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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकोनविंशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्याने कालीशंखचूडयुद्धः -
शंकर और शंखचूड के पक्षों में युद्ध -


श्रीनारायण उवाच
शिव प्रणम्य शिरसा दानवेन्द्रः प्रतापवान् ।
समारुरोह यानं च स्वामात्यैः सह सत्वरः ॥ १ ॥
नारायण बोले-वह प्रतापी दानवेन्द्र शिवजी को शिर से प्रणाम करके मंत्रियों समेत अपने विमान पर जा बैठा ॥ १ ॥

गुणं च संक्षुब्धाः स्कन्दशक्त्यर्दितास्तदा ।
नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ॥ २ ॥
(दोनों दलों में युद्ध आरम्भ हो गया) दानव स्कन्द की शक्ति से निरन्तर पीड़ित होने लगे । उनमें हलचल मच गई । उधर स्वर्ग में नगाड़े बजने लगे । उस भयंकर युद्ध में स्कन्द के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी ॥ २ ॥

स्कन्दस्योपरि तत्रैव समरे च भयंकरे ।
स्कन्दस्य समरं दृष्ट्‍वा महदद्‌भुतमुल्बणम् ॥ ३ ॥
दानवानां क्षयकरं यथा प्राकृतिकं लयम् ।
राजा विमानमारुह्य शरवर्षं चकार ह ॥ ४ ॥
स्कन्द का युद्ध अत्यन्त अद्भुत और भयानक था । वह प्राकृतिक प्रलय की भांति दानवों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा था पर बैठा हुआ शंखचूड बाणों की वर्षा करने लगा ॥ ३-४ ॥

नृपस्य शरवृष्टिश्च घनवृष्टिर्यथा तथा ।
महान्घोरान्धकारश्च वह्न्युऽत्थानं बभूव ह ॥ ५ ॥
राजा की उस बाण-वर्षा ने धन (बादल) की वर्षा की भांति महान् और घोर अन्धकार उत्पन्न कर दिया । फिर अग्नि प्रकट होने लगा ॥ ५ ॥

देवाः प्रदुद्रुवुश्चान्ये सर्वे नन्दीश्वरादयः ।
एकाकी कार्तिकेयस्तु तस्थौ समरमूर्धनि ॥ ६ ॥
उस समरांगण से नन्दीश्वर आदि सभी देवगण भाग चले । केवल एकाकी कार्तिकेय पहले ही के समान डटे रहे ॥ ६ ॥

पर्वतानां च सर्पाणां शिलानां शाखिनां तथा ।
शश्वच्चकार वृष्टिं च दुर्वाह्या च भयंकरीम् ॥ ७ ॥
उस रण में पर्वतों, नागों, शिलाओं और वृक्षों की भयंकर वृष्टि निरन्तर हो रही थी ॥ ७ ॥

नृपस्य शरवृष्ट्या च प्रच्छन्नः शिवनन्दनः ।
नीरदेन च सान्द्रेण संछन्नो भास्करो यथा ॥ ८ ॥
जल भरे बादलों से आच्छन्न सूर्य की भांति स्कन्द, राजा की उस बाणवर्षा से प्रच्छन्न (अलक्षित) हों गये ॥ ८ ॥

धनुः स्कन्दस्य चिच्छेद दुर्वहं च भयंकरम् ।
बभञ्ज च रथं दिव्यं चिच्छेद रथघोटकान् ॥ ९ ॥
राजा ने अपने बाणों से स्कन्द के दुवंह और भीषण धनुष को काट दिया तथा दिव्यरथ एवं रथ के घोड़ों को भी चूर-चूर कर धराशायी कर दिया । ॥ ९ ॥

मयूरं जर्जरीभूतं दिव्यास्त्रेण चकार सः ।
शक्तिं चिक्षेप सूर्याभां तस्य वक्षोविभेदिनीम् ॥ १० ॥
फिर शंखचूड ने अपने दिव्यास्त्र से उनके (वाहन) मयूर को जर्जर करके उनके वक्षःस्थल को फाड़ने के लिए उन पर सूर्य के समान प्रकाशपूर्ण अपनी शक्ति को चला दिया ॥ १० ॥

क्षणं मूर्च्छां च संप्राप्य चेतनामुपलभ्य सः ।
गृहोत्वाऽन्यद्धनुर्दिव्यं यद्‌दत्तं विष्णुना पुरा ॥ ११ ॥
इससे उन्हें क्षण भर मूर्छा आयी । अनन्तर चेतना प्राप्त होने पर उन्होंने एक दूसरे दिव्य धनुष को हाथ में लिया, जिसे पहले समय में भगवान् विष्णु ने दिया था ॥ ११ ॥

रत्‍नेन्द्रसारखचितं यानमारुह्य चाग्निभूः ।
शस्त्रमस्त्रं गृहीत्वा च चकार रणमुल्बणम् ॥ १२ ॥
फिर उत्तम रत्नों के सार भाग से निर्मित अन्य यान (रथ) पर बैठकर स्कन्द ने शस्त्र-अस्त्र द्वारा महान् घोर युद्ध किया ॥ १२ ॥

सर्पांश्च पर्वतांश्चैव वृक्षांश्च प्रस्तरांस्तथा ।
सर्वांश्चिच्छेद कोपेन दिव्यास्त्रेण शिवात्मजः ॥ १३ ॥
शिव-पुत्र ने क्रुद्ध होकर उन साँपों, पर्वतों, वृक्षों और शिलाओं को अपने दिव्य अस्त्र से चूरचूर कर दिया ॥ १३ ॥

आग्नेयं वारुणास्त्रेण वारयामास वै गुहः ।
रथं धनुश्च चिच्छेद शङ्खचूडस्य लीलया ॥ १४ ॥
सवाहं सारथिं चैव किरीटं मुकुटोज्ज्वलम् ।
चिक्षेप शक्तिमुल्काभां दानवेन्द्रस्य वक्षसि ॥ १५ ॥
शंखचूड के आग्नेयास्त्र को उन्होंने अपने बारुणास्त्र से रोक दिया और उसके रथ एवं धनुष को सहज ही में काट कर गिरा दिया । पश्चात् उसके घोड़े, सारथी और उज्ज्वल किरीट मुकुट को नष्ट कर दानवराज के लिए उल्का के समान अपने शक्ति अस्त्र का प्रयोग किया ॥ १४-१५ ॥

मूर्च्छां संप्राप्य राजोपलभ्य वै चेतनां पुनः ।
आरुह्य वै यानमन्यं धनुर्जग्राह सत्वरः ॥ १६ ॥
जिससे राजा भूच्छित हो गया । अनन्तर चेतना प्राप्त होने पर वह दूसरे रथ पर बैठा और शीघ्रता से अन्य धनुष को उठा लिया ॥ १६ ॥

चकार शरजालं च मायया मायिनां वरः ।
गुहं चाऽऽच्छाद्य समरे शरजालेन नारद ॥ १७ ॥
जग्राह शक्तिमव्यर्थां शतसूर्यसमप्रभाम् ।
प्रलयाग्निशिखारूपां विष्णोर्वै तेजसाऽऽवृताम् ॥ १८ ॥
चिक्षेप तां च कोपेन महावेगेन कार्तिके ।
पपात शक्तिस्तद्‌गात्रे वह्निराशिरिवोज्ज्वला ॥ १९ ॥
मूर्च्छां संप्राप शक्त्या च कार्तिकेयो महाबलः ।
काली गृहीत्वा तं क्रोडे निनाय शिवसंनिधौ ॥ २० ॥
शिवस्तं दर्शनादेव जीवयामास लीलया ।
ददौ बलमनन्तं च स चोत्तस्थौ प्रतापवान् ॥ २१ ॥
नारद ! उस श्रेष्ठ मायावी ने अपनी माया से उस रणस्थल में स्कन्द को बाणों के जाल से ढक दिया और कभी भी निष्फल न होने वाली अपनी उस शक्ति को, जो सैकड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण, प्रलयकालीन अग्नि की शिखारूप और भगवान् विष्णु के तेज से आवृत थी, हाथ में लेकर क्रोध से अत्यन्त वेगपूर्वक कार्तिकेय के पर छोड़ दिया । वह शक्ति उनके शरीर पर प्रज्वलित अग्नि की राशि के समान गिरी । महाबली कार्तिकेय उससे मूच्छित हो गये । अनन्तर कालीजी उन्हें अपनी गोद में लेकर शिवजी के पास ले गयीं और शिव जी ने सहज ही में उन्हें देखते ही जीवित कर दिया । तथा अनन्त बल भी प्रदान किया, जिससे प्रतापी स्कन्द तुरन्त उठ कर बैठ गये ॥ १७-२१ ॥

शिवः स्वसैन्यं देवांश्च प्रेरयामास सत्वरः ।
दानवेन्द्रैः ससैन्यैश्च युद्धारम्भो बभूव ह ॥ २२ ॥
पश्चात् शिव जी ने अपने सैनिकों और देवों को तुरन्त युद्ध के लिए प्रेरित किया । सेना समेत दानवराजों के साथ देवताओं का पुनः युद्ध प्रारंभ हुआ ॥ २२ ॥

स्वयं महेन्द्रो युयुधे सार्धं च वृषपर्वणा ।
भास्करो युयुधे विप्रचित्तिना सह सत्वरः ॥ २३ ॥
दम्भेन सह चन्द्रश्च चकार समरं परम् ।
कालेश्वरेण कालश्च गोकर्णेन हुताशनः ॥ २४ ॥
कुबेरः कालकेयेन विश्वकर्मा मयेन च ।
भयंकरेण मृत्युश्च संहारेण यमस्तथा ॥ २५ ॥
उस युद्ध में वृषपर्वा के साथ स्वयं महेन्द्र, विप्रचित्ति के साथ सूर्य, दम्भ के साथ चन्द्रमा, कालेश्वर के साथ काल, गोकर्ण के साथ अग्नि, कालकेय के साथ कुबेर, मय के साथ विश्वकर्मा, भयंकर (नामक दानव) के साथ मृत्यु और संहार के साथ यम का महान् युद्ध होने लगा ॥ २३-२५ ॥

कलविङ्‍केन वरुणश्चञ्चलेन समीरणः ।
बुधश्च घृतपुष्टेन रक्ताक्षेण शनैश्चरः ॥ २६ ॥
वमन्तो रत्‍नसारेण वसवो वर्चसां गणैः ।
अश्विनौ वै दीप्तिमता धूम्रेण नलकूबरः ॥ २७ ॥
धनुर्धरेण धर्मश्च मण्डूकाक्षेण मङ्‌गलः ।
शोभाकरेणैवेशानः पिठरेण च मन्मथः ॥ २८ ॥
उल्कामुखेन धूम्रेण खड्गेनापि ध्वजेन च ।
काञ्चीमुखेन पिण्डेन धूम्रेण सह नन्दिना ॥ २९ ॥
विश्वे देवाः पलाशेन चाऽऽदित्या युयुधुः परम् ।
एकादश महारुद्राश्चैकादश भयंकरैः ॥ ३० ॥
उसी प्रकार कलविङ्क से वरुण, चञ्चल से वायु, घृतपुष्ट से बुध, रक्ताक्ष से शनैश्चर, रत्नसार से जयन्त, वर्चस्गणों से वसुगण, दीप्तिमान् से अश्विनीकुमार, धूम्र से नलकूबर, धनुर्द्धर से धर्म मण्डकाक्ष से मंगल, शोभाकरण से ईशान, पिठर से मन्मथ (कामदेव) और उल्कामुख धूम्र, खङ्ग, ध्वज, काञ्चीमुख, पिण्ड, धूम्र तथा नन्दी से विश्वेदेव, पलाश से आदित्य और ग्यारह भयंकर दानवों के साथ ग्यारह महारुद्र भिड़ गए । ॥ २६-३० ॥

महामारी च युयुधे चोग्रदण्डादिभिः सह ।
नन्दीश्वरादयः सर्वे दानवानां गणैः सह ॥ ३१ ॥
उपदण्डा आदि से महामारी और दानवगणों के साथ नन्दीश्वर आदि का घोर युद्ध होने लगा ॥ ३१ ॥

युयुधुश्च महायुद्धे प्रलये च भयंकरे ।
वटमूले च शंभुश्च तस्थौ काल्या सुतेन च ॥ ३२ ॥
भयंकर प्रलय की भांति आरम्भ हुए उस युद्ध में केवल भगवान् शंकर उस वट के नीचे काली और पुत्र स्कन्द के साथ ठहरे हुए थे ॥ ३२ ॥

सर्वे च युयुधुः संन्यसमूहाः सततं मुने ।
रत्‍नसिंहासने रम्ये कोटिभिवनिवैः सह ॥ । ३३ ॥
उवास शंखचूडश्व रत्‍नभूषणभूषितः ।
शंकरस्य च योधाश्च युद्धे सर्वे पराजिताः ॥ ३४ ॥
देवाश्च दुद्रुवुः सर्वे भीताश्च क्षतविक्षताः ।
चकार कोपं स्कन्दश्च देवेभ्यश्चाभयं ददौ ॥ ३५ ॥
बलं सुरगणानां वै वर्धयामास तेजसा ।
स्वयमेकश्च युयुधे दानवानां गणैः सह ॥ ३६ ॥
मुने ! समस्त सेनाओं का समूह उस युद्ध में निरन्तर युद्ध कर रहा था और रत्नभूषण भूषित होकर शंखचूड करोड़ों दानवों समेत रम्य रत्नसिंहासन पर सुखासीन था । उस युद्ध में शिव जी के सभी वीर गण पराजित हो गये-क्षत-विक्षत होकर भयभीत देवगण भाग गये । अनन्तर स्कन्द ने क्रुद्ध होकर देवों को अभयदान देते हुए तेज द्वारा अपने गणों का बलवर्द्धन किया और स्वयं अकेले दानवों के साथ युद्ध में निरत हो गए ॥ ३३-३६ ॥

अक्षौहिणीनां शतकं समरे स जघान ह ।
खर्परं पातयामास काली कमललोचना ॥ ३७ ॥
पपौ रक्तं दानवानां कुद्धा सा शतखर्परम् ।
दशलक्षं गजेन्द्राणां शतलक्षं च वाजिनाम् ॥ ३८ ॥
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप लीलया ।
कबन्धानां सहस्रं च ननर्त समरे मुने ॥ ३९ ॥
उस रणस्थल में उन्होंने सौ अक्षोहिणी सेना का वध किया । कमलनेत्रा काली ने क्रुद्ध होकर दानवों के सौ खप्पर रक्त का पान किया और दश लाख गजराज तथा सौ लाख घोड़ों को एक हाथ से पकड़कर खेलवाड़ की मांति अपने मुख में डाल लिया । मुने ! इस प्रकार सहस्रों कबन्धों (धड़ों) को खाकर कालीजी नृत्य करने लगीं ॥ ३७-३९ ॥

स्कन्दस्य शरजालेन दानवाः क्षतविक्षताः ।
भीताश्च दुद्रुवुः सर्वे महाबलपराक्रमाः ॥ ४० ॥
उधर स्कन्द की बाणवर्षा से महाबली एवं पराक्रमी दानवगण क्षत-विक्षत होने पर भयभीत होकर भाग निकले ॥ ४० ॥

वृषपर्वा विप्रचित्तिर्दम्भश्चापि विकङ्‌कनः ।
स्कन्देन सार्धं युयुधुस्ते च सर्वे क्रमेण च ॥ ४१ ॥
वृषपर्वा, विप्रचित्ति, दम्भ और विकंकन आदि सभी दानव योद्धाओं ने क्रमशः स्कन्द से युद्ध किया । ॥ ४१ ॥

काली जगाम समरमरक्षत्कार्तिकं शिवः ।
वीरास्तामनुजग्मुश्च ते च नन्दीश्वरादयः ॥ ४२ ॥
सर्वे देवाश्च गन्धर्वा यक्षराक्षसकिन्नराः ।
राज्यभाण्डाश्च बहुशः शतकोटिर्बलाहकाः ॥ ४३ ॥
शिव जी कार्तिकेय की रक्षा कर रहे थे और काली युद्ध करने में लगी हुई थीं । उनके पीछे नन्दीश्वर आदि वीरगण, देवगण, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, बहुत-से राज्यभाण्ड और सौ करोड़ बलाहक भी युद्धरत थे ॥ ४२-४३ ॥

सा च गत्वा च संग्रामं सिंहनादं चकार ह ।
देव्या वै सिंहनादेन प्रापुर्मूर्च्छां च दानवाः ॥ ४४ ॥
देबी ने उस युद्धस्थल में पहुंचकर सिंहनाद किया, जिससे सभी दानवगण मूच्छित हो गये ॥ ४४ ॥

अट्टाट्टहासमशिवं चकार च पुनः पुनः ।
हृष्टा पपौ च माध्वीकं ननर्त रणमूर्धनि ॥ ४५ ॥
देवी ने वहाँ बारबार भयंकर अट्टाहास किया और सुरापान से हर्षित होकर उस रणभूमि में नृत्य करने लगीं ॥ ४५ ॥

उग्रद्रंष्ट्रा चोग्रदण्डा कौट्टरी च पपौ मधु ।
योगिनीनां डाकिनीनां गणाः सुरगणादयः ॥ ४६ ॥
दृष्ट्‍वा कालीं शङ्खचूडः शीघ्रमाजि समाययौ ।
दानवाश्च भयं प्रापू राजा तेभ्योऽभयं ददौ ॥ ४७ ॥
अनन्तर उग्रदंष्ट्रा, उग्रचण्डा और कौट्टरी मधुपान करने लगीं । योगिनियों और डाकिनियों के गण तथा देवगण आदि भी इस कार्य में योग देने लगे । काली जी को देखकर राजा शंखचूड युद्ध में शीघ्रता से आ पहुंचा और भयभीत दानवों को अभय दान देने लगा ॥ ४६-४७ ॥

काली चिक्षेप चाऽऽग्नेयं प्रलयाग्निशिखोपमम् ।
राजा निर्वापयामास वारुणेन स लीलया ॥ ४८ ॥
काली ने आग्नेय अस्त्र का प्रयोग किया, जो प्रलयकालीन अग्नि की शिखा की भांति था, राजा ने वारुणास्त्र से उसका सहज ही में निवारण कर दिया ॥ ४८ ॥

चिक्षेप वारुणं सा च तत्तीव्रं महदद्‌भुतम् ।
गन्धर्वेण च चिच्छेद दानवेन्द्रश्च लीलया ॥ ४९ ॥
देवी ने अत्यन्त तीक्ष्ण और महान् अद्भुत वारुण अस्त्र का प्रयोग किया, जिसको दानवराज ने गान्धवस्त्रि द्वारा लीलापूर्वक काट दिया ॥ ४९ ॥

वाहेश्वरं प्रचिक्षेप काली वह्निशिखोपमम् ।
राजा जघान तच्छीघ्रं वैष्णवेन च लीलया ॥ ५० ॥
तब काली अग्निशिखा के समान माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया, राजा ने वैष्णवास्त्र द्वारा शीघ्रता से उसे काट डाला ॥ ५० ॥

नारायणास्त्रं सा देवी चिक्षिपे मन्त्रपूर्वकम् ।
राजा ननाम तं दृष्ट्‍वा चावरुह्य रथादहो ॥ ५१ ॥
देवी ने मन्त्रपूर्वक नारायणास्त्र चलाया, राजा ने उसे देखते ही नमस्कार किया और अनन्तर रथ से नीचे उतर पड़ा ॥ ५१ ॥

ऊर्ध्वं जगाम तच्छस्त्रं प्रलयाग्निशिखोपमम् ।
पपात शंखचूडश्च भक्त्या वै दण्डवद्‌भुवि ।
ब्रह्मास्त्रं सा च चिक्षेप यत्‍नतो मन्त्रपूर्वकम् ॥ ५२ ॥
ब्रह्मास्त्रेण महाराजो निर्वाणं च चकार ह ।
चिक्षेपातीव दिव्यास्त्रं सा देवी मन्त्रपूर्वकम् ॥ ५३ ॥
राजा दिव्यास्त्रजालेन निर्वाणं च चकार ह ।
देवी चिक्षेप शक्ति च यत्‍नतो योजनायताम् ॥ ५४ ॥
राजा तीक्ष्णास्त्रजालेन शतखण्डं चकार ह ।
जग्राह मन्त्रपूर्वं च देवी पाशुपतं रुषा ॥ ५५ ॥
निक्षेप्तुं सा निषिद्धा च वाग्बभूवाशरीरिणी ।
मृत्युः पाशुपते नास्ति नृपस्य च महात्मनः ॥ ५६ ॥
प्रलयकाल की अग्नि-शिखा के समान वह अस्त्र उसी समय ऊपर चला गया और भक्तिवश राजा भूमि पर दण्डवत् पड़कर साष्टांग प्रणाम करने लगा । उपरान्त देवी ने यत्न से मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र चलाया, महाराज (दानव) ने भी ब्रह्मास्त्र द्वारा उसे शान्त कर दिया । देवी ने मन्त्रपूर्वक अत्यन्त दिव्य अस्त्र का प्रयोग किया । राजा ने अपने दिव्यास्त्र द्वारा उसे शान्त कर दिया । देवी ने एक योजन लम्बी शक्ति का सप्रयत्न प्रयोग किया, राजा ने तीक्ष्णास्त्रों के समूहों द्वारा उसके सौ टुकड़े कर दिये अनन्तर देवी ने रुष्ट होकर मन्त्रपूर्वक पाशुपत अस्त्र का प्रयोग करना चाहा, किन्तु आकाशवाणी ने उसे चलाने से रोक दिया और कहा-'इस महात्मा राजा की मृत्यु पाशुपत अस्त्र से संभव नहीं है ॥ ५२-५६ ॥

यावदस्त्येव कण्ठेऽस्य कवचं हि हरेरिति ।
यावत्सतीत्वमस्तीह सत्याश्च नृपयोषितः ॥ ५७ ॥
तावदस्य जरा मृत्युर्नास्तीति ब्रह्मणो वरः ।
इत्याकर्ण्य महाकाली न तच्चिक्षेप सा सती ॥ ५८ ॥
तथा जब तक इसके कण्ठ में भगवान् विष्णु का कवच बँधा रहेगा और इसकी पतिव्रता पत्नी अपने सतीत्व की रक्षा करती रहेगी तब तक इसके समीप जरा और मृत्यु अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकती--यह ब्रह्मा का वरदान है । यह सुनकर सती महाकाली ने पाशुपत अस्त्र नहीं चलाया ॥ ५७-५८ ॥

शतलक्षं दानवानामग्रहील्लीलया क्रुधा ।
अत्तुं जगाम वेगेन शङ्खचूडं भयंकरी ॥ ५९ ॥
किन्तु क्रोधावेश में सौ लाख दानवों का भक्षण कर डाला और वह भयंकरी शंखचूड को भक्षण करने के लिए वेग से दौड़ी ॥ ५९ ॥

दिव्यास्त्रेण सुतीक्ष्णेन वारयामास दानवः ।
खड्गं चिक्षेप सा देवी ग्रीष्मसूर्योपमं परम् ॥ ६० ॥
दिव्यास्त्रैर्दानवेन्द्रोऽयं शतखण्डं चकार सः ।
पुनरत्तु महादेवी वेगेन च जगाम तम् ॥ ६१ ॥
दानवराज ने अत्यन्त तीक्ष्ण दिव्यास्त्रों द्वारा उनको रोक दिया । देवी ने ग्रीष्मकालीन सूर्य की प्रभा के समान अपना खड्ग चलाया, उसे दानवेन्द्र ने अपने दिव्यास्त्रों द्वारा सौ खण्डों में कर दिया । अनन्तर महादेवी उसे खाने के लिए पुनः वेग से दौड़ी ॥ ६०-६१ ॥

सर्वसिद्धेश्वरः श्रीमान्ववृधे दानवेश्वरः ।
निवारयास च तां सर्वसिद्धेश्वरो वरः ॥ ६२ ॥
वेगेन मुष्टिना काली कोपयुक्ता भयंकरी ।
बभञ्जाथ रथं तस्य चाहनत्सारथिं सती ॥ ६३ ॥
सा च शूलं च चिक्षेप प्रलयाग्निशिखोपमम् ।
वामहस्तेन जग्राह शङ्खचूडं च लीलया ॥ ६४ ॥
मुष्ट्या जघान तं देवी महाकोपेन वेगतः ।
बभ्राम व्यथया दैत्यः क्षणं मूर्च्छामवाप ह ॥ ६५ ॥
उस समय दानवेश्वर शंखचूड ने श्रीमान् और सर्वसिद्धेश्वर होने के कारण बढ़ना आरम्भ किया और सर्वसिद्धेश्वर वर के द्वारा देवी का निवारण कर दिया । पुनः भयंकरी काली देवी ने क्रुद्ध होकर वेग से मुष्टि प्रहार किया जिससे दानव का रथ और सारथी छिन्नभिन्न हो गया । पुन देवी ने प्रलयाग्नि-शिखा की भांति शूल का प्रयोग किया, शंखचूड ने उसे लीलापूर्वक बायें हाथ से पकड़ कर रख दिया । उसी समय देवी ने महाकोप करके पुनः वेग से मुष्टि प्रहार किया, जिससे दैत्यराज व्यथित होकर घूमते हुए गिर पड़ा और क्षणिक मूच्छित भी हो गया । अनन्तर क्षण में चेतना प्राप्त होने पर वह प्रतापी दानव उठकर बैठ गया ॥ ६२-६५ ॥

क्षणेन चेतनां प्राप्य समुत्तस्थौ प्रतापवान् ।
न चक्रे बाहुयुद्धं स देव्या सह ननाम ताम् ॥ ६६ ॥
इतने पर भी दानव ने देवी के साथ बाहुयुद्ध न कर उन्हें नमस्कार ही किया, देवी के अस्त्रों को काट डाला और अपने तेज द्वारा उन्हें पकड़ भी लिया ॥ ६६ ॥

देव्याश्चास्त्रं च चिच्छेद चाग्रहीत्स्वेन तेजसा ।
नास्त्रं चिक्षेप तां भक्त्या मातृबुद्ध्या च वैष्णवः ॥ ६७ ॥
उस वैष्णव दानवराज ने भक्तिपूर्वक उन्हें माता समझकर उन पर अपने अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया ॥ ६७ ॥

गृहीत्वा दानवं देवी भ्रामयित्वा पुनः पुनः ।
ऊर्ध्वं च प्रेरयामास महावेगेन कोपतः ॥ ६८ ॥
ऊर्ध्वात्पपात वेगेन शङ्खचूडः प्रतापवान् ।
निपत्य च समुत्तस्थौ स नत्वा भद्रकालिकाम् ॥ ६९ ॥
किन्तु देवी ने क्रुद्ध होकर उसे पकड़ कर बार-बार घुमाया और अतिवेग से ऊपर फेंक दिया, किन्तु प्रतापी शंखचूड ने वेग से ऊपर से नीचे आकर भद्रकाली को नमत्कार किया और सामने उठ कर खड़ा हो गया ॥ ६८-६९ ॥

रत्‍नेन्द्रसारखचितं विमानाग्र्यं मनोहरम् ।
आरुरोह रथं हृष्टो न विश्रान्तो महारणे ॥ ७० ॥
फिर उत्तम रत्नों के सार भाग से रचित उत्तम एवं मनोहर रथ पर चढ़कर प्रसन्न हो गया और वह उस महासमर में कुछ भी श्रान्त नहीं हुआ ॥ ७० ॥

क्षतजं दानवानां च मासं च विपुलं क्रुधा ।
पीत्वा भुक्तवा भद्रकाली ययौ सा शंकरान्तिकम् ॥ ७१ ॥
उवाच रणवृत्तान्तं पौर्वापर्यं यथाक्रमम् ।
श्रुत्वा जहास शंभुश्च दानवानां विनाशनम् ॥ ७२ ॥
पश्चात् भद्रकाली दानवों के कटे हुए विपुल मांस तथा रक्त आदि को खा-पीकर शंकर के समीप चली गयीं । वहाँ पहुँचकर उन्होंने (शंकर से) रण का समस्त वृत्तान्त-जिस क्रम से जो कुछ हुआ था-कह सुनाया । उसे सुनकर शिव जी दानवों के विनाशार्थ हंस पड़े ॥ ७१-७२ ॥

लक्षं च दानवेन्द्राणामवशिष्टं रणेऽधुना ।
उद्वृत्तं भूभृता सार्धं तदन्यं भुक्तमीश्वरम् ॥ ७३ ॥
पुनः उन्होंने शिव से कहा-हे ईश्वर ! इस समय रणस्थल में एक लाख दानवेन्द्र शेष रह गये हैं, जो राजा के साथ सन्नद्ध हैं और अन्य को मैंने खा लिया है ॥ ७३ ॥

संग्रामं दानवेन्द्रं च हन्तुं पाशुपतेन वै ।
अवध्यस्तव राजेति वाग्बभूवाशरीरिणी ॥ ७४ ॥
राजेन्द्रश्च महाज्ञानी महाबलपराक्रमः ।
न च चिक्षेप मय्यस्त्रं चिच्छेद मम सायकम् ॥ ७५ ॥
समर में मैंने उस दानवेन्द्र को पाशुपत से मारना चाहा उसी समय आकाशवाणी हुई कि-तुम्हारे द्वारा राजा की मृत्यु नहीं हो सकेगी । उसके बाद महाज्ञानी, महाबली एवं पराक्रमी राजा ने मेरे ऊपर अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया । वह केवल मेरे छोड़े हुए बाणों को काट भर देता था ॥ ७४-७५ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने
कालीशङ्खःचूडयुद्ध एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में तुलसी-उपास्यान के प्रसंग में काली तथा शंखचूड युद्ध-वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १९ ॥

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