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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तविंशोऽध्यायः


सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे शुभकर्मविपाककथनम् -
सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर -


सावित्र्युवाच
प्रयान्ति स्वर्गमन्यं च येन येनैव कर्मणा ।
मानवाः पुण्यवन्तश्च तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
सावित्री बोली--पुण्यवान् मनुष्य जिन-जिन कर्मों द्वारा स्वर्ग तथा अन्य लोकों को प्राप्त करते हैं, उन्हें बताने की कृपा करें ॥ १ ॥

यम उवाच
अन्नदानं च विप्राय यः करोति च भारते ।
अन्नप्रमाणवर्षं च शक्रलोके महीयते ॥ २ ॥
यम बोले-मारतवर्ष में जो ब्राह्मण को अन्नदान देता है, वह दान किये हुए अन्न में जितने दाने होते हैं उतने वर्षों तक इन्द्रलोक में पूजित होता है ॥ २ ॥

अन्नदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति ।
नात्र पात्रपरीक्षा स्यान्न कालनियमः क्वचित् ॥ ३ ॥
क्योंकि अन्नदान से उत्तम दूसरा दान न हुआ है और न होगा । इसमें (लेने वाले) पात्र की परीक्षा नहीं की जाती और (देने के लिए) समय का कोई नियम भी नहीं है ॥ ३ ॥

देवेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो वा ददाति चाऽऽसनं यदि ।
महीयते वह्निलोके वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ॥ ४ ॥
देवों या ब्राह्मणों को आसन प्रदान करने पर, दश सहस्र वर्षों तक अग्निलोक में रहने की सुविधा प्राप्त होती है ॥ ४ ॥

यो ददाति च विप्राय दिव्यां धेनुं पयस्विनीम् ।
तल्लोममानवर्षं च वैकुण्ठे च महीयते ॥ ५ ॥
जो ब्राह्मणों को दूध देनेवाली दिव्य गौ का दान देता है, वह उस (गाय) के लोमप्रमाण वर्षों तक वैकुण्ठ लोक में पूजित होता है ॥ ५ ॥

चतुर्गुणं पुण्यदिने तीर्थे शतगुणं फलम् ।
दानं नारायणक्षेत्रे फलं कोटिगुणं भवेत् ॥ ६ ॥
किसी पुण्य अवसर पर उसका दान करने से चौगुना पुण्य, तीर्थ में दान करने से सौगुना और नारायण क्षेत्र में दान करने से करोड़ गुना फल मिलता है ॥ ६ ॥

गां यो ददाति विप्राय भारते भक्तिपूर्वकम् ।
वर्षाणामयुतं चैव चन्द्रलोके महीयते ॥ ७ ॥
भारतवर्ष में जो भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गौ प्रदान करता है, वह चन्द्रलोक में दश सहस्र वर्षों तक पूजित होता है ॥ ७ ॥

यश्चोभयमुखीदानं करोति ब्राह्मणाय च ।
तल्लोममानवर्षं च वैकुण्ठे च महीयते ॥ ८ ॥
जो ब्राह्मण को उभयमुखी (ब्याती हुई) गाय प्रदान करता है, वह उसके लोम प्रमाण वर्षों तक वैकुण्ठ में निवास करता है ॥ ८ ॥

यो ददाति ब्राह्मणाय शालिग्रामं सवस्त्रकम् ।
महीयते स वैकुण्ठे यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ९ ॥
जो वस्त्र समेत- शालग्राम की मूर्ति ब्राह्मण को अर्पित करता है, वह चन्द्र-सूर्य के समय तक वैकुण्ठ में सम्मानपूर्वक रहता है ॥ ९ ॥

यो ददाति ब्राह्मणाय च्छत्रं च सुमनोहरम् ।
वर्षाणामयुतं सोऽपि मोदते वरुणालये ॥ १० ॥
जो ब्राह्मण को अति मनोरम छत्र समर्पित करता है, वह भी दस सहस्र वर्षों तक वरुण लोक में आनन्दपूर्ण जीवन बिताता है ॥ १० ॥

विप्राय पादुकायुग्मं यो ददाति च भारते ।
महीयते वायुलोके वर्षाणामयुतं सति ॥ ११ ॥
भारतवर्ष में ब्राह्मण को पादुकाएं प्रदान करने वाला दश सहस्र वर्षों तक वायुलोक में सम्मान प्राप्त करता है ॥ ११ ॥

यो ददाति ब्राह्मणाय शय्यां दिव्यां मनोहराम् ।
महीयते चन्द्रलोके यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ १२ ॥
दिव्य एवं मनोहर शय्या का दान ब्राह्मण को समर्पित करने से मनुष्य चन्द्रलोक में चन्द्र-सूर्य के समय तक सम्मान प्राप्त करता है ॥ १२ ॥

यो ददाति प्रदीपं च देवाय ब्राह्मणाय च ।
यावन्मन्वन्तरं सोऽपि ब्रह्मलोके महीयते ॥ १३ ॥
सुन्दरी ! जो व्यक्ति देवता और ब्राह्मण को दीप प्रदान करता है, वह ब्रह्मलोक में मन्वन्तर के समय तक पूजित होता है ॥ १३ ॥

संप्राप्य मानवीं योनिं चक्षुष्मांश्च भवेद्ध्रुवम् ।
न याति यमलोकं च तेन पुण्येन सुन्दरि ॥ १४ ॥
उस पुण्य से उसके नेत्रों में ज्योति बनी रहती है और वह यमलोक में नहीं जाता है ॥ १४ ॥

करोति गजदानं च यो हि विप्राय भारते ।
यावदिन्द्रादिदेवस्य लोके चार्धासने वसेत् ॥ १५ ॥
भारत में जो ब्राह्मण को गज प्रदान करता है, वह इन्द्र आदि देवों के लोक में उनके समय तक उनके सिंहासन के आधे भाग पर सुशोभित रहता है ॥ १५ ॥

भारते योऽश्वदानं च करोति ब्राह्मणाय च ।
मोदते वारुणे लोके यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ १६ ॥
भारत में ब्राह्मण को जो अश्व प्रदान करता है, वह चौदहों इन्द्रों के समय तक वरुण लोक में आनन्द का अनुभव करता है ॥ १६ ॥

प्रकृष्टां शिबिकां यो हि ददाति ब्राह्मणाय च ।
महीयते विष्णुलोके यावन्मन्वन्तरं सति ॥ १७ ॥
जो ब्राह्मण को सुन्दर शिविका (पालकी) प्रदान करते हैं, वे विष्णु लोक में मन्वन्तर के समय तक सम्मानित होते हैं । ॥ १७ ॥

यो ददाति च विप्राय व्यजनं श्वेतचामरम् ।
महीयते वायुलोके वर्षाणामयुतं ध्रुवम् ॥ १८ ॥
जो ब्राह्मण को श्वेत चामर (चवर) अर्पित करता है, वह दश सहस्र वर्षों तक वायुलोक में पूजित होता है ॥ १८ ॥

धान्याचलं यो ददाति ब्राह्मणाय च भारते ।
स च धान्यप्रमाणाब्दं विष्णुलोके महीयते ॥ १९ ॥
जो भारत में ब्राह्मण को धान का पर्वत अर्पित करता है, वह धान के दानों के बराबर वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है ॥ १९ ॥

ततः स्वयोनिं संप्राप्य चिरजीवी भवेत्सुखी ।
दाता ग्रहीता तौ द्वौ च ध्रुवं वैकुण्ठगामिनौ ॥ २० ॥
पश्चात् पुनः मनुष्य योनि में उत्पन्न होकर सुखी तथा चिरजीवी होता है । इस प्रकार दाता (देनेवाला) और गहीता (लेनेवाला) दोनों ही (अन्त में) निश्चित रूप से वैकुण्ठ में जाते हैं ॥ २० ॥

सततं श्रीहरेर्नाम भारते यो जपेन्नरः ।
स एव चिरजीवी च ततो मृत्युः पलायते ॥ २१ ॥
भारत में जो मनुष्य निरन्तर श्री विष्णु भगवान् के नाम का जप करता है, वह चिरजीवी होता है तथा उसे देखते ही मृत्यु भाग जाती है ॥ २१ ॥

यो नरो भारते वर्षे दोलनं कारयेद्धरेः ।
पूर्णिमारजनीशेषे जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २२ ॥
भारत में जो मनुष्य पूर्णिमा की रात्रि में भगवान् श्रीकृष्ण के निमित्त झूला (हिंडोला) अर्पित करता है, वह जीवन्मुक्त होता है ॥ २२ ॥

इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते विष्णुमन्दिरम् ।
निश्चितं निवसेत्तत्र शतमन्वन्तरावधि ॥ २३ ॥
इस लोक में सुखानुभव करने के अनन्तर वह विष्णुलोक में जाता है और वहाँ सौं मन्वन्तरों के समय तक निश्चित रूप से निवास करता है ॥ २३ ॥

फलमुत्तरफाल्गुन्यां ततोऽपि द्विगुणं भवेत् ।
कल्पान्तजीवी स भवेदित्याह कमलोद्‌भवः ॥ २४ ॥
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में दोलोत्सव मनाने से दुगुना फल प्राप्त होता है और ऐसा व्यक्ति कल्पान्त पर्यन्त जीवित रहता है, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ २४ ॥

तिलदानं ब्राह्मणाय यः करोति च भारते ।
तिलप्रमाणवर्षं च मोदते विष्णुमन्दिरे ॥ २५ ॥
जो भारत में ब्राह्मण को तिल अर्पित करता है, वह उस तिल के दाने के बराबर वर्षों तक भगवान् विष्णु के धाम में आनन्द प्राप्त करता है ॥ २५ ॥

ततः स्वयोनिं संप्राप्य चिरजीवी भवेत्सुखी ।
ताम्रपात्रस्थदानेन द्विगुणं च फलं लभेत् ॥ २६ ॥
अनन्तर वह मनुष्य-योनि में उत्पन्न होकर चिरकाल तक सुखी जीवन व्यतीत करता है । तांबे के पात्र में तिल रखकर दान करने से दुगुना फल प्राप्त होता है ॥ २६ ॥

सालंकृतां च भोग्यां च सवस्त्रां सुन्दरीं प्रियाम् ।
यो ददाति ब्राह्मणाय भारते च पतिव्रताम् ॥ २७ ॥
महीयते चन्द्रलोके यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
तत्र स्वर्वेश्यया सार्धं मोदते च दिवानिशम् ॥ २८ ॥
जो अपनी प्रियतमा सुन्दरी स्त्री को, जो भोग के उपयुक्त एवं पतिव्रता हो, सुन्दर वस्त्र तथा अलङ्कारों से विभूषित करके ब्राह्मण को समर्पित करता है वह चौदहों इन्द्रों के समय तक चन्द्रलोक में पूजित होता है और वहाँ अप्सराओं के साथ दिनरात आनन्द का जीवन व्यतीत करता है ॥ २७-२८ ॥

ततो गन्धर्वलोके च वर्षाणामयुतं सति ।
दिवानिशं कौतुकेन चोर्वश्या सह मोदते ॥ २९ ॥
अनन्तर दश सहस्र वर्षों तक गन्धर्व लोक में उर्वशी के साथ दिनरात आमोदप्रमोद करता है ॥ २९ ॥

ततो जन्मसहस्रं च प्राप्नोति सुन्दरीं प्रियाम् ।
सतीं सौभाग्ययुक्तां च कोमलां प्रियवादिनीम् ॥ ३० ॥
उसके पश्चात् सहस्रों जन्मों तक (इस लोक में) अत्यन्त सुन्दरी प्रियतमा प्राप्त करता है, जो पतिव्रता, सौभाग्यशालिनी, अतिकोमलाङ्गी एवं मधुरभाषिणी होती है ॥ ३० ॥

ददाति सफलं वृक्षं ब्राह्मणाय च यो नरः ।
फलप्रमाणवर्षं च शक्रलोके महीयते ॥ ३१ ॥
जो ब्राह्मण को फलयुक्त वृक्ष प्रदान करता है, वह फल के बराबर वर्षों तक इन्द्र-लोक में पूजित होता है ॥ ३१ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य लभते सुतमुत्तमम् ।
सफलानां च वृक्षाणां सहस्रं च प्रशंसितम् ॥ ३२ ॥
अनन्तर मनुष्य योनि में उत्पन्न होकर परमोत्तम पुत्र प्राप्त करता है । फल लगे वृक्षों के दान की महिमा सहस्रगुण अधिक बतायी गई है ॥ ३२ ॥

केवलं फलदानं च ब्राह्मणाय ददाति यः ।
सुचिरं स्वर्गवासं च कृत्वा याति च भारतम् ॥ ३३ ॥
नानाद्रव्यसमायुक्तं नानासस्यसमन्वितम् ।
ददाति यश्च विप्राय भारते विपुलं गृहम् ॥ ३४ ॥
कुबेरलोके वसति स च मन्वन्तरावधि ।
ततः स्वयोनिं संप्राप्य महांश्च धनवान्भवेत् ॥ ३५ ॥
जो ब्राह्मण को केवल फल का ही दान करता है, वह अतिचिरकाल तक स्वर्गनिवास करके पुन: भारतवर्ष में जन्म पाता है । भारतवर्ष में रहनेवाला जो पुरुष अनेक द्रव्यों से सम्पन्न तथा भाँति-भांति के धान्यों से भरे-पूरे विशाल भवन ब्राह्मण को दान करता है, वह उसके फल-स्वरूप दीर्घकाल तक कुबेर के लोक में वास पाता है । तत्पश्चात् मनुष्ययोनि में जन्म पाकर वह महान् धनवान् होता है । ॥ ३३-३५ ॥

यो जनः सस्यसंयुक्तां भूमिं च रुचिरां सति ।
ददाति भक्त्या विप्राय पुण्यक्षेत्रे च वा सति ॥ ३६ ॥
महीयते स वैकुण्ठे मन्वन्तरशतं ध्रुवम् ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य महांश्च भूमिवान्भवेत् ॥ ३७ ॥
जो मनुष्य पुण्य क्षेत्र में या अन्यत्र फूली-फली मनोहर भूमि किसी ब्राह्मण को भक्तिपूर्वक अर्पित करता है, वह वैकुण्ठ लोक में सौ मन्वन्तरों के समय तक प्रतिष्ठित होता है, और पुन: अन्त में मनुष्ययोनि में उत्पन्न होकर महान 'भूमिस्वामी' बनता है ॥ ३६-३७ ॥

तं न त्यजति भूमिश्च जन्मनां शतकं परम् ।
श्रीमांश्च धनवांश्चैव पुत्रवांश्च प्रजेश्वरः ॥ ३८ ॥
सैकड़ों जन्मों तक भूमि उसका त्याग नहीं करती है और वह सदैव श्रीमान्, धनवान् एवं पुत्रवान् राजा बना रहता है ॥ ३८ ॥

सप्रजं च प्रकृष्टं च ग्रामं दद्याद्‌द्विजातये ।
लक्षमन्वन्तरं चैव वैकुण्ठे स महीयते ॥ ३९ ॥
जो प्रजाओं समेत परमोत्तम ग्राम ब्राह्मण को समर्पित करता है, वह वैकुण्ठ में एक लाख मन्वन्तर के समय तक पूजित होता है ॥ ३९ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य ग्रामलक्षं लभेद्ध्रुवम् ।
न जहाति च तं पृथ्वी जन्मनां लक्षमेव च ॥ ४० ॥
पुनः मानवकुल में उत्पन्न होकर एक लाख ग्रामों का अधीश्वर होता है और लाखों जन्मों तक पृथ्वी उसका त्याग नहीं करती है ॥ ४० ॥

सप्रजं सुप्रकृष्टं च पक्वसस्यसमन्वितम् ।
नानापुष्करिणीवृक्षं फलभोगसमन्वितम् ॥ ४१ ॥
नगरं यश्च विप्राय ददाति भारते भुवि ।
महीयते स वैकुण्ठे दशलक्षेन्द्रकालकम् ॥ ४२ ॥
भारत के भूतल पर जो प्रजाओं से सुशोभित अत्यन्त उन्नत, पकी हुई फसलों से सम्पन्न और अनेक बावलियों, फूले-फले वृक्षों से परिपूर्ण नगर ब्राह्मण को प्रदान करता है, वह दश लाख इन्द्रों के समय तक वैकुण्ठ में पूजित होता है ॥ ४१-४२ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ।
नगराणां च नियुतं लभते नात्र संशयः ॥ ४३ ॥
पुन: मनुष्यकुल में उत्पन्न होकर भारत का राजाधिराज होता है और एक लाख नगर उसके अधीन रहते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ४३ ॥

धरा तं न जहात्येव जन्मनां नियुतं ध्रुवम् ।
परमैश्वर्यसंयुक्तो भवेदेव महीतले ॥ ४४ ॥
ऐसे पुरुष को दस हजार जन्मों तक पृथ्वी नहीं छोड़ती है (अर्थात् वह पृथिवीपति होता है) । इस भूतल पर वह सदैव परम ऐश्वर्य से सम्पन्न रहता है । ॥ ४४ ॥

नगराणां च शतकं देशं यो हि द्विजातये ।
सुप्रकृष्टप्रजायुक्तं ददाति भक्तिपूर्वकम् ॥ ४५ ॥
वापीतडागसंयुक्तं नानावृक्षसमन्वितम् ।
महीयते स वैकुण्ठे कोटिमन्वन्तरावधि ॥ ४६ ॥
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य जम्बूद्वीपपतिर्भवेत् ।
परमैश्वर्यसंयुक्तो यथा शक्रस्तथा भुवि ॥ ४७ ॥
जो भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को सौ नगर का देश समर्पित करता है, जो अत्यन्त उन्नत एवं प्रजाओं से सुशोभित और बावली, तालाब एवं अनेक भांति के वृक्षों से विभूषित हो, वह करोड़ों मन्वन्तरों के समय तक वैकुण्ठ में प्रतिष्ठित होता है । अनन्तर मानव-कुल में उत्पन्न होकर 'जम्बूद्वीप' का 'अधीश्वर' होता है और इन्द्र की भांति इस भूतल पर महान् ऐश्वर्य का उपभोग करता है ॥ ४५-४७ ॥

मही तं न जहात्येव जन्मनां कोटिमेव च ।
कल्पान्तजीवी स भवेद्‌राजराजेश्वरो महान् ॥ ४८ ॥
करोड़ों जन्मों तक पृथिवी उसका त्याग नहीं करती है । वह चिरजीवी तथा महाराजाधिराज होता है ॥ ४८ ॥

स्वाधिकारं समग्रं च यो ददाति द्विजातये ।
चतुर्गुणं फलं चातो भवेत्तस्य न संशयः ॥ ४९ ॥
जो अपना समस्त अधिकार ब्राह्मण को समर्पित करता है, वह चौगुने फल का भागी होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४९ ॥

जम्बूद्वीपं यो ददाति ब्राह्मणाय पतिव्रते ।
फलं शतगुणं चातो भवेत्तस्य न संशयः ॥ ५० ॥
पतिव्रते ! जो ब्राह्मण को जम्बुद्वीप अर्पित करता है, उसे सौगुने फल प्राप्त होते है, इसमें संदेह नहीं ॥ ५० ॥

सप्तद्वीपमहीदातुः सर्वतीर्थानुसेविनः ।
सर्वेषां तपसां कर्तुः सर्वोपवासकारिणः ॥ ५१ ॥
सर्वदानप्रदातुश्च सर्वसिद्धेश्वरस्य च ।
अन्त्येव पुनरावृत्तिर्न भक्तस्य हरेरहो ॥ ५२ ॥
सातों द्वीप समेत इस भूमण्डल का दान करने वाले, समस्त तीर्थों की सेवा करने वाले, समस्त तपस्याओं में संलग्न रहने वाले, सम्पूर्ण उपवास-व्रत के पालक, सर्वस्व दान करने वाले तथा सम्पूर्ण सिद्धियों के पारंगत भी पुनः इस संसार में लौट कर आते हैं (अर्थात् जन्म ग्रहण करते हैं), किन्तु, आश्चर्य है कि भगवान् के भक्त यहाँ लौटकर नहीं आते (अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता है) ॥ ५१-५२ ॥

असंख्यब्रह्मणां पातं पश्यन्ति वैष्णवाः सति ।
निवसन्ति हि गोलोके वैकुण्ठे वा हरेः पदे ॥ ५३ ॥
वे वैष्णव गोलोक अथवा भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ स्थान में रहते हैं और वहीं से असंख्य ब्रह्मा का पात (उत्पत्ति और विलय) देखा करते हैं ॥ ५३ ॥

विष्णुमन्त्रोपासकश्च विहाय मानवीं तनुम् ।
बिभर्ति दिव्यरूपं च जन्ममृत्युजरापहम् ॥ ५४ ॥
भगवान् विष्णु के मन्त्र की उपासना करने वाले पुरुष अपने मानव-शरीर का त्याग कर जन्म, मृत्यु और जरा से रहित दिव्यरूप धारण करते हैं ॥ ५४ ॥

लब्ध्वा विष्णोश्च सारूप्यं विष्णुसेवां करोति च ।
स च पश्यति गोलोके ह्यसंख्यं प्राकृतं लयम् ॥ ५५ ॥
वहाँ वे विष्णु का सारूप्य पाकर गोलोक में भगवान् कृष्ण की सेवा करते हैं और असंख्य प्राकृत लय को देखते रहते हैं ॥ ५५ ॥

नश्यन्ति देवाः सिद्धाश्च विश्वानि निखिलानि च ।
कृष्णभक्ता न नश्यन्ति जन्ममृत्युजराहराः ॥ ५६ ॥
देवगण, सिद्धगण तथा समस्त विश्व का नाश हो जाता है, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त नष्ट नहीं होता । जन्म, मृत्यु एवं जरा उसके पास नहीं फटकती ॥ ५६ ॥

कार्तिके तुलसीदानं करोति हरये च यः ।
युगं पत्रप्रमाणं च मोदते हरिमन्दिरे ॥ ५७ ॥
जो कार्तिक मास में भगवान् को तुलसी दान करता है, वह उन पत्रों की संख्या के बराबर युगों तक भगवान् के धाम में आनन्द-जीवन प्राप्त करता है ॥ ५७ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य हरिभक्ति लभेद्ध्रुवम् ।
सुखी च चिरजीवी च स भवेद्‌भारते भुवि ॥ ५८ ॥
अनन्तर मानव-कुल में जन्म ग्रहण करके निश्चित ही हरिभक्त होता है और इस भारत भूतल पर सुखी रहकर चिरजीवन व्यतीत करता है ॥ ५८ ॥

घृतप्रदीपं हरये कार्तिके यो ददाति च ।
पलप्रमाणं वर्षं च मोदते हरिमन्दिरे ॥ ५९ ॥
जो कार्तिक में भगवान् को घृत का दीपक अर्पित करता है, वह जितने पल दीपक जलता है उतने वर्षों तक भगवान् के धाम में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य विष्णुभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
महाधनाढ्यः स भवेच्चक्षुष्मांश्चैव दीप्तिमान् ॥ ६० ॥
और अन्त में मानव कुल में उत्पन्न होकर भगवान् विष्ण की भक्ति निश्चित रूप से प्राप्त करता है तथा यहाँ महाधनवान्, नेत्र ज्योति से युक्त एवं कान्तिमान् होकर रहता है ॥ । ६० ॥

माघे यः स्नाति गङ्गायामरुणोदयकालतः ।
युगषष्टिसहस्राणि मोदते हरिमन्दिरे ॥ ६१ ॥
जो माघ मास में अरुणोदय के समय गंगा स्नान करता है, वह भगवान् विष्णु के धाम में साठ सहस्र युगों तक आनन्द प्राप्त करता है ॥ ६१ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य विष्णुर्भक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरः स भवेद्‌भारते भुवि ॥ ६२ ॥
पश्चात् मानव-कुल में उत्पन्न होकर भगवान् का निःसन्देह भक्त होता है और भारत में जितेन्द्रिय-शिरोमणि होता है ॥ ६२ ॥

माघे यः स्नाति गङ्‌गायां प्रयागे चारुणोदये ।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि लक्षमन्वन्तरावधि ॥ ६३ ॥
माघ मास में प्रयाग क्षेत्र की गंगा में अरुणोदय के समय स्नान करने वाला व्यक्ति एक लाख मन्वन्तरों के समय तक वैकुण्ठ में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ६३ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य विष्णुमन्त्रं लभेद्ध्रुवम् ।
त्यक्त्वा च मानुषं देहं पुनर्यातिहरेः पदम् ॥ ६४ ॥
नास्ति तत्पुनरावृत्तिर्वैकुण्ठाच्च महीतले ।
करोति हरिदास्यं च लब्ध्वा सारूप्यमेव च ॥ ६५ ॥
अनन्तर मानव-कुल में उत्पन्न होकर भगवान् विष्णु का मन्त्र निश्चित रूप से प्राप्त करता है और अन्त में इस मानव-शरीर का त्याग कर पुनः विष्णुलोक में चला जाता है । फिर उसे वैकुण्ठलोक से इस महीतल पर कभी नहीं आना पड़ता है । वहाँ सारूप्य मोक्ष प्राप्त कर वह भगवान् का पार्षद हो जाता है ॥ ६४-६५ ॥

नित्यस्नायी च गङ्‌गायां स पूतः सूर्यवद्‌भुवि ।
पदे पदेऽश्वमेधस्य लभते निश्चितं फलम् ॥ ६६ ॥
जो गंगा में नित्य स्नान करता है, वह इस भूतल पर सूर्य के समान पवित्र होता है और उसे पग-पग पर अश्वमेध का फल प्राप्त होता है ॥ ६६ ॥

तस्यैव पादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।
मोदते स च वैकुण्ठे यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ६७ ॥
उसके चरण-रज से वसुन्धरा सद्यः पवित्र हो जाती है तथा वह स्वयं वैकुण्ठ-लोक में सूर्य-चन्द्रमा के समय तक आनन्दानुभव करता है ॥ ॥ ६७ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य तपस्विप्रवरो भवेत् ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो विद्वांश्च सुजितेद्रियः ॥ ६८ ॥
पश्चात् मानव-कुल में उत्पन्न होकर वह श्रेष्ठ तपसी, स्वधर्मपरायण, शुद्ध, विद्वान् एवं जितेन्द्रिय होता है ॥ ६८ ॥

मीनकर्कटयोर्मध्ये गाढं तपति भास्करे ।
भारते यो ददात्येव जलमेव सुवासितम् ॥ ६९ ॥
मोदते स च वैकुण्ठे यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य सुखी निष्कपटो भवेत् ॥ ७० ॥
जो मीन और कर्कट के मध्यवर्तीकाल में सूर्य के बहुत तपने पर भारतवर्ष में सुवासित जल का दान करता है, वह वैकुण्ठ में चौदह इन्द्रों के काल तक आनन्द भोगता रहता है । फिर मनुष्य योनि में जन्म पाकर कपटरहित एवं सुखी होता है ॥ ६९-७० ॥

वैशाखे हरये भक्त्या यो ददाति च चन्दनम् ।
युगषष्टिसहस्राणि मोदते विष्णुमन्दिरे ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य रूपवांश्च सुखी भवेत् ॥ ७१ ॥
वैशाख मास में भगवान् को जो चन्दन अर्पित करता है, वह भगवान् के लोक में साट सहस्र युगों तक आनन्दानुभव करता है और पुनः मानव-कुल में उत्पन्न होकर रूपवान् एवं सुखी होता है ॥ ७१ ॥

यज्ञसूत्रेण तत्पुण्यं लभते नात्र संशयः ।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि कृष्णभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ७२ ॥
(यज्ञोपवीत दान करने से भी निःसन्देह वही पुण्य होता है और वह व्यक्ति वैकुण्ठ में आनन्द प्राप्त करता है तथा निश्चित रूप से कृष्ण-भक्ति भी उसे मिलती है । ) ॥ ७२ ॥

वैशाखे सक्तुदानं च यः करोति द्विजातये ।
सक्तुरेणुप्रमाणाब्दं मोदते विष्णुमन्दिरे ॥ ७३ ॥
वैशाख मास में जो द्विजातियों को सतुआ दान करता है, वह सत्तूकण के बराबर वर्षों तक विष्णु-धाम में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ७३ ॥

करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७४ ॥
भारतवर्ष में जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत करता है वह सैकड़ों जन्मों के पाप से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ ७४ ॥

वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य कृष्णभक्ति लभेद्ध्रुवम् ॥ ७५ ॥
वह भी वैकुण्ठ में चौदहों इन्द्रों के समय तक आनन्द-जीवन व्यतीत करता है । पश्चात् यहाँ मानवकुल में जन्म पाकर भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति निश्चित रूप से प्राप्त करता है ॥ ७५ ॥

इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः ।
मोदते शिवलोके च सप्तमन्वन्तरावधि ॥ ७६ ॥
इस भारतवर्ष में ही शिवरात्रि का व्रत करनेवाला व्यक्ति सात मन्वन्तरों के समय तक शिव-लोक में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ७६ ॥

शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः ।
पत्रप्रमाणं च युगं मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७७ ॥
शिवरात्रि के दिन जो भगवान् शिव को विल्वपत्र अर्पित करता है, वह पत्र-संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ७७ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य शिवभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान्प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥ ७८ ॥
पश्चात मानव-कुल में उत्पन्न होकर निश्चित रूप से शिवभक्ति प्राप्त करता है और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा और भूमि से सदैव सम्पन्न रहता है ॥ ७८ ॥

चैत्रमासेऽथवा माघे शंकरं योऽर्चयेद्‌व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७९ ॥
मासं वाऽप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि वा ।
दिनमानं युगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥ ८० ॥
चैत्र मास अथवा माघ मास में जो व्रत रखकर भगवान् शंकर की अर्चना करता है तथा हाथ में बेंत लेकर उनके सम्मुख रात-दिन सात दिन तक भक्तिपूर्वक नृत्य करता है वह चाहे एक दिन, आधा मास, दस दिन, सात दिन अथवा दो ही दिन या एक ही दिन ऐसा क्यों न करे, उसे दिन की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ॥ ७९-८० ॥

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते नरः ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे ॥ ८१ ॥
भारतवर्ष में जो मनुष्य रामनवमी व्रत सुसम्पन्न करता है, वह विष्णुलोक में सात मन्वन्तरों के समय तक आनन्द प्राप्त करता है ॥ ८१ ॥

पुनः स्वयोनिं संप्राप्य रामभक्ति लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धार्मिकोभवेत् ॥ ८२ ॥
पुनः मानवकुल में उत्पन्न होकर निश्चित रूप से राम-भक्ति प्राप्त करता है तथा जितेन्द्रिय शिरोमणि एवं महान् धार्मिक होता है ॥ ८२ ॥

शारदीयां महापूजां प्रकृतेर्यः करोति च ।
महिषैश्छागलैर्मेषैरिक्षुकूष्माण्डकैस्तथा ॥ ८३ ॥
नैवेद्यैरुपहारैश्च धूपदीपादिभिस्तथा ।
नृत्यगीतादिभिर्वाद्यैर्नानाकौतुकमङ्‌गलैः ॥ ८४ ॥
शिवलोके वसेत्सोऽपि सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य बुद्धिं च निर्मलां लभेत् ॥ ८५ ॥
अचलां श्रियमाप्नोति पुत्रपौत्रादिवर्धिनीम् ।
महाप्रभावयुक्तश्च गजवाजिसमन्वितः ॥ ८६ ॥
राजराजेश्वरः सोऽपि भवेदेव न संशयः ।
भाद्रशुक्लाष्टमीं प्राप्य महालक्ष्मीं च योऽर्चयेत् ॥ ८७ ॥
नित्यं भक्त्या पक्षमेकं पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
दत्त्वा तस्यै प्रकृष्टानि चोपचाराणि षोडश ॥ ८८ ॥
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
पुनः स्वयोनिं संप्राप्य राजराजेश्वरो भवेत् ॥ ८९ ॥
शारदीय नवरात्र में जो महादुर्गा की महापूजा करता है, जिसमें भैंसा, बकरी, भेंडा, ऊख, कूष्माण्ड (कुम्हड़ा) आदि नैवेद्यों , उपहारों तथा धूप-दीप आदि से महापूजा करता है, साथ ही नृत्य-गीत, वाद्य आदि के द्वारा अनेक भांति के मंगलमय उत्सव मनाता है, वह भी शिवलोक में सात मन्वन्तरों के समय तक निवास करता है और अन्त में पुन: मानव-कुल में उत्पन्न होकर निर्मल बुद्धि प्राप्त करता है, उसे पुत्र-पौत्रादि की अभिवृद्धि तथा अचल श्री की प्राप्ति होती है और वह स्वयं महाप्रभावशाली होकर गजराजों और अश्वों से सम्पन्न राजराजेश्वर होता है, इसमें संशय नहीं । पुण्यक्षेत्र भारत में भाद्रपद की शुक्ल-अष्टमी के अवसर पर जो एक पक्ष तक नित्य भक्तिभाव से महालक्ष्मी की उपासना करता है, सोलह प्रकार के उत्तम उपचारों से भलीभाँति पूजा करने में संलग्न रहता है, वह वैकुण्ठ धाम में चन्द्र और सूर्य के समय तक आनन्द प्राप्त करता है और पुनः मनुष्ययोनि में उत्पन्न होकर राजराजेश्वर होता है ॥ ८३-८९ ॥

कार्तिके पूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा ॥ ९० ॥
शिलायां प्रतिमायां वा श्रीकृष्णं राधया सह ।
भारते पूजयेद्‌दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ॥ ९१ ॥
गोलोके च वसेत्सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।
भारतं पुनरागत्य कृष्णभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ९२ ॥
भारत में कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन रासमण्डल की रचना करने के उपरान्त सौ गोप और सौगोपियों समेत राधाकृष्ण की पाषाणमयी प्रतिमा की षोडशोपचार से पूजा करने वाला व्यक्ति ब्रह्मा की आयु पर्यन्त गोलोक में निवास करता है और पश्चात् पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर निश्चित ही हरिभक्ति प्राप्त करता है ॥ ९०-९२ ॥

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरपि ।
देहं त्वक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः ॥ ९३ ॥
इस प्रकार क्रमशः वह भगवान् विष्णु की मन्त्रसमेत दृढ भक्ति प्राप्त कर अन्त में इस शरीर के छूटने पर पुनः गोलोक में चला जाता है ॥ ९३ ॥

तत्र कृष्णस्य सारूप्यं संप्राप्य पार्षदो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो महान् ॥ ९४ ॥
वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का सारूप्य मोक्ष प्राप्त कर उनका पार्षद बन जाता है । उसकी न तो जरा-मृत्यु होती है और न वहाँ से उसका पतन ही होता है ॥ ९४ ॥

शुक्लां वाप्यथवा कृष्णा करोत्येकादशीं च यः ।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः ॥ ९५ ॥
शुक्लपक्ष अथवा कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि का व्रत रहने वाला भी ब्रह्मा की आयु पर्यन्त वैकुण्ठ में आनन्द प्राप्त करता है ॥ ९५ ॥

भारतं पुनरागत्य हरिभक्तिं लभेद् ध्रुवम् ।
पुनर्याति च वैकुण्ठं न तस्य पतनं भवेत् ॥ ९६ ॥
और अन्त में भारतवर्ष में जन्म लेने पर निश्चित रूप से भगवान् विष्णु की भक्ति प्राप्त करता है । जिसके प्रभाव से वह यहाँ से पुनः वैकुण्ठ में जाता है और वहाँ से उसका कभी पतन नहीं होता है ॥ ९६ ॥

भाद्रे शुक्ले च द्वादश्यां यः शक्रं पूजयेन्नरः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि शक्रलोके महीयते ॥ ९७ ॥
भादों मास की शुक्ल-द्वादशी के दिन जो इन्द्र की पूजा करता है, वह साट सहस्र वर्षों तक इन्द्रलोक में आनन्द-जीवन प्राप्त करता है ॥ ९७ ॥

रविवारेऽर्कसंक्रान्त्यां सप्तम्यां शुक्लपक्षतः ।
संपूज्यार्क हविष्यान्नं यः करोति च भारते ॥ ९८ ॥
महीयते सोऽर्कलोके यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ॥ ९९ ॥
जो व्यक्ति भारतवर्ष में रविवार, सूर्य संक्रान्ति और शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन सूर्य की पूजा करके हविष्यान्न दान करता है, वह चन्द्रसूर्य के समय तक सूर्य-लोक में सम्मानित होता है और अन्त में भारत आने पर नीरोग एवं श्रीसम्पन्न होता है ॥ ९८-९९ ॥

ज्येष्ठशुक्लचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत् ।
महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ॥ १०० ॥
ज्येष्ठ मास की शुक्ल-चतुर्दशी के दिन जो सावित्री देवी की पूजा करता है, वह ब्रह्मलोक में सात मन्वन्तरों के समय तक पूजित होता है ॥ १०० ॥

पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ।
चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्संपदा युतः ॥ १०१ ॥
अन्त में यहाँ जन्मग्रहण करने पर श्रीमान्, अतुल पराक्रमी, चिरजीवी, ज्ञानी एवं महान् धनी होता है ॥ १०१ ॥

माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ।
संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ॥ १०२ ॥
महीयते स वैकुण्ठे यावद्‌ब्रह्मदिवानिशम् ।
संप्राप्य च पुनर्जन्म स भवेत्कविपण्डितः ॥ १०३ ॥
माघ मास की शुक्ल पञ्चमी के दिन संयत होकर जो भक्तिभाव के माथ षोडशो१चार से सरस्वती देवी की अर्चना करता है, वह ब्रह्मा के समय तक वैकुण्ठ में रात्रिदिन पूजित होता है और अन्त में पुनः जन्म ग्रहण करने पर कवि पण्डित होता है ॥ १०२-१०३ ॥

गां सुवर्णादिकं यो हि ब्राह्मणाय ददाति च ।
नित्यं जीवनपर्यन्तं भक्तियुक्तश्च भारते ॥ १०४ ॥
गवां लोमप्रमाणाब्दं द्विगुणं विष्णुमन्दिरे ।
मोदते हरिणा सार्धं क्रीडाकौतुकमङ्‌गलैः ॥ १०५ ॥
भारत में जो मनुष्य अपने जीवनकाल तक प्रतिदिन भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गौ या सुवर्णदान अर्पित करता है, वह उन गौओं के लोमों के दुगने वर्षों तक विष्णु-लोकः में भगवान् के साथ क्रीड़ा एवं मंगल कौतुक करते हुए आनन्द जीवन व्यतीत करता है ॥ १०४-१०५ ॥

ततः पुनरिहाऽऽगत्य विष्णुभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
ततः पुनरिहाऽऽगत्य राजराजेश्वरो भवेत् ।
गोमांश्च पुत्रवान्विद्वाञ्ज्ञानवान्सर्वतः सुखी ॥ १०६ ॥
पुनः अन्त में यहाँ आने पर निश्चित रूप से विष्णभक्ति प्राप्त करता है । पश्चात् पुनः विष्णुलोक से लौटकर वह राजाधिराज, प्रशस्त गौओं से युक्त, पुत्रवान्, विद्वान्, ज्ञानवान् तथा सब प्रकार से सुखी होता है । ॥ १०६ ॥

भोजयेद्यो हि मिष्टान्नं ब्राह्मणेभ्यश्च भारते ।
विप्रलोमप्रमाणाब्दं मोदते विष्णुमन्दिरे ॥ १०७ ॥
ततः पुनरिहाऽऽगत्य स सुखी धनवान्भवेत् ।
विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः ॥ १०८ ॥
भारत में जो ब्राह्मणों को मिष्टान्न (मिठाई) भोजन कराता है, वह ब्राह्मणों के लोम जितने वर्षों तक विष्णुलोक में आनन्द प्राप्त करता है । पश्चात् यहाँ आने पर वह सुखी, धनी, विद्वान्, अतिचिरजीवी, श्रीमान् और अतुल पराक्रमी होता है ॥ १०७-१०८ ॥

यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते ।
युगं नामप्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ॥ १०९ ॥
भारत में जो भगवान् विष्णु के नामों को कहता रहता है या (लिखकर) देता है, वह नाम-संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में पूजित होता है ॥ १०९ ॥

ततः पुनरिहाऽऽगत्य विष्णुभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
यदि नारायणक्षेत्रे फलं कोटिगुणं लभेत् ॥ ११० ॥
पुनः यहाँ आने पर निश्चित ही भगवान् की भक्ति प्राप्त करता है । यदि नारायण क्षेत्र में उसने यह पुण्य कम किया है, तो उसे करोड़ गुना अधिक फल प्राप्त होता है ॥ ११० ॥

नाम्नां कोटिं हरेर्यो हि क्षेत्रे नारायणे जपेत् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो जीवन्मुक्तो भवेद्ध्रुवम् ॥ १११ ॥
जो नारायण क्षेत्र में भगवान् के नामों का करोड़ बार जप करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर जीवन्मुक्त हो जाता है, यह ध्रुव है ॥ १११ ॥

लभते न पुनर्जन्म वैकुण्ठे स महीयते ।
लभेद्विष्णोश्च सारूप्यं न तस्य पतनं भवेत् ॥ ११२ ॥
उसका पुनर्जन्म नहीं होता है । वह वैकुण्ठ में पूजित होता है । पश्चात् विष्णु का सारूप्य मोक्ष प्राप्त करने से उसका कभी वहाँ से पतन नहीं होता है ॥ ११२ ॥

यः शिवं पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं च पार्थिवम् ।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११३ ॥
मृदां रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहाऽऽगत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ॥ ११४ ॥
जो व्यक्ति नित्य पार्थिव शिवलिंग बनाकर शिवजी की पूजा करता है और जीवन भर इस नियम का पालन करता है, वह भगवान शिव के लोक में जाता है और (पार्थिव शिवलिंग की) मृत्तिका के रेणु-कण जितने वर्षों तक वहाँ प्रतिष्ठित होता है । पश्चात् पुनः भारतवर्ष में आने पर राजेन्द्र-पद को सुशोभित करता है ॥ ११३-११४ ॥

शिलां च योऽर्चयेन्नित्यं शिलातोयं च भक्षति ।
महीयते स वैकुण्ठे यावद्वै ब्रह्मणः शतम् ॥ ११५ ॥
ततो लब्ध्वा पुनर्जन्म हरिभक्तिं सुदुर्लभाम् ।
महीयते विष्णुलोके न तस्य पतनं भवेत् ॥ ११६ ॥
जो व्यक्ति (शालग्राम) शिला का नित्य पूजन करता है और उनका चरणोदक लेता है, वह सौ ब्रह्मा के समय तक वैकुण्ठ में पूजित होता है । पश्चात् पुनः भारतवर्ष में आने पर भगवान् की अतिदुर्लभ भक्ति प्राप्त करके पुनः विष्णुलोक में जाता है और वहाँ से उसका पतन कभी नहीं होता है ॥ ११५-११६ ॥

तपांसि चैव सर्वाणि व्रतानि निखिलानि च ।
कृत्वा तिष्ठति वैकुण्ठे यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ११७ ॥
सकल तप और समस्त व्रतों का अनुष्ठान करके मनुष्य वैकुण्ठ में चौदहों इन्द्रों के समय तक निवास करता है ॥ ११७ ॥

ततो लब्ध्वा पुनर्जन्म राजेन्द्रो भारते भवेत् ।
ततो मुक्तो भवेत्पश्चात्पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ११८ ॥
अनन्तर यहाँ भारत में जन्म लेकर राजेन्द्र होता है और अन्त में मुक्त हो जाता है । फिर उसका जन्म नहीं होता है ॥ ११८ ॥

यः स्नाति सर्वतीर्थेषु भुवः कृत्वा प्रदक्षिणाम् ।
स च निर्वाणतां याति न तज्जन्म भवेद्‌भुवि ॥ ११९ ॥
जो पृथिवी की परिक्रमा करते हुए समस्त तीर्थों में स्नान करता है, वह 'निर्वाण पद' प्राप्त करता है, और पृथ्वी पर उसका जन्म नहीं होता है ॥ ११९ ॥

पुण्यक्षेत्रे भारते च योऽश्वमेधं करोति च ।
अश्वलोमप्रमाणाब्दं शक्रस्यार्धासने वसेत् ॥ १२० ॥
जो इस पुण्य क्षेत्र भारत में अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न करता है, वह अश्व के लोम जितने वर्षों तक इन्द्र के आधे सिंहासन पर सुशोभित होता है ॥ १२० ॥

चतुर्गणं राजसूये फलमाप्नोति मानवः ।
नरमेधेऽश्वमेधार्धं गोमेधे च तदेव च ॥ १२१ ॥
राजसूय यज्ञ करने पर मनुष्य को अश्वमेध का चौगुना फल प्राप्त होता है, नरमेध यज्ञ में उसका आधा और गोमेध यज्ञ में भी उतना ही फल प्राप्त होता है ॥ १२१ ॥

पुत्रेष्टौ च तदर्धं च सुपुत्रं च लभेद्ध्रुवम् ।
लभते लाङ्‌गलेष्टौ च गोमेधसदृशं फलम् ॥ १२२ ॥
तत्समानं च विप्रेष्टौ वृद्धियागे च तत्फलम् ।
पद्मयज्ञे तदर्धं च फलमाप्नोति मानवः ॥ १२३ ॥
पुत्रेष्टि यज्ञ में उसका आधा फल तथा उत्तम पुत्र प्राप्त होता है । और लाङ्गलेष्टि यज्ञ में गोमेध के समान फल प्राप्त होता है । उसी प्रकार विप्रेष्टि और वृद्धियाग में उसके समान फल प्राप्त होता है, पद्मयज्ञ में मानव को उसका आधा फल प्राप्त होता है ॥ १२२-१२३ ॥

विशोके च विशोकं च पद्मार्धं स्वर्गमश्नुते ।
विजये विजयी राजा स्वर्गं पद्मसमं लभेत् ॥ १२४ ॥
विशोक यज्ञ करने वाला व्यक्ति विगतशोक होकर पद्मयज्ञ के आधे फलस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करता है । विजय यज्ञ करने वाला राजा विजयी होकर पद्मयज्ञ के समान फल प्राप्त करते हुए स्वर्ग-सुख का उपभोग करता है ॥ १२४ ॥

प्राजापत्ये प्रजालाभो भूवृद्धिर्भूभृतां भवेत् ।
इह राजश्रियं लब्ध्वा पद्मार्धं स्वर्गमश्नुते ॥
ऋद्धियागे महैश्वर्यं स्वर्गं पद्मसमं भवेत् ॥ १२५ ॥
प्राजापत्य यज्ञ सम्पन्न करने पर राजाओं को प्रजालाभ और भूमिवृद्धि होती है । यहाँ राज्यलक्ष्मी का सुखोपभोग करके अन्त में पद्मयज्ञ के आधे फलस्वरूप स्वर्ग प्राप्त करता है । ऋद्धि याग के महान् ऐश्वर्य और पद्म के समान फलस्वरूप स्वर्ग प्राप्त होता है ॥ १२५ ॥

विष्णुयज्ञः प्रधानं च सर्वयज्ञेषु सुन्दरि ।
ब्रह्मणा च कृतः पूर्वं महासंभारसंयुतः ॥ १२६ ॥
सुन्दरि ! समस्त यज्ञों में भगवान विष्णु का यज्ञ सर्वप्रधान है । जिसे पूर्व समय में ब्रह्मा ने बड़े धूमधाम से सम्पन्न किया था ॥ १२६ ॥

बभूव कलहो यत्र दक्षशंकरयोःसति ।
शेपुश्च नन्दिनं विप्रा नन्दी विप्रांश्च कोपतः ॥ १२७ ॥
यतो हेतोर्दक्षयज्ञं बभञ्ज चन्द्रशेखरः ।
चकार विष्णुयज्ञं च पुरा दक्षप्रजापतिः ॥ १२८ ॥
जहाँ भगवान् शंकर और दक्ष का झगड़ा हुआ था, जिसमें क्रुद्ध होकर ब्राह्मणों ने नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को तथा जिसके कारण चन्द्रशेखर ने दक्ष का यज्ञ भंग किया था, वहाँ पूर्व समय में दक्षप्रजापति ने विष्णु यज्ञ ही किया था ॥ १२७-१२८ ॥

धर्मश्च कश्यपश्चैव शेषश्चापि च कर्दमः ।
स्वायंभुवो मनुश्चैव तत्पुत्रश्च प्रियव्रतः ॥ १२९ ॥
शिवः सनत्कुमारश्च कपिलश्च ध्रुवस्तथा ।
राजसूयसहस्राणां समृद्ध्या च क्रतुर्भवेत् ॥ १३० ॥
राजसूयसहस्राणां फलमाप्नोति निश्चितम् ।
विष्णुयज्ञात्परो यज्ञो नास्ति वेदे फलप्रदः ॥ १३१ ॥
उसी प्रकार धर्म, कश्यप, शेष, कर्दम, स्वायम्भुव मनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल और ध्रुव ने भी विष्णुयज्ञ सम्पन्न किया था । समृद्धि होने पर ही सहस्रों राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया जा सकता है । किन्तु विष्णुयज्ञ करने से सहस्रों राजसूय यज्ञों के फल प्राप्त होते हैं । अतएव विष्णुयज्ञ से बढ़कर फल देने वाला कोई यज्ञ नहीं है, ऐसा वेद में बताया गया है ॥ १२९-१३१ ॥

बहुकल्पान्तजीवी च जीवन्मुक्तो भवेद्ध्रुवम् ।
ज्ञानेन तेजसा चैव विष्णुतुल्यो भवेदिह ॥ १३२ ॥
उसे सुसम्पन्न करने से मनुष्य बहुत कल्पों का जीवन तथा निश्चित जीवन्मुक्ति प्राप्त करता है और यहाँ ज्ञान एवं तेज में भगवान् विष्णु के समान होता है ॥ १३२ ॥

देवानां च यथा विष्णुर्वैष्णवानां यथा शिवः ।
शास्त्राणां च यथा वेदा आश्रमाणां च ब्राह्मणाः ॥ १३३ ॥
तीर्थानां च यथा गङ्‌गा पवित्राणां च वैष्णवाः ।
एकादशी व्रतानां च पुष्पाणां तुलसी यथो ॥ १३४ ॥
नक्षत्राणां यथा चन्द्रः पक्षिणां गरुडो यथा ।
यथा स्त्रीणां च प्रकृतिराधाराणां वसुंधरा ॥ १३५ ॥
शीघ्रगानां चेन्द्रियाणां चञ्चलानां यथा मनः ।
प्रजापतीनां ब्रह्मा च प्रजेशानां प्रजापतिः ॥ १३६ ॥
वृन्दावनं वनानां च वर्षाणां भारतं यथा ।
श्रीमतां च यथा श्रीश्च विदुषां च सरस्वती ॥ १३७ ॥
पतिव्रतानां दुर्गा च सौभाग्यानां च राधिका ।
विष्णुयज्ञस्तथा वत्से यज्ञेषु च महानिति ॥ १३८ ॥
जिस प्रकार देवों में भगवान् विष्ण, वैष्णवों में शिव, शास्त्रों में वेद, आश्रमों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पवित्रों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में प्रकृति, आधारों में पृथिवी, शीघ्रगामी तथा चंचल इन्द्रियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजा-प्रभुओं में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारत, श्रीमानों में श्री, विद्वानों में सरस्वती, पतिव्रताओं में दुर्गा और सौभाग्यों में श्री राधिका जी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार हे वत्से ! समस्त यज्ञों में विष्णुयज्ञ महान श्रेष्ठ है ॥ १३३-१३८ ॥

अश्वमेधशतेनैव शक्रत्वं लभते ध्रुवम् ।
सहस्रेण विष्णुपदं संप्राप पृथुरेव च ॥ १३९ ॥
इस प्रकार सौ अश्वमेघ यज्ञ सुसम्पन्न करने से इन्द्रपद प्राप्त होता है । राजा पृथु ने एक सहस्र अश्वमेघयज्ञ सुसम्पन्न करने के द्वारा विष्णु पद प्राप्त किया था ॥ १३९ ॥

स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणम् ।
सर्वेषां च व्रतानां च तपसां फलमेव च ॥ १४० ॥
पाठश्चतुर्णा वेदानां प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ।
फलं बीजमिदं सर्वं मुक्तिदं कृष्णसेवनम् ॥ १४१ ॥
इसलिए समस्त तीर्थों के स्नान, समस्त यज्ञों की दीक्षा, सम्पूर्ण व्रतों एवं सभी भाँति की तपस्याओं, चारों वेदों के पाठ और सम्पूर्ण पृथिवी की प्रदक्षिणा के फल का बीज एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है, जो मुक्ति प्रदान करती है ॥ १४०-१४१ ॥

पुराणेषु च वेदेषु चेतिहासेषु सर्वतः ।
निरूपितं सारभूतं कृष्णपादाम्बुजार्चनम् ॥ १४२ ॥
क्योंकि पुराणों, वेदों एवं सभी इतिहासों में यही निष्कर्ष (निचोड़) बताया गया है कि 'किसी भांति भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल की अर्चना करो' ॥ १४२ ॥

तद्वर्णनं च तद्ध्यानं तन्नामगुणकीर्तनम् ।
तत्स्तोत्रं स्मरणं चैव वन्दनं जप एव च ॥ १४३ ॥
तत्पादोदकनैवेद्यभक्षणं नित्यमेव च ।
सर्वसंमतमित्येवं सर्वेप्सितमिदं सति ॥ १४४ ॥
इस प्रकार उन्हीं का वर्णन, उन्हीं का ध्यान, उनके नामों और गुणों का गान, उन्हीं का स्तोत्र, स्मरण, वन्दन एवं जप करके नित्य उन्हीं के चरणोदक नैवेद्य का भक्षण करना चाहिये । सभी मनोरथ सफल करने के नाते यह सर्वसम्मत से कहा गया है ॥ १४३-१४४ ॥

भज कृष्णं परं ब्रह्म निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
गृहाण स्वामिनं वत्से सुखं गच्छ स्वमन्दिरम् ॥ १४५ ॥
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण को ही भजो, जो परब्रह्म, निर्गण एवं प्रकृति से परे हैं । अत: हे वत्से ! यह लो अपने पतिदेव को और सुखपूर्वक अपने घर जाओ ॥ १४५ ॥

एतत्ते कथितं सर्व विपाकं कर्मणां नृणाम् ।
सर्वेप्सितं सर्वमतं परं तत्त्वप्रदं नृणाम् ॥ १४६ ॥
मनुष्यों के समस्त कर्मों के फल तुम्हें मैंने इस प्रकार कहकर सुना दिया, जो सभी को अभीष्ट, सर्वसम्मत एवं मनुष्यों के लिए परम ज्ञानप्रद है ॥ १४६ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे
शुभकर्मविपाककथनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में सावित्री-यम संवाद में शुभकर्मों के फल-वर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २७ ॥

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