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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुर्विंशोऽध्यायः सावित्र्युपाख्याने सावित्रीयमसंवादे कर्मणः सर्वहेतुत्वप्रदर्शनम् -
राजा अश्वपति द्वारा सावित्री की उपासना आदि - श्रीनारायण उवाच स्तुत्वा सोऽश्वपतिस्तेन संपूज्य विधिपूर्वकम् । ददर्श तत्र तां देवीं सहस्रार्कसमप्रभाम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-राजा अश्वपति ने उसी स्तवराज द्वारा स्तुति और विधिपूर्वक पूजन करके उन देवी का दर्शन किया, जो सहस्रसूर्य के समान प्रभापूर्ण थीं ॥ १ ॥ उवाच सा तं राजानं प्रसन्ना सस्मिता सती । यथा माता स्वपुत्रं च द्योतयन्ती दिशस्त्विषा ॥ २ ॥ साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानों माता अपने पुत्र से बात कर रही हो । उस समय देवी सावित्री की प्रभा से चारों दिशाएं उद्भासित हो रही थीं ॥ २ ॥ सावित्र्युवाच जानामि ते महाराज यत्ते मनसि वर्तते । वाञ्छितं तव पत्न्याश्च सर्वं दास्यामि निश्चितम् ॥ ३ ॥ सावित्री बोली–महाराज तुम्हारे मन की बात मैं जानती हूँ । इसलिए तुम्हारा और तुम्हारी पत्नी का मनोरथ मैं निश्चित रूप से सफल करूँगी ॥ ३ ॥ साध्वी कन्याभिलाषं च करोति तव कामिनी । त्वं प्रार्थयसि पुत्रं च भविष्यति च ते क्रमात् ॥ ४ ॥ तुम्हारी पतिव्रता रानी कन्या की अभिलाषा करती है और तुम पुत्र की कामना कर रहे हो । क्रमशः दोनों बातें पूरी होंगी ॥ ४ ॥ इत्युक्त्वा सा महादेवी ब्रह्मलोकं जगाम ह । राजा जगाम स्वगृहं तत्कन्याऽऽदौ बभूव ह ॥ ५ ॥ इतना कहकर वह महादेवी ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आया । अनन्तर पहले कन्या का जन्म हुआ ॥ ५ ॥ आराधनाच्च सावित्र्या बभूव कमला कला । सावित्रीति च तन्नाम चकाराश्वपतिर्नृपः ॥ ६ ॥ सावित्री की आराधना करने के नाते राजा अश्वपति के यहाँ जिस लक्ष्मी की कला का जन्म हुआ था राजा ने उसका नाम 'सावित्री' रखा ॥ ६ ॥ कालेन सा वर्धमाना बभूव च दिने दिने । रूपयौवनसंपन्ना शुक्ले चन्द्रकला यथा ॥ ७ ॥ शुक्ल पक्ष की चन्द्रकला की भांति वह कन्या दिन-प्रतिदिन समयानुसार बढ़ने लगी और थोड़े ही समय में रूपयौवनसम्पन्न हो गयी ॥ ७ ॥ सा वरं वरयामास द्युमत्सेनात्मजं तदा । सावित्रो सत्यवन्तं च नानागुणसमन्वितम् ॥ ८ ॥ अनन्तर सावित्री ने (पतिरूप में) सत्यवान् का वरण किया, जो द्युमत्सेन का पुत्र, सत्यनिष्ठ एवं अनेक गुणों से सम्पन्न था ॥ ८ ॥ राजा तस्मै ददौ तां च रत्नभूषणभूषिताम् । स च सार्धं कौतुकेन तां गृहीत्वा गृहं ययौ ॥ ९ ॥ राजा ने रत्नों के भूषणों से भूषित करके सावित्री सत्यवान् को समर्पित कर दी और वह भी उसे साथ लेकर अत्यन्त कौतुक से अपने घर चले गये ॥ ९ ॥ स च संवत्सरेऽतीते सत्यवान्सत्यविक्रमः । जगाम फलकाष्ठार्थं प्रहर्षं पितुराज्ञया ॥ १ ० ॥ एक वर्ष के अनन्तर सत्यनिष्ठ सत्यवान् ने पिता की आज्ञा से फल-मूल और ईंधन लाने के लिए हर्ष के साथ वन में प्रस्थान किया ॥ १० ॥ जगाम तत्र सावित्री तत्पश्चाददैवयोगतः । निपत्य वृक्षाद्दैवेन प्राणांस्तत्याज सत्यवान् ॥ ११ ॥ दैवयोग से सावित्री भी उनके पीछे चल पड़ी । उधर दैवयोग से सत्यवान् वृक्ष से गिर पड़ा । उसके प्राण निकल गये ॥ ११ ॥ यमस्तज्जीवपुरुषं बष्वाऽङ्गुष्ठसमं मुने । गृहीत्वा गमनं चक्रे तत्पश्चात्प्रययौ सती ॥ १२ ॥ पश्चात्तां सुन्दरीं दृष्ट्वा यमः संयमिनीपतिः । उवाच मधुरं साध्वीं साधूनां प्रवरो महान् ॥ १३ ॥ मुने ! यमराज ने उसके अंगुष्ठ-सदृश जीवात्मा को सूक्ष्म-शरीर के साथ बाँधकर यमपुरी के लिए प्रस्थान किया । उसके पीछे सती सावित्री भी चलने लगी । साधुप्रवर एवं संयमिनी पुरी के स्वामी यम ने उस सती सुन्दरी को पीछे आते देख कर उससे मधुर वाणी में कहा ॥ १२-१३ ॥ यम उवाच अहो क्य यासि सावित्रि गृहीत्वा मानुषीं तनुम् । यदि यास्यसि कान्तेन सार्धं देहं तदा त्यज ॥ १४ ॥ यम बोले-अहो सावित्री ! तुम इस मानव शरीर से कहाँ जा रही हो ? यदि तुम अपने कान्त के साथ जाना चाहती हो तो अपने शरीर का त्याग कर दो ॥ १४ ॥ गन्तुं मर्त्यो न शक्नोति गृहीत्वा पाञ्चभौतिकम् । देहं च यमलोकं च नश्वरं नश्वरः सदा ॥ १५ ॥ इस पाञ्चभौतिक (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) से बने इस मश्वर शरीर को लेकर कोई मनुष्य यमपुरी नहीं जा सकता है ॥ १५ ॥ पूर्णश्च भर्तुस्ते कालो ह्यभवद्भारतेःसति । स्वकर्मफलभोगार्थं सत्यवान्याति मद्गृहम् ॥ १६ ॥ इस भारत में तुम्हारे पति का समय पूरा हो गया है । अत: कर्मफल भोग करने के लिए सत्यवान् मेरे लोक जा रहा है ॥ १६ ॥ कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते । सुखं दुःखं भयं शोकं कर्मणैव प्रपद्यते ॥ १७ ॥ क्योंकि कर्म से जीव उत्पन्न होता है और कर्म से ही उसकी मृत्यु भी होती है तथा सुख, दुःख, भय और शोक कर्म से ही उसे प्राप्त होते हैं ॥ १७ ॥ कर्मणेन्द्रो भवेज्जीवो ब्रह्मपुत्रः स्वकर्मणा । स्वकर्मणा हरेर्दासो जन्मादिरहितो भवेत् ॥ १८ ॥ कर्म द्वारा ही यह जीव इन्द्र होता है, कर्म से ब्रह्मा का पुत्र होता है, और कर्म द्वारा भगवान का दास बनकर जन्ममरण रहित होता है ॥ १८ ॥ स्वकर्मणा सर्वसिद्धिममरत्वं लभेद्ध्रुवम् । लभेत्स्वकर्मणा विष्णोः सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ १९ ॥ अपने कर्म से ही समस्त सिद्धियाँ, अमरत्व की प्राप्ति होती है एवं कर्म द्वारा भगवान् विष्णु के सालोक्य आदि चारों मोक्ष प्राप्त होते हैं ॥ १९ ॥ कर्मणा ब्राह्मणत्वं च मुक्तत्वं च स्वकर्मणा । सुरत्वं मनुजत्वं च राजेन्द्रत्वं लभेन्नरः ॥ २० ॥ मनुष्य कर्म से ब्राह्मणत्व, मुक्ति, देवत्व, मानवत्व और राजेन्द्रत्व प्राप्त करता है ॥ २० ॥ कर्मणा च मुनीन्द्रत्वं तपस्वित्वं च कर्मणा । कर्मणा क्षत्रियत्वं च वैश्यत्वं च स्वकर्मणा ॥ २१ ॥ कर्मणा चैव शूद्रत्वमन्त्यजत्वं स्वकर्मणा । स्वकर्मणा च म्लेच्छत्वं लभते नात्र संशयः ॥ २२ ॥ कर्म से ही मुनीन्द्रत्व, तपस्वित्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, शूद्रत्व, चाण्डालत्व और म्लेच्छत्व की प्राप्ति होती है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१-२२ ॥ स्वकर्मणा जङ्गमत्वं स्थावरत्वं स्वकर्मणा । स्वकर्मणा च शैलत्वं वृक्षत्वं च स्वकर्मणा ॥ २३ ॥ स्वकर्मणा पशुत्वं च पक्षित्वं च स्वकर्मणा । मनुष्य अपने स्वकर्म से जंगम (चलने-फिरने वाला) और अपने कर्म से स्थावर (भचल) होता है । अपने कर्म से पर्वत, अपने कर्म से वृक्ष, अपने कर्म से पशु और अपने ही कर्म से पक्षी होता है ॥ २३.५ ॥ स्वकर्मणा क्षुद्रजन्तुः कृमित्वं च स्वकर्मणा ॥ २४ ॥ स्वकर्मणा च सर्पत्वं गन्धर्वत्वं स्वकर्मणा । स्वकर्मणा राक्षसत्वं किन्नरत्वं स्वकर्मणा ॥ २५ ॥ स्वकर्मणा च यक्षत्वं कूष्माण्डत्वं स्वकर्मणा । स्वकर्मणा च प्रेतत्वं वेतालत्वं स्वकर्मणा ॥ २६ ॥ भूतत्वं च पिशाचत्वं डाकिनीत्वं स्वकर्मणा । अपने कर्म से क्षुद्र जन्तु, अपने कर्म से कीड़े, अपने कर्म से सर्प, अपने कर्म से गन्धर्व, अपने कर्म से राक्षस, अपने कर्म से किन्नर, अपने कर्म से यक्ष, अपने कर्म से कूष्माण्ड, अपने कर्म से वेताल, अपने कर्म से प्रेत तथा भूत, पिशाच एवं डाकिनी भी अपने कर्म से ही होता है ॥ २४-२६.५ ॥ दैत्यत्वं दानवत्वं चाप्यसुरत्वं स्वकर्मणा ॥ २७ ॥ कर्मणा पुण्यवाञ्जीवो महापापी स्वकर्मणा । कर्मणा सुन्दरोऽरोगी महारोगी च कर्मणा ॥ २८ ॥ कर्मणा चाङ्गहीनत्वं बधिरश्च स्वकर्मणा । कर्मणा चान्धः काणश्च कुत्सितश्च स्वकर्मणा ॥ २९ ॥ अपने कर्म से दैत्य, दानव, असुर और अपने ही कर्म से जीव पुण्यात्मा एवं महापापी भी होता है । कर्म से सुन्दर, नीरोग तथा कर्म से महारोगी, कर्म से अन्धा, काना और कर्म से कुत्सित (निन्दित) होता है ॥ २७-२९ ॥ कर्मणा नरकं यान्ति जीवाः स्वर्गं स्वकर्मणा । कर्मणा शक्रलोकं च सूर्यलोकं स्वकर्मणा ॥ ३० ॥ कर्मणा चन्द्रलोकं च वह्निलोकं स्वकर्मणा । कर्मणा वायुलोकं च कर्मणा वरुणालयम् ॥ ३१ ॥ कर्म से ही जीवगण नरक जाते हैं और कर्म से ही स्वर्ग । कर्म से इन्द्रलोक, कर्म से सूर्यलोक, कर्म से चन्द्रलोक, कर्म से अग्नि-लोक, कर्म से वायु लोक तथा कर्म से वरुणलोक में जाता है ॥ ३०-३१ ॥ तथा कुबेरलोकं च नरो याति स्वकर्मणा । कर्मणा ध्रुवलोकं च शिवलोकं स्वकर्मणा ॥ ३२ ॥ याति नक्षत्रलोकं च सत्यलोकं स्वकर्मणा । जनोलोकं तपोलोकं महर्लोकं स्वकर्मणा ॥ ३३ ॥ कर्म से नर कुबेरलोक, कर्म से ध्रुव लोक, कर्म से शिव लोक और कर्म से ही नक्षत्र लोक, सत्यलोक, जनलोक, तपोलोक तथा महर्लोक भी प्राप्त करता है ॥ ३२-३३ ॥ स्वकर्मणा च पातालं ब्रह्मलोकं स्वकर्मणा । कर्मणा भारतं पुण्यं सर्वेषामीप्सितं परम् ॥ ३४ ॥ अपने कर्म से पाताल, अपने कर्म से ब्रह्मलोक और कर्म से पवित्र एवं सबके अत्यन्त अभिलपणीय भारतवर्ष में जन्म लेता है ॥ ३४ ॥ कर्मणा याति वैकुण्ठं गोलोकं च निरामयम् । कर्मणा चिरजीवी च क्षणायुश्च स्वकर्मणा ॥ ३५ ॥ कर्म से वैकुण्ठ तथा निर्दोष गोलोक की प्राप्ति होती है । कर्म से चिरायु और कर्म से क्षणिक जीवन प्राप्त होता है ॥ ३५ ॥ कर्मणा कोटिकल्पायुः क्षीणायुश्च स्वकर्मणा । जीवसंसारमात्रायुर्गर्भे मृत्युः स्वकर्मणा ॥ ३६ ॥ कर्म से करोड़ों कल्प की आयु, कर्म से क्षीण आयु, कर्म से संसार में आने भर की आयु और कर्म से ही गर्भ में मृत्यु प्राप्त होती है । ॥ ३६ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं मयी तत्त्वं च सुन्दरि । कर्मणा ते मृतो भर्ता गच्छ वत्से यथासुखम् ॥ ३७ ॥ हे सुन्दरि ! इस प्रकार मैंने समस्त तत्त्वों को बता दिया है । वत्से ! कर्म से ही तुम्हारा पति मृतक हुआ है । अतः सुखपूर्वक लौट जाओ ॥ ३७ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने सावित्रीयमसंवादे कर्मणः सर्वहेतुत्वप्रदर्शनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में कर्म का सर्वकारणत्व वर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २४ ॥ |