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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चत्रिंशोऽध्यायः लक्ष्मीस्वरूपपूजादिवर्णनम् -
लक्ष्मी के स्वरूप तथा पूजा आदि का वर्णन - नारद उवाच श्रीकृष्णस्याऽऽत्मनश्चैव निर्गुणस्य निराकृतेः । सावित्रीयमसंवादे श्रुतं सुविमलं यशः ॥ १ ॥ नारद बोले-सावित्री और यम के संवाद में निर्गुण निराकार परमात्मरूप श्रीकृष्ण का अति निर्मल यश मैंने सुना ॥ १ ॥ तद्गुणोत्कीर्तनं सत्यं मङ्गलानां च मङ्गलम् । अधुना श्रोतुमिच्छामि लक्ष्म्युपाख्यानमीश्वर ॥ २ ॥ क्योंकि उनका गुणगान ही सत्यरूप और मंगलों का मंगल रूप है । हे ईश्वर ! मैं अब लक्ष्मी का उपाख्यान सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ केनाऽऽदौ पूजिता साऽपि किंभूता केन वा पुरा । तद्गुणोत्कीर्तनं सत्यं वद वेदविदां वर ॥ ३ ॥ हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! सर्वप्रथम उनकी पूजा किसने की थी और पूर्वकाल में किसके द्वारा वे किस रूप में अवतरित हुई थीं ? उनके गुणों का गान करना ही सत्य है । अतः उसे कहने की कृपा करें ॥ ३ ॥ नारद उवाच सृष्टेरादौ पुरा ब्रह्मन्कृष्णस्य परमात्मनः । देवी वामांशसंभूता चाऽऽसीत्सा रासमण्डले ॥ ४ ॥ नारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! पूर्व समय-सृष्टि के आदि काल में परमात्मा श्रीकृष्ण के रासमण्डल में वह देवी उनके बायें अंग से प्रकट हुई ॥ ४ ॥ अतीव सुन्दरी श्यामा न्यग्रोधपरिमण्डला । यथा द्वादशवर्षीया रम्या सुस्थिरयौवना ॥ ५ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभा सुखदृश्या मनोहरा । शरत्पार्वणकोटीन्दुप्रभासंशोभितानना ॥ ६ ॥ शरन्मध्याह्नपद्मानां शोभाशोभितलोचना । सा च देवी द्विधाभूता सहसैवेश्वरेच्छया ॥ ७ ॥ समा रूपेण वर्णेन तेजसा वयसा त्विषा । यशसा वाससा मूर्त्या भूषणेन गुणेन च ॥ ८ ॥ स्मितेन वीक्षणेनैव वचसा गमनेन च । मधुरेण स्वरेणैव नयेनानुनयेन च ॥ ९ ॥ जो अत्यन्त सुन्दरी, श्यामा (ऋतु के अनुरूप सुख देने वाली),न्यग्रोधपरिमण्डला (कठोर स्तन, स्थूल नितम्ब तथा पतली कमर वाली), बारह वर्ष वाली, रमणीय, श्वेत चम्पा के समान वर्ण कान्तिवाली, सुदर्शना, मनोहरा, शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा से सुशोभित मुखवाली और शरत्काल के मध्याह्नकालिक कमलों की शोभासे शोभित नेत्रों वाली थी । ईश्वर की इच्छा से वह देवी उसी समय सहसा दो रूपों में हो गयी जो रूप-रंग, तेज, अवस्था, कान्ति, यश, वस्त्र, आकार-प्रकार, भूषण, गुण, मन्द मुसुकान, आँखों से देखने, बोलने एवं चलने आदि में तथा स्वर की मधुरता और नय-अनुनय (व्यवहार कुशलता) में समान थीं ॥ ५-९ ॥ तद्वामांशा महालक्ष्यीर्दक्षिणांशा च राधिका । राधाऽऽदौ वरयामास द्विभुजं च परात्परम् ॥ १० ॥ उनके बांये अंश से प्रकट होने वाली महालक्ष्मी और दाहिने अंश से उत्पन्न होने वाली राधिका थीं । उनमें श्री राधिका जी ने सर्वप्रथम दो भुजा वाले एवं परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण का वरण कर लिया ॥ १० ॥ महालक्ष्मीश्च तत्पश्चाच्चकमे कमनीयकम् । कृष्णस्तद्गौरवेणैव द्विधारूपो बभूव ह ॥ ११ ॥ पश्चात् महालक्ष्मी ने भी अति सुन्दर पति का वरण किया । उन दोनों के गौरव के कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हुए ॥ ११ ॥ दक्षिणांशो वै द्विभुजो वामांशश्च चतुर्भुजः । चतुर्भुजाय द्विभुजो महालक्ष्मीं ददौ पुरा ॥ १२ ॥ जिनमें दाहिने माग वाला रूप दो भुजाओं और बाँयें भाग वाला चार भुजाओं से विभूषित था । दो भुजा वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने महालक्ष्मी को पहले ही उस चार भुजा वाले (महाविष्णु) को सौंप दिया था ॥ १२ ॥ लक्ष्यते दृश्यते विश्वं स्निग्धदृष्ट्या ययाऽनिशम् । देवीषु या च महती महालक्ष्मीश्च सा स्मृता ॥ १३ ॥ जो महालक्ष्मी इस समस्त विश्व को अपनी अति स्नेहमयी दृष्टि से सतत देखती हैं तथा देवियों में महान् हैं । इसीलिए उन्हें महालक्ष्मी कहा जाता है ॥ १३ ॥ द्विभुजो राधिकाकान्तो लक्ष्मीकान्तश्चतुर्भुजः । गोलोके द्विभुजस्तस्थौ गोपैर्गोपीभिरावृतः ॥ १४ ॥ चतुर्भुजश्च वैकुण्ठं प्रययौ पद्मया सह । सर्वांशेन समौ तौ द्वौ कृष्णनारायणौ परौ ॥ १५ ॥ इस प्रकार दो भुजा वाले भगवान् श्रीकृष्ण श्री राधिका जी के पति हैं और चार भुजा वाले (महाविष्णु) महालक्ष्मी जी के । दो मुजा वाले भगवान् श्रीकृष्ण गोपों और गोपियों से आवृत होकर गोलोक में ही रहते हैं । अनन्तर चार भुजा वाले भगवान् (विष्णु) ने पद्मा (महालक्ष्मी) को साथ लेकर वैकुण्ठ को प्रस्थान किया । इस भाँति वे परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण और नारायण विष्णु, दोनों सभी अशों में समान हैं ॥ १४-१५ ॥ महालक्ष्मीश्च योगेन नानारूपा बभूव सा । वैकुण्ठे च महालक्ष्मीः परिपूर्णतमाऽपरा ॥ १६ ॥ उस महालक्ष्मी ने योग द्वारा अपने अनेक रूप धारण किये हैं, जो वैकुण्ठ में परिपूर्णतम और श्रेष्ठ होकर विराजमान हैं ॥ १६ ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा च सर्वसौभाग्यसंयुता । प्रेम्णा सा वै प्रधाना च सर्वासु रमणीषु च ॥ १७ ॥ तथा शुद्ध सत्त्व स्वरूप, समस्त सौभाग्य से परिपूर्ण और समस्त रमणियों में वे प्रेमप्रधान रमणी हैं ॥ १७ ॥ स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च शक्रसंपत्स्वरूपिणी । पातालेषु च मर्त्येषु राजलक्ष्मीश्च राजसु ॥ १८ ॥ इसी भांति ये स्वर्ग की स्वर्गलक्ष्मी, इन्द्र की सम्पत्तिस्वरूप और पाताल तथा मर्त्यलोक के राजाओं की राजलक्ष्मी हैं ॥ १८ ॥ गृहलक्ष्मीर्गहेष्वेव गृहिणी च कलांशया । संपत्स्वरूपा गृहिणां सर्वमङ्गलमङ्गला ॥ १९ ॥ एवं घर की गृहलक्ष्मी, अंशकला से घर की गृहिणी, गृही मनुष्यों की सम्पत्ति रूप और समस्त मंगलों की मंगलरूपा हैं ॥ १९ ॥ गवांप्रसूः सा सुरभिर्दक्षिणा यज्ञकामिनी । क्षोरोदसिन्धुकन्या सा श्रीरूपा पद्मिनीषु च ॥ २० ॥ वही गौओं की जननी सुरभी, यज्ञ की प्रिया दक्षिणा, क्षीरसागर की कन्या कमला तथा कमलिनियों में श्री (शोभा) रूपा हैं ॥ २० ॥ शोभारूपा च चन्द्रे सा सूर्यमण्डलमण्डिता । विभूषणेषु रत्नेषु कलेषु जलजेषु च ॥ २१ ॥ नृपेषु नृपपत्नीषु दिव्यस्त्रीषु गृहेषु च । सर्वसस्येषु वस्त्रेषु स्थाने सा संस्कृते तथा ॥ २२ ॥ प्रतिमासु च देवानां मङ्गलेषु घटेषु च । माणिक्येषु च मुक्तासु माल्येषु च मनोहरा ॥ २३ ॥ मणीन्द्रेषु च हारेषु क्षीरे वै चन्दनेषु च । वृक्षशाखासु रम्यासु नवमेघेषु वस्तुषु ॥ २४ ॥ वे चन्द्रमा में शोभा रूप हैं तथा सूर्य मण्डल से विभूषित हैं । उसी भाँति आभूषणों, रत्नों, फलों, जलोत्पन्न वस्तुओं, राजाओं, रानियों, दिव्य स्त्रियों, घरों, समस्त फसलों, वस्त्रों, सुसंस्कृत स्थानों, देवों की प्रतिमाओं, मांगलिक कलशों, मणि-वस्तुओं मोतियों और मालाओं में मनोहर रूप हैं । तथा उत्तम मणियों, हारों, दुग्ध, चन्दनों, वृक्षों को रम्य शाखाओं, नवीन मेघों और वस्तुओं में भी सुन्दर रूप हैं ॥ २१-२४ ॥ वैकुण्ठे पूजिता साऽऽदौ देवी नारायणेन च । द्वितीये ब्रह्मणा भक्त्या तृतीये शंकरेण च ॥ २५ ॥ इस प्रकार सर्वप्रथम वैकुण्ठ में नारायण ने इस देवी की अर्चना की पश्चात् भक्तिपूर्वक ब्रह्मा और शंकर ने ॥ २५ ॥ विष्णुना पूजिता सा च क्षीरोदे भारते मुने । स्वायंभुवेन मनुना मानवेन्द्रैश्च सर्वतः ॥ २६ ॥ हे मुने ! तदनन्तर क्षीरसागर में विष्णु ने, भारत में स्वायम्भुव मनु ने और सभी राजाओं ने सविधि पूजा की ॥ २६ ॥ ऋषीन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च सद्भिश्च गृहिभिर्भवे । गन्धर्वाद्यैश्च नागाद्यैः पातालेषु च पूजिता ॥ २७ ॥ उसके उपरान्त श्रेष्ठ ऋषिगणों, मुनिगणों, सज्जन गृहस्थों ने अर्चना की । गन्धों आदि और सों आदि ने भी पातालों में इन्हें पूजित किया ॥ २७ ॥ शुक्लाष्टम्यां भाद्रपदे पूजा वै ब्रह्मणा कृता । भक्त्या च पक्षपर्यन्तं त्रिषु लोकेषु नारद ॥ २८ ॥ हे नारद ! भादों मास की शुक्ल अष्टमी के दिन ब्रह्मा ने भक्तिपूर्वक पूजा की और तीनों लोकों में पक्ष पर्यन्त उनकी पूजा हुई ॥ २८ ॥ चैत्रे पौषे च भाद्रे च पुण्ये मङ्गलवासरे । विष्णुना निर्मिता पूजा त्रिषु लोकेषु भक्तितः ॥ २९ ॥ भगवान् विष्णु ने तीनों लोकों में भक्तिपूर्वक इनकी पूजा करने के लिए चैत्र, पौष और भादों मास एवं पुण्य मंगल दिन बताया है ॥ २९ ॥ वर्षान्ते पौषसंक्रान्त्या मेध्यामावाह्य चाङ्गणे । मनुस्तां पूजयामास सा भूता भुवनत्रये ॥ ३० ॥ मन ने वर्षा के अन्तिम समय और पौष की संक्रान्ति के दिन मेंह तथा गृह प्राङ्गण में लक्ष्मी की आवाहनपूर्वक पूजा की और उसी दिन से लक्ष्मी तीनों लोकों में प्रकट हो गयीं ॥ ३० ॥ राज्ञा संपूजिता सा वै मङ्गलेनैव मङ्गला । केदारेणैव नीलेन नलेन सुबलेन च ॥ ३१ ॥ ध्रुवेणौत्तानपादेन शक्रेण बलिना तथा । कश्यपेन च दक्षेण मनुना च विवस्वता ॥ ३२ ॥ प्रियव्रतेन चन्द्रेण कुबेरेणैव वायुना । यमेन वह्निना चैव वरुणेनैव पूजिता ॥ ३३ ॥ अनन्तर राजा मंगल ने उस मंगलस्वरूपा महालक्ष्मी की पूजा की तथा केदार, नील, नल, सुबल, उत्तानपाद-पुत्र ध्रुव, इन्द्र, बलि, कश्यप, दक्ष, मनु, विवस्वान् (सूर्य), प्रियव्रत, चन्द्र, कुबेर, वायु, यम, अग्नि और वरुण ने उनकी अर्चना की ॥ ३१-३३ ॥ एवं सर्वत्र सर्वैश्च वन्दिता पूजिता सदा । सर्वैश्वर्याधिदेवी सा सर्वसंपत्स्वलपिणी ॥ ३४ ॥ इस प्रकार सभी स्थानों में सभी लोगों द्वारा वे वन्दित और पूजित हुई जो समस्त ऐश्वर्यों की अधिदेवी और निखिल सम्पत्तियों की स्वरूप हैं ॥ ३४ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्म्युपाख्याने लक्ष्मीस्वरूपपूजादिवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक लक्ष्मी-उपाख्यान लक्ष्मी के स्वरूप और पूजा आदि के वर्णन नामक पैतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३५ ॥ |