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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षड्त्रिंशोऽध्यायः लक्ष्म्युपाख्याने इन्द्रं प्रति दुर्वासः शापादिकथनम् -
इन्द्र को दुर्वासा का शाप - नारायण उवाच नारायणप्रिया सा च वरा वैकुण्ठवासिनी । वैकुण्ठाधिष्ठातृदेवी महालक्ष्मीः सनातनी ॥ १ ॥ कथं बभूव सा देवी पृथिव्यां सिन्धुकन्यका । किं तद्ध्यानं च कवचं सर्वं पूजाविधिक्रमम् ॥ २ ॥ नारद बोले-वैकुण्ठ लोक में निवास करनेवाली परमश्रेष्ठ एवं नारायण की प्रेयसी वह महालक्ष्मी देवी जो वैकुण्ठ की अधीश्वरी और सनातनी (जरामरण रहित सदैव एक रूप रहने वाली) हैं, वह पृथ्वी में सिन्धु की पुत्री कैसे हुई ? तथा उसका ध्यान, कवच और पूजा विधान का समस्त क्रम क्या है ? ॥ १-२ ॥ पुरा केन स्तुताऽऽदौ सा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥ एवं आदि काल में सर्वप्रथम उनकी स्तुति किसने की, मुझे बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥ नारायण उवाच पुरा दुर्वाससः शापाद्भ्रष्टश्रीकः पुरंदरः । बभूव देवसंघश्च मर्त्यलोकश्च नारद ॥ ४ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! पहले समय में दुर्वासा जी के शाप के कारण इन्द्र की श्री नष्ट हो गयी और उसी कारण देववृन्द तथा मर्त्यलोक भी श्रीविहीन हो गया ॥ ४ ॥ लक्ष्मीः स्वर्गादिकं त्यक्त्वा रुष्टा परमदुःखिता । गत्वा लीना च वैकुण्ठे महालक्ष्यां च नारद ॥ ५ ॥ हे नारद ! अनन्तर रुष्ट होने के कारण वह लक्ष्मी परम दुःखी होकर स्वर्ग आदि को त्याग कर वैकुण्ठ चली गयीं और वहां महालक्ष्मी में लीन हो गयीं ॥ ५ ॥ तदा शोकाद्ययुर्देवा दुःखिता ब्रह्मणः सभाम् । ब्रह्माणं च पुरस्कृत्य ययुर्वैकुण्ठमेव च ॥ ६ ॥ उस समय शोकाकुल के कारण देवगण दुःखी होकर ब्रह्मा की सभा में गये और वहां उन्हें आगे करके देवों ने वैकुण्ठ लोक की यात्रा की ॥ ६ ॥ वैकुण्ठे शरणापन्ना देवा नारायणे परे । अतीव दैन्ययुक्ताश्च शुष्ककण्ठौष्ठतालुकाः ॥ ७ ॥ वहाँ पहुँच कर उन लोगों ने सब से परे रहने वाले नारायण देव की शरण प्राप्त की । उस समय अत्यन्त दीनता के कारण देवों के कण्ठ, ओंठ और ताल सूख गये थे ॥ ७ ॥ तदा लक्ष्मीश्च कलया पुरा नारायणाज्ञया । बभूव सिन्धुकन्या सा शक्रसंपत्स्वरूपिणी ॥ ८ ॥ उपरान्त लक्ष्मी ने अपनी कला (अंश) द्वारा सिन्धु की कन्या होकर पुनः जन्म ग्रहण किया, जो इन्द्र की सम्पत्ति स्वरूप थीं और जिन्हें पूर्वकाल में ही नारायण देव की (इसके लिए) आज्ञा हो चुकी थी ॥ ८ ॥ तदा मथित्वा क्षीरोदं देवा दैत्यगणैः सह । संप्रापुश्च वरं लक्ष्म्या ददृशुस्तां च तत्र हि ॥ ९ ॥ अनन्तर देवों ने दैत्यों के साथ क्षीरसागर का मन्थन किया, जिससे उन्हें लक्ष्मी का दर्शन और वरदान दोनों वहाँ प्राप्त हुए ॥ ९ ॥ सुरादिभ्यो वरं दत्त्वा वनमालां च विष्णवे । ददौ प्रसन्नवदना तुष्टा क्षीरोदशायिने ॥ १० ॥ अनन्तर प्रसन्नमुख लक्ष्मी ने संतुष्ट होकर देवताओं को वर प्रदान किया और क्षीरसागर में शयन करने वाले भगवान् विष्णु को वनमाला पहना कर उनका वरण किया ॥ १० ॥ देवाश्चाप्यसुराक्रान्तं राज्यं प्रापुश्च तद्वरात् । तां संपूज्य च संस्तूय सर्वत्र च निरापदः ॥ ११ ॥ वरदान प्राप्त होने के पश्चात् देवों ने असुरों द्वारा अपहरण किया हुआ अपना राज्य पुनः प्राप्त किया और उन लोगों ने लक्ष्मी जी की सविधि अर्चा एवं स्तुति की, जिससे सर्वत्र देवगण उसी क्षण निरापद हो गये ॥ ११ ॥ नारद उवाच कथं शशाप दुर्वासा मुनिश्रेष्ठः पुरंदरम् । केन दोषेण वा ब्रह्मन्ब्रह्मिष्ठं ब्रह्मवित्पुरा ॥ १२ ॥ ममन्थे केन रूपेण जलधिस्तैः सुरादिभिः । केन स्तोत्रेण सा देवी शक्रे साक्षाद्बभूव ह ॥ १३ ॥ को वा तयोश्च संवादो ह्यभवत्तद्वद प्रभो ॥ १४ ॥ नारद बोले-हे ब्रह्मन् ! पूर्वकाल में मुनिश्रेष्ठ एवं ब्रह्मवेत्ता दुर्वासा ने ब्राह्मण भक्त इन्द्र को क्यों शाप दिया, उनका क्या अपराध था ? हे प्रभो ! देवों ने किस प्रकार समुद्र का मन्थन किया, किस स्तोत्र द्वारा स्तुति करने पर इन्द्र को लक्ष्मी का साक्षात्कार (दर्शन) हुआ और उन दोनों का क्या संवाद हुआ, ये सभी बातें मुझे बतायें ॥ १२-१४ ॥ नारायण उवाच मधूपानप्रमत्तश्च त्रैलोक्याधिपतिः पुरा । क्रीडां चकार रहसि रम्भया सह कामुकः ॥ १५ ॥ नारायण बोले-पहले समय में एक बार तीनों लोकों के अधीश्वर (इन्द्र) मधु (आसव) पान से प्रमत्त होकर एकान्त स्थान में रम्भा के साथ अति कामुकता से काम क्रीड़ा कर रहे थे ॥ १५ ॥ कृत्वा क्रीडां तया सार्धं कामुक्या हृतचेतनः । तस्थौ तत्र महारण्ये कामोन्मथितमानसः ॥ १६ ॥ उसने उनके चित्त को अपने अधीन कर लिया और उस कारण वे काम से मथितचित्त होकर अवस्थित हुए ॥ १६ ॥ कैलासशिखरं यान्तं वैकुण्ठाद्ऋषिपुंगवम् । दुर्वाससं ददर्शेन्द्रो ज्वलन्तं ब्रह्मतेज्सा ॥ १७ ॥ देव संयोग से उसी समय वैकुण्ठ से कैलाश जाते हुए ऋषिश्रेष्ठ दुर्वासा, जो ब्रह्मतेज से प्रज्वलित थे, इन्द्र को वहाँ आते हुए दिखाई पड़े ॥ १७ ॥ ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डसहस्रप्रभमीश्वरम् । प्रतप्तकाञ्चनाभासं जटाभारमहोज्ज्वलम् ॥ १८ ॥ शुक्लयज्ञोपवीतं च चीरं दण्डं कमण्डलुम् । महोज्ज्वलं च तिलकं बिभ्रतं चन्द्रसंनिभम् ॥ १९ ॥ वे ग्रीष्म काल के मध्याह्न मार्तण्ड (सूर्य) को सहस्रों किरणों की भाँति प्रभापूर्ण, ईश्वर, अति संतप्त सुवर्ण की सी कान्ति वाले, अति शुभ्र जटाभार, शुक्ल यज्ञोपवीत, वस्त्र, दण्ड, कमण्डलु और भाल में चन्द्रमा की भाँति अत्यन्त उज्ज्वल तिलक धारण किए हुए थे ॥ १८-१९ ॥ समन्वितं शिष्यवर्गैर्वेदवेदाङ्गपारगैः । दृष्ट्वा ननाम शिरसा संभ्रमात्तं पुरंदरः ॥ २० ॥ इस प्रकार वेदों और वेदांगों के पारगामी विद्वान् शिष्य वर्गों से वे युक्त थे । उन्हें देखकर इन्द्र ने शिर से सहसा प्रणाम किया ॥ २० ॥ शिष्यवर्गं स भक्त्या वै तुष्टाव च मुदाऽन्वितः । मुनिना च सशिष्येण तस्मै दत्ताः शुभाशिषः ॥ २१ ॥ और प्रसन्न मन से भक्तिपूर्वक उनके शिष्यों को भी स्तुति की । अनन्तर शिष्यों समेत मुनि ने उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किया ॥ २१ ॥ विष्णुदत्तं पारिजातपुष्पं च सुमनोहरम् । मृत्युरोगजराशोकहरं मोक्षकर ददौ ॥ २२ ॥ और भगवान् विष्णु का दिया हुआ वह पारिजात का पुष्प भी उन्हें प्रदान किया, जो अति मनोहर, तथा मृत्यु, रोग, जरा एवं शोक का नाशक और मोक्षप्रद था ॥ २२ ॥ शक्रः पुष्पं गृहीत्वा च प्रमत्तो राजसंपदा । भ्रमेण स्थापयामास तत्र वै हस्तिमस्तके ॥ २३ ॥ किन्तु राजसम्पत्ति से प्रमत्त होने के नाते इन्द्र ने उस पुष्प को लेकर भ्रमवश उसे अपने गजराज के मस्तक पर रख दिया ॥ २३ ॥ हस्ती तत्स्पर्शमात्रेण रूपेण च गुणेन च । तेजसा वयसा कान्त्या विष्णुतुल्यो बभूव सः ॥ २४ ॥ जिसके स्पर्श मात्र से वह गजराज उसी समय रूप, गुण, तेज, अवस्था और कान्ति में भगवान् विष्णु के समान हो गया ॥ २४ ॥ त्यक्त्वा शक्रं गजेन्द्रश्चाप्यगच्छद् घोरकाननम् । न शशाक महेन्द्रस्तं रक्षितुं तेजसा मुने ॥ २५ ॥ हे मुने ! वह गजराज उसी समय इन्द्र को वहाँ त्याग कर स्वयं किसी अन्य घोर जंगल में चला गया और महेन्द्र भी उस समय उसे अपने तेज से रोक न सके ॥ २५ ॥ तत्पुष्पं त्यक्तवन्तं च दृष्ट्वा शक्रं मुनीश्वरः । तं शशाप महातेजाः क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २६ ॥ उपरान्त मुनियों के अधिपति एवं महातेजस्वी दुर्वासा के नेत्र, उस पुष्प का त्याग करते हुए इन्द्र को देख कर क्रोध से रक्त-वर्ण के हो गए । उन्होंने उसी निमित्त उन्हें शाप दे दिया ॥ २६ ॥ दुर्वासा उवाच अरे श्रिया प्रमत्तस्त्वं कथं मामवमन्यसे । मद्दत्तपुष्पं गर्वेण त्यक्तवान्हस्तिमस्तके ॥ २७ ॥ विष्णोर्निवेदितं पुष्पं नैवेद्यं वा फलं जलम् । प्राप्तिमात्रेण भोक्तव्यं त्यागेन ब्रह्महा जनः ॥ २८ ॥ भ्रष्टश्रीर्भ्रष्टबुद्धिश्च भ्रष्टज्ञानो भवेन्नरः । यस्त्यजेद्विष्णुनैवेद्यं भाग्येनोपस्थितं शुभम् ॥ २९ ॥ प्राप्तिमात्रेण यो भुङ्क्ते भक्त्या विष्णुनिवेदितम् । पुंसां शतं समुद्धृत्य जीवन्मुक्तः स्वयं भवेत् ॥ ३० ॥ दुर्वासा बोले--अरे ! तुम लक्ष्मी से अति मतवाला हो गये हो क्या ? यह हमारा अपमान क्यों कर रहे हो कि मेरे दिए हुए पुष्प को तुमने गर्व से हाथी के मस्तक पर डाल दिया है ? (तुम्हें नहीं मालूम है कि) भगवान विष्णु को अर्पित किया हुआ पुष्प, नैवेद्य, फल और जल हाथ में आते ही खा लेना चाहिये उसके त्याग करने से मनुष्य ब्रह्मघाती होता है । इसीलिए भगवान् विष्णु का शुभ नैवेद्य (किसी प्रकार) भाग्य से प्राप्त होने पर जो मनुष्य उसका त्याग करता है, वह लक्ष्मी, बुद्धि और ज्ञान से च्युत होकर भ्रष्ट हो जाता है । और जो भगवान् विष्णु को निवेदित नैवेद्य के प्राप्त होते ही उसे भक्तिपूर्वक खा लेता है, वह अपनी सी पीढ़ियों के उद्धारपूर्वक स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ २७-३० ॥ विष्णुनैवेद्यभोजी यो नित्यं तु प्रणमेद्धरिम् । पूजयेत्स्तौति वा भक्त्या स विष्णुसदृशो भवेत् ॥ ३१ ॥ इस प्रकार भगवान् विष्ण के नैवेद्य का भक्षण करने वाला जो मनुष्य नित्य भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम, पूजा और स्तुति करता है, वह विष्णु के समान होता है ॥ ३१ ॥ तत्स्पर्शवायुना सद्यस्तीर्थौघश्च विशुध्यति । तत्पादरजसा मूढ सद्यः पूता वसुंधरा ॥ ३२ ॥ हे मूढ़ ! उसके स्पर्श-वायु से तीर्थगण तुरन्त शुद्ध हो जाते हैं और उसके चरण रज से पृथ्वी भी तुरन्त पवित्र होती है ॥ ३२ ॥ पुंश्चल्यन्नमवीरान्न शूद्रश्राद्धान्नमेव च । यद्धरेरनिवेद्यं च वृथामांसमभक्षकम् ॥ ३३ ॥ व्यभिचारिणी स्त्री, विधवा स्त्री तथा शूद्र के श्राद्ध का अन्न और भगवान् विष्णु को निवेदन न किया गया अन्न, ये सब व्यर्थ और मांस के समान अभक्ष्य होते हैं ॥ ३३ ॥ शिवलिङ्गप्रदत्तात्र यदन्नं शूद्रयाजिनाम् । चिकित्सकद्विजानां च देवलान्नं तथैव च ॥ ३४ ॥ कन्याविक्रयिणामन्नं यदन्नं योनिजीविनाम् । अनुष्णान्नं पर्युषितं सर्वभक्ष्यावशेषितम् ॥ ३५ ॥ शूद्रापतिद्विजान्नं च वृषवाहद्विजान्नकम् । अदीक्षितद्विजान्नं च यदन्नं शवदाहिनाम् ॥ ३६ ॥ अगम्यागामिनां चैव द्विजानामन्नमेव च । मित्रद्रुहां कृतघ्नानामन्नं विश्वासघातिनाम् ॥ ३७ ॥ मिथ्यासाक्ष्यप्रदानां च ब्राह्मणानां तथैव च । एतसर्वं विशुद्ध्येत विष्णुनैवेद्यभक्षणात् ॥ ३८ ॥ किन्तु शिवलिंग पर अर्पित किया हुआ अन्न, शूद्रों को यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण का अत्र, चिकित्सक (वैद्य) ब्राह्मण का अन्न, देवल (मन्दिर के पुजारी ब्राह्मण) का अन्न, कन्याविक्रेता का अन्न, योनिजीवी (किसी भी स्त्री के व्यभिचार द्वारा जीविका चलाने वाले) का अन्न, ठंडा और वासी अन्न, सब के खाने से बचा हआ अन्न, शूद्रा स्त्री के पति होने वाले ब्राह्मण का अन्न,बैलों पर लादने वाले ब्राह्मण का अन्न, दीक्षा रहित ब्राह्मण का अन्न, शवदाही (मुर्दा जलाने का काम करने वाले) का अन्न अगम्या स्त्री के साथ गमन करने वाले ब्राह्मण का अन्न, मित्रद्रोही, कृतघ्न, विश्वासबाती और झूठी गवाही देने वाले ब्राह्मण का अन्न, यह सब खाने वाला व्यक्ति भगवान् विष्णु के नैवेद्य भक्षण करने से शुद्ध हो जाता है ॥ ३४-३८ ॥ श्वपचो विष्णुसेवी च वंशानां कोटिमुद्धरेत् । हरेरभक्तो विप्रश्च त्वं च रक्षितुमक्षमः ॥ ३९ ॥ इतना ही नहीं विष्णु की सेवा करने वाला श्वपच (मेहतर आदि) भी अपनी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार करता है और विष्णुभक्तिहीन ब्राह्मण अपनी भी रक्षा करने में असमर्थ रहता है ॥ ३९ ॥ अज्ञानाद्यदि गृह्णाति विष्णोर्निर्माल्यमेव च । सप्तजन्मार्जितात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४० ॥ भगवान् विष्णु के निर्माल्य को यदि अज्ञान से भी कोई ग्रहण करता है, तो वह अपने सात जन्मों के पाप से मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं ॥ ४० ॥ ज्ञात्वा भक्त्या च गृह्णाति विष्णोर्नैवेद्यमेव च । कोटिजन्मार्जितात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४१ ॥ और जानते हुए भक्तिपूर्वक विष्णु-नैवेद्य ग्रहण करने वाला निःसन्देह अपने करोड़ों जन्मों के पाप से मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥ यस्मात्संस्थापितं पुष्पं गर्वाद्वै हस्तिमस्तके । तस्माद्युष्मान्परित्यज्य यातु लक्ष्मीर्हरेः पदम् ॥ ४२ ॥ अतः जिस लिए अभिमान से तुमने उस पुष्प को हाथी के मस्तक पर रख दिया इसलिए लक्ष्मी तुम्हें त्याग कर भगवान् के यहाँ चली जायेंगी ॥ ४२ ॥ नारायणस्य भक्तोऽहं न बिभेमीश्वरं विधिम् । कालं मृत्युं जरां चैव कानन्यान्गणयामि च ॥ ४३ ॥ मैं नारायण देव का भक्त हूँ, इसीलिए ईश्वर (शिव), ब्रह्मा, काल, मृत्यु, जरा (वृद्धता) को नहीं डरता हूँ और अन्यों की गणना ही क्या है ॥ ४३ ॥ किं करिष्यति ते तातः कश्यपश्च प्रजापतिः । बृहस्पतिर्गुरुश्चैव निःशङ्कस्य च मे हरेः ॥ ४४ ॥ मैं भगवान से भी निःशंक रहता हूँ; इसलिए तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप और गुरु बृहस्पति हमारा क्या कर लेंगे ॥ ४४ ॥ इदं पुष्पं यस्य मूर्ध्नि तस्य वै पूजनं पुरः । मूर्ध्नि च्छिन्ने शिवशिशोश्छित्त्वेदं योजयिष्यति ॥ ४५ ॥ यह पुष्प जिसके मस्तक पर रहेगा, उसका सदैव पूजन होगा और शिव के पुत्र का शिर कट जाने पर उनके घड़ पर वही काट कर जोड़ दिया जायेगा ॥ ४५ ॥ इति श्रुत्वा महेन्द्रश्च धृत्वा तच्चरणद्वयम् । उच्चै रुरोद शोकार्तस्तमुवाच भयाकुलः ॥ ४६ ॥ इतना सुन कर महेन्द्र ने दुःखी और भयभीत होकर उनके दोनों चरण पकड़ लिये और ऊँचे स्वर से चिल्ला कर रुदन करने लगे ॥ ४६ ॥ इन्द्र उवाच दत्तः समुचितः शापो मह्यं मत्ताय हे प्रभो । हृता त्वया चेत्संपत्तिः कियज्ज्ञानं च देहि मे ॥ ४७ ॥ इन्द्र बोले-हे प्रभो ! मुझ मतवाले को शाप देकर आपने उचित ही किया है । और आपने यदि मेरी सम्पत्ति का अपहरण कर लिया तो मुझे कुछ ज्ञान ही प्रदान करें ॥ ४७ ॥ ऐश्वर्यं विपदां बीजं प्रच्छन्नज्ञानकारणम् । मुक्तिमार्गार्गलं दार्ढ्याद्धरिभक्तिव्यपायकम् ॥ ४८ ॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकदुःखकरं परम् । संपत्तितिमिरान्धश्च मुक्तिमार्गं न पश्यति ॥ ४९ ॥ संपन्मत्तः सुमूढश्च सुरामत्तः सचेतनः । बान्धवैर्वेष्टितः सोऽपि बन्धुद्वेषकरो मुने ॥ ५० ॥ क्योंकि ऐश्वर्य ही विपत्ति का बीज, छिपे हुए ज्ञान (की प्राप्ति) का कारण, मोक्षमार्ग को अर्गला, दृढ़ता से हरिभक्ति का बाधक और जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, शोक एवं दुःख का परम उत्पादक है । सम्पत्ति रूपी अन्धकार से अन्धा बना मनुष्य मुक्ति-मार्ग को नहीं देख पाता है । हे मुने ! सम्पत्ति से मतवाला, अत्यन्त मूढ़ तथा मदमत्त व्यक्ति चेतना से युक्त तथा बान्धवों से घिरा हुआ होने पर भी बन्धुओं से द्वेष करता है ॥ ४८-५० ॥ संपन्मदप्रमत्तश्च विषयान्धश्च विह्वलः । महाकामो साहसिकः सत्त्वमार्गं न पश्यति ॥ ५ १ ॥ सम्पत्ति रूपी मद (नशे) से महामत्त प्राणी (सदैव) विषयों (भोगों) से अन्धा, व्याकुल, महाकामी तथा साहसिक होने से सात्त्विक मार्ग को नहीं देखता है ॥ ५१ ॥ द्विविधो विषयान्धश्च राजसस्तामसः स्मृतः । अशास्त्रज्ञस्तामसश्च शास्त्रज्ञो राजसः स्मृतः ॥ ५२ ॥ राजस और तामस भेद से विषयान्ध प्राणी दो प्रकार के होते हैं, जिनमें तामस शास्त्रज्ञान से रहित और राजस शास्त्रज्ञ होते हैं ॥ ५२ ॥ शास्त्रे च द्विविधं मार्गं निर्दिष्टं मुनिपुंगव । प्रवृत्तिबीजमेकं च निवृत्तेः कारणं परम् ॥ ५३ ॥ हे मुनिपुंगव ! शास्त्र में (जीवों) के लिए) दो प्रकार के मार्ग बताये गये हैं जिनमें पहला प्रवृत्तिमार्ग का बीज (कारण) है और दूसरा उससे परे निवृत्तिमार्ग का ॥ ५३ ॥ चरन्ति जीविनश्चाऽऽदौ प्रवृत्तौ दुःखवर्त्मनि । स्वच्छन्दे चाप्रसन्ने च निर्विरोधे च संततम् ॥ ५४ ॥ जीवसमूह सर्वप्रथम दुःखपूर्ण प्रवृत्ति मार्ग में, जो स्वच्छन्द, प्रसन्नतारहित और निर्वाध है, निरन्तर भ्रमण करता है ॥ ५४ ॥ आपातमधुरे लोभात्क्लेशे च सुखमानिनः । परिणामोत्पत्तिबीजे जन्ममृत्युजराकरे ॥ ५५ ॥ यह (प्रवृत्ति मार्ग) आपात मधुर (देखने में अकस्मात् सुन्दर) होते हुए भी दुःखमय है । जीव लोभवश उसी दुःख को सुख मान लेता है, जिसका परिणाम (भविष्य में) उत्पत्ति का कारण होता है और इसीलिए इसे जन्म, मृत्यु एवं जरा (बुढाई) का कर्ता कहते हैं ॥ ५५ ॥ अनेकजन्मपर्यन्तं कृत्वां च भ्रमणं मुदा । स्वकर्मविहितायां च नानायोन्यां क्रमेण च ॥ ५६ ॥ ततः कृष्णानुग्रहाच्च सत्सङ्गं लभते जनः । सहस्रेषु शतेष्वेको भवाब्धेः पारकारणम् ॥ ५७ ॥ अपने कर्मानुसार विविध योनियों में क्रमशः जीववन्द घूमा करते हैं । इस प्रकार अनेक जन्म पर्यन्त भ्रमण करते हुए सहस्रों सैकड़ों में किसी एक मनुष्य को भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से सत्संग की प्राप्ति होती है, जो इस संसारसागर को पार करने का एकमात्र कारण होता है ॥ ५६-५७ ॥ साधुः सत्त्वप्रदीपेन मुक्तिमार्गं प्रदर्शयेत् । तदा करोति यत्नं च जीवी बन्धनखण्डने ॥ ५८ ॥ क्योंकि साधु (सज्जन) लोग सत्त्वरूपी दीपक से मुक्ति का मार्ग दिखा देते हैं और तभी यह जीव अपने (कर्म) बन्धन को काटने के लिए यत्न करता है ॥ ५८ ॥ अनेकजन्मयोगेन तपसाऽनशनेन च । तदा लभेन्मुक्तिमार्गं निर्विघ्नं सुखदं परम् ॥ ५९ ॥ अनन्तर अनेक जन्म के योगाभ्यास, तप एवं अनशन करने के द्वारा वह परम सुखदायक मुक्ति-मार्ग को निर्विघ्न प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥ इदं श्रुतं गुरोर्वक्त्रात्प्रसंगावसरेण च । नहि पृष्टमतोऽन्यच्च भवदुःखौघवेष्टितः ॥ ६० ॥ यद्यपि (किसी) प्रसंग के अवसर पर गुरु के मुख से हमने यह सुन लिया था किन्तु संसार के दुःखों से घिरा रहने के कारण इससे अधिक और कुछ पूछा नहीं ॥ ६० ॥ महता विधिना दत्तो विपत्तौ ज्ञानसागरः । संपद्रूपा विपदियं मम निस्तारकारिणी ॥ ६१ ॥ ज्ञानसिन्धो दीनबन्धो मह्यं दीनाय सांप्रतम् । देहि किंचिज्ञानसारं भवपारं दयानिधे ॥ ६२ ॥ विपत्ति के इस अवसर पर विधि (देव) ने हमें ज्ञान का सागर ही दे दिया है । यह विपत्ति हमारी सम्पत्ति रूप है, इसी से हमारा उद्धार मात्र कारण होता ह" ) बन्धन का काक मुक्ति-म हो जायगा । अतः हे ज्ञान के सागर, हे दोनबन्धो, तथा हे दयानिधे ! इस समय आप मुझे संसार से पार करने वाला कुछ ज्ञानतत्त्व प्रदान करें ॥ ६१-६२ ॥ इन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा प्रहस्य ज्ञानिनां गुरुः । ज्ञानं कथितुमारेभे ह्यतितुष्टः सनातनः ॥ ६३ ॥ इन्द्र को ऐसी बातें सुनकर ज्ञानियों के गुरु तथा नित्य अत्यन्त सन्तुष्ट दुर्वासा ने हंसकर ज्ञान का वर्णन आरंभ किया ॥ ६३ ॥ दुर्वासा उवाच अहो महेन्द्र माङ्गल्यमात्मानं द्रष्टुमिच्छसि । आपाततो दुःखबीजं परिणामसुखावहम् ॥ ६४ ॥ दुर्वासा बोले-हे महेन्द्र ! यह अद्भुत बात है कि अब तुम आत्मकल्याण देखना चाहते हो, जो आपाततः (सहसा) तो दुःख का कारण है, किन्तु परिणाम में सुख देने वाला है ॥ ६४ ॥ स्वगर्भयातनानाशपीडाखण्डनकारणम् । दुष्पारासारदुर्वारसंसारार्णवतारकम् ॥ ६५ ॥ अपनी गर्भयातना, नाश तथा पीड़ा के खण्डन का कारण एवं दुष्पार (कठिनता से पार किये जाने वाले), सारहीन और दुर्वार (अनिवार्य) संसारसागर से तारने वाला है ॥ ६५ ॥ कर्मवृक्षाङ्कुरच्छेदकारणं सर्वतारकम् । संतोषसंततिकरं प्रवरं सर्ववर्त्मनाम् ॥ ६६ ॥ कर्मरूपी वृक्ष के अंकुर के नाश का कारण, सबको तारने वाला, सन्तोष को वृद्धि करने वाला और सभी मार्गों में श्रेष्ठ है ॥ ६६ ॥ दानेन तपसा वाऽपि व्रतेनानशनादिना । कर्मणा स्वर्गभोगादिसुखं भवति जीविनाम् ॥ ६७ ॥ दान, तप, व्रत तथा अनशन आदि कर्मों से जीवों को स्वर्ग-मोगादि सुख प्राप्त होते हैं ॥ ६७ ॥ काम्यानां कर्मणां चैव मूलं संछिद्य यत्नतः । अधुनेदं मोक्षबोजं संकल्पाभाव एव च ॥ ६८ ॥ यत्कर्म सात्त्विकं कुर्यादसंकल्पितमेव च । सर्वं कृष्णार्पणं कृत्वा परे ब्रह्मणि लीयते ॥ ६९ ॥ अतः सम्प्रति काम्य कर्मों के मूल कारण (संकल्प) का नाश तुम प्रयत्नपूर्वक करो, क्योंकि संकल्परहित कर्म करना ही मोक्ष का कारण है । इसलिए संकल्परहित जितने सात्त्विक कर्म किये जाते हैं, उन्हें कृष्णार्पण कर देने पर व्यक्ति परब्रह्म में लीन हो जाता है ॥ ६८-६९ ॥ सांसारिकाणामेतत्तु निर्वाणं मोचकं विदुः । नेच्छन्ति वैष्णवास्तत्तु सेवाविरहकातराः ॥ ७० ॥ संसारी जीवों के लिए यही निर्वाण मोक्ष कहा गया है, जिसे वैष्णव लोग नहीं चाहते हैं, क्योंकि वे (विष्णु) सेवा-वियोग को ही दुःख मानते हैं ॥ ७० ॥ सेवां कुर्वन्ति ते नित्यं विधायोत्तमदेहकम् । गोलोके वाऽपि वैकुण्ठे तस्यैव परमात्मनः ॥ ७१ ॥ (वैष्णव लोग) गोलोक या वैकुण्ठ लोक में उसी परमात्मा का कर उत्तम शरीर धारण, (पार्षद बनकर सदैव) सेवा करते हैं ॥ ७१ ॥ हरिसेवादिरूपां च मुक्तिमिच्छन्ति वैष्णवाः । जीवन्मुक्ताश्चते शक्र स्वकुलोद्धारकारिणः ॥ ७२ ॥ हे शक्र ! वे जीवन्मुक्त और अपने कुल के उद्धारक होते हैं, और भगवान् को सेवा आदि रूप ही मुक्ति चाहते हैं ॥ ७२ ॥ स्मरणं कीर्तनं विष्णोरर्चनं पादसेवनम् । वन्दनं स्तवनं नित्यं भक्त्या नैवेद्यभक्षणम् ॥ ७३ ॥ चरणोदकपानं च तन्मन्त्रजपनं परम् । इदं निस्तारबीजं च सर्वेषामीप्सितं भवेत् ॥ ७४ ॥ भगवान् विष्णु के नित्य भक्तिपूर्वक स्मरण, कीर्तन, पूजन, चरणसेवन, वन्दन, स्तुति, नैवेद्यभक्षण, चरणोदकपान और उनके परम मन्त्र का जप, यही उद्धार का बीज है और सभी लोगों को अति इष्ट भी है ॥ ७३-७४ ॥ इदं मृत्युञ्जयज्ञानं दत्तं मृत्युञ्जयेन मे । तच्छिष्योऽहं च निःशङ्कस्तत्प्रसादाच्च सर्वतः ॥ ७५ ॥ यह मृत्यञ्जय-ज्ञान मृत्युञ्जय (शिव) द्वारा मुझे प्राप्त हुआ है । क्योंकि मैं उन्हीं का शिष्य हूँ और उन्हीं की कृपा से चारों ओर निःशंक रहा करता हूँ ॥ ७५ ॥ स जन्मदाता स गुरुः स च बन्धुः सतां परः । यो ददाति हरेर्भक्तिं त्रैलोक्ये च सुदुर्लभाम् ॥ ७६ ॥ वहीं सज्जनों के जन्मदाता (पिता), गुरु और श्रेष्ठ बन्धु हैं क्योंकि तीनों लोकों में अति दुर्लभ भगवान् विष्णु की भक्ति वही प्रदान करते हैं ॥ ७६ ॥ दर्शयेदन्यमार्गं च विना श्रीकृष्णसेवनम् । स च तं नाशयत्येव ध्रुवं तद्वधभाग्भवेत् ॥ ७७ ॥ जो भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा को त्यागकर अन्य मार्ग प्रदर्शन करता है, वह निश्चित उसका नाश करता है इसीलिए - उसके वध का भाग । उसे धूव होना पड़ता है ॥ ७७ ॥ संततं जगतां कृष्णनाम मङ्गलकारणम् । मङ्गलं वर्धते नित्यं न भवेदायुषो व्ययः ॥ ७८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण का नाम (जप, कीर्तन आदि) संसार के मंगल का निरन्तर कारण है, इससे नित्य मंगल की वृद्धि होती है और आयु (समय) का अपव्यय नहीं होता है ॥ ७८ ॥ तेभ्योऽप्यपैति कालश्च मृत्युश्च रोग एव च । संतापश्चैव शोकश्च वैनतेयादिवोरगाः ॥ ७९ ॥ गरुड को देखकर सर्यों की मांति काल, मृत्यु, रोग, सन्ताप और शोक सभी उससे भाग जाते हैं ॥ ७९ ॥ कृष्णमन्त्रोपासकश्च ब्राह्मणः श्वपचोऽपि वा । ब्रह्मलोकं समुल्लङ्घ्य याति गोलोकमुत्तमम् ॥ ८० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्र की उपासना करने वाला ब्राह्मण हो या चाण्डाल, सभी ब्रह्मलोक को पार कर परमोत्तम गोलोक में चले जाते हैं ॥ ८० ॥ हह्मणा पूजितः सोऽपि मधुपर्कादिना च यः । स्तुतः सुरैश्च सिद्धैश्च परमानन्दभावनः ॥ ८१ ॥ मधुपर्क आदि के द्वारा ब्रह्मा उसकी पूजा करते हैं और उस सिद्ध परमानन्द मूर्ति की देवगण स्तुति करते हैं ॥ ८१ ॥ ज्ञानसारं तपःसारं ब्रह्मसारं परं शिवम् । शिवेनोक्तं योगसारं श्रीकृष्णपदसेवनम् ॥ ८२ ॥ शंकर ने भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-सेवन को ही ज्ञान का सार, तप का सार, ब्रह्म का सार, परमकल्याण एवं योग का सार बतलाया है ॥ ८२ ॥ ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव स्वप्नवत् । भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं प्रकृतेः परम् ॥ ८३ ॥ अतीव सुखदं सारं भक्तिदं मुक्तिदं परम् । सिद्धियोगप्रदं चैव दातारं सर्वसंपदाम् ॥ ८४ ॥ क्योंकि कीटादि . से आरम्भ कर ब्रह्मा तक सभी मिथ्या है, इसीलिए केवल राधेश भगवान् श्रीकृष्ण को मजो जो सत्यमूर्ति, परब्रह्म, प्रकृति से परे, अत्यन्त सुखप्रद, (सब के) सार, मुक्ति-मुक्ति-प्रदायक सिद्धियोग के देने वाले और समस्त सम्पत्ति के दाता हैं ॥ ८३-८४ ॥ योगिनामपि सिद्धानां यतीनां च तपस्विनाम् । सर्वेषां कर्मभोगोऽस्ति न नारायणसेविनाम् ॥ ८५ ॥ यद्यपि योगी, सिद्ध, यती, तपस्वी आदि इन सभी के लिए कर्म-भोग होता है किन्तु नारायण की सेवा करने वाले के लिए नहीं होता है ॥ ८५ ॥ भस्मसाच्च भवेत्पापं यदुपस्पर्शमात्रतः । ज्वलदग्नौ पातितं च यथा शुष्केन्धनं तथा ॥ ८६ ॥ क्योंकि प्रज्वलित अग्नि में पड़े हुए सूखे ईंधन की भांति उनके स्पर्श मात्र से पाप भस्म हो जाता है ॥ ८६ ॥ ततो रोगा हि वेपन्ते पापानि च भयानि च । दूरतश्च पलायन्ते यमदूतास्ततो भयात् ॥ ८७ ॥ उनसे रोग, पाप और भय काँपते रहते हैं और यमदूत तो भयभीत होकरदूर से ही पलायन कर जाते हैं ॥ ८७ ॥ तावन्निबद्धः संसारे कारागारे विधेर्जनः । न यावत्कृष्णमन्त्रं च प्राप्नोति गुरुवक्त्रतः ॥ ८८ ॥ ब्रह्मा के संसार रूपी कारागार में प्राणी तभी तक आबद्ध रहता है, जब तक गुरु के मुख द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का मन्त्र प्राप्त नहीं करता है ॥ ८८ ॥ कृतकर्मौघभोगाख्यनिगडच्छेदकारणम् । मायाजालोच्छेदकरं मायापाशनिकृन्तनम् ॥ ८९ ॥ गोलोकमार्गसोपानं निस्तारे बीजकारणम् । भक्त्यङ्कुरस्वरूपं च नित्यं वृद्धमनश्वरम् ॥ ९० ॥ सारं च सर्वतपसां योगानां साधनं तथा । सिद्धीनां वेदपाठानां व्रतादीनां च निश्चितम् ॥ ९१ ॥ क्योंकि वह किये हुए कर्म-समूहों के भोगरूपी बेड़ी के नाश का कारण, मायाजाल का विनाशक, मायारूपी पाश को काटने वाला, गोलोक जाने की सीढ़ी, उद्धार के लिए बीज का कारण, भक्तिरूपी अंकुर का स्वरूप, नित्य बढ़ने वाला, नाशरहित, समस्त तपस्याओं का सारभाग, योगों, वेदपाठों, सिद्धियों और समस्त व्रतों का निश्चित साधन है ॥ ८९-९१ ॥ दानानां तीर्थस्तानानां यज्ञादीनां पुरंदर । पूजानामुपवासानामित्याह कमलोद्भवः ॥ ९२ ॥ हे पुरन्दर ! सभी प्रकार के दानों, स्नानों यज्ञों, पूजाओं और उपवासों का भी वह (प्रधान) साधन है, ऐसा ब्रह्मा ने स्वयं कहा है ॥ ९२ ॥ पुंसा लक्षं पितृणां च शतं मातामहस्य च । पूर्वं परं च तत्संख्यं पितरं मातरं गुरुम् ॥ ९३ ॥ सहोदरं कलत्रं च बन्धुं शिष्यं च किङ्करम् । समुद्धरेच्च श्वशुरं श्वश्रूकन्यां च तत्सुतम् ॥ ९४ ॥ स्वात्मानं च सतीर्थ्यं च गुरुपत्नीं गुरोः सुतम् । उद्धरेद्बलवान्भक्तो मन्त्रग्रहणमात्रतः ॥ ९५ ॥ इसलिए मंत्र के केवल ग्रहण मात्र से बलवान् भगवद्भक्त अपने पूर्वजों की एक लाख पीढ़ियों, मातामह (नाना) की सौ पीढ़ियों, मातापिता, गुरु, सहोदर भाई, स्त्री, बन्धु, शिष्य, सेवक (नौकर), सास-ससुर, कन्या, उसके पुत्र, अपने सहपाठी (साथ में पढ़ने वाले छात्र), गुरुपत्नी और गुरुपुत्र का उद्धार करता है ॥ ९३-९५ ॥ मन्त्रग्रहणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । तत्स्पर्शपूतस्तीर्थौघः सद्यः पूता वसुंधरा ॥ ९६ ॥ तथा मंत्रग्रहण मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । उसके स्पर्श करने से तीर्थवृन्द पवित्र होते हैं और पृथ्वी मी तुरन्त शुद्ध होती है ॥ ९६ ॥ अनेकजन्मपर्यन्तं दीक्षाहीनो भवेन्नरः । तदन्यदेवमन्त्रं च लभते पुण्यलेशतः ॥ ९७ ॥ अनेकों जन्म तक दीक्षारहित मनुष्य पुण्य का लेशमात्र प्राप्त होने पर किसी अन्य देवता का मन्त्र प्राप्त करता है ॥ ९७ ॥ सप्तजन्मसु देवानां कृत्वा सेवां स्वकर्मतः । लभते च रवेर्मन्त्रं साक्षिणः सर्वकर्मणाम् ॥ ९८ ॥ फिर सात जन्मों तक उस देवता को अपने कर्मानुसार सेवा करने के फलस्वरूप उसे समस्त कर्मों के साक्षी सूर्य का मंत्र प्राप्त होता है ॥ ९८ ॥ जन्मत्रयं भास्करं सेवित्वा मानवः शुचिः । लभेद्गणेशमन्त्रं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ ९९ ॥ वह सदाचारी पुरुष तीन जन्मों तक भास्कर की सेवा करने पर सम्पूर्ण विघ्नों के अपहर्ता गणेशदेव का परममन्त्र प्राप्त करता है ॥ ९९ ॥ जन्मत्रयं तं निषेव्य निर्विघ्नश्च भवेन्नरः । विघ्नेशस्य प्रसादेन दिव्यज्ञानं लभेन्नरः ॥ १ ०० ॥ तीन जन्मों तक उनकी सेवा करने पर वह विघ्नबाधा रहित हो जाता है और गणेश के प्रसाद से उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ॥ १०० ॥ तदा ज्ञानप्रदीपेन समालोच्य महामतिः । अज्ञानान्धतमश्छित्त्वा महामायां भजेन्नरः ॥ १०१ ॥ प्रकृतिं विष्णुमायां च दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् । सिद्धिदां सिद्धिरूपां च परमां सिद्धियोगिनीम् ॥ १ ०२ ॥ वाणीरूपां च पद्मां च भद्रां कृष्णप्रियात्मिकाम् । नानारूपा तां निषेव्य जन्मनां शतकं नरः ॥ १०३ ॥ तत्प्रसादाद्भवेज्ज्ञानी ज्ञानानन्दं तदा भजेत् । कृष्णं ज्ञानाधिदेवं च महादेवं सनातनम् ॥ १०४ ॥ शिवं शिवस्वरूपं च शिवदं शिवकारणम् । परमानन्दरूपं च परमानन्ददायिनम् ॥ १०५ ॥ सुखदं मोक्षदं चैव दातारं सर्वसंपदाम् । अमरत्वपदं चैव दीर्घमायुष्यदं परम् ॥ १०६ ॥ पश्चात् वह महाबुद्धिमान् मनुष्य उस ज्ञानदीप द्वारा भलीभाँति विचार कर और अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करके उस महामाया की सेवा करता है, जिसे प्रकृति, भगवान् विष्णु की माया, दुर्गतिनाशिनी दुर्गा, सिद्धिप्रदा, सिद्धिस्वरूपा, परम सिद्धियोगिनी, सरस्वतीरूपा और भगवान कृष्ण की प्रियास्वरूपा भद्रमूर्ति कमला कहा जाता है । अनेक रूप वाली उस भगवती की सौ जन्मों तक सेवा करने पर उनकी कृपा से वह मनुष्य ज्ञानी हो जाता है और तब उस ज्ञानानन्द को भजता है, जो कृष्ण, ज्ञान के अधीश्वर, सनातन (नित्य), शिव, कल्याणस्वरूप, कल्याणप्रद, कल्याण के कारण, परमानन्द रूप, परमानन्ददाता, सुखदायक, मोक्षप्रद, समस्त सम्पत्ति के देने वाले, अमरत्व और परम दीर्घायु प्रदान करने वाले हैं ॥ १०१-१०६ ॥ इन्द्रत्वं च मनुत्वं च दातुं शक्तं च लीलया । राजेन्द्रत्वप्रदं चैव ज्ञानदं हरिभक्तिदम् ॥ १०७ ॥ वे इन्द्रत्व और मनुत्व को लीलापूर्वक देने में समर्थ हैं तथा राजेन्द्रत्व, ज्ञान और भगवान् की भक्ति देने वाले भी हैं ॥ १०७ ॥ जन्मत्रयं तमाराध्य चाऽऽशुतोषप्रसादतः । सर्वदस्य प्रसादेन शङ्करस्य महात्मनः ॥ १०८ ॥ वरदस्य वरेणैव हरिभक्तिं लभेद्ध्रुवम् । तदा तद्भक्तसंसर्गात्कृष्णमन्त्रं लभेद्ध्रुवम् ॥ १०९ ॥ आशुतोष (शिव) की कृपा से तीन जन्मों तक उनकी आराधना करके सर्वदायक एवं वरदायक महात्मा शंकर की कृपा से ही मनुष्य भगवान् की भक्ति निश्चित प्राप्त करता है तथा भगवद्भक्त के सम्पर्क से उसे उस समय भगवान् श्रीकृष्ण का मन्त्र भी निश्चित प्राप्त हो जाता है ॥ १०८-१०९ ॥ निर्मलज्ञानदीपेन प्रदीप्तेन च तत्त्ववित् । ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पश्यति ॥ ११० ॥ दयानिधेः प्रसादेन निर्मलज्ञानमालभेत् । वरदस्य वरेणैव हरिभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ॥ १११ ॥ तदा निवृत्तिमाप्नोति सारात्सारां परात्पराम् । यत्र देहे लभेन्मन्त्रं तद्देहावधि भारते ॥ ११२ ॥ तत्पाञ्चभौतिकं त्यक्त्वा बिभर्ति दिव्यरूपकम् । करोति दास्यं गोलोके वैकुण्ठे वा हरेः पदे ॥ ११३ ॥ अनन्तर उस तत्त्ववेत्ता को उस प्रदीप्त निर्मल ज्ञान द्वारा ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सारा जगत् मिथ्या दिखायी देता है । इस प्रकार उन दयानिधान के प्रसाद से उसे निर्मल ज्ञान प्राभ्रह्मवैप्त होता है । वरदायक (शिव) के वरदान द्वारा ही भगवान् की निश्चित भक्ति प्राप्त होने पर उसे सार से भी सार और श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ शान्ति प्राप्त हो जाती है । जिस शरीर से मन्त्र की प्राप्ति होती है, उसकी अवधि तक वह पुरुष भारत में रहता है । अनन्तर उस पंचतत्त्व के शरीर का त्याग करके दिव्य देह प्राप्त करता है, जिससे गोलोक या वैकुण्ठ लोक में भगवान् के यहाँ दास होकर उनकी सेवा करता है ॥ ११०-११३ ॥ परमानन्दसंयुक्तो मोहादिषु विवर्जितः । न विद्यते पुनर्जन्म पुनरागमनं हरे ॥ ११४ ॥ पुनश्च न पिबेत्क्षीरं धृत्वा मातृस्तनं परम् । विष्णुमन्त्रोपासकानां गङ्गादितीर्थसेविनाम् ॥ ११५ ॥ स्वधर्मिणा च भिक्षूणां पुनर्जन्म न विद्यते । हे इन्द्र ! वह सदैव परमानन्द में मग्न रहने के कारण मोहादि जालों से रहित हो जाता है । पुनः (इस लोक में) आगमन न होने के कारण उसका पुनर्जन्म नहीं होता है । वह फिर कभी माता का स्तन पकड़ कर दूध नहीं पीता है क्योंकि विष्णु-भक्तों के उपासकों, गंगा आदि तीर्थों की सेवा करने वालों अपने धर्म का पालन करने वालों और भिक्षुओं का पुनर्जन्म नहीं होता है । ॥ ११४-११५.५ ॥ तीर्थे परित्यजेत्पापं क्रियां कृत्वा हरिं भजेत् ॥ ११६ ॥ अयं निरूपितो धात्रा स्वधर्मस्तीर्थसेविनाम् । तन्नाममन्त्रं प्रजपेत्तत्सेवादिषु तत्परः ॥ ११७ ॥ तद्वतोपवासरत इत्युक्तो विष्णुसेविनाम् । सदन्ने वा कदन्ने वा लोष्टे वा काञ्चने तथा ॥ ११८ ॥ समबुद्धिर्यस्य शश्वत्स संन्यासीति कीर्तितः । दण्डं कमण्डलुं रक्तवस्त्रमात्रं च धारयेत् ॥ ११९ ॥ नित्यं प्रवासी नैकत्र स्यात्संन्यासीतिकीर्तितः । शुद्धाचारद्विजान्नं च भुङ्क्ते लोभादिवर्जितः ॥ १२० ॥ किंतु किंचिन्न याचेत स संन्यासीति कीर्तितः । न व्यापारी नाऽऽश्रमी च सर्वकर्मविवर्जितः ॥ १२१ ॥ ध्यायेन्नारायणं शश्वत्स संन्यासीति कीर्तितः । शश्वन्मौनी ब्रह्मचारी संभाषापरिवर्जितः ॥ १२२ ॥ सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत्स संन्यासीति कीर्तितः । सर्वत्र समबुद्धिश्च हिंसामायाविवर्जितः ॥ १२३ ॥ क्रोधाहंकाररहितः स संन्यासीति कीर्तितः । अयाचितोपस्थितं च मिष्टामिष्टं च भुक्तवान् ॥ १२४ ॥ न याचते भक्षणार्थी स संन्यासीति कीर्तितः । न च पश्येन्मुखं स्त्रीणां न तिष्ठेत्तत्समीपतः ॥ १२५ ॥ दारवीमषि योषां च न स्पृशेद्यः स भिक्षुकः । अयं संन्यासिनां धर्म इत्याह कमलोद्भवः ॥ १२६ ॥ कर्म-क्रिया करके पाप का त्याग करे और भगवान् का भजन करे, ब्रह्मा ने तीर्थसेवियों का यही स्वधर्म बताया है । विष्णुसेवकों के लिए उनके नाम मन्त्र का जप और उनकी सेवाओं में सदैव तत्पर रहते हुए व्रत-उपवास करना स्वधर्म कहा है । उत्तम अन्न और कदन्न तथा लोहे एवं सुवर्ण में निरन्तर जिसकी समान बुद्धि रहती है उसे 'संन्यासी' कहा गया है । जो दण्ड, कमण्डल और गेरुआ वस्त्र मात्र धारण करता है तथा नित्य प्रवासी (यात्री) रह कर एक स्थान में नहीं रहता है, उसे संन्यासी कहा जाता है । शुद्ध सदाचारी ब्राह्मण का अन्न भोजन करने वाले, लोभादि दोष रहित और कहीं किसी वस्तु की याचना न करने वाले को 'संन्यासी' कहा गया है । जो किसी भाँति का व्यापार नहीं करता है, न किसी स्थान में रहता है और समस्त कर्मों से रहित होकर केवल नारायण का ही निरन्तर ध्यान करता है, उसे 'संन्यासी कहा गया है । निरन्तर मौन रहने वाला ब्रह्मचारी संसारी बातों से वजित रह कर सब को ब्रह्ममय देखे, उसे 'संन्यासी' कहते हैं । सर्वत्र समान बुद्धि रखने वाला, हिंसा और माया से रहित तथा क्रोध व अहंकार से शून्य हो, उसे 'संन्यासी' कहा जाता है । बिना याचना किये उपस्थित मधुर व अमघर किसी प्रकार के अन्न का भोजन करने वाला और भोजन के लिए कभी भी याचना न करने वाला 'संन्यासी' कहा गया है । जो स्त्रियों का मुख कभी न देखे न उनके समीप ठहरे और काष्ठ की भी बनी हुई स्त्री का स्पर्श न करे वही 'संन्यासी है । यह संन्यासियों का धर्म है, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ ११६-१२६ ॥ विपर्यये विनाशश्च जन्म याम्यं भयं भवेत् । जन्मदुःखं याम्यदुःखं जीविनामतिदारुणम् ॥ १२७ ॥ इस (धर्म) का विपर्यय होने पर उस प्राणी को जन्म तथा यम-यातना का भय प्राप्त होता है । जीवों के लिए जन्म-दुःख तथा अतिभीषण यमयातना कही गई है ॥ १२७ ॥ सुरसूकरयोनौ वा गर्भे दुःखं समं सुर । योनौ वा क्षुद्रजन्तूनां पश्वादीनां तथैव च ॥ १२८ ॥ हे सुर ! इस प्रकार देवता, सूकर तथा पशु आदि छोटे जीवों की योनि में जीव को गर्भ-दुःख समान ही प्राप्त होता है ॥ १२८ ॥ गर्भे स्मरन्ति सर्वे ते कर्म जन्मशतोद्भवम् । विस्मरेन्निर्गतो जीवो गर्भाद्वै विष्णुमायया । स्वदेहं पाति यत्नेन सुरो वा कीट एव वा ॥ १२९ ॥ गर्भ में रह कर सभी जीव अपने सैकड़ों जन्मों के किए गये कर्मों का स्मरण करते हैं और पुनः गर्भ से निकलने पर भगवान् विष्णु की माया के कारण वे उसे भूल जाते हैं । देव हो या छोटा कीड़ा हो, सभी अपनी देह की रक्षा सप्रयत्ना करते हैं ॥ १२९ ॥ योनेरभ्यन्तरे शुक्रे पतिते पुरुषस्य च । शुक्रं शोणितयुक्तं च सहसा तत्क्षणं भवेत् ॥ १३० ॥ योनि के भीतर पुरुष द्वारा वीर्यपात करने पर वह वीर्य उसी समय सहसा स्त्री के शोणित (रज) से संयुक्त हो जाता है ॥ १३० ॥ रक्ताधिक्ये मातृसमश्चेतरे पितुराकृतिः । युग्माहे च भवेत्पुत्रः कन्यका तद्विपर्यये ॥ १३१ ॥ पुनः रक्त अधिक होनेपर देह की आकृति माता के समान होती है और न्यून होने से पिता के समान होती हैं । युग्म (सम) दिनों में गर्भधारण होने पर पुत्र तथा विषम दिनों में कन्य उत्पन्न होती है ॥ १३१ ॥ रविभौमगुरूणां च वारे चेत्तद्भवेत्सुतः । अयुग्माहे तदितरे वारे वै कन्यका भवेत् ॥ १३२ ॥ रवि. मंगल और बृहस्पति के दिन (गर्भाधान होने से) पुत्र और उससे भिन्न दिन में कन्या उत्पन्न होती है ॥ १३२ ॥ प्रथमप्रहरे जन्म यस्य सोऽल्पायुरेव च । द्वितीये मध्यमश्चैव तृतीये तत्परो भवेत् ॥ १३३ ॥ चतुर्थे चिरजीवी स्यात्क्षणानामनुरूपकः । दुःखी वाथ सुखी वाऽपि पूर्वकर्मानुरूपतः ॥ १३४ ॥ जिसका जन्म प्रथम प्रहर में होता है वह अल्पायु होता है, दूसरे में मध्यमायु, तीसरे में उससे अधिक और चतुर्थ में समयानुसार चिरायु होता है । पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जीव दुःखी या सुखी भीहोता है ॥ १३३-१३४ ॥ यादृशे च क्षणे जन्म प्रसवस्तादृशे भवेत् । प्रसूतिक्षणचर्चां च कुर्वन्त्येवं विचक्षणाः ॥ १३५ ॥ जिस क्षण में जन्म होता है उसी के अनुसार दोष गुण युक्त वह बालक होता है । क्योंकि विद्वानों ने इसी प्रकार प्रसूति समय की चर्चा की है ॥ १३५ ॥ कललं त्वेकरात्रेण प्रवृद्धः स्याद्दिने दिने । सप्तमे बदराकारो मासे गण्डुसमो भवेत् ॥ १३६ ॥ मासत्रये मांसपिण्डो हस्तपादादिवर्जितः । सर्वावयवसंपन्नो देही मासे च पञ्चमे ॥ १३७ ॥ रजवीर्य एकत्र होने परएक रात्रि में कलल गर्भ का आरंभिक रूप जब वह कुछ कोषों का गोला होता है) उसी दिन से प्रतिदिन प्रवृद्ध होने लगता है और सातवें दिन पूरे बेर फल के समान हो जाता है । पुनः एक मास में गांठ के समान और तीन मास में हाथ पैर रहित मांस पिंड बन जाता है । इस प्रकार यह देही (आत्मा) पाँचवें मास में (शरीर के) समस्त अंगों से युक्त हो जाता है ॥ १३६-१३७ ॥ भवेत्तु जीवसंचारः षण्मासे सर्वतत्त्ववित् । दुःखी स्वल्पस्थलस्थायी शकुन्त इव पञ्जरे ॥ १३८ ॥ समस्त तत्त्वों के वेत्ता उस जीव का छठे मास में संचार होता है जो पिंजड़े में पक्षी की भाँति दुःखी होकर अति संकुचित स्थान में स्थित रहता है ॥ १३८ ॥ मातृजग्धान्नपानं च भुङ्क्तेऽमेध्यस्थले स्थितः । हाहेति शब्दं कृत्वा च चिन्तयेदीश्वरं परम् ॥ १३९ ॥ उस अपवित्र स्थान में स्थित रह कर वह जीव माता के भोजन किये हुए अन्न-पान को खाता है और (असह्य दुःख के कारण) 'हाय-हाय' शब्द करते हुए प्रतिक्षण उस परमेश्वर का चिन्तन करता रहता है ॥ १३९ ॥ एवं च चतुरो मासान्भुक्त्वा परमयातनाम् । प्रेरितो वायुना काले गर्भाद्वै निर्गतो भवेत् ॥ १४० ॥ इसी प्रकार शेष चार मास उस परम यातना का अनुभव कर के समय पर वायु द्वारा प्रेरित होकर गर्भ से बाहर निकलता है ॥ १४० ॥ दिग्देशकालाव्युत्पन्नो विस्मृतो विष्णुमायया । शश्वद्विण्मूत्रसंयुक्तः शिशुः स्याच्छैशवावधि ॥ १४१ ॥ दिशा, देश और काल में अविच्छिन्न उस जीव को उसी समय भगवान विष्णु की माया से (पूर्व) ज्ञान विस्मृत हो जाता है । इस भांति निरन्तर विष्ठा-मत्र में लिपटे रह कर वह जीव अपनी शैशवावस्था तक निरा बच्चा रहता है ॥ १४१ ॥ परायत्तोऽप्यक्षमश्च मशकादिनिवारणे । कोटादिभुक्तो दुःखी च रौति तत्र पुनः पुनः ॥ १४२ ॥ पराधीन रहने के कारण वह मच्छर आदि को भगाने में असमर्थ रहता है, कीड़ों आदि के काटने पर केवल बार-बार रुदन करता है ॥ १४२ ॥ स्तनान्धोऽप्यसमर्थश्च याञ्चां कर्तृमभीप्सिताम् । न वाणी निःसरेत्तस्य पौगण्डावधि सुस्फुटा ॥ १४३ ॥ दुग्धपान करते हुए भी वह अपनी अभिलषित की याचना करने में असमर्थ रहता है, क्योंकि पौगण्डावस्था तक उसको वाणी अति स्फुट (साफ) नहीं निकलती है ॥ १४३ ॥ पौगण्डे यातनां भुक्त्वा प्राप्नुते यौवनं पुनः । न स्मरेन्मायया देही गर्भादेर्यातना पुनः ॥ १४४ ॥ इस प्रकार पोगण्डावस्था तक यातनाओं का भोग करता हुआ वह युवावस्था प्राप्त करता है, जिसमें वह जीव गर्भादि के दुःखों का स्मरण भी माया से परवश होने के कारण कभी नहीं कर पाता है ॥ १४४ ॥ आहारमैथुनार्तश्च नानामोहादिवेष्टितः । पुत्रं कलत्रमनुगं यत्नेन परिपालयेत् ॥ १४५ ॥ उन दिनों वह भोजन और स्त्री-सहवास में लिप्त, अनेक भांति के मोहजाल से आच्छन्न तथा आगे बच्चों के उत्पन्न होने पर उनमें एवं स्त्री में सदा निरत रहकर यत्नपूर्वक पालन-पोषण करता है ॥ १४५ ॥ एवं यावत्समर्थश्च तावदेव हि पूजितः । असमर्थं च मन्यन्ते बान्धवा गोजरं यथा ॥ १४६ ॥ अनन्तर जब तक वह (परिवार के पालन-पोषण में) समर्थ रहता है तभी तक घर वाले उसका सम्मान करते हैं और असमर्थ हो जाने पर उसे बन्धु आदि गोजर (बुड्ढे बैल) की भांति मानते हैं ॥ १४६ ॥ यदाऽतीव जरायुक्तो जडोऽतिबधिरो भवेत् । कफश्वासादियुक्तश्च परायत्तोऽतिमूढवत् ॥ १४७ ॥ तदन्तरेऽनुतापं च कुरुते संततं पुनः । न सेवितं हरेस्तीर्थं सत्सङ्गश्चेति तापनः ॥ १४८ ॥ इस प्रकार जब वह अत्यन्त वृद्ध, अति बधिर (बहरा), खांसी और श्वास आदि के रोगों से युक्त और अत्यन्त मूढ के समान पराधीन हो जाता है, उस बीच फिर निरन्तर (अपने किये पर) अनुताप करता रहता है और कहता भी है कि-मैंने भगवान् के तीर्थों की सेवा कभी नहीं की और कभी (महात्माओं का) सत्संग भी नहीं किया ॥ १४७-१४८ ॥ पुनश्च मानवीं योनिं लभामि भारते यदि । तदा तीर्थं गमिष्यामि भजे वै कृष्णमित्यहो ॥ १४९ ॥ अब यदि भारत में पुनः कभी मनुष्य देह मिली. तो तीर्थयात्रा अवश्य करूँगा और (साथ-साथ) भगवान् कृष्ण का भजन भी करता रहूँगा ॥ १४९ ॥ इत्येवमादि मनसि कुर्वन्तं तं जडं सुर । गृह्णाति यमदूतश्च काले प्राप्तेऽतिदारुणः ॥ १५० ॥ हे सुर ! इस प्रकार केवल मन में सोचविचार करते हुए उस जड़ जीव को अवसर के प्राप्त होते अति भीषण यमदूत पकड़ लेते हैं ॥ १५० ॥ स पश्येद्यमदूतं च पाशहस्तं च दण्डिनम् । अतीव कोपरक्ताक्षं विकृताकारमुल्बणम् ॥ १५१ ॥ दुर्निवार्यमुपायैश्च बलिष्ठं च भयङ्करम् । दुर्दृश्यं सर्वसिद्धिज्ञं सर्वादृष्टं पुरःस्थितम् ॥ १५२ ॥ और वह उन यमदूतों को उस समय देखता भी है, जो हाथ में फांस और दण्ड लिए, अति कोप के कारण रक्त नेत्र तथा विकृत आकार (भयंकर रूप) के दिखायी देते हैं । वे यमदूत उपायों द्वारा न रोकने योग्य, बलवान् एवं भयंकर हैं । उनके दर्शन अति दुःखप्रद होते हैं । वे समस्त सिद्धियों के ज्ञाता एवं अदृश्य होकर (प्राणी के) सामने ही स्थित रहते हैं ॥ १५१-१५२ ॥ दृष्टमात्रान्महाभीतो विण्मूत्रं च समुत्सृजेत् । तदाप्राणांस्त्यजेत्सद्यो देहं वै पाञ्चभौतिकम् ॥ १५३ ॥ अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं गृहीत्वा यमकिङ्कर । विन्यस्य भोगदेहे च स्वस्थानं प्रापयेद्द्रुतम् ॥ १५४ ॥ उस समय जीव उन्हें देखते ही महाभयभीत होकर विष्ठा-मूत्र करने लगता है । अनन्तर इस पाञ्चभौतिक शरीर और प्राणों के त्याग करते समय यमदूत उस अंगूठे मात्र आकार वाले पुरुष को पकड़ कर भोग देह (सूक्ष्मदेह) में रख देते हैं और शीघ्रता से उसे अपने स्थान (यमपुर) ले जाते हैं ॥ १५३-१५४ ॥ जीवो गत्वा यमं पश्येत्सर्वधर्मज्ञमेव च । रत्नसिंहासनस्थं च सस्मितं सुस्थिरं परम् ॥ १५५ ॥ अनन्तर जीव वहाँ पहुँच कर यम को देखता है, जो समस्त धर्मों के ज्ञाता, रत्नखचितसिंहासनासीन, मन्द मुसुकान करते हुए परम सुस्थिर रहते हैं ॥ १५५ ॥ धर्माधर्मविचारज्ञं सर्वज्ञं सर्वतोमुखम् । विश्वेष्वेकाधिकारं च विधात्रा निर्मितं पुरा ॥ १५६ ॥ उन्हीं धर्माधर्मविचारशील, सर्वज्ञ और सब ओर मुखवाले को विधाता ने निखिल विश्व का एकाधिकार पूर्वकाल में ही सौंप दिया था ॥ १५६ ॥ वह्निशुद्धांशुकाधानं रत्नभूषणभूषितम् । वेष्टितं पार्षदगणैर्दूतैश्चापि त्रिकोटिभिः ॥ १५७ ॥ जपन्तं श्रीकृष्णनाम शुद्धस्फटिकमालया । ध्यायमानं तत्पदाब्जं पुलकाङ्कितविग्रहम् ॥ १५८ ॥ जो अग्नि के समान शुद्ध वस्त्र धारण किये, रत्नों के भूषणों से भूषित, पार्षदों तथा तीन करोड़ दूतों से घिरे, शुद्ध स्फटिक की माला से भगवान् कृष्ण के नाम जपते हुए उनके चरणकमल के ध्यान में (प्रसन्नता से) रोमांचित होते रहते हैं ॥ १५७-१५८ ॥ सगद्गदं साश्रुनेत्रं सर्वत्र समदर्शिनम् । अतीव कमनीयं च शश्वत्सुस्थिरयौवनम् ॥ १५९ ॥ स्वतेजसा प्रज्वलन्तं सुखदृश्यं विचक्षणम् । शरत्पार्वणचन्द्राभं चित्रगुप्तपुरःस्थितम् ॥ १६० ॥ तथा (प्रेम के कारण) गद्गद वाणी वाले, आँखों में (प्रेम के) आंसू भरे सर्वत्र समदर्शी, अति कमनीय, निरन्तर चिरस्थायी यौवन से युक्त, अपने तेज से प्रज्वलित, देखने में सुखप्रद, विद्वान् और शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति (मधुर) कान्तियुक्त हैं । उनके सामने ही चित्रगुप्त स्थित रहते हैं ॥ १५९-१६० ॥ पुण्यात्मनां शान्तरूपं पापिनां च भयङ्करम् । तं दृष्ट्वा प्रणमेद्देही महाभीतश्च तिष्ठति ॥ १६१ ॥ (यमराज) पुण्यात्माओं के लिए शान्तरूप और पापियों के लिए भयंकर रूप में रहते हैं । ऐसे यम को देखकर जीव उन्हें प्रणाम करता है और महाभयभीत होते हुए वहाँ स्थित रहता है ॥ १६१ ॥ चित्रगुप्तविचारेण येषां यदुचितं फलम् । शुभाशुभं च कुरुते तदेव रविनन्दनः ॥ १६२ ॥ अनन्तर चित्रगुप्त के विचार से जिस जीव का जैसा शुभ अशुभ कर्म रहता है उसे वैसा ही उचित फल (दण्ड) सूर्यपुत्र (यम) प्रदान करते हैं ॥ १६२ ॥ एव तेषां गतायाते निवृत्तिर्नास्ति जीविनाम् । निवृत्तिहेतुरूपं च श्रीकृष्णपदसेवनम् ॥ १६३ ॥ इस प्रकार गमनागमन बने रहने के कारण जीवों को कभी उससे निवृत्ति (छुट . कारा) नहीं मिलती है । क्योंकि निवृत्ति का एकमात्र हेतु तो भगवान् श्रीकृष्ण की चरणसेवा है ॥ १६३ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं वरं प्रार्थय वाञ्छितम् । सर्वं दास्यामिते वत्स न मेऽसाध्यं च किंचन ॥ १६४ ॥ हे वत्स ! इस भाँति मैंने तुम्हें सब कुछ सुना दिया है । अब अपना अभिलषित वरदान मांगो, क्योंकि मैं सब कुछ प्रदान करने में समर्थ हूँ । मेरे लिए कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ १६४ ॥ महेन्द्र उवाच इन्द्रत्वं च गतं भद्रं किमैश्वर्ये प्रयोजनम् । कल्पवृक्ष मुनिश्रेष्ठ देहि मे परमं पदम् ॥ १६५ ॥ महेन्द्र बोले-हे कल्पवृक्ष ! हे मुनिश्रेष्ठ ! हमारा इन्द्रत्व (इन्द्रपद) तो चला ही गया, जो हमारे लिए कल्याण रूप था । अब यह ऐश्वर्या हमारे लिए किस काम का ? अतः हमें अब परमपद (मोक्ष) देने की कृपा करें ॥ १६५ ॥ महेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः । तमुवाच वचः सत्यं वेदोक्तं सारमेव च ॥ १६६ ॥ महेन्द्र की ऐसी बात सुनकर मुनिपुंगव (श्रेष्ठ) दुर्वासा ने हँसकर उनसे कहा, जो सत्य, वेदोक्त और (सभी का ) सार रूप था ॥ १६६ ॥ परं पदं विषयिणां महेन्द्रातिसुदुर्लभम् । मुक्तिर्युष्मद्विधानां च न लये प्राकृतेऽपि च ॥ १६७ ॥ दुर्वासा बोले-हे महेन्द्र ! विषय के उपभोग में (सदैव) लिप्त रहने वाले प्राणियों को परमपद प्राप्त - होना अत्यन्त कठिन है । तुम्हारे जैसे लोगों की मुक्ति (खण्ड) लय और महाप्रलय में कभी भी संभव नहीं है ॥ १६७ ॥ आविर्भावः सृष्टिविधौ तिरोभावो लयेऽपि च । यथा जागरणं सुप्तिर्भवत्येव क्रमेण च ॥ १६८ ॥ जिस प्रकार (नींद से) जागना और सोना क्रमशः होता है उसी प्रकार तुम लोगों का सृष्टि-काल में जन्म ग्रहण और प्रलय काल में उसी में विलीन होना (सदैव) हुआ करता है ॥ १६८ ॥ यथा भ्रमति कालश्च तथा विषयिणो ध्रुवम् । चक्रनेमिक्रमेणैव नित्यमेवेश्वरेच्छया ॥ १६९ ॥ ईश्वर की इच्छा से चक्के के घेरे की भौति सदा भ्रमण किया करते जैसे काल घूमता है उसी तरह विषयी (जीव) निश्चित रूप से घूमते रहते हैं ॥ १६९ ॥ पलमेकं भवेदेव यथा विपलषष्टिभिः । षष्टिभिश्च पलैर्दण्डो मुहूर्तो द्विगुणात्ततः ॥ १७० ॥ त्रिंशद्भिश्च मुहूर्तैश्च भवेदेव दिवानिशम् । दश पञ्च दिवारात्रिः पक्षमेकं विदुर्बुधाः ॥ १७१ ॥ पक्षाभ्यां शुक्लकृष्णाभ्यां मास एव विधीयते । ऋतुर्द्वाभ्यां च मासाभ्यां संख्याविद्भिः प्रकीर्तितः ॥ १७२ ॥ ऋतुत्रयेणायनं च ताभ्यां द्वाभ्यां च वत्सरः । त्रिंशत्सहस्राधिकैश्च त्रिचत्वारिंशलक्षकैः ॥ १७३ ॥ वत्सरैर्नरमानैश्च युगानां च चतुष्टयम् । षष्ठ्याऽधिकं पञ्चशते सहस्रे पञ्चविंशतौ ॥ १७४ ॥ युगे नराणां शक्रायुर्मनोरायुः प्रकीर्तितम् । दिग्लक्षेन्द्रनिपातेऽष्टसहस्राधिक एव च ॥ १७५ ॥ निपातो ब्रह्मणस्तत्र भवत्प्राकृतिको लयः । लये प्राकृतिके वत्स कृष्णस्य परमात्मनः ॥ १७६ ॥ चक्षुनिमेषः सृष्टिश्च पुनरुन्मीलने तथा । ब्रह्मसृष्टिलयानां च संख्या नास्ति श्रुतौ श्रुतम् ॥ १७७ ॥ यथा पृथिव्या रेणूनामित्यूचे चन्द्रशेखरः । एतेषां मोक्षणं नास्ति कथितानि च यानि तु ॥ १७८ ॥ जिस प्रकार साठ विपल का एक पल होता है, और साठ पल का एक दण्ड तथा दो दण्ड का एक मुहूर्त होता है उसी प्रकार तीस मुहूतों का एक दिनरात होता है । विद्वानों ने पन्द्रह दिनरात का एक पक्ष बताया है । शुक्ल और कृष्ण इन दो पक्षों का एक मास कहा गया है । संख्यावेत्ताओं ने दो मास की एक ऋतु कही है । तीन ऋतुओं का एक अयन तथा दो अयनों का एक वर्ष होता है । मनुष्यों के तैतालिस लाख तीस सहस्र वर्ष के चारों युग होते हैं और मनुष्यों के पच्चीस सहस्र पाँच सौ साठ युग के प्रमाण इन्द्र की और मनु की आयु कही गयी है । इस प्रकार दश लाख आठ सहस्र इन्द्र के पतन (नाश) होने पर ब्रह्मा का पतन होता है उसे ही प्राकृतिक लय कहते हैं । हे वत्स ! भगवान् श्रीकृष्ण का नेत्र निमीलन उतने ही समय का होता है और पुनः नेत्र के उन्मीलन करने (खोलने) पर सृष्टि होती है । ब्रह्मा तथा उनकी सृष्टि और प्रलय की संख्या वेद में प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि पृथिवी की रेणु (धूलि) के समान वह अनन्त है, ऐसा स्वयं चन्द्रशेखर (शिव) ने कहा है । और ये जितने देव कहे गये हैं कभी मोक्ष नहीं प्राप्त करते हैं ॥ १७०-१७८ ॥ सृष्टिसूत्रस्वरूपं हि चान्यद्वृणु वरं सुर । मुनीन्द्रस्य वचः श्रुत्वा देवेन्द्रो विस्मितो मुने ॥ १७९ ॥ अतः हे सुर ! यह सृष्टि का रूप है । इसको छोड़कर कोई अन्य वरदान मांगो । हे मुने ! मुनीन्द्र (दुर्वासा) की ऐसी बातें सुनकर देवराज इन्द्र को महान् आश्चर्य हुआ ॥ १७९ ॥ आत्मनः पूर्वमैश्वर्यं वरयामास तत्र वै । तत्प्राप्स्यस्यचिरेणैवेत्युक्त्या स प्रत्ययौ गृहम् । इन्द्रो ललाभ ज्ञानं च न संपदापदं विना ॥ १८० ॥ तब इन्द्र ने अपने पूर्व ऐश्वर्य को मांगा 'वह तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त होगा' इतना कहकर महर्षि अपने घर चले गये । इन्द्र ने ज्ञान प्राप्त किया किन्तु बिना विपत्ति के संपत्ति नहीं ॥ १८० ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्वासःसुरेन्द्रसंवादे लक्ष्म्युपाख्याने इन्द्रं प्रति दुर्वासःशापादिकथनं नाम षड्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में दुर्वासा और सुरेन्द्र के संवाद में इन्द्र के प्रति दुर्वासा का शाप आदि कथन नामक छत्तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३६ ॥ |