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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चविशोऽध्यायः


सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाके यमोक्त्यनन्तरं सावित्रीप्रश्नः -
यमराज से सावित्री का प्रश्न -


श्रीनारायण उवाच
यमस्य वचनं श्रुत्वा सावित्री च पतिव्रता ।
तुष्टाव परया भक्त्या तमुवाच मनस्विनी ॥ १ ॥
श्रीनारायण बोले-यमराज की बातें सुनकर पतिव्रता एवं मनस्विनी सावित्री ने अनन्य भक्ति से उनकी स्तुति की और निवेदन किया ॥ १ ॥

सावित्र्युवाच
किं कर्म वा शुभं धर्मराज किंवाऽशुभं नृणाम् ।
कर्म निर्मूलयन्त्येव केन वा साधवो जनाः ॥ २ ॥
सावित्री बोली-हे धर्मराज ! मनुष्यों का कौन-सा कर्म शुभ है और कौन-सा अशुभ है ? तथा सज्जन लोग किसके द्वारा कर्म का उन्मूलन करते हैं ? ॥ २ ॥

कर्मणां बीजरूपः कः को वा कर्मफलप्रदः ।
किं कर्म तद्‌भवेत्केन को वा तद्धेतुरेव च ॥ ३ ॥
कर्मों का बीजरूप कौन-सा है ? कर्म का फल कौन देता है ? कर्म किसे कहते हैं ? और वह किसके द्वारा होता है ? उसका कारण कौन है ? ॥ ३ ॥

को वा कर्मफलं भुङ्क्ते को वा निर्लिप्त एव च ।
को वा देही कश्चदेहः को वाऽत्र कर्मकारकः ॥ ४ ॥
कर्मफल का भोग कौन करता है ? कौन (उससे) निलिप्त रहता है ? देही कौन है ? देह कौन है ? और कर्म कौन करता है ? ॥ ४ ॥

किं वा ज्ञानं मनो बुद्धिः के वा प्राणाः शरीरिणाम् ।
कानीन्द्रियाणि किं तेषां लक्षणं देवताश्च काः ॥ ५ ॥
ज्ञान, मन, बुद्धि, किसे कहते हैं, शरीरधारियों के प्राण कौन है ? इन्द्रियां कौन हैं ? उनके लक्षण क्या हैं ? और उनके देवता कौन हैं ? ॥ ५ ॥

भोक्ता भोजयिता को वा को भोगः का च निष्कृतिः ।
को जीवः परमात्मा कस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥
भोक्ता (भोग करनेवाला) कौन है ? भोजयिता (भोग करानेवाला) कौन है ? और भोग कौन है ? और उससे छुटकारा मिलने का उपाय क्या है ? जीव कौन है ? और परमात्मा कौन है ? (-यह सारी बातें आप) मुझे बताने की कृपा करें ॥ ६ ॥

यम उवाच
वेदेन विहितं कर्म तन्मन्ये मङ्‌गल परम् ।
अवैदिकं तु यत्कर्म तदेवाशुभमेव च ॥ ७ ॥
यम बोले-वेद विहित कर्म परम मङ्गलमय है और वेद में जिसका स्थान नहीं है वही अशुभ कर्म है । ॥ ७ ॥

अहैतुकी विष्णुसेवा संकल्परहिता सताम् ।
कर्मनिर्मूलनात्मा वै सा चैव हरिभक्तिदा ॥ ८ ॥
अहेतुकी (अकारण) विष्णु सेवा सज्जनों के कर्म का नाश करने वाली है और वहीं हरिभक्ति भी प्रदान करती है । ॥ ८ ॥

हरिभक्तो नरो यश्च स च मुक्तः श्रुतौ श्रुतम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिविवर्जितः ॥ ९ ॥
भगवान् का भक्त मनुष्य मुक्त होता है । इसीलिए उसे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय नहीं होता है, ऐसा वेद में सुना गया है ॥ ९ ॥

मुक्तिश्च द्विविधा साध्वि श्रुत्युक्ता सर्वसंमता ।
निर्वाणपददात्री च हरिभक्तिप्रदा नृणाम् ॥ १० ॥
पतिव्रते ! वेद में सर्वसम्मत से दो प्रकार की मुक्ति बतायी गयी है । उसमें एक मनुष्यों को निर्वाणपद प्रदान करती है और दूसरी भगवान् विष्णु की भक्ति ॥ १० ॥

हरिभक्तिस्वरूपां च मुक्तिं वाञ्छन्ति वैष्णवाः ।
अन्ये निर्वाणरूपां च मुक्तिमिच्छन्ति साधवः ॥ ११ ॥
वैष्णव जन भगवान् की भक्ति रूप मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु वर्ग निर्वाण रूप मुक्ति की कामना करते हैं ॥ ११ ॥

कर्मणो बीजरूपश्च संततं तत्फलप्रदः ।
कर्मरूपश्च भगवाञ्छ्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ॥ १२ ॥
प्रकृति से परे रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ही कर्मों के बीज रूप, उसके फलदाता और कर्मरूप हैं ॥ १२ ॥

सोऽपि तद्धेतुरूपश्च कर्म तेन भवेत्सति ।
जीवः कर्मफलं भुङ्क्त आत्मा निर्लिप्त एव च ॥ १३ ॥
एवं वही कर्मों के हेतु रूप भी हैं । वे सदैव वर्तमान रहते हैं, अत: उन्हीं के द्वारा कर्म की प्राप्ति होती है । कर्मों के फल का भोक्ता जीव है और आत्मा उससे निलिप्त रहता है ॥ १३ ॥

आत्मनः प्रतिबिम्बं च देही जीवः स एव च ।
पाञ्चभौक्तिकरूपश्च देहो नश्वर एव च ॥ १४ ॥
आत्मा का प्रतिबिम्ब ही देही और जीव कहलाता है । पांच भूतों के नश्वर रूप को देह कहते हैं ॥ १४ ॥

पृथिवी वायुराकाशो जलं तेजस्तथैव च ।
एतानि सूत्ररूपाणि सृष्टिः सृष्टिविधौ हरेः ॥ १५ ॥
भगवान् के सृष्टि विधान में पृथिवी, वायु, आकाश, जल और तेज, यही सृष्टि के सूत्र हैं ॥ १५ ॥

कर्ता भोक्ता च देही च स्वात्मा भोजयिता सदा ।
भोगो विभवभेदश्च निष्कृतिर्मुक्तिरेव च ॥ १६ ॥
देही (जीवात्मा) कर्ता, भोक्ता है और आत्मा (परमात्मा) भोजयिता (भोग कराने वाला) है । अनेक भांति के विभव भोग हैं तथा उनसे पृथक् होने को मुक्ति कहते हैं ॥ १६ ॥

सदसद्‌भेदबीजं च ज्ञानं नानाविधं भवेत् ।
विषयाणां विभागानां भेदबोजं च कीर्तितम् ॥ १७ ॥
सत्-असत् भेद का बीज रूप ज्ञान अनेक प्रकार का होता है । घट, पट आदि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा गया है ॥ १७ ॥

बुद्धिर्विवेचनारूपा ज्ञानसंदीपनी श्रुतौ ।
वायुभेदाश्च वै प्राणा बलरूपाश्च देहिनाम् ॥ १८ ॥
इन्द्रियाणां वै प्रवरमीश्वराणां समूहकम् ।
प्रेरकं कर्मणां चैव दुर्निवार्यं च देहिनाम् ॥ १९ ॥
अनिरूप्यमदृश्यं च ज्ञानभेदं मनः स्मृतम् ।
लोचनं श्रवणं घ्राणं त्वग्जिह्वादिकमिन्द्रियम् ॥ २० ॥
अङ्‌गिनामङ्‌गरूपं च प्रेरकं सर्वकर्मणाम् ।
रिपुरूपं मित्ररूपं सुखदं दुःखदं सदा ॥ २१ ॥
सूर्यो वायुश्च पृथिवी वाण्याद्या देवताः स्मृताः ।
प्राणदेहादिभृद्यो हि स जीवः परिकीर्तितः ॥ २२ ॥
परमात्मा परं ब्रह्म निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
कारणं कारणानां च श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ॥ २३ ॥
इत्येवं कथितं सर्वं मया पृष्टं यथागमम् ।
ज्ञानिनां ज्ञानरूपं च गच्छ वत्से यथासुखम् ॥ २४ ॥
विवेचनमयी शक्ति को बुद्धि कहते हैं । वेद में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है । वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं । इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्ति का संचार होता है । जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक , कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिए दुनिवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धि का एक भेद है, उसे 'मन' कहा गया है । यह शरीरधारियों का अंग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है । यही इन्द्रियों को विषयों में लगा कर दुःखी बनाने के कारण शत्रु रूप हो जाता है और सत्कार्य में लगा कर सुखी बनाने के कारण मित्र रूप है । आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा आदि इन्द्रियाँ हैं । सूर्य, वायु और पृथिवी एवं वाणी आदि इन्द्रियों के देवता हैं । प्राण और देह आदि के धारण करने वाले को 'जीव' कहते हैं । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण को परमात्मा एवं परब्रह्म कहते हैं, जो निर्गण, प्रकृति से परे और समस्त कारणों के कारण हैं । वत्से ! इस प्रकार मैंने शास्त्रानुसार तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया है, जो ज्ञानियों के लिए ज्ञानरूप है । अब यथासुख चली जाओ । ॥ १८-२४ ॥

सावित्र्युवाच
त्यक्त्वा क्व यामि कान्तं वा त्वां वा ज्ञानार्णवं बुधम् ।
प्रश्नं यद्यत्करोमि त्वां तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥ २५ ॥
सावित्री बोली-पति को तथा ज्ञान के सागर आप विद्वान् को छोड़ कर मैं कहाँ जाऊँ ? मैं जो-को प्रश्न पूछती हूँ, आप उसे बताने की कृपा करें ॥ २५ ॥

कां कां योनिं याति जीवः कर्मणा केन वा यम ।
केन वा कर्मणा स्वर्गं केन वा नरकं पितः ॥ २६ ॥
हे यम ! किन-किन कर्मों द्वारा यह जीव किन-किन योनियों में जाता है ? हे पिता ! किस कर्म द्वारा इसे स्वर्ग तथा नरक की प्राति होती है ॥ २६ ॥

केन वा कर्मणा मुक्तिः केन भक्तिर्भवेद्धरेः ।
केन वा कर्मणा रोगी चारोगी केन कर्मणा ॥ २७ ॥
किस कर्म से मुक्ति मिलती है ? किस कर्म से भगवान् की भक्ति होती है ? मनुष्य किस कर्म से रोगी होता है तथा किस कर्म से नीरोग रहता है ॥ २७ ॥

केन वा दीर्घजीवी च केनाल्पायुश्च कर्मणा ।
केन वा कर्मणा दुःखी केन वा कर्मणा सुखी ॥ २८ ॥
किस कर्म से दीर्घजीवी होता है और किस कर्म से अल्पायु होता है । किस कर्म से दुःखी होता है और किस कर्म से सुखी ॥ २८ ॥

अङ्‌गहीनश्च काणश्च बधिरः केन कर्मणा ।
अन्धो वा कृपणो वाऽपि प्रमत्तः केन कर्मणा ॥ २९ ॥
किस कर्म से अंगहीन, काना, बहरा, अन्धा, कृपण और पागल होता है ॥ २९ ॥

क्षिप्तोऽतिलुब्धकश्चौरः केन वा नरघातकः ।
केन सिद्धिमवाप्नोति सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३० ॥
किस कर्म से अत्यन्त लोभी, महान् व्याध और नरघाती होता है ? सिद्धि और सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होने में कौन कर्म सहायक हैं ? ॥ ३० ॥

केन वा ब्राह्मणत्वं च तपस्वित्वं च केन वा ।
स्वर्गभोगादिकं केन वैकुण्ठं केन कर्मणा ॥ ३१ ॥
किस कर्म से प्राणी ब्राह्मण भोर तपस्वी होता है ? किस कर्म से स्वर्ग के भोग मिलते हैं ? और किस कर्म से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है ॥ ३१ ॥

गोलोकं केन वा ब्रह्मन्सर्वोत्कृष्टं निरामयम् ।
नरकं वा कतिविधं किं संख्यं नाम किं तथा ॥ ३२ ॥
ब्रह्मन् ! किस कर्म से गोलोक मिलता है ? जो सभी लोकों से उत्कृष्ट एवं निरामय है । कितने प्रकार के नरक हैं ? उनकी संख्या और नाम क्या हैं ? ॥ ३२ ॥

को वा कं नरकं याति कियन्तं तेषु तिष्ठति ।
पापिनां कर्मणा केन को वा व्याधिः प्रजायते ॥ ३३ ॥
यद्यदस्ति मया पृष्टं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३४ ॥
कौन (जीव) किस नरक में जाता है ? उसमें कितने दिन रहता है ? और पापियों को किस कर्म से कौन रोग प्राप्त होता है ? ये जितनी बातें मैंने पूछी हैं, आप बताने की कृपा करें ॥ ३३-३४ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाके
यमोक्त्यनन्तरं सावित्रीप्रश्नो नाम पञ्चविशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में सावित्री-प्रश्न-वर्णन नामक पचीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २५ ॥

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