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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकत्रिंशोऽध्यायः कर्मविपाके पापिनां कुण्डनिर्णयः -
पापियों के नरककुण्डों का निर्णय - यम उवाच हरिसेवां विना साध्वि न लभेत्कर्मखण्डनम् । शुभकर्म स्वर्गबीजं नरकं च कुकर्मतः ॥ १ ॥ यम बोले-हे साध्वि ! बिना भगवान् की सेवा किये कर्मों का नाश नहीं होता है; क्योंकि शुभकर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और कुकर्म से नरक प्राप्त होता है ॥ १ ॥ पुश्चल्यन्नं च यो भुङक्ते वेश्यान्नं च पतिव्रते । तां व्रजेत्तु द्विजो योहि कालसूत्रं प्रयाति सः ॥ २ ॥ हे पतिव्रते ! व्यभिचारिणी स्त्री का अन्न एवं वेश्या का अन्न खाने वाला और वेश्या का भोग करने वाला ब्राह्मण कालसूत्र नामक नरक में जाता है ॥ २ ॥ शतवर्षं कालसूत्रे स्थित्वा शूद्रो भवेद्ध्रुवम् । तत्र जन्मनि रोगी च ततः शुद्धो भवेद्द्विजः ॥ ३ ॥ वहाँ सौ वर्ष तक कालसूत्र में रहकर अन्त में शूद्र के यहाँ उत्पन्न होता है, और जन्म से ही रोगी रहता है, पश्चात् उस ब्राह्मण की शुद्धि होती है ॥ ३ ॥ पतिव्रता चैकपत्नी द्वितीये कुलटा स्मृता । तृतीये धर्षिणी ज्ञेया चतुर्थे पुंश्चली स्मृता ॥ ४ ॥ इस प्रकार एक पति वाली स्त्री पतिव्रता, दो पति वाली स्त्री 'कुलटा', तीन पति वाली 'धर्षिणी' और चार पति (पुरुषों से संभोग कराने) वाली स्त्री पुंश्चली कही जाती है ॥ ४ ॥ वेश्या च पञ्चमे षष्ठे युग्मी च सप्तमेऽष्टमे ॥ ततः ऊर्ध्वं महावेश्या साऽस्पृश्या सर्वजातिषु ॥ ५ ॥ पांच से संभोग कराने वाली को 'वेश्या', छह से भोग करानेवाली को 'युग्मी' और इससे अधिक वाली को 'महावेश्या' कहते हैं, वह सभी जातियों में अछूत है ॥ ५ ॥ यो द्विजः कुलटां गच्छेद्धर्षिणीं पुंश्चलीमपि । वेश्यां युग्मीं महावेश्यामवटोदं प्रयाति सः ॥ ६ ॥ जो ब्राह्मण कुलटा, धर्षिणी, पुंश्चली, वेश्या, युग्मी और महावेश्या के साथ संभोग करता है, वह अवटोद नामक नरक में जाता है ॥ ६ ॥ शताब्दं कुलटागामी धृष्टागामी चतुर्गुणम् । षड्गुणं पुंश्चलीगामी वेश्यागामी गुणाष्टकम् ॥ ७ ॥ युग्मीगामी दशगुणं वसेत्तत्र न संशयः । महावेश्याकामुकश्च ततः शतगुणं वसेत् ॥ ८ ॥ वहाँ कुलटागामी सौ वर्ष, उससे चौगुने वर्ष घृष्टागामी, उससे छह गुने पुंश्चलीगामी, आठ गुने वेश्यागामी, दस गुने युग्मीगामी और महावेश्यागामी कामी उससे सौ गुने अधिक वर्ष तक रहता है, इसमें संशय नहीं ॥ ७-८ ॥ तदा हि सर्वगामी चेत्येवमाह पितामहः । तत्रैव यातनां भुङ्क्ते यमदूतेन ताडितः ॥ ९ ॥ तब वह सर्वगामी भी कहा जाता है, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है । इस प्रकार वह वहाँ यमदूतों द्वारा ताड़ित होते हुए यातनाएँ भोगता है ॥ ९ ॥ तित्तिरः कुलटागामी धृष्टागामी च वायसः । कोकिलः पुंश्चलीगामी वेश्यागामी वृकस्तथा ॥ १० ॥ युग्मीगामी सूकरश्च सप्तजन्मसु भारते । महावेश्याकामुकश्च श्मशाने शाल्मलिस्तरुः ॥ ११ ॥ पश्चात् भारत में सात जन्मों तक कुलटागामी तित्तिर, धृष्टागामी कौवा, पुंश्चलीगामी कोकिल, वेश्यागामी भेड़िया, युग्मीगामी सूकर और महावेश्यागामी श्मशान में सेमर का वृक्ष होता है ॥ १०-११ ॥ यो भुङ्क्ते ज्ञानहीनश्च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । अरुंतुदं स यात्येव चन्द्रमानाब्दमेव च ॥ १२ ॥ जो चन्द्र-सूर्य के ग्रहण समय अज्ञानवश भोजन करता है, वह चन्द्रमा के प्रमाण वर्ष तक अरुन्तुद नामक नरक में रहता है ॥ १२ ॥ ततो भवेन्मानवश्चाप्युदरव्याधिसंयुतः । गुल्मयुक्तश्च काणश्च दन्तहीनस्ततः शुचिः ॥ १ ३ ॥ पश्चात् मानव के यहाँ जन्म ग्रहण कर उदररोग से पीड़ित, गुल्म का रोगी, काना और दाँतों से रहित होता है । अनन्तर उसकी शुद्धि होती है ॥ १३ ॥ वाक्प्रदत्तां हि कन्यां च यश्चान्यस्मै ददाति च । स वसेत्पांशुभोगे च तद्भोजो च शताब्दकम् ॥ १४ ॥ वाग्दान द्वारा दी हुई कन्या को जो अन्य किसी को दे देता है, वह सौ वर्ष तक पांशुभोग नामक नरक में जाता है और वही (लि) भोजन भी करता है ॥ १४ ॥ दत्तापहारी यः साध्वि पाशवेष्टं शताब्दकम् । निवसेच्छरशय्यायां यमदूतेन ताडितः ॥ १५ ॥ हे साध्वि ! दान दी हुई वस्तु का अपहरण करनेवाला फाँस से आबद्ध होकर शरशय्या नामक नरक में सौ वर्ष तक यमदूतों द्वारा ताड़ित होता है ॥ १५ ॥ न पूजयेद्यो हि भक्त्या शिवलिङ्गं च पार्थिवम् । स याति शूलिनः कोपाच्छूलप्रोतं सुदारुणम् ॥ १६ ॥ जो भक्तिपूर्वक भगवान् शङ्कार के पार्थिव लिङ्ग का पूजन नहीं करता है, वह शङ्करजी के कोप के कारण शूलप्रोत नामक अति दारुण नरक में जाता है ॥ १६ ॥ स्थित्वा शताब्दं तत्रैव श्वापदः सप्तजन्मसु । ततो भवेद्देवलश्च सप्तजन्मस्वतः शुचिः ॥ १७ ॥ वहाँ सौ वर्ष तक यातनाओं को भोगकर यहाँ सात जन्मों तक हिंसक पशु और सात जन्मों तक मन्दिर का पुजारी होता है, अनन्तर शुद्ध होता है ॥ १७ ॥ करोति दण्डं यो विप्रे यद्भयात्कम्पते द्विजः । प्रकम्पने वसेत्सोऽपि विप्रलोमाब्दमेव च ॥ १८ ॥ जो ब्राह्मण को दण्ड देता है और जिसके भय से ब्राह्मण कम्पित होता है, वह उस ब्राह्मण के लोमप्रमाण वर्ष तक प्रकम्पन नरक में रहता है ॥ १८ ॥ प्रकोपवदना कोपात्स्वामिनं या च पश्यति । कटूक्तिं तं च वदति याति चोल्कामुखं च सा ॥ १९ ॥ अतिक्रोध मुख वाली जो स्त्री क्रुद्ध होकर अपने पति को देखती है और उन्हें कटु वाणी भी कहती है, वह उल्कामुख नामक नरक में जाती है ॥ १९ ॥ उल्कां ददाति वक्त्रे च सततं यमकिङ्करः । दण्डेन ताडयेन्मूर्ध्नि तल्लोमाब्दप्रमाणकम् ॥ २० ॥ वहाँ यम के दूत निरन्तर उसके मुख में उल्का (जलती हुई लकड़ी) डालते हैं और उसके लोमप्रमाण वर्ष तक दण्ड से उसके शिर पर आघात पहुंचाते हैं ॥ २० ॥ ततो भवेन्मानवी च विधवा सप्तजन्मसु । भुक्त्वा दुःखं च वैधव्यं व्याधियुक्ता ततः शुचिः ॥ २१ ॥ पश्चात् सात जन्मों तक वह मनुष्य होकर विधवा होती है । इस भांति विधवा-दुःख अनुभव करके वह रोगपीड़ित होती है और अनन्तर शुद्ध होती है । ॥ २१ ॥ या ब्राह्मणी शूद्रभोग्या साऽन्धकूपं प्रयाति च । तप्तशौचोदके ध्वान्ते तदाहारा दिवानिशम् ॥ २२ ॥ जो ब्राह्मणी शूद्र से संभोग कराती है, वह अन्धकूप नामक नरक में जाती है । वहाँ शौच के संतप्त जल में और अँधेरे में वही पीकर दिन-रात रहती है ॥ २२ ॥ निवसेदतिसंतप्ता यमदूतेन ताडिता । शौचोदके निमग्ना च यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २३ ॥ इस भांति अतिसंतप्त होकर निवास करने पर भी यमदूत उसे ताड़ना देते हैं । इस प्रकार उस शौचजल में वह चौदह इन्द्रों के समय तक रहती है ॥ २३ ॥ काकी जन्मसहस्राणि शतजन्मानि सूकरी । कुक्कुटी शतजन्मानि शृगाली सप्तजन्मसु ॥ २४ ॥ पारावती सप्तजनौ वानरी सप्तजन्मसु । ततो भवेत्सा चण्डाली सर्वभोग्या च भारते ॥ २५ ॥ ततो भवेच्च रजकी यक्ष्मग्रस्ता च पुंश्चली । ततः कुष्ठयुता तैलकारी शुद्धा भवेत्ततः ॥ २६ ॥ पश्चात् भारत में सहस्र जन्मों तक कौए की मादा, सौ जन्मों तक सूकरी, सौ जन्मों तक मुर्गी, सात जन्मों तक सियारिन, सात जन्मों तक कबूतरी, और सात जन्मों तक वानरी होकर अनन्तर भारत में चाण्डाली, सर्वजनभोग्या, धोबिन तथा यक्ष्मा से पीड़ित वेश्या होती है । अनन्तर कुष्ठ रोग से पीड़ित तेलिन होती है और तब उसकी शुद्धि होती है ॥ २४-२६ ॥ वेश्या वसेद्वेधने च युग्मी वै दण्डताडने । जालबन्धे महावेश्या कुलटा देहचूर्णके ॥ २७ ॥ स्वैरिणी दलने चैव धृष्टा वै शोषणे तथा । निवसेद्यातनायुक्ता यमदूतेन ताडिता ॥ २८ ॥ विण्मूत्रभक्षणं तत्र यावन्मन्वन्तरं सति । ततो भवेद्विट्कृमिश्च वर्षलक्षं ततः शुचिः ॥ २९ ॥ उसी प्रकार वेश्या वेधन नरक में, युग्मी दण्डताडन नरक में, महावेश्या जालबन्ध नरक में, कुलटा देहचूर्ण नरक में, तथा स्वैरिणी दलन नरक में, धृष्टा शोषण नरक में जाती है और यमदूतों द्वारा ताड़ित होकर भाँति-भांति की यातनाओं को सहन करती है । इस प्रकार एक मन्वन्तर के समय तक वहाँ विष्ठा भक्षण करके रहती है । पश्चात् लाख वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होती है । तब उसकी शुद्धि होती है ॥ २७-२९ ॥ ब्राह्मणो ब्राह्मणीं गच्छेत्क्षत्रियामपि क्षत्रियः । वैश्यो वैश्यां च शूद्रां च शूद्रो वाऽपि व्रजेद्यदि ॥ ३० ॥ स्ववर्णपरदारी च कषं याति तथा सह । भुक्त्वा कषायतप्तोदं निवसेद्द्वादशाब्दकम् ॥ ३१ ॥ यदि ब्राह्मण किसी अन्य ब्राह्मणी के साथ क्षत्रिय अन्य क्षत्रियपत्नी के साथ, वैश्य अन्य वैश्य की पत्नी के साथ और शूद्र अन्य शूद्र की पत्नी के साथ संभोग करता है, तो वह अपनी जाति की अन्य स्त्री के साथ रमण करने वाला पुरुष उस स्त्री के साथ कष नरक में जाता है । वहाँ बारह वर्ष तक कसैला और तप्त जल वाले कुण्ड में रहकर वही पान करते हुए निवास करता है ॥ ३०-३१ ॥ ततो विप्रो भवेच्छुद्धश्चैवं च क्षत्रियादयः । योषितश्चापि शुध्यन्तीत्येवमाह पितामहः ॥ ३२ ॥ अनन्तर ब्राह्मण शुद्ध होता है । इसी प्रकार क्षत्रिय आदि और स्त्रियाँ शुद्ध होती हैं ऐसा ब्रह्मा ने स्वयं कहा है ॥ ३२ ॥ क्षत्रियो ब्राह्मणीं गच्छेद्वैश्यो वाऽपि पतिव्रते । मातृगामी भवेत्सोऽपि शूर्पं च नरकं व्रजेत् ॥ ३३ ॥ हे पतिव्रते ! क्षत्रिय या वैश्य यदि ब्राह्मणी के साथ रमण करता है, तो वह मातृगामी (माता के साथ व्यभिचार करनेवाला) कहा जाता है और वह शूर्प नामक नरक में जाता है ॥ ३३ ॥ शूर्पाकारैश्च कृमिभिर्ब्राह्मण्या सह भक्षितः । प्रतप्तमूत्रभोजी च यमदूतेन ताडितः ॥ ३४ ॥ वहाँ सूप के आकार वाले कीड़े ब्राह्मणी समेत उस पुरुष को नित्य (काट-काट कर) खाते हैं और पुरुष खौलते हुए मूत्र का पान करता है और यमदूतों द्वारा ताड़ित होता है ॥ ३४ ॥ तत्रैव यातनां भुङ्क्ते यावदिन्द्राश्चतुर्दश । सप्तजन्मसु वाराहश्छागलश्च ततः शुचिः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार चौदह इन्द्रों के समय तक वहाँ यातनाओं को भोगकर यहाँ सात जन्मों तक सूकर और बकरा होता है, तब उसकी शुद्धि होती है । ॥ ३५ ॥ करे धृत्वा च तुलसीं प्रतिज्ञां यो न पालयेत् । मिथ्या वा शपथं कुर्यात्स च ज्वालामुखं व्रजेत् ॥ ३६ ॥ हाथ में तुलसी लिए प्रतिज्ञा करके जो कोई उसका पालन नहीं करता है अथवा मिथ्या शपथ करता है, वह ज्वालामुख नरक में जाता है ॥ ३६ ॥ गङ्गातोयं करे धृत्वा प्रतिज्ञां यो न पालयेत् । शिलां च देवप्रतिमां स च ज्वालामुखं व्रजेत् ॥ ३७ ॥ जो हाथ में गंगाजल, शालग्रामशिला या देवप्रतिमा को लिए प्रतिज्ञा करता है और उसका पालन नहीं करता है, वह भी ज्वालामुख नामक नरक में जाता है ॥ ३७ ॥ दत्त्वा च दक्षिणं हस्तं प्रतिज्ञां यो न पालयेत् । स्थित्वा देवगृहे वाऽपि स च ज्वालामुखं व्रजेत् ॥ ३८ ॥ अपना दाहिना हाथ देकर जो प्रतिज्ञा करता है या देवमन्दिर में रहकर प्रतिज्ञा करता है और उसका पालन नहीं करता है, वह ज्वालामुख नरक में जाता है । ॥ ३८ ॥ स्पृष्ट्वा च ब्राह्मणं गां च वह्निं विष्णुसमं सति । न पालयेत्प्रतिज्ञां च स च ज्वालामुखं व्रजेत् ॥ ३९ ॥ विष्णु के समान होने वाले ब्राह्मण, गौ और अग्नि का स्पर्श करके जो प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता है, वह ज्वालामुख नरक में जाता है ॥ ३९ ॥ मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यो हि विश्वासघातकः । मिथ्यासाक्ष्यप्रदश्चैव स च ज्वालामुखं व्रजेत् ॥ ४० ॥ मित्र का द्रोही, कृतघ्न (उपकार न मानने वाला), विश्वासघाती एवं झूठी गवाही देने वाला ज्वालामुख नामक नरक में जाता है । ॥ ४० ॥ एते तत्र वसन्त्येव यावदिन्द्राश्चतुर्दश । यथाऽङ्गारप्रदग्धाश्च यमदूतैश्च ताडिताः ॥ ४१ ॥ इस प्रकार ये सभी प्राणी चौदह इन्द्रों के समय तक वहाँ अंगार से जले हुए की भाँति संतप्त रहते हुए निरन्तर यमदूतों द्वारा ताडित होते हैं ॥ ४१ ॥ चण्डालस्तुलसीस्पर्शी सप्तजन्मस्वतः शुचिः । म्लेच्छो गङ्गाजलस्पर्शी पञ्चजन्मस्वतः शुचिः ॥ ४२ ॥ शिलास्पर्शी विट्कृमिश्च सप्तजन्मसु सुन्दरि । अर्चास्पर्शी व्रणकृमिः सप्तजन्मस्वतः शुचिः ॥ ४३ ॥ तुलसी का स्पर्श करके झूठी शपथ खाने वाला सात जन्मों तक चाण्डाल होने के बाद शुद्ध होता है और गंगाजल का स्पर्श करके झूठी शपथ खाने वाला पाँच जन्मों तक म्लेच्छ होकर शुद्ध होता है । हे सुन्दरि ! शालग्राम शिला का स्पर्श करके झूठी शपथ खाने वाला सात जन्मों तक विष्ठा का कीड़ा होता है और अर्चा का स्पर्श के मिथ्या शपथ करने वाला सात जन्मों तक घाव का कीड़ा होता है और अनन्तर शुद्ध होता है ॥ ४२-४३ ॥ दक्षहस्तप्रदाता च सर्पः स्यात्सप्तजन्मसु । ततो भवेद्धस्तहीनो मानवश्च ततः शुचिः ॥ ४४ ॥ दाहिने हाथ को आगे रखकर मिथ्या शपथ करने वाला सात जन्मों तक सर्प होता है । पश्चात् हाथ रहित मनुष्य होकर शुद्ध होता है ॥ ४४ ॥ मिथ्यावादी देवगृहे देवलः सप्तजन्मसु । विप्रादिस्पर्शकारी च सोऽग्रदानी भवेद्ध्रुवम् ॥ ४५ ॥ देवमन्दिर में झूठ बोलने वाला सात जन्मों तक देवल (मन्दिर का पुजारी)होता है । ब्राह्मण आदि का स्पर्श करने वाला निश्चित महापात्र होता है ॥ ४५ ॥ ततो भवन्ति मूकास्ते बधिराश्च त्रिजन्मसु । भार्याहीना वंशहीना बुद्धिहीनास्ततः शुचिः ॥ ४६ ॥ अनन्तर तीन जन्म तक गूंगा और बहरा होता है, जो स्त्रीहीन, सन्तानहीन और बुद्धिहीन रहता है पश्चात् शुद्ध होता है ॥ ४६ ॥ मित्रद्रोही च नकुलः कृतघ्नश्चापि गण्डकः । विश्वासघाती व्याघ्रश्च सप्तजन्मसु भारते ॥ ४७ ॥ मिथ्यासाक्ष्यप्रदश्चैव भल्लूकः सप्तजन्मसु । पूर्वान्सप्त परान्सप्त पुरुषान्हन्ति चाऽऽत्मनः ॥ ४८ ॥ मित्र का द्रोही भारत में सात जन्मों तक नेवला, कृतघ्न गैंडा, विश्वासघाती बाघ और झूठी गवाही देने वाला भालू होता है । इस प्रकार ये सभी सात जन्मों तक अपने-अपने दुष्परिणाम भोगते हैं तथा अपने-अपने पूर्व और पर की सात-सात पीढ़ियों को भी नरक ले जाकर हनन करते हैं । ४७-४८ ॥ नित्यक्रियाविहीनश्च जडत्वेन युतो द्विजः । यस्यानास्था वेदवाक्ये मन्दं हसति संततम् ॥ ४९ ॥ व्रतोपवासहीनश्च सद्वाक्यपरिनिन्दकः । जिह्मे जिह्मो वसेत्सोऽपि शताब्दं च हिमोदके ॥ ५० ॥ जो नित्य-क्रिया से हीन एवं जड़ (मूर्ख) ब्राह्मण है, जो वेदवाक्यों में अविश्वास रखनेवाला है, जो मन्द बुद्धिवाले (मूर्ख) का निरन्तर उपहास करता है, जो व्रत-उपवास से रहित होकर सात्त्विक बातों की भलीभाँति निन्दा करता है और कुटिल के साथ कुटिल बन जाता है, वह हिम (बर्फ) के कुण्ड में सौ वर्ष तक दुःखानुभव करता है ॥ ४९-५० ॥ जलजन्तुर्भवेत्सोऽपि शतजन्मक्रमेण च । ततो नानाप्रकारा च मत्स्यजातिस्ततः शुचिः ॥ ५१ ॥ पश्चात् सौ जन्मों तक क्रमशः जल-जीव और अनेक मांति की मछली होता है, तब उसकी शुद्धि होती है ॥ ५१ ॥ यो वा धनस्यापहारं देवब्राह्मणयोश्चरेत् । पातयित्वा स्वपुरुषान्दश पूर्वान्दशापरान् ॥ ५२ ॥ स्वयं याति च धूमान्धं धूमध्वान्तसमन्वितम् । धूमक्लिष्टो धूमभोजी वसेत्तत्र चतुर्युगम् ॥ ५३ ॥ जो देवों या ब्राह्मणों का धन अपहरण करता है, वह अपने पूर्व के दश और पर के दश पुरुषों को नरक भेजकर स्वयं घूमांध नामक नरक में जाता है, जो धूम के घने अंधकार से आच्छन्न रहता है । वहाँ धूम से दुःखी होकर घूम का भोजन करता हुआ वह चारों युगों के समय तक रहता है ॥ ५२-५३ ॥ ततो मूषकजातिश्च शतजन्मानि भारते । ततो नानाविधाः पक्षिजातयः कृमिजातयः ॥ ५४ ॥ पश्चात् भारत में सौ जन्मों तक मूषक (चूहा), अनेक भांति के पक्षी और अनेक रंग के कीड़े होता है ॥ ५४ ॥ ततो नानाविधा वृक्षजातयश्च ततो नरः । भार्याहीनो वंशहीनः शबरो व्याधिसंयुतः ॥ ५५ ॥ पुनः अनेक भांति के वृक्ष होकर जंगली मनुष्य होता है, जो स्त्रीहीन, सन्तानहीन और व्याधि-पीड़ित रहता है ॥ ५५ ॥ ततो भवेत्स्वर्णकारः सुवर्णस्य वणिक्तथा । ततो यवनसेवी च ब्राह्मणो गणकस्ततः ॥ ५६ ॥ अनन्तर सोनार, सुवर्ण का व्यापारी, यवन (मुसलमान) का सेवक और ज्योतिष का ज्ञाता ब्राह्मण होता है ॥ ५६ ॥ विप्रो दैवज्ञोपजीवी वैद्यजीवी चिकित्सकः । व्यापारी लोहलाक्षादे रसादेर्विक्रयी च यः ॥ ५७ ॥ स याति नागवेष्टं च नागैर्वेष्टित एव च । वसेत्स्वलोममानाब्दं तत्र वै नागदंशितः ॥ ५८ ॥ जो ब्राह्मण ज्योतिषशास्त्र से अपनी जीविका चलाता है, चिकित्सक वैद्य होता है, लोहा, लाख (लाह) का व्यापारी और रस (भस्म) का विक्रेता होता है, वह नागबेष्ट नामक नरक में जाता है वहाँ नागों (सों) से आवेष्टित होकर अपने लोम के प्रमाण वर्ष तक रहता है और नित्य नाग लोग उसे काटते रहते हैं ॥ ५७-५८ ॥ ततो भवेत्स गणको वैद्यो वै सप्तजन्मसु । गोपश्च कर्मकारश्च शङखकारस्ततः शुचिः ॥ ५९ ॥ प्रसिद्धानि च कुण्डानि कथितानि पतिव्रते । अन्यानि चाप्रसिद्धानि तत्र क्षुद्राणि सन्ति वै ॥ ६० ॥ सन्ति पातकिनस्तेषु स्वकर्मफलभोगिनः । भ्रमन्ति तावत्संसारे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६१ ॥ पश्चात् सात जन्मों तक ज्योतिषी, वैद्य, गोप (अहीर), कर्मकार (बढ़ई), और शंख बनाने वालों की जाति में उत्पन्न होता है । तब उसकी शुद्धि होती है । हे पतिव्रते ! इस प्रकार प्रसिद्ध कुण्डों को तो मैंने तुम्हें बता दिया है । इसी भांति अन्य अप्रसिद्ध कुण्ड भी वहाँ बहुत हैं और इनसे छोटे-छोटे भी कुण्ड हैं, जिनमें अपने कर्म के फल भोगने वाले पातकी पड़े रहते हैं जो संसार में भी इधर-उधर भ्रमण किया करते हैं । अनन्तर अब क्या सुनना चाहती हो ॥ ५९-६१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमसावित्रीसंवादे कर्मविपाके पापिनां कुण्डनिर्णयो नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक सावित्री-उपाख्यान के कर्मविपाक में पापियों के कुण्डनिर्णय नामक इकतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३१ ॥ |