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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः यमलोकस्थनरककुण्डलक्षणप्रकथनम् -
नरक-कुण्डों का लक्षण-वर्णन - यम उवाच पूर्णन्दुमण्डलाकारं सर्वकुण्डं च वर्तुलम् । अतीव निम्नं पाषाणभेदैश्च खचितं सति ॥ १॥ यम बोले-पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल के समान सभी (नरक) कुण्ड गोलाकार अत्यन्त नीचे (गहरे) और अनेक मांति के पत्थरों से खचित हैं ॥ १ ॥ न नश्वरं चाऽऽप्रलयं निर्मितं चेश्वरेच्छया । क्लेशदं वै पातकिनां नानारूपं तदालयम् ॥२॥ ईश्वर की इच्छा द्वारा ही इनका निर्माण हुआ है, इसलिए प्रलय पर्यन्त इनका नाश नहीं होता है । ये अनेक भाँति के हैं, जो पापियों को दुःख देते हैं ॥ २ ॥ ज्वलदङ्गाररूपं च शतहस्तशिखान्वितम् । परितः क्रोशमानं च वह्निकुण्डं प्रकीर्तितम् ॥३॥ जलते हुए अङ्गार स्वरूप, सौ हाथ की लपटों से युक्त और एक कोस का चौड़ा अग्निकुण्ड कहा गया है ॥ ३ ॥ महच्छब्दं प्रकुर्वद्भिः पापिभिः परिपूरितम् । रक्षितं मम दूतैश्च ताडितैश्चापि संततम् ॥४॥ जो महान् घोर शब्द करते (चिल्लाते हुए पापियों से नित्य भरा रहता है, मेरे दूतगण उस कुण्ड की रक्षा करते हैं और निरन्तर पापियों को ताड़ना देते रहते हैं ॥ ४ ॥ प्रतस्तोदकपूर्णं च हिंस्रजन्तुसमन्वितम् । महाघोरान्धकारं च पापिसंघेन संकुलम् ॥५॥ प्रकुर्वता काकुशब्दं प्रहारैर्घूर्णितेन च । क्रोशार्धमानं मद्दूतैस्ताडितेन च रक्षितम् ॥६॥ अत्यन्त तप्त जल से पूर्ण, हिंसक जानवरों से युक्त, महाघोर अन्धकार रूप, पापीगणों से मरा तथा आधे कोस का विस्तृत 'प्रतप्तोदककुण्ड' है, जहाँ मेरे दूतों द्वारा ताड़ित होने पर पापी लोग (चिल्ला कर) (अपना)शोक और भय प्रकट करते रहते हैं तथा दूत लोग उस कुण्ड की रक्षा करते हैं । ॥ ५-६ ॥ तप्तक्षारोदकैः पूर्णं नक्रैश्च परिवेष्टितम् । संकुलं पापिभिश्चैव क्रोशमानं भयानकम् ॥७॥ त्राहीति शब्द कुर्वद्भिर्मम दूतैश्च ताडितैः । प्रचलद्भिरनाहारैः शुष्ककण्ठौष्ठतालुकैः ॥८॥ तप्त और खारे जल से भरा, मगरों (घड़ियालों) से घिरा, पापियों से परिपूर्ण तथा एक कोस का विस्तृत एवं भीषण वह 'तप्तक्षारोदकुण्ड' है, जिसमें मेरे दूतों द्वारा ताड़ित होने पर पापीगण त्राहि-त्राहि (बचाओ-बचाओ) कहते हैं । वे उसमें सदैव चलते-फिरते रहते हैं और भोजन न मिलने से उनके कण्ठ, होंठ एवं ताल सूखे रहते हैं ॥ ७-८ ॥ विण्मूत्रैरेव पूर्णं च क्रोशमानं च कुत्सितम् । अतिदुर्गन्धिसंयुक्तं व्याप्तं पापिभिरेव च ॥९॥ ताडितैर्मम दूतैश्चाप्यनाहारैरुपद्रवैः । रक्षेति शब्दं कुर्वद्भिस्तत्कीटैरेव भक्षितम् ॥ १०॥ 'विण्मूत्रकुण्ड' विष्ठा और मूत्र से परिपूरित, एक कोस का विस्तृत, निन्दित, अति दुर्गन्धयुक्त एवं उन पापियों से भरा रहता है, जो अनाहारी (भूखे) रह कर उपद्रवकारी मेरे दूतों द्वारा ताड़ित होने पर (हमारी) 'रक्षा करों ऐसा चिल्ला कर कहते हैं और वहाँ के कीड़े उन्हें (काट-काट कर) खाया करते हैं ॥ ९-१० ॥ तप्तमूत्रद्रवैः पूर्णं मूत्रकीटैश्च संकुलम् । युक्तं महापापिभिश्च तत्कीटैर्दंशितं सदा ॥ ११ ॥ गव्यूतिमान ध्वान्ताक्तं शब्दकृद्भिश्च संततम् । मद्दूतैस्ताडितैर्घोरैः शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ॥ १२॥ तप्त मूत्र से भरा, मूत्र वाले कीड़ों से युक्त, महान्-पापियों से आच्छन्न 'मूत्रकुण्ड' है जो दो कोस का विस्तृत तथा अन्धकार से ढंका है, जहाँ उसके कीड़ों द्वारा पापीगण सदैव काटे जाते हैं, और मेरे दूतों द्वारा ताड़ित होने पर निरन्तर चिल्लाते रहते हैं, जिससे उनके कण्ठ, होंठ और तालु सूखे रहते हैं ॥ ११-१२ ॥ श्लेष्मपूर्णं क्रोशमितं वेष्टितं चेष्टितैः सदा । तद्भोजिभिः पापिभिश्च तत्कीटैर्भक्षितः सदा ॥ १३॥ 'इलेष्मकुण्ड' कफ से भरा, एक कोस का विस्तृत एवं उन कफभोजी पापियों से घिरा रहता है, जिन्हें वहाँ के कीड़े सदैव खाया करते हैं ॥ १३ ॥ क्रोशार्धं गरपूर्णं च गरभोजिभिरन्वितम् । गरकीटैर्भक्षितैश्च पापिभिः पूर्णमेव च ॥ १४॥ ताडितैर्मम दूतैश्च शब्दकृद्भिश्च कम्पितैः । सर्पाकारैर्वज्रदंष्ट्रैः शुष्ककण्ठैः सुदारुणैः ॥ १५॥ 'विषकुण्ड' आधे कोस का विस्तृत, विष से भरा और विषभोजी पापियों से युक्त रहता है, जिन्हें विष के कीड़े खाया करते हैं, सर्पाकार और वज्र दाँतों वाले एवं अति भयंकर मेरे दूतों द्वारा ताड़ना देने पर वे (पापी) कांपते और चिल्लाते रहते हैं इससे इनके कण्ठ सूखे रहते हैं ॥ १४-१५ ॥ नेत्रयोर्मलपूर्णं च क्रोशार्धं कीटसंयुतम् । पापिभिः संकुलं शश्वद्द्रवद्भिः कीटभक्षितैः ॥ १६॥ नेत्रमलकुण्ड, आधे कोस के विस्तार वाला, कीड़ों से युक्त तथा उन पापी समूहों से भरा है, जो निरन्तर कीड़ों के खाने के कारण पिघले-से रहते हैं ॥ १६ ॥ वसारसेन पूर्णं च क्रोशतुर्यं सुदुःसहम् । तद्भोजिभिः पातकिभिर्व्याप्तं दूतैश्च ताडितैः ॥ १७॥ वसा (चर्बी) के रस से भरा, चार कोस का विस्तृत, अति असह्य एवं चर्बी खाने वाले पापियों से आच्छन्न 'वसाकुण्ड' है, जहाँ पापी जीव दूतों द्वारा नित्य ताड़ित होते हैं ॥ १७ ॥ शुक्रपूर्णं क्रोशतुर्यं शुक्रकीटैश्च भक्षितैः । क्रन्दद्भिः पापिभिः शश्वत्संकुलं व्याकुलैर्भिया ॥ १८॥ शुक्र (वीर्य) से भरा, चार कोस का विस्तृत, 'शुक्रकुण्ड व्याकुल एवं भयभीत उन पापी समूहों से निरन्तर भरा रहता है, जिन्हें वीर्य के कीड़े निरन्तर काटते हैं और वे चिल्लाया करते हैं ॥ १८ ॥ दुर्गन्धिरक्तपूर्णं च वापीमानं गभीरकम् । तद्भोजिभिः पापिभिश्च संकुलं कीटभक्षितैः ॥ १९॥ दुर्गन्ध वाले रक्त से पूर्ण, बावली के समान विस्तृत एवं गम्भीर 'रक्तकुण्ड' है । वह रक्त भोजन करने वाले पापीगणों से, जिन्हें उसके कीड़े नित्य खाया करते हैं, व्याप्त है ॥ १९ ॥ पूर्णं नेत्राश्रुभिर्नृणां वाप्यर्धं पापिभिर्युतम् । ताडितैर्मम दूतैश्च तद्भक्ष्यैः कीटभक्षितैः ॥२०॥ अश्रुकुण्ड आँसुओं से परिपूर्ण, बावली के आधे भाग के समान विस्तृत और उन पापियों से भरा है, जिन्हें (मेरे) दूतगण ताड़ित करते हैं और वहाँ के कीड़े (काट-काट कर) खाया करते हैं तथा जो (पापी) आँसुओं का भक्षण करते हैं ॥ २० ॥ नृणां गात्रमलैः पूर्णं तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युतम् । ताडितैर्मम दूतैश्च व्यग्रैश्च कीटभक्षितं ॥२१ ॥ मनुष्यों के शरीर-मल से पूर्ण होने वाला 'गावमलकुण्ड' उसके भक्षण करने वाले पापियों से युक्त रहता है, जिन्हें दूतगण निरन्तर पीटते हैं और कीड़े (काट-काट कर) खाते हैं । इसी से वे पापी लोग सदैव व्यग्र (दुःखी) रहते हैं ॥ २१ ॥ कर्णविट्परिपूर्णं च तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युतम् । वापीतुर्यप्रमाणं च रुदद्भिः कोटभक्षितैः ॥२२॥ कान के मल से परिपूर्ण रहने वाला कर्णबिट-कुण्ड चार बावली के समान विस्तृत है । वह उन मलभोजी पापियों से भरा है, जिन्हें कीड़े खाते हैं और वे (केवल) सहन किया करते हैं ॥ २२ ॥ मज्जापूर्णं नराणां च महादुर्गन्धिसंयुतम् । महापातकिभिर्युक्तं वापीतुर्यप्रमाणकम् ॥२३ ॥ मनुष्यों की मज्जा से भरा रहने वाला 'मज्जाकुण्ड' महादुर्गन्धपूर्ण है, जो चार बावलियों के समान विस्तृत है ॥ २३ ॥ परिपूर्णं स्निग्धमासैर्मम दूतैश्च ताडितैः । पापिभिः संकुलं चैव वापीमानं भयानकम् ॥२४॥ कन्याविक्रयिभिश्चैव तद्भक्ष्यैः कीटभक्षितैः । त्राहीति शब्दं कुर्वद्भिस्त्रासितैश्च भयानकम् ॥२५॥ स्निग्ध मांस से भरा रहने वाला 'मांसकुण्ड' बावली के समान विस्तृत और भीषण है । उसमें पापीगण भरे पड़े रहते हैं, जिन्हें हमारे दूतगण ताडना दिया करते हैं । उसमें कन्या के विक्रेता लोग वही खाकर रहते हैं और वहाँ के कीड़ों के काटने पर वे 'रक्षा करो रक्षा करों' ऐसा भयभीत होकर चिल्लाते रहते हैं ॥ २४-२५ ॥ वापीतुर्यप्रमाणं च नखादिकचतुष्टयम् । पापिभिः संकुलं शश्वन्मम दूतैश्च ताडितैः ॥२६॥ नख आदि के चारों कुण्ड चार बावलियों के प्रमाण विस्तृत, एवं उन पापियों से भरे रहते हैं, जिन्हें निरन्तर मेरे दूतगण ताड़ना देते हैं ॥ २६ ॥ प्रतप्तताम्रकुण्डं ताम्रपर्युन्मुखान्वितम् । ताम्राणां प्रतिमालक्षैः प्रतप्तैरावृतं सदा ॥२७॥ प्रत्येकं प्रतिमाश्लिष्टै रुदद्भिः पापिभिर्युतम् । गव्यूतिमानं विस्तीर्णं मम दूतैश्च ताडितैः ॥२८॥ प्रतप्तताम्रकुण्ड के ऊपर चारों ओर ताँबा लगा है, उस कुण्ड में तांबे की लाखों प्रतिमाएँ (मूर्तियाँ) हैं जो सदैव अति संतप्त रहती हैं । वहाँ पापियों को प्रत्येक प्रतिमाओं का गाढ़ालिङ्गन करना पड़ता है, जिससे वे निरन्तर रुदन करते रहते हैं और मेरे दूतगण उन्हें पीटते रहते हैं, वह कुण्ड दो कोस का विस्तृत है ॥ २७-२८ ॥ प्रतन्तलोहधारं च ज्वलदङ्गारसंयुतम् । लौहानां प्रतिमालक्षैः प्रतप्तैरावृतं सदा ॥२९॥ प्रत्येकं सर्वसंश्लिष्टैः शश्वद्विचलितैर्भिया । रक्ष रक्षेति शब्दं च कुर्वद्भिदूतताडतः ॥३०॥ प्रतप्त लोहे की धार वाला कुण्ड, जलते हुए अंगारों से भरा रहता है । वह लोहे की लाखों संतप्त प्रतिमाओं से घिरा है, पापियों को उन प्रत्येक मूर्तियों का निरन्तर गाढ़ालिङ्गन करना पड़ता है, जिससे वे भयभीत होकर उससे विचलित (अलग) होने की चेष्टा करते हैं, किन्तु असफल रहते हैं । ऊपर से यमदूतों के मारने पर वे 'रक्ष-रक्ष' कहते हुए चिल्लाया करते हैं ॥ २९-३० ॥ महापातकिभिर्युक्तं द्विगव्यूतिप्रमाणकम् । भयानकं ध्वान्तयुक्तं लौहकुण्डं प्रकीर्तितम् ॥३१ ॥ महापातकियों से युक्त, चार कोस का विस्तृत, भयानक और अन्धकारपूर्ण लौहकुण्ड कहलाता है ॥ ३१ ॥ घर्मकुण्डं तप्तसुराकुण्डं वाप्यर्घमेव च । तद्भोजिभिः पापिभिश्च व्याप्तं मद्दूतताडितैः ॥३२॥ धर्मकुण्ड और तप्त सुराकुण्ड बावली के आधे भाग के प्रमाण विस्तृत हैं और उन पापीगणों से व्याप्त हैं, जो मेरे दूतों द्वारा पीटे जाते हैं और वही (तप्त सुरा) पीते हैं ॥ ३२ ॥ अधः शाल्मलिवृक्षस्य तीक्ष्णकण्टककुण्डकम् । लक्षपौरुषमानं च क्रोशमानं च दुःखदम् ॥३३॥ धनुर्मानैः कण्टकैश्च सुतीक्ष्णैः परिवेष्टितम् । प्रत्येकं कण्डकैर्विद्धं महापातकिभिर्युतम् ॥३४॥ सेमर वृक्ष के नीचे तीक्ष्ण (तेज) कण्टक (काँटे वाला) एक कुण्ड है, जो लाखों पुरुषों को अपने में अँटाने वाला, एक कोस का विस्तृत एवं दुःखदायक है तथा धनुषप्रमाण तीक्ष्ण काँटों से घिरा है ॥ ३३-३४ ॥ वृक्षाग्रान्निपतद्भिश्च मम दूतैश्च ताडितैः । जलं देहीति शब्दं च कुर्वद्भिः शुष्कतालुकैः ॥३५॥ महाभयातिव्यग्रैश्च दण्डसंभिन्नमस्तकैः । प्रचलद्भिर्यथा तप्ततैले जीविभिरेव च ॥३६॥ उन प्रत्येक काँटों में महापातकी गण गुथे रहते हैं, जो उस सेमर वृक्ष के ऊपरी भाग से गिराए जाते हैं और दूतों द्वारा ताड़ित होते हैं । वे हमें 'जल पिला दो' चिल्ला कर कहते रहते हैं, उनके तालू सूखे हुए रहते हैं और डण्डे से उनके शिर फोड़े जाते हैं । खौलते हुए तेल में दौड़ते हुए जीव की भांति वे पापीगण महाभय से अति दुःखी होते रहते हैं ॥ ३५-३६ ॥ विषौघैस्तक्षकादीनां पूर्णं च क्रोशमानकम् । तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडितैः ॥३७॥ तक्षक आदि साँपों के विष-समूहों से परिपूर्ण, एक कोस का विस्तृत और उसके भक्षण करने वाले पापियों से युक्त एक कुण्ड है जहाँ पापी लोग हमारे दूतों द्वारा नित्य ताड़ित होते हैं ॥ ३७ ॥ प्रतप्ततैलपूर्णं च कीटादिपरिवर्जितम् । तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं दग्धगात्रैश्च वेष्टितैः ॥३८॥ प्रतप्त तैलकुण्ड, अत्यन्त खोलते हुए तेल से भरा रहता है, जिसमें कीड़े आदि भी नहीं रहते । पापी लोग उसी का भक्षण करते हैं और उनके कोमल अंगों में वह चारों ओर लगाया जाता है ॥ ३८ ॥ काकुशब्दं प्रकुर्वद्भिश्चलद्भिर्दूतताडितैः । महापातकिभिर्युक्तं द्विगव्यूतिप्रमाणकम् ॥३९॥ ऊपर से यमदूत उन्हें पीटते हैं जिससे वे अधीर होकर चिल्लाते और उसमें दौड़ते है । इस प्रकार महान् पापियों से भरा हुआ यह कुण्ड चार कोस तक विस्तृत है ॥। ३९ ॥ शस्त्रकुण्डं ध्वान्तयुक्तं क्रोशमानं भयानकम् । शूलाकारैः सुतीक्ष्णाग्रैलौहशस्त्रैश्च वेष्टितम् ॥४०॥ अन्धकारपूर्ण, एक कोस तक विस्तृत, भयानक शुलाकार एवं अति तीक्ष्ण अग्रभाग (नोक) वाले लौह शस्त्रों से घिरा हुआ शस्त्रकुण्ड है ॥ ४० ॥ शस्त्रतल्पस्वरूपंच क्रोशतुर्यप्रमाणकम् । पातकिभिर्वेष्टितं च कुन्तविद्धैश्च वेष्टितम् ॥४१॥ शस्त्रों की शय्या के समान चार कोस तक विस्तृत कुन्त (भाले) से घिरा वह कुण्ड है, जिसके प्रत्येक फल में छेदे हुए पापी लटके रहते हैं ॥ ४१ ॥ ताडितैर्मम दूतैश्च शुष्ककठाष्ठतालुकैः । कीटैः संपीड्यमानैश्च सर्पयानैर्भयङ्करैः ॥४२॥ तीक्ष्णदन्तैश्च विकृतैर्व्याप्तं ध्वान्तयुतं सति । महापातकिभिर्युक्तं भीतैर्वा कीटभक्षितैः । रुदद्भिः क्रोशमानं च मम दूतैश्च ताडितैः ॥४३॥ ऊपर से मेरे दूतगण उन्हें ताड़ित करते हैं, जिससे उनके कण्ठ, होंठ और तालू सूख जाते हैं । भयंकर सर्पयानों और तीक्ष्ण दाँतोंएवं विकृत कीटों से व्याप्त तथा अंधकारपूर्ण और एक कोस का विस्तृत 'कृमिकुण्ड है, जिसमें भयभीत महापातकी भरे पड़े रहते हैं, जिन्हें वे कीड़े खाया करते हैं और दूतों द्वारा पीटे जाने के कारण वे रुदन किया करते हैं ॥ ४२-४३ ॥ अतिदुर्गन्धिसंयुक्तं क्रोशार्धं पूयसंयुतम् । तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडितैः ॥४४॥ अतिदुर्गन्धपूर्ण एवं आधे कोस का विस्तृत पूय (पीब) का कुण्ड है जिसमें वे पापी गण भरे रहते हैं, जो बही भोजन भी करते हैं और उन्हें हमारे दूत नित्य पीटा करते हैं ॥ ४४ ॥ द्विगव्यूतिप्रमाणं च हिमतोयप्रपूरितम् । तालवृक्षप्रमाणैश्च सर्पकोटिभिरावृतम् ॥४५ ॥ सर्पवेष्टितगात्रैश्च पापिभिः सर्पभक्षितैः । संकुलं शब्दकृद्भिश्च मम दूतैश्च ताडितैः ॥४६॥ चार कोस का विस्तृत, बर्फजल से परिपूर्ण और साड़ वृक्ष के समान आकार वाले करोड़ों साँपों से सर्पकुण्ड घिरा है । उसमें पापीगण भरे पड़े हैं, जिनके शरीर में सांप लिपटे और काटते रहते हैं, ऊपर से यमदूत गण मारा-पीटा करते हैं जिससे वे पापीगण निरन्तर चिल्लाते रहते हैं ॥ ४५-४६ ॥ कुण्डत्रयं मशादीनां पूर्णं च मशकादिभिः । सर्वं क्रोशार्धमात्रं च महापातकिभिर्युतम् ॥४७॥ तीन कुण्ड मसा मच्छरों आदि के हैं जो मशक (मसों) से भरे रहते हैं, वे सभी कुण्ड आधे-आधे कोस में फैले हुए एवं महापापियों से संयुत हैं ॥ ४७ ॥ हस्तपादादिभिर्बद्धैः क्षत्रैः क्षतजलोहितैः । हाहेति शब्दं कुर्वद्भिः प्रचलद्भिश्च संततम् ॥४८॥ वहाँ हाथ पैर बँधे, रुधिर से ओत-प्रोत (लथपथ) तथा हाय-हाय शब्द करते हुए पापी लोग निरन्तर चलते रहते हैं ॥ ४८ ॥ वज्रवृश्चिकयोः कुण्डं ताभ्यां च परिपूरितम् । वाप्यर्धं पापिभिर्युक्तं वज्रवृश्चिकदंशितैः ॥४९॥ बज और बिच्छुओं के कुण्ड वज्र और बिच्छुओं से परिपूर्ण, बावली के आधे भाग के समान विस्तृत एवं उन पापियों के समूहों से भरे पड़े हैं जिन्हें वज्र तथा बिच्छू गण निरन्तर काटते रहते हैं ॥ ४९ ॥ कुण्डत्रयं शरादीनां तैरेव परिपूरितम् । तैर्विद्धैः पापिभिर्युक्तं वाप्यर्थे रक्तलोहितैः ॥५०॥ बाण आदि के तीन कुण्ड हैं, जो उन्हीं से भरे और उन्हीं से छिदे पापियों से पटे हैं जो रक्तलोहित (रुधिर से लाल) वर्ण के दिखायी देते हैं और वे कुण्ड बावली के आधे भाग के समान विस्तृत हैं ॥ ५० ॥ तत्तपङ्कोदकैः पूर्णं सध्वान्तं गोलकुण्डकम् । कीटैः संपीड्यमानैश्च भक्षितैः पापिभिर्युतम् ॥५१॥ गोलकुण्ड तप्त कीचड़ जल से भरा हुआ एवं अन्धकारमय है और वहां के कीड़ों के काटने से अतिसंपीड़ित पापी गणों से परिपूर्ण है । ॥ ५१ ॥ वाप्यर्धं परिपूर्णं च जलस्थैर्नक्रकोटिभिः । दारुणैर्विकृताकारैर्भक्षितैः पापिभिर्युतम् ॥५२॥ वह कुण्ड बावली के आधे भाग के समान विस्तृत है । नक्रकुण्ड जल में रहने वाले करोड़ों मगरों (घड़ियालों) से परिपूर्ण है, जो भीषण रूप एवं विकृत आकार वाले हैं और जिनको वे काटते रहते हैं, उन पापियों से घिरा है । ॥ ५२ ॥ विण्मूत्रश्लेष्मभक्ष्यैश्च संयुक्तं शतकोटिभिः । काकैश्च विकृताकारैर्धनुर्लक्षं च पापिभिः ॥५३ ॥ इसी भांति विष्ठा, मूत्र, श्लेष्मा (कफ) खाने वाले तथा विकृत आकार वाले कौओं तथा पापियों से युक्त विण्मत्रश्लेष्मकुण्ड' है, जिसका विस्तार एक लाखधनुष के बराबार है ॥ ५३ ॥ संचालवाजयोः कुण्डं ताभ्यां च परिपूरितम् । भक्षितैः पापिभिर्युक्तं शब्दकृद्भिश्च संततम् ॥५४॥ संचाल और बाजकुण्ड संचाल और बाज पक्षियों से परिपूर्ण है तथा उन पापियों के समूह उसमें भरे पड़े हैं, जिन्हें वे नित्य (काट कर) खाया करते हैं और इसी कारण वे निरन्तर चिल्लाते रहते हैं ॥ ५४ ॥ धनुः शतं वज्रयुक्तं पापिभिः संकुलं सदा । शब्दकृद्भिर्वज्रदग्धैरन्तर्ध्वान्तमयं सदा ॥५५॥ सौ धनुष के प्रमाण विस्तृत, वज्रयुक्त, सदा भीतर अन्धकारपूर्ण एवं उन पापियों से वचकुण्ड भरा पड़ा है, जो वज्र से दग्ध होने के कारण सदैव चिल्लाहट मचाये रहते हैं ॥ ५५ ॥ वापीद्विगुणमानं च तप्तप्रस्तरनिर्मितम् । ज्वलदङ्गारसदृशं चलद्भिः पापिभिर्युतम् ॥५६॥ बावली के दुगुने प्रमाण में विस्तृत, तप्त पत्थरों से बना तप्तपाषाणकुण्ड है, जो जलते हुए अंगारे के समान दिखायी देता है । उस पर पापीगणसदा चलते रहते हैं ॥ ५६ ॥ क्षुरधारोपमैस्तीक्ष्णैः पाषाणैर्निर्मितं परम् । महापातकिभिर्युक्तं क्षतं क्षतजलोहितैः ॥५७॥ तक्षिणपाषाण कुण्ड क्षुर (नाई केस्तुरा)के समान तीक्ष्ण (तेज) पत्थरों से रचित तथा उन महापातकियों सेपरिपूर्ण, है, जो रुधिरों से भीगे एवं घावों से युक्त हैं ॥ ५७ ॥ दुर्गन्धिलालापूर्णं च तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युतम् । क्रोशमानं गभीरं च मम दूतैश्च ताडितैः ॥५८॥ लालाकुण्ड दुर्गन्ध लार से भरा और उसके भक्षण करने वाले पापियों से परिपूर्ण एक कोस का विस्तृत तथा गम्भीर है । वहाँ मेरे दूत उन पापियों को (ऊपर से) ताड़ना देते रहते हैं ॥ ५८ ॥ 'तस्ततोयेऽञ्जनाकारैः परिपूर्णं धनुः शतम् । चलद्भिः पापिभिर्युक्तं मम दूतैश्च ताडितैः ॥५९॥ खौलते हुए जल का कुण्ड अंजन की भांति काले रंग से परिपूर्ण, सौ धनुष के समान विस्तृत एवं पापियों से भरा है, जो मेरे दूतों के द्वारा ताडित होने के कारण उसमें चलते रहते हैं ॥ ५९ ॥ पूर्णं चूर्णद्रवैः क्रोशमानं पापिभिरन्वितम् । तद्भोजिभिः प्रदग्धैश्च मम दूतैश्च ताडितैः ॥६०॥ चूर्णकुण्ड द्रवीभूत (पिघले हुए)चूर्ण से परिपूर्ण, एक कोस का विस्तृत तथा उन पापियों से भरा है, जो यही (चूर्ण) भोजन करते, उसमें जलते रहते एवं मेरे दूतों से ताड़ित होते रहते हैं ॥ ६० ॥ कुण्डं कुलालचकक्राभं घूर्णमानं च संततम् । सुतीक्ष्याषोडशारं च घूर्णितः पापिभिर्युतम् ॥६१ ॥ कुम्हार के चक्के के समान चक्रकुण्ड निरन्तर घूमा करता है, जिसमें अत्यन्त तीक्षण सोलह आरे बने हैं । उस पर बैठाये गये पापी लोग निरन्तर घूमते रहते हैं ॥ ६१ ॥ अतीव वक्रं निम्नं च द्विगव्यूतिप्रमाणकम् । कन्दराकारनिर्माणं तप्तोदकसमन्वितम् ॥६२॥ अत्यन्त वक्र (टेढ़ा), गहरा चार कोश का विस्तृत, कन्दरा (गुफा) के समान बना एवं खौलते हुए जल से भरा एक कुण्ड है ॥ ६२ ॥ महापातकिभिर्युक्तं भक्षितैर्जलजन्तुभिः । प्रचलद्भिः शब्दकृद्भिर्ध्वान्तयुक्तं भयानकम् ॥६३॥ जो अन्धकारपूर्ण एवं भीषणाकार है । उसमें महापातकी गण भरे पड़े हैं, जिन्हें वहाँ के जलजन्तु नित्य खाया करते हैं जिससे वे चिल्लाते हुए चलते रहते हैं ॥ ६३ ॥ कोटिभिर्विकृताकारैः कच्छपैश्च सुदारुणैः । जलस्थैः संयुतं तैश्च भक्षितैः पापिभिर्युतम् ॥६४॥ विकृताकार एवं अति भीषण स्वरूप वाले करोड़ों कछुओं से कूर्मकुण्ड भरा है और पापियों से आच्छन्न है, जिन्हें वहां के जलस्थ कछुवे नित्य खाया करते हैं ॥ ६४ ॥ ज्वालाकलापैस्तेजोभिर्निर्मितं क्रोशमानकम् । शब्दकृद्भिः पापिभिश्च चलद्भिः संयुतं सदा ॥६५॥ ज्वाला-समूह वाले तेज द्वारा रचित,एक कोस का विस्तृत एवं उसमें चलने-फिरने वाले पापियों से ज्वालाकुण्ड भरा है, जो (पापी दण्डित) होने के कारण चिल्लाते रहते हैं ॥ ६५ ॥ क्रोशमानं गभीरं च तप्तभस्मभिरवितम् । शश्वच्चलद्भिः संयुक्तं पापिभिर्भस्मभक्षितैः ॥६६॥ तप्त भस्म का कुण्ड एक कोस तक विस्तृत एवं गम्भीर है । उसमें निरन्तर चलने-फिरने वाले पापीगण भरे पड़े हैं, जो वही (संतप्त राख) सदैव खाते भी हैं ॥ ६६ ॥ तप्तपाषाणलोष्टानां समूहैः परिपूरितम् । पापिभिर्दग्धगात्रैश्च युक्तं वै शुष्कतालुकैः ॥६७॥ एक कुण्ड तप्त पाषाण (पत्थर) और मिट्टी से परिपूर्ण एवं पापी प्राणियों से पटा हुआ है, जिनकी देह जल गयी है और इसी से उनके तालू सूख गए हैं ॥ ६७ ॥ क्रोशमानं ध्वान्तमयं गभीरमतिदारुणैः । ताडितैर्मम दूतैश्च दग्धकुण्डं प्रकीर्तितम् ॥६८॥ जो एक कोस तक विस्तृत, अन्धकारमय तथा गम्भीर है और जहाँ भीषण दूतों द्वारा पापी वृन्द नित्य ताड़ित होते हैं, उसे दग्ध-कुण्ड कहते हैं ॥ ६८ ॥ अत्यूर्मियुस्ततोयं च प्रतप्तक्षारसंयुतम् । नानाप्रकारविकृतं जलजन्तुसमन्वितम् ॥६९॥ द्विगव्यूतिप्रमाणं च गभीरं ध्वान्तसंयुतम् । तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं दंशितैर्जलजन्तुभिः ॥७०॥ चलद्भिः क्रन्दमानैश्च न पश्यद्भिः परस्परम् । उत्तप्तसूर्मिकुण्डं च कीर्तितं च भयानकम् ॥७१॥ एक कुण्ड असंख्य लहरों से पूर्ण, अयन्त तप्त क्षार जल से तथा अनेक भांति के जलजन्तुओं से युक्त, चार कोस का विस्तृत, गम्भीर, भीतर अन्धकार से आच्छन्न एवं उन पापियों से भरा पड़ा है, जिन्हें वे जलजन्तु सदैव खाया करते हैं और वे पापीगण भी वही खाया करते हैं तथा करुण क्रन्दन करते हुए चलते रहते हैं किन्तु परस्पर एक दूसरे (पापी) को देख नहीं सकते हैं । उस भयानक कुण्ड को 'उत्तप्तसूमिकुण्ड' कहा जाता है ॥ ६९-७१ ॥ असिपत्रवनस्यैवाप्युच्चैस्तालतरोरधः । क्रोशार्धमानकुण्डं च पतत्पत्रसमन्वितम् ॥७२॥ पापिनां रक्तपूर्णं च वृक्षाग्रात्पततां परम् । परित्राहीति शब्दं च कुर्वतामसतामपि ॥७३॥ असिपत्रवन (तलवार की धार के समान तीखे पत्ते वाले वृक्षों के वन) के ताड़ वृक्ष के नीचे वाला कुण्ड आधे कोश का विस्तृत, गिरते हुए ताड़ पत्रों से युक्त और उस (ताड़) वृक्ष के अग्र (ऊपरी) भाग से गिराये जाने वाले पापियों के रक्त से भरा हुआ है । पापीगण 'परित्राहि' (बचाओ) जोर से चिल्लाते रहते हैं ॥ ७२-७३ ॥ गभीरं ध्वान्तसंयुक्तं रक्तकीटसमन्वितम् । तदसीपत्रकुण्डं च कीर्तितं च भयानकम् ॥७४॥ उस गम्भीर, अन्धकारपूर्ण, रक्त वर्ण के कीड़ों से युक्त एवं भयानक कुण्ड को 'असिपत्रकुण्ड' कहते हैं । ७४ ॥ धनुःशतप्रमाणं च क्षुराकारास्त्रसंकुलम् । पापिनां रक्तपूर्णं च क्षुरधारं भयानकम् ॥७५॥ सौ धनुष के प्रमाण विस्तृत, क्षुर (नाई के स्तुरे) की भांति तीक्ष्ण अस्त्रों से परिपूर्ण, भयानक छुरे की धार के सदृश तथा पापियों के रुधिरों से युक्त कुण्ड को क्षुरधार कहते हैं ॥ ७५ ॥ सूचीवाश्यास्त्रसंयुक्तं पापिरक्तौघपूरितम् । पञ्चाशद्धनुरायामं क्लेशदं सूचिकामुखम् ॥७६॥ सई के समान नोक वाले अस्त्र से संयुक्त, पापियों के रुधिर से भरा, पचास धनुष के समान विस्तृत एवं दुःखदायी कुण्ड को कहा जाता है ॥ ७६ ॥ गोधाह्वजन्तुभेदस्य मुखाकृति भयानकम् । कूपरूपं गभीरं च धनुर्विंशतिमानकम् ॥७७॥ महापातकिनां चैव महाक्लेशकरं परम् । तत्कीटभक्षितानां च नम्रास्यानां च संततम् ॥७८॥ गोधामुखकुण्ड गोधा (गोह) नामक जन्तु के मुख के समान आकृति वाला, भयानक, कूप की भाँति गम्भीर, और बीस घनुष के समान विस्तृत है जो महापापियों को महान् दुःख देता है । उसके कीड़े नीचे मुख वाले पातकियों को निरन्तर काट कर खाते रहते हैं ॥ ७७-७८ ॥ कुण्डं नक्रमुखाकारं धनुःषोडशमानकम् । गभीरं कूपरूपं च पापिष्ठैः संकुलं सदा ॥७९॥ नक्रकुण्ड नाक नामक जलजन्तु के मुख जैसी आकृति वाला, सोलह धनुष विस्तृत, गम्भीर, कूपरूप और पापी समूहों से भरा पड़ा है ॥ ७९ ॥ गजेन्द्राणां समूहेन व्याप्तं कुण्डाकृति स्थलम् । गजदन्तहतानां च पापिनां रक्तपूरितम् ॥८०॥ गजेन्द्रों के समूह से व्याप्त एवं कुण्डाकार एक स्थल है,जो गजेन्द्रों के दाँतों द्वारा आहत हुए पापियों के रुधिरों से भरा है ॥ ८० ॥ तत्कीटभक्षितानां च दीनशब्दकृतं सदा । धनुःशतप्रमाणं च कीर्तितं गजदंशनम् ॥८१॥ जिन्हें वहाँ के कीड़े नित्य खाया करते हैं और वे सदैव दीनों की भाँति चिल्लाते रहते हैं । वह कुण्ड सौ धनुष विस्तृत है और गजदंशन नाम से प्रख्यात है ॥ ८१ ॥ धनुस्त्रिंशत्प्रमाणं च कुण्डं वै गोमुखाकृति । पापिनां दुःखदं चैव गोमुखं परिकीर्तितम् ॥८२॥ तीस धनुष विस्तृत, गोमुखाकार और पापियों को दुःख देने वाला जो कुण्ड है, उसे गोमुखकुण्ड कहते हैं ॥ ८२ ॥ भ्रमितं कालचक्रेण संततं च भयानकम् । कुम्भाकारं ध्वान्तयुक्तं द्विगव्यूतिप्रमाणकम् ॥८३॥ लक्षमानवमानं च गभीरमतिविस्तृतम् । कुत्रचित्तप्ततैलं च कुण्डाभ्यन्तरमन्तिके ॥८४॥ कुत्रचित्तप्तलौहादिकुण्डं तामादिकं तथा । कुत्रचित्तप्तपाषाणकुण्डाभ्यन्तरमन्तिके ॥८५॥ पापिनां च प्रधानैश्च महापातकिभिर्युतम् । परस्परं न पश्यद्भिः शब्दकृद्भिश्च संततम् ॥८६॥ ताडितैर्मम दूतैश्च दण्डैश्च मुसलैस्तथा ॥८७॥ घूर्णमानैः पतद्भिश्च मूर्च्छितैश्च मुहुर्मुहुः । पातितैर्मम दूतैश्चाप्यत्यूर्ध्वात्पतितैः क्षणम् ॥८८॥ कालचक्र से युक्त, सदा चक्कर काटने वाला भयानक नरक, जिसकी आकृति घड़े के समान है, कुम्भीपाक कहलाता है, चार कोस के परिमाण वाला वह नरक महान् अन्धकारमय है । उसकी गहराई एक लाख पोरसा (पुरुष के बराबर) है । उस कुण्ड के अन्र्तगत तप्ततैलकुण्ड, लौहादिकुण्ड, ताम्रादिकुण्ड और तप्तपाषाणकुण्ड हैं । महापातक करने वाले प्रधान पापियों से वह भरा है, जो एक दूसरे को नहीं देखते हैं और सभी लोग हमारे दूतों के दण्ड-मुसल द्वारा ताड़ित होने के कारण चिल्लाया करते हैं, बार-बार मूच्छित होकर चक्कर काटते हुए गिरते रहते हैं तथा गिरते समय उन्हें हमारे दूतगण क्षणमात्र में अति ऊपर से गिराते हैं ॥ ८३-८८ ॥ यावन्तः पापिनः सन्ति सर्वकुण्डेषु सुन्दरि । ततश्चतुर्गुणाः सन्ति कुम्भीपाके च दुस्तरे ॥८९॥ हे सुन्दरि ! समस्त कुण्डों में जितने पापी रहते हैं उनसे चौगुने पापी उस भयंकर कुम्भीपाक कुण्ड में रहते हैं ॥ ८९ ॥ सुचिरं पतिताश्चैव भोगदेहविवर्जिताः । सर्वकुण्डप्रधानं च कुम्भीपाकं प्रकीर्तितम् ॥९०॥ जो भोग देह हीन होकर उसमें अति चिरकाल के लिए डाल दिए गये हैं और वह कुम्भीपाक नरक समस्त कुण्डों में प्रधान है ॥ ९० ॥ कालनिर्मितसूत्रेण निबद्धा यत्र पापिनः । उत्थापिताश्च मद्दूतैः क्षणमेव निमज्जिताः ॥९१॥ जिसमें पापीगण कालसूत्र में आबद्ध हैं, उन्हें मेरे दूत गण ऊपर उठाते हैं और क्षण भर में उसी में पुनः डुबा देते हैं ॥ ९१ ॥ निःश्वासबन्धाः सुचिरं कुण्डानामन्तरे तथा । अतीव क्लेशयुक्ताश्च भोगदेहा अनश्वरा ॥९२॥ सभी (नरक) कुण्डों के भीतर पापी गण अतिचिरकाल के लिए निःश्वास से बंधे रहते हैं, उनकी भोग (यातना) देह अनश्वर (कभी नष्ट न होने वाली) रहती है एवं अति क्लेशपूर्ण रहती है ॥ ९२ ॥ दण्डेन मुसलेनैव मम दूतैश्च ताडिताः । प्रतप्ततोययुक्तं च कालसूत्रं प्रकीर्तितम् ॥९३॥ ऊपर से मेरे दूतगण दण्ड, मुसल एवं अस्त्र से उन्हें पीटते हैं । इस भाँति वह अतितप्त जल से पूर्ण रहता है जिसे कालसूत्र नरक कहते हैं ॥ ९३ ॥ अवटः कूपभेदश्च यत्रोदं च तदाकृति । प्रतप्ततोयपूर्णं च धनुर्विंशत्प्रमाणकम् ॥९४॥ व्याप्तं महापापिभिश्च दग्धगात्रैश्च संततम् । मद्दूतैस्ताडितैः शश्वदवटोदं प्रकीर्तितम् ॥९५॥ अवट नरक, कूप के समान होता है, उसमें जल भरा रहता है । इसीलिए उसे कूप का एक भेद मानते हैं । जो अतिसंतप्त जल से पूर्ण, बीस धनुष प्रमाण विस्तृत एवं उन महापापियों से व्याप्त है जिनकी देह निरन्तर जलती रहती है और ऊपर से मेरे दुत ताड़ना देते रहते हैं, उसे अवटोद (नरक) कहा जाता है ॥ ९४-९५ ॥ यत्तोयस्पर्शमात्रेण सर्वव्याधिश्च पापिनाम् । भवेदकस्मात्पततां यत्र कुण्डे धनुःशते ॥९६॥ सर्वे रुद्धाः पापिनश्च व्यथन्ते यत्र संततम् । हाहेति शब्दं कुर्वन्तस्तदेवारुन्तुदं विदुः ॥९७॥ सौ धनुष विस्तृत उस कुण्ड में गिरते ही उसके जल के स्पर्श होने पर पापियों की देह में अकस्मात् ब्याधि हो जाती है । सभी पापीगण उसमें अवरुद्ध रह कर पीड़ित होते हैं और निरन्तर हाय, हाय शब्द करके चिल्लाते रहते हैं । इसीलिए विद्वानों ने उस कुण्ड को अरुन्तुद कहा है ॥ ९६-९७ ॥ तप्तपांसुपराकोर्णं ज्वलद्भिस्तु सुदग्धकैः । तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं पांसुभोजं धनुःशतम् ॥९८॥ जलती हुई धूलियों से भरा, जलते हुए एवं जली देह वाले उन पापियों से वह कुण्ड पूर्ण रहता है, जो वही जलती हुई धूलि का भोजन करते हैं । वह सौ धनुष विस्तृत है ॥ ९८ ॥ पततां पापिनां यत्र भवेदेव प्रकम्पनम् । पापमात्रेण पापी वै भवेत्शापेन वेष्टितः ॥९९॥ क्रोशमाने च कुण्डे वै विदुस्तत्पाशवेष्टनम् । धनुर्विंशतिमानं च शूलप्रोतं प्रकीर्तितम् ॥ १००॥ पातमात्रेण पापी च शूलेन ग्रथितो भवेत् । पततां पापिनां यत्र भवेदेव प्रकम्पनम् ॥ १०१ ॥ अतीव हिमतोये च क्रोशार्धं च प्रकम्पनम् । ददत्येव हि मद्दूता यत्रोल्काः पापिनांमुखे ॥ १०२॥ धनुर्विंशतिमानं च तदुल्काभिश्च संकुलम् । लक्षमानवमानं च गम्भीरं च धनुःशतम् ॥१०३॥ नानाप्रकारक्रिमिभिः संयुक्तं च भयानकैः । अत्यन्धकारव्याप्तं यत्कूपाकार च वर्तुलम् ॥ १०४॥ तद्भक्ष्यैः पापिभिर्युक्तं नव पश्यद्भिः परस्परम् । तप्ततोयप्रदग्धैश्च चलद्भिः कीटभक्षितैः । ध्वान्तेन चक्षुषा चान्धैरन्धकूपं प्रकीर्तितम्, ॥१०५॥ जिसमें गिरते ही पापी कांपने लगते हैं और पाश से आबद्ध हो जाते हैं एवं जो एक कोस विस्तृत है । उसे सब पाशवेष्टन (नरक) कहते हैं । शूलप्रोत नामक कुण्ड बीस धनुष के समान विस्तृत है, उसमें गिरते ही पापी गण शूल से छिद उठते हैं । जिसमें गिरते ही पापीगण कम्पित होने लगते हैं तथा जो अति हिम (बों) से भरा एवं आधे कोस तक विस्तृत है, उसे प्रकम्पन नरक कहा गया है । जहाँ हमारे दूतगण पापियों के मुख में उल्का (जलती हुई लकड़ी) डालते हैं, वह बीस धनष का विस्तृत और उल्काओं से भरा हुआ उल्कामुख नरक है । जो लाखों मनुष्यों को एक साथ रखने वाला, गम्भीर, सौ धनुष विस्तृत, अनेक भाँति के भीषण कीड़ों से युक्त, अत्यन्त अंधकारपूर्ण, कूपाकार, गोलाकार एवं उसी का भक्षण करने वाले उन पापियों से भरा है, जो एक दूसरे को देखते नहीं हैं, खौलते हुए जल से जलते रहते हैं तथा कीड़ों के काटने से (स्थिर न रह कर) चलते रहते हैं और जहाँ अन्धकारमय होने के कारण आँखों से दिखायी नहीं देता है, उसे अन्धकूप कहते हैं ॥ ९९-१०५ ॥ नानाप्रकारशस्त्रौघैर्यत्र विद्धाश्च पापिनः । धनुर्विंशतिमानं च वेधनं तत्प्रकीर्तितम् ॥ १०६॥ अनेक भांति के शस्त्र-समूहों से जहाँ पापी के अंग छिन्न-भिन्न होते हैं और जो बीस धनुष प्रमाण विस्तृत है, उसे वेधनकुण्ड कहते हैं ॥ १०६ ॥ दण्डेन ताडिता यत्र मम दूतैश्च पापिनः । धनुः षोडशमानं च तत्कुण्डं दण्डताडनम् ॥ १०७॥ हमारे दूत गण जिस स्थान पर पापियों को दण्ड से मारते हैं और सोलह धनुष विस्तृत है, उसे दण्डताड़न कुण्ड कहते हैं ॥ १०७ ॥ निबद्धाश्च महाजालैर्यथा मीनाश्च पापिनः । धनुस्त्रिंशत्प्रमाणं च जालबद्धं प्रकीर्तितम् ॥ १०८॥ मछलियों की भांति पापीगण जहाँ महान् जालों से बँधे हैं और जो तीस धनुष विस्तृत है, उसे जालबद्ध कुण्ड कहते हैं ॥ १०८ ॥ पततां पापिनां कुण्डे देहाश्चूर्णीभवन्ति च । लौहवेदिनिबद्धान्तः कोटिमानवमानकम् ॥ १०९॥ गभीरं ध्वान्तयुक्तं च धनुर्विंशतिमानकम् । मूर्च्छितानां जडानां तद्देहचूऽर्णं प्रकीर्तितम् ॥ ११०॥ जिस कुण्ड में पापियों के गिरते ही उनकी देह चूर्ण हो जाती है, और जिसके भीतर लोहे की वेदियाँ बनी हैं, जो करोड़ों मनुष्यों को अपने में अंटा सकता है, तथा गम्भीर, अंधकारमय और बीस धनुष विस्तृत है, वह मूच्छितों एवं जड़ों का देहचूर्णकुण्ड कहा जाता है ॥ १०९-११० ॥ दलिताः पापिनो यत्र मद्दूतैर्मुसलैः सदा । धनुः षोडशमानंच तत्कुण्डं दलनं स्मृतम् ॥ १११॥ जिस कुण्ड में मेरे दूतों द्वारा मुसलों से पापीगण दले जाते हैं तथा जो सोलह धनुष प्रमाण विस्तृत है, उसे दलनकुण्ड कहा जाता है ॥ १११ ॥ पातमात्रे यत्र पापी शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः । वालुकासु चलाम् धनुस्त्रिंशत्प्रमाणकम् ॥ ११२॥ शतमानवमानं च गभीरं ध्वान्तसंयुतम् । जलाहारैर्विरहितं शोषणं तत्प्रकीर्तितम् ॥ ११३॥ जिस कुण्ड में गिरते ही पापीगण के कण्ठ, होंठ और तालू सूख जाते हैं, जो संतप्त बालुओं से भरा है, तीस धनुष विस्तृत, सौ मनुष्य के प्रमाण वाला, गम्भीर, अंधकारपूर्ण और जल से शून्य है, उसे शोषणकुण्ड कहते हैं ॥ ११२-११३ ॥ नानाचर्मकषायोदैः परिपूर्णं धनुःशतम् । शतमानवमानं च गभीरं ध्वान्तसंयुतम् । दुर्गन्धियुक्तं तद्भक्ष्यैः पापिभिः संकुलं महत् ॥ ११४॥ अनेक भाँति के चमड़ों के सड़ने वाले जल से पूर्ण, सौ धनुष विस्तृत, दुर्गन्धभरा एवं उसके भोजन करने वाले पापियों से पटा पड़ा है ॥ ११४ ॥ शूर्पाकारमुखं कुण्डं धनुर्द्वादशमानकम् । तप्तलोहवालुकाभिः पूर्णं पातकिभिर्युतम् ॥ ११५॥ सूप के समान मुखवाला कुण्ड, बारह धनुष विस्तृत, तपे हुए लोहे के समान वालुओं से पूर्ण एवं उसके भोजी पातकियों से भरा है ॥ ११५ ॥ अन्तराग्निशिखानां च ज्वालाव्याप्तमुखं सदा । धनुर्विंशतिमानं च यस्य कुण्डस्य सुन्दरि ॥ ११६॥ ज्वालाभिर्दग्धगात्रैश्च पाणिभिर्व्याप्तमेव यत् । तन्महत्क्लेशदं शश्वत्कुण्डं ज्वालामुखं स्मृतम् ॥ ११७॥ हे सुन्दरि ! जिस कुण्ड के भीतर अग्नि की ढेरी पड़ी है, ज्वालाओं से जिसका मुख सदा आच्छन्न है, जो बीस धनुष विस्तृत है, जहाँ ज्वालाओं से जले शरीर वाले पापीगण भरे हैं एवं जो नित्य निरन्तर महान् क्लेश देता है, उसे ज्वालामुख कुण्ड कहते हैं ॥ ११६-११७ ॥ पातमात्राद्यत्र पापी मूर्च्छितो जिह्मितो भवेत् । तप्तेष्टकाभ्यन्तरितं वाप्यर्धं जिह्मकुण्डकम् ॥ ११८॥ जिसमें गिरते ही पापीगण व्यथा के मारे मूच्छित हो जाते हैं, जिसके भीतरी भाग की ईंटें अति संतप्त रहती हैं, तथा बावली के आधे भाग के समान विस्तृत है, उसे जिह्मकुण्ड कहते हैं ॥ ११८ ॥ धूमान्धकारयुक्तं च धूमान्धैः पापिभिर्युतम् । धनुःशतं श्वासबद्धैर्धूमान्ध परिकीर्तितम् ॥ ११९॥ जो धुएँ के अन्धकार से पूर्ण और घुयें से अन्धे बने हुए पापियों से भरा, सौ धनुष विस्तृत एवं श्वास से बँधा है, उसे धूमान्धनरक कहते हैं ॥ ११९ ॥ पातमात्राद्यत्र पापी नागैः संवेष्टितो भवेत् । धनुः शतं नागपूर्णं नागवेष्टनकुण्डकम् ॥ १२०॥ जिस कुण्ड में पापीगणों को गिरते ही साँपगण लपेट लेते हैं, और जो सौ धनुष विस्तृत और सांपों से भरा है, उसे नागवेष्टनकुण्ड कहते हैं ॥ १२० ॥ षडशीतिश्च कुण्डानि मयोक्तानि निशामय । लक्षणं चापि तेषां च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १२१॥ इस प्रकार मैंने छियासी (प्रधान) कुण्डों के नाम और लक्षण बता दिये हैं । अब और क्या सुनना चाहती हो ॥ १२१ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमलोकस्थनरककुण्डलक्षणप्रकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥३३॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड के सावित्री-उपाख्यान में यमलोकस्थ नरक- के लक्षण-कथन नामक तैतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३३ ॥ |