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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुस्त्रिंशोऽध्यायः


सावित्र्युपाख्याने सावित्र्यायमोपदेशसमाप्तिः -
यम के उपदेश की समाप्ति -


सावित्र्युवाच
हरिभक्तिं देहि मह्यं सारभूतां सुदुर्लभाम् ।
त्वत्तः सर्वं श्रुतं देव नावशिष्टो वरो मम ॥ १ ॥
सावित्री बोली-हे देव ! तुमसे मैंने सब कुछ सुन लिया है । अब मुझे सुनने के लिए कुछ शेष नहीं रह गया है । अतः भगवान् की भक्ति मुझे देने की कृपा करें, जो सार (तत्त्व) रूप और अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १ ॥

किंचित्कथय मे धर्मं श्रीकृष्णगुणकीर्तनम् ।
पुंसां लक्षोद्धारबीजं नरकार्णवतारकम् ॥ २ ॥
मुझे धर्म की कुछ चर्चा सुनाने की कृपा करें, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण का गुण-कीर्तन किया गया हो, और वह अनेक मनुष्यों के उद्धार का मूलकारण तथा नरक-सागर से तारने वाला हो ॥ २ ॥

कारणं मुक्तिकार्याणां सर्वाशुभनिवारणम् ।
दारणं कर्मवृक्षाणां कृतपापौघहारकम् ॥ ३ ॥
उसी भांति मुक्तिरूप कार्य का कारण, समस्त अशुभों का नाशक, कर्मरूपी वृक्षों का विदारक और पापसमूहों का अपहर्ता हो ॥ ३ ॥

मुक्तयः कतिधा सन्ति किं वा तासां च लक्षणम् ।
हरिभक्तेर्मूर्तिभेदं निषेकस्यापि लक्षणम् ॥ ४ ॥
मुक्तियाँ कितने प्रकार की होती हैं, उनके लक्षण क्या हैं, भगवान् की भक्ति का स्वरूपभेद और निषेक (कृतकर्मभोग) का लक्षण बताने की कृपा करें ॥ ४ ॥

तत्त्वज्ञानविहीना च स्त्रीजातिर्विधिनिर्मिता ।
किं तज्ज्ञानं सारभूतं वद वेदविदां वर ॥ ५ ॥
हे वेद के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ ! ब्रह्मा ने स्त्री जाति को तत्त्वज्ञानहीन निर्माण किया है । अतः उसके लिये सारभूत ज्ञान कौन है, हमें बतायें ॥ ५ ॥

सर्वदानं ह्यनशनं तीर्थस्नानं व्रतं तपः ।
अज्ञाने ज्ञानदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ६ ॥
क्योंकि सम्पूर्ण दान, अनशन, तीर्थस्नान, व्रत और तप अज्ञानी को ज्ञान देने की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते हैं ॥ ६ ॥

पितुः शतगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते ।
मातुः शतगुणैः पूज्यो ज्ञानदाता गुरुः प्रभो ॥ ७ ॥
हे प्रभो ! पिता से माता का गौरव सौगुना अधिक है, और माता से सौ गुना अधिक पूज्य ज्ञानदाता गुरु का गौरव होता है ॥ ७ ॥

यम उवाच
पूर्वं सर्वो वरो दत्तो यस्ते मनसि वाञ्छितः ।
अधुना हरिभक्तिस्ते वत्से भवतु मद्वरात् ॥ ८ ॥
यम बोले-हे वत्से ! जो तुम्हारे मन में अभीष्ट था वह वरदान पहले ही दिया जा चुका है । अब इस समय मेरे वरदान से तुम्हें भगवान् की भक्ति भी प्राप्त हो जायगी ॥ ८ ॥

श्रोतुमिच्छसि कल्याणि श्रीकृष्णगुणकीर्तनम् ।
वक्तृणां प्रश्नकर्तृणां श्रोतृणां कुलतारकम् ॥ ९ ॥
हे कल्याणि ! तुम भगवान् श्रीकृष्ण का गुण-गान सुनना चाहती हो जो कहने वाले, पूछने वाले और सुनने वाले इन सभी के कुलों को तार देता है ॥ ९ ॥

शेषो वक्त्रसहस्रेण नहि यद्वक्तुमीश्वरः ।
मृत्युंजयो न क्षमश्च वस्तुं पञ्चमुखेन च ॥ १० ॥
जिसे सहस्रमुख वाले शेष भी नहीं कह सकते हैं, मृत्युञ्जय (शिव) अपने पाँचों मुखो से उनके गुण का वर्णन करने में असमर्थ हैं ॥ १० ॥

धाता चतुर्णां वेदानां विधाता जगतामपि ।
ब्रह्मा चतुर्मुखेनैव नालं विष्णुश्च सर्ववित् ॥ ११ ॥
चारों वेदों के धारण करने वाले जगत् के विधाता ब्रह्मा एवं समस्त के वेत्ता विष्णु भी असमर्थ हैं ॥ ११ ॥

कार्तिकेयः षण्मुखेन नापि वक्तुमलं ध्रुवम् ।
न गणेशः समर्थश्च योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ १२ ॥
षडानन कार्तिकेय अपने छहों मुखों से उनका वर्णन नहीं कर सकते और योगीन्द्रों के गुरु गणेश भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं ॥ १२ ॥

सारभूताश्च शास्त्राणां वेदाश्चत्वार एव च ।
कलामात्रं यद्‌गुणानां न विदन्ति बुधाश्च ये ॥ १३ ॥
इस भांति शास्त्रों के सारभूत चारों वेद भी जिनके गुणों का कलामात्र वर्णन नहीं कर सकते हैं तो विद्वानों की कौन-सी बात है ॥ १३ ॥

सरस्वती जडीभूता नालं यद्‌गुणवर्णने ।
सनत्कुमारो धर्मश्च सनकश्च सनातनः ॥ १४ ॥
सनन्दः कपिलः सूर्यो ये चान्ये ब्रह्मणः सुताः ।
विचक्षणा न यद्वक्तुं के वाऽन्ये जडबुद्धयः ॥ १५ ॥
सरस्वती भी यत्नपूर्वक जिनके गुण का वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रकट करती हैं तथा सनत्कुमार, धर्म, सनक, सनातन, सनन्द, कपिल, सूर्य और ब्रह्मा के अन्य विद्वान् पुत्र भी जिनके गुण कहने में असमर्थ रहते हैं तो जड़-बुद्धि वालों की बात ही क्या है ॥ १४-१५ ॥

न यद्वक्तुं क्षमाः सिद्धा मुनीन्द्रा योगिनस्तथा ।
के वाऽन्ये च वयं के वा भगवद्‌गुणवर्णने ॥ १६ ॥
उसी प्रकार भगवान् के गुणवर्णन करने में सिद्धगण, मुनीन्द्रगण और योगी लोग असमर्थ रहते हैं तो अन्य तथा हम लोगों की कौन बात है ॥ १६ ॥

ध्यायन्ति यत्पदाम्भोजं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
अतिसाध्यं स्वभक्तानां तदन्येषां सुदुर्लभम् ॥ १७ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि जिनके चरण-कमल का सतत ध्यान करते रहते हैं, एवं अपने भक्तों के लिए जो अति साध्य और अन्य के लिए अति दुर्लभ है ॥ १७ ॥

कश्चित्किंचिद्विजानाति तद्‌गुणोत्कीर्तनं महत् ।
अतिरिक्तं विजानाति ब्रह्मा ब्रह्मविशारदः ॥ १८ ॥
उनके महान् गुणों का कीर्तन कोई कुछ ही जानता होगा । उसके अतिरिक्त ब्रह्मविशारद ब्रह्मा जानते हैं ॥ १८ ॥

ततोऽतिरिक्तं जानाति गणेशो ज्ञानिनां गुरुः ।
सर्वातिरिक्तं जानाति सर्वज्ञः शंभुरेव च ॥ १९ ॥
उनके अतिरिक्त ज्ञानियों के गुरु गणेश जानते हैं और सबसे अधिक सर्वज्ञ शिव जानते हैं ॥ १९ ॥

तस्मै दत्तं पुरा ज्ञानं कृष्णेन परमात्मना ।
अतीव निर्जने रम्ये गोलोके रासमण्डले ॥ २० ॥
क्योंकि पहले समय में परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने सुरम्य रासमण्डल के समय गोलोक के प्रति निर्जन स्थान में उन्हें ज्ञान प्रदान किया था ॥ २० ॥

तत्रैव कथितं किंचिद्यद्‌गुणोत्कीर्तनं पुनः ।
धर्माय कथयामास शिवलोके शिवः स्वयम् ॥ २१ ॥
उन्होंने उसी स्थान में उनका जो गुणगान किया था, उसे ही पुनः शिव ने स्वयं अपने लोक में धर्म से कहा ॥ २१ ॥

धर्मस्तत्कथयामास पुष्करे भास्कराय च ।
पिता मम यमाराध्य मां प्राप तपसा सति ॥ २२ ॥
धर्म ने पुष्कर में सूर्य से कहा । मेरे पिता ने उनकी आराधना करके तप द्वारा मुझको प्राप्त किया ॥ २२ ॥

पूर्वं स्वविषयं चाहं न गृह्णामि प्रयत्‍नतः ।
वैराग्ययुक्तस्तपसे गन्तुमिच्छामि सुव्रते ॥ २३ ॥
हे सुव्रते ! पहले समय में प्रयत्न करने पर भी मैं अपने इस विषय (पदाधिकार) का ग्रहण नहीं कर रहा था, विराग होने के नाते तप करने जा रहा था ॥ २३ ॥

तदा मां कथयामास पिता तद्‌गुणकीर्तनम् ।
यथागमं तद्वदामि निबोधातीव दुर्गमम् ॥ २४ ॥
उस समय मेरे पिता ने मुझे उनका गुण कीर्तन सुनाया । अतः उस दुरूह विषय को मैं अपने ज्ञानानुसार कह रहा हूँ, सुनो ! ॥ २४ ॥

तद्‌गुणं स न जानाति तदन्यस्य च का कथा ।
यथाऽऽकाशो न जानाति स्वान्तमेव वरानने ॥ २५ ॥
हे वरानने ! जैसे आकाश अपने ही अन्त को नहीं जानता है उसी तरह वे स्वयं उनके गुणों को नहीं जानते हैं, तो अन्य की बात ही क्या है ॥ २५ ॥

सर्वान्तरात्मा भगवान्सर्वकारणकारणम् ।
सर्वेश्वरश्च सर्वाद्यः सर्ववित्सर्वरूपधृक् ॥ २६ ॥
नित्यरूपो नित्यदेही नित्यानन्दो निराकृतिः ।
निरङ्कुशश्च निःशङ्‍को निर्गुणश्च निराश्रयः ॥ २७ ॥
निर्लिप्तः सर्वसाक्षी च सर्वाधारः परात्परः ।
प्रकृतिस्तद्विकारा च प्राकृतास्तद्विकारजाः ॥ २८ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण सबके भीतरी आत्मा , समस्त कारणों के कारण, सभी के ईश्वर, सबके आदि, समस्त के वेत्ता, सभी भाँति के रूप धारण करने वाले, नित्यरूपवान्, नित्य देह धारण करने वाले, नित्य आनन्द स्वरूप, आकृतिहीन, निरंकुश (स्वतंत्र), शंकाशून्य, गुणरहित, आश्रमहीन, निलिप्त, सभी के साक्षी, समस्त के आधार एवं परात्पर (श्रेष्ठ से श्रेष्ठ) हैं । प्रकृति उनका विकाररूप है और उनके विकार से उत्पन्न होने वाले को प्राकृत कहा जाता है ॥ २६-२८ ॥

स्वयं पुमांश्च प्रकृतिः स्वयं च प्रकृतेः परः ।
रूपं विधत्तेऽरूपश्च भक्तानुग्रहहेतवे ॥ २९ ॥
वे स्वयं पुरुषरूप और प्रकृतिरूप हैं तथा स्वयं प्रकृति से परे (पृथक्) भी हैं । रूपहीन होते हुए भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए रूप धारण करते हैं ॥ २९ ॥

अतीव कमनीयं च सुन्दरं सुमनोहरम् ।
नवीननीरदश्यामं किशोरं गोपवेषकम् ॥ ३० ॥
कन्दर्पकोटिलावण्यलीलाधाम मनोहरम् ।
शरन्मध्याह्नपद्मानां शोभामोषकलोचनम् ॥ ३१ ॥
शरत्पार्वणकोटीन्दुशोभासंशोभिताननम् ।
अमूल्यरत्‍नखचितं रत्‍नाभरणभूषितम् ॥ ३२ ॥
सस्मितं शोभितं शश्वदमूल्यपीतवाससा ।
परब्रह्मस्वरूपं च ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ३३ ॥
सुखदृश्यं च शान्तं च राधाकान्तमनन्तकम् ।
गोपीभिर्वीक्ष्यमाणं च सस्मिताभिः समन्ततः ॥ ३४ ॥
स्वयं अतीव कमनीय (सुन्दरातिसुन्दर), अति मनोहर, नये मेघ की भांति श्यामल, किशोर, गोपवेष, करोड़ों काम की लावण्यमयी लीला के धाम, मनोहर, शरत् ऋतु के मध्याह्नकालीन कमलों की शोभा को चुराने वाले नेत्रों से युक्त, शारदीय पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा की शोभा से सुशोभित मुख वाले, अमूल्य रत्नों से खचित, रत्नों के भूषणों से विभूषित, मन्द मुसुकाते और निरन्तर अमूल्य पीताम्बर से सुशोभित हो रहे हैं । वे परब्रह्मस्वरूप, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त, सुखदृश्य (देखने मात्र से सुख देने वाले), शान्त, राधा के कान्त एवं अनन्त हैं । मन्द मुसुकाती हुई गोपियाँ उन्हें चारों ओर से घेरे हुए देख रही हैं ॥ ३०-३४ ॥

रासमण्डलमध्यस्थं रत्‍नसिंहासनस्थितम् ।
वंशीं क्वणन्तं द्विभुजं वनमालाविभूषितम् ॥ ३५ ॥
कौस्तुभेन मणीन्द्रेण सुन्दरं वक्षसोज्ज्वलम् ।
कुङ्कुमागरुकस्तूरीचन्दनार्चितविग्रहम् ॥ ३६ ॥
वे रासमण्डल के मध्य स्थित रत्नसिंहासन पर विराजमान, वंशी की तान में मस्त, दो भुजा वाले, वनमाला पहने, वक्षःस्थल पर स्थित उज्ज्वल कौस्तुभ मणि से सुन्दर तथा सर्वाङ्ग में कुङ्कम, अगरु, कस्तूरीमिश्रित चन्दन से चचित हैं ॥ ३५-३६ ॥

चारुचम्पकमालाब्जमालतीमाल्यमण्डितम् ।
चारुचम्पकशोभाढ्यचूडावक्रिमराजितम् ॥ ३७ ॥
सुन्दर चम्पा पुष्पों की माला और कमल एवं मालती पुष्पों की माला से विभूषित, चारु चम्पा की शोभा से सम्पन्न तथा घंघराले बालों से शोभित हैं ॥ ३७ ॥

ध्यायन्ति चैवंभूतं वै भक्ता भक्तिपरिप्लुताः ।
यद्‌भयाज्जगतां धाता विधत्ते सृष्टिमेव च ॥ ३८ ॥
करोति लेखनं कर्मानुरूपं सर्वकर्मणाम् ।
तपसां फलदाता च कर्मणां च यदाज्ञया ॥ ३९ ॥
भक्ति रस में विभोर होकर भक्तगण ऐसे ही स्वरूप का ध्यान करते हैं जिनके भय से जगत् के विधाता ब्रह्मा सृष्टि रचना करते हैं, समस्त देहधारियों के कर्मानुरूप फल उनके भाल में लिखते हैं और जिनकी आज्ञा से तप का फल और कर्मों के फल (जीवों को) देते रहते हैं ॥ ३८-३९ ॥

विष्णुः पाता च सर्वेषां यद्‌भयात्पाति संततम् ।
कालाग्निरुद्रः संहर्ता सर्वविश्वेषु यद्‌भयात् ॥ ४० ॥
जिनके भय से विष्णु सभी के निरन्तर रक्षक हुए हैं एवं जिनके भय से कालाग्नि रुद्र समस्त विश्व का संहार करते हैं ॥ ४० ॥

शिवो मृत्युजयश्चैव ज्ञानिनां च गुरोर्गुरुः ।
यज्ज्ञानदानात्सिद्धेशो योगीशः सर्ववित्स्वयम् ॥ ४१ ॥
परमानन्दयुक्तश्च भक्तिवैराग्यसंयुतः ।
यत्प्रसादाद्वाति वातः प्रवरः शीघ्रगामिनाम् ॥ ४२ ॥
जिनके ज्ञानदान द्वारा ज्ञानियों के गुरु के गुरु एवं मृत्युञ्जय शिव सिद्धेश, योगीश और स्वयं सर्ववेत्ता, परमानन्दसम्पन्न एवं भक्तिवैराग्ययुक्त हो गये हैं । जिनके प्रसाद से वायु शीघ्रगामियों में सर्वश्रेष्ठ होकर चलता है ॥ ४१-४२ ॥

तपनश्च प्रतपति यद्‌भयात्संततं सति ।
यदाज्ञया वर्षतीन्द्रो मृत्युश्चरति जन्तुषु ॥ ४३ ॥
जिनके भय से तपन (सूर्य) निरन्तर तपते हैं, जिनकी आज्ञा से इन्द्र वर्षा करते हैं तथा सभी जीवों के बीच मृत्यु विचरण करता है ॥ ४३ ॥

यदाज्ञया दहेद्वह्निर्जलमेव सुशीतलम् ।
दिशो रक्षन्ति दिक्पाला महाभीता यदाज्ञया ॥ ४४ ॥
जिनकी आज्ञा से अग्नि जलाता है, जल अति शीतल होता है । जिनकी आज्ञावश अत्यन्त भयभीत होकर दिक्पाल दिशाओं की रक्षा करते हैं ॥ ४४ ॥

भ्रमन्ति राशिचक्राणि ग्रहा वै यद्‌भयेन च ।
भयात्फलन्ति वृक्षाश्च पुष्पन्त्यपि च यद्‌भयात् ॥ ४५ ॥
जिनके भय से राशिमण्डल तथा ग्रहगण घूमा करते हैं, जिनके भय से वृक्ष फूलते-फलते हैं ॥ ४५ ॥

भयात्फलानि पक्वानिनिष्फलास्तरवो भयात् ।
यदाज्ञया स्थलस्थाश्च न जीवन्ति जलेषु च ॥ ४६ ॥
जिनके भय से फल पक जाते हैं और (समय पर) वृक्ष फलहीन हो जाते हैं । जिनकी आज्ञा से स्थल के रहने वाले (जीव) जल में जीवित नहीं रह सकते ॥ ४६ ॥

तथा स्थले जलस्थाश्च न जीवन्ति यदाज्ञया ।
अहं नियमकर्ता च धर्माधर्मे च यद्‌भयात् ॥ ४७ ॥
जिनकी आज्ञा से जलस्थायी जीव स्थल पर जीवित नहीं रहते हैं । जिनके भय से मैं धर्माधर्म का नियम करता हूँ ॥ ४७ ॥

कालश्च कलयेत्सर्वं भ्रमत्येव यदाज्ञया ।
अकाले न हरेत्कालो मृत्युर्वै यद्‌भयेन च ॥ ४८ ॥
जिनकी आज्ञा से काल सभी को ग्रास बनाता हुआ घूमा करता है । जिनके भय से कालरूप मृत्यु अकाल में हरण नहीं कर पाता है ॥ ४८ ॥

ज्वलदग्नौ पतन्तं च गभीरे च जलार्णवे ।
वृक्षाग्रात्तीक्ष्णखड्गे च सर्पादीनां मुखेषु च ॥ ४९ ॥
नानाशस्त्रास्त्रविद्धं च रणेषु विषमेषु च ।
पुष्पचन्दनतल्पे च बन्धुवर्गैश्च रक्षितम् ॥ ५० ॥
शयानं तन्त्रमन्त्रैश्च काले कालो हरेद्‌भयात् ।
धत्ते वायुस्तोयराशिं तोयं कूर्मं यदाज्ञया ॥ ५१ ॥
कूर्मोऽनन्तं स च क्षोणीं समुद्रान्सप्त पर्वतान् ।
सर्वाश्चैव क्षमारूपो नानारूपं बिभर्ति सः ॥ ५२ ॥
जलते हुए अग्नि में, अगाध जलसागर में, वृक्ष के अग्रभाग से, तीक्ष्ण खग पर, सर्पादि हिंसक जन्तुओं के मुख में तथा भीषण रणस्थलों में अनेक भौति के शस्त्रास्त्रों से छिन्न-भिन्न होकर गिरते हुए को तथा पुष्प-चन्दन की शय्या पर बन्धुवगों द्वारा सुरक्षित को और तन्त्रों-मन्त्रों द्वारा शयन करते हुए को भी काल जिनके भय से समय पर अपहरण कर लेता है । जिनकी आज्ञा से वायु जलराशि धारण करता है,तोय कूर्म (कछुवा) को धारण करता है । कछुवा अनन्त (शेष) को धारण करता है । अनन्त पृथिवी को धारण करता है और पृथिवी सभी समुद्रों, सातों पर्वतों एवं सभी को तथा अनेक रूपों को धारण करती है ॥ ४९-५२ ॥

यतः सर्वाणि भूतानि लीयन्तेऽन्ते च तत्र वै ।
इन्द्रायुश्चैव दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ॥ ५३ ॥
अष्टाविंशच्छक्रपाते ब्रह्मणः स्यादहर्निशम् ।
षष्ट्याऽधिके पञ्चशते सहस्रे पञ्चविंशतौ ॥ ५४ ॥
युगे नराणां शक्रायुरेवं संख्याविदो विदुः ।
एवं त्रिंशद्‌दिनैर्मासो द्वाभ्यां ताभ्यामृतुः स्मृतः ॥ ५५ ॥
ऋतुभिः षड्भिरेवाब्दं शताब्दं ब्रह्मणो वयः ।
ब्रह्मणश्च निपाते वै चक्षुरुन्मीलन हरेः ॥ ५६ ॥
चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ॥ ५७ ॥
लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्‌कजे ।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ॥ ५८ ॥
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।
इन्द्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः ॥ ५९ ॥
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चाऽत्मनः ॥ ६० ॥
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः ।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्वशक्तयः ॥ ६१ ॥
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च ॥ ६२ ॥
और अन्त में जिनमें सभी भूत (पृथिवी आदि) लीन हो जाते हैं । एकहत्तर दिव्य युगों की इन्द्र की आयु होती है । इस भांति अट्ठाईस इन्द्र के समय तक ब्रह्मा का एक अहोरात्र (दिन-रात) होता है । मनुष्यों के पचीस सहस्र पांच सौ साठ युग के समय तक इन्द्र की आयु होती है, ऐसा गणनाविदों ने कहा है । इस प्रकार तीस दिन का एक मास, दो मास की एक ऋतु, छह ऋतुओं का एक वर्ष और सौ वर्ष की ब्रह्मा की आयु होती है । एवं ब्रह्मा की आयु का समय भगवान् विष्णु का एक निमेष (पलक-मांजना) होता है । इस प्रकार उनका नेत्र निमीलन करना ही प्राकृतिक लय है, ऐसा विद्वानों ने कहा है । प्रलय के समय देव आदि चराचर प्राकृत सभी धाता ब्रह्मा में लीन होते हैं और ब्रह्मा भगवान् श्रीकृष्ण के नाभिकमल में लीन होते हैं । भगवान् विष्णु जो क्षीरसागर में शयन करते हैं, और वैकुण्ठ में चार भुजाओं से विभूषित रहते हैं वे परमात्मा श्रीकृष्ण के बायें पार्श्व में विलीन होते हैं । जितने रुद्रादि और भैरवादि गण भगवान् शिव के अनुगामी हैं, वे शिवाधार शिव में लीन होते हैं, जो ज्ञानानन्द एवं सनातन हैं । श्रीकृष्ण तथा महादेव के आत्मा का जो ज्ञानाधिदेव है, उसका हरि के ज्ञान में तत्क्षण लय हो जाता है । विष्णुमाया दुर्गाजी में समस्त शक्तियां विलीन हो जाती हैं । वह दुर्गा भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि में निवास करती हैं, जो उनकी बुद्धि की अधिष्ठातृदेवी हैं । उसी प्रकार नारायण के अंश स्कन्द नारायण के वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं ॥ ५३-६२ ॥

श्रीकृष्णांशश्च तद्‌बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः ।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते ॥ ६३ ॥
गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः ।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ॥ ६४ ॥
देवों के अधीश्वर गणेशजी, भगवान् श्रीकृष्ण के बाहु में लीन होते हैं । हे सुव्रते ! पद्मा (कमला) का अंश कमला में और कमला राधिका जी में लीन होती हैं और गोपियाँ एवं सभी देवियाँ उन्हीं राधा में लीन हो जाती हैं, जो भगवान् श्रीकृष्ण की प्राणाधिष्ठातृदेवी हैं । इसीलिए वह राधा उनके प्राणों में स्थित रहती हैं ॥ ६३-६४ ॥

सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः ॥ ६५ ॥
सावित्री एवं वेदशास्त्र आदि सभी सरस्वती में स्थित होते हैं और सरस्वती परमात्मा उसी श्रीकृष्ण को जिह्वा में लीन होती हैं ॥ ६५ ॥

गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु ।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः ॥ ६६ ॥
जठराग्नौ विलीनश्च जलं तद्‌रसनाग्रतः ।
वैष्णवाश्चरणाम्भोजे परमानन्दसंयुताः ॥ ६७ ॥
गोलोकनिवासी भगवान् के लोमों में वहां के सभी गोप और उनके प्राणों में सभी के प्राण-वायु विलीन होते हैं । उनके जठराग्नि में अग्नि, रसना के अग्रभाग में जल और उनके चरणकमल में परमतत्त्वस्वरूप भक्तिरसामृत पान करने वाले वैष्णवगण परमानन्दमग्न होकर निवास करते हैं ॥ ६६-६७ ॥

सारात्सारतरा भक्तिरसपीयूषपायिनः ।
विराट्क्षुद्रश्च महति लीनः कृष्णे महान्विराट् ॥ ६८ ॥
फिर शुद्ध विराट् महान् में तथा महाविराट् भगवान् श्रीकृष्ण में लीन होता है ॥ ६८ ॥

यस्यैव लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।
यस्य चक्षुर्निमेषेण महांश्च प्रलयो भवेत् ॥ ६९ ॥
चक्षुरुन्मीलने सृष्टिर्यस्यैव परमात्मनः ।
यावन्निमेषे सृष्टिः स्यात्तावदुन्मीलने व्ययः ॥ ७० ॥
जिनके लोमकूपों में समस्त विश्व स्थित रहता है और जिनके नेत्र (पलक) बंद करने से महाप्रलय तथा जिन परमात्मा के नेत्रोन्मीलन (आँख खोलने) से सृष्टि होती है । इस भांति उनके निमेष (नेत्रनिमीलन) के समय जितनी सृष्टि 'सुरक्षित' रहती है, नेत्रोन्मीलन के समय सबकी सब बाहर (सृष्टि) हो जाती है ॥ ६९-७० ॥

ब्रह्मणश्च शताब्देन सृष्टिस्तत्र लयः पुनः ।
ब्रह्मसृष्टिलयानां च संख्या नास्त्येव सुव्रते ॥ ७१ ॥
ब्रह्मा के सौ वर्ष की आयु तक सृष्टि होती है । उपरान्त पुनः वह उसी में लीन हो जाती है । इसलिए हे सुव्रते ! ब्रह्मा, सृष्टि और लय की पृथिवी के रजकणों की भांति ( अनन्त होने के कारण) संख्या नहीं है ॥ ७१ ॥

यथा भूरजसां चैव संख्यानं च निशामय ।
चक्षुर्निमेषे प्रलयो यस्य सर्वान्तरात्मनः ॥ ७२ ॥
उन्मीलने पुनः सृष्टिर्भवेदेवेश्वरेच्छया ।
तद्‌गुणोत्कीर्तनं वक्तुं ब्रह्माण्डेषु च कः क्षमः ॥ ७३ ॥
क्योंकि जिस सर्वान्तरात्मा भगवान् के नेत्रोन्मेष (पलक मांजने) के समय तक प्रलय और उसी देवेश्वर की इच्छा से उसके नेत्रोन्मीलन करने (आँख खोलने) पर सृष्टि होती है, उसके गुण का ज्ञान करने में समस्त ब्रह्माण्डों के मध्य कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ ७२-७३ ॥

यथा श्रुतं तातवक्त्रात्तथोक्तं च यथागमम् ।
मुक्तयश्च चतुर्वेदैर्निरुक्ताश्च चतुर्विधाः ॥ ७४ ॥
तत्प्रधाना हरेर्भक्तिर्मुक्तेरपि गरीयसी ।
सालोक्यदा हरेरेका चान्या सारूप्यदाऽपरा ॥ ७५ ॥
सामीप्यदा च निर्वाणदात्रीचैवमिति स्मृतिः ।
भक्तास्ता न हि वाञ्छन्ति विना तत्सेवनादिकम् ॥ ७६ ॥
इस प्रकार पिताजी के मुख से मैंने जैसा सुना था वैसा शास्त्रानुसार सुना दिया । चारों वेदों में मुक्ति चार प्रकार की बतायी गयी है । उनमें भगवान् की भक्ति, मुक्ति से अधिक गौरव रखने के कारण सर्वश्रेष्ठ है । उन चार प्रकार की मुक्ति में एक मुक्ति भगवान् का सालोक्य प्रदान करती है, दूसरी मुक्ति सारूप्य, तीसरी सामीप्य और चौथी मुक्ति सायुज्य प्रदान करती है तथा निर्वाणदायिनी मुक्ति भी कही गयी है । किन्तु भक्त गण बिना भगवान् की सेवा (भक्ति) किये उपर्युक्त कोई मुक्ति नहीं चाहते हैं ॥ ७४-७६ ॥

सिद्धत्वममरत्वं च ब्रह्मत्वं चावहेलया ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयशोकादिखण्डनम् ॥ ७७ ॥
धारणं दिव्यरूपस्य विदुर्निर्वाणमोक्षदम् ।
मुक्तिश्च सेवारहिता भक्तिः सेवाविवर्द्धिनी ॥ ७८ ॥
इतना ही नहीं, भक्त लोग भक्तिरहित अमरत्व एवं ब्रह्मत्व की भी अवहेलना कर देते हैं । इस प्रकार भक्ति जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, भय और शोक आदि के नाशपूर्वक दिव्यरूप धारण एवं निर्वाण मोक्ष प्रदान करती है । मुक्ति सेवा से रहित होती है और भक्ति सेवावृद्धि करती है ॥ ७७-७८ ॥

भक्तिमुक्त्योरयं भेदो निषेकलक्षणं शृणु ।
विदुर्बुधा निषेकं च भोगं च कृतकर्मणाम् ॥ ७९ ॥
भक्ति और मुक्ति में यही भेद है । अब निषेक का लक्षण कह रहा हूँ, सुनो ! विद्वानों ने किये हुए कमों के भोग को निषेक बताया है ॥ ७९ ॥

तत्खण्डनं च शुभदं परं श्रीकृष्णसेवनम् ।
तत्त्वज्ञानमिदं साध्वि सारं वै लोकवेदयोः ॥ ८० ॥
हे साध्वि ! भगवान् श्रीकृष्ण की एकमात्र सेवा द्वारा ही (कमों) काखण्डन होता है क्योंकि वह परम शुभ (कल्याणप्रद) होती है । यही तत्त्वज्ञान है और लोक एवं वेद का सार है ॥ ८० ॥

विघ्नघ्नं शुभदं चोक्तं गच्छ वत्से यथासुखम् ।
इत्युक्त्वा सूर्यपुत्रश्च जीवयित्वा चतत्पतिम् ॥ ८१ ॥
तस्यै शुभाशिषं दत्त्वा गमनं कर्तुमुद्यतः ।
दृष्ट्‍वा यमं च गच्छन्तं सावित्री तं प्रणम्य च ॥ ८२ ॥
रुरोद चरणे धृत्वा सद्विच्छेदोऽतिदुःखदः ।
सावित्रीरोदनं श्रुत्वा यमः सोऽयं कृपानिधिः ॥ ८३ ॥
तामित्युवाच संतुष्टस्त्वरोदीच्चापि नारद ॥ ८४ ॥
तथा विघ्नों का नाशक और शुभदायक है । हे वत्से ! इस प्रकार मैंने सब कुछ बता दिया है, अतः तु अब सुखपूर्वक घर चली जा । इतना कह कर सूर्यपुत्र यम ने उसके पति (सत्यवान्) को जीवित कर दिया और सावित्री को शुभाशीर्वाद देकर अपने चलने का उपक्रम किया । उपरान्त सावित्री ने यम को जाते हुए देखकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकड़ कर रुदन करने लगी क्योंकि सत्पुरुषों का वियोग अति दुःखदायक होता है । हे नारद ! उस समय सावित्री का रुदन देखकर कृपानिधान यमराज भी अति सन्तुष्ट होकर उसे आश्वासन देने लगे जिसमें प्रेममग्न होकर वे स्वयं भी अश्रुपात कर रहे थे ॥ ८१-८४ ॥

यम उवाच
लक्षवर्षं सुखं भुक्त्वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
अन्ते यास्यसि गोलोके श्रीकृष्णभवनं शुभे ॥ ८५ ॥
यम बोले-हे शुभे ! पुण्य क्षेत्र भारत में एक लाख वर्ष तक सुखोपभोग करके अन्त में तुम गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के भवन में चली जाओगी ॥ ८५ ॥

गत्वा च स्वगृहं भद्रे सावित्र्याश्च व्रतं कुरु ।
द्विसप्तवर्षपर्यन्तं नारीणां मोक्षकारणम् ॥ ८६ ॥
अतः हे भद्रे ! घर जाकर चौदह वर्ष तक तुम (वट) सावित्री का व्रत करो, जो स्त्रियों के मोक्ष का हेतु है ॥ ८६ ॥

ज्येष्ठे शुक्लचतुर्दश्यां सावित्र्याश्च व्रतं कुरु ।
शुक्लाष्टम्यां भाद्रपदे महालक्ष्म्या व्रतं तथा ॥ ८७ ॥
द्व्यष्टवर्षवतं चेदं प्रत्यब्दं पक्षमेव च ।
करोति परया भक्त्या सा याति च हरेः पदम् ॥ ८८ ॥
ज्येष्ठ मास की शुक्ल चतुर्दशी के दिन सावित्री का वह शुभ व्रत होता है । भादों मास की शुक्लाष्टमी के दिन महालक्ष्मी का शुभ व्रत होता है, जिसे १६ वर्षों तक प्रत्येक वर्ष जो (स्त्री) परम भक्ति के साथ करती है वह विष्णुलोक को जाती है ॥ ८७-८८ ॥

प्रतिमङ्‌गलवारे च देवीं मङ्‌गलचण्डिकाम् ।
प्रतिमासं शुक्लषष्ठ्यां षष्ठीं मङ्‌गलदायिकाम् ॥ ८९ ॥
तथा चाऽऽषाडसंक्रान्त्यां मनसा सर्वसिद्धिदाम् ।
राधां रासे च कार्तिक्यां कृष्णप्राणाधिकां प्रियाम् ॥ ९० ॥
उपोष्य शुक्लाष्टम्यां च प्रतिमासे वरप्रदाम् ।
विष्णुमायां भगवतीं दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम् ॥ ९१ ॥
प्रकृतिं जगदम्बां च पतिपुत्रवतीषु च ।
पतिव्रतासु शुद्धासु यन्त्रेषु प्रतिमासु च ॥ ९२ ॥
या नारी पूजयेद्‌भक्त्या धनसंतानहेतवे ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ९३ ॥
इसी भांति प्रत्येक मंगल के दिन मंगलचण्डिका देवी की, प्रति मास में शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन मंगलदायिनी षष्ठी देवी की, आषाढ़ की संक्रान्ति के दिन समस्त सिद्धि दायिनी मनसा देवी की, कार्तिकी संक्रान्ति एवं पूर्णिमा को कृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्रिय राधा की और प्रत्येक मास की शुक्लाष्टमी में उपवास रह कर भगवान् विष्णु की माया भगवती दुर्गा जी की, जो वर प्रदान करने वाली, दुर्गति की नाशिनी, प्रकृति स्वरूप जगज्जननी एवं पति पुत्र सम्पन्न, शुद्ध पतिव्रताओं में प्रथम सती हैं, यंत्रों और परमात्माओं में जो स्त्री धन और सन्तानार्थ भक्तिपूर्वक अर्चना करती है, वह इस लोक में (आजीवन) सुखोपभोग करने के उपरान्त अन्त में श्री हरि के लोक में जाती है ॥ ८९-९३ ॥

इत्युक्त्वा तां धर्मराजो जगाम निजमन्दिरम् ।
गृहीत्वा स्वामिनं सा च सावित्री च निजालयम् ॥ ९४ ॥
इतना कह कर धर्मराज अपने भवन में चले गये और सावित्री भी अपने पति (सत्यवान्) को साथ लेकर अपने घर आयी ॥ ९४ ॥

सावित्री सत्यवन्तं च वृत्तान्तं च यथाक्रमम् ।
अन्यांश्च कथयामास बान्धवांश्चैव नारद ॥ ९५ ॥
हे नारद ! घर पहुँच कर सावित्री ने यह समस्त वृत्तान्त क्रमशः अपने (पति) सत्यवान् और अन्य बन्धुओं को कह सुनाया ॥ ९५ ॥

सावित्रीजनकः पुत्रान्स प्रापद्वै क्रमेण च ।
श्वशुरश्चक्षुषी राज्यं सा च पुत्रान्वरेणच ॥ ९६ ॥
लक्षवर्षं सुखं भुक्त्वा पुण्यक्षेत्रे च भारते ।
जगाम स्वामिना सार्धं गोलोकं सा पतिव्रता ॥ ९७ ॥
पश्चात् क्रमशः सावित्री के पिता को पुत्रों का लाभ हुआ, उसके सास-ससुर को आँखें और स्वयं उसे राज्य समेत पुत्रों की प्राप्ति हुई । इस प्रकार वह पतिव्रता वरदान द्वारा इस पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में एक लाख वर्ष तक सुखोपभोग करने के अनन्तर अपने स्वामी समेत गोलोक को चली गयी ॥ ९६-९७ ॥

सवितुश्चाधिदेवी या मन्त्राधिष्ठातृदेवता ।
सावित्री चापि वेदानां सावित्री तेन कीर्तिता ॥ ९८ ॥
सविता (सूर्य) की अघि देवी, मन्त्रों की अधिष्ठात्री देवी और वेदों की सावित्री देवी होने के नाते उसे सावित्री कहा जाता है ॥ ९८ ॥

इत्येवं कथितं वत्स सावित्र्याख्यानमुत्तमम् ।
जीवकर्मविपाकं च किं पुनः श्रोतुमिच्छसि ॥ ९९ ॥
हे वत्स ! इस भांति सावित्री का उत्तम आख्यान तथा जीवों का कर्मविपाक तुम्हें सुना दिया । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ९९ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने सावित्र्या
यमोपदेशसमाप्तिर्नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारदनारायणसंवादविषयक सावित्री के उपाख्यान में सावित्री को यम के द्वारा दिये गये उपदेश की समाप्ति नामक चौंतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३४ ॥

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