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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रिंशोऽध्यायः सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे कर्मविपाके पापिनरकनिरूपणं
शिवप्राशस्त्यं बह्महत्यादिपदार्थपरिभाषानिरूपणम् - पापियों के नरक-भोग का वर्णन - यम उवाच हरिसेवारतः शुद्धो योगी सिद्धो व्रती सति । तपस्वी ब्रह्मचारी च न याति नरकं यतिः ॥ १ ॥ यम बोले-भगवान की सेवा में मग्न रहनेवाले, शुद्ध (अन्तःकरण),योगी, सिद्ध, व्रती, तपस्वी, ब्रह्मचारी और संन्यासी नरक नहीं जाते हैं ॥ १ ॥ कटुवाचा बान्धवांश्च खेलत्वेन च यो नरः । दग्धान्करोति बलवान्वह्निकुण्डं प्रयाति सः ॥ २ ॥ किन्तु जो बलवान् खल पुरुष अपनी दुष्टता के नाते कटु वाणी द्वारा बान्धवों को जलाया करता है, वह अग्नि कुण्ड नामक नरक में जाता है ॥ २ ॥ गात्रलोमप्रमाणाब्दं तत्र स्थित्वा हुताशने । पशुयोनिमवाप्नोति रौद्रे दग्धस्त्रिजन्मनि ॥ ३ ॥ वहाँ भीषण अग्निकुण्ड में शरीर के लोम प्रमाण वर्ष तक जलते हुए रहकर अन्त में तीन जन्म तक पशु-योनि में जन्म ग्रहण करता है ॥ ३ ॥ ब्राह्मणं तृषितं तप्तं क्षुधितं गृहमागतम् । न भोजयति यो मूढस्तप्तकुण्डं प्रयाति सः ॥ ४ ॥ घर आये हुए भूखे, प्यासे एवं अति संतप्त ब्राह्मण को जो भोजन नहीं कराता है, वह मूर्ख तप्तकुण्ड में जाता है ॥ ४ ॥ तत्र लोमप्रमाणाब्दं स्थित्वा तत्र च दुःखितः । तप्तस्थले वह्निकुण्डे पक्षी च सप्तजन्मसु ॥ ५ ॥ वहाँ लोम के प्रमाण वर्ष तक दुःखों का अनुभव करके अन्त में सात जन्म तक पक्षी होता है ॥ ५ ॥ रविवारार्कसंक्रान्त्याममायां श्राद्धवासरे । वस्त्राणां क्षारसंयोगं करोति यो हि मानवः ॥ ६ ॥ स याति क्षारकुण्डं च सूत्रमानाब्दमेव च । स व्रजेद्राजको योनिं सप्तजन्मसु भारते ॥ ७ ॥ जो मनुष्य रविवार, सूर्य की संक्रान्ति अमावस्या और श्राद्ध के दिन वस्त्रों में खारी मिट्टी (रेह, साबुन आदि) लगाता है, वह उस वस्त्र के सूत प्रमाण वर्ष तक क्षार कुण्ड में दुःखानुभव करता है और अन्त में भारत में सात जन्म तक धोबी के यहाँ उत्पन्न होता है ॥ ६-७ ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेत्तु यः । यो हरेद्भारते वर्षे विट्कुण्डं च प्रयाति सः ॥ ८ ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि विड्भोजी तत्र तिष्ठति । षष्टिवर्षसहस्राणि विट्कृमिश्च पुनर्भुवि ॥ ९ ॥ जो प्राणी अपने द्वारा या दूसरे के द्वारा दी गयी ब्राह्मण वृत्ति का अपहरण करता है, वह साठ सहस्र वर्ष तक विट् (विष्ठा) कुण्ड में (कीड़ा होकर) पड़ा रहता है और वहाँ उतने दिन वही विट (विष्ठा) भोजन करता है और अन्त में पृथिवी पर उतने ही दिन विष्ठा का कीड़ा होता है ॥ ८-९ ॥ परकीयतडागे च तडागं यः करोति च । उत्सृजेद्दैवदोषेण मूत्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ १० ॥ दुर्भाग्यवश जो दूसरे के तालाब को अपना कहकर उसे खोदवाता है, तो वह (अन्त में) मूत्रकुण्ड में जाता है ॥ १० ॥ तद्रेणुभानवर्षं च तद्भोजी तत्र तिष्ठति । भारते गोधिका चैव स भवेत्सप्तजन्मसु ॥ ११ ॥ और वहाँ उसके रेणु प्रमाण वर्ष तक उसी का भोजन करते हुए जीवन व्यतीत करता है । पश्चात् (जन्म ग्रहणार्थ) भारत आने पर सात जन्मों तक गोधा (गोह) होता है ॥ ११ ॥ एकाकी मिष्टमश्नाति श्लेष्मकुण्डं प्रयाति सः । पूर्णमब्दशतं चैव तद्भोजी तत्र तिष्ठति ॥ १२ ॥ पूर्णमब्दशतं चैव स प्रेतो भारते भवेत् । श्लेष्ममूत्रगरं चैव तद्भोजी तत्र तिष्ठति ॥ १३ ॥ अकेले मिष्ठान्न भोजी प्राणी श्लेष्म (कफ) कुण्ड में जाता है और वहाँ पूरे सौ वर्ष तक वही भक्षण करते हुए रहता है । पश्चात् यहाँ भारत में सौ वर्ष प्रेतयोनि में जन्मग्रहण करता है । और रात्रि-दिन कफ, मूत्र तथा विष खाता रहता है । अनन्तर शुद्ध होता है ॥ १२-१३ ॥ पितरं मातरं चैव गुरुं भार्यां सुतं सुताम् । यो न पुष्णात्यनाथं च गरकुण्डं प्रयाति सः ॥ १४ ॥ पूर्णमब्दसहस्रं च तद्भोजी तत्र तिष्ठति । ततो व्रजेद्भूतयोनिं शतवर्षं ततः शुचिः ॥ १५ ॥ पिता, माता, गुरु, स्त्री, पुत्र, कन्या और अनाथ का जो पालन नहीं करता है, वह गरकुण्ड नामक नरक में जाता है और पूरे सहस्र वर्ष तक वही खा कर वहाँ रहता है । पश्चात् यहाँ सौ वर्ष तक भूतयोनि में उत्पन्न होता है, अनन्तर शुद्ध होता है ॥ १४-१५ ॥ दृष्ट्वाऽतिथिं वक्रचक्षुः करोति यो हि मानवः । पितृदेवास्तस्य जलं न गृह्णन्ति च पापिनः ॥ १६ ॥ जो मनुष्य (घर आये) अतिथि को देखकर नेत्र (नाक, भौह) टेढ़ा करता है, उस पापी के हाथ का जल पितर और देवलोग ग्रहण नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । इहैव लभते चान्ते दूषिकाकुण्डमाव्रजेत् ॥ १७ ॥ पूर्णमब्दशतं चैव तद्भोजी तत्र तिष्ठति । ततो नरो भवेद्भूमौ दरिद्रः सप्तजन्मसु ॥ १८ ॥ और यहाँ ही (अपने जीवित काल में ही) ब्रह्महत्या आदि समस्त पापों का भागी होता है तथा मरने पर दूषिकाकुण्ड में जाता है । वहाँ पूरे सौ वर्ष तक वही भोजन करते हए रहता है एवं अनन्तर भूतल पर जन्म ग्रहण करने पर सात जन्मों तक दरिद्र होता है ॥ १७-१८ ॥ दत्त्वा द्रव्यं च विप्राय चान्यस्मै दीयते यदि । स तिष्ठति वसाकुण्डे तद्भोजी शतवत्सरम् ॥ १९ ॥ ततो भवेत्स चण्डालस्त्रिजन्मनि ततः शुचिः । कृकलासो भवेत्सोऽपि भारते सप्तजन्मसु । ततो भवेन्मानवश्च दरिद्रोऽल्पायुरेव च ॥ २० ॥ जो मनुष्य किसी ब्राह्मण को कोई वस्तु देकर पुनः उसे अन्य को दे देता है, वह सौ वर्ष तक बसा (चर्बी) कुण्ड में रहता है और वही भोजन करता है । पुनः यहाँ तीन जन्म तक चाण्डाल होकर अन्त में शुद्ध होता है । किन्तु भारत में वह सात जन्मों तक ककलास (गिरगिट) होकर पुनः दरिद्र और अल्पायु मनुष्य होता है ॥ १९-२० ॥ पुमांसं कामिनी वाऽपि कामिनी वा पुमानथ । यः शुक्रं पाययत्येव शुक्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ २१ ॥ पूर्णमब्दशतं चैव तद्भोजी तत्र तिष्ठति । योनिकृमिः शताब्दं च भवेद्भुवि ततः शुचिः ॥ २२ ॥ जो स्त्री पुरुष को अथवा पुरुष स्त्री को वीर्यपान कराता है वह शुक्र (वीर्य) कुण्ड में जाता है । पूरे सौ वर्ष तक वहाँ रहकर वही भोजन करता है । अनन्तर सौ वर्ष तक योनि के कीड़े होकर अन्त में शुद्ध होता है ॥ २१-२२ ॥ संताड्य चगुरुं विप्रं रक्तपातं च कारयेत् । स च तिष्ठत्यसृक्कुण्डे तद्भोजी शतवत्सरम् ॥ २३ ॥ ततो भवेद्व्याधजन्म सप्तजन्मसु भारते । ततः शुद्धिमवाप्नोति मानवश्च क्रमेण च ॥ २४ ॥ जो गुरु या ब्राह्मण को आघात द्वारा ताड़ित कर रक्तपात कराता है वह असृक् (रक्त) कुण्ड में वही पान करते हुए सौ वर्ष तक रहता है । पश्चात् भारत में सात जन्मों तक व्याध (बहेलिया) होकर वह मनुष्य क्रमशः शुद्ध होता है ॥ २३-२४ ॥ अश्रु स्रवन्तं गायन्तं भक्तं दृष्टा च गद्गदम् । श्रीकृष्णगुणसंगीते हसत्येव हि यो नरः ॥ २५ ॥ स वसेदश्रुकुण्डे च तद्भोजी शतवत्सरम् । ततो भवेत्स चण्डालो त्रिजन्मनि ततः शुचिः ॥ २६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान करनेवाले भक्त को, जो (प्रेम में) आँसू गिराते हुए गद्गद रहता है, देखकर जो मनुष्य उसका उपहास (हँसी) करता है, वह सौ वर्ष तक अश्रुकुण्ड में रहकर वही भोजन करता है । पश्चात् यहाँ तीन जन्म तक चाण्डाल के घर उत्पन्न होकर अन्त में शुद्ध होता है ॥ २५-२६ ॥ करोति खलतां शश्वदशुद्धहृदयो नरः । कुण्डं गात्रमलानां च स च याति दशाब्दकम् ॥ २७ ॥ ततः स गार्दभीं योनिमवाप्नोति त्रिजन्मनि । त्रिजन्मनि च शार्गालीं ततः शुद्धो भवेद्ध्रुवम् ॥ २८ ॥ जो दुष्ट हृदय वाला मनुष्य निरन्तर दुष्टता करता है, वह शरीर के मलों के कुण्ड में दश वर्ष तक रहकर पश्चात् तीन जन्म तक गधा और तीन जन्म तक सियार की योनि में उत्पन्न होता है, अन्त में उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ २७-२८ ॥ बधिरं यो सहत्येव निन्दत्येव हि मानवः । स वसेत् कर्णविट्कुण्डे तद्भोजी शतवत्सरम् ॥ २९ ॥ ततो भवेत्स बधिरो दरिद्रः सप्तजन्मसु । सप्तजन्मस्वङ्गहीनस्ततः शुद्धिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ३० ॥ जो मनुष्य किसी बहरे व्यक्ति की निन्दा या उपहास करता है, वह सौ वर्ष तक कर्णविट् (कान की मैल खूट वाले) कुण्ड में पड़ा रह कर वही भोजन करता है । पश्चात् सात जन्मों तक बहरा और दरिद्र होता है । पुनः सात जन्मों तक अंगहीन रहने के उपरान्त उसकी शुद्धि होती है । ॥ २९-३० ॥ लोभात्स्वपालनार्थाय जीविनं हन्ति यो नरः । मज्जाकुण्डे वसेत्सोऽपि तद्भोजी लक्षवर्षकम् ॥ ३१ ॥ ततोभवेत्स शशको मीनश्च सप्तजन्मसु । एणादयश्च कर्मभ्यस्ततः शुद्धिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ३२ ॥ जो लोभवश अपने पालन के लिए किसी अन्य जीव का हनन करता है, वह लाख वर्ष तक मज्जा के कुण्ड में वही खाकर पड़ा रहता है । अन्त में सात जन्मों तक वह शशक (खरगोश), मछली, मृग आदि योनियों में उत्पन्न होकर दुःखानुभव करता है, उपरान्त उसकी निश्चित शुद्धि हो जाती है ॥ ३१-३२ ॥ स्वकन्यापालनं कृत्वा विक्रीणाति हि यो नरः । अर्थलोभान्महामूढो मांसकुण्डं प्रयाति सः ॥ ३३ ॥ कन्यालोमप्रमाणाब्दं तद्भोजी तत्र तिष्ठति । तं च कुण्डे प्रहारं च करोति यमकिङ्करः ॥ ३४ ॥ मांसभारं मूर्ध्नि कृत्वा रक्तधारां लिहेत्क्षुधा । ततो हि भारते पापी कन्याविट्सु कृमिर्भवेत् ॥ ३५ ॥ जो मनुष्य कन्या का पालन-पोषण कर के धन के लोभवश उसका विक्रय करता है, वह महामूढ़ कन्या के लोमप्रमाण वर्ष तक मांस कुण्ड में वही खाकर रहता है । उस समय यमदूत उस कुण्ड में उसके ऊपर प्रहार करते हैं और वह मांस-पिण्डों को अपने शिर पर लिए रहता है तथा भूख लगने पर रक्त की धारा का पान करता है । अनन्तर वह पापी भारत में साठ सहस्र वर्ष तक कन्या के विष्ठा का कीड़ा होकर उत्पन्न होता है ॥ ३३-३५ ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि व्याधश्च सप्तजन्मसु । त्रिजन्मनि वराहश्च कुक्कुरः सप्तजन्मसु ॥ ३६ ॥ सप्तजन्मसु मण्डूको जलौकाः सप्तजन्मसु । सप्तजन्मसु काकश्च ततः शुद्धिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ३७ ॥ पुनः सात जन्मों तक व्याध (बहेलिया), तीन जन्म तक सूकर, सात जन्म तक कुत्ता, सात जन्म तक मेढक, सात जन्म तक जोंक और सात जन्म तक कौवा होने के उपरान्त वह शुद्ध होता है ॥ ३६-३७ ॥ व्रतानामुपवासानां श्राद्धादीनां च संयमे । न करोति क्षौरकर्म सोऽशुचिः सर्वकर्मसु ॥ ३८ ॥ व्रत, उपवास और श्राद्ध आदि कर्मों में संयमपूर्वक रहने के लिए जो क्षौर कर्म नहीं कराता है, वह सभी कर्मों में अशुद्ध माना जाता है ॥ ३८ ॥ स च तिष्ठति कुण्डेषु नखादीनां च सुन्दरि । तदेव दिनमानाब्दं तद्भोजी दण्डताडितः ॥ ३९ ॥ हे सुन्दरि ! उसे नख आदि के कुण्डों में उतने दिनों के प्रमाण वर्ष तक वही खाते हुए रहना पड़ता है और दण्डे से पीटा जाता है ॥ ३९ ॥ सकेशं पार्थिवं लिङ्गं यो वाऽर्चयति भारते । स तिष्ठति केशकुण्डे मृद्रेणुमानवर्षकम् ॥ ४० ॥ तदन्ते यावनीं योनिं प्रयाति हरकोपतः । शताब्दाच्छुद्धिमाप्नोति स्वकुलं लभते ध्रुवम् ॥ ४१ ॥ भारत में जो पुरुष केशयुक्त पार्थिव लिंग का पूजन करता है, वह उस मिट्टी की रेणु प्रमाण वर्ष तक केशकुण्ड में रहता है । भगवान् शंकर के कोप से उसे अन्त में यवन (मुसलमान) जाति में सौ वर्ष तक जन्म ग्रहण करना पड़ता है । अनन्तर शुद्ध होकर अपने कुल में उत्पन्न होता है ॥ ४०-४१ ॥ पितृणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च । स तिष्ठत्यस्थिकुण्डे च स्वलोमाब्दं महोल्बणे ॥ ४२ ॥ जो विष्णुपद (स्थान) में पितरों को पिण्ड दान नहीं करता है, वह अपने लोम प्रमाण वर्ष तक अति भीषण अस्थि कुण्ड में रहता है ॥ ४२ ॥ ततः स्वयोनिं संप्राप्य खञ्जः सप्तसु जन्मसु । भवेन्महादरिद्रश्च ततः शुद्धो हि दण्डतः ॥ ४३ ॥ पुनः अपने कुल में उत्पन्न होकर सात जन्मों तक महादरिद्र और लँगड़ा होता है । इस प्रकार दण्ड भोगने के अनन्तर वह शुद्ध होता है ॥ ४३ ॥ यः सेवते महामूढो गुर्विणीं च स्वकामिनीम् । प्रतप्तताम्रकुण्डे च शतवर्षं स तिष्ठति ॥ ४४ ॥ जो महामह अपनी गर्भिणी पत्नी का उपभोग करता है, वह सौ वर्ष तक प्रतप्त ताम्रकुण्ड में रहता है ॥ ४४ ॥ अवीरान्नं च यो भुञ्जते ऋतुस्नातान्नमेव च । लौहकुण्डे शताब्दं च स च तिष्ठति तप्तके ॥ ४५ ॥ स व्रजेद्राजकीं योनिं कर्मकारीं च सप्तसु । महाव्रणी दरिद्रश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ४६ ॥ जो अवीरा (पति पुत्र रहित विधवा) स्त्री का अन्न या मासिक धर्म हुई स्त्री का अन्न खाता है, वह तपे हुए लौहकुण्ड में सौ वर्ष तक रहता है, तथा सात जन्मों तक धोबी और कर्मकर के यहाँ उत्पन्न होकर विशाल घाव युक्त दरिद्र होता है, पश्चात् शुद्ध होता है ॥ ४५-४६ ॥ यो हि घर्माक्तहस्तेन देवद्रव्यमुपस्पृशेत् । शतवर्षप्रमाणं च घर्मकुण्डे स तिष्ठति ॥ ४७ ॥ जो पसीने या (पसीजे) हाथ से देवता की किसी वस्तु का स्पर्श करता है, वह ब्राह्मण सौ वर्ष तक धर्मकुण्ड में रहता है । ॥ ४७ ॥ यः शूद्रेणाभ्यनुज्ञातो भुङ्क्ते शूद्रान्नमेव च । स च तप्तसुराकुण्डे शताब्दं तिष्ठति द्विजः ॥ ४८ ॥ ततो भवेच्छूद्रयाजी ब्राह्मणः सप्तजन्मसु । शूद्रश्राद्धान्नभोजी च ततः शुद्धो भवेद्ध्रुवम् ॥ ४९ ॥ जो शूद्र की आज्ञा से शूद्रान्न का भक्षण करता है, वह ब्राह्मण सौ वर्ष तक तप्त सुराकुण्ड में रहता है । पश्चात् सात जन्मों तक शूद्रों के यहाँ यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण होता है और शुद्रों के अन्न भोजन करता है, अनन्तर शुद्ध होता है ॥ ४८-४९ ॥ वाग्दुष्टा कटुवाचा या ताडयेत्स्वामिनं सदा । तीक्ष्णकण्टककुण्डे सा तद्भोजी तत्र तिष्ठति ॥ ५० ॥ ताडिता यमदूतेन दण्डेन च चतुर्युगम् । तत उच्चैःश्रवाः सप्तजन्मस्वेव ततः शुचिः ॥ ५१ ॥ जो कटुभाषिणी स्त्री अपने पति को कठोर बातों द्वारा सदैव दुःख पहुँचाती रहती है, वह तीक्ष्ण कण्टककुण्ड में वही खाती हुई चारों युग तक रहती है । और यमदूत दण्डे से उसे पीटते रहते हैं । पश्चात् सात जन्मों तक ऊँचा सुननेवाली स्त्री होकर उत्पन्न होती है । उसके उपरान्त शुद्ध हो जाती है ॥ ५०-५१ ॥ विषेण जीविनं हन्ति निर्दयो यो हि पामरः । विषकुण्डे च तद्भोजी सहस्राब्दं च तिष्ठति ॥ ५२ ॥ जोनिर्दयी एवं नीचपुरुष विष देकर किसी का हनन करता है, वह सहस्र वर्षों तक विषकुण्ड में रहता है और वही भोजन करता है ॥ ५२ ॥ ततो भवेन्नृघाती च व्रणी स्यात्सप्तजन्मसु । सप्तजन्मसु कुष्ठी च ततः शुद्धो भवेद्ध्रुवम् ॥ ५३ ॥ अन्त में सात जन्मों तक नृघाती (हत्यारा) होता है और घाव युक्त रहता है । इस भाँति सात जन्मों तक कुष्ठी (कोढ़ी) रहने के उपरान्त शुद्ध होता है । ॥ ५३ ॥ दण्डेन ताडयेद्यो हि वृषं च वृषवाहकः । भृत्यद्वारा स्वतन्त्रो वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ५४ ॥ प्रतप्ततैलकुण्डे च स तिष्ठति चतुर्युगम् । गवां लोमप्रमाणाब्दं वृषो भवति तत्परम् ॥ ५५ ॥ जो किसान इस पुण्य क्षेत्र भारत में स्वयं अपने या नौकर द्वारा दण्डे से बैल को पीटता है, वह चारों युगों तक प्रतप्त तेल कुण्ड में रहता है । अनन्तर गौ के लोम प्रमाण वर्ष तक वह बैल होता है ॥ ५४-५५ ॥ दन्तेन हन्ति जीवं यो लौहेन बडिशेन वा । दन्तकुण्डे वसेत्सोऽपि वर्षाणामयुतं सति ॥ ५६ ॥ ततः स्वयोनिं संप्राप्य चोदरव्याधिसंयुतः । क्लिष्टेन जन्मनैकेन ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ५७ ॥ जो दाँतों से काट कर या लोहे या वडिश (बंसी) द्वारा जीवों को मारता है, वह दश सहस्र वर्ष तक दन्तकुण्ड में रहता है । अन्त में अपने कुल में उत्पन्न होकर व्याधि-पीड़ित रहता है । इस प्रकार उसी एक जन्म में कष्टों को भोग कर पुनः शुद्ध हो जाता है ॥ ५६-५७ ॥ यो भुङ्क्ते च वृथा मांसं मत्स्यभोजी च ब्राह्मणः । हरेरनैवेद्यभोजी कृमिकुण्डं प्रयाति सः ॥ ५८ ॥ स्वलोममानवर्षं च तद्भोजी तत्र तिष्ठति । ततो भवेन्म्लेच्छजातिस्त्रिजन्मनि ततः शुचिः ॥ ५९ ॥ ब्राह्मणः शूद्रयाजी यः शूद्रश्राद्धान्नभोजकः । शूद्राणां शवदाही च पूयकुण्डं व्रजेद् ध्रुवम् ॥ ६० ॥ जो मछली खाने वाला ब्राह्मण, भगवान् के नैवेद्य का त्याग कर व्यर्थ मांस सेवन करता है, वह कृमि कुण्ड में जाता है और अपने लोमों के प्रमाण वर्ष तक बही खाकर वहाँ रहता है । अन्त में यहाँ तीन जन्म तक म्लेच्छ जाति में उत्पन्न होकर पुनः ब्राह्मण होता है । शूद्रों के यहाँ यज्ञ कराने वाला ब्राह्मण जो शूद्रों के श्राद्धान्न का भोजन करता है और उनके शव (मुर्दे) को जलाता है, वह निश्चित पूय (पीव) कुण्ड में जाता है ॥ ५८-६० ॥ यावल्लोमप्रमाणाब्दं यजमानस्य सुव्रते । ताडितो यमदूतेन तद्भोजी तत्र तिष्ठति ॥ ६१ ॥ हे सुव्रते ! यजमान के लोम प्रमाण वर्ष तक वह वहाँ बही खाकर रहता है और नित्य यमदूतों से ताड़ित होता है ॥ ६१ ॥ ततो भारतमागत्य स शूद्रः सप्तजन्मसु । महाशूलो दरिद्रश्च ततः शुद्धः पुनर्द्विजः ॥ ६२ ॥ पश्चात् भारत आने पर सात जन्मों तक शूद्र होता है, तथा महारोगी एवं दरिद्र बना रहता है । पश्चात् शुद्ध होकर पुनः ब्राह्मण होता है ॥ ६२ ॥ लघुं क्रूरं महान्तं वा सर्पं हन्ति च यो नरः । स्वात्मलोमप्रमाणाब्दं सर्पकुण्डं प्रयाति सः ॥ ६३ ॥ सर्पेण भक्षितः सोऽपि यमदूतेन ताडिता । वसेच्च सर्पविड्जीवी ततः सर्पो भवेद्ध्रुवम् ॥ ६४ ॥ ततो भवेन्मानवश्चाप्यल्पायुर्दद्रुसंयुतः । महाक्लेशेन तन्मृत्युः सर्पेण भक्षणं ध्रुवम् ॥ ६५ ॥ जो मनुष्य लघु, क्रूर या महान् सर्प की हत्या करता है, वह अपने लोमों के प्रमाण वर्ष तक सर्पकुण्ड में रहता है । वहाँ उसी सर्पद्वारा भक्षित होता है, ऊपर से यमदूत ताड़ना देते हैं और स्वयं सपों के विष्ठा का भक्षण करता है । अन्त में सर्पयोनि में उत्पन्न होता है । पश्चात् अल्पायु तथा दाद का रोगी मानव होता है । अन्त में सर्प के काटने से उसकी अतिक्लेशदायक मृत्यु होती है ॥ ६३-६५ ॥ विधिं प्रकल्प्य जीवांश्च क्षुद्रजन्तूंश्च हन्ति यः । स दंशमशके कुण्डे जन्ममानदिनाब्दकम् ॥ ६६ ॥ दिवानिशं भक्षितस्तैरनाहारश्च शब्दकृत् । बद्धहस्तपदादिश्च यमदूतेन ताडितः ॥ ६७ ॥ जो युक्ति निकालकर जीवों और क्षुद्र जन्तुओं (छोटे-छोटे जीवों) का हनन करता है वह अपनी आयु दिन के प्रमाण वर्ष तक उँसा और मसा के कुण्ड में पड़ा रहता है । वे कीड़े वहाँ दिन-रात उसे (काट-काट कर) खाया करते हैं और वह आहारहीन होकर चिल्लाता रहता है, तथा यम के दूतगण उसका हाथ-पैर बांध कर ऊपर से ताड़ना देते रहते हैं ॥ ६६-६७ ॥ ततो भवेत्क्षुद्रजन्तुर्जातिर्वै यावती स्मृता । ततो भवेन्मानवश्च सोऽङ्गहीनस्ततः शुचिः ॥ ६८ ॥ अनन्तर क्षुद्र जन्तु होकर उत्पन्न होता है । इस प्रकार अनेक जन्मों के उपरान्त अङ्गहीन मनुष्य होता है । तब उसकी शुद्धि होती है ॥ ६८ ॥ यो मूढो मधु गृह्णाति हत्वा च मधुमक्षिकाः । स एव गारले कुण्डे जीवमानदिनाब्दकम् ॥ ६९ ॥ जो मूढ़ मधुमक्खियों को मार कर मधु (शहद) निकालता है, वह अपने जीवन दिन के प्रमाण वर्ष तक विष कुण्ड में रहता है ॥ ६९ ॥ भक्षितो गरलैर्दग्धो यमदूतेन ताडितः । ततो हि मक्षिकाजातिस्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ७० ॥ . वहाँ विष भक्षण कर जलता रहता है और यम के दूत ऊपर से ताड़ना देते हैं । अनन्तर मधु की मक्खी होकर उत्पन्न होता है । तब उसकी शुद्धि होती है ॥ ७० ॥ दण्डं करोत्यदण्ड्ये च विप्रे दण्डं करोति च । स कुण्डं वज्रदंष्ट्राणां कीटानां वै प्रयाति च ॥ ७१ ॥ जो अदण्ड्य (अपराध रहित) ब्राह्मण को दण्ड देता है, यह राज़ के समान दाँत वाले कीड़ों के कुण्ड में आता है ॥ ७१ ॥ तल्लोममानवर्षं च तत्र तिष्ठत्यहर्निशम् । शब्दकृद्भक्षितस्तैश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ७२ ॥ और उस ब्राह्मण के लोम प्रमाण वर्ष तक उस कुण्ड में पड़ा रह कर दिन-रात उन कीड़ों के काटने से चिल्लाया करता है और पश्चात् शुद्ध होता है ॥ ७२ ॥ अर्थलोभेन यो भूपः प्रजादण्डं करोति च । वृश्चिकानां च कुण्डेषु तल्लोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ७३ ॥ जो राजा धन के लोभवश प्रजाओं को दण्डित करता रहता है, वह उनके लोम प्रमाण वर्ष तक विच्छुओं के कुण्डों में निश्चिा निवास करता है । ॥ ७३ ॥ ततो वृश्चिकजातिश्च सप्त जन्मसु जायते । ततो नरश्चाङ्गहीनो व्याधियुक्तो भवेद्ध्रुवम् ॥ ७४ ॥ अनन्तर सात जन्मों तक बिच्छू होकर उत्पन्न होता है और पश्चात् अङ्गहीन मानव होकर सदैव रोग पीड़ित रहता है ॥ ७४ ॥ यः खादति गुरुं स्वं च धूर्तो धूर्ततया खलः । स कुण्डे वज्रदंष्ट्राणां वसेन्मन्वन्तरावधि ॥ ७५ ॥ जो धूर्त एवं दुष्ट व्यक्ति धूर्तता से अपने गुरु की हिंसा करता है, वह बच्चसदृश दांतों बालों के कुण्ड में एक मन्वन्तर एक वास करता है ॥ ७५ ॥ ब्राह्मणः शस्त्रधारी यो ह्यन्येषां धावको भवेत् । संध्याहीनश्च मूढश्च हरिभक्तिविहीनकः ॥ ७६ ॥ स तिष्ठति स्वलोमाब्दं कुण्डादिषु शरादिषु । विद्धः शरादिभिः शश्वत्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ७७ ॥ जो मूर्ख ब्राह्मण संध्यारहित और भगवान् की भक्ति से हीन रह कर शस्त्र धारण किए दूसरे लोगों का दूत बनता है, वह अपने शरीर लोम के प्रमाण वर्ष तक शर (नाण) आदि के कुण्डों में रहता है, वहाँ बाणों द्वारा (शरीर में) क्षत-विक्षत होता रहता है, पश्चात् उसकी शुद्धि होती है ॥ ७६-७७ ॥ कारागारे सान्धकारे निबध्नाति प्रजाश्च यः । प्रमत्तः स्वल्पदोषेण गोलकुण्डं प्रयाति सः ॥ ७८ ॥ तत्कुण्डं तप्ततोयाक्तं सान्धकारं भयङ्करम् । तीक्ष्णदंष्ट्रैश्च कीटैश्च संयुक्तं गोलकुण्डकम् ॥ ७९ ॥ कीटैर्विद्धो वसेत्तत्र प्रजालोमाब्दमेव च । ततो भवेन्नीचभृत्यस्ततः शुद्धो नरो भुवि ॥ ८० ॥ जो प्रमत्त होने के नाते अल्प अपराध के कारण भी प्रजाओं को अन्धकारपूर्ण जेल (काली कोठरी) में बन्द कर देता है, वह गोलकुण्ड नामक नरक में जाता है जो संतप्त (खौलते हुए) जल, अंधकार और तेज दाँत बाले कीड़ों से संयुक्त होने के नाते भीषण दिखायी देता है । प्रजाओं के लोम प्रमाण वर्ष तक वहाँ कीड़ों द्वारा भक्षित होता है । अनन्तर यहाँ भूतल पर नीच का सेवक होता है, तब उसकी शुद्धि होती है ॥ ७८-८० ॥ सरोवरादुत्थितांश्च नक्रादीन्हन्ति यः सति । नक्रकण्टकमानाब्दं नक्रकुण्डं प्रयाति सः ॥ ८१ ॥ सरोवर आदि जलाशयों से बाहर आये हुए मकर (मगर) आदि जलजन्तुओं का जो हनन करता है, वह उनके काँटों के प्रमाण वर्ष तक नक्रकुण्ड में रहता है ॥ ८१ ॥ ततो नक्रादिजातिश्च भवेन्नद्यादिषु ध्रुवम् । ततः सद्यो विशुद्धो हि दण्डेनैव नरः पुनः ॥ ८२ ॥ पश्चात् नदी आदि में मगर आदि जन्तु होकर निश्चित उत्पन्न होता है और वहाँ दण्ड के द्वारा ही उसकी शुद्धि होती है ॥ ८२ ॥ वक्षःश्रोणीस्तनास्यं च यः पश्यति परस्त्रियाः । कामेन कामुको यो हि पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ८३ ॥ स वसेत्काककुण्डे च काकैश्च क्षुण्णलोचनः । ततः स्वलोममानाब्दं ततश्चान्धस्त्रिजन्मनि ॥ ८४ ॥ स्वर्णस्तेयी च यो मूढो भारते सुरविप्रयोः । स च संचानकुण्डं च स्वलोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ८५ ॥ ताडितो यमदूतेन संचानैः क्षुण्णलोचनः । ततो भोजी च तत्रैव ततश्चान्धस्त्रिजन्मनि ॥ ८६ ॥ सप्तजन्मदरिद्रश्च महाक्रूरश्च पातकी । भारते स्वर्णकारश्च स च स्वर्णवणिक्ततः ॥ ८७ ॥ यो भारते ताम्रचौरो लौहचौरश्च सुन्दरि । स स्वलोमप्रमाणाब्दं वज्रकुण्डं प्रयाति वै ॥ ८८ ॥ तत्रैव वज्रविड्भोजी वज्रैश्च क्षुण्णलोचनः । ताडितो यमदूतेन ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ८९ ॥ इस पुण्य क्षेत्र भारत में जो पर-स्त्री का वक्षःस्थल, श्रोणी भाग (कटि तट), स्तन या मुख का दर्शन कामुक भाव से करता है, वह काककुण्ड में जाता है और वहाँ कौवे उसकी आँखें (ठोढ़ों से मार कर) फोड़ डालते हैं । अपने लोमों के प्रमाण वर्ष तक वहाँ रहकर वह यहाँ भारत में तीन जन्मों तक अन्धा होता है । भारत में जो मूर्ख व्यक्ति देवता और ब्राह्मण का सोना चुराता है, वह अपने रोओं के जितने वर्षों तक संचानकुण्ड मे वास करता है । वहाँ यमदूत उसे पीटते हैं, संचान नामक कौए उसकी आँखें नोचते हैं । वहाँ भोग करने के बाद वह तीन जन्मों तक अन्धा, सात जन्मों तक दरिद्र, महाक्रूर, पातकी, सोनार और सुवर्ण का व्यापारी होता है । हे सुन्दरि ! जो भारत में तांबे और लोहे की चोरी करता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक बज्रकुण्ड में रहता है वहाँ रहतेहए वज्र नामक कीड़ों के मल का भोजन करता है तथा कीड़ों द्वारा उसके नेत्र फोड़ दिये जाते हैं और ऊपर से यम के दूत ताड़ना देते हैं । पश्चात् उसकी शुद्धि होती है ॥ ८३-८९ ॥ भारते देवचौरश्च देवद्रव्यादिहारकः । सुदुष्करं वज्रकुण्डे स्वलोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ९० ॥ देहदग्धो हि तद्वज्रैरनाहारश्च शब्दकृत् । ताडितो यमदूतेन ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ९१ ॥ भारत में जो देव प्रतिमा या देवों के द्रव्य आदि की चोरी करता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक अति दुष्कर वज्रकुण्ड में निश्चित निवास करता है । वहाँ वज कीड़ों द्वारा उसकी देह दग्ध हो जाती है और वह स्वयं आहारहीन होकर चिल्लाता रहता है । ऊपर से यम के दूत ताड़ना देते रहते हैं । इसके पश्चात् वह प्राणी शुद्ध होता है ॥ ९०-९१ ॥ रौप्यगव्यांशुकानां च यश्चौरः सुरविप्रयोः । तप्तपाषाणकुण्डे च स्वलोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ९२ ॥ देव या ब्राह्मण की चाँदी गौ या वस्त्र चुराने वाला अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक पाषाण (पत्थर) कुण्ड में निश्चित निवास करता है ॥ ९२ ॥ त्रिजन्मनि बकः सोऽपि श्वेतहंसस्त्रिजन्मनि । जन्मैक शङ्खचिल्लश्च ततोऽन्ये श्वेतपक्षिणः ॥ ९३ ॥ ततो रक्तविकारी च शूली वै मानवो भवेत् । सप्तजन्मसु चाल्पायुस्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ ९४ ॥ अनन्तर तीन जन्म तक बगुला, तीन जन्म तक श्वेत रंग का हंस, एक जन्म तक शंखचिल्ल, अन्य जन्म में श्वेत वर्ण का पक्षी होकर सात जन्मों तक रक्त विकार और शूल रोग युक्त अल्पायु मनुष्य होता है और इसके उपरान्त उसकी शुद्धि होती है ॥ ९३-९४ ॥ रौप्यकांस्यादिपात्रं च यो रेहत्सुरविप्रयो । तीक्ष्णपाषाणकुण्डे च स्वलोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ९५ ॥ इसी प्रकार देव या ब्राह्मण के पीतल अथवा कांसे के पात्र की जो चोरी करता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक तीक्ष्ण पाषाणकुण्ड में निश्चित निवास करता है ॥ ९५ ॥ स भवेदश्वजातिश्च भारते सप्तजन्मसु । ततोऽधिकाङ्गयुक्तश्च पादरोगी ततः शुचिः ॥ ९६ ॥ उपरान्त भारत में सात जन्मों तक अश्व होता है । पुनः अधिक अङ्ग युक्त तथा चरण का रोगी होता है और इसके पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ९६ ॥ पुश्चल्यन्नं च यो भुङ्क्ते पुंश्चलीजीव्यजीवनः । स्वलोममानवर्षं च लालाकुण्डे वसेद्ध्रुवम् ॥ ९७ ॥ पुंश्चली (व्यभिचारिणी स्त्री) द्वारा जीविका निर्वाह करने वाला जो पुरुष पुंश्चली का अन्न खाता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक लाला (लार) कुण्ड में निश्चित निवास करता है ॥ ९७ ॥ ताडितो यमदूतेन तद्भोजी तत्र तिष्ठति । ततश्चक्षुः शूलरोगी ततः शुद्धः क्रमेण सः ॥ ९८ ॥ वहाँ यम के दूतों द्वारा ताड़ित होता है और वही भक्षण करता है । अनन्तर क्रमशः नेत्र और शूल की पीड़ा से पीड़ित होकर शुद्ध होता है ॥ ९८ ॥ म्लेच्छसेवी मषीजीवी यो विप्रो भारते भुवि । स च तप्तमषीकुण्डे स्वलोमाब्दं वसेद्ध्रुवम् ॥ ९९ ॥ भारत के भूमण्डल पर जो विप्र म्लेच्छों की सेवा या मुंशीगिरी द्वारा जीविका निर्वाह करता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक खौलते हुए मसी (स्याही) कुण्ड में निश्चित निवास करता है ॥ ९९ ॥ ताडितो यमदूतेन तद्भोजी तत्र तिष्ठति । ततस्त्रिजन्मनि भवेत्कृष्णवर्णः पशुः सति ॥ १०० ॥ त्रिजन्मनि भवेच्छागः कृष्णसर्पस्त्रिजन्मनि । ततश्च तालवृक्षश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ १०१ ॥ वहाँ वही भोजन करता है और यमदूतों द्वारा सदैव ताड़ित होता है । अनन्तर तीन जन्म तक काले वर्ण का पशु, तीन जन्म तक छाग (बकरी) तथा तीन जन्म तक काला सर्प होता है और पश्चात् ताड़ का वृक्ष होकर शुद्ध हो जाता है ॥ १००-१०१ ॥ धान्यादिसस्यं ताम्बूलं यो हरेत्सुरविप्रयोः । आसनं च तथा तल्पं चूर्णकुण्डं प्रयाति सः ॥ १०२ ॥ देवों या ब्राह्मणों के अन्न, ताम्बूल, आसन और शय्या की चोरी करने वाला प्राणी चूर्णकुण्ड में जाता है ॥ १०२ ॥ शताब्दं तत्र निवसेद्यमदूतेन ताडितः । ततो भवेन्मेषजातिः कुक्कुटश्च त्रिजन्मनि ॥ १०३ ॥ ततो भवेन्मानवश्च कासव्याधियुतो भुवि । वंशहीनो दरिद्रश्चाप्यल्पायुश्च ततः शुचिः ॥ १०४ ॥ वहाँ सौ वर्ष तक यमदूतों द्वारा ताड़ित होकर रहता है । पश्चात् भेंडा और तीन जन्म तक मुर्गा होने के उपरान्त भूतल पर खाँसी रोग से युक्त मनुष्य होता है, जो वंशहीन, दरिद्र एवं अल्पायु होता है । अनन्तर शुद्ध हो जाता है ॥ १०३-१०४ ॥ चक्रं करोति विप्राणां हृत्वा द्रव्यं च यो नरः । स वसेच्चक्रकुण्डे च शताब्दं दण्डताडितः ॥ १०५ ॥ जो ब्राह्मणों के द्रव्यों को चुरा कर उससे चक्र का निर्माण करता है, वह सौ वर्ष तक दण्ड ताड़ना का अनुभव करता हुआ चक्रकुण्ड में निवास करता है ॥ १०५ ॥ ततो भवेन्मानवश्च तैलकारस्त्रिजन्मनि । व्याधियुक्तो भवेद्रोगी वंशहीनस्ततः शुचिः ॥ १०६ ॥ पश्चात् तीन जन्म तक तेली जाति में उत्पन्न होकर व्याधियुक्त, रोगी और सन्तानरहित होता है, उपरान्त शुद्ध होता है ॥ १०६ ॥ बान्धवेषु च विप्रेषु कुरुते वक्रतां नरः । प्रयाति वक्रकुण्डं च वसेत् तत्र युगं सति ॥ १०७ ॥ जो बन्धुओं या ब्राह्मणों के साथ कुटिलता का व्यवहार करता है, वह युग के प्रमाण वर्ष तक वज्रकुण्ड में निवास करता है ॥ १०७ ॥ ततो भवेत्स वक्राङ्गो हीनाङ्गः सप्तजन्मसु । दरिद्रो वंशहीनश्च भार्याहीनस्ततः शुचिः ॥ १०८ ॥ पश्चात् सात जन्मों तक टेढ़ेमेढ़े (कूबरादि) अङ्ग, हीनाङ्ग, दरिद्र, सन्तानहीन, स्त्रीरहित होकर शुद्ध होता है ॥ १०८ ॥ शयने कूर्ममांसं च ब्राह्मणो यो हि भक्षति । कूर्मकुण्डे वसेत्सोऽपि शताब्दं कूर्मभक्षितः ॥ १०९ ॥ जो ब्राह्मण बिस्तर पर कछुवे का मांस भक्षण करता है, वह सौ वर्ष तक कछुवे के कुण्डों में निवास करता है और कछुवे लोग उसके मांस का भक्षण करते हैं ॥ १०९ ॥ ततो भवेत्कूर्मजन्म त्रिजन्मनि च सूकरः । त्रिजन्मनि बिडालश्च मयूरश्च त्रिजन्मनि ॥ ११० ॥ पश्चात् कछुवे जाति में उत्पन्न होकर तीन जन्म सूकर, तीन जन्म बिडाल एवं तीन जन्म मोर पक्षी होता है ॥ ११० ॥ घृततैलादिकं चैव यो हरेत्सुरविप्रयोः । ज्वालाकुण्डं स वै याति भस्मकुण्डं च पातकी ॥ १११ ॥ तत्र स्थित्वा शताब्दं च स भवेत्तैलपायिकः । सप्तजन्मसु मत्स्यः स्यान्मूषकश्च ततः शुचिः ॥ ११२ ॥ देवों या ब्राह्मणों के तेल-घी की चोरी जो करता है, वह पातकी ज्वालाकुण्ड तथा भस्मकुण्ड में जाता है । वह वहाँ सौ वर्ष तक दुःखों के अनुभव करने के उपरान्त सात जन्म तक गीदड़, मछली और चूहा होता है, पश्चात् शुद्ध हो जाता है ॥ १११-११२ ॥ सुगन्धीतैलं धात्रीं च गन्धद्रव्यं तथैव वा । भारते पुण्यवर्षे च यो हरेत्सुरविप्रयो ॥ ११३ ॥ वसेद्दुर्गन्धकुण्डे च दुर्गन्धं च लभेत्सदा । स्वलोममानवर्षं च ततो दुर्गन्धिको भवेत् ॥ ११४ ॥ दुर्गन्धिकः सप्तजनौ मृगनाभिस्त्रिजन्मनि । सप्तजन्म सुगन्धिश्च ततो वै मानवो भवेत् ॥ ११५ ॥ इस पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में जो देवता या ब्राह्मणों के सुगन्धित तेल, आँवले एवं सुगन्धित पदार्थों का अपहरण करता है, वह अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक दुर्गन्धकुण्ड में दुर्गन्ध का अनुभव करता है । अनन्तर सात जन्मों तक छछून्दर होता है । पुनः तीन जन्म तक कस्तूरी, सात जन्म तक सुगन्धित वस्तु होकर अन्त में मानव होता है ॥ ११३-११५ ॥ बलेनैव खलत्वेन हिंसारूपेण वा सति । बली च यो हरेद्भूमिं भारते परपैतृकीम् ॥ ११६ ॥ स वसेत्तप्तशूले च भवेत्तप्तो दिवानिशम् । तप्ततैले यथा जीवो दग्धो भ्रमति संततम् ॥ ११७ ॥ भारत में जो बली दुष्टतावश बल प्रयोग या हिंसा द्वारा दूसरे के पूर्वजों की भूमि का अपहरण करता है, वह खौलते हुए तेल में दग्ध होने पर निरन्तर चारों ओर भ्रमण करने वाले जीव की भाँति तप्तशूल नामक नरक में रात दिन संतप्त होता है ॥ ११६-११७ ॥ भस्मसान्न भवत्येव भोगदेहो न नश्यति । सप्तमन्वन्तरं पापी संतप्तस्तत्र तिष्ठति ॥ ११८ ॥ किन्तु न तो वह भस्म (राख) ही होता है और न उसकी भोगदेह नष्ट होती है । इस प्रकार वह पापी सात मन्वन्तरों के समय तक वहाँ निवास करता है ॥ ११८ ॥ शब्दं करोत्यनाहारो यमदूतेन ताडितः । षष्टिवर्षसहस्राणि विट्कृमिर्भारते ततः ॥ ११९ ॥ अनाहारी रह कर यमदूतों द्वारा ताड़ित होने पर चिल्लाता रहता है । पश्चात् भारत में साठ सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है ॥ ११९ ॥ ततो भवेद्भूमिहीनो दरिद्रश्च ततः शुचिः । ततः स्वयोनिं संप्राप्य शुभकर्मा भवेत्पुनः ॥ १२० ॥ उसके उपरान्त भूमिरहित एवं दरिद्र होकर शुद्ध होता है और अपने कुल में उत्पन्न होकर पुनः शुभ कर्म करता है ॥ १२० ॥ छिनत्ति जीवितः खड्गैर्दयाहीनः सुदारुणः । नरघाती हन्ति नरमर्थलोभेन भारते ॥ १२१ ॥ असिपत्रे च स वसेद्यावदिन्द्राश्चतुर्दश । तेषु चेद्ब्राह्मणान्हन्ति शतमन्वन्तरं तदा ॥ १२२ ॥ भारत में जो निष्करुण और अति भीषण नरघाती मनुष्य खगों द्वारा जीवों को मारता है, तथा धन के लोभ से मनुष्य की हत्या करता है, वह चौदह इन्द्रों के समय तक असिपत्र नामक नरक में रहता है । यदि वह ब्राह्मणों की हत्या किए रहता है, तो सौ मन्वन्तरों के समय तक उस नरक में निवास करता है ॥ १२१-१२२ ॥ छिन्नाङ्गश्च भवेत्पापी खड्गधारेण संततम् । अनाहारः शब्दकृच्च यमदूतेन ताडितः ॥ १२३ ॥ वहाँ वह पापी तलवार की धार से टुकड़े-टुकड़े हुआ करता है, अनाहारी रहता है, और यमदूतों द्वारा ताड़ित होने पर चिल्लाया करता है ॥ १२३ ॥ चण्डालः शतजन्मानि भारते सूकरो भवेत् । कुक्कुरः शतजन्मानि शृगालः सप्तजन्मसु ॥ १२४ ॥ व्याघ्रश्च सप्तजन्मानि वृकश्चैव त्रिजन्मनि । सप्तजन्मसु गण्डी स्यान्महिषश्च त्रिजन्मनि ॥ १२५ ॥ पश्चात् भारत में सौ जन्मों तक चाण्डाल तथा सूकर, सौ जन्मों तक कुत्ता, सात जन्मों तक गीदड़, सात जन्मों तक बाघ, तीन जन्मों तक भेडिया, सात जन्मों तक गैड़ा और तीन जन्मों तक भैसा होता है ॥ १२४-१२५ ॥ ग्रामं वा नगरं वाऽपि दाहनं यः करोति च । क्षुरधारे वसेत्सोऽपि च्छिन्नाङ्गस्त्रियुगं सति ॥ १२६ ॥ गाँव या नगर को जो जला देता है, वह क्षुरधार नामक नरक में उसकी धार से छिन्न-भिन्न होता हुआ तीन युग तक निवास करता है ॥ १२६ ॥ ततः प्रेतो भवेत्सद्यो वह्निवक्रो भ्रमेन्महीम् । सप्तजन्मामेध्यभोजी खद्योतः सप्तजन्मसु ॥ १२७ ॥ ततो भवेन्महाशूली मानवः सप्तजन्मसु । सप्तजन्म गलत्कुष्ठी ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ १२८ ॥ अनन्तर अग्निमुख प्रेत होकर पृथ्वी पर घूमा करता है, सात जन्मों तक अपवित्रभोजी, सात जन्मों तक जुगुन, सात जन्मों तक महाशूल से पीड़ित मनुष्य और सात जन्मों तक गलत्कुष्ठ का महान् रोगी होता है । पश्चात् वह शुद्ध होता है ॥ १२७-१२८ ॥ परकर्णोपजापेन परनिन्दां करोति यः । परदोषे महातोषी देवब्राह्मणनिन्दकः ॥ १२९ ॥ सूचीमुखे स च वसेत्सूचीविद्धो युगत्रयम् । ततो भवेद्वृश्चिकश्च सर्पः स्यात्सप्तजन्मसु ॥ १३० ॥ वज्रकीटः सरतजनौ भस्मकीटस्ततः परम् । ततो भवेन्मानवश्च महाव्याधिस्ततः शुचिः ॥ १३१ ॥ जो दूसरों के कानों में दूसरों की चुगुली करता है, दूसरों के दोषों के कहने में ही जिसे महान सन्तोष होता है तथा जो देवों और ब्राह्मणों की सदैव निन्दा किया करता है, वह सूचीमुख नामक नरक में जाता है और वहाँ सूचियों द्वारा क्षत अङ्ग होकर तीन युगों तक रहता है । पश्चात् बिच्छू, सात जन्मों तक साँप, सात जन्मों तक वज्रकीट और सात जन्मों तक भस्मकीट होकर पुनः महाव्याधियुक्त मनुष्य होता है, तब उसकी शुद्धि होती है ॥ १२९-१३१ ॥ गृहिणां च गृहं भित्त्वा वस्तुस्तेयं करोति यः । गाश्च च्छागांश्च मेषांश्च याति गोधामुखं च सः ॥ १३२ ॥ जो किसी गृहस्थ के घर की दीवाल फोड़ कर वस्तुओं, गौओं, भेड़ों और बकरियों की चोरी करता है, वह गोधामुख नामक नरक में जाता है ॥ १३२ ॥ ताडितो यमदूतेन वसेत्तत्र युगत्रयम् । ततो भवेत्सप्तजनौ गोजातिर्व्याधिसंयुतः ॥ १३३ ॥ त्रिजन्मनि मेषजातिश्छागजातिस्त्रिजन्मनि । ततो भवेन्मानवश्च नित्यरोगी दरिद्रकः ॥ १३४ ॥ पश्चात् सात जन्म तक व्याधिपीड़ित गौ, तीन जन्म तक भेड़ और तीन जन्म तक बकरी होता है । इसके उपरान्त मनुष्य होकर नित्य रोगपीड़ित, दरिद्र, स्त्री एवं भाई से रहित होकर सन्तप्त जीवन व्यतीत करता है, तब शुद्ध होता है ॥ १३३-१३४ ॥ भार्याहीनो बन्धुहीनः संतापी च ततः शुचिः । सामान्यद्रव्यचौरश्च याति नक्रमुखं युगम् ॥ १३५ ॥ सामान्य द्रव्य की चोरी करने वाला एक युग तक नक्रमुख नामक नरक में रहता है । पश्चात् मनुष्य होकर महान् रोगी होता है । अनन्तर उसकी शुद्धि होती है ॥ १३५ ॥ ततो भवेन्मानवश्च महारोगी ततः शुचिः । हन्ति गाश्च गजांश्चैव तुरगांश्च नरांस्तथा ॥ १३६ ॥ स याति गजदंशं च महापापी युगत्रयम् । ताडितो यमदूतेन गजदन्तेन संततम् ॥ १ ३७ ॥ स भवेद्गजजातिश्च तुरगश्च त्रिजन्मनि । गोजातिर्म्लेच्छजातिश्च ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ १३८ ॥ जो गौ, गज, घोड़े एवं मनुष्यों की हत्या करता है, वह महापापी तीन युग तक गजदंश नामक नरक में रहता है । वहाँ यमदूतों द्वारा गजदन्त से निरन्तर ताड़ित होता है । पश्चात् तीन जन्म तक गज और घोड़ा होता है, पुनः गो जाति एवं म्लेच्छ जाति होने पर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १३६-१३८ ॥ जलं पिबन्ती तृषितां गां वारयति यो नरः । तच्छुश्रूषाविहीनश्च गोमुखं याति मानवः ॥ १३९ ॥ जल पीती हुई प्यासी गौ को जो जल पीने से रोक देता है, वह गोसेवाहीन मनुष्य गोमुख नामक नरक में जाता है ॥ १३९ ॥ नरकं गोमखाकारं कृमितप्तोदकान्वितम् । तत्र तिष्ठति संतप्तो यावन्मन्वन्तरावधि ॥ १४० ॥ जो गौ के मुखाकार का बना है । तथा कीड़े और संतप्त जल से सदैव भरा रहता है । एक मन्वन्तर के समय तक वह उसी नरक में संतप्त होकर रहता है ॥ १४० ॥ ततो नरौऽपि गोहीनो महारोगी दरिद्रकः । सप्तजन्मन्यन्त्यजातिस्ततः शुद्धो भवेन्नरः ॥ १४१ ॥ पश्चात् वह गोहीन, महारोगी एवं दरिद्र होता है और सात जन्मों तक अन्त्यज (असवर्ण) जाति होता है । तब उसकी शुद्धि होती है ॥ १४१ ॥ गोहत्यां ब्रह्महत्यां च यः करोत्यतिदेशिकीम् । यो हिगच्छेदगम्यां च संध्याहीनोऽप्यदीक्षितः ॥ १४२ ॥ प्रतिग्राही च तीर्थेषु ग्रामयाजी च देवलः । शूद्राणां सूपकारश्च प्रमत्तो वृषलीपतिः ॥ १४३ ॥ गोहत्या ब्रह्महत्यां च स्त्रीहत्यां च करोति यः । मित्रहत्यां भ्रूणहत्यां महापापी च भारते ॥ १४४ ॥ कुम्भीपाकं स च वसेद्यावदिन्द्राश्चतुर्दश । ताडितो यमदूतेन घूर्ण्यमानश्च संततम् ॥ १४५ ॥ दूसरे के कहने से गोहत्या, ब्रह्महत्या तथा अगम्यागमन करने वाला, संध्याकर्म-रहित, दीक्षाहीन, तीर्थों में प्रतिग्राही (दान लेने वाला), ग्रामयाजी (गाँव-गांव यज्ञ कराने वाला); देवल (मन्दिर का पुजारी), शूद्रों का भण्डारी, प्रमत्त, वृषलीपति (शूद्र की स्त्री से व्यभिचार करने वाला) एवं गोहत्या, ब्रह्महत्या, स्त्रीहत्या, मित्रहत्या, भ्रूणहत्या करने वाला महापापी कुम्भीपाक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक रहता है, वहाँ धर्मराज के दूतगण ताड़ित कर उसे निरन्तर घुमाया करते हैं ॥ १४२-१४५ ॥ क्षणं पतति वह्नौ च क्षणं पतति कण्टके । क्षणं च तप्ततैलेषु तप्ततोयेषु च क्षणम् ॥ १४६ ॥ क्षणं च तप्तपाषाणे तप्तलोहे क्षणं ततः । गृध्रः कोटिसहस्राणि शतजन्मानि सूकरः ॥ १४७ ॥ काकश्च सप्तजन्मानि सर्पः स्यात्सप्तजन्मसु । षष्टिवर्षसहस्राणि ततो वै विट्कृमिर्भवेत् ॥ १४८ ॥ वह वहाँ क्षण में अग्नि में गिरता है, क्षण में काँटों के कुण्डों में गिरता है, क्षण में खौलते हुए तेल में, क्षण में संतप्त जल में, क्षण में तप्त पत्थर पर और क्षण में तप्त लोहे पर गिरता है । अनन्तर करोड़ों जन्म तक गीध, सौ जन्म तक सूकर, सात जन्म तक कौवा और सात जन्म तक सर्प होकर साट सहस्र वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है ॥ १४६-१४८ ॥ ततो भवेत्स वृषलो गलत्कुष्ठी दरिद्रकः । यक्ष्मग्रस्तो वंशहीनो भार्याहीनस्ततः शुचिः ॥ १४९ ॥ उसके उपरान्त शुद्र, गलत्कुष्ठ का रोगी, दद्धि, यक्ष्मापीडित, वंशहीन, और स्त्रीहीन मनुष्य होता है, तब उसकी शुद्धि होती है ॥ १४९ ॥ सावित्र्युवाच ब्रह्महत्या च गोहत्या किंविधा वाऽऽतिदेशिकी । का वा नृणामगम्या वा को वा संध्याविहीनकः ॥ १५० ॥ अदीक्षितः पुमान्को वा को वा तीर्थे प्रतिग्रही । द्विजः को वा ग्रामयाजी को वा विप्रश्च देवलः ॥ १५१ ॥ शूद्राणां सूपकारः कः प्रमत्तो वृषलीपतिः । एतेषां लक्षणं सर्वं वद वेदविदां वर ॥ १५२ ॥ सावित्री बोली-हे वेदविदांवर ! ब्रह्महत्या, गोहत्या एवं अतिदेशिकी हत्या किस भांति की होती हैं । मनष्यों के लिए अगम्या कौन है, संध्याहीन एवं तीर्थ का प्रतिग्राही (दान लेने वाला) पुरुष कौन है, कौन ब्राह्मण ग्रामयाजी (गाँव-गाँव में यज्ञ कराने वाला) और कौन ब्राह्मण देवल (मन्दिर में पुजारी) होता है एवं शूद्रों का भण्डारी, प्रमत्त और वृषलीपति कौन है, इनके समस्त लक्षण बताने की कृपा करें ॥ १५०-१५२ ॥ यम उवाच श्रीकृष्णे च तदर्चायां मृन्मय्यां प्रकृतौ तथा । शिवे च शिवलिङ्गं वा सूर्ये सूर्यमणौ तथा ॥ १५३ ॥ गणेशे वा तदर्चायामेवं सर्वत्र सुन्दरि । करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १५४ ॥ यम बोले-हे सुन्दरि ! भगवान् श्रीकृष्ण, उनकी अर्चना, मिट्टी की बनी हुई श्रीदुर्गा जी की मूर्ति, शिव, शिवलिङ्ग, सूर्य, सूर्यमणि, गणेश एवं उनकी पूजा में भेद बुद्धि रखने वाले को ब्रह्महत्या लगती है ॥ १५३-१५४ ॥ स्वगुरौ स्वेष्टदेवे वा जन्मदातरि मातरि । करोति भेदबुद्धिं यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १५५ ॥ अपने गुरु, इष्टदेव, जन्मप्रद माता-पिता में भेद बुद्धि रखने वाले को ब्रह्महत्या लगती है ॥ १५५ ॥ वैष्णवेष्वन्यभक्तेषु ब्राह्मणेष्वितरेषु च । करोति समतां यो हि ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १५६ ॥ वैष्णवों, अन्यभक्तों, ब्राह्मणों और अन्य जातियों में समता रखने वाले को ब्रह्महत्या लगती है ॥ १५६ ॥ यो मूढो विष्णुनैवेद्ये चान्यनैवेद्यके तथा । हरेः पादोदकेष्वन्यदेवपादोदके तथा ॥ करोति समतां यो हि ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १५७ ॥ जो मूर्ख भगवान् विष्णु के नैवेद्य, अन्य के नैवेद्य, भगवान् के चरणोदक और अन्य देव के चरणोदक में समता रखते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या लगती है ॥ १५७ ॥ सर्वेश्वरेश्वरे कृष्णे सर्वकारणकारणे । सर्वाद्ये सर्वदेवानां सेव्ये सर्वान्तरात्मनि ॥ १५८ ॥ माययाऽनेकरूपे वाऽप्येक एव हि निर्गुणे । करोत्यन्येन समतां ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १५९ ॥ समस्त ईश्वरों के ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के साथ, जो समस्त कारणों के कारण, सब के आदि, सब देवों के सेव्य, सबके अन्तरात्मा, माया द्वारा अनेक रूप धारण करने वाले (सगुण) अथवा निर्गुण एक ही रहने वाले हैं, अन्य की समता करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १५८-१५९ ॥ पितृदेवार्चनां पौर्वापरां वेदविनिर्मिताम् । यः करोति निषेधं च ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १६० ॥ पितरों एवं देवों की वेदविहित पूर्वापर अर्चना का जो निषेध करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६० ॥ ये निन्दन्ति हृषीकेशं तमन्त्रोपासकं तथा । पवित्राणां पवित्रं च ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ १६१ ॥ जो पवित्रों के पवित्र भगवान् हृषीकेश (विष्णु) और उनके मन्त्रों के उपासकों की निन्दा करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६१ ॥ शिवं शिवस्वरूपं च कृष्णप्राणाधिकं प्रियम् । पवित्राणां पवित्रं च ज्ञानानन्दं सनातनम् ॥ १६२ ॥ प्रधानं वैष्णवानां च देवानां सेव्यमीश्वरम् । ये नार्चयन्ति निन्दन्ति ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ १६३ ॥ कल्याण स्वरूप शिव भगवान् श्रीकृष्ण को उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं और पवित्रों के पवित्र, ज्ञानानन्द, सनातन, वैष्णवों में प्रधान, देवों में श्रेष्ठ तथा ईश्वर हैं । उनकी जो अर्चना नहीं करता अपितु निन्दा करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६२-१६३ ॥ ये विष्णुमायां निन्दन्ति विष्णुभक्तिप्रदां सतीम् । सर्वशक्तिस्वरूपां च प्रकृतिसर्वमातरम् ॥ १६४ ॥ सर्वदेवीस्वरूपां च सर्वाद्या सर्ववन्दिताम् । सर्वकारणरूपां च ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ १६५ ॥ भगवान् की माया प्रकृति विष्ण की भक्ति देनेवाली, सती, सम्पूर्ण शक्ति स्वरूपा, सबकी माता, समस्त देवीस्वरूपा, सर्वादि, सर्ववन्दिता और समस्त कारण रूपा हैं । जो उनकी निन्दा करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६४-१६५ ॥ कृष्णजन्माष्टमीं रामनवमीं पुण्यदां पराम् । शिवरात्रिं तथा चैकादशीं वारं रवेस्तथा ॥ १६६ ॥ पञ्च पर्वाणि पुण्यानि ये न कुर्वति मानवाः । लभन्ते ब्रह्महत्यां ते चाण्डालाधिकपापिनः ॥ १६७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी, पुण्यदायिनी एवं परमोत्तम रामनवमी, शिवरात्रि, एकादशी, रविवार, इन पांचों पुण्य पर्वो का व्रत जो मनुष्य नहीं करते हैं, वे चाण्डाल से भी अधिक पापी हैं और उन्हें ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६६-१६७ ॥ अम्बुवीच्याबुखनने जले शौचादिकं च ये । कुर्वन्ति भारते वर्षे ब्रह्महत्यां लभन्ति ते ॥ १६८ ॥ हे वत्से ! भारतप्रदेश में जो जल की लहरों के द्वारा उत्पन्न किये गड्ढे में और जल में शौचादि क्रिया करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६८ ॥ गुरुं च मातरं तातं साध्वीं भार्यां सुतं सुताम् । अनाथान्यो न पुष्णाति ब्रह्महत्या लभेत्तु सः ॥ १६९ ॥ जो अपने गुरु, माता, पिता, पतिव्रता स्त्री, पुत्र, कन्या और अन्य अनाथों का यथाशक्ति पालन-पोषण नहीं करता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १६९ ॥ विवाहो यस्य न भवेन्न पश्यति सुतं च यः । हरिभक्तिविहीनो यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १७० ॥ जिसका विवाह नहीं होता है, जो पुत्र का मुख नहीं देखता है, भगवान् की भक्ति से रहित होता है, उसे ब्रह्महत्या लगती है ॥ १७० ॥ हरेरनैवेद्यभोजी नित्यं विष्णुं न पूजयेत् । पुण्यं पार्थिवलिङ्गं वा ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ॥ १७१ ॥ भगवान् विष्णु का नैवेद्य न खाने वाले को तथा नित्य भगवान् की या पुण्य पार्थिव लिङ्ग की अर्चा न करने वाले को ब्रह्महत्या लगती है ॥ १७१ ॥ आहारं कुर्वतीं गां च पिबन्तीं यो निवारयेत् । याति गोविप्रयोर्मध्ये गोहत्या च लभेत्तु सः ॥ १७२ ॥ खाती हुई या जल पीती हुई गो को रोकने वाले तथा गौ और ब्राह्मण के बीच से निकलने वाले को ब्रह्महत्या लगती है ॥ १७२ ॥ दण्डैर्गास्ताडयेन्मूढो यो विप्रो वृषवाहकः । दिने दिने गवां हत्यां लभते नात्र संशयः ॥ १७३ ॥ जो मूर्ख ब्राह्मण दण्ड द्वारा गौ को आघात पहुँचाता है, गाड़ी या हल में बैलों को जोतता है, उसे प्रतिदिन गौओं को हत्याएँ लगती हैं, इसमें संशय नहीं ॥ १७३ ॥ ददाति गोभ्य उच्छिष्टं याजयेद्वृषवाहकम् । भोजयेद्वृषवाहान्नं स गोहत्या लभेद्ध्रुवम् ॥ १७४ ॥ गौओं को जो जूटा खिलाता है, वृषवाहक को यज्ञ कराता है और वृषवाह का अन्न भोजन कराता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १७४ ॥ वृषलीपतिं याजयेद्यो भुङ्क्तेऽन्नं तस्य यो नरः । गोहत्याशतकं सोऽपि लभते नात्र संशयः ॥ १७५ ॥ जो शूद्रस्त्री के पति को यज्ञ कराता है तथा जो मनुष्य उसका अन्न खाता है, उसको सैकड़ों गोहत्याएँ लगती हैं, इसमें संदेह नहीं । ॥ १७५ ॥ पादं ददाति वह्नौ च गाश्च पादेन ताडयेत् । गृहं विशेदधौताङ्घ्रिः स्नात्वा गोवधमाप्नुयात् ॥ १७६ ॥ जो अग्नि की ओर चरण करता है, गौ को पैर से मारता है, स्नान करके बिना चरण धोये घर में घुसता है, उसे गोहत्या लगती है ॥ १७६ ॥ यो भुडःक्ते स्निग्धपादेन शेते स्निग्धाङ्घ्रिरेव च । सूर्योदये च द्विर्भोजी स गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १७७ ॥ जो पैरों में तेल लगाकर भोजन तथा शयन करता और सूर्योदय के समय दो बार भोजन करता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १७७ ॥ अवोरान्नं च यो भुङ्क्ते योनिजीवी च वै द्विजः । यस्त्रिसंध्याविहीनश्च स गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १७८ ॥ जो ब्राह्मण अवीरा (पति पुत्र रहित विधवा) स्त्री का अन्न भोजन करता है, (स्त्री के) व्यभिचार द्वारा जीविका चलाता है और तीनों काल में संध्योपासन कर्म नहीं करता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १७८ ॥ पितृंश्च पर्वकाले च तिथिकाले च देवताम् । न सेवतेऽतिथिं यो हि गोहत्या स लभेद्ध्रुवम् ॥ १७९ ॥ जो पर्वतिथियों में पितरों और तिथियों में देवों एवं अतिथियों की सेवा नहीं करता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १७९ ॥ स्वभर्तरि च कृष्णे च भेदबुद्धिं करोति या । कटूक्त्या ताडयेत्कान्तं सा गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १८० ॥ जो स्त्री अपने पति और भगवान कृष्ण में भेदभावना रखती है और कटु वाणी से पति को आघात पहुँचाती है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८० ॥ गोमार्गखननं कृत्वा वपते सस्यमेव च । तडागे वा तदूर्ध्वं वा स गोहत्या लभेद्ध्रुवम् ॥ १८१ ॥ जो गोमार्ग को जोतकर खेती करता है, तालाब में और उसके ऊपरी भूमि में भी बीज बोता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८१ ॥ प्रायश्चित्तं गोवधस्य यः करोति व्यतिक्रमम् । अर्थलोभादथाज्ञानात्स गोहत्या लभेद्ध्रुवम् ॥ १८२ ॥ जो धन के लोभवश या अज्ञानवश गोहत्या का प्रायश्चित्त व्यतिक्रम (उलटापुलटा) कर डालता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८२ ॥ राजके दैवके यत्नाद्गोस्वामी गां न पालयेत् । दुःखं ददाति यो मूढो गोहत्यां स लभेद्ध्रुवम् ॥ १८३ ॥ जो गोपाल राजा या देव के उत्सव के दिन गौओं का विशेष सत्कार नहीं करता है, और दुःखी करता है, उस मूर्ख को निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८३ ॥ प्राणिनं लङ्घयेद्यो हि देवार्चायां रतं जलम् । नैवेद्यं पुष्पमन्नं च स गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १८४ ॥ जो किसी प्राणी, देवपूजन के जल,नैवेद्य, पुष्प तथा अन्न को लांघता है, उसे गोहत्या लगती है । ॥ १८४ ॥ शश्वन्नास्तीति वादी यो मिथ्यावादी प्रतारकः । देवद्वेषो गुरुद्वेषी स गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १८५ ॥ जो निरन्तर (सबसे) नहीं शब्द का ही प्रयोग करता है, मिथ्यावादी एवं धोखेबाज है, देव और गुरु से द्वेष करता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८५ ॥ देवताप्रतिमां दृष्ट्वा गुरुं वा ब्राह्मणं सति । संभ्रमान्न नमेद्यो हि स गोहत्या लभेद्ध्रुवम् ॥ १८६ ॥ देवमूर्ति, गुरु एवं ब्राह्मण को देखते ही जो नम्र नहीं होता है, उसे गोहत्या लगती है ॥ १८६ ॥ न ददात्याशिषं कोपात्प्रणताय च यो द्विजः। विद्यार्थिने च विद्यां वै स गोहत्यां लभेद्ध्रुवम् ॥ १८७ ॥ जो ब्राह्मण ऋद्ध होने के नाते किसी प्रणत को आशीर्वाद नहीं देता है और विद्यार्थी को विद्या नहीं प्रदान करता है, उसे निश्चित गोहत्या लगती है ॥ १८७ ॥ गोहत्या ब्रह्महत्या च कथिता चाऽऽतिदेशिकी । यथा श्रुतं सूर्यवक्त्रात्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १८८ ॥ जिस प्रकार मैंने सूर्य के मुख से आतिदेशिकी गोहत्या तथा ब्रह्महत्या सुनी थी वह तुम्हें बता दी । अब और क्या सुनना चाहती हो ॥ १८८ ॥ सावित्र्युवाच वास्तव चाऽऽतिदेशे च संबन्धे पापपुण्ययोः । न्यूनाधिके च को भेदस्तन्मां व्याख्यातुमर्हसि ॥ १८९ ॥ सावित्री बोली-वास्तव और अतिदेश में तथा पाप और पुण्य के न्यूनाधिक सम्बन्ध में क्या भेद है, वह मुझे बतायें ॥ १८९ ॥ यम उवाच कुत्रापि वास्तवः श्रेष्ठो न्यूनोऽतिदेशिकः सदा । कुत्राऽऽतिदेशिकः श्रेष्ठो वास्तवोन्यून एव च ॥ १९० ॥ कुत्र वा समता साध्वि तयोर्वेदप्रमाणतः । करोति तत्र नाऽऽस्थां यो गुरुहत्या लभेत्तु सः ॥ १९१ ॥ यम बोले हे साध्वि ! कहीं वास्तव श्रेष्ठ होता है और आतिदेशिक न्यून होता है । फिर कहीं आतिदेशिक श्रेष्ठ होता है और वास्तव न्यून होता है । कहीं दोनों की समता है, इसमें वेद प्रमाण है । इस प्रमाण में जो आस्था (विश्वास) नहीं रखता है, उसे गुरुहत्या लगती है ॥ १९०-१९१ ॥ पुरा परिचिते विप्रे विद्यामन्त्रप्रदातरि । गुरौ पितृत्वमारोपाद्वस्तुतः श्रेष्ठ उच्यते ॥ १९२ ॥ पहले के परिचित ब्राह्मण और विद्या तथा मन्त्र के प्रदाता गुरु में पितृत्व का आरोप (कल्पना) करना वस्तुतः श्रेष्ठ है ॥ १९२ ॥ पितुः शतगुणा माता मातुः शतगुणस्तथा । विद्यामन्त्रप्रदाता च गुरुः पूज्यः श्रुतेर्मतः ॥ १९३ ॥ पिता से सौगुनी माता और माता से सौगुने विद्या तथा मन्त्र देने वाले गरु पूज्य हैं, यह वेद का मत है ॥ १९३ ॥ गुरुतो गुरुपत्नी च गौरवे च गरीयसी । यथेष्टं देवपत्नी च पूज्या चाभीष्टदेवता ॥ १९४ ॥ गुरु से गुरुपत्नी का गौरव श्रष्ठ है, और देवपत्नी भी यथेष्ट पूज्या एवं अभीष्ट देवता के समान है ॥ १९४ ॥ विप्रः शिवसमो यश्च विष्णुतुल्यपराक्रमः । राजाऽऽतिदेशिकाच्छ्रेष्ठो वास्तवो गुणलक्षतः ॥ १९५ ॥ ब्राह्मण शिव के समान पूज्य है । और भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी राजा भी पूज्य है, किन्तु 'वास्तव' 'आतिदेशिक' से लाख गुना श्रेष्ठ है ॥ १९५ ॥ सर्वं गङ्गासमं तोयं सर्वे व्याससमा द्विजाः । ग्रहणे सूर्यशशिनोश्चात्रैव समता तयोः ॥ १९६ ॥ इस भांति सभी जल गङ्गाजल के समान हैं एवं सभी ब्राह्मण व्यास के समान हैं ऐसा सूर्य चन्द्रमा के ग्रहण के समय ही इन दोनों की समता कही गयी है । ॥ १९६ ॥ आतिदेशिकहत्याया वास्तवश्च चतुर्गुणः । संमतः सर्ववेदानामित्याह कमलोद्भवः ॥ १९७ ॥ आतिदेशिक हत्या से वास्तविक हत्या चार गुनी अधिक है, ऐसी समस्त वेदों की सम्मति है और इसे ब्रह्मा ने भी स्वयं कहा है ॥ १९७ ॥ आतिदेशिकहत्याया भेदश्च कथितः सति । या या गम्या नृणामेव निबोध कथयामि ते ॥ १९८ ॥ स्वस्त्री गम्या च सर्वेषामिति वेदे निरूपिता । अगम्या च तदन्या या चेति वेदविदो विदुः ॥ १९९ ॥ इस प्रकार आतिदेशिक हत्या का भेद मैंने तुम्हें बता दिया, अब मनुष्यों के लिए जो जो गम्य है, उसे बता रहा हूँ । सुनो । वेद में यह बताया गया है कि केवल अपनी ही स्त्री गम्या (भोग करने के योग्य ) होती है, ऐसा सभा क लिए आदेश है । और उससे भिन्न अन्य स्त्री अगम्या होती है यह भी वेद-विदों का कहना है ॥ १९८-१९९ ॥ सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं शृणु सुन्दरि । अत्यगम्याश्च या या वै निबोध कथयामि ते ॥ २०० ॥ हे सुन्दरि । इस भांति इसका सामान्य भेद तो मैंने बता दिया है अब उसका विशेष भेद बता रहा हूँ, सुनो और अति अगम्या कौन हैं वह भी कह रहा हूँ ॥ २०० ॥ शूद्राणां विप्रपत्नी च विप्राणां शूद्रकामिनी । अत्यगम्याऽतिनिन्द्या च लोके वेदे पतिव्रते ॥ २०१ ॥ हे पतिव्रते ! शूद्रों के लिए ब्राह्मणी और ब्राह्मणों के लिए शूद्र की स्त्री अत्यन्त अगम्या (भोग करने के लिए अत्यन्त अनुपयुक्त) हैं और लोक वेद दोनों में अतिनिन्द्य हैं ॥ २०१ ॥ शूद्रश्चेद्ब्राह्मणी गच्छेद्ब्रह्महत्याशतं लभेत् । तत्समं ब्राह्मणी चापि कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम् ॥ २०२ ॥ जो शूद्र ब्राह्मणी के साथ भोग करता है उसे सौ ब्रह्महत्यायें लगती हैं, और उसी के समान ब्राह्मणी भी कुम्भीपाक में निश्चित जाती है ॥ २०२ ॥ यदि शूद्रां व्रजेद्विप्रो वृषलीपतिरेव सः । स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चण्डालात्सोऽधमः स्मृतः ॥ २०३ ॥ यदि ब्राह्मण शूद्र की स्त्री के साथ गमन करता है, तो उसे वृषलीपति कहा जाता है और ब्राह्मण जाति से भ्रष्ट होने के नाते वह चाण्डाल से भी अधम कहा गया है ॥ २०३ ॥ विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रतूल्यं च तर्पणम् । तत्पितॄणां सुराणां च पूजने तत्समं सति ॥ २०४ ॥ उसका दिया हआ पिण्ड विष्ठा के समान और तर्पण मूत्र के तुल्य हैं. जो उसके पितरों और देवों के पूजन-समय वैसा ही हो जाता है ॥ २०४ ॥ कोटिजन्माजितं पुण्यं संध्यार्चातपसाऽर्जितम् । द्विजस्य वृषलीभोगान्नश्यत्येव न संशयः ॥ २०५ ॥ इस प्रकार सन्ध्योपासना, देवार्चन एवं तप द्वारा अजित ब्राह्मणों के करोड़ों जन्मों के संचित पुण्य, उस वृषली (शूद्र स्त्री) के साथ भोग करने से तुरन्त नष्ट हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ २०५ ॥ ब्राह्मणश्च सुरापीती विट्भोजी वृषलीपतिः । हरिवासरभोजी च कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम् ॥ २०६ ॥ एवं मद्यपान करने वाला ब्राह्मण, काला नमक खाने वाला वृषली (शूद्र स्त्री का) पति (ब्राह्मण), और एकादशी को अन्न खाने वाला निश्चित कुम्भीपाक (नरक) में जाता है ॥ २०६ ॥ गुरुपत्नीं राजपत्नीं सपत्नीं मातरं प्रसूम् । सुतां पुत्रवधूं श्वश्रूं सगर्भां भगिनीं सति ॥ २०७ ॥ सोदरभ्रातृजायां च मातुलानीं पितृप्रसूम् । मातुः प्रसूं तत्त्वसारं गर्भिणीं भ्रातृकन्यकाम् ॥ २०८ ॥ शिष्या च शिष्यपत्नीं च भागिनेयस्य कामिनीम् । भ्रातुः पुत्रप्रियां चैवाप्यगम्यामाह पद्मजः ॥ २०९ ॥ गुरुपत्नी, राजा की पत्नी, सौतेली माता, जननी, कन्या, पुत्रस्त्री (पतोहू), सास, सास की भगिनी, सगे भाई की स्त्री, मामी, पिता की माता, नानी, नानी की बहिन, भगिनी, भाई की कन्या, शिष्या, शिष्य की पत्नी, भानजे की पत्नी और भाई के पुत्र की वधू (पतोहू), इतनी स्त्रियाँ अगम्या होती हैं, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ २०७-२०९ ॥ एतास्वेकामनेकां वा यो व्रजेन्मानवोऽधमः । स्वमातृगामी वेदेषु ब्रह्महत्याशतं लभेत् ॥ २१० ॥ इनमें किसी एक के अथवा अनेक के साथ जो भोग करता है, वह नराधम अपनी माता के साथ भोग करता है ऐसा वेदों में बताया गया है और उसे सैकड़ों ब्रह्महत्याएँ लगती हैं ॥ २१० ॥ अकर्मार्होऽपि सोऽस्पृश्यो लोके वेदेऽतिनिन्दितः । स याति कुम्भीपाकं च महापापी सुदुस्तरम् ॥ २११ ॥ वह सभी (शुभ) कर्मों के करने के अयोग्य, अछूत एवं लोक-वेद में अतिनिन्दित होता है और वह महापापी अतिदुस्तर कुम्भीपाक में जाता है ॥ २११ ॥ करोत्यशुद्धां संध्यां च संध्यां वा न करोति यः । त्रिःसंध्यां वर्जयेद्यो वा संध्याहीनश्च स द्विजः ॥ २१२ ॥ जो अशुद्ध सन्ध्या करता है, अथवा सन्ध्या नहीं करता–तीनों संध्याओं को नहीं करता है वह ब्राह्मण सन्ध्याहीन कहा जाता है ॥ २१२ ॥ वैष्णवं च तथा शैवं शाक्तं सौरं च गाणपम् । योऽहंकारान्न गृह्णाति मन्त्रं सोऽदीक्षितः स्मृतः ॥ २१३ ॥ जो वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर तथा गाणपत्य मन्त्र का, अहङ्कारवश ग्रहण नहीं करता है, वह अदीक्षित कहा जाता है ॥ २१३ ॥ प्रवाहमवधिं कृत्वा यावद्धस्तचतुष्टयम् । तत्र नारायणः स्वामी गङ्गागर्भान्तरे वरे ॥ २१४ ॥ तत्र नारायणक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे हरेः पदे । वाराणस्यां बदर्यां च गङ्गासागरसंगमे ॥ २१५ ॥ पुष्करे भास्करक्षेत्रे प्रभासे रासमण्डले । हरिद्वारे च केदारे सोमे बदरिकाश्रमे ॥ २१६ ॥ सरस्वतीनदीतोरे पुण्ये वृन्दावने वने । गोदावर्यां च कौशिक्यां त्रिवेण्यां च हिमालये ॥ २१७ ॥ एष्वन्यत्र च यो दानं प्रतिगृह्णाति कामतः । स च तीर्थप्रतिग्राही कुम्भीपाकं प्रयाति च ॥ २१८ ॥ (जल में) प्रवाह से चार हाथ किनारे की ओर की भूमि को, जो श्रेष्ठ गंगागर्मान्तर है, नारायणक्षेत्र कहते हैं । उसके स्वामी स्वयं नारायण देव हैं । उस नारायणक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में, विष्णुपद, वाराणसी, बदरी, गंगासागरसंगम, पुष्कर, भास्करक्षेत्र, प्रभास, रासमण्डल, हरिद्वार, केदार, सोम, बदरिकाश्रम, सरस्वती नदी के किनारे, पुण्य वृन्दावन नामक वन, गोदावरी, कौशिकी, त्रिवेणी एवं हिमालय, इन स्थानों में तथा अन्य स्थानों में भी जो कामनापूर्वक दान ग्रहण करता है, वह तीर्थप्रतिग्राही है, उसे कुम्भीपाक नरक में जाना पड़ता है ॥ २१४-२१८ ॥ शूद्रातिरिक्तयाजी यो ग्रामयाजी च कीर्तितः । तथा देवोपजीवी यो देवलः परिकीर्तितः ॥ २१९ ॥ शूद्र से अतिरिक्त अन्य के यज्ञ कराने वाले को ग्रामयाजी कहते हैं । और देवोपजीवी (देवपूजा से जीविका चलाने वाले) को देवल (पुजारी) कहते हैं ॥ २१९ ॥ शूद्रपाकोपजीवी यः सूपकार इति स्मृतः । संध्यापूजाविहीनश्च प्रमत्तः पतितः स्मृतः ॥ २२० ॥ शूद्र के पाकालय में रहकर जीविका चलाने वाला भंडारी कहा जाता है । संध्या-पूजन से हीन को प्रमत्त और पतित कहते हैं ॥ २२० ॥ उक्तं पूर्वप्रकरणे लक्षणं वृषलीपतेः । एते महापातकिनः कुम्भीपाकं प्रयान्ति ते ॥ २२१ ॥ पूर्व प्रकरण में वृषलीपति का लक्षण बता दिया गया है । ये महापातकी लोग कुम्भीपाक नरक में जाते हैं ॥ २२१ ॥ कुण्डान्यन्यानि ये यान्ति निबोध कथयामि ते ॥ २२२ ॥ (नरक के) अन्य कुण्डों में जो जाते हैं, उन्हें भी बता रहा हूँ, सुनो ॥ २२२ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे कर्मविपाके पापिनरकनिरूपणं शिवप्राशस्त्यं ब्रह्महत्यादिपदार्थपरिभाषानिरूपणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद-विषयक सावित्री-उपाख्यान में यमसावित्री-संवाद के कर्मविपाक-प्रकरण में ब्रह्महत्यादिपदार्थ-परिभाषा-निरूपण नामक तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३० ॥ |