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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टाविंशोऽध्यायः सावित्र्युपाख्याने सावित्रीकृतयमस्तोत्रम् -
सावित्रीकृत यमस्तोत्र - श्रीनारायण उवाच हरेरुत्कीर्तनं श्रुत्वा सावित्री यमवक्त्रतः । साश्रुनेत्रा सपुलका यमं पुनरुवाच सा ॥ १ ॥ श्री नारायण बोले-यम के मुख से भगवान् विष्णु का गुणानुवाद सुनकर सावित्री के नेत्र में आँसू आ गये और (हर्षातिरेक से) रोमांच हो आया । अनन्तर उसने पुनः यम से कहा ॥ १ ॥ सावित्र्युवाच हरेरुत्कीर्तनं धर्म स्वकुलोद्धारकारणम् । श्रोतृणां चैव वक्तृणां जन्ममृत्युजराहरम् ॥ २ ॥ सावित्री बोली हे धर्म ! भगवान् विष्णु का कीर्तन करना, श्रोता-वक्ता दोनों कुल के उद्धार का हेतु है ,क्योंकि वह उनकी जरा, मृत्यु एवं जन्म का अपहरण करता है ॥ २ ॥ दानानां च व्रतानां च सिद्धीनां तपसां परम् । योगानां चैव वेदानां सेवनं कीर्तनं हरेः ॥ ३ ॥ इसलिए सभी भाँति के दानों, व्रतों, सिद्धियों, तपस्याओं, योगों के अभ्यास और वेदों के पठन-पाठन की अपेक्षा भगवान् विष्णु का कीर्तन करना अति उत्तम है ॥ ३ ॥ मुक्तत्वममरत्वं वा सर्वसिद्धित्वमेव वा । श्रीकृष्णसेवनस्यैव कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४ ॥ इसीलिए कहा भी है कि मोक्ष, अमरपद, तथा समस्त सिद्धियाँ, ये भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा के सोलहवें अंश के समान भी नहीं हैं ॥ ४ ॥ भजामि केन विधिना श्रीकृष्णं प्रकृतेः परम् । मूढां मामबलां तात वद वेदविदां वर ॥ ५ ॥ अतः हे तात ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! किस विधि से उस प्रकृति से परे भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करूँ, यह मुझ अबला को बताने की कृपा करें ॥ ५ ॥ शुभकर्मविपाकं च श्रुतं नृणां मनोहरम् । कर्माशुभविपाकं च तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥ और मनुष्यों के शुभ कर्मों के मनोहर फल को तो मैंने सुन लिया है, किन्तु उनके अशुभ कर्मों के फल भी जानने की इच्छा है, अतः आप बतायें ॥ ६ ॥ इत्युक्त्वा सा सती ब्रह्मन्भक्तिनम्रात्मकंधरा । तुष्टाव धर्मराजं च वेदोक्तेन स्तवेन च ॥ ७ ॥ हे ब्रह्मन् ! इतना कहकर उस साध्वी ने भक्ति से कन्धे को झुकाकर वेदोक्त स्तुति द्वारा धर्मराज की स्तुति करना आरम्भ कर दिया ॥ ७ ॥ सावित्र्युवाच तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा । धर्मांशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम् ॥ ८ ॥ सावित्री बोली-पहले समय में भगवान् भास्कर ने पुष्कर क्षेत्र में जाकर तप द्वारा धर्म की आराधना की । उससे उन्होंने जिस धर्म-अंश पुत्र की प्राप्ति की, उस धर्मराज को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ ८ ॥ समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः । अतो यन्नाम शमनमिति तं प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥ जो समस्त का साक्षी है और समस्त प्राणियों में समता का भाव रखता है, तथा जिसका 'शमन' नाम है, मैं उसे प्रणाम कर रही हूँ ॥ ९ ॥ येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम् । कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम् ॥ १ ० ॥ सारे विश्व में सभी प्राणियों के कर्मानुरूप काल द्वारा जिन्होंने सबका अन्त (नाश) किया है, उसकृतान्त को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ १० ॥ बिभर्ति दण्डं दण्ड्याय पापिनां शुद्धिहेतवे । नमामि तं दण्डधरं यः शास्ता सर्वकर्मणाम् ॥ ११ ॥ पापियों के शुद्ध होने के लिए जो उन्हें दण्ड देता है और समस्त कर्मों का शास्ता है, उस दण्डधारी को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ ११ ॥ विश्वे यः कलयत्येव सर्वायुश्चापि संततम् । अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम् ॥ १२ ॥ समस्त विश्व में जो सभी की आयु को निरन्तर कवल (ग्रास) बनाता रहता है, उस अतिदुनिवार काल को मैं प्रणाम कर रही हूँ ॥ १२ ॥ तपस्वी वैष्णवो धर्मी संयमी विजितेन्द्रियः । जीविनो कर्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम् ॥ १ ३ ॥ तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, संयमी एवं इन्द्रियजित् आदि जीवों को उनके कर्मफल देने वाले उस यम को मैं प्रणाम कर रही हूँ ॥ १३ ॥ स्वात्मारामश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत् । पापिनं क्लेशदो यस्य पुत्रो मित्रो नमाम्यहम् ॥ १४ ॥ अपने आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्माओं के मित्र और पापियों को (दण्डरूप में) दुःख देने वाले उस पुण्यात्मा मित्र को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ १४ ॥ यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम् ॥ १५ ॥ जिसने ब्रह्मा के वंश में जन्म ग्रहण किया है, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त हो रहा है और जो परब्रह्म का ध्यान करता है, उस ब्रह्म-वंश को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ १५ ॥ इत्युक्त्वा सा च सावित्री प्रणनाम यमं मुने । यमस्तां विष्णुभजनं कर्मपाकमुवाच ह ॥ १६ ॥ इदं यमाष्टकं नित्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । यमात्तस्य भयं नास्ति सर्वपापात्प्रमुच्यते ॥ १७ ॥ हे मुने ! इतना कह कर उस सावित्री ने यम को प्रणाम किया और यम ने उसको विष्णु का भजन तथा कर्मों का फल बताया । इस प्रकार प्रातःकाल उठकर नित्य जो पुरुष इस यमाष्टक (यम के आठ श्लोकों) का पाठ करता है, उसे यम से भय नहीं होता है और वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १६-१७ ॥ महापापी यदि पठेन्नित्यं भक्त्या च नारद । यमः करोति तं शुद्धं कायव्यूहेन निश्चितम् ॥ १८ ॥ हे नारद ! यदि महापापी भी भक्तिपूर्वक नित्य इसका पाठ करता है, तो यम उसे कायाकल्प के द्वारा निश्चित शुद्ध कर देते हैं ॥ १८ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने सावित्रीकृतयमस्तोत्र नामाष्टाविशोऽध्यायः ॥ २८ ॥ श्रीब्रह्मावर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में सावित्रीकृत गर्भस्तोत्र-वर्णन नामक अटठाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २८ ॥ |