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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्वात्रिंशोऽध्यायः सावित्र्युपाख्यानम् -
भोग-शरीर आदि का वर्णन - सावित्र्युवाच धर्मराज महाभाग वेदवेदाङ्गपारग । नानापुराणेतिहासपाञ्चरात्रप्रदर्शक ॥ १ ॥ सर्वेषु सारभूतं यत्सर्वेष्टं सर्वसंमतम् । कर्मच्छेदे बीजरूपं प्रशस्यं सुखदं नृणाम् ॥ २ ॥ यशःप्रदं धर्मदं च सर्वमङ्गलमङ्गलम् । येन यामीं न ते यान्ति यातनां भवदुःखदाम् ॥ ३ ॥ कुण्डानि च न पश्यन्ति तत्र नैव पतन्ति च । न भवेद्येन जन्मादि तत्कर्म वद सुव्रत ॥ ४ ॥ सावित्री बोली-हे धर्मराज, हे महाभाग, हे वेदविदों में श्रेष्ठ ! आप सभी पुराण, इतिहास और पाञ्चरात्र मत के प्रदर्शक हैं ? अतः आप इन सभी का तत्त्वरूप, जो सभी को इष्ट (प्रिय) सबको मान्य, मनुष्यों के कर्मनाश करने में मूलभूत, प्रशस्त, सुखप्रद, यशोदायक, धर्मदाता और समस्त मंगलों का मंगल है, बताने की कृपा करें, जिससे यम की यातनाएँ और संसारी दुःख न प्राप्त हों । हे सुव्रत ! ऐसा कर्म बतायें जिससे नरक कुण्डों के दर्शन न हों और उसमें गिरें नहीं तथा जन्म-मरण से रहित हो जायें ॥ १-४ ॥ किमाकाराणि कुण्डानि कानि तेषां मतानि च । केन रूपेण तत्रैव सदा तिष्ठन्ति पापिनः ॥ ५ ॥ कुण्डों के आकार कैसे हैं उनके मत (सिद्धान्त) क्या हैं, पापीगण वहाँ किस रूप से सदा निवास करते हैं ॥ ५ ॥ स्वदेहे भस्मसाद्भूते यान्ति लोकान्तरं नराः । केन देहेन वा भोगं भुञ्जते वा शुभाशुभम् ॥ ६ ॥ अपनी देह के (चिता) भस्म हो जाने पर जीव दूसरे लोक में चला जाता है, तो वहाँ शुभ-अशुभ कर्मों का परिणाम किस देह से भोगता है ॥ ६ ॥ सुचिरं क्लेशभोगेन कथं देहो न नश्यति । देहो वा किंविधो ब्रह्मन्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ७ ॥ अत्यन्त चिरकाल तक वहाँ दुःखों को भोगते रहने पर वह देह नष्ट क्यों नहीं होती है । तथा हे ब्रह्मन् ! वह देह किस प्रकार की होती है, मुझे यह सब बताने की कृपा करें ॥ ७ ॥ नारायण उवाच सावित्रीवचनं श्रुत्वा धर्मराजो हरिं स्मरन् । कथां कथितुमारेभे गुरुं नत्वा च नारद ॥ ८ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! सावित्री की ऐसी बातें सुन कर धर्मराज ने भगवान् का स्मरण करते हुए गुरु को नमस्कार किया और तब कथा कहना प्रारम्भ किया ॥ ८ ॥ यम उवाच वत्से चतुर्षु वेदेषु धर्मो वै संहितासु च । पुराणेष्वितिहासेषु पाञ्चरात्रादिकेषु च ॥ ९ ॥ अन्येषु सर्वशास्त्रेषु वेदाङ्गेषु च सुव्रते । सर्वेष्टं सारभूतं च मङ्गलं कृष्णसेवनम् ॥ १० ॥ यम बोले-हे वत्से ! चारों वेदों, संहिताओं, पुराणों, इतिहासों और पाञ्चरात्र आदि ग्रंथों में तथा हे सुव्रते ! अन्य सभी शास्त्रों, (व्याकरणादि) वेदांगों में यही एक धर्म बताया गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण का सेवन ही सभी का इष्ट, तत्त्वभूत और परम मंगलमय है ॥ ९-१० ॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकसंतापतारणम् । सर्वमङ्गलरूपं च परमानन्दकारणम् ॥ ११ ॥ कारणं सर्वसिद्धीनां नरकार्णवतारणम् । भक्तिवृक्षाङ्कुरकरं कर्मवृक्षनिकृन्तनम् ॥ १२ ॥ वह जन्म, मृत्यु, वृद्धता, रोग, शोक, सन्ताप से बचाने वाला, समस्त मंगलरूप, परमानन्द का कारण, समस्त, सिद्धियों का कारण, नरकसागर से तारनेवाला, भक्तिरूपी वृक्ष का अंकुर उत्पन्न करने वाला और कर्मरूपी वृक्ष का नाशक है ॥ ११-१२ ॥ गोलोकमार्गसोपानमविनाशिपदप्रदम् । सालोक्यसार्ष्टिसारूप्यसामीप्यादिप्रदं शुभे ॥ १३ ॥ तथा गोलोक के मार्ग की सीढ़ी, कभी भी विनष्ट न होनेवाले स्थान का प्रदाता एवं सालोक्य, सायुज्य, सारूप्य तथा सामीप्य आदि मोक्ष का दायक है ॥ १३ ॥ कुण्डानि यमदूतं च यमं च यमकिङ्करान् । स्वप्नेऽपि नहि पश्यन्ति सति श्रीकृष्णकिङ्कराः ॥ १४ ॥ हे शुभे ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के किंकर (सेवक) होने पर वे प्राणी नरकों के कुण्डों, यमदूतों, यम और यमभटों को स्वप्न में भी नहीं देखते हैं ॥ १४ ॥ हरिव्रतं ये कुर्वन्ति गृहिणः कर्मभोगिणः । ये स्नान्ति हरितीर्थे च नाश्नन्ति हरिवासरे ॥ १५ ॥ प्रणमन्ति हरिं नित्य हर्यर्चां पूजयन्ति च । न यान्ति ते च घोरां च मम संयमनीं पुरीम् ॥ १६ ॥ जो कर्मभोगी गृहस्थ भगवान् के व्रत करते हैं, भगवान् के तीर्थ में स्नान करते हैं, और हरिवासर (एकादशी) के दिन (अन्न) भोजन नहीं करते हैं, भगवान् को नित्य प्रणाम करते हैं, भगवान का अर्चन-पूजन करते हैं, वे मेरी उस घोर संयमनी पुरी में नहीं जाते हैं ॥ १५-१६ ॥ त्रिसंध्यपूता विप्राश्च शुद्धाचारसमन्विताः । स्वधर्मनिरताः शान्ता न यान्ति यममन्दिरम् ॥ १७ ॥ तीनों काल की संध्योपासनाओं से पवित्र होने वाले ब्राह्मणगण, जो शुद्ध आचारयुक्त एवं अपने धर्म में लीन रहने के कारण शान्त रहते हैं, वे यमपुर नहीं जाते हैं ॥ १७ ॥ ते स्वर्गभोगिणोऽन्ये च शुद्धा देवान्यकिङ्कराः । यान्त्यायान्ति च मर्त्यं च स्वर्गं च नहि निर्वृताः । निवृत्तिं न हि लिप्सन्ति कृष्णसेवाविना नराः ॥ १८ ॥ वे स्वर्ग का उपभोग करते हैं तथा अन्य वे लोग भी जो शुद्ध एवं अन्य देवों के सेवक हैं, (स्वर्ग से) मनुष्य लोक और मनुष्य लोक से (मृत्यु होने पर) स्वर्ग लोक आया-जाया करते हैं, किन्तु मुक्त नहीं होते क्योंकि बिना भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा किये मनुष्य (कर्मभोगों से) निवृत्त (मुक्त) नहीं होते हैं ॥ १८ ॥ स्वकर्मनिरताश्चापि स्वधर्मनिरतास्तथा । गच्छन्तो मर्त्यलोकं च दुर्धर्षा यमकिङ्कराः ॥ १९ ॥ भीताः कृष्णोपासकाच्च वैनतेयादिवोरगाः । स्वदूतं पाशहस्तं च गच्छन्तं तं वदाम्यहम् ॥ २० ॥ यास्यसीति च सर्वत्र हरिभक्ताश्रमं विना । कृष्णमन्त्रोपासकानां नामानि च निकृन्तनम् ॥ २१ ॥ करोति नखराञ्जल्या चित्रगुप्तश्च भीतवत् । मधुपर्कादिकं ब्रह्मा तेषां च कुरुते पुनः ॥ २२ ॥ विलङ्घ्य ब्रह्मलोकं च गोलोके गच्छतां सताम् । दुरितानि च नश्यन्ति तेषां संस्पर्शमात्रतः ॥ २३ ॥ यमराज के दूतगण अतिभीषण होते हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के उपासक को देख कर वे गरुड़ को देखकर साँप की भांति भयभीत होते हैं, इसीलिए स्वधर्म में निरत रहने पर भी वे लोग (कहींकहीं) अपने धर्म को छोड़ बैठते हैं । हाथ में पाश लिए जब वे (मर्त्यलोक) जाने को तैयार होते हैं, तो मैं उन अपने दूतों से कहता हूँ कि सभी स्थान पर जाओ किन्तु भगवान् के भक्तों के यहाँ कभी न जाना । भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्रों के उपासकों के नाम (यदि बही में भूल से लिख जाते हैं तो) भयभीत होकर चित्रगुप्त हाथ जोड़ कर काट देते हैं । ब्रह्मा उनकी मधुपर्क आदि से सेवा करते हैं । और वे (भक्त) ब्रह्मलोक पार कर (आगे) गोलोक चले जाते हैं । उस समय (गोलोक) जाते हुए उन सज्जनों के स्पर्श मात्र से ही उनके पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं ॥ १९-२३ ॥ यथा सुप्रज्वलद्वह्नौ काष्ठानि च तृणानि च । प्राप्नोति मोहः संमोहं तांश्च दृष्ट्वाऽतिभीतवत् ॥ २४ ॥ जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि में लकड़ियाँ और तृण (खर) जल जाते हैं । उन्हें देखकर मोह भी भयभीत होकर संमोहित हो जाता है ॥ २४ ॥ कामश्च कामिनं याति लोभक्रोधौ ततः सति । मृत्युः पलायते रोगो जरा शोको भयं तथा ॥ २५ ॥ काम कामी के पास चला जाता है, लोभ और क्रोध भी उससे दूर हो जाते हैं तथा मृत्यु, रोग, जरा, शोक और भय (उससे दूर) भाग जाते हैं ॥ २५ ॥ कालः शुभाशुभं कर्म हर्षो भोगस्तथैव च । ये ये न यान्ति यामीं च कथितास्ते मया सति ॥ २६ ॥ उसी भाँति काल; शुभाशुभ कर्म, हर्ष तथा भोग भी दूर हो जाते हैं । इस प्रकार जो यमपुरी नहीं जाते हैं, उन्हें मैंने बता दिया है ॥ २६ ॥ शृणु देहस्य विवृतिं कथयामि यथागमम् । पृथिवी वायुराकाशं तेजस्तोयमिति स्फुटम् ॥ २७ ॥ देहिनां देहबीजं च स्रष्टुः सृष्टिविधौ परम् । पृथ्व्यादिपञ्चभूतैश्च यो देहो निर्मितो भवेत् ॥ २८ ॥ शास्त्रानुसार शरीर की रचना (कैसे होती है) बता रहा हूँ, सुनो ! पृथिवी, वायु, आकाश, तेज और जल यही (पञ्चभूत) जीवात्मा की देह के और स्रष्टा (ब्रह्मा) के सृष्टि-विधान के मूल कारण हैं क्योंकि इन्हीं पृथिवी आदि पाँच भूतों द्वारा देह का निर्माण होता है ॥ २७-२८ ॥ स कृत्रिमो नश्वरश्च भस्मसाच्च भवेदिह । वृद्धाङ्गुष्ठप्रमाणेन यो जीवः पुरुषाकृतिः ॥ २९ ॥ बिभर्ति सूक्ष्मदेह च तद्रूपं भोगहेतवे । स देहो न भवेद्भस्म ज्वलदग्नौ ममाऽऽलये ॥ ३० ॥ जले न नष्टो देहो वा प्रहारे सुचिरं कृते । न शस्त्रे च न चास्त्रे च सुतीक्ष्णे कण्टके तथा ॥ ३१ ॥ तप्तद्रवे तप्तलौहे तप्तपाषाण एव च । प्रतप्तप्रतिमाश्लेषेऽप्यत्यूर्ध्वपतनेऽपि च ॥ ३२ ॥ न च दग्धो न भग्नश्च भुङ्क्ते संतापमेव च । कथितं देवि वृत्तान्तं कारणं च यथागमम् । कुण्डानां लक्षणं सर्वं निबोध कथयामि ते ॥ ३३ ॥ जो नश्वर (विनाशशील) और इसी लोक में भस्म हो जाती है । पुनः (नरक में दण्ड) भोगने के लिए पुरुषाकार यह जीव वृद्धाङ्गष्ठ के बराबर 'सूक्ष्म देह धारण करता है । वह हमारे यहाँ (नरक में) न तो प्रज्वलित अग्नि में भस्म होती है, न जल में नष्ट होती है, न अतिआघात करने पर नष्ट होती है, न शस्त्र, अस्त्र, अतितीक्ष्ण (तेज) काँटे, तप्त द्रव (पिघले) पदार्थ, तपाये लोह और संतप्त पाषाण (पत्थर) से नष्ट होती है और न अति सुतप्त प्रतिमा के आलिंगन करने तथा अत्यन्त ऊंचाई से गिरने पर ही नष्ट होती है । न वह जलती है. न टूटती है, केवल संताप का अनुभव कराती है । हे देवि ! इस प्रकार उसका कारण-वृत्तान्त बता दिा है, जैसा कि शास्त्रों में कहा है । अब कुण्डों के लक्षण बता रहा हूँ, सुनो ॥ २९-३३ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में सावित्री-उपाख्यान नामक बत्तीसवां अध्याय समाप्त ॥ ३२ ॥ |