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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तत्रिंशोध्यायः कर्मफलनिरूपणम् -
कर्मफल का निरूपण - नारद उवाच हरेर्गुणं समाकर्ण्य ज्ञानं प्राप्य पुरंदरः । किं चकार गृहं गत्वा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ नारद बोले-देवराज इन्द्र ने भगवान् (विष्णु) के गुणों का श्रवण और ज्ञान की प्राप्ति करके घर जाकर क्या किया, यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच श्रीकृष्णस्य गुणं श्रुत्वा वीतरागो बभूव सः । वैराग्यं वर्धयामास तस्य ब्रह्मन्दिने दिने ॥ २ ॥ नारायण बोले-हे ब्रह्मन ! भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों को सुनने से उन्हें (संसार से) विराग हो गया और दिन-प्रतिदिन उनके वैराग्य की वृद्धि होने लगी ॥ २ ॥ मुनिस्थानाद्गृहं गत्वा स ददर्शामरावतीम् । दैत्यैरसुरसघैश्च समाकीर्णां भयाकुलाम् ॥ ३ ॥ विषण्णबान्धवां चैव बन्धुहीनां च कुत्रचित् । पितृमातृकलत्रादिविहीनामतिचञ्चलाम् ॥ ४ ॥ उपरान्त मुनि के स्थान से घर जाकर उन्होंने अपनी अमरावती पुरी को देखा, जो दैत्यों और असुर-समूहों से आक्रान्त एवं भय से व्याप्त थी । कहीं बान्धव (देव) गण दीन-हीन एवं मन मलिन किए बैठे थे, कहीं कुछ लोगों का घर शून्य पड़ा था, पिता, माता और स्त्री आदि का कहीं पता नहीं था ॥ ३-४ ॥ शत्रुग्रस्ता च दृष्ट्वा तामगमद्वाक्पतिं प्रति । शक्रो मन्दाकिनीतीरे ददर्श गुरुमीश्वरम् ॥ ५ ॥ ध्यायमानं परं ब्रह्म गङ्गातोये स्थितं परम् । सूर्याभिसंमुखं पूर्वमुखं वै विश्वतोमुखम् ॥ ६ ॥ साश्रुनेत्रं पुलकितं परमानन्दसंयुतम् । वरिष्ठं च गरिष्ठं च धर्मिष्ठं चेष्टसेविनम् ॥ ७ ॥ श्रेष्ठं च बन्धुवर्गाणामतिश्रेष्ठं च मानिनाम् । ज्येष्ठं च भ्रातृवर्गाणां नेष्टं च सुरवैरिणाम् ॥ ८ ॥ इस भाँति अपनी पुरी को शत्रुग्रस्त देख कर इन्द्र बृहस्पति के पास गये । वहाँ मन्दाकिनी नदी के तट पर उन्होंने अपने गुरु बृहस्पति को देखा, जो परब्रह्म का ध्यान करते हुए गंगा जी के जल में स्थित, पूर्व की ओर मुख किये सूर्याभिमुख, विश्वतोमुख, परमानन्द-मग्न, सजलनेत्र, रोमांचित, अति श्रेष्ठ, अति गौरवपूर्ण, अत्यन्त धार्मिक,इष्टदेव के सेवक, बन्धु वगों में श्रेष्ठ, मानियों में अतिश्रेष्ठ, भाइयों में ज्येष्ठ और देव-शत्रु असुरों के अप्रिय हैं ॥ ५-८ ॥ दृष्ट्वा गुरुं जपन्तं च तत्र तस्थौ सुरेश्वरः । प्रहरान्ते गुरुं दृष्ट्वा चोत्थितं प्रणनाम सः ॥ ९ ॥ गुरु देव को वहाँ जपमग्न देखकर देवराज इन्द्र (उनकी प्रतीक्षा के लिए) वहीं ठहर गये और एक प्रहर के उपरान्त जब गुरुदेव (पूजा से) उठे तो उन्हें देख कर प्रणाम किया ॥ ९ ॥ प्रणम्य चरणाम्भोजे रुरोदोच्चैर्मुहुर्मुहुः । वृत्तान्तं कथयामास ब्रह्मशापादिकं तथा ॥ १० ॥ उनके चरण कमल को प्रणाम करके इन्द्र बार-बार ऊँचे स्वर से रोदन करने लगे और अनन्तर अपन । ब्रह्मशाप आदि वृत्तान्त कहने लगे ॥ १० ॥ पुनर्वरो मया लब्धो ज्ञानप्राप्ति सुदुर्लभाम् । वैरिग्रस्तां स्वीयपुरीं क्रमेणैव सुरेश्वरः ॥ ११ ॥ उस समय सुरराज इन्द्र ने यह भी कहा कि 'शत्रुओं से आक्रान्त अपनी पुरी को तुम फिर अपने अधीन क्रमशः करोगे' यह वरदान तथा दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति भी मुझे हो गई ॥ ११ ॥ शिष्यस्य वचनं श्रुत्वा सतां बुद्धिमतां वरः । बृहस्पतिरुवाचेदं कोपरक्तान्तलोचनः ॥ १२ ॥ शिष्य की ऐसी बातें सुन कर सज्जनों एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ बृहस्पति ने क्रोध से लाल-लाल आँखें करके उनसे कहा ॥ १२ ॥ बृहस्पतिरुवाच श्रुतं सर्वं सुरश्रेष्ठ मारोदीर्वचनं शृणु । न कातरो हि नीतिज्ञो विपत्तौ स्यात्कदाचन ॥ १३ ॥ बृहस्पति बोले-हे सुरश्रेष्ठ ! मैंने सब कुछ सुन लिया है । अब रोदन न कर के मेरी बातें सुनो । नीतिनिपुण पुरुष विपत्ति के समय कभी भी कातर नहीं होता ॥ १३ ॥ संपत्तिर्वा विपत्तिर्वा नश्वरा स्वप्नरूपिणो । पूर्वस्वकर्मायत्ता च स्वयं कर्ता तयोरपि ॥ १४ ॥ क्योंकि सम्पत्ति-विपत्ति दोनों ही नश्वर और स्वप्न की भांति हैं । वह अपने जन्मान्तरीय कर्मों के अधीन ही रहती हैं । इसलिए कि इन दोनों का कर्ता वह प्राणी स्वयं होता है ॥ १४ ॥ सर्वेषां च भवत्येव शश्वज्जन्मनि जन्मनि । चक्रनेमिस्त्वेणैव तत्र का परिदेवना ॥ १५ ॥ इस मांति सभी के प्रत्येक जन्म में यह निरन्तर चक्के के घेरे की भाँति घूमा करती है, अतः इसमें शोक कैसा ? ॥ १५ ॥ भुङ्क्ते हि स्वकृतं कर्म सर्वत्रापि च भारते । शुभाशुभं च यत्किंचित्स्वकर्मफलभुक्पुमान् ॥ १६ ॥ भारतवर्ष में अपने किये कर्म का भोग प्राप्त होता है । पुरुष शुभ-अशुभ जो कुछ अपना कर्म किए रहता है, उसी का फल वह भोगता है ॥ १६ ॥ नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ १७ ॥ क्योंकि सैकड़ों करोड़ कल्प व्यतीत होने पर भी बिना भोग किये कर्म कभी नष्ट नहीं होता है । किया हुआ शुभ-अशुभ कर्म अवश्य भोगना पड़ता है ॥ १७ ॥ इत्येवमुक्तं वेदे च कृष्णेन परमात्मना । साम्नि कौथुमशाखायां संबोध्य स्वकुलोद्भवम् ॥ १८ ॥ परमात्मा श्रीकृष्ण ने वेद तथा सामवेद की कौथुमी शाखा में अपने कुल के लोगों से इसी प्रकार कहा है ॥ १८ ॥ जन्म भोगावशेषे च सर्वेषां कृतकर्मणाम् । अनुरूपं च तेषां वै भारतेऽन्यत्र चैव हि ॥ १९ ॥ समस्त कर्मों के कुछ भोग शेष रहने पर उन्हीं के अनुरूप भारत या अन्यत्र (प्राणी) का जन्म होता है ॥ १९ ॥ कर्मणा ब्रह्मशापं च कर्मणा च शुभाशिषम् । कर्मणा च महालक्ष्मीं लभेद्दैन्यं च कर्मणा ॥ २० ॥ क्योंकि कर्म से ही ब्रह्मशाप, कर्म से शुभ आशीर्वाद, कर्म से महालक्ष्मी और कर्म से ही दीनता प्राप्त होती है ॥ २० ॥ कोटिजन्मार्जितं कर्म जीविनामनुगच्छति । न हि त्यजेद्विना भोगात्तं छायेव पुरंदर ॥ २१ ॥ हे पुरन्दर ! अतः करोड़ों जन्मों का किया हुआ संचित कर्म प्राणियों का छाया की भांति अनुगमन करता है । बिना भोगे वह कभी छोड़ता नहीं है ॥ २१ ॥ कालभेदे देशभेदे पात्रभेदे च कर्मणाम् । न्यूनताऽधिकता वाऽपि भवेदेव हि कर्मणाम् ॥ २२ ॥ काल भेद, देश भेद, और पात्र भेद से कर्मों की न्यूनता या अधिकता हो जाती है ॥ २२ ॥ वस्तुदाने च वस्तूनां समं पुण्यं समं दिने । दिनभेदे कोटिगुणमसंख्यं वाऽधिकं ततः ॥ २३ ॥ जिस प्रकार वस्तुओं के दान में, साधारण दिन में वस्तुओं के दान करने से पुण्य भी साधारण ही प्राप्त होता है और दिन के भेद (पर्व समय) होने से वहीं पुण्य कोटि गुना या असंख्य अथवा उससे भी अधिक हो जाता है ॥ २३ ॥ समदेशे च वस्तूनां दाने पुण्यं समं वृषन् । देशभेदे कोटिगुणमसंख्यं वाऽधिकं ततः ॥ २४ ॥ उसी प्रकार साधारण देश में वस्तुओं के दान करने से साधारण पुण्य और देश भेद होने से कोटि गुना अधिक या उससे भी अधिक असंख्य पुण्य प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ समे पात्रे समं पुण्यं वस्तूनां कर्तुरेव च । पात्रभेदे शतगुणमसंख्यं वा ततोऽधिकम् ॥ २५ ॥ इसी तरह साधारण पात्र में वस्तुओं का दान करने से उसके कर्ता को साधारण पुण्य और पात्र भेद (योग्य पात्र) होने पर सौ गुना अथवा उससे भी अधिक असंख्य पुण्य प्राप्त होता है ॥ २५ ॥ यथा फलन्ति सस्यानि न्यूनान्यप्यधिकानि च । कर्षकाणां क्षेत्रभेदे पात्रभेदे फलं तथा ॥ २६ ॥ किसानों के क्षेत्र भेद (उत्तम खेत) होने से जिस प्रकार सस्य (अनाज) न्यूनाधिक फूलते-फलते हैं, उसीभाँति पात्र भेद होने पर पुण्य फल भी न्यूनाधिक होता है ॥ २६ ॥ सामान्यदिवसे विप्रे दानं समफलं भवेत् । अमायां रविसंक्रान्त्यां फलं शतगुणं भवेत् । चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामनन्तफलमेव च ॥ २७ ॥ ग्रहणे शशिनः कोटिगुणं च फलमेव च । सूर्यस्य ग्रहणे चापि ततो दशगुणं फलम् ॥ २८ ॥ अक्षयायामक्षयं चाप्यसंख्यफलमुच्यते । एवमन्यत्र पुण्याहे फलाधिक्यं भवेदिह ॥ २९ ॥ साधारण दिन में ब्राह्मण को दान देने पर साधारण फल होता है और अमावास्या तथा सूर्य की संक्रान्ति में दान करने से उसका सौ गुना अधिक फल प्राप्त होता है । चातुर्मास्य (चौमासे) और पूर्णिमा में अनन्त फल, चन्द्रग्रहण में कोटि गुना और सूर्यग्रहण में उससे भी दश गुना अधिक फल होता है । अक्षय तृतीया में अक्षय और असंख्य फल का प्राप्त होना कहा है । इसी प्रकार अन्य पुण्य दिवस पर अधिक फल होता है ॥ २७-२९ ॥ यथा दाने तथा स्नाने जपे वै पुण्यकर्मसु । एवं सर्वत्र बोद्धव्यं नराणां कर्मणां फलम् ॥ ३० ॥ जिस प्रकार दान, स्नान एवं जप आदि पुण्य कमों में न्यूनाधिक फल प्राप्त होता है, उसी भांति मनुष्यों के सभी कर्मों का भी सर्वत्र (न्यूनाधिक) फल प्राप्त होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥ ३० ॥ सामान्यदेशे दानं च विप्रे समफलं भवेत् । तीर्थे देवगृहे चैव फलं शतगुणं स्मृतम् ॥ ३१ ॥ जैसे सामान्य देश में ब्राह्मण को दान करने पर सम फल और तीर्थ या देव-मन्दिर में दान करने से उसका सौ गुना अधिक फल होता है ॥ ३१ ॥ गङ्गायां वै कोटिगुणं क्षेत्रे नारायणेऽव्ययम् । कुरुक्षेत्रे बदर्यां च काश्यां कोटिगुणं तथा ॥ ३२ ॥ यथा च वै कोटिगुणं तथा वै विष्णुमन्दिरे । केदारे वै लक्षगुणं हरिद्वारे तथा फलम् ॥ ३३ ॥ पुष्करे भास्करक्षेत्रे दशलक्षगुणं फलम् । एवं सर्वत्र बोद्धव्यं फलाधिक्यं क्रमेण च ॥ ३४ ॥ गंगा जी में कोटि गुना, नारायण क्षेत्र में अव्यय (कभी समाप्त न होने वाला) तथा कुरुक्षेत्र, बदरिकाश्रम और काशी में कोटि गुना फल होता है । जिस प्रकार उपर्युक्त स्थानों में कोटि गुना अधिक फल कहा है उसी प्रकार विष्णु-मन्दिर में भी कोटि गुना फल होता है । केदार और हरिद्वार में लाख गुना, पुष्कर एवं भास्कर क्षेत्र में दश लाख गुना अधिक फल प्राप्त होता है । इसी प्रकार सर्वत्र क्रमशः फलों की अधिकता जाननी चाहिए ॥ ३२-३४ ॥ सामान्यब्राह्मणे दानं सममेव फलं लभेत् । लक्षं त्रिसंध्यं पूते च पण्डिते च जितेन्द्रिये ॥ ३५ ॥ विष्णुमन्त्रोपासके च बुधे कोटिगुणं फलम् । एवं सर्वत्र बोद्धव्यं फलाधिक्यं गुणाधिके ॥ ३६ ॥ सामान्य ब्राह्मणों को दान देने से समान फल, तीनों संध्याओं में (संध्यादि द्वारा) पवित्र रहने वाले जितेन्द्रिय पण्डितों को दान देने से लाख गुना और भगवान् विष्णु के मन्त्र की उपासना करने वाले विद्वान् को देने से कोटि गुना फल होता है । इसी प्रकार सर्वत्र गुण की अधिकता में भी फलाधिक्य का होना जानना चाहिए ॥ ३५-३६ ॥ यथा दण्डेन सूत्रेण शरावेण जलेन च । कुम्भं निर्माति चक्रेण कुम्भकारो मृदा भुवि ॥ ३७ ॥ तथैव कर्मसूत्रेण फलं धाता ददाति च । यस्याऽऽज्ञया सृष्टिविधौ तं च नारायणं भज ॥ ३८ ॥ जिस प्रकार कुम्हार पृथ्वी पर दण्ड, सूत्र, कसोरा, जल, मिट्टी और चक्र द्वारा घड़े का निर्माण करता है, उसी मांति सृष्टि-काल में ब्रह्मा जिसकी आज्ञा द्वारा कर्म सूत्र से (प्राणियों को) फल प्रदान करते हैं, उसी नारायण को भजो ॥ ३७-३८ ॥ स विधाता विधातुश्च पातुः पाता जगत्त्रये । स्रष्टुः स्रष्टा च संहर्तुः संहर्ता कालकालकः ॥ ३९ ॥ क्योंकि तीनों लोकों में वही विधाता का विधाता, तीनों लोक की रक्षा करने वाले (विष्णु) का रक्षक, सृष्टि करने वाले ब्रह्मा का स्रष्टा, संहार करने वाले (रुद्र) का संहारक और काल का भी काल है ॥ ३९ ॥ महविपत्तो संसारे यः स्मरेन्मधुसूदनम् । विपत्तौ तस्य संपत्तिर्भवेदित्याह शङ्करः ॥ ४० ॥ अतः संसार में महान् विपत्ति के अवसर पर जो भगवान् मधुसूदन का स्मरण करता है, उसे विपत्ति में भी सम्पत्ति प्राप्त होती है, ऐसा शंकर जी ने कहा है ॥ ४० ॥ इत्येवमुक्त्वा जीवश्च समालिङ्ग्य सुरेश्वरम् । दत्त्वा शुभाशिषं चेष्टं बोधयामास नारद ॥ ४१ ॥ हे नारद ! इतना कह कर बृहस्पति ने देवराज इन्द्र का आलिंगन किया और शुभाशीर्वाद देकर उन्हें इष्टज्ञान कराया ॥ ४१ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्म्युपाख्याने बृहस्पतिमहेन्द्रसंवादे कर्मफलनिरूपणं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में दूसरे प्रकृतिखण्ड के नारदनारायण के संवाद-विषयक महालक्ष्मी के उपाख्यान में बृहस्पति और महेन्द्र के संवाद में कर्मफलनिरूपण नामक सैंती सर्वां अध्याय समाप्त ॥ ३७ ॥ |