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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टत्रिंशोऽध्यायः


लक्ष्म्युपाख्याने समुद्रमंथनम् -
समुद्र-मन्थन-वर्णन -


नारायण उवाच
हरिं ध्यात्वा हरिर्ब्रह्मञ्जगाम ब्रह्मणः सभाम् ।
बृहस्पतिं पुरस्कृत्य सर्वैः सुरगणैः सह ॥ १ ॥
नारायण बोले-इन्द्र ने भगवान् का ध्यान कर के गुरु बृहस्पति को आगे किया और सभी देवों को साथ लेकर ब्रह्मा की सभा में पहुँचें ॥ १ ॥

शीघ्रं गत्वा ब्रह्मलोकं दृष्ट्‍वा च कमलोद्‌भवम् ।
प्रणेमुर्देवताः सर्वा गुरुणा सह नारद ॥ २ ॥
हे नारद ! शीघ्रता से वहां पहुंचने पर समस्त देवगण और गुरु के साथ इन्द्र ने कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा को देखते ही प्रणाम किया ॥ २ ॥

वृत्तान्तं कथयामास सुराचार्यो विधिं विभुम् ।
प्रहस्योवाच तच्छ्रुत्वा महेन्द्रं कमलोद्‌भवः ॥ ३ ॥
अनन्तर देवों के आचार्य गुरु ने विभु ब्रह्मा से (इन्द्र का) समस्त वृत्तान्त कहा, जिसे सुन कर हँसते हुए ब्रह्मा महेन्द्र से कहने लगे ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
वत्स मद्वंशजातोऽसि प्रपौत्रो मे विचक्षणः ।
बृहस्पतेश्च शिष्यस्त्वं सुराणामधिपः स्वयम् ॥ ४ ॥
ब्रह्मा बोले--हे वत्स ! तुम मेरे वंश में उत्पन्न हुए हो, मेरे बुद्धिमान् प्रपौत्र हो, बृहस्पति के शिष्य हो और स्वयं देवों के अधीश्वर हो ॥ ४ ॥

मातामहस्ते दक्षश्च विष्णुभक्तः प्रतापवान् ।
कुलत्रयं यस्य शुद्धं कथं सोऽहंकृतो भवेत् ॥ ५ ॥
तुम्हारे मातामह दक्ष विष्णु के भक्त और प्रतापी हैं । इस प्रकार जिसका तीनों कुल शुद्ध हों, उसे अहंकार किस भांति से हो सकता है ? ॥ ५ ॥

माता पतिव्रता यस्य पिता शुद्धो जितेन्द्रियः ।
मातामही मातुलश्च कथं सोऽहंकृतो भवेत् ॥ ६ ॥
क्योंकि जिसकी माता पतिव्रता, पिता नाना तथा मामा भी शुद्ध एवं जितेन्द्रिय हों, वह अहंकारी कैसे हो सकता है ॥ ६ ॥

जनः पैतृकदोषेण दोषान्मातामहस्य च ।
गुरोर्दोषान्नीतिदोषैर्हरिद्वेषी भवेद्ध्रुवम् ॥ ७ ॥
पिता सम्बन्धी दोष, मातामह के दोष और गुरु दोष तथा नीति दोष के कारण मनुष्य भगवान् से निश्चित द्वेष करताहै ॥ ७ ॥

सर्वान्तरात्मा भगवान्सर्वदेहेष्ववस्थितः ।
यस्य देहात्स प्रयाति स शवस्तत्क्षणं भवेत् ॥ ८ ॥
जो सभी के अन्तरात्मा होकर समस्त प्राणियों के देह में अवस्थित रहते हैं, वही जिसके देह से चले जाते हैं, वह उसी समय शव (मुर्दा) रूप हो जाता है ॥ ८ ॥

मनोऽहमिन्द्रियेशश्च ज्ञानरूपो हि शङ्‌करः ।
असवः प्रकृतिर्विष्णुर्बुद्धिर्भगवती सती ॥ ९ ॥
निद्रादयः शक्तयश्च ताः सर्वाः प्रकृतेः कलाः ।
आत्मनः प्रतिबिम्बं च जीवो भोगी शरीरभृत् ॥ १० ॥
क्योंकि (देह के भीतर) इन्द्रियों का अधीश्वर मन मैं हूँ, शंकर ज्ञान रूप हैं, विष्णु प्राण हैं और भगवती सती प्रकृति बुद्धि रूप हैं एवं निद्रा आदि समस्त शक्तियाँ प्रकृति की कलायें हैं और जीव आत्मा का प्रतिबिम्ब है, जो शरीर को धारण करता है और उसका भरण-पोषण करते हुए अपने कर्मफल (सुख-दुःख का) उपभोग करता है ॥ ९-१० ॥

आत्मनीशे गते देहात्सर्वे यान्ति ससंभ्रमात् ।
यथा वर्त्मनि गच्छन्तं नरदेवमिवानुगाः ॥ ११ ॥
जिस प्रकार मार्ग में राजा के पीछे उसके सेवक वर्ग चलते हैं, उसी भौति देहाधीश्वर आत्मा के देह से प्रस्थान करने पर (मन प्राण आदि) सभी उसी क्षण चल देते हैं ॥ ११ ॥

अहं शिवश्च शेषश्च विष्णुर्धर्मो महान्विराट् ।
वयं यदंशा भक्ताश्च तत्पुष्पं न्यक्कृतं त्वया ॥ १२ ॥
इस प्रकार मैं, शिव, शेष, विष्णु, धर्म, महान् और विराट आदि जिसके अंश और भक्त हैं, उन्हीं के पुण्य को तुमने अपमानित किया है ॥ १२ ॥

शिवेन पूजितं पादपद्मं पुष्पेण येन च ।
तच्च दुर्वाससा दत्तं दैवेनान्यकृतं सुर ॥ १३ ॥
हे सुर ! जिस पुष्प द्वारा शिव ने भगवान् के चरण कमल की पूजा की है, वही पुष्प दुर्वासा ने तुम्हें दिया था । किन्तु दुर्दैव (दुर्भाग्य) वश तुमने उसका निरादर कर दिया ॥ १३ ॥

तत्पुष्पं मस्तके यस्य कृष्णपादाब्जतश्च्युतम् ।
सर्वेषां वै सुराणां च तत्पूजा पुरतो भवेत् ॥ १४ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल से च्युत (पृथक्) होकर वह पुष्प जिस के मस्तक पर रहता है, उसकी पूजा समस्त देवगणों के समक्ष होती है ॥ १४ ॥

दैवेन वञ्चितस्त्वं च दैवं च बलवत्तरम् ।
भाग्यहीनं जनं मूढं को वा रक्षितुमीश्वरः ॥ १५ ॥
अत: देव (भाग्य) से तुम ठगे गए हो क्योंकि देवही अति बलवान है और भाग्यहीन एवं मूर्ख प्राणी की रक्षा करने में कौन समर्थ हो सकता है ॥ १५ ॥

कृष्णं न मन्यते यो हि श्रीनाथं सर्ववन्दितम् ।
प्रयाति रुष्टा तद्‌दासी महालक्ष्मीर्विहाय तम् ॥ १६ ॥
अतः लक्ष्मी के नाथ एवं सभी लोगों से वन्दित भगवान् श्रीकृष्ण का जो सम्मान नहीं करता है, उस पर उनकी दासी महालक्ष्मी भी रुष्ट हो जाती हैं और उसे छोड़ कर तत्काल अन्यत्र चली जाती हैं ॥ १६ ॥

शतयज्ञेन या लब्धा दीक्षितेन त्वया पुरा ।
सा श्रीर्गताऽधुना कोपात्कृष्णनिर्माल्यवर्जनात् ॥ १७ ॥
दीक्षित होकर तुमने सौ यज्ञ द्वार । जिसे पूर्व समय में प्राप्त किया था, वही (लक्ष्मी) भगवान् श्रीकृष्ण के निर्माल्य के अनादर करने के कारण कोप कर के इस समय चली गयी हैं ॥ १७ ॥

अधुना गच्छ वैकुण्ठं मया च गुरुणा सह ।
निषेव्य तत्र श्रीनाथं श्रियं प्राप्स्यसि तद्वरात् ॥ १८ ॥
अतः अब इस समय मेरे और बृहस्पति के साथ तुम वैकुण्ठ चलो । वहाँ श्री के स्वामी भगवान् की सेवा कर के उनके वरदान द्वारा तुम पुनः लक्ष्मी को प्राप्त करो ॥ १८ ॥

इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा सर्वैः सुरगणैः सह ।
शीघ्रं जगाम वैकुण्ठं यत्र श्रीशस्तया सह ॥ १९ ॥
इतना कह कर ब्रह्मा समस्त देवों के साथ शीघ्रता से वैकुण्ठ के लिए चल पड़े । वहाँ लक्ष्मी के अधिनायक भगवान् लक्ष्मी जी के साथ विराजमान थे ॥ १९ ॥

तत्र गत्वा परं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।
दृष्ट्‍वा तेजःस्वरूपं च प्रज्वलन्तं स्वतेजसा ॥ २० ॥
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डशतकोटिसमप्रभम् ।
शान्तं चानादिमध्यान्तं लक्ष्मीकान्तमनन्तकम् ॥ २१ ॥
चतुर्भुजैः पार्षदैश्च सरस्वत्या स्तुतं नतम् ।
भक्त्या चतुर्भिर्वेदैश्च गङ्‌गया परिषेवितम् ॥ २२ ॥
वहाँ पहुँचने पर परब्रह्म स्वरूप उन भगवान् सनातन का उन लोगों ने दर्शन किया, जो तेजः-स्वरूप, अपने तेज से देदीप्यमान, ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सैकड़ों करोड़ सूर्य के समान प्रभा से युक्त, शान्त, आदि, मध्य, और अन्त से रहित, लक्ष्मी के कान्त, अनन्त, चार भुजा वाले पार्षदों और सरस्वती से स्तुत, भक्तिपूर्वक चारों वेदों से भी स्तुत तथा गंगा से सुसेवित हैं ॥ २०-२२ ॥

तं प्रणेमुः सुराः सर्वे मूर्ध्ना ब्रह्मपुरोगमाः ।
भक्तिनम्राः साश्रूनेत्रास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ २३ ॥
उपरान्त ब्रह्मा को आगे किए हुए भक्ति-विनम्र और आँखों में आँसू भरे समस्त देव गणों ने शिर से उन्हें प्रणाम किया । पश्चात् उन पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे ॥ २३ ॥

वृत्तान्तं कथयामास स्वयं ब्रह्मा कृताञ्जलिः ।
रुरुदुर्देवताः सर्वाः स्वाधिकारच्युताश्च ताः ॥ २४ ॥
तदनन्तर स्वयं ब्रह्मा ने हाथ जोड़ कर उन्हें समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । उस समय अधिकार से च्युत होने के नाते सभी देवगण रुदन कर रहे थे ॥ २४ ॥

स चापश्यत्सुरगणं विपद्‌ग्रस्तं भयाकुलम् ।
वस्त्रभूषणशून्यं च वाहनादिविवर्जितम् ॥ २५ ॥
भगवान् ने उस समय देवगणों की ओर (सकरुण नेत्रों से) देखा जो विपत्ति से ग्रस्त, भय से व्याकुल, वस्त्र-भूषण, और वाहन आदि से शून्य थे ॥ २५ ॥

शोभाशून्यं हतश्रीकं परिवारैरनावृतम् ।
उवाच कातरं दृष्ट्‍वा विपन्नभयभञ्जनः ॥ २६ ॥
शोभाशून्य, हतप्रभ और परिवार आदि से रहित होने के नाते उन्हें कातर देख शरणागत के भयहारी भगवान् ने कहा ॥ २६ ॥

नारायण उवाच
मा भैर्ब्रह्मन्हे सुराश्च भयं किं वो मयि स्थिते ।
दास्यामि लक्ष्मीमचलां परमैश्वर्यवर्धिनीम् ॥ २७ ॥
नारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! हे देवगण ! भय मत करो, मेरे रहते तुम्हें भय क्या है । मैं तुम्हें परम ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाली अचल लक्ष्मी प्रदान करूँगा ॥ २७ ॥

किंच मद्वचनं किंचिच्छ्रुयतां समयोचितम् ।
हितं सत्यं सारभूतं परिणामसुखावहम् ॥ २८ ॥
किन्तु इसके पूर्व कुछ मेरी बातें सुन लो, जो समयानुसार, हितकारी, सत्य, सारभूत और भविष्य में सुख देने वाली हैं ॥ २८ ॥

जनाश्चासंख्यविश्वस्था मदधीनाश्च संततम् ।
यथा तथाऽहं मद्‌भक्तैः पराधीनः स्वतन्त्रकः ॥ २९ ॥
जिस प्रकार असंख्य समस्त विश्व में अगणित प्राणी निरन्तर मेरे अधीन रह रहे हैं, उसी भांति स्वतन्त्र रहते हुए भी मैं अपने भक्तों के अधीन रहता हूँ ॥ २९ ॥

यो यो रुष्टो हि मद्‌भक्ते मत्परे हि निरङ्‌कुशः ।
तद्‌गृहेऽहं न तिष्ठामि पद्मया सह निश्चितम् ॥ ३० ॥
इसलिए यह निश्चित है कि मुझमें तल्लीन रहने वाले मेरे भक्तों पर जो-जो निरंकुश (उद्दण्ड) रुष्ट होते हैं, लक्ष्मीसमेत मैं उनके घर नहीं रहता हूँ ॥ ३० ॥

दुर्वासाः शंकरांशश्च वैष्णवो मत्परायणः ।
तच्छापादागतोऽहं च सश्रीको वो गृहादपि ॥ ३१ ॥
दुर्वासा शंकर जी के अंश और (सदैव) मेरे ही आश्रय रहने वाले वैष्णव हैं । उन्हीं के शापवश लक्ष्मी समेत हम तुम लोगों के घर से चले आये ॥ ३१ ॥

यत्र शङ्‌खध्वनिर्नास्ति तुलसी च शिलार्चनम् ।
न भोजनं च विप्राणां न पद्मा तत्र तिष्ठति ॥ ३२ ॥
क्योंकि जिस स्थान में शंखध्वनि नहीं होती, तुलसी तथा शालग्राम की अर्चना नहीं होती और ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया जाता है, वहाँ पद्मा (लक्ष्मी) नहीं ठहरती हैं ॥ ३२ ॥

मद्‌भक्तानां च मे निन्दा यत्र यत्र भवेत्सुराः ।
महारुष्टा महालक्ष्मीस्ततो याति पराभवात् ॥ ३३ ॥
हे देववृन्द ! मेरे भक्तों की जहाँ निन्दा होती है, महालक्ष्मी अत्यन्त रुष्ट होकर उस अपमानवश वहाँ से चली जाती हैं ॥ ३३ ॥

मद्‌भक्तिहीनो यो मूढो यो भुङ्‌क्ते हरिवासरे ।
मम जन्मदिने चापि याति श्रीस्तद्गृहादपि ॥ ३ ४ ॥
जो मेरी भक्ति से रहित है और जो मूर्ख हरिवासर (एकादशी में) और मेरे जन्म के दिन (अन्न) भोजन करता है उसके घर से लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ३४ ॥

मन्नामविक्रयी यश्च विक्रीणाति स्वकन्यकाम् ।
यत्रातिथिर्न भुङ्‌क्ते च मत्प्रिया याति तद्‌गृहात् ॥ ३५ ॥
जो हमारे नाम का विक्रय करता है, अपनी कन्या का विक्रय करता है और जिसके यहाँ अतिथियों को भोजन नहीं कराया जाता है, उसके घर से मेरी प्रिया (लक्ष्मी) चली जाती हैं ॥ ३५ ॥

पापिनां यो गृहं याति शूद्रश्राद्धान्नभोजिनाम् ।
महारुष्टा ततो याति मन्दिरात्कमलालया ॥ ३६ ॥
शूद्रों के यहाँ श्राद्धान्न भोजनकरने वाले पापियों के घर जो जाता है, उसके घर से महारुष्ट होकर कमला चली जाती हैं ॥ ३६ ॥

शूद्राणां शवदाही च भाग्यहीनश्च वाडवः ।
याति रुष्टा तद्‌गृहाच्च देवी कमलवासिनी ॥ ३७ ॥
शूद्रों के शव का दाह करने वाले और भाग्यहीन ब्राह्मण के घर से रुष्ट होकर कमल में निवास करने वाली लक्ष्मी देवी चली जाती हैं ॥ ३७ ॥

शूद्राणां सूपकारो यो ब्राह्मणो वृषवाहकः ।
तत्तोयपानभीता च कमला याति तद्‌गृहात् ॥ ३८ ॥
शूद्रों का भण्डारी तथा बैल पर लादने आदि के कार्य करने वाले ब्राह्मण के घर से उसका जल पीन के भय से कमला चली जाती हैं ॥ ३८ ॥

विप्रो यवनसेवी च देवलः शूद्रयाजकः ।
ततोऽपमानभीता च वैष्णवी याति तद्‌गृहात् ॥ ३९ ॥
यवनों (मुसलमानों) की नौकरी करने वाले, देवल (मन्दिर के पुजारी) और शूद्रों के यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों के घर से, अपमान के भय से वह वैष्णवी (लक्ष्मी) चली जाती हैं ॥ ३९ ॥

विश्वासघाती मित्रघ्नो नरघाती कृतघ्नकः ।
अगम्यां याति यो विप्रो मद्‌भार्या याति तद्‌गृहात् ॥ ४० ॥
विश्वास-घात करने वाले, मित्रहत्या, तथा नरहत्या करने वाले कृतघ्न और अगम्यागामी ब्राह्मण के घर से हमारी भार्या (लक्ष्मी) चली जाती हैं ॥ ४० ॥

अशुद्धहृदयः क्रूरो हिंसको निन्दको द्विजः ।
ब्राह्मण्यां शूद्रजातश्च याति देवी च तद्‌गृहात् ॥ ४१ ॥
अशुद्ध हृदय वाले, क्रूर, हिंसक, निन्दक और ब्राह्मणी में शूद्र से उत्पन्न हुए के घर से वह देवी चली जाती है ॥ ४१ ॥

यो विप्रः पुंश्चलीपुत्रो महापापो च तत्पतिः ।
अवीरान्नं च यो भुङ्‌क्ते तस्माद्याति जगत्प्रसूः ॥ ४२ ॥
जो ब्राह्मण व्यभिचारिणी स्त्री का पुत्र है और जो ऐसी स्त्री का पति है, उस महापापी का तथा पतिपुत्रहीना विधवाका अन्न खाने वाले के घर से जगत् की माता लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ४२ ॥

तृणं छिनत्ति नखरैस्तैर्वा यो हि लिखेन्महीम् ।
जिह्मो वा मलवासाश्च सा प्रयाति च तद्‌गृहात् ॥ ४३ ॥
नखों से तिनका तोड़ने वाले और भूमि खोदने वाले, कपटी और मलिन वस्त्र वाले के घर से वह चली जाती हैं ॥ ४३ ॥

सूर्योदये च द्विर्भोजी दिवाशायी च वाडवः ।
दिवा मैथुनकारी च तस्माद्याति हरिप्रिया ॥ ४४ ॥
सूर्योदय के समय दो बार भोजन करने वाले, दिन में शयन करने वाले तथा दिन में रति करने वाले ब्राह्मण के घर से हरिप्रिया (लक्ष्मी) चली जाती हैं । ॥ ४४ ॥

आचारहीनो यो विप्रो यश्च शूद्रप्रतिग्रही ।
अदीक्षितो हि यो मूढस्तस्माल्लोला प्रयाति च ॥ ४५ ॥
आचारहीन, शूद का दान लेने वाले और दीक्षाहीन मूढ़ ब्राह्मण के घर से चपला (लक्ष्मी) चली जाती हैं । ॥ ४५ ॥

स्निग्धपादश्च नग्नो वा यः शेते ज्ञानदुर्बलः ।
शश्वद्धर्माऽतिवाचालो याति वै तद्‌गृहात्सती ॥ ४६ ॥
जो ज्ञान की कमी के कारण तेल लगे पैर और नग्न शयन करते हैं तथा निरन्तर धर्म के सम्बन्ध में डींग मारते हैं उनके गृह से सती (लक्ष्मी) चली जाती है ॥ ४६ ॥

शिरस्नातश्च तैलेन योऽन्यदङ्‌गमुपस्पृशेत् ।
स्वाङ्‌गे च वादयेद्‌वाद्यं रमा याति च तद्‌गृहात् ॥ ४७ ॥
जो सिर से स्नान करने के अनन्तर दूसरे अंग में तेल लगाता है और जो अपने अंग को बाजे को तरह बजाता है उसके घर से यह रमा चली जाती हैं ॥ ४७ ॥

व्रतोपवासहीनो यः संध्याहीनोऽशुचिर्द्विजः ।
विष्णुभक्तिविहीनो यस्तस्माद्याति हरिप्रिया ॥ ४८ ॥
जो ब्राह्मण व्रत-उपवास से रहित, सन्ध्याकर्मविहीन होने के कारण अपवित्र एवं भगवान् विष्णु की भक्ति से रहित होता है, उसके यहाँ से हरिप्रिया (लक्ष्मी) चली जाती हैं ॥ ४८ ॥

ब्राह्मणान्निन्दयेद्यो हि तान्वै द्वेष्टि च संततम् ।
हिंसाकारी दयाहीनो याति सर्वप्रसूस्ततः ॥ ४९ ॥
जो ब्राह्मण की निन्दा' और उनसे सदैव द्वेष रखता है तथा हिंसक एवं निर्दयी है उसके यहाँ से सबको उत्पन्न करने वाली लक्ष्मी चली जाती हैं ॥ ४९ ॥

यत्र यत्र हरेरर्चा हरेरुत्कीर्तनं शुभम् ।
तत्र तिष्ठति सा देवी कमला सर्वमङ्‌गला ॥ ५० ॥
जहाँ कहीं भगवान की अर्चा और उनका शुभ (नाम-) कीर्तन होता है वहाँ सर्वमंगलरूप कमला (लक्ष्मी) निवास करती हैं ॥ ५० ॥

यत्र प्रशंसा कृष्णस्य तद्‌भक्तस्य पितामह ।
सा च कृष्णप्रिया देवी तत्र तिष्ठति संततम् ॥ ५१ ॥
हे पितामह ! जहाँ कृष्ण और उनके भक्त की निरन्तर प्रशंसा होती है वहाँ वह कृष्णप्रिया (लक्ष्मी देवी) सदैव रहती हैं ॥ ५१ ॥

यत्र शङ्खध्वनिः शङखः शिला च तुलसीदलम् ।
तत्सेवा वन्दनं ध्यानं तत्र सा तिष्ठति स्वयम् ॥ ५२ ॥
जहाँ शंखध्वनि होती है तथा शंख शिला (शालग्राम) और तुलसीदल रहता है तथा उनकी सेवा, वन्दना और ध्यान होता है, वहाँ वह स्वयं रहती हैं ॥ ५२ ॥

शिवलिङ्‌गार्चनं यत्र तस्य चोत्कीर्तनं शुभम् ।
दुर्गार्चनं तद्‌गुणाश्च तत्र पद्मनिवासिनी ॥ ५३ ॥
जहाँ शिवलिंग की पूजा, उनका शुम कीर्तन, दुर्गा जी की पूजा और उनका गुणगान होता रहता है, वहाँ कमलनिवासिनी (लक्ष्मी) निवास करती हैं ॥ ५३ ॥

विप्राणां सेवनं यत्र तेषां वै भोजनं शुभम् ।
अर्चनं सर्वदेवानां तत्र पद्ममुखी सती ॥ ५४ ॥
जहाँ ब्राह्मणों की सेवा होती है, उन्हें पवित्र भोजन कराया जाता है और समस्त देवों की अर्चना होती है, वहाँ वह कमलवदना सती निरन्तर निवास करती हैं ॥ ५४ ॥

इत्युक्त्वा च सुरान्सर्वान्‌रमामाह रमापतिः ।
क्षीरोदसागरे जन्म लभस्व कलया रमे ॥ ५५ ॥
इस प्रकार रमापति भगवान् विष्णु ने सभी देवों से कहकर पुनः रमा (लक्ष्मी) से कहा-'हे रमे ! अपनी कला (अंश) से क्षीरसागर में जन्मग्रहण करो । ' ॥ ५५ ॥

इत्युक्त्वा तां जगन्नाथो ब्रह्माणं पुनराह च ।
मथित्वा सागरं लक्ष्मीं देवेभ्यो देहि पद्मज ॥ ५६ ॥
लक्ष्मी से इतना कहकर जगन्नाथ ने पुनः ब्रह्मा से कहा-है पद्मज (कमल से उत्पन्न होने वाले) ! जाओ; सागर का मन्थन करके देवों को लक्ष्मी प्रदान करो ॥ ५६ ॥

इत्युक्त्वा कमलाकान्तो देवश्चान्तरधान्मुने ।
देवाश्चिरेण कालेन ययुः क्षीरोदसागरम् ॥ ५७ ॥
हे मुने ! कमला के कान्त विष्णु इतना कह कर अन्तहित हो गये और देवता लोग बहुत दिन के उपरान्त क्षीरसागर पहुंचे ॥ ५७ ॥

मन्थानं मन्दरं कृत्वा कूर्मं कृत्वा च भाजनम् ।
रज्जुं कृत्वा वासुकिं च ममन्थुश्चैव सागरम् ॥ ५८ ॥
वहाँ पहुँच कर देवताओं ने मन्दराचल को मथानी, कच्छप (कवे) को पात्र और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर सागर का मन्थन किया ॥ ५८ ॥

धन्वन्तरिं च पीयुऽषमुच्चैःश्रवसमीप्सितम् ।
नानारत्‍नं हस्तिरत्‍नं प्रापुर्लक्ष्मीं पुरातनीम् ॥ ५९ ॥
अनन्तर उस (सागर) में से धन्वन्तरि वैद्य, अमृत, मनमोहक उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, अनेक भाँति के रत्न, गजराज (ऐरावत) और पुरातन लक्ष्मी की प्राप्ति हुई ॥ ५९ ॥

वनमालां ददौ सा च क्षीरोदशायिने मुने ।
सर्वेश्वराय रम्याय विष्णवे वैष्णवी सती ॥ ६० ॥
हे मुने ! अनन्तर उस प्रतिव्रता वैष्णवी (लक्ष्मी) ने भगवान् विष्णु को वनमाला (जयमाल रूप में) अर्पित की, जो क्षीरशायी, समस्त के ईश्वर और अति रमणीक हैं ॥ ६० ॥

देवैः स्तुता पूजिता च ब्रह्मणा शङ्‌करेण च ।
ददौ दृष्टिं सुरगृहे ब्रह्मशापविमोचिकाम् ॥ ६१ ॥
देवों ने लक्ष्मी की स्तुति की । ब्रह्मा और शिव ने उनकी पूजा की । अनन्तर देवों के घर में उसने ब्रह्मशाप से मुक्त करने वाली अपनी कृपादृष्टि प्रदान की ॥ ६१ ॥

प्रापुर्देवाः स्वविषयं दैन्यैर्ग्रस्तं भयङ्‌करैः ।
महालक्ष्मीप्रसादेन वरदानेन नारद ॥ ६२ ॥
हे नारद ! इस प्रकार महालक्ष्मी के प्रसाद से वरदान द्वारा देवों ने भयंकर दैत्यों से आक्रान्त अपने विषयों (गृहादि वस्तुओं) को पुन: प्राप्त किया ॥ ६२ ॥

इत्येवं कथितं सर्वं लक्ष्म्युपाख्यानमुऽत्तमम् ।
सुखदं सारभूतं चकिं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६३ ॥
इस भांति मैंने लक्ष्मी का समस्त परमोतम आख्यान तुम्हें सुना दिया; जो सुखद और सारभूत है । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ६३ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
लक्ष्म्युपाख्याने समुद्रमथनं नामाष्टत्रिशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायणसंवादविषयक लक्ष्मी के उपाख्यान में समुद्रमथन नामक अड़तीसर्वा अध्याय समाप्त ॥ ३८ ॥

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