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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रयोविंशोऽध्यायः


सावित्र्युपाख्याने सावित्रीस्तोत्रकथनम् -
सावित्री देवी की पूजा-स्तुति का विधान -


नारद उवाच
तुलस्युपाख्यानमिदं श्रुतमीश सुधोपमम् ।
यत्तु सावित्र्युपाख्यानं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
नारद बोले-प्रभो ! तुलसी का यह सुधा-मधुर उपाख्यान तो मैंने आपके द्वारा सुन लिया । अब बाप सावित्री का उपाख्यान सुनाने की कृपा करें ॥ १ ॥

पुरा येन समुद्‌भूता सा श्रुता च श्रुतिप्रसूः ।
केन वा पूजिता देवी प्रथमे कैश्च वाऽपरे ॥ २ ॥
देवी सावित्री वेदों की जननी हैं, ऐसा सुना गया है । ये देवी सर्वप्रथम किससे प्रकट हुईं ? सबसे पहले इनकी किसने पूजा की और बाद में किन लोगों ने ? ॥ २ ॥

श्रीनारायण उवाच
ब्रह्मणा वेदजननी पूजिता प्रथमे मुने ।
द्वितीये च देवगणैस्तत्पश्चाद्विदुषां गणैः ॥ ३ ॥
नारायण बोले-मुने ! सर्वप्रथम ब्रह्मा ने उस वेदमाता की पूजा की, अनन्तर देवों ने और उनके पश्चात् विद्वज्जनों ने उनकी पूजा की ॥ ३ ॥

तथा चाश्वपतिः पूर्वं पूजयामास भारते ।
तत्पश्चात्पूजयामासुर्वर्णाश्चत्वार एव च ॥ ४ ॥
भारतवर्ष में सर्वप्रथम राजा अश्वपति ने उनकी पूजा की । उनके उपरान्त (ब्राह्मणादि) चारों वर्ण उनकी आराधना में संलग्न हो गए ॥ ४ ॥

नारद उवाच
को वा सोऽश्वपतिर्ब्रह्मन्केन वा तेन पूजिता ।
सर्वपूज्या च सावित्री तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ५ ॥
नारद बोले-ब्रह्मन् ! वह अश्वपति कौन है ? और कैसे उसने सर्वपूज्या सावित्री की प्रथम पूजा की ? मुझे बताने की कृपा करें ॥ ५ ॥

श्रीनारायण उवाच
मद्रदेशे महाराजो बभूवाश्वपतिर्मुने ।
वैरिणां बलहर्ता च मित्राणां दुःखनाशनः ॥ ६ ॥
नारायण बोले-मुने ! महाराज अश्वपति मद्रदेश के अधीश्वर थे । वैरियों के बल के एवं मित्रों के दुःख के नाशक थे ॥ ६ ॥

आसीत्तस्य महाराज्ञी महिषी धर्मचारिणी ।
मालतीति च साऽऽख्याता यथा लक्ष्मीर्गदाभृतः ॥ ७ ॥
उनकी धर्मशीला महारानी का नाम मालती था । वह महाराज के साथ उसी तरह शोभा पाती थी जैसे विष्णु के साथ लक्ष्मी ॥ ७ ॥

सा च राज्ञी महासाध्वी वसिष्ठस्योपदेशतः ।
चकाराऽऽराधनं भक्त्या सावित्र्याश्चैव नारद ॥ ८ ॥
नारद ! उस महासती रानी ने वसिष्ठ जी के उपदेश से भक्तिपूर्वक सावित्री की आराधना की ॥ ८ ॥

प्रत्यादेशं न सा प्राप महिषी न ददर्श ताम् ।
गृहं जगाम सा दुःखाद्धृदयेन विदूयता ॥ ९ ॥
किन्तु उस महारानी को देवी की ओर से न तो प्रत्यादेश मिला और न देवी ने साक्षात् दर्शन ही दिये । अत: हार्दिक दुःख प्रकट करती हुई वह अपने घर चली गयी ॥ ९ ॥

राजा तां दुःखितां दृष्ट्‍वा बोधयित्वा नयेन वै ।
साविभ्यास्तपसे भक्त्या जगामपुष्करं तदा ॥ १० ॥
राजा ने उसे दुःखी देखकर नीति द्वारा समझाया और स्वयं उसी सावित्री की भक्तिपूर्वक तपस्या करने के लिए पुष्कर चला गया ॥ १० ॥

तपश्चचार तत्रैव संयतः शतवत्सरम् ।
न ददर्श च सावित्रीं प्रत्यादेशो बभूव ह ॥ ११ ॥
वहाँ पहुँचकर उसने संयत होकर सौ वर्षों तक तप किया, उससे उसे सावित्री का दर्शन तो नहीं हुआ, किन्तु आदेश प्राप्त हो गया ॥ ११ ॥

शुश्रावाऽऽकाशवाणीं च नृपेन्द्रश्चाशरीरिणीम् ।
गायत्रीदशलक्षं च जपं कुर्विति नारद ॥ १२ ॥
नारद ! उस समय राजा ने आकाशवाणी सुनी कि-'गायत्री का दस लाख जप करो । ' ॥ १२ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र प्राजगाम पराशरः ।
प्रणनाम नृपस्तं च मुनिर्नृपमुवाच ह ॥ १३ ॥
उसी बीच वहाँ पराशर मुनि आ गये । राजा ने उन्हें प्रणाम किया । अनंतर महर्षि ने राजा से कहा ॥ १३ ॥

पराशर उवाच
सकृज्जपश्च गायत्र्याः पापं दिनकृतं हरेत् ।
दशधा प्रजपो नृणां दिवारात्र्यघमेव च ॥ १४ ॥
- पराशर बोले-गायत्री का एक बार जप करने से दिनभर का पाप नष्ट होता है, और दश बार जप करने से मनुष्यों के दिनरात्रि के पाप नष्ट होते हैं ॥ १४ ॥

शतधा च जपाच्चैव पापं मासार्जितं परम् ।
सहस्रधा जपाच्चैवं कल्मषं वत्सरार्जितम् ॥ १५ ॥
सौ बार जप करने से एक मास का पाप और सहस्र बार जप करने से एक वर्ष का पाप विनष्ट होता है ॥ १५ ॥

लक्षं जन्मकृतं पापं दशलक्षं त्रिजन्मनः ।
सर्वजन्मकृतं पापं शतलक्षे विनश्यति ॥ १६ ॥
एक लाख जप करने से जन्मभर का पाप और दस लाख जप करने से तीन जन्मों के पाप नष्ट होते हैं । उसी प्रकार सौ लाख (१ करोड़) जप करने से सभी जन्मों के पाप नष्ट होते हैं ॥ १६ ॥

करोति मुक्तिं विप्राणां जपो दशगुणस्ततः ।
करं सर्पफणाकारं कृत्वा तद्‌रन्ध्रमुद्रितम् ॥ १७ ॥
मानममूर्धमचलं प्रजपेत्प्राङ्मुखो द्विजः ।
अनामिकामध्यदेशादधो वामक्रमेण च ॥ १८ ॥
तर्जनीमूऽलपर्यन्तं जपस्यैष क्रमः करे ।
श्वेतपङ्‌कजबीजानां स्फाटिकानां च संस्कृताम् ॥ १९ ॥
कृत्वा वा मालिकां राजञ्जपेत्तीर्थं सुरालये ।
संस्थाप्य मालामश्वत्थपत्रसप्तसु संयतः ॥ २० ॥
कृत्वा गोरोचनाक्तां च गायत्र्या स्नापयेत्सुधीः ।
गायत्रीशतकं तस्यां जपेच्च विधिपूर्वकम् ॥ २१ ॥
और उससे दस गुने जप करने से ब्राह्मणों को मुक्ति प्राप्त होती है । द्विज को चाहिए कि वह पूर्वाभिमुख होकर बैठे । हाथ को सर्प के फण के समान कर ले । वह हाथ ऊर्ध्वमुख हो और ऊपर की ओर से कुछ-कुछ मुद्रित (मुंदा सा) रहे । उसे किंचित् झुकाये हुए स्थिर रखे । अनामिका के बिचले पर्व से आरंभ करके नीचे और बायें होते हुए तर्जनी के मूल भाग तक अंगूठे से स्पर्शपूर्वक जप करे । हाथ में जप करने का यही क्रम है । राजन् ! श्वेत कमल के बीज या स्फटिक की संस्कारयुक्त माला बनाकर तीर्थ या देवालय में जप करे । उसके पूर्व पीपल के सात पत्तों पर माला को संयतभाव से रखकर उसे गोरोचन से अनुलिप्त करे । फिर गायत्री के उच्चारणपूर्वक विद्वान् माला को स्नान कराये । अनंतर विधिपूर्वक उस पर गायत्री का सौ बार जप करे ॥ १७-२१ ॥

अथवा पञ्चगव्येन स्नाता माला च संस्कृता ।
अथ गङ्‌गोदकेनैव स्नाता वाऽतिसुसंस्कृता ॥ २२ ॥
अथवा पञ्चगव्य द्वारा गंगाजल से स्नान करा देने पर भी माला का संस्कार हो जाता है ॥ २२ ॥

एवंक्रमेण राजर्षे दशलक्षं जपं कुरु ।
साक्षाद्‌द्रक्ष्यसि सावित्रीं त्रिजन्मपातकक्षयात् ॥ २३ ॥
राजर्षे ! इस क्रम से गायत्री का दस लाख जप करने से तीनों जन्मों के पातक विनष्ट हो जायेंगे जिससे तुम्हें सावित्री का साक्षात् दर्शन प्राप्त होगा ॥ २३ ॥

नित्यं नित्यं त्रिसंध्यं च करिष्यसि दिने दिने ।
मध्याह्ने चापि सायाह्ने प्रातरेव शुचिः सदा ॥ २४ ॥
इस प्रकार प्रतिदिन नित्य तीनों-प्रातः मध्याह्न और सायं-संध्याओं में पवित्र होकर सदैव जप करना चाहिए ॥ २४ ॥

संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु ।
यदह्ना कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥ २५ ॥
क्योंकि संध्या (कर्म) रहित पुरुष अपवित्र होता है, इसीलिए सभी कर्मों में वह अयोग्य कहा जाता है । और दिन में वह जो कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं होता है ॥ २५ ॥

नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् ।
स शूद्रवद्‌बहिष्कार्यः सर्वस्माद्‌द्विजकर्मणः ॥ २६ ॥
जो ब्राह्मण प्रातःकाल और सार्यकाल में संध्योपासन नहीं करता है, वह समस्त ब्राह्मणोचित कर्मों से बहिष्कृत कर देने योग्य है ॥ २६ ॥

यावज्जीवनपर्यन्तं यस्त्रिसंध्यं करोति च ।
स च सूर्यसमो विप्रस्तेजसा तपसा सदा ॥ २७ ॥
जीवनपर्यन्त त्रिकाल संध्या करने वाले द्विज में तप के प्रभाव से सूर्य के समान तेजस्विता आ जाती है ॥ २७ ॥

तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।
जीवन्मुक्तः स तेजस्वी संध्यापूतो हि यो द्विजः ॥ २८ ॥
ऐसे विज के चरणकमल के रज से यह पृथ्वी सद्य: पवित्र हो जाती है । संध्या से पवित्र होनेवाला ब्राह्मण तेजस्वी और जीवन्मुक्त होता है ॥ २८ ॥

तीर्थानि च पवित्राणि तस्य स्पर्शनमात्रतः ।
ततः पापानि यान्त्येव वैनतेयादिवोरगाः ॥ २९ ॥
उसके स्पर्शमात्र से तीर्थ पवित्र हो जाते हैं । उसके समस्त पाप उसी तरह भाग खड़े होते हैं जैसे गरुड़ के भय से साँप ॥ २९ ॥

न गृह्णन्ति सुराः पूजां पितरः पिण्डतर्पणम् ।
स्वेच्छया चरतश्चैव त्रिसंध्यरहितस्य च ॥ ३० ॥
तीनों संध्याओं से रहित तथा मनमाना आचरण करने वाले द्विज की पूजा देवगण स्वीकार नहीं करते हैं और पितर लोग उसके द्वारा किये गये पिण्ड और तर्पण नहीं स्वीकारते हैं । ॥ ३० ॥

विष्णुमन्त्रविहीनश्च त्रिसंध्यरहितो द्विजः ।
एकादशीविहीनश्च विषहीनो यथोरगः ॥ ३१ ॥
भगवान् विष्णु के मन्त्र (दीक्षा) से हीन, तीनों संध्याओं से रहित और एकादशी व्रत न करने वाला ब्राह्मण विषहीन सर्प की भाँति होता है ॥ ३१ ॥

हरेरनैवेद्यभोजी धावको वृषवाहकः ।
शूद्रान्नभोजी विप्रश्च विषहीनो यथोरगः ॥ ३२ ॥
भगवान् विष्णु को बिना समर्पण किए भोजन करनेवाला, धावक (हरकारा), बैल की सवारी करने वाला और शूद्रों का अन्न खाने वाला ब्राह्मण विषहीन सर्प की भाँति होता है ॥ ३२ ॥

शवदाही च शूद्राणां यो विप्रो वृषलीपतिः ।
शूद्राणां सूपकारश्च विषहीनो यथोरगः ॥ ३३ ॥
शूद्रों के शवों को जलाने वाला, शूद्र जाति की स्त्री का पति और शूद्रों का भोजन बनाने वाला ब्राह्मण विषहीन सर्प की भांति होता है ॥ ३३ ॥

शूद्राणां च प्रतिग्राही शूद्रयाजी च यो द्विजः ।
असिजीवी मषीजिवी विषहीनो यथोरगः ॥ ३४ ॥
शूद्रों से दान लेने वाला, उनके यहाँ यज्ञ कराने वाला, असि (तलवार ) से जीविका चलाने वाला और पटवारी का काम करने वाला ब्राह्मण विषहीन साँप के समान होता है । ॥ ३४ ॥

यो विप्रोऽवीरान्नभोजी ऋतुस्नातान्नभोजकः ।
भगजीवी वार्धुषिको विषहीनो यथोरगः ॥ ३५ ॥
पतिपुत्रहीन विधवा स्त्री का अन्न खानेवाला, ऋतुस्नाता स्त्री का अन्न खानेवाला, स्त्री को व्यभिचारिणी बनाकर जीविका चलाने वाला एवं सूदखोर ब्राह्मण विषहीन सांप के समान होता है ॥ ३५ ॥

यः कन्याविक्रयी विप्रो यो हरेर्नामविक्रयी ।
यो विद्याविक्रयी भूप विषहीनो यथोरगः ॥ ३६ ॥
राजन् ! कन्याविक्रय, भगवान् के नाम का विक्रय बोर विद्याविक्रय करने वाला ब्राह्मण विषहीन साँप के समान होता है ॥ ३६ ॥

सूर्योदये योऽन्नभोजी मत्स्यभोजी च यो द्विजः ।
शिलापूजादिरहितो विषहीनो यथोरगः ॥ ३७ ॥
सूर्य के उदय-काल में भोजन करने पासा, मछली खाने वाला और (शालग्राम) शिला की पूजा आदि से रहित ब्राह्मण विषहीन सांप के समान होता है ॥ ३७ ॥

इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठः सर्वं पूजाविधिक्रमम् ।
तमुवाच च सावित्र्या ध्यानादिकमभीप्सितम् ॥ ३८ ॥
इतना कहकर मुनिश्रेष्ठ ने उन्हें समस्त पूजाविधान का क्रम और सावित्री के अभीष्ट ध्यान आदि बता दिये ॥ ३८ ॥

दत्त्वा सर्वं नृपेन्द्राय प्रययौ स्वालयं मुनिः ।
राजा संपूज्य सावित्रीं ददर्श वरमाप च ॥ ३९ ॥
इस भांति मुनि ने राजेन्द्र को सब कुछ देकर अपने घर की यात्रा की और अनन्तर राजा ने भी सावित्री की पूजा करके उनका दर्शन और वरदान प्राप्त किया ॥ ३९ ॥

नारद उवाच
किंवा ध्यानं च सावित्र्याः किंवा पूजाविधानकम् ।
स्तोत्रं मन्त्रं च किं दत्त्वा प्रययौ स पराशरः ॥ ४० ॥
नारद बोले-सावित्री का वह कौन ध्यान, कौन पूजाविधान और कौन स्तोत्र और कौन मंत्र हैं जिन्हें देकर पराशर चले गये ॥ ४० ॥

नृपः केन विधानेन संपूज्य श्रुतिमातरम् ।
वरं च किंवा संप्राप वद सोऽश्वपतिर्नृपः ॥ ४१ ॥
राजा अश्वपति ने किस विधान से वेदमाता (सावित्री की) पूजा की और उसने कौनसा वरदान प्राप्त किया ? बताने की कृपा करें ॥ ४१ ॥

श्रीनारायण उवाच
ज्येष्ठे शुक्लत्रयोदश्यां शुद्धे काले च संयतः ।
व्रतमेतच्चतुर्दश्यां व्रती भक्त्या समाचरेत् ॥ ४२ ॥
नारायण बोले ज्येष्ठ मास की कृष्ण त्रयोदशी तथा चतुर्दशी के दिन व्रत करके भक्तिपूर्वक व्रती को शुद्ध समय में भक्ति के साथ सावित्री की पूजा करनी चाहिए ॥ ४२ ॥

व्रतं चतुर्दशाब्दं च द्विसस्तफलसंयुतम् ।
दत्त्वा द्विसप्तनैवेद्यं पुष्पधूपादिकं तथा ॥ ४३ ॥
वस्त्रं यज्ञोपवीतं च भोज्यं च विधिपूर्वकम् ।
संस्थाप्य मङ्‌गलघटं फलशाखासमन्वितम् ॥ ४४ ॥
गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् ।
संपूज्य पूजयेदिष्टं घट आवाहिते मुने ॥ ४५ ॥
शृणु ध्यानं च सावित्र्याश्चोक्तं माध्यंदिने च यत् ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च मन्त्रं च सर्वकामदम् ॥ ४६ ॥
चौदह वर्ष तक इस व्रत का पालन करते हुए चौदह फल, चौदह नैवेद्य, पुष्प, धूपादि, वस्त्र, यज्ञोपवीत और भोज्य वस्तु समर्पित करना चाहिए । अनन्तर फल, पल्लवयुत मंगलकलश की स्थापना करके गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती की पूजा करे । उस कलश पर अपनी इष्टदेवी की आवाहनपूर्वक अर्चना करे । हे मुने ! यजुर्वेद की माध्यन्दिनी शाखा के अनुसार सावित्री का ध्यान, स्तोत्र, पूजाविधान और समस्त कामनाओं को सफल करने वाला मंत्र बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ ४३-४६ ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभां ज्वलन्तीं ब्रह्मतेजसा ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डसहस्रसमसुप्रभाम् ॥ ४७ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां भक्तानुग्रहकारिकाम् ॥ ४८ ॥
सुखदां मुक्तिदां शान्तां कान्तां च जगतां विधेः ।
सर्वसंपत्स्वरूपां च प्रदात्रीं सर्वसंपदाम् ॥ ४९ ॥
वेदाधिष्ठातृदेवीं च वेदशास्त्रस्वरूपिणीम् ।
वेदे बीजस्वरूपां च भजे त्वां वेदमातरम् ॥ ५० ॥
वह देवी तपाये हुए सुवर्ण की भाँति कान्ति वाली, ब्रह्मतेज से उद्दीप्त, ग्रीष्मकालीन मध्याह्न के सहस्रों सूर्य के समान अतिप्रमापूर्ण, मन्द मुसकान समेत प्रसन्न मुख, रत्नों के आभूषणों से भूषित, अग्निविशुद्ध वस्त्र धारण किये हुई, भक्त के ऊपर अनुग्रह करने के लिए कातर रहने वाली, सुख देने वाली, मुक्ति देने वाली, शान्त और जगत्रचयिता की कान्ता हैं । वे समस्त सम्पत्तिरूपा, समस्तसम्पत्तिदायिनी, वेदों की अधिष्ठात्री देवी, वेदशास्त्रस्वरूपिणी एवं वेदों में बीजस्वरूप से रहने वाली हैं । उन वेदमाता की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ ४७-५० ॥

ध्यात्वा ध्यानेन चानेन दत्त्वा पुष्पं स्वमूर्धनि ।
पुनर्ध्यात्वा घटे भक्त्या देवीमावाहयेद्‌व्रती ॥ ५१ ॥
इस प्रकार ध्यान करते हुए प्रती अपने शिर पर पुष्प रखकर पुनः ध्यान करे और उस कलश में भक्तिपूर्वक देवी का आवाहन करे ॥ ५१ ॥

दत्त्वा षोडशोपचारं वेदोक्तमन्त्रपूर्वकम् ।
संपूज्य स्तुत्वा प्रणमेदेवं देवीं विधानतः ॥ ५२ ॥
पश्चात् वेदानुसार मंत्रों के उच्चारणपूर्वक सविधान षोडशोपचार द्वारा देवी की अर्चना और स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे ॥ ५२ ॥

आसनं पाद्यमर्घ्यं च स्नानीयं चानुलेपनम् ।
धूपं दीपं च नैवेद्यं ताम्बूलं शीतलं जलम् ॥ ५३ ॥
वसनं भूषणं माल्यं गन्धमाचमनीयकम् ।
मनोहरं सुतल्पं च देयान्येतानि षोडश ॥ ५४ ॥
आसन, पाद्य, अर्घ्य और स्नान का जल, लेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, भूषण, माला, चन्दन, आचमन, और अति मनोहर शय्या-ये देने योग्य सोलह उपचार हैं ॥ ५३-५४ ॥

दारुसारविकारं च हेमादिनिर्मितं च वा ।
देवाधारं पुण्यदं च मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५५ ॥
निम्नलिखित मंत्रों से सोलहों वस्तुओं को अर्पित करना चाहिए-काष्ठ के सारतत्त्व से बना हुआ अथवा सुवर्ण आदि धातुओं का बना आसन, जो देव के बैठने योग्य एवं पुण्यप्रद है, मैं सदा के लिए समर्पित कर रहा हूँ ॥ ५५ ॥

तीर्थोदकं च पाद्यं च पुण्यदं प्रीतिदं महत् ।
पूजाङ्‌गभूतं शुद्धं च मया भक्त्या निवेदितम् ॥ ५६ ॥
तीर्थ जल को पाद्य (पादप्रक्षालन जल) के रूप में मैं भक्तिपूर्वक समर्पित कर रहा हूँ, जो पुण्यप्रद, महान् प्रीतिप्रद, पूजा का अंगभूत एवं शुद्ध है ॥ ५६ ॥

पवित्ररूपमर्घ्यं च दूर्वापुष्पाक्षतान्वितम् ।
पुण्यदं शङ्खतोयाक्तं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५७ ॥
इस पवित्र अर्घ्य को, जो दूर्वा, पुष्प, अक्षत से युक्त, पुण्यप्रद और शंख-जल से मिश्रित है, आपको अर्पित कर रहा हूँ । ॥ ५७ ॥

सुगन्धि धात्रीतैलं च देहसौन्दर्यकारणम् ।
मया निवेदितं भक्त्या स्नानीयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ५८ ॥
सुगन्धित तथा देह-सौन्दर्यकारी उस आंवले के तेल को मैं भक्तिपूर्वक स्नान के हेतु आपको अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ५८ ॥

मलयाचलसंभूतं देहशोभाविवर्धनम् ।
सुगन्धयुक्त सुखदं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५९ ॥
मलयाचल में उत्पन्न, देह की शोभा को बढ़ाने वाला, सुखद एवं सुगन्धियुक्त चन्दन मैं आपको अर्पित कर रहा हूँ ॥ ५९ ॥

गन्धद्रव्योद्‌भवः पुण्यः प्रीतिदो दिव्यगन्धदः ।
मया निवेदितो भक्त्या धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६० ॥
गन्धद्रव्यों से बना हुआ, पुण्यस्वरूप, प्रीति तथा दिव्य गन्ध प्रकट करने वाला भक्तिपूर्वक आपको अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६० ॥

जगतां दर्शनीयं च दर्शनं दीप्तिकारणम् ।
अन्धकारध्वंसबीजं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ६१ ॥
जगत् के लिए दर्शनीय, दृष्टि का सहायक, प्रकाश का कारण तथा अन्धकार-नाश का मूल कारण दीप मैं आपको अर्पित कर रहा हूँ ॥ ६१ ॥

तुष्टिदं पुष्टिदं चैव प्रीतिदं क्षुद्विनाशनम् ।
पुण्यदं स्वादुरूपं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६२ ॥
तुष्टि, पुष्टि, एवं प्रीति प्रदान करनेवाला क्षुधाविनाशक, पुण्यप्रद तथा स्वादिष्ठ नैवेद्य अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६२ ॥

ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् ।
तुष्टिदं पुष्टिदं चैव मया भक्तया निवेदितम् ॥ ६३ ॥
परमोत्तम, रमणीक, कर्पूरादि से सुवासित तथा तुष्टि-पुष्टि-दायक ताम्बूल भक्तिपूर्वक अर्पित कर रहा हूँ ॥ ६३ ॥

सुशीतलं वासितं च पिपासानाशकारणम् ।
जगतां जीवरूपं च जीवनं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६४ ॥
अत्यन्त शीतल, सुगन्धित, पिपासा-नाशक और जगत् का प्राणरूप (जल) अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६४ ॥

देहशोभास्वरूपं च सभाशोभाविवर्धनम् ।
कार्पासजं च कृमिजं वसनं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६५ ॥
देह की शोभा का स्वरूप, सभा में शरीर की शोभा का वर्द्धक, सूती और रेशमी वस्त्र अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करें ॥ ६५ ॥

काञ्चनादिभिराबद्धं श्रीयुक्तं श्रीकरं सदा ।
सुखदं पुण्यदं चैव भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६६ ॥
सुवर्ण आदि धातुओं का बना हुआ, शोभासम्पन्न, शोभाकारक, दा सुखद और पुण्यप्रद भूषण अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६६ ॥

नानापुष्पलताकीर्णं बहुभासा समन्वितम् ।
प्रीतिदं पुण्यदं चैव माल्यं वै प्रतिगृह्यताम् ॥ ६७ ॥
अनेक पुष्पलताओं से विभू-स षित, अत्यन्त प्रकाशपूर्ण, प्रीतिदायक और पुण्यप्रद माला स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६७ ॥

सर्वमङ्‌गलरूपश्च सर्वमङ्‌गलदो वरः ।
पुण्यप्रदश्च गन्धाढ्यो गन्धश्च प्रतिगृह्यताम् ॥ ६८ ॥
समस्त मंगल स्वरूप, समस्त मंगलों का प्रदाता, श्रेष्ठ, पुण्यप्रद एवं सुगन्धित गन्ध अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करें ॥ ६८ ॥

शुद्धं शुद्धिप्रदं चैव पुण्यदं प्रीतिदं महत् ।
रम्यमाचनीयं च मया दत्तं प्रगृह्यताम् ॥ ६९ ॥
शुद्ध, शुद्धिदाता, शुद्ध रहनेवालों के लिए महान् प्रीतिप्रद और स्वच्छ आचमनीय जल मैं समर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ६९ ॥

रत्‍नसारादिनिर्माणं पुष्पचन्दनसंयुतम् ।
सुखदं पुण्यदं चैव सुतल्पं प्रतिगृह्यताम् ॥ ७० ॥
रत्न-सार आदि की बनी हुई, पुष्प चन्दन-युत, सुखद और पुण्यप्रद इस सुन्दर शय्या को अर्पित कर रहा हूँ, स्वीकार करें ॥ ७० ॥

नानावृक्षसमुद्‌भूतं नानारूपसमन्वितम् ।
फलस्वरूपं फलदं फलं च प्रतिगृह्यताम् ॥ ७१ ॥
अनेक वृक्षों से उत्पन्न, अनेक रूपवाले, फल (भोग) स्वरूप एवं फलप्रद यह फल स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ७१ ॥

सिन्दूरं च वरं रम्यं भालशोभाविवर्धनम् ।
भूषणं भूषणानां च सिन्दुरं प्रतिगृह्यताम् ॥ ७२ ॥
श्रेष्ठ, रम्य, भाल की शोभा का वर्द्धक, भूषणों का पूरक यह सिन्दूर ग्रहण करने की कृपा करें ॥ ७२ ॥

विशुद्धग्रन्थिसंयुक्तं पुण्यसूत्रविनिर्मितम् ।
पवित्रं वेदमन्त्रेण यज्ञसूत्रं च गृह्यताम् ॥ ७३ ॥
अति शुद्ध ग्रन्थियों (गांठों) से युक्त, पुण्यसूत्र से रचित, और वेदमन्त्र द्वारा पवित्र किया हुमा यह यज्ञोपवीत आप स्वीकार करने की कृपा करें ॥ ७३ ॥

द्रव्याण्येतानि मूलेन दत्त्वा स्तोत्रं पठेत्सुधीः ।
ततः प्रणम्य विप्राय व्रती दद्याच्च दक्षिणाम् ॥ ७४ ॥
इस प्रकार मूलमन्त्र द्वारा इन वस्तुओं को अर्पित कर विद्वान् व्रती स्तोत्र का पाठ करे और अनन्तर प्रणाम करके ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करे ॥ ७४ ॥

सावित्रीति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ।
लक्ष्मीमायाकामपूर्वं मन्त्रमष्टाक्षरं विदुः ॥ ७५ ॥
श्रीं ह्रीं क्लीं सावित्र्यै स्वाहा ।
लक्ष्मी, माया और काम में क्रमशः 'श्रीं ह्रीं क्लीं' बीज समेत सावित्री शब्द के चतुर्थ्यन्त पद (सावित्र्य) के अन्त में अग्निस्त्री (स्वाहा) शब्द रख देने से 'श्रीं ह्रीं क्लीं सावित्र्यै स्वाहा' मंत्र बनता है । सावित्री के इसी अष्ठाक्षर मन्त्र को विद्वानों ने मूलमंत्र कहा है ॥ ७५ ॥

माध्यंदिनोक्तं स्तोत्रं च सर्ववाञ्छाफलप्रदम् ।
विप्रजीवनरूपं च निबोध कथयामि ते ॥ ७६ ॥
अब माध्यन्दिनी शाखा के अनुसार सावित्री का सकलकामनादायक एवं ब्राह्मणों के लिए जीवनस्वरूप स्तोत्र बता रहा हूँ, सुनो ॥ ७६ ॥

कृष्णेन दत्ता सावित्री गोलोके ब्रह्मणे पुरा ।
न याति सा तेन सार्धं ब्रह्मलोकं तु नारद ॥ ७७ ॥
नारद ! भगवान् श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम गोलोक में ब्रह्मा को सावित्री प्रदान की थी किन्तु उसने उनके साथ ब्रह्मलोक जाना स्वीकार नहीं किया ॥ ७७ ॥

ब्रह्मा कृष्णाज्ञया भक्त्या पर्यष्टौद्‌वेदमातरम् ।
तदा सा परितुष्टा च ब्रह्माणं चकमे सती ॥ ७८ ॥
पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से ब्रह्मा ने जब भक्तिपूर्वक उस वेदमाता की स्तुति की, तब वह सती प्रसन्न होकर ब्रह्मा को चाहने लगी ॥ ७८ ॥

ब्रह्मोवाच
नारायणस्वरूपे च नारायणि सनातनि ।
नारायणात्समुद्‌भूते प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ७९ ॥
ब्रह्मा बोले-हे नारायण स्वरूप वाली, हे नारायणि, हे सनातनि ! तुम नारायण से उत्पन्न हुई हो ! हे सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ ॥ ७९ ॥

तेजः स्वरूपे परमे परमानन्दरूपिणि ।
द्विजातीनां जातिरूपे प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८० ॥
तुम परम तेजः स्वरूप और परमानन्द रूप हो, हे द्विजातियों की जातिस्वरूप सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ ॥ ८० ॥

नित्ये नित्यप्रिये देवि नित्यानन्दस्वरूपिणि ।
सर्वमङ्‌गलरूपेण प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८१ ॥
हे देवि ! तुम नित्या, नित्यप्रिया और नित्यानन्दस्वरूपा हो । समस्त मंगलरूपों से तुम प्रसन्न हो जाओ ॥ ८ ॥

सर्वस्वरूपे विप्राणां मन्त्रसारे परात्परे ।
सुखदे मोक्षदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८२ ॥
हे देवि ! तुम ब्राह्मणों के लिए सर्वस्व, मन्त्रों का साररूप और श्रेष्ठातिश्रेष्ठ हो । हे सुन्दरि ! तुम सुख और मोक्ष प्रदान करती हो । मुझ पर प्रसन्न हो जाओ ॥ ८२ ॥

विप्रपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निशिखोपमे ।
ब्रह्मतेजःप्रदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८३ ॥
हे देवि ! ब्राह्मणों के पापरूपी इंधन को जलाने के लिए तुम जलती हुई अग्निशिखा हो और ब्रह्मतेज प्रदायिनी हो । हे सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ ॥ ८३ ॥

कायेन मनसा वाचा यत्पापं कुरुते द्विजः ।
तत्ते स्मरणमात्रेण भस्मीभूतं भविष्यति ॥ ८४ ॥
ब्राह्मण शरीर, मन एवं वाणी से जो पाप करता है, वह केवल तुम्हारे स्मरणमात्र से भस्म हो जाता है ॥ ८४ ॥

इत्युक्त्वा जगतां धाता तत्र तस्थौ च संसदि ।
सावित्री ब्रह्मणा सार्धं ब्रह्मलोकं जगाम सा ॥ ८५ ॥
जगत् के विधाता ब्रह्मा उस सभा में इस प्रकार कह कर चुप हो गये । अनन्तर सावित्री भी ब्रह्मा के साथ ब्रह्मलोक को चली गयी ॥ ८५ ॥

अनेन स्तवराजेन संस्तूयाश्वपतिर्नृपः ।
ददर्श तां च सावित्रीं वरं प्राप मनोगतम् ॥ ८६ ॥
इसी स्तवराज द्वारा अश्वपति ने सावित्री की स्तुति की । तब उन्हें उनका दर्शन प्राप्त हुआ और मनोनीत बरदान भी मिला ॥ ८६ ॥

स्तवराजमिदं पुण्यं त्रिःसंध्यायां च यः पठेत् ।
पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं तल्लभेद्ध्रुवम् ॥ ८७ ॥
जो तीनों संध्याओं में इस स्तवराज का पाठ करेगा, उसे निश्चित रूप से चारों वेदों के पाठ करने का फल मिलेगा ॥ ८७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने
सावित्रीस्तोत्रकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के सावित्री-उपाख्यान के प्रसंग में सावित्री स्तोत्र कथन नामक तेईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २३ ॥

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