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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - विंशोऽध्यायः


तुलस्युपाख्याने शंखचूडवधे शंखप्रस्तावः -
शंकर के त्रिशूल से शंखचूड का भस्म होना -


श्रीनारायण उवाच
शिवस्तत्त्वं समाकर्ण्य तत्त्वज्ञानविशारदः ।
ययौ स्वयं च समरं स्वगणैः सह नारद ॥ १ ॥
नारायण बोले--नारद ! तत्त्वज्ञान-विशारद शिव ने भद्रकाली से यथार्थ वृत्तान्त सुनकर अपने गणों समेत स्वयं समरभूमि के लिए प्रस्थान कर दिया ॥ १ ॥

शङ्खचूडः शिवं दृष्ट्‍वा विमानादवरुह्य च ।
ननाम परया भक्त्या दण्डवत्पतितो भुवि ॥ २ ॥
वहाँ शंखचूड ने शिव को देखते ही विमान से उतरकर अत्यन्त भक्ति से भूमि पर लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया ॥ २ ॥

तं प्रणम्य च वेगेन विमानं ह्यारुरोह सः ।
तूर्णं चकार संनाहं धनुर्जग्राह दुर्वहम् ॥ ३ ॥
प्रणाम करने के उपरान्त उसने वेग से रथ पर बैठकर शीघ्रता से सैनिकों को सावधान किया और दुर्जेय धनुष को उठा लिया ॥ ३ ॥

शवदानवयोर्युद्धं पूर्णमब्दं बभूव ह ।
न वै बभूवतुर्ब्रह्मन्तयोर्जयपराजयौ ॥ ४ ॥
ब्रह्मन् ! शिव-दानव का वह युद्ध पूरे वर्ष तक होता रहा, किन्तु उनमें किसी की जय-पराजय नहीं हुई ॥ ४ ॥

न्यस्तशस्त्रश्च भगवान्न्यस्तशस्त्रश्च दानवः ।
रथस्थः शङ्खचूडश्च वृषस्थो वृषभध्वजः ॥ ५ ॥
अनन्तर भगवान शिव अस्त्र छोड़कर खाली हाथ हो गये और दानव भी हथियार डालकर चुप रहा । फिर शंखचूड रथ पर आरूढ़ हुआ और शिव नन्दी पर सवार हुए ॥ ५ ॥

दानवानां च शतकमुद्वृत्तं च बभूव ह ।
रणे ये ये मृताः शंभोर्जीवयामास तान्विभुः ॥ ६ ॥
उस युद्ध में असंख्य दानव मारे गए । रण में शिव के सैनिक जितनी संख्या में मतक हुए थे, उन्हें उन्होंने जीवित कर लिया था ॥ ६ ॥

ततो विष्णुर्महामायो वृद्धब्राह्मणरूपधृक् ।
आगत्य च रणस्थानमवोचद्‌दानवेश्वरम् ॥ ७ ॥
इसी बीच महामायी विष्णु ने वृद्ध ब्राह्मण के वेष में उस रण भूमि में आकर उस दानवराज से कहा ॥ ७ ॥

वृद्धब्राह्मण उवाचं
देहि भिक्षां च राजेन्द्र मह्यं विप्राय साम्प्रतम् ।
त्वं सर्वसंपदां दाता यन्मे मनसि वाञ्छितम् ॥ ८ ॥
निराहाराय वृद्धाय तृषितायाऽऽतुराय च ।
पश्चात्त्वां कथयिष्यामि पुरः सत्यं च कुर्विति ॥ ९ ॥
बद्ध ब्राह्मण बोले-राजेन्द्र ! इस समय आप मुझ ब्राह्मण को मेरी अभिलषित भिक्षा देने की कृपा करें; क्योंकि आप समस्त सम्पत्तियों के दाता हैं और मैं निराहार, वृद्ध, प्यासाऔर आतुरब्राह्मण हूँ । पहले आप देने के लिए सत्य प्रतिज्ञा करें पश्चात् मैं आपको (अपनी अभिलाषित वस्तु) बताऊँगा ॥ ८-९ ॥

ओमित्युवाच राजेन्द्रः प्रसन्नवदनेक्षणः ।
कवचार्थी जनश्चाहमित्युवाच स मायया ॥ १ ० ॥
अनन्तर राजेन्द्र शंखचूड ने प्रसन्न मुख मुद्रा में 'ओम्' कह कर देने की प्रतिज्ञा की । तदनन्तर विष्णु ने माया फैलाते हुए कहा-'मैं आपका कवच चाहता हूँ ॥ १० ॥

तच्छ्रुत्वा दानवश्रेष्ठो ददौ कवचमुत्तमम् ।
गृहीत्वा कवचं दिव्यं जगाम हरिरेव च ॥ ११ ॥
यह सुनकर उस दानवश्रेष्ठ ने वह उत्तम कवच उन्हें दे दिया और उस दिव्य कवच को लेकर विष्णु चले गये ॥ ११ ॥

शङ्खचूडस्य रूपेण जगाम तुलसीं प्रति ।
गत्वा तस्यां मायया च वीर्याधानं चकार ह ॥ १२ ॥
अनन्तर शंखचूड का रूप धारण कर विष्णु ने तुलसी के पास जाकर माया से उसमें वीर्याधान किया ॥ १२ ॥

अथ शभुर्हरेः शूलं दानवार्थं समग्रहीत् ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डशतकप्रभमुज्ज्वलम् ॥ १३ ॥
उसी समय शिव ने दानवराज के वधार्थ विष्णु का शूल हाथ में उठा लिया । वह शूल ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सैकड़ों सूर्य की प्रभा से समुज्ज्वल था ॥ १३ ॥

नारायणाधिष्ठिताग्रं ब्रह्माधिष्ठितमध्यमम् ।
शिवाधिष्ठितमूलं च कालाधिष्ठितधारकम् ॥ १४ ॥
उसके अग्रभाग में नारायण, मध्य में ब्रह्मा और मूल भाग में शिव एवं उसकी धार में काल अधिष्ठित थे ॥ १४ ॥

किरणावलिसंयुक्तं प्रलयाग्निशिखोपमम् ।
दुर्निवार्यं च दुर्धर्षमव्यर्थं वैरिघातकम् ॥ १५ ॥
प्रलयाग्नि शिखा की भांति उसको किरणावलियाँ (प्रकाशपुञ्ज) थीं और वह (शूल) दुनिवार्य, दुद्धर्ष, अव्यर्थ तथा वैरी के लिए घातक था ॥ १५ ॥

तेजसा चक्रतुल्यं च सर्वशस्त्रविघातकम् ।
शिवकेशवयोरन्यद्‌दुर्वह च भयंकरम् ॥ १६ ॥
सुदर्शन चक्र की भांति तेजस्वी, समस्त शस्त्रों का भेदक और शिव-केशव को छोड़कर दूसरों के लिए वह दुर्वह एवं भयंकर था ॥ १६ ॥

धनुःसहस्रं दैर्घ्येण विस्तृत्या शतहस्तकम् ।
सजीवं ब्रह्मरूपं च नित्यरूपमनिर्मितम् ॥ १७ ॥
वह सहस्र धनुषों के बराबर लंबा और सौ हाथ चौड़ा था । वह साक्षात् सजीद ब्रह्म ही था । उसके रूप में कभी परिवर्तन नहीं होता था और वह किसी का बनाया हुआ नहीं था ॥ १७ ॥

संहर्तुं सर्वविध्यण्डमेकदा दैवलीलया ।
चिक्षेप घूर्णनं कृत्वा शङ्खचूडे च नारद ॥ १८ ॥
राजा चापं परित्यज्य श्रीकृष्णचरणाम्बुजम् ।
ध्यानं चकार भक्त्या च कृत्वा योगासनं धिया ॥ १९ ॥
शूलं च भ्रमणं कृत्वा न्यपतद्‌दानवोपरि ।
चकार भस्मसात्तं च सरथं चैव लीलया ॥ २० ॥
नारद ! अखिल ब्रह्मांड का संहार करने की उस त्रिशूल में शक्ति थी । भगवान् शंकर ने लीला से ही उसे उठाकर घुमाया और शंखचूड़ पर फेंक दिया । तब उस बुद्धिमान् राजा ने सारा रहस्य जानकर अपना धनुष घरती पर फेंक दिया और वह बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्ति के साथ अनन्य चित्त से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान करने लगा । अनन्तर वह शूल चक्कर काटकर दानवराज के ऊपर जा गिरा, और उसने लीलापूर्वक रथ समेत राजा को भस्म कर डाला ॥ १८-२० ॥

राजा धृत्वा दिव्यरूपं बालकं गोपवेषकम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्‍नभूषणभूषितम् ॥ २१ ॥
नानारत्‍नसुभूषाढ्यं गोपकोटिभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं यानमारुह्य तत्पुरं ययौ ॥ २२ ॥
पश्चात् राजा ने गोपबालक के वेष में दिव्य रूप धारण कर लिया । उसकी दो भुजायें थीं, हाथ में मुरली शोभा पा रही थी और रत्नमय आभूषणों से वह विभूषित था । करोड़ों गोप उसे घेरे हुए थे । इतने में गोलोक से आये हुए एक विमान पर बैठ कर वह गोलोक को चला गया ॥ २१-२२ ॥

गत्वा ननाम शिरसा राधामाधवयोर्मुने ।
भक्त्या तच्चरणाम्भोजं रासे वृन्दावने मुने ॥ २३ ॥
सुदामानं तौ च दृष्ट्‍वा प्रसन्नवदनेक्षणौ ।
तदा च चक्रतुः क्रोडे स्नेहेन परिसंप्लुतौ ॥ २४ ॥
अथ शूलश्च वेगेन प्रययौ शूलिनः करम् ।
शकरस्तेन शूलेन शूलपाणिर्बभूव सः ॥ २५ ॥
स शिवस्तेन शूलेन दानवस्यास्थिजालकम् ।
प्रेम्णा च प्रेरयामास लवणोदे च सागरे ॥ २६ ॥
मुने ! वहाँ वृन्दावन के रासमंडल में जाकर उसने भक्ति के साथ मस्तक झुकाकर राधा और माधव के चरण-कमल में साष्टांग प्रणाम किया । सुदामा को देखकर उन दोनों के श्रीमुख प्रसन्नता से खिल उठे । उन्होंने स्नेह से आई होकर उसे अपनी गोद में उठा लिया । उधर वह शूल भी वेग से शिव जी के हाथ में पुन: आ गया । शंकरजी ने उसके द्वारा दानवराज के अस्थि-समूह को प्रेमपूर्वक लवण-समुद्र में डाल दिया । शंखचूड की उन अस्थियों से शंख-जाति उत्पन्न हुई ॥ २३-२६ ॥

अस्थिभिः शङ्खचूडस्य शङ्खजातिर्बभूव ह ।
नानाप्रकाररूपा च श्रेष्ठा पूता सुरार्चने ॥ २७ ॥
वही शंख अनेक प्रकार के रूपों में विराजमान होकर देवपूजन में पवित्र माना जाता है, शंख का जल भी प्रशस्त एवं देवों को अति प्रीतिप्रद होता है ॥ २७ ॥

प्रशस्तं शङ्खतोयं च देवानां प्रीतिदं परम् ।
तीर्थतोयस्वरूपं च पवित्रं शंकरं विना ॥ २८ ॥
वह जल एक शिव को छोड़कर और सभी के लिए तीर्थजल के समान पवित्र होता है । शंख की ध्वनि जहाँ होती है वहाँ लक्ष्मी सुस्थिर रहती हैं ॥ २८ ॥

शङ्खशब्दो भवेद्यत्र तत्र लक्ष्मीश्च सुस्थिरा ।
सुस्नातः सर्वतीर्थेषु यः स्नातः शङ्खवारिणा ॥ २९ ॥
जिसने शंख के जल से स्नान कर लिया, वह मानों समस्त तीर्थों में स्नान कर चुका । शंख ही भगवान् विष्णु का अधिष्ठान है, अतः जहाँ शंख रहता है वहाँ भगवान् विष्णु रहते हैं ॥ २९ ॥

शङ्खो हरेरधिष्ठानं यत्र शंखस्ततो हरिः ।
तत्रैव सततं लक्ष्मीर्दूरीभूतममङ्गलम् ॥ ३० ॥
स्त्रीणां च शङ्खध्वनिभिः शूद्राणां च विशेषतः ।
भीता रुष्टा याति लक्ष्मीः स्थलमन्यत्स्थलात्ततः ॥ ३१ ॥
वहीं निरन्तर लक्ष्मी भी निवास करती हैं, अमंगल दूर से ही माग जाता है । किन्तु स्त्रियों की तथा विशेषतया शूद्रों की शंखध्वनि सुनकर लक्ष्मी रुष्ट और भयभीत होकर उस स्थान से दूसरे स्थान में चली जाती है ॥ ३०-३१ ॥

शिवश्च दानवं हत्वा शिवलोकं जगाम सः ।
प्रहृष्टो वृषमारुह्य स्वगणैश्च समावृतः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार दानवराज के वध करने के अनन्तर शिव जी अत्यन्त हर्षित होकर अपने गणों समेत बैलपर बैठकर अपने लोक को पधार गये ॥ ३२ ॥

सुराः स्वविषयं प्रापुः परमानन्दसंयुताः ।
नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे जगुर्गन्धर्वकिन्नराः ॥ ३३ ॥
देवगण अपना राज्य पाकर परमानन्द मग्न हो गए । स्वर्ग में देव-दुन्दुभियाँ बज उठीं । गन्धर्व-किन्नर गान करने लगे ॥ ३३ ॥

बभूव पुष्पवृष्टिश्च शिवस्योपरि संततम् ।
प्रशशंसुः सुरास्तं च मुनीन्द्रप्रवरादयः ॥ ३४ ॥
भगवान् शिव के ऊपर निरन्तर पुष्प की वर्षा होने लगी । और देवगण तथा मुनीन्द्रगण शंकरजी की प्रशंसा करने लगे ॥ ३४ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने शखङ्चूडवधे
शङ्खप्रस्तावो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृति-खण्ड में तुलसी-उपाख्यान के प्रसंग में शंख-प्रस्ताव नामक बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २० ॥

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