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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः लक्ष्म्युपाख्यानेलक्ष्मीपूजाविधानम् -
लक्ष्मी का पूजा-विधान - नारद उवाच हरेरुत्कीर्तनं भद्रं श्रुतं तज्ज्ञानमुत्तमम् । ईप्सितं लक्ष्म्युपाख्यानं ध्यानं स्तोत्रादिकं वद ॥ १ ॥ नारद बोले-मैंने भगवान् का कल्याणकारी (नामादि) कीर्तन, उनका परमोत्तम ज्ञान और लक्ष्मी का अभिलषित उपाख्यान भी सुन लिया, अब उनके ध्यान और स्तोत्र आदि कहने की कृपा करें ॥ १ ॥ हरिणा पूजिता पूर्वं ततो ब्रह्मादिभिस्तथा । शक्रेण भ्रष्टराज्येन सार्धं सुरगणेन च ॥ २ ॥ ध्यानेन पूजिता केन विधिना केन वा पुरा । केन स्तुता वा स्तोत्रेण तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥ सर्वप्रथम भगवान् ने लक्ष्मी की पूजा की, अनन्तर ब्रह्मा आदि ने और राज्यच्युत इन्द्र ने देवों समेत उनकी अर्चना की । मैं यही जानना चाहता हूँ कि पूर्व काल में उन सबों ने किस ध्यान और किस विधान से उनकी पूजा की तथा किस स्तोत्र से उनकी स्तुति की, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ २-३ ॥ नारायण उवाच स्नात्वा तीर्थे पुरा शक्रो धृत्वा धौते च वाससी । घटं संस्थाप्य क्षीरोदे देवषट्कमपूजयत ॥ ४ ॥ गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् । एतान्भक्त्या समभ्यर्च्य पुष्पगन्धादिभिस्तथा ॥ ५ ॥ तत्राऽऽवाह्य महालक्ष्मीं परमैश्वर्यरूपिणीम् । पूजां चकार देवेशो ब्रह्मणा च पुरोधसा ॥ ६ ॥ नारायण बोले-पहले समय में इन्द्र ने एक बार तीर्थ-स्नान किया और दो धुले वस्त्र पहन कर क्षीरसागर में कलश स्थापनपूर्वक छः देवों की पूजा की । गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती-इन छहों देवों की भक्तिपूर्वक पुष्प-गन्धादि द्वारा अर्चना कर के उसी स्थापित घट में परम ऐश्वर्यरूपिणी महालक्ष्मी का आवाहन किया और ब्रह्मा तथा बृहस्पति के साथ उन्होंने उनकी पूजा की ॥ ४-६ ॥ पुरःस्थितेषु मुनिषु बाह्मणेषु गुरौ तथा । देवादिषु च देवेशे ज्ञानानन्दे शिवे मुने ॥ ७ ॥ हे मुने ! उनके सामने मुनिगण, ब्राह्मण वृन्द, गुरु बृहस्पति, देवगण और देवाधीश्वर एवं ज्ञानानन्द शिव उस समय विद्यमान थे ॥ ७ ॥ पारिजातस्य पुष्पं च गृहीत्वा चन्दनोक्षितम् । ध्यात्वा देवीं महालक्ष्मीं पूजयामास नारद ॥ ८ ॥ हे नारद ! चन्दन-चित पारिजात का पुष्प लेकर उन्होंने महालक्ष्मी देवी का ध्यानपूर्वक पूजन किया ॥ ८ ॥ ध्यानं च सामवेदोक्तं यदुक्तं ब्रह्मणे पुरा । ध्यानेन हरिणा तेन तन्निबोध वदामि ते ॥ ९ ॥ पूर्व काल में भगवान् ने ब्रह्मा को जो सामवेदोक्त ध्यान बताया था, वह तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ९ ॥ सहस्रदलपद्मस्य कर्णिकावासिनीं पराम् । शरत्पार्वणकोटीन्दुप्रभाजुष्टकरां वराम् ॥ १० ॥ स्वतेजसा प्रज्वलन्तो सुखदृश्यां मनोहराम् । प्रतप्तकाञ्चननिभां शोभां मूर्तिमतीं सतीम् ॥ ११ ॥ रत्नभूषणभूषाढ्यां शोभितां पीतवाससा । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रम्यां सुस्थिरयौवनाम् ॥ १२ ॥ सर्वसंपत्प्रदात्रीं च महालक्ष्मीं भजे शुभाम् । ध्यानेनानेन तां ध्यात्वा चोपहारैः सुसंयुतः ॥ १३ ॥ संपूज्य ब्रह्मवाक्येन चोपहाराणि षोडश । ददौ भक्त्या विधानेन प्रत्येकं मन्त्रपूर्वकम् ॥ १४ ॥ सहस्र दल वाले कमल पुष्प की कणिका में निवास करने वाली, श्रेष्ठ, शारदीय पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा की कान्ति से सुशोभित, परमोत्तम, अपने तेज द्वारा देदीप्यमान, देखने में सुखकर, मनोहारिणी, अत्यन्त तपाये हुए सुवर्ण की भांति शोभा धारण करने वाली, मूर्तिमती सती, रत्नों के भूषणों से विभूषित, पीताम्बर से सुशोभित, मन्द मुसुकान समेत प्रसन्न मुख, रम्य, अत्यन्त स्थिर यौवन वाली और समस्त सम्पत्ति प्रदान करने वाली शुभ महालक्ष्मी का मैं भजन कर रहा हूँ । इस ध्यान द्वारा उनका ध्यान करने के उपरान्त उपहारों से युक्त इन्द्र ने ब्रह्मवाक्य द्वारा सम्यक् पूजन करके १६ उपहारों में से प्रत्येक को भक्ति और विधान के साथ मंत्रपूर्वक प्रदान किया ॥ १०-१४ ॥ प्रशंस्यानि प्रहृष्टानि दुर्लभानि वराणि च । अमृल्यरत्नसखचितं निर्मितं विश्वकर्मणा । आसनं च विचित्रं च महालक्ष्मि प्रगृह्यताम् ॥ १५ ॥ हे महालक्ष्मि ! प्रशस्त, प्रसन्न करने वाले, दुर्लभ और श्रेष्ठ उपहारों में से सर्वप्रथम अमूल्य रत्नों से खचित और विश्वकर्मा के बनाये इस विचित्र आसन को मैं अर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो ॥ १५ ॥ शुद्धं गङ्गोदकमिदं सर्ववन्दितमीप्सितम् । पापेध्मवह्निरूपं च गृह्यतां कमलालये ॥ १६ ॥ हे कमलगृहनिवासिनि ! यह शद्ध गंगोदक अर्पित कर रहा हूँ, जो सब से वन्दित, अभीष्ट तथा पापरूपी काष्ट को जलाने के लिए अग्नि रूप है, ग्रहण करो ॥ १६ ॥ पुष्पचन्दनदूर्वादिसंयुतं जाह्नवीजलम् । शङ्खगर्भस्थितं शुद्धं गृह्यतां पद्मवासिनि ॥ १७ ॥ हे पद्मवासिनि ! पुष्प, चन्दन और दूर्वादि संयुत यह गंगा जल, जो शंख के गर्भ में स्थित एवं शुद्ध है, ग्रहण करो ॥ १७ ॥ सुगन्धियुक्तं तैलं च सुगन्धामलकीजलम् । देहसौन्दर्यबीजं च गृह्यतां श्रीहरिप्रिये ॥ १८ ॥ हे श्रीहरि की प्रिये ! सुगन्धित तैल, सुगन्धपूर्ण आँवला मिश्रित जल, जो देह की सुन्दरता का मूल कारण है, ग्रहण करो ॥ १८ ॥ वृक्षनिर्यासरूपं च गन्धद्रव्यादिसंयुतम् । कृष्णकान्ते पवित्रो वै धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ १९ ॥ हे कृष्णकान्ते ! वृक्ष के निर्यात (गोंद) रूप और गन्ध द्रव्य मिश्रित इस पवित्र धूप को ग्रहण करो ॥ १९ ॥ मलयाचलसंभूतं वृक्षसारं मनोहरम् । सुगन्धियुक्तं सुखदं चन्दनं देवि गृह्यताम् ॥ २० ॥ हे देवि ! यह चन्दन ग्रहण करो, जो मलयाचल पर उत्पन्न, वृक्ष का सार भाग, मनोहर, सुगन्धित एवं सुखद है ॥ २० ॥ जगच्चक्षुःस्वरूपं च ध्वान्तप्रध्वंसकारणम् । प्रदीपं शुद्धरूपं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ २१ ॥ हे परमेश्वरि ! इस शुद्ध रूप वाले दीपक को ग्रहण करो, जो समस्त संसार का नेत्रस्वरूप और अंधकार के नाश का कारण है ॥ २१ ॥ नानोपहाररूपं च नानारससमन्वितम् । नानास्वादुकरं चैव नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ २२ ॥ । अनेक भाँति के स्वाद देने वाले इस रैवेद्य को ग्रहण करो, जो नाना उपहार रूप और अनेक रस से युक्त है ॥ २२ ॥ अन्नं ब्रह्मस्वरूपं च प्राणरक्षणकारणम् । तुष्टिदं पुष्टिदं चान्नं मधुरं प्रतिगृह्यताम् ॥ २३ ॥ ब्रह्मस्वरूप इस मधुर अन्न को ग्रहण करो, जो प्राण रक्षा का कारण और तुष्टि-पुष्टि प्रदान करता है ॥ २३ ॥ शाल्यक्षतसुपक्वं च शर्करागव्यसंयुतम् । सुस्वादु रम्यं पद्मे च परमान्नं प्रगृह्यताम् ॥ २४ ॥ हे पो ! इस सुस्वादपूर्ण परमान्न (खीर) को ग्रहण करो जो साठी धान के चावल का उत्तम ढंग से पकाया गया है और चीनी तथा गाय के घी से युक्त है ॥ २४ ॥ शर्करागव्यपक्वं च सुस्वादु सुमनोहरम् । मया निवेदितं लक्ष्मि स्वस्तिकं प्रतिगृह्यताम् ॥ २५ ॥ हे लक्ष्मि ! मैंने यह स्वस्तिक (कल्याणप्रद सेवई) भोजन तुम्हें अर्पित किया है, उसे ग्रहण करो, जो शक्कर, तथा गाय के दुग्ध में बना अत्यन्त स्वादिष्ठ और मनोहारी है ॥ २५ ॥ नानाविधानि रम्याणि पक्वानि च फलानि तु । स्वादुरस्यानि कमले गृह्यतां फलदानि च ॥ २६ ॥ हे कमले ! अनेक भाँति के पके, सुन्दर एवं स्वादुरसपूर्ण फल तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ, इसे स्वीकार करो ॥ २६ ॥ सुरभिस्तनसंभूतं सुस्वादु सुमनोहरम् । मर्त्यामृतं च गव्यं वै गृह्यतामच्युतप्रिये ॥ २७ ॥ हे अच्युतप्रिये ! यह गौ का दूध अर्पित कर रहा हूँ, ग्रहण करो, जो गौ के स्तन से निकला, अतिस्वादपूर्ण, मनोहर और मर्त्यलोक में अमृत रूप है ॥ २७ ॥ सुस्वादुरससंयुक्तमिक्षुवृक्षरसोद्भवम् । अग्निपक्वमपक्वं वा गुडं वै देवि गृह्यताम् ॥ २८ ॥ हे देवि ! अग्नि में पकाये अथवा बिना पकाये इस गुड़ को ग्रहण करो ! जो अति स्वादिष्ठ रस-युक्त और ऊख के रस से बना है ॥ २८ ॥ यवगोधूमसस्यानां चूर्णरेणुसमुद्भवम् । सुपक्वगुडगव्याक्तं मिष्टान्नं देवि गृह्यताम् ॥ २९ ॥ हे देवि ! जवा, गेहूँ तथा चावल के चूर्ण (आटे) से बना और गुड़ तथा गो-घृत में भली भाँति पका है, अतः इस मिष्टान्न को ग्रहण करो ॥ २९ ॥ सस्यचूर्णोद्भवं पक्वं स्वस्तिकादिसमन्वितम् । मया निवेदितं देवि पिष्टकं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३० ॥ हे देवि ! चावल के चूर्ण (आटे) से पका कर बनाये हुए तथा स्वस्तिक आदि से युक्त इस पूये को स्वीकार करो ॥ ३० ॥ पार्थिवं वृक्षभेदे च विविधैर्द्रव्यकारणम् । सुस्वादुरससंयुक्तमैक्षवं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३१ ॥ इस विशेष प्रकार के वृक्ष (गन्ने) को स्वीकार करो जो विविध प्रकार की मिठाइयों का (मूल) कारण और अत्यन्त स्वादिष्ठ रस से युक्त है । ॥ ३१ ॥ शीतवायुप्रदं चैव दाहे च सुखदं परम् । कमले गृह्यतां चेदं व्यजनं श्वेतचामरम् ॥ ३२ ॥ हे कमले ! इस श्वेत चामर वाले व्यजन (पंखे) को ग्रहण करो, जो दाह के समय शीतल वायुप्रद और परम सुखदायक है । ॥ ३२ ॥ ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् । जिह्वाजाड्यच्छेदकरं ताम्बूलं देवि गृह्यताम् ॥ ३३ ॥ हे देवि ! इस श्रेष्ठ और सुरम्य ताम्बूल (पान) को ग्रहण करो, जो कपूर आदि से सुवासित तथा जिह्वा की जड़ता का नाशक है ॥ ३३ ॥ सुवासितं शीतलं च पिपासानाशकारणम । जगज्जीवनरूपं च जीवनं देवि गृह्यताम् ॥ ३४ ॥ हे देवि ! सुवासित (सुगन्धित), शीतला, पिपासा (प्यास) के नाशक और सारे संसार के जीवन रूप इस जल को स्वीकार करो ॥ ३४ ॥ देहसौन्दर्यबीजं च सदा शोभाविवर्धनम् । कार्पासजं च कृमिजं वसनं देवि गृह्यताम् ॥ ३५ ॥ हे देवि ! कपास और कीड़े से उत्पन्न यह वस्त्र ग्रहण करो, जो देह की सुन्दरता का कारण तथा सदैव शोभावर्द्धक है ॥ ३५ ॥ रलस्वर्णविकारं च देहसौख्यविवर्धनम् । शोभाधारं श्रीकरं च भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३६ ॥ रत्न और सुवर्ण से बनाये गये, शरीरसौख्यवर्द्धक, शोभा के आधार और श्रीप्रद इस भूषण को ग्रहण करो ॥ ३६ ॥ नानाकुसुमनिर्माणं बहुशोभाप्रदं परम् । सुरलोकप्रियं शुद्धं माल्यं देवि प्रगृह्यताम् ॥ ३७ ॥ हे देवि ! अनेक मांति के पुष्पों से विभूषित, बहुशोभाकारी, देव-समूहों की प्रिय एवं शुद्ध इस माला को स्वीकार करो ॥ ३७ ॥ शुद्धिदं शुद्धिरूपं च सर्वमङ्गलमङ्गलम् । गन्धवस्तूद्भवं रम्यं गन्धं देवि प्रगृह्यताम् ॥ ३८ ॥ हे देवि ! शुद्धिप्रद, शुद्धिरूप, सभी मंगलों के मंगल, सुगन्धित वस्तु से उत्पन्न और रम्य इस गन्ध को स्वीकार करो ॥ ३८ ॥ पुण्यतीर्थोदकं चैव विशुद्धं शुद्धिदं सदा । गृह्यतां कृष्णकान्ते त्वं रम्यमाचमनीयकम् ॥ ३९ ॥ हे कृष्णकान्ते ! इस आचमन-जल को स्वीकार करो, जो पुण्यतीर्थ का जल, विशुद्ध, सदा शुद्धिप्रद और रमणीक है ॥ ३९ ॥ रत्नसारैः संग्रथितं पुष्पचन्दनसंयुतम् । रत्नभूषणभूषाढ्यं सुतल्पं प्रतिगृह्यताम् ॥ ४० ॥ रत्नों के सार भाग से सिली हुई, पुष्प चन्दन युक्त एवं रत्नों के भूषणों से सुशोभित, इस सुन्दर शय्या को ग्रहण करो ॥ ४० ॥ यद्यद्द्रव्यमपूर्वं च पृथिव्यामतिदुर्लभम् । देवभूपाढ्यभोग्यं च तद्द्रव्यं देवि गृह्यताम् ॥ ४१ ॥ हे देवि ! इस धरातल पर जो-जो अपूर्वअत्यन्त दुर्लभ तथा देवताओं और राजाओं के उपभोग के योग्य द्रव्य है उसे स्वीकार करो ॥ ४१ ॥ द्रव्याण्येतानि दत्त्वा वै मूलेन च पुरंदरः । मूलं जजाप भक्त्या च दशलक्षं विधानतः ॥ ४२ ॥ इस भांति इन्द्र ने मूलमंत्र द्वारा इन वस्तुओं को उन्हें समर्पित करके भक्तिपूर्वक सविधान मूलमंत्र का दश लाख जप किया ॥ ४२ ॥ जपेन दशलक्षेण मन्त्रसिद्धिर्बभूव ह । मन्त्रश्च ब्रह्मणा दत्तः कल्पवृक्षश्च सर्वदा ॥ ४३ ॥ दशलाख जप करने से मंत्र की सिद्धि हो गई । इस प्रकार ब्रह्मा ने मन्त्र और कल्पवृक्ष सर्वदा के लिए दे दिया ॥ ४३ ॥ लक्ष्मीर्माया कामवाणी ततः कमलवासिनी । स्वाहान्तो वैदिको मन्त्रराजोऽयं द्वादशाक्षरः ॥ ४४ ॥ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा । कुबेरोऽनेन मन्त्रेण सर्वैश्वर्यमवाप्तवान् ॥ ४५ ॥ राजराजेश्वरो दक्षः सावर्णिर्मनुरेव च । मङ्गलोऽनेन मन्त्रेण सप्तद्वीपवतीपतिः ॥ ४६ ॥ प्रियव्रतोत्तानपादौ केदारो नृप एव च । एते च सिद्धा राजेन्द्रा मन्त्रेणानेन नारद ॥ ४७ ॥ सिद्धे मन्त्रे महालक्ष्मीर्ददौ शक्राय दर्शनम् । रत्नेन्द्रव्यूहखचितविमानस्था वरप्रदा ॥ ४८ ॥ सप्तद्वीपवतीं पृथ्वीं छादयन्ती त्विषा च सा । श्वेतचम्पकवर्णाभा रत्नभूषणभूषिता ॥ ४९ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकारिका । बिभ्रती रत्नमालां च कोटिचन्द्रसमप्रभा ॥ ५० ॥ दृष्ट्वा जगत्प्रसूं शान्तां तां तुष्टाव पुरंदरः । पुलकाडित्कतसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रः कृताञ्जलिः ॥ ५१ ॥ ब्रह्मणा च प्रदत्तेन स्तोत्रराजेन संयतः । सर्वाभीष्टप्रदेनैव वैदिकेनैव तत्र च ॥ ५२ ॥ लक्ष्मी, माया, कामवाणी, अनन्तर कमलवासिनी शब्द के अन्त में स्वाहा शब्द लगा देने से यह वैदिक द्वादशाक्षर मंत्र राज हो जाता है--'श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा' । इसी मंत्र द्वारा कुबेर ने समस्त ऐश्वर्य प्राप्त किया तथा राजराजेश्वर, हो गये, दक्ष सावणि भी मनु हो गये और मंगल सातों द्वीप वाली पृथ्वी के अधिपति हुए । हे नारद ! प्रियव्रत, उत्तानपाद और केदारनाथ आदि ये सभी राजेन्द्र इसी मंत्र द्वारा सिद्ध हुए हैं । उपरान्त मंत्र के सिद्ध होने पर महालक्ष्मी ने इन्द्र को साक्षात् दर्शन दिया, जो चारों ओर रत्नेन्द्र समूहों से खचित विमान पर स्थित, वर देनेवाली और अपनी कान्ति से इस सातों द्वीपवालो पृथ्वी को आच्छादित किए थी तथा श्वेत चम्पा पुष्प के समान शरीर की कान्ति एवं रत्नों के भूषणों से सुशोभित, मन्दहास करती हुई प्रसन्न मुख, भक्तों पर अनुग्रह करने वाली और रत्नों की माला धारण किए करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिपूर्ण थी । इस प्रकार शान्त स्वरूपवाली उस जगज्जननी को देख कर समस्त अंगों में रोमांचित, आँखों में आँसू भरे एवं हाथ जोड़े इन्द्र ने ब्रह्मा के द्वारा प्रदत्त सकलकामनादायक वैदिक स्तोत्रराज द्वारा स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ४४-५२ ॥ इन्द्र उवाच ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः । कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नमः ॥ ५३ ॥ इन्द्र बोले-कमलवासिनी को नमस्कार है, नारायणी को बार-बार नमस्कार है । भगवान् कृष्ण की प्रिया तत्त्वस्वरूप पद्मा को, बार-बार नमस्कार है ॥ ५३ ॥ पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः । पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥ ५४ ॥ कमल के पत्ते के समान नेत्रवाली और कमलमुखी को बार-बार नमस्कार है । कमलासनवाली तथा उस कमलनयनी वैष्णवी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५४ ॥ सर्वसंपत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नमः । सुखदायै मोक्षदाय सिद्धिदायै नमो नमः ॥ ५५ ॥ समस्त सम्पत्तिस्वरूप और सभी कुछ देने वाली को नमस्कार है सुखप्रद, मोक्षदायिनी तथा सिद्धि देने वाली को बार-बार नमस्कार है ॥ ५५ ॥ हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः । कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ॥ ५६ ॥ भगवान् की भक्ति देने वाली एवं हर्षदायिनी को नमस्कार है । भगवान् कृष्ण के वक्षःस्थल पर रहने वाली एवं कृष्णस्वामिनी को नमस्कार है ॥ ५६ ॥ कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नाढ्यायै नमो नमः । संपत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ॥ ५७ ॥ भगवान् कृष्ण की शोभास्वरूप और रत्नभूषिता को नमस्कार है । सम्पत्ति की अधिष्ठात्री महादेवी को नमस्कार है ॥ ५७ ॥ सस्याधिष्ठातृदेव्यै च सस्यलक्ष्म्यै नमो नमः । नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥ ५८ ॥ फले-फले क्षेत्रों की अधिष्ठात्री देवी तथा सस्य-लक्ष्मी को नमस्कार है । बुद्धि स्वरूपवाली तथा बुद्धिदायिनी को नमस्कार है ॥ ५८ ॥ वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्लक्ष्मीः क्षीरोदसागरे । स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥ ५९ ॥ गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता । सुरभिः सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥ ६० ॥ अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये । स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥ ६१ ॥ वैकुण्ठ में तुम महालक्ष्मी हो एवं क्षीरसागर में लक्ष्मी, इन्द्र के घर में स्वर्गलक्ष्मी, राजघरों में राजलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी, उनके घर की देवता, गौओं की माता सुरभि, यज्ञ-पत्नी दक्षिणा, देवमाता अदिति और कमलगृह में तुम कमला हो । तुम हवि प्रदान करते समय स्वाहा एवं कव्य दान में स्वधा हो ॥ ५९-६१ ॥ त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुंधरा । शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥ ६२ ॥ क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना । परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥ ६३ ॥ तुम ही विष्णुस्वरूप और समस्त की आधार वसुन्धरा हो । शुद्ध सत्त्ववाली तुम नारायणपरायण रहती हो । तुम.क्रोध, हिंसा से रहित, वरदायिनी, शुभमुखी, परमार्थ देने वाली एवं हरिदास्य देने वाली सर्वश्रेष्ठ हो ॥ ६२-६३ ॥ यया विना जगत्सर्वं भस्मोभूतमसारकम् । जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥ ६४ ॥ जिसके बिना समस्त संसार भस्मीभूत और सारहीन मालूम होता है, तथा जिसके बिना यह समस्त विश्व जीवित रहते हुए भी मृतक एवं शव के समान हो जाता है ॥ ६४ ॥ सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी । यया विना न संभाष्यो बान्धवैर्बान्धवः सदा ॥ ६५ ॥ वही तुम सब में श्रेष्ठ और समस्तबान्धव रूप हो । तुम्हारे बिना भाई-भाई में भी सदा बोल-चाल नहीं होता है ॥ ६५ ॥ त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः सबान्धवः । धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥ ६६ ॥ एवं तुमसे हीन रहने पर (मनुष्य) बन्धुहीन और तुमसे युक्त रहने पर बन्धुओं से युक्त रहता है । इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की तुम कारण रूप हो ॥ ६६ ॥ स्तनंधयानां त्वं माता शिशूनां शैशवे यथा । तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वविश्वतः ॥ ६७ ॥ शैशवावस्था में दूध पीने वाले बच्चों की माता की भांति तुम सारे विश्व की सर्वदा माता हो ॥ ६७ ॥ त्यक्तस्तनो मातृहीनः स चेज्जीवतिदैवतः । त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥ ६८ ॥ क्योंकि माता का स्तन छूट जाये, मातृहीन हो जाये, तो भी कदाचित् दैवयोग से जीवित रह सकता है किन्तु तुमसे रहित होकर कोई भी मनुष्य निश्चित ही जीवित नहीं रह सकता ॥। ६८ ॥ सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मे प्रसन्ना भवाम्बिके । वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥ ६९ ॥ अतः हे अम्बिके ! अत्यन्त प्रसन्नस्वरूप होने के कारण तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ । हे सनातनि ! वैरियों के अधीन हुए मेरे विषयों (वस्तुओं) को मुझे पुनः दिलाने की कृपा करो ॥ ६९ ॥ वयं यावत्त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुकाः । सर्वसंपद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥ ७० ॥ हे हरिप्रिये ! हम लोग जब तक तुमसे रहित हैं तब तक बन्धुओं से भी हीन, भिक्षुक तथा सभी सम्पत्तियों से हीन हैं ॥ ७० ॥ राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि । कीर्तिं देहि धनं देहि पुत्रान्मह्यं च देहि वै ॥ ७१ ॥ अतः हे सुरेश्वरि ! हमें राज्यसमेत थी और बल प्रदान करो । कति और धन समेत मुझे अनेक पुत्र भी प्रदान करो ॥ ७१ ॥ कामं देहि मतिं देहि भोगान्देहि हरिप्रिये । ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥ ७२ ॥ हे हरिप्रिये ! हमारी कामनाएं पूरी करो । हमें मति (बुद्धि) प्रदान करो । भोगों को दो तथा ज्ञान-धर्म के साथ अभिलषित समस्त सौभाग्य प्रदान करो ॥ ७२ ॥ सर्वाधिकारमेवं वै प्रभावं च प्रतापकम् । जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ॥ ७३ ॥ इसी प्रकार समस्त अधिकार, प्रभाव, प्रताप, युद्ध में जय-पराक्रम और परमैश्वर्य हमें प्रदान करो ॥ ७३ ॥ इत्युक्त्वा तु महेन्द्रश्च सर्वेः सुरगणैः सह । ननाम साश्रुनेत्रोऽयं मूर्ध्ना चैव पुनः पुनः ॥ ७४ ॥ इतना कह कर महेन्द्र ने समस्त देवों समेत आँखों में आँसू भरे शिर से उन्हें बार-बार नमस्कार किया ॥ ७४ ॥ बह्मा च शङ्करश्चैव शेषो धर्मश्च केशवः । सर्वे चक्रुः परीहारं सुरार्थे च पुनः पुनः ॥ ७५ ॥ ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्मराज और केशव आदि सभी ने देवों के हितार्थ बार-बार अपराध क्षमा करने के लिए आग्रह किया ॥ ७५ ॥ देवेभ्यश्च वरं दत्त्वा पुष्पमालां मनोहराम् । केशवाय ददौ लक्ष्मीः संतुष्टा सुरसंसदि ॥ ७६ ॥ उपरान्त उस देव के हितार्थ लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान और भगवान् केशव को मनोहर पुष्पमाला प्रदान की ॥ ७६ ॥ ययुर्देवाश्च संतुष्टाः स्वं स्वं स्थानं च नारद । देवी ययौ हरेः क्रोडं हृष्टा क्षीरोदशायिनः ॥ ७७ ॥ हे नारद ! अन-तर देवता लोग उसी समय हर्षित होकर अपने-अपने स्थान को चले गये और उसी समय से देवी (लक्ष्मी) भी क्षीरसागरशाय । भगवान् की गोद में सन्तुष्ट होकर निवास करने लगीं ॥ ७७ ॥ ययतुस्तौ स्वस्वगृहं ब्रह्मेशानौ च नारद । दत्त्वा शुभाशिषं तौ च देवेभ्यः प्रीतिपूर्वकम् ॥ ७८ ॥ हे नारद ब्रह्मा और शिव भी देवों को प्रीतिपूर्वक शुभ आशिष प्रदान कर अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ७८ ॥ इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । कुबेरतुल्यः स भवेद्राजराजेश्वरो महान् ॥ ७९ ॥ जो मनुष्य महापुण्यस्वरूप इस स्तोत्र का पाठ तीनों संध्याओं में करेगा, वह कुबेर की भांति महान् राजराजेश्वर होगा ॥ ७९ ॥ सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत्सोऽपि कल्पतरुर्नरः । पञ्चलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ८० ॥ यदि वह पुरुष सिद्ध-स्तोत्र का पाठ करेगा, तो कल्पवृक्ष (की भाँति सर्वश्रेष्ठ) होगा । इसका पाँच लाख जप करने से मनुष्यों को स्तोत्र-सिद्धि हो जाती है ॥ ८० ॥ सिद्धं स्तोत्रं यदि पक्ष्येमासमेकं च संयतः । महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशयः ॥ ८१ ॥ यदि एक मास तक इस सिद्ध स्तोत्र का पाठ संयमपूर्वक करेगा तो वह महासुखी राजेन्द्र होगा, इसमें संशय नहीं ॥ ८१ ॥ नारद उवाच पुष्पं दुर्वाससा दत्तभक्ति वै यस्य मस्तके । तस्य सर्वा पुरः पूजेत्युक्तं पूर्वं त्वया प्रभो ॥ ८२ ॥ तदेव स्थापितं पुष्पं गजेन्द्रस्यैव मस्तके । यतो जन्म गणेशस्य स च मत्तो वनं गतः ॥ ८३ ॥ मूर्ध्नि च्छिन्ने गणपतेः शनेर्दृष्ट्या पुरा मुने । तत्स्कन्धे योजयामास हस्तिमस्तं हरिः स्वयम् ॥ ८४ ॥ अधुनोक्तं देवषट्कं संपूज्य च पुरंदरः । पूजयामास लक्ष्मीं च क्षीरोदे च सुरैः सह ॥ ८५ ॥ अहो पुराणवक्तृणां दुर्बोधं वचनं नृणाम् । सुव्यक्तमस्य सिद्धान्तं वद वेदविदां वर ॥ ८६ ॥ नारद बोले- हे प्रभो ! आपने यह पहले ही कहा है कि दुर्वासा का दिया हुआ वह पुष्प जिसके मस्तक पर विराजमान रहेगा, उसकी सब के सामने पहले पूजा होगी फिर वही पुष्प गजराज के मस्तक पर (इन्द्र ने) रखा था, जिससे गणेश जी का (गजानन रूप में) जन्म हुआ । अनन्तर वह गजेन्द्र' मत्त होकर अन्य घोर वन में चला गया था । हे मुने ! पूर्व काल में शनि के दृष्टिपात करने पर गणपति का मस्तक कट गया था, जिससे भगवान् ने स्वयं उसी हाथी का मस्तक उनके कन्धे पर जोड़ दिया था । और अब इस समय यह कह रहे हैं कि-'इन्द्र ने देवों समेत क्षीरसागर में छह देवों की पूजा के उपरान्त लक्ष्मी की भी पूजा की थी । हे वेदविदों में श्रेष्ठ ! इन्हीं बातों के कारण पुराणवक्ताओं की बातें मनुष्यों के लिए दुर्बोध होती है । अतः इस सिद्धान्त को सुस्पष्ट बताने की कृपा करें ॥ ८२-८६ ॥ नारायण उवाच यदा शशाप शक्रं च दुर्वासा मुनिपुंगवः । तदा नास्त्येव तज्जन्म पूजाकाले बभूव सः ॥ ८७ ॥ सुचिरं दुःखिता देवा बभ्रमुर्ब्रह्मशापतः । पश्चात्प्रापुश्च तां लक्ष्मीं वरेण च हरेर्मुने ॥ ८८ ॥ नारायण बोले-जिस समय मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दिया था, उस समय गणेश का जन्म नहीं हुआ था, वे पूजा के समय उत्पन्न हुए थे । हे मुने ! ब्रह्म-शाप के कारण देवगण अति चिरकाल तक दुःखी होकर इधर-उधर घूम रहे थे । पश्चात् भगवान् के वरदान द्वारा उन्होंने लक्ष्मी प्राप्त की ॥ ८७-८८ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्म्युपाख्यानेलक्ष्मोपूजाविधानं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में लक्ष्मीपूजाविधान नामक उन्तालीसवां अध्याय समाप्त ॥ ३९ ॥ |