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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षड्विंशोऽध्यायः सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाके कर्मानुरूपस्थानगमनम् -
सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर - श्रीनारायण उवाच सावित्रीवचनं श्रुत्वा जगाम विस्मयं यमः । प्रहस्य वक्तुमारेभे कर्मपाकं च जीविनाम् ॥ १ ॥ नारायण बोले सावित्री की बातें सुनकर यमराज को आश्चर्य हुआ । उन्होंने हँसकर जीवों के कर्मविपाक (कर्मों के फल) कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥ यम उवाच कन्या द्वादशवर्षीया वत्से त्वं वयसाऽधुना । ज्ञानं ते सर्वविदुषां योगिनां ज्ञानिनां परम् ॥ २ ॥ यम बोले-वत्से ! यद्यपि तुम इस समय बारह वर्ष की कन्या हो, किन्तु तुम्हारा ज्ञान प्राचीन विद्वानों, योगियों एवं श्रेष्ठ ज्ञानियों के समान है ॥ २ ॥ सावित्रीवरदानेन त्वं सावित्रीकला सति । प्राप्या पुरा भूभृता च तपसा तत्समा शुभे ॥ ३ ॥ भद्रे ! (तुम्हारे पिता) राजा ने पूर्व काल में तप करके सावित्री के वरदान से उन्हीं की कला के रूप में तुम्हें प्राप्त किया है ॥ ३ ॥ यथा श्रीः श्रीपतेः क्रोडे भवानी च भवोरसि । यथा राधा च श्रीकृष्णे सावित्री ब्रह्मवक्षसि ॥ ४ ॥ धर्मोरसि यथा मूर्तिः शतरूपा मनौ यथा । कर्दमे देवहूतिश्च वसिष्ठेऽरुन्धती यथा ॥ ५ ॥ अतः जिस प्रकार विष्णु के अङ्क में लक्ष्मी, शिव की गोद में भवानी,श्रीकृष्ण के अङ्क में राधा, ब्रह्मा के अङ्क में सावित्री,धर्म के अङ्क में मूर्ति, मनु के अङ्क में शतरूपा, कर्दम के अङ्क में देवहूति, वसिष्ठ के अङ्क में अरुन्धती ॥ ४-५ ॥ अदितिः कश्यपे चापि यथाऽऽहल्या च गौतमे । यथा शची महेन्द्रे च यथा चन्द्रे च रोहिणी ॥ ६ ॥ यथा रतिः कामदेवे यथा स्वाहा हुताशने । यथा स्वधा च पितृषु यथा संज्ञा दिवाकरे ॥ ७ ॥ कश्यप के अङ्क में अदिति, गौतम के अङ्क में अहल्या, इन्द्र के अङ्क में इन्द्राणी, चन्द्रमा के अङ्क में रोहिणी, कामदेव के वक्ष पर रति, अग्नि के अङ्क में स्वाहा, पितरों के साथ स्वधा, दिवाकर के साथ संज्ञा ॥ ६-७ ॥ वरुणानी च वरुणे यज्ञे च दक्षिणा यथा । यथा धरा वराहे च देवसेना च कार्तिके ॥ ८ ॥ सौभाग्या सुप्रिया त्वं च भव सत्यवति प्रिये । इति तुभ्यं वरं दत्तमपरं च यदीप्सितम् । वृणु देवि महाभागे सर्वं दास्यामि निश्चितम् ॥ ९ ॥ वरुण के अङ्क में वरुणानी, यज्ञ के अङ्क में दक्षिणा, वराहावतार भगवान् के अङ्क में पृथिवी और कार्तिकेय के साथ देवसेना सुशोभित होती हैं उसी प्रकार, हे प्रिये ! तुम भी सत्यवान् की परम प्रेयसी एवं सौभाग्यशालिनी बनो । मैने यह तुम्हें वरदान दिया है । हे देवि ! हे महाभागे ! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर मांगो । मैं निश्चित रूप से तुम्हें सब वरदान दूंगा ॥ ८-९ ॥ सावित्र्युवाच सत्यवदौरसेनैव पुत्राणां शतकं मम । भविष्यति महाभाग वरमेतन्मदीप्सितम् ॥ १० ॥ मत्पितुः पुत्रशतकं श्वशुरस्य च चक्षुषी । राज्यलाभो भवत्वेवं वरमेवं मदीप्सितम् ॥ ११ ॥ सावित्री बोली-हे महाभाग ! सत्यवान् के द्वारा मेरे सौ पुत्र उत्पन्न हों, यह मेरी बड़ी अभिलाषा है तथा हमारे पिता के सौ पुत्र हों, श्वशुर की आँखें ठीक हो जायें और मुझे राज्य लाभ हो, यह मेरी अभिलाषा पूरी कीजिए ॥ १०-११ ॥ अन्ते सत्यवता सार्धं यास्यामि हरिमन्दिरम् । समतीते लक्षवर्षे देहीमं मे जगत्प्रभो ॥ १२ ॥ जगत्प्रभो ! (सत्यवान् के साथ) एक लाख वर्षों तक (परम सुखानुभव) करने के अनन्तर उनके साथ विष्णू लोक जाऊँ, मुझे यह भी वरदान दीजिए ॥ १२ ॥ जीवकर्मविपाकं च श्रोतुं कौतूहलं च मे । विश्वविस्तारबीजं च तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १३ ॥ प्रभो ! मुझे जीव का कर्मविपाक तथा विश्व से तर जाने का उपाय भी सुनने के लिए मन में महान् कौतूहल हो रहा है, अतः आप यह भी बताएँ ॥ १३ ॥ यम उवाच भविष्यति महासाध्वि सर्वं मानसिकं तव । जीवकर्मविपाकं च कथयामि निशामय ॥ १४ ॥ शुभानामशुभानां च कर्मणां जन्म भारते । पुण्यक्षेत्रेऽत्र सर्वत्र नान्यत्र भुञ्जते जनाः ॥ १५ ॥ यम बोले-महापतिव्रते ! तुम्हारे सभी मनोरथ सफल होंगे । अब जीवों का कर्म-फल बता रहा हूँ, सुनो ! इस पुण्य क्षेत्र भारत में शुभ और अशुभ कर्मों का जन्म होता है और इसी क्षेत्र में लोग कर्मों के फल भोगते हैं अन्यत्र नहीं ॥ १४-१५ ॥ सुरा दैत्या दानवाश्च गन्धर्वा राक्षसादयः । नराश्च कर्मजनका न सर्वे समजीविनः ॥ १६ ॥ देव, दैत्य, दानव, गन्धर्व, राक्षस और मनुष्य सभी कर्मों के फल भोगते हैं, परन्तु सब का जीवन समान नहीं है ॥ १६ ॥ विशिष्टजीविनः कर्म भुञ्जते सर्वयोनिषु । शुभाशुभं च सर्वत्र स्वर्गेषु नरकेषु च ॥ १७ ॥ विशेषतो मानवाश्च भ्रमन्ति सर्वयोनिषु । शुभाशुभं भुञ्जते च कर्म पूर्वार्जितं परम् ॥ १८ ॥ शुभेन कर्मणा यान्ति ते स्वर्गादिकमेव च । कर्मणा चाशुभेनैव भ्रमन्ति नरकेषु च ॥ १९ ॥ कर्मनिर्मूलने मुक्तिः सा चोक्ता द्विविधा मता । निर्वाणरूपा सेवा च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ २० ॥ रोगी कुकर्मणा जीवश्चारोगी शुभकर्मणा । दीर्घजीवी च क्षीणायुः सुखी दुःखी च निश्चितम् ॥ २१ ॥ उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात् मनुष्य-योनि में ही शुभाशुम कर्म किये जाते हैं, जिनका फल सर्वत्र स्वर्गों तथा नरकों में भी भोगना पड़ता है । विशेषतः मानव ही सब योनियों में कर्मों का फल भोगते हैं और सभी योनियों में भटकते हैं । वे पूर्वजन्म का किया हुआ शुभाशुभ कर्म भोगते हैं । शुभ कर्म के प्रभाव से वे स्वर्गलोक में जाते हैं और अशुभ कर्म से उन्हें नरक में भटकना पड़ता है । कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति होती है । पतिव्रते ! मुक्ति दो प्रकार की बतलायी गई है—एक निर्वाणरूपा और दूसरी परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवारूपा । बुरे कर्म से प्राणी रोगी होता है और शुभ कर्म से नीरोग । वह अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी एवं दुःखी होता है । कुत्सित कर्म से ही प्राणी अंगहीन, अंधे, बहरे आदि होते हैं । उत्तम कर्म के फलस्वरूप सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है ॥ १७-२१ ॥ अन्धादयश्चाङ्गहीनाः कुत्सितेन च कर्मणा । सिद्ध्यादिकमवाप्नोति सर्वोत्कृष्टेन कर्मणा ॥ २२ ॥ सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं शृणु सुन्दरि । सुदुर्लभं सुभोग्यं च पुराणेषु श्रुतिष्वपि ॥ २३ ॥ इस प्रकार मैंने सामान्य कर्म फल बता दिया है, अब विशेष बातें सुनो । जिसे पुराणों और श्रुतियों में अत्यन्त दुर्लभ बताया गया है ॥ २२-२३ ॥ दुर्लभा मानवी जातिः सर्वजातिषु भारते । सर्वाभ्यो ब्राह्मणः श्रेष्ठः प्रशस्तः सर्वकर्मसु ॥ २४ ॥ विष्णुभक्तो द्विजश्चैव गरीयान्भारते ततः । निश्कामश्च सकामश्च वैष्णवो द्विविधः सति ॥ २५ ॥ सभी जातियों के लिए भारत में मनुष्य का जन्म पाना परम दुर्लभ है । साध्वी ! उन सब जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, जो सभी कर्मों के लिए प्रशस्त कहे गए हैं । भारत में विष्णुभक्त द्विज सबसे श्रेष्ठ होते हैं । निष्काम और सकाम भेद से वैष्णव दो प्रकार के होते हैं ॥ २४-२५ ॥ सकामश्च प्रधानश्च निष्कामो भक्त एव च । कर्मभोगी सकामश्च निष्कामो निरुपद्रवः ॥ २६ ॥ सकाम वैष्णव कर्म प्रधान होते हैं और निष्काम वैष्णव केवल भक्त । सकाम वैष्णव कर्मों का फल भोगता है और निष्काम वैष्णव शुभाशुभ भोग के उपद्रव से दूर रहता है ॥ २६ ॥ स याति देहं त्यक्त्वा च पदं विष्णोनिरामयम् । पुनरागमनं नास्ति तेषां निष्कामिणां सति ॥ २७ ॥ वह निष्काम (भक्त) देह त्यागने पर निरामय विष्णु लोक को प्राप्त करता है और निष्काम होने के नाते उसका यहाँ पुनः आगमन नहीं होता है ॥ २७ ॥ ये सेवन्ते च द्विभुजं कृष्णमात्मानमीश्वरम् । गोलोकं यान्ति ते भक्ता दिव्यरूपविधारिणः ॥ २८ ॥ जो भक्त दो भुजाधारी पूर्णब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं वे अन्त में दिव्य रूप धारण करके गोलोक में जाते हैं ॥ २८ ॥ ये च नारायणं भक्ताः सेवन्ते च चतुर्भुजम् । वैकुण्ठं यान्ति ते सर्वे दिव्यरूपविधारिणः ॥ २९ ॥ जो भक्त चतुर्भज भगवान् विष्णु की सेवा करते हैं, वे दिव्य रूप धारण करके वैकुण्ठ लोक में जाते हैं ॥ २९ ॥ सकामिनो वैष्णवाश्च गत्वा वैकुण्ठमेव च । भारतं पुनरायान्ति तेषां जन्म द्विजातिषु ॥ ३० ॥ किन्तु सकाम वैष्णव वैकुण्ठ में जाकर पुनः यहाँ भारत में लौट आते हैं और द्विजातियों में जन्म ग्रहण करते हैं ॥ ३० ॥ कालेन ते च निष्कामा भविष्यन्ति क्रमेण च । भक्तिं च निर्मलां बुद्धिं तेभ्यो दास्यति निश्चितम् ॥ ३१ ॥ समय पाकर क्रमशः वे भी निष्काम भक्त होते हैं, क्योंकि भगवान उन्हें भी भक्ति और निर्मल बुद्धि निश्चित रूप से प्रदान करते हैं ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणाद्वैष्णवादन्ये सकामाः सर्वजन्मसु । न तेषां निर्मला बुद्धिर्विष्णुभक्तिविवर्जिताः ॥ ३२ ॥ ब्राह्मण वैष्णव से अन्य लोग सभी जन्मों में सकाम वैष्णव ही होते हैं किन्तु भगवान् विष्णु की भक्ति से रहित होने के कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं होती है ॥ ३२ ॥ तीर्थाश्रिता द्विजा ये च तपस्यानिरताः सति । ते यान्ति ब्रह्मलोकं च पुनरायान्ति भारतम् ॥ ३३ ॥ तीर्थ में रह कर जो ब्राह्मण तपस्या में लीन रहते हैं, वे ब्रह्मलोक को जाते हैं और (पुण्य भोग के पश्चात् ) पुनः यहाँ भारत में आते हैं ॥ ३३ ॥ स्वधर्मनिरता विप्राः सूर्यभक्ताश्च भारतं । व्रजन्ति सूर्यलोकं तं पुनरायान्ति भारतम् ॥ ३४ ॥ भारत में स्वधर्म में संलग्न रहते हुए जो ब्राह्मण सूर्य के भक्त होते हैं, वे सूर्य-लोक को जाते हैं तथा (पुण्य भोग के पश्चात्) पुनः भारत में आते हैं ॥ ३४ ॥ स्वधर्मनिरता विप्राः शैवाः शाक्ताश्च गाणपाः । तं यान्ति शिवलोकं च पुनरायान्ति भारतम् ॥ ३५ ॥ इसी प्रकार स्वधर्माचरण करते हुए जो ब्राह्मण शिव, शक्ति (दुर्गा) और गणेश के भक्त होते हैं, वे शिवलोक में जाते हैं और (पुण्य भोग के पश्चात्) पुनः भारत में लौट आते हैं ॥ ३५ ॥ ये विप्रा अन्यदेवेष्टाः स्वधर्मनिरताः सति । ते गत्वा शक्रलोकं च पुनरायान्ति भारतम् ॥ ३६ ॥ जो ब्राह्मण अन्य किसी देव को इष्ट मान कर स्वधर्मानुष्ठानपूर्वक उसकी आराधना करते हैं, वे इन्द्रलोक में जाते हैं और (पुण्य भोग के पश्चात्) पुनः भारत में आते हैं । ॥ ३६ ॥ हरिभक्ताश्च निष्कामाः स्वधर्मरहिता द्विजाः । तेऽपि यान्ति हरेर्लोकं क्रमाद्भक्तिबलादहो ॥ ३७ ॥ निष्काम कर्म करने वाले ब्राह्मण, जो भगवान् के भक्त हैं किन्तु अपने (जातीय) धर्म से रहित हैं, वे भी क्रमशः अपनी भक्ति के बल से विष्णु के ही लोक में जाते हैं ॥ ३७ ॥ स्वधर्मरहिता विप्रा देवान्यसेविनः सदा । भ्रष्टाचाराश्च वामाश्च ते यान्ति नरकं ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ जो ब्राह्मण स्वधर्म से रहित हैं, देवेतर की सेवा करते हैं तथा भ्रष्टाचारी और वामाचारी हैं, वे निश्चित ही नरक में जाते हैं ॥ ३८ ॥ स्वधर्मनिरताश्चैवं वर्णाश्चत्वार एव च । भवन्त्येव शुभस्यैव कर्मणः फलभागिनः ॥ ३९ ॥ इस प्रकार चारों वर्गों के लोग अपने-अपने (जातीय) कर्मों में संलग्न रहें तो उन्हें शुभ कर्मों का ही फलभागी जानना चाहिए ॥ ३९ ॥ स्वधर्मरहितास्ते च नरकं यान्ति हि ध्रुवम् । भारते च भवन्त्येव कर्मणः फलभागिनः ॥ ४० ॥ यदि वे अपने-अपने धर्मों से च्युत होते हैं तो निश्चित ही नरक में जाते हैं क्योंकि भारत में कर्मों का फलभागी होना ही पड़ता है ॥ ४० ॥ स्वधर्मनिरता विप्राः स्वधर्मनिरताय च । कन्यां ददति विप्राय चन्द्रलोकं व्रजन्ति ते ॥ ४१ ॥ स्वधर्मानुष्ठान करने वाले ब्राह्मण यदि अपनी कन्या स्वधर्माचारी को देते हैं, तो वे चन्द्रलोक में जाते हैं ॥ ४१ ॥ वसन्ति तत्र ते साध्वि यावदिन्द्राश्चतुर्दश । सालंकृताया दानेन द्विगुणं फलमुच्यते ॥ ४२ ॥ और वहाँ चौदह इन्द्रों के समय तक रहते हैं । साध्वी ! यदि कन्या को अलङ्कार आदि से विभूषित करके दान में दिया जाय तो उससे दुगुना फल प्राप्त होता है ॥ ४२ ॥ सकामा यान्ति तल्लोकं न निष्कामाश्च वैष्णवा । ते प्रयान्ति विष्णुलोकं फलसंधानवर्जिताः ॥ ४३ ॥ किन्तु कामना वाले ब्राह्मण ही वहाँ जाते हैं, निष्काम वैष्णव नहीं । वे तो फल की आशा से पृथक् रहने के कारण भगवान् विष्णु के ही लोक में जाते हैं ॥ ४३ ॥ गव्यं च रजतं भार्यां वस्त्रं सस्यं फलं जलम् । ये ददत्येव विप्रेभ्यस्तल्लोकं हि व्रजन्ति च ॥ ४४ ॥ गौ के दूध, घी आदिएवं चाँदी, मार्या, वस्त्र, अनाज, फल और जल का दान करने वाले भी उसी लोक में जाते हैं ॥ ४४ ॥ वसन्ति ते च तल्लोकं यावन्मन्वन्तरं सति । कालं च सुचिरं वासं कुर्वन्ति तत्र ते जनाः ॥ ४५ ॥ और मन्वन्तर के समय तक वे वहाँ रहते हैं । इस प्रकार वे वहाँ अति चिरकाल तक निवास करते हैं ॥ ४५ ॥ ये ददति सुवर्णं च गां च ताम्रादिकं सति । ते यान्ति सूर्यलोकं च शुचये ब्राह्मणाय च ॥ ४६ ॥ पवित्र (सदाचारी) ब्राह्मण को सुवर्ण, गौ एवं ताँबे आदि का दान करने वाले पुरुष सूर्यलोक में जाते हैं ॥ ४६ ॥ वसन्ति तत्र ते लोके वर्षाणामयुतं सति । विपुलं सुचिरं वासं कुर्वन्ति च निरामयाः ॥ ४७ ॥ वे वहाँ दश सहस्र वर्षों तक निवास करते हैं । अनन्तर बिना किसी बाधा के पुनः चिरकाल तक वास करते हैं ॥ ४७ ॥ ददाति भूमिं विप्रेभ्यो धान्यानि विपुलानि च । स याति विष्णुलोकं च श्वेतद्वीपं मनोहरम् ॥ ४८ ॥ ब्राह्मण को भूमि और विपुल धान्य देने वाले व्यक्ति विष्णुलोक में तथा मनोरम ज्वेत द्वीप में जाते हैं ॥ ४८ ॥ तत्रैव निवसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ । विपुलं विपुले वासं करोति पुण्यवान्सति ॥ ४९ ॥ वहाँ चन्द्रमा और सूर्य के समय तक निवास करते हुए वे पुण्यवान् व्यक्ति उस विपुल स्थान में चिरकाल तक निवास करते हैं ॥ ४९ ॥ गृहं ददति विप्राय ये जना भक्तिपूर्वकम् । ते यान्ति सुरलोकं च चिरं तत्र भवन्ति ते ॥ ५० ॥ ब्राह्मण को भक्तिपूर्वक गृह दान देने वाले व्यक्ति देवलोक में जाकर चिर निवास करते हैं ॥ ५० ॥ गृहरेणुप्रमाणाब्दं दानं पुण्यदिने यदि । विपुलं विपुले वासं कुर्वन्ति मानवाः सति ॥ ५१ ॥ यदि किसी शुभ अवसर पर वह, वही दान करता है, तो वह उस गृह के रजकण जितने वर्षों तक उस दान के फलस्वरूप उस विशाल लोक में चिर निवास करता है ॥ ५१ ॥ यस्मै यस्मै च देवाय यो ददाति गृहं नरः । स याति तस्य लोकं च रेणुमानाब्दमेव च ॥ ५२ ॥ इस प्रकार जो मनुष्य जिस देव के निमित्त गृह दान करता है, उस देव के लोक में उस गह के रेणु प्रमाण वर्षों तक वह निवास करता है ॥ ५२ ॥ सौधे चतुर्गुणं पुण्यं घृतं शतगुणं फलम् । प्रकृष्टेऽष्टगुणं तस्मादित्याह कमलोद्भवः ॥ ५३ ॥ अपने घर पर दान करने की अपेक्षा देव-मन्दिर में दान करने से चौगुना, पूतकर्म (वापी, कूप, तडाग आदि के निर्माण) के अवसर पर करने से सौगुना तथा किसी श्रेष्ठ तीर्थस्थान में करने से आठगुना फल होता है-ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ ५३ ॥ यो ददाति तडागं च सर्वभूताय भारते । स याति जनलोकं च वर्षाणामयुतं सति ॥ ५४ ॥ भारत में समस्त प्राणियों के हितार्थ जो तड़ाग बनवा कर दान करता है, वह दश सहस्र वर्षों तक जन-लोक में निवास करता है ॥ ५४ ॥ वाप्यां फलं शतगुणं प्राप्नोति मानवस्ततः । तथा सेतुप्रदानेन तडागस्य फलं लभेत् ॥ ५५ ॥ बावली का दान करने से मनुष्य को सदा सौगुना फल मिलता है । सेतु (पुल) दान करने से तड़ाग के दान का पुण्यफल प्राप्त होता है ॥ ५५ ॥ धनुश्चतुःसहस्रेण दैर्ध्यमानेन निश्चितम् । न्यूना वा तावती प्रस्थे सा वापी परिकीर्तिता ॥ ५६ ॥ तड़ाग का प्रमाण चार सहस्र धनुष (१ धनुष= ४हाथ चौड़ा और उतना ही लम्बा) निश्चित किया गया है । इससे जो लघु प्रमाण में है, उसे बावली कहते हैं ॥ ५६ ॥ दशवापीसमा कन्या यदि पात्रे प्रदीयते । फलं ददाति द्विगुणं यदि सालंकृता भवेत् ॥ ५७ ॥ किसी (सु) पात्र को कन्या दान देने पर दश बावलियां दान करने का पुण्य प्राप्त होता है । यदि (आभूषण आदि से) अलंकृत करके कन्या का दान किया जाता है, तो उससे दुगुना फल मिलता है ॥ ५७ ॥ यत्फलं च तडागे च पङ्कोद्धारेण तत्फलम् । वाप्याश्च पङ्कोद्धारेण वापीतुल्यफलं लभेत् ॥ ५८ ॥ वापी और तड़ाग बनवाने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य उसके जीर्णोद्धार (कीचड़ दूर कराने) से होता है ॥ ५८ ॥ अश्वत्यवृक्षमारोप्य प्रतिष्ठां च करोति यः । स याति तपसो लोकं वर्षाणामयुतं परम् ॥ ५९ ॥ पीपल का वृक्ष लगा कर जो उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह दश सहस्र वर्षों तक तपोलोक में निवास करता है ॥ ५९ ॥ पुष्पोद्यानं यो ददाति सावित्रि सर्वभूतये । स वसेद्ध्रुवलोके च वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ॥ ६० ॥ सावित्री ! समस्त प्राणियों के हित के लिए जो पुष्पवाटिका (फूलवाड़ी) का दान करता है, वह ध्रुवलोक में दश सहस्र वर्षों तक निश्चित रूप से निवास करता है ॥ ६० ॥ यो ददाति विमानं च विष्णवे भारते सति । विष्णुलोके वसेत्सोऽपि यावन्मन्वन्तरं परम् ॥ ६१ ॥ भारतवर्ष में जो भगवान् विष्णु के लिए विमान (रथ) का दान करता है, वह एक मन्वन्तर के समय तक विष्णुलोक में निवास करता है ॥ ६१ ॥ चित्रयुक्ते च विपुले फलं तस्य चतुर्गुणम् । रथार्धं शिबिकादाने फलमेव लभेद्ध्रुवम् ॥ ६२ ॥ चित्र-विचित्र एवं विशाल रथ का दान करने पर उससे चौगुने पुण्य और शिबिका (पालकी) दान करने पर रथ का आधा पुण्यफल प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ६२ ॥ यो ददाति भक्तियुक्तो हरये दोलमन्दिरम् । विष्णुलोके वसेत्सोऽपि यावन्मन्वन्तरं परम् ॥ ६३ ॥ जो भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु को मन्दिराकार झूला समर्पित करता है, वह मन्वन्तर के समय तक विष्णुलोक में निवास करता है ॥ ६३ ॥ राजमार्गं सौधयुक्तं यः करोति पतिव्रते । वर्षाणामयुतं सोऽपि शक्रलोके महीयते ॥ ६४ ॥ हे पतिव्रते ! जो सड़क बनवाता और उसमें लोगों के ठहरने के लिए महल (धर्मशाला) बनवा देता है, वह दश सहस्र वर्षों तक इन्द्रलोक में पूजित होता है ॥ ६४ ॥ ब्राह्मणेभ्योऽपि देवेभ्यो दाने समफलं लभेत् । यच्च दत्तं हि तद्भोक्तुर्न दत्तं नोपतिष्ठते ॥ ६५ ॥ इस प्रकार ब्राह्मणों और देवों को दान देने से दान का फल समान ही होता है । जो पूर्व जन्म में दिया गया है, वही जन्मान्तर में प्राप्त होता है । जो नहीं दिया गया है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है ॥ ६५ ॥ भुक्त्या स्वर्गादिकं सौख्यं पुनरायान्ति भारते । लभेद्विप्रकुलेष्वेव क्रमेणैवोत्तमादिषु ॥ ६६ ॥ भारते पुण्यवान्विप्रो भुक्त्वा स्वर्गादिकं परम् । पुनः सोऽपि भवेद्विप्रो न पुनः क्षत्रियादयः ॥ ६७ ॥ ऐसे व्यक्ति स्वर्ग आदि के सुख का अनुभव करने के उपरान्त यहाँ भारतवर्ष में क्रमशः (दान के अनुसार) उत्तम-मध्यम आदि ब्राह्मणों के कुल में ही जन्म ग्रहण करते हैं । भारत के निवासी पुण्यवान् ब्राह्मण स्वर्ग आदि लोकों के उत्तम सुखों का अनुभव करके पुनः यहाँ ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं । किन्तु क्षत्रिय आदि के लिए ऐसा नियम नहीं है ॥ ६६-६७ ॥ क्षत्रियो वापि वैश्यो वा कल्पकोटिशतेन च । तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुतौ श्रुतम् ॥ ६८ ॥ क्षत्रिय और वैश्य सौ करोड़ कल्प में भी तप करने के द्वारा ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा वेद में सुना गया है ॥ ६८ ॥ स्वधर्मरहिता विप्रा नानायोनिं व्रजन्ति च । भुक्त्वा च कर्मभोगं च विप्रयोनिं लभेत्पुनः ॥ ६९ ॥ अपने धर्म-कर्म से रहित ब्राह्मण अनेक योनियों में घूमते हैं और वहाँ कर्म भोगों को भोगने के अनन्तर पुनः ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते हैं ॥ ६९ ॥ नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ७० ॥ सैकड़ों करोड़ कल्पों के व्यतीत होने पर भी बिना मोग किये कर्म नष्ट नहीं होता है । शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है ॥ ७० ॥ देवतीर्थे सहायेन कायव्यूहेन शुध्यति । एतत्ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ७१ ॥ देवता तथा तीर्थ की सहायता और कायव्यूह से प्राणी शुद्ध हो जाता है । पतिव्रते ! ये सब बातें तुम्हें बता दी गई, अब पुनः क्या सुनना चाहती हो ? ॥ ७1 ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाके कर्मानुरूपस्थानगमनं नाम षड्विशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृति-खण्ड में सावित्री-उपाख्यान के कर्म-विपाक-प्रकरण में कर्मानुरूपस्थान में जाने का वर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २६ ॥ |