हजार कोषागार (खजाने), तीन लाख नगर, और सौ करोड़ गाँव ब्राह्मणों को बड़ी प्रसन्नता से बाँट दिये ॥ ७ ॥ पुत्रं कृत्वा च राजेन्द्रं सुचन्द्रं दानवेषु च । पुत्रे समर्प्य भार्यां च राज्यं वै सर्वसंपदम् ॥ ८ ॥ प्रजानुचरसंघं च कोशौघं वाहनादिकम् । स्वयं संनाहयुक्तश्च धनुष्पाणिर्बभूव ह ॥ ९ ॥ अपने पुत्र सुचन्द्र को दानवों का राजेन्द्र बना कर उसे अपनी स्त्री, राज्य, समस्त सम्पत्ति, प्रजाएँ अनुचरवृन्द, कोष-समूह और वाहन आदि सौंप दिये और स्वयं कवच धारण कर हाथ में धनुष और बाण ले लिये ॥ ८-९ ॥ भृत्यद्वाराक्रमेणैव स चक्रे सैन्यसंचयम् । अश्वानां च त्रिलक्षेण पञ्चलक्षेण हस्तिनाम् ॥ १ ० ॥ रथानामयुतेनैव धानुष्काणां त्रिकोटिभिः । त्रिकोटिभिश्चर्मिणां च शूलिनां च त्रिकोटिभिः ॥ ११ ॥ सब सैनिकों को एकत्र किया । तीन लाख घोड़े, पाँच लाख हाथी, दस सहस्र रथ, तीन करोड़ धनुर्धारी, तीन करोड़ ढाल-सलवारधारी और तीन करोड़ त्रिशूलधारी वीर उसकी सेना के अंग बने ॥ १०-११ ॥ कृता सेनाऽपरिमिता दानवेन्द्रेण नारद । तस्यां सेनापतिश्चैको युद्धशास्त्रविशारदः ॥ १२ ॥ नारद ! इस प्रकार उस दानवेन्द्र ने अपरिमित सेना तैयार की, जिसका एक सेनापति युद्धशास्त्र का पारगामी था ॥ १२ ॥ महारथः स विज्ञेयो रथिनां प्रवरो रणे । त्रिलक्षाक्षौहिणीसेनापति कृत्वा नराधिपः ॥ १३ ॥ त्रिंशदक्षोहिणीवाद्यभाण्डौघं च चकार सः । बहिर्बभूव शिबिरान्मनसा श्रीहरिं स्मरन् ॥ १४ ॥ महारथी उसे समझना चाहिये जो रथियों में श्रेष्ठ हो । राजा शंखचूड ने उस महारथी को अगणित अक्षौहिणी सेना पर अधिकार प्रदान कर दिया । तीस अक्षौहिणी वाद्य-माण्डों के समूह लेकर वह राजा मन से श्रीहरि का स्मरण करते हुए अपने स्थान से बाहर निकला ॥ १३-१४ ॥ रत्नेन्द्रसारखचितं विमानं ह्यारुरोह सः । गुरुवर्गान्पुरस्कृत्य प्रययौ शंकरान्तिकम् ॥ १५ ॥ वह रत्नेन्द्रों के सारभाग से रचित विमान पर गुरु-वर्गों को आगे करके बैठ गया और शंकर के समीप पहुँचने के लिए प्रस्थित हुआ ॥ १५ ॥ पुष्पभद्रानदीतीरे यत्राक्षयवटः शुभः। सिद्धाश्रमं च सिद्धानां सिद्धिक्षेत्रं च नामतः ॥ १६ ॥ पुष्पभद्रा नदी के तट पर एक सुन्दर अक्षयवट है । वहीं सिद्धों के बहुत-से आश्रम हैं । उस स्थान को सिद्धक्षेत्र कहा गया है ॥ १६ ॥ कपिलस्य तपः स्थानं पुण्यक्षेत्रं च भारते । पश्चिमोदधिपूर्वे च मलयस्य च पश्चिमे ॥ १७ ॥ श्रीशैलोत्तरभागे च गन्धमादनदक्षिणे । पञ्चयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये शतगुणा तथा ॥ शाश्वती जलपूर्णा च पुष्पभद्रा नदौ शुभा ॥ १८ ॥ भारतवर्ष में वह पुण्यक्षेत्र कपिल मुनि की तपोभूमि है । वह पश्चिम सागर के पूर्व और मलय पर्वत से पश्चिम में है । श्रीशैल पर्वत से उत्तर और गन्धमादन से दक्षिण भाग में पांच योजन चौड़ी, पांच सौ योजन लंबी और निरन्तर जल से परिपूर्ण रहने वाली पवित्र पुष्पभद्रा नदी बहती है ॥ १७-१८ ॥ लवणोदप्रिया भार्या शश्वत्सौभाग्यसंयुता । शुद्धस्फटिकसंकाशा भारते च सुपुण्यदा ॥ १९ ॥ जो लवणसागर की प्रिय भार्या, निरन्तर सौभाग्य सम्पन्न, शुद्ध स्फटिक की भांति (समुज्ज्वल) और भारतदेश में अत्यन्त पुण्यप्रदा है ॥ १९ ॥ शरावतीमिश्रिता च निर्गता सा हिमालयात्। गोमन्तं वामतः कृत्वा प्रविष्टा पश्चिमोदधौ ॥ २० ॥ उसका उद्गम-स्थान हिमालय है । कुछ दूर आगे आने पर शरावती नाम की नदी उसमें मिल गई है । वह गोमन्त पर्वत को बायें करके बहती हुई पश्चिम समुद्र की ओर प्रस्थान करती है ॥ २० ॥ सत्र गत्वा शङ्खचूडो लुलोके चन्द्रशेखरम् । वटमूले समासीनं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ २१ ॥ वहाँ पहुंचकर शंखचूड ने चन्द्रशेखर का दर्शन किया, जो वट के नीचे सुखासीन होकर करोड़ों सूर्य के समान उद्भासित हो रहे थे ॥ २१ ॥ कृत्वा योगासने स्थित्वा मुद्रायुक्तं च सस्मितम् । शुद्धस्फटिसकाशं ज्यलंतं ब्रह्मतेजसा ॥ २२ ॥ त्रिशूलपट्टिशधरं व्याघ्रचर्माम्बरं वरम् । तप्तकाञ्चनवर्णाभं जटाजालं च बिभ्रतम् ॥ २३ ॥ त्रिनेत्रं पञ्चवक्त्रं च नागयज्ञोपवीतिनम् । मृत्युंजयं कालमृत्युं विश्वमृत्युकरं परम् ॥ २४ ॥ भक्तमृत्युहरं शान्तं गौरीकान्तं मनोरमम् । तपसां फलदातारं दातारं सर्वसंपदाम् ॥ २५ ॥ आशुतोषं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् । विश्वनाथ विश्वरूपं विश्वबीजं च विश्वजम् ॥ २६ ॥ विश्वंभरं विश्ववरं विश्वसंहारकारणम् । कारणं कारणानां च नरकार्णवतारणम् ॥ २७ ॥ ज्ञानप्रदं ज्ञानबीजं ज्ञानानन्दं सनातनम् । अवरुह्य विमानाच्च तं दृष्ट्वा दानवेश्वरः ॥ २८ ॥ सर्वैः सार्धं भक्तियुक्तः शिरसा प्रणनाम सः । वामतो भद्रकाली च स्कन्दं तत्पुरतः स्थितम् ॥ २९ ॥ वे योगासन से बैठे थे । उनके हाथों में वर एवं अभय की मुद्रा थी । मुख-मंडल मुसकान से भरा था । वे ब्रह्मतेज से उद्भासित हो रहे थे । उनकी अंग-कान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल थी । उनके हाथ में त्रिशूल और पट्टिश थे तथा शरीर पर श्रेष्ठ बाघम्बर शोभा पा रहा था । वस्तुतः गौरी के प्रिय पति भगवान् शंकर परम सुन्दर हैं । उनका शान्त विग्रह भक्त के मृत्युभय को दूर करने में पूर्ण समर्थ है । तपस्या का फल देना तथा अखिल सम्पत्तियों को भरपूर रखना उनका स्वाभाविक गुण है । वे बहुत शीघ्र प्रसन्न होते हैं । उनके मुख पर कभी उदासी नहीं आती । वे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं । उन्हें विश्वनाथ, विश्वबीज, विश्वरूप, विश्वज, विश्वम्भर, विश्ववर और विश्वसंहारक कहा जाता है । वे कारणों के कारण तथा नरक से उद्धार करने में परम कुशल हैं । वे सनातन प्रभु ज्ञान प्रदान करने वाले, ज्ञान के बीज तथा ज्ञानानन्द हैं । दानवराज शंखचूड ने विमान से उतरकर उनके दर्शन किये और सबके साथ सिर झुका कर उन भगवान् शंकर को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया, जिनके बाँये भाग में भद्रकाली और सामने स्कन्द बैठे थे ॥ २२-२९ ॥ आशिषं च ददौ तस्मै काली स्कन्दश्च शंकरः । उत्तस्थुर्दानवं दृष्ट्वा सर्वे नन्दीश्वरादयः ॥ ३० ॥ काली, स्कन्द और शिव ने उसे आशीर्वाद दिया और नन्दीश्वर आदि ने उठकर उस दानवराज का स्वागत किया ॥ ३० ॥ परस्परं च संभाषां ते चक्रुस्तत्र सांप्रतम् । राजा कृत्वा च संभाषामुवास शिवसंनिधौ ॥ ३१ ॥ उसे देखकर वहाँ के लोगों ने आपस में (उसके विषय की) बातें की और राजा भी उनसे बातचीत करने के अनन्तर शिव के समीप बैठ गया ॥ ३१ ॥ प्रसन्नात्मा महादेवो भगवांस्तमुवाच ह ॥ ३२ ॥ अनन्तर प्रसन्नात्मा भगवान् महादेव उससे बोले ॥ ३२ ॥ श्रीमहादेव उवाच विधाता जगतां ब्रह्मा पिता धर्मस्य धर्मवित् । मरीचिस्तस्य पुत्रश्च वैष्णवश्चापि धार्मिकः ॥ ३३ ॥ श्री महादेव बोले-जगत् के विधाता ब्रह्मा के, जो धर्म के पिता और धर्मवेत्ता हैं, मरीचि नामक वैष्णव एवं धार्मिक पुत्र हुए ॥ ३३ ॥ कश्यपश्चापि तत्पुत्रो धर्मिष्ठश्च प्रजापतिः । दक्षः प्रीत्या ददौ तस्मै भक्त्या कन्यास्त्रयोदश ॥ ३४ ॥ मरीचि के कश्यप प्रजापति धार्मिक पुत्र हुए । उन्हें दक्ष ने प्रसन्न होकर अति भक्तिपूर्वक अपनी तेरह कन्याएँ प्रदान की ॥ ३४ ॥ तास्येका च दनुः साध्वी तत्सौभाग्येन वर्धिता । चत्वारिंशद्दनोः पुत्रा दानवास्तेजसोज्ज्वलः ॥ ३५ ॥ उनमें एक पतिव्रता दनु है । दनु के सौभाग्य से चालीस दानव पुत्र हुए, जो अत्यन्त तेजस्वी थे ॥ ३५ ॥ तेष्वेको विप्रचित्तिश्च महाबलपराक्रमः । तत्पुत्रो धार्मिको दम्भो विष्णुभक्तो जितेन्द्रियः ॥ ३६ ॥ उन्हीं में एक विप्रचित्ति नामक महाबली और महापराक्रमी दानव हुआ, जिसका दम्भ नामक पुत्र धार्मिक, विष्णुभक्त एवं जितेन्द्रिय था ॥ ३६ ॥ जजाप परमं मन्त्रं पुष्करे लक्षवत्सरम् । शुक्राचार्यं गुरुं कृत्वा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ३७ ॥ उसने गुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा से पुष्कर क्षेत्र में एक लाख वर्षों तक परमात्मा श्रीकृष्ण के मंत्र का जप किया था ॥ ३७ ॥ तदा त्वां तनयं प्राप परं कृष्णपरायणम् । पुरा त्वं पार्षदो गोपो गोपेष्वष्टसु धार्मिकः ॥ ३८ ॥ तब तुम कृष्णपरायण श्रेष्ठ पुरुष उन्हें पुत्र रूप से प्राप्त हुए हो । पूर्वजन्म में तुम भगवान् श्रीकृष्ण के पार्षद एक महान् धर्मात्मा गोप थे । गोपों में तुम्हारी महती प्रतिष्ठा थी ॥ ३८ ॥ यधुना राधिकाशापाद्भारते दानवेश्वरः । आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं भ्रमं मेने च वैष्णवः ॥ ३९ ॥ इस समय तुम राधिका जी के शाप से भारतवर्ष में आकर वैष्णव दानवेश्वर हए हो । वैष्णव लोग यहाँ से ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोकों को भ्रमात्मक (मिथ्या) मानते हैं ॥ ३९ ॥ सालोक्यसार्ष्टिसारूप्यसामीप्यैक्यं हरेरपि । दीयमानं न गृह्णन्ति वैष्णवाः सेवनं विना ॥ ४० ॥ भगवान् की एक सेवा (भक्ति) के बिन । सालोक्य, सायुज्य, सारूप्य और सामीप्य नामक मुक्ति को भी वे वैष्णव गण स्वीकार नहीं करते हैं ॥ ४० ॥ ब्रह्मत्वममरत्वं वा तुच्छं मेने च वैष्णवः । इन्द्रत्वं वा कुबेरत्वं न मेने गणनासु च ॥ ४१ ॥ वैष्णव जन ब्रह्मत्व-अमरत्व को भी तुच्छ मानते हैं; इन्द्रत्व, कुबेरत्व की तो वे गणना ही नहीं करते ॥ ४१ ॥ कृष्णभक्तस्य ते किं वा देवानां विषये ममे । देहि राज्यं च देवानां मत्प्रीतिं कुरु भूमिप ॥ ४२ ॥ सुखं स्वराज्ये त्वं तिष्ठ देवाः सन्तु स्वके पदे । अलं भ्रातृविरोधेन सर्वे कश्यपवंशजाः ॥ ४३ ॥ इसलिए तुम भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त हो । तुम्हारे लिए देवताओं का राज्य भ्रममात्र है । उसमें तुम्हारी क्या आस्था हो सकती है ? तुम देवों को उनका राज्य लौटा दो और मुझे आनन्दित करो । तुम अपने राज्य में सुख से रहो और देवता लोग अपने स्थान पर रहें । क्योंकि एक कश्यप के ही तुम सभी (देव-राक्षस) सन्तान हो । अतः भाइयों से विरोध करना अच्छा नहीं है ॥ ४२-४३ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । ज्ञातिद्रोहस्य पापस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४४ ॥ ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं, वे ज्ञाति (पट्टीदारी) के द्रोह रूप पाप की सोलहवीं कला के भी समान नहीं होते हैं ॥ ४४ ॥ स्वसंपदां च हानिं च यदि राजेन्द्र मन्यसे । सर्वावस्थासु समता केषां याति च सर्वदा ॥ ४५ ॥ राजेन्द्र ! आप यदि इसमें अपनी सम्पत्ति की हानि समझते हैं, तो भला सोचो कि संसार में किसकी सदा एक-सी स्थिति बनी रह सकी है ॥ ४५ ॥ ब्रह्मणश्च तिरोभावो लये प्राकृतिके सति । आविर्भावः पुनस्तस्य प्रभवेदीश्वरेच्छया ॥ ४६ ॥ प्राकृतिक लय में ब्रह्मा का भी तिरोधान हो जाता है और ईश्वर की इच्छा से उनका पुनः आविर्भाव भी होता है ॥ ४६ ॥ ज्ञानं बुद्धिश्च तपसा स्मृतिर्लोकस्य निश्चितम् । करोति सृष्टिं ज्ञानेन स्रष्टा सोऽपि क्रमेण च ॥ ४७ ॥ तप के द्वारा उन्हें ज्ञान,बुद्धि और लोक की स्मृति होती है, इसीलिए स्रष्टा (ब्रह्मा) ज्ञान से क्रमशः (जगत् की) सृष्टि करते हैं ॥ ४७ ॥ परिपूर्णतमो धर्मः सत्ये सत्याश्रयः सदा । सोऽपि त्रिभागस्त्रेतायां द्विभागो द्वापरे स्मृतः ॥ ४८ ॥ सत्ययुग में जो धर्म परिपूर्णतम होकर सदा सत्य के आश्रित रहता है, वह त्रेता में तीन अंश से और द्वापर में दो अंश से रहता है ॥ ४८ ॥ एकभागः कलेः पूर्वे तद्ध्रासश्च क्रमेण च । कलामात्रं कलेः शेषे कुह्वां चन्द्रकला यथा ॥ ४९ ॥ कलि के आरम्भ में वह एक अंश से रहता है और क्रमशः उसका ह्रास होता जाता है । इसलिए अमावास्या के दिन चन्द्रमा की कला की भांति कलि में केवल धर्म की मात्र एक कला ही शेष रह जाती है ॥ ४९ ॥ यादृक्तेजो रवेर्ग्रीष्मे न तादृक्शिशिरे पुनः । दिने च यादृङ्मध्याह्ने सायं प्रातर्न तत्समम् ॥ ५० ॥ सूर्य का जैसा तेज ग्रीष्म ऋतु में होता है वैसा शिशिर ऋतु में नहीं रहता । दिन में भी जिस प्रकार मध्याह्न में वह रहता है, वैसा सायं और प्रातःकाल में नहीं रहता है ॥ ५० ॥ उदयं याति कालेन बालतां च क्रमेण च । प्रकाण्डतां च तत्पश्चात्कालेऽस्तं पुनरेव सः ॥ ५१ ॥ इस प्रकार सूर्य समयानुसार उदय होकर क्रमशः बाल एवं प्रचंड-अवस्था में आकर अंत में पुनः अस्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥ दिने प्रच्छन्नतां याति काले वै दुर्दिने घने । राहुग्रस्ते कम्पितश्च पुनरेव प्रसन्नताम् ॥ ५२ ॥ कालक्रम से जब दुर्दिन (वर्षा का समय) आता है, तब उन्हें दिन में ही छिप जाना पड़ता है । राहु से ग्रस्त होने पर सूर्य कम्पित होते हैं । पुनः थोड़ी देर के बाद प्रसन्नता आ जाती है ॥ ५२ ॥ परिपूर्णतमश्चन्द्रः पूर्णिमायां च यादृशः । तादृशो न भवेन्नित्यं क्षयं याति दिने दिने ॥ ५३ ॥ उसी तरह पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस भांति परिपूर्णतम रहते हैं, वैसे नित्य नहीं रहते हैंदिन-दिन क्षीण होते रहते हैं । ॥ ५३ ॥ पुनः स पुष्टता याति परकुह्वा दिने दिने । संपद्युक्तः शुक्लपक्षे कृष्णे म्लानश्च यक्ष्मणा ॥ ५४ ॥ पुनः दिन-प्रतिदिन बढ़कर पुष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार शुक्ल पक्ष में वे शोभासम्पत्ति से युक्त रहते हैं और कृष्णपक्ष में यक्ष्मा रोग से मलिन हो जाते हैं । ॥ ५४ ॥ राहुग्रस्ते दिने म्लानो दुर्दिने निबिडे घने । काले चन्द्रो भवेच्छुद्धो भ्रष्टश्रीः कालभेदके ॥ ५५ ॥ फिर राहग्रस्त होने पर तथा बादलों द्वारा घने अन्धकार के फैल जाने पर और दुर्दिन के समय वे मलिन रहते हैं और समय पाकर वही चन्द्रमा शुद्ध भी हो जाते हैं । पुनः काल भेद से उनकी श्री भ्रष्ट भी हो जाती है ॥ ५५ ॥ भविष्यति बलिश्चेन्द्रो भ्रष्टश्रीः सुतलेऽधुना । कालेन पृथ्वी सस्याढ्या सर्वाधारा वसुंधरा ॥ ५६ ॥ काले जले निमग्ना सा तिरोभूता विपद्गता । काले नश्यन्ति विश्वानि प्रभवन्त्येव कालतः ॥ ५७ ॥ (देखो) ! सम्प्रति भ्रष्टश्री बलि सुतल में रह रहे हैं, और आगे चलकर वही इन्द्र होंगे । यह सर्वाधार पृथ्वी कालानुसार ही सस्यसम्पन्ना होती है और काल पाकर जल में निमग्न हो जाती है एवं विपत्तिग्रस्त होकर तिरोहित भी हो जाती है । इस प्रकार समस्त विश्व समयानुसार नष्ट होता है और पुनः समय पाकर उत्पन्न भी हो जाता है ॥ ५६-५७ ॥ चराचराश्च कालेन नश्यन्ति प्रभवन्ति च । ईश्वरस्यैव समता कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ५८ ॥ चर-अचर सभी समयानुसार उत्पन्न एवं विनष्ट होते हैं । केवल ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण ही एक रूप में संदा विद्यमान रहते हैं ॥ ५८ ॥ अहं मृत्युंजयो यस्मादसंख्यं प्राकृतं लयम् । अदृश्यं चापि पश्यामि वारं वारं पुनः पुनः ॥ ५९ ॥ मैं मृत्युञ्जय हूँ; अतः असंख्य प्राकृत लय देख चुका हूँ इसका अदृश्य होना भी बार-बार देखता रहता हूँ ॥ ५९ ॥ स च प्रकृतिरूपश्च स एव पुरुषः स्मृतः । स चाऽत्मा सर्वजीवश्च नानारूपधरः परः ॥ ६० ॥ वही (भगवान् श्रीकृष्ण) प्रकृतिरूप, पुरुष रूप आत्मा, जीवात्मा, अनेकरूपधारी तथा सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ ६० ॥ करोति सततं यो हि तन्नामगुणकीर्तनम् । कालं मृत्युं स जयति जन्म रोगं जरां भयम् ॥ ६१ ॥ जो व्यक्ति उनके नामगुण का निरन्तर कीर्तन करता रहता है, वह काल, मृत्यु, जन्म, रोग, जरा और भय को जीत लेता है ॥ ६१ ॥ स्रष्टा कृतो विधिस्तेन पाता विष्णुः कृतो भवे । अहं कृतश्च संहर्ता वयं विषयिणो यतः ॥ ६२ ॥ उन्होंने ही ब्रह्मा को इस जगत् का स्रष्टा, विष्णु को रक्षक और मुझ संहर्ता बनाया है क्योंकि हम लोग विषयी हैं ॥ ६२ ॥ कालाग्निरुद्रं संहारे नियुज्य विषये नृप । अहं करोमि सततं तन्नामगुणकीर्तनम् ॥ ६३ ॥ नृप ! मैं कालाग्नि नामक रुद्र को संहार कार्य में नियुक्त कर स्वयं परमात्मा श्रीकृष्ण के नामगुण का कीर्तन करता रहता हूँ ॥ ६३ ॥ तेन मृत्युंजयोऽहं च ज्ञानेनानेन निर्भयः । मृत्युर्मत्तो भयाद्याति वैनतेयादिवोरगः ॥ ६४ ॥ इसी से मृत्यु मुझ पर प्रभाव नहीं डाल सकती । गरुड़ से साँप की भांति मुझसे मृत्यु भागती रहती है । ॥ ६४ ॥ इत्युक्त्या स च सर्वेशः सर्वज्ञः सर्वभावनः । विररामाथ शर्वश्च सभामध्ये च नारद ॥ ६५ ॥ नारद ! इस प्रकार उस सभा में सर्वेश भगवान् शंकर जो सर्वज्ञ, सब पर कृपा करने वाले और सर्वरूप हैं, इतना कहकर चुप हो गये ॥ ६५ ॥ राजा तद्वचनं श्रुत्वा प्रशशंस पुनः पुनः । उवाच सुन्दरं देवं परं विनयपूर्वकम् ॥ ६६ ॥ उनकी बातें सुनकर राजा ने बार-बार प्रशंसा की और शंकरदेव से सविनय सुन्दर वाणी में कहा ॥ ६६ ॥ शङ्खचूड उवाच त्वया यत्कथितं नाथ सर्वं सत्यं च नानृतम् । तथाऽपि किंचिद्यत्सत्यं श्रूयतां मन्निवेदनम् ॥ ६७ ॥ शंखचूड बोला-प्रभो ! यद्यपि आपने जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है, असत्य कुछ भी नहीं है । तथापि मैं भी कुछ सत्य निवेदन करना चाहता हूँ., आप सुनने की कृपा करें ॥ ६७ ॥ ज्ञातिद्रोहे महत्पापं त्वयोक्तमधुना त्रयम् । गृहीत्वा तस्य सर्वस्वं कुतः प्रस्थापितो बलिः ॥ ६८ ॥ मया समुद्धृतं सर्वमैश्वर्यं विक्रमेण च । सुतलाच्च समुद्धर्तुं नालं सोऽपि गदाधरः ॥ ६९ ॥ आपने अभी कहा है कि ज्ञाति द्रोह में तीन प्रकार के महान् पाप होते हैं, तो देवताओं ने बलि का सर्वस्व लेकर उन्हें क्यों भेज दिया । मैंने यह सारा ऐश्वर्य अपने पराक्रम से प्राप्त किया-दानवों के पूर्व वैभव का उद्धार किया है । भगवान् गदाधर भी सुतललोक से दानवसमाज को हटा देने में समर्थन नहीं हैं ॥ ६८-६९ ॥ सभ्रातृको हिरण्याक्षः कथं देवैश्च हिंसितः । शुम्भादयश्चासुरा वै कथं देवैर्निपातिताः ॥ ७० ॥ देवों ने भाई सहित हिरण्याक्ष की हिंसा क्यों करवायी ? तथा शुम्मादि असुरों को देवों ने क्यों मार गिराया ? ॥ ७० ॥ पुरा समुद्रमथने पीयूषं भक्षितं सुरैः । क्लेशभाजो वयं तत्र ते सर्वे फलभागिनः ॥ ७१ ॥ उसी प्रकार पूर्वकाल में समुद्र मथने पर अमृत निकला था, जिसे केवल देवों ने ही पान किया था । वहाँ (मन्थन का) परिश्रम हमें भी करना पड़ा था किन्तु फलमागी केवल वे ही (देव लोग) हुए ॥ ७१ ॥ क्रीडाभाण्डमिदं विश्वं कृष्णस्य परमात्मनः । यदा ददाति यस्मै स तस्यैश्वर्यं भवेत्तदा ॥ ७२ ॥ यह समस्त विश्व परमात्मा श्रीकृष्ण का क्रीडास्थान है । वे जिसे जिस समय ऐश्वर्य प्रदान करते हैं उस समय वह ऐश्वर्यवान् होता है ॥ ७२ ॥ देवदानवयोर्वादः शश्वन्नैमित्तिकः सदा । पराजयो जयस्तेषां कालेऽस्माकं क्रमेण च ॥ ७३ ॥ और देव-दानव का यह वाद-विवाद (कलह) निरन्तर नैमित्तिक ही है । इसीलिए समयानुसार बारी-बारी से कभी उनको और कभी हम लोगों को जय-पराजय प्राप्त होते रहते है ॥ ७३ ॥ तत्राऽऽवयोर्विरोधे च गमनं निष्फलं तव । समसंबधिनोर्बन्ध्वोरीश्वरस्य महात्मनः ॥ ७४ ॥ और हम दोनों के इस भाँति के विरोध में आप का आना निष्फल है । क्योंकि आप हम दोनों के साथ समान सम्बन्ध रखने वाले बन्धु, ईश्वर एवं महात्मा हैं ॥ ७४ ॥ जायते महती लज्जा स्पर्धाऽस्माभिः सहाधुना । ततोऽधिका च समरे कीर्तिहानिः पराजये ॥ ७५ ॥ सम्प्रति हम लोगों से स्पर्धा (वैरभाव) रखना आपके लिए बड़ी लज्जा की बात होगी और उससे भी अधिक रण में पराजय होने पर कीति की हानि होगी ॥ ७५ ॥ शंखचूडवचः श्रुत्वा प्रहस्याऽऽह त्रिलोचनः । यथोचितं सुमधुरमत्युग्रं दानवेश्वरम् ॥ ७६ ॥ शंखचूड की ऐसी बातें सुनकर भगवान् त्रिलोचन उस उत्कट दानवराज से यथोचित और अत्यन्त मधुर वाणी में कहने लगे ॥ ७६ ॥ श्रीमहादेव उवाच युष्माभिः सह युद्धं मे ब्रह्मवंशसमुद्भवैः । का लज्जा महती राजन्नकीतिर्वा पराजये ॥ ७७ ॥ श्रीमहादेवजी बोले-राजन् ! तुम लोग ब्रह्मा के वंश में उत्पन्न हो, अतः तुम्हारे साथ युद्ध करने में हमें क्या बड़ी लज्जा होगी और पराजय होने पर क्या भारी अपकीति होगी ॥ ७७ ॥ युद्धमादौ हरेरेव मधुना कैटभेन च । हिरण्यकशिपोश्चैव सह तेनाऽत्मना नृप ॥ ७८ ॥ नृप ! भगवान् का मघु तथा कैटभ के साथ युद्ध हो चुका है तथा उनके साथ हिरण्यकशिपु का भी युद्ध हुआ है ॥ ७८ ॥ हिरण्याक्षस्य युद्धं च पुनस्तेन गदाभृता । त्रिपुरैः सह युद्धं च मया चापि पुरा कृतम् ॥ ७९ ॥ पुनः उन्हीं गदाधारी (भगवान्) का हिरण्याक्ष के साथ यद्ध हुआ और पूर्वकाल में त्रिपुर के साथ हमारा भी युद्ध हो चुका है ॥ ७९ ॥ सर्वेश्वर्याः सर्वमातुः प्रकृत्याश्च बभूव ह । सह शुम्भादिभिः पूर्वं समरं परमाद्भुतम् ॥ ८० ॥ प्राचीन काल में समस्त ऐश्वर्य सम्पन्न एवं सबकी माता प्रकृति का शुम्भ आदि असुरों के साथ परम अद्भुत युद्ध हुआ था ॥ ८० ॥ पार्षदप्रवरस्त्वं च कृष्णस्य परमात्मनः । ये ये हताश्च ते दैत्या नहि केऽपि त्वया समाः ॥ ८१ ॥ और तुम भी तो परमात्मा श्रीकृष्ण के श्रेष्ठ पार्षद हो । पिछले जितने दैत्यवन्द मारे गये उनमें से कोई भी तुम्हारे समान नहीं है ॥ ८१ ॥ का लज्जा महती राजन्मम युद्धे त्वया सह । सुराणां शरणस्यैव प्रेषितस्य हरेरहो ॥ ८२ ॥ इसलिए राजन् ! तुम्हारे साथ युद्ध करने में मुझे क्या लज्जा है ? देवों के रक्षक भगवान् ने ही मुझे भेजा है ॥ ८२ ॥ देहि राज्यं च देवानां वाग्व्यये किं प्रयोजनम् । युद्धं वा कुरु मत्सार्धमिति मे निश्चितं वचः ॥ ८३ ॥ अतः मेरा निश्चित कहना यही है कि मेरे साथ युद्ध मत करो, देवों का । राज्य लौटा दो और व्यर्थ का वाग्जाल न बढ़ाओ ॥ ८३ ॥ इत्युकवा शंकरस्तत्र विरराम च नारद । उत्तस्थौ शङ्खचूडश्च स्वामात्यैः सह सत्वरः ॥ ८४ ॥ नारद ! वहाँ इतना कहकर शंकर चुप हो गये और अपने मंत्रियों समेत शंखचूड भी तुरंत उठकर खड़ा हो गया ॥ ८४ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने शिवशङ्खचूडसंवादो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में शिव-शंखचूड-संवाद नामक अठारहवां अध्याय समाप्त ॥ १८ ॥ |