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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चत्वारिंशोऽध्यायः स्वाहोपाख्याने स्वाहाजन्मादिकथनम् -
स्वाहा के जन्म आदि का कथन - नारद उवाच नारायण महाभाग समश्चैव त्वया प्रभो । रूपेण च गुणैश्चैव यशसा तेजसा त्विषा ॥ १ ॥ त्वमेव ज्ञानिनां श्रेष्ठः सिद्धानां योगिनां तथा । तपस्विनां मुनीनां च परो वेदविदां तथा । महालक्ष्म्या उपाख्यानं विज्ञातं महदद्भुतम् ॥ २ ॥ अन्यत्किचिदुपाख्यानं निगूढं वद सांप्रतम् । अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः । अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥ ३ ॥ नारद बोले- हे नारायण, हे महाभाग ! हे प्रभो ! रूप, गुण, यश, तेज और कान्ति में अपने समान आप ही हो । तुम्ही ज्ञानियों, सिद्धों, योगियों, तपस्वियों, मुनियों और वेद-वेत्ताओं में परम श्रेष्ठ हो । मैंने महालक्ष्मी का यह महान् एवं अद्भुत उपाख्यान आपके द्वारा जान लिया । अब इस समय कोई अन्य गूढ़, उपाख्यान बताने की कृपा करें, जो अति गोपनीय, सबके उपयुक्त, पुराणों में अप्रकाशित, वेदोक्त और धर्मपूर्ण हो ॥ १-३ ॥ नारायण उवाच नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः । श्रुतौ कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन्सुदुर्लभम् ॥ ४ ॥ नारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! अनेक भांति के आख्यान हैं, जो पुराणों में प्रकाशित हैं । वेदों में इस भांति के अनेक और गूढ़ उपाख्यान हैं, जो अन्य के लिए अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ४ ॥ तेषु यत्सारभूतं च श्रोतुं किं वा त्वमिच्छसि । तन्मे ब्रूहि महाभाग पश्चाद्वक्ष्यामि तत्पुनः ॥ ५ ॥ उनमें भी जो उनका सारभूत है, क्या तुम उन्हें सुनना चाहते हो ? हे महाभाग ! यदि चाहते हो तो, कहो, मैं उन्हें फिर सुनाने को तैयार हूँ ॥ ५ ॥ नारद उवाच स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु । पितृदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा ॥ ६ ॥ एतासां चरितं जन्म फलं प्राधान्यमेव च । श्रोतुमिच्छामि ते वक्त्राद्वद वेदविदां वर ॥ ७ ॥ नारद बोले-देवों के उद्देश्य से सभी कर्मों में हवि दान में स्वाहा प्रशस्त मानी गयी हैं और पितरों के उद्देश्य से (कव्धदान में) स्वधा; किन्तु दक्षिणा की प्रशंसा सब से अधिक है; अतः इन सबका चरित, जन्म तथा प्रधान फल आपके मुख से सुनना चाहता हूँ । आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं इसलिए बताने की कृपा करें ॥ ६-७ ॥ सौतिरुवाच नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः । कथां कथितुमारेभे पुराणोक्तां पुरातनीम् ॥ ८ ॥ सौति बोले--नारद की ऐसी बातें सुन कर मुनिश्रेष्ठ नारायण ने हंसते हुए पुराण सम्बन्धी पुरनी कथ ओं को कहना आरम्भ किया ॥ ८ ॥ नारायण उवाच सृष्टेः प्रथमतो देवाश्चाऽहारार्थं ययुः पुरा । ब्रह्मलोके ब्रह्मसभामगम्यां सुमनोहराम् ॥ ९ ॥ नारायण बोले--पूर्वकाल में सृष्टि के अनन्तर देवों ने आहार के अन्वेषणार्थ ब्रह्मलोक में ब्रह्मा की सभा में पहुँचे जो दूसरों के लिए अगम्य और अत्यन्त मनोहर थी ॥ ९ ॥ गत्वा निवेदनं चक्रुर्मुने त्वाहारहेतुकम् । ब्रह्मा श्रुत्वा प्रतिज्ञाय सिषेवे श्रीहरेः पदम् ॥ १० ॥ हे मुने ! वहाँ पहुँचकर उन लोगों ने अपने आहारार्थ ब्रह्मा से निवेदन किया । अनन्तर ब्रह्मा ने भी उनकी बातें सुनकर उसकी पूर्ति के लिए प्रतिज्ञा की और तदर्य भगवान् के चरण की आराधना आरम्भ की ॥ १० ॥ यज्ञरूपो हि भगवगन्कलया च बभूव सः । यज्ञे यद्यद्धविर्दानं दत्तं तेभ्यश्च वेधसा ॥ ११ ॥ हविर्ददति विप्राश्च भक्ता च क्षत्रियादयः । सुरा नैव प्राप्नुवन्ति तद्दानं मुनिपुंगव ॥ १२ ॥ तब भगवान् अपनी कला (अंश) द्वारा यज्ञ रूप होकर अवतीर्ण हुए । यज्ञ में जिस-जिस हवि का दान किया जाता है, ब्रह्मा ने देवों के निमित्त सब कुछ किया । हे मुनिपुंगव ! यज्ञ में भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, क्षत्रिय लोगों ने हवि का दान किया, किन्तु वह दान देवों को न प्राप्त हो सका ॥ ११-१२ ॥ देवा विषण्णास्ते सर्वे तत्सभां च पुनर्ययुः । गत्वा निवेदनं चक्रुराहाराभावहेतुकम् ॥ १३ ॥ अनन्तर देवों ने खिन्न मन होकर पुनः ब्रह्म-सभा के लिए प्रस्थान किया और वहाँ पहुँच कर उनसे अपने आहार न मिलने का कारण निवेदन किया ॥ १३ ॥ ब्रह्मा श्रुत्वा तु मनसा श्रीकृष्णं शरणं ययौ । प्रकृतिं पूजयामास ध्यायन्नेव तदाज्ञया ॥ १४ ॥ उपरान्त ब्रह्मा उनकी बातें सुनकर मन से भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में प्राप्त हुए और उनकी आज्ञा से ध्यान करते हुए उन्होंने प्रकृति की पूजा को ॥ १४ ॥ प्रकृतिः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूपिणी । बभूव दाहिका शक्तिरग्नेः स्वाहास्वरूपिणी ॥ १५ ॥ पश्चात् समस्त शक्ति का स्वरूप धारण करने वाली वह प्रकृति अपनी कला (अंश) से अग्नि की दाहिका (जलाने वाल । ) शक्ति होकर उत्पन्न हुई, जिसे स्वाहास्वरूप कहा जाता है ॥ १५ ॥ ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभान्यक्कारकारिणी । अतीव सुन्दरी रामा रमणीया मनोहरा ॥ १६ ॥ ग्रीष्मकालीन-मध्याह्न के सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करने वालः उ की कान्ति थी । इस प्रकार अत्यन्त सुन्दरी, रमणीया और मनोहर उसकी वह मूर्ति थी ॥ १६ ॥ ईषहास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकारिणी । उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने वरं वृणु ॥ १७ ॥ मन्द मुसुकान करती हुई उस प्रसन्नवदना ने, जो भक्तों पर (रुदा) कृषा करतः रहत है, ब्रह्म के आगे स्थित होकर उनसे कहा-ह पायोने ! वर की याचना करो' ॥ १७ ॥ विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा संभमात्समुवाच ताम् ॥ १८ ॥ ब्रह्मा ने भी उनकी बातें सुन कर घबराहट के साथ उनसे कहना आरम्भ किया ॥ १८ ॥ ब्रह्मोवाच त्वमग्नेर्दाहिकाशक्तिर्भवपत्नी च सुन्दरी । दग्धुं न शक्तः स्वहुतं हुताशश्च त्वया विना ॥ १९ ॥ अन्ना बोले-तुम अग्नि की दाहिका शक्ति के रूप में उनको सुन्दरी पत्नी बनो । क्योंकि तुम्हारे बिना अग्निदेव अपने में की गई हवन वस्तु को जलाने में असमर्थ हैं ॥ १९ ॥ त्वन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यद्दास्यति हविर्नरः । सुरेभ्यस्तत्प्राप्नुवन्ति सुराः सानन्दपूर्वकम् ॥ २० ॥ मन्त्रों के अन्त में तुम्हारे नाम का उच्चा ण कर मनुष्य, देवों के निमित्त जो हवि प्रदान करेंगे, वह देवों को अत्यानन्दपूर्वक प्राप्त होगा ॥ २० ॥ अग्नेः संपत्स्वरूपा च श्रीरूपा च गृहेश्वरी । देवानां पूजिता शश्वन्नरादीनां भवाम्बिके ॥ २१ ॥ हे अमि.के ! तुम अग्नि को सम्मत्ति स्वरूप, श्रीरूप और गृहेश्वरी (गृहस्वामिनी) तथा देवों और मनुष्यों को निरन्तर पूज्या बनो ॥ २१ ॥ ब्रह्मणश्च वचः श्रुत्वा सा विषण्णा बभूव ह । तमुवाच स्वयं देवी स्वाभिप्रायं स्वयंभुवम् ॥ २२ ॥ इस भौति ब्रह्मा को यह बात सुनकर वह देवी खिन्नमन हो गयी और अपने अभिप्राय को स्वयं उसने स्वयंभू (ब्रह्मा) से कहना आरम्भ किया ॥ २२ ॥ स्वाहोवाच अहं कृष्णं भजिष्यामि तपसा सुचिरेण च । ब्रह्मंस्तदन्यद्यत्किंचित्स्वप्नवद्भ्रम एव च ॥ २३ ॥ स्वाहा बोली-हे ब्रह्मन् ! मैं अति चिरकाल तक तप करके भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त करूंगी और उन्हीं की सेवा करूँगी, क्योंकि उनसे भिन्न अन्य जो कुछ है, वह स्वप्न की भाँति भ्रमात्मक है ॥ २३ ॥ विधाता जगतां त्वं च शंभुर्मृत्युञ्जयः प्रभुः । बिभर्ति शेषो विश्वं च धर्मः साक्षी च देहिनाम् ॥ २४ ॥ (जिनके प्रसाद से) तुम जगत् के विधाता, शिव मृत्युंजय, शेष समस्त विश्व के पालक और धर्म सभी प्राणियों के साक्षी हैं ॥ २४ ॥ सर्वाद्यपूज्यो देवानां गणेषु च गणेश्वरः । प्रकृतिः सर्वसूः सर्वैः पूजिता यत्प्रसादतः ॥ २५ ॥ गणेश सभी देवों में आदि पूजनीय, तथा गणों में गणेश्वर हुए और जिनकी कृपा से सब को उत्पन्न करने वाली प्रकृति सब के द्वारा पूजित हुई है ॥ २५ ॥ ऋषयो मुनयश्चैव पूजिता यं निषेव्य च । तत्पादपद्मं ब्रह्मैक्यभावाद्वै चिन्तयाम्यहम् ॥ २६ ॥ एवं जिनकी सेवा कर के ऋषि-मुनि लोग पूजित हुए उन्हीं के चरण-कमल का मैं ब्रह्मक्यभाव से चिन्तन किया करती हूँ ॥ २६ ॥ पद्मास्या पाद्ममित्युक्त्वा पद्मलाभानुसारतः । जगाम तपसे पाद्मे पद्मादीशस्य पद्मजा ॥ २७ ॥ कमलानना (स्वाहा) ने इतना कमलोत्पन्न ब्रह्मा से कह कर ब्रह्मा की आज्ञा से कमलों के तालाब में कमल में तप के हेतु प्रस्थान किया ॥ २७ ॥ तपस्तेपे लक्षवर्षमेकपादेन पद्मजा । तदा ददर्श श्रीकृष्णं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥ २८ ॥ स्वाहा ने वहाँ एक चरण से स्थित होकर एक लाख वर्ष तक तप किया । अनन्तर उसे प्रकृति से परे एवं निर्गुण भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ ॥ २८ ॥ अतीव कमनीयं च रूपं दृष्ट्वा च सुन्दरी । मूर्च्छां संप्राप कामेन कामेशस्य च कामुकी ॥ २९ ॥ वह सुन्दरी उनका अतिसुन्दर रूप देखकर कामेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की कामुकी बनी और काम उत्पन्न होने के नाते उस समय मूच्छित भी हो गय । ॥ २९ ॥ विज्ञाय तदभिप्रायं सर्वज्ञस्तामुवाच सः । स्वक्रोडे च समुत्थाप्य क्षीणाङ्गीं तपसा चिरम् ॥ ३० ॥ किन्तु सर्वज्ञ (भगवान्) ने उसके अभिप्राय को जान कर चिरकाल तक तप करने के कारण उस क्षीणांगी को अपनी गोद में बैठा लिया और उससे कहा ॥ ३० ॥ श्रीकृष्ण उवाच वाराहे च त्वमंशेन मम पत्नी भविष्यसि । नाम्ना नाग्नजिती कन्या कान्ते नग्नजितस्य च ॥ ३१ ॥ अधुनाऽग्नेर्दाहिका त्वं भव पत्नी च भाविनि । मन्त्राङ्गरूपा पूता च मत्प्रसादाद्भविष्यसि ॥ ३२ ॥ वह्निस्त्वां भक्तिभावेन संपूज्य च गृहेश्वरीम् । रमिष्यते त्वया सार्धं रामया रमणीयया ॥ ३३ ॥ इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे देवो देवीमाश्वास्य नारद । तत्राऽऽजगाम संत्रस्तो वह्निर्ब्रह्मनिदेशतः ॥ ३४ ॥ ध्यानैश्च सामवेदोक्तैर्ध्यात्वा तां जगदम्बिकाम् । संपूज्य परितुष्टाव पाणिं जग्राह मन्त्रतः ॥ ३५ ॥ तदा दिव्यं वर्षशतं स रेमे रामया सह । अतीव निर्जने रम्ये संभोगसुखदे सदा ॥ ३६ ॥ बभूव गर्भस्तस्याश्च हुताशस्यैव तेजसा । तद्दधार च सा देवीं दिव्यं द्वादशवत्सरम् ॥ ३७ ॥ ततः सुषाव पुत्रांश्च रमणीयान्मनोहरान् । दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान्क्रमेण च ॥ ३८ ॥ ऋषयो मुनयश्चैव ब्राह्मणाः क्षत्रियादयः । स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्ददति नित्यशः ॥ ३९ ॥ स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् । सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य ब्रह्मन्ग्रहणमात्रतः ॥ ४० ॥ विषहीनो यथा सर्पो वेदहीनो यथा द्विज । पतिसेवाविहीना स्त्री विद्याहीनो यथा नरः ॥ ४१ ॥ फलशाखाविहीनश्च यथा वृक्षो हि निन्दितः । स्वाहाहीनस्तथा मन्त्रो न द्रुतं फलदायकः ॥ ४२ ॥ परितुष्टा द्विजाः सर्वे देवाः संप्रापुराहुतिम् । स्वाहान्तेनैव मन्त्रेण सफलं सर्वकर्म च ॥ ४३ ॥ इत्येवं वर्णितं सर्व स्वाहोपाख्यानमुत्तमम् । सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥ श्रीकृष्ण बोले- हे कान्ते ! वराहावतार के समय तुम मेरे अंश से नग्नजित के यहाँ नाग्नजिती नामक कन्या होकर मेरी पत्नी बनोगी । हे भाविनि ! इस समय तुम अग्नि की दाहिमा पत्नी बन जाओ और तुम मेरी कृपा से मन्त्राङ्ग रूप एवं पवित्र रहोगी । अग्नि तुम्हें अपनी गहेश्वरी बना कर भक्ति-भाव से तुम्हारी पूजा करके तुम सुन्दरी रमणी के साथ सानन्द रमण करेंगे । हे नारद ! नारायण देव उससे इस प्रकार कह कर अन्तहित हो गए और ब्रह्मा की आज्ञा से वहाँ भयभीत होते हुए अग्नि पहुँच गये । सामवेदोक्त ध्यान द्वारा अग्नि ने उस जगदम्बिका का ध्यान, पूजन और भली भाँति स्तुति की । अनन्तर मन्त्र द्वारा उसका पाणिग्रहण (विवाह) किया । पश्चात् अतिशून्य एवं रमणीय स्थान में, जो सम्भोग में सदा सुखदायक था, उस सुन्दरी के साथ दिव्य सौ वर्ष तक रमण किया । उपरान्त अग्नि के तेज को उसने गर्भ रूप में धारण किया, जो दिव्य बारह वर्ष तक गर्भ में सुरक्षित था । अनन्तर दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य एवं आहवनीय आदि रमणीय एवं मनोहर पुत्रों को क्रमशः उत्पन्न किया । इस प्रकार (तभी से) ऋषिगण, मुनिगण, ब्राह्मण वृन्द ने स्वाहान्त मन्त्र का उच्चारण कर नित्य हविन करना आरम्भ किया । हे ब्रह्मन् ! जो स्वाहायुक्त मन्त्र को प्रशस्त जान कर ग्रहण करता है, उसे ग्रहण मात्र से सर्व सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । जिस प्रकार विषरहित सर्प, वेदविहान ब्राह्मण, पतिसेवा से रहित स्त्री, विद्याहीन मनुष्य और फल-शाखा रहित वृक्ष निन्दित है, उसी भांति स्वाहाहीन मंत्र शीघ्र फलदायक नहीं होता है । अतः स्वाहान्त मंत्र के उच्चारण द्वारा ब्राह्मण गण सन्तुष्ट हुए, सभी देवों को आहुति प्राप्त होने लगी और सभी कर्म सफल होने लगे । इस प्रकार स्वाहा का उत्तम आख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया, जो सुखदायक, मोक्षप्रद और सार रूप है । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ३१-४४ ॥ नारद उवाच स्वाहापूजाविधानं च ध्यानं स्तोत्रं मुनीश्वर । संपूज्य वह्निस्तुष्टाव येन तां वद मे प्रभो ॥ ४५ ॥ नारद बोले-हे मुनीश्वर ! हे प्रभो ! स्वाहा का पूजा-विधान, ध्यान, स्तोत्र तथा पूजनोपरान्त अग्नि ने जिसके द्वारा उनकी स्तुति की, वह मुझे बताने की कृपा करें ॥ ४५ ॥ नारायण उवाच ध्यानं च सामवेदोक्तं स्तोत्रं पूजविधानकम् । वदामि श्रूयतां ब्रह्मन्सावधानं निशामय ॥ ४६ ॥ नारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! सामवेदोक्त ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधान मैं कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ४६ ॥ सर्वयज्ञारम्भकाले शालग्रामे घटेऽथवा । स्वाहां संपूज्य यत्नेन यज्ञं कुर्यात्फलाप्तये ॥ ४७ ॥ फल-प्राप्ति के लिए समस्त यज्ञों के बारम्भ में शालग्राम में अथवा कलश में स्वाहा का पूजन कर के यज्ञ करना चाहिए ॥ ४७ ॥ स्वाहां मन्त्राङ्गभूतां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम् । सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे ॥ ४८ ॥ इति ध्यात्वा च मूलेन दत्त्वा पाद्यादिकं नरः । सर्वसिद्धिं लभेत्स्तुत्वा मूलं स्तोत्रं मुने शृणु ॥ ४९ ॥ मन्त्र को अंगभूत, मन्त्र-सिद्धि स्वरूप, सिद्ध एवं सिद्धप्रद और मनष्यों को कर्मफल प्रदान करने वाली स्वाहा की मैं सेवा कर रहा हूँ, ऐसा ध्यान कर के मूलमंत्र द्वारा उन्हें अर्घ्य पाद्य प्रदान तथा स्तुति करने पर मनुष्य को सर्वसिद्धि प्राप्त हो जाता है । हे मुने ! अब उनके मूल स्तोत्र को बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४८-४९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहेत्यनेन च । यः पूजयेच्च तां देवीं सर्वेष्टं लभते ध्रुवम् ॥ ५० ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं वह्निजायाय देव्यै स्वाहा' इस मन्त्र द्वारा जो उस देव की पूजा करता है उसके सभी इष्ट निश्चित सफल होते हैं । ॥ ५० ॥ वह्निरुवाच स्वाहाऽऽद्या प्रकृतेरंशा मन्त्रतन्त्राङ्गरूपिणी । मन्त्राणां फलदात्री च धात्री च जगतां सती ॥ ५१ ॥ सिद्धिस्वरूपा सिद्धा च सिद्धिदा सर्वदा नृणाम् । हुताशदाहिकाशक्तिस्तत्प्राणाधिकरूपिणी ॥ ५२ ॥ संसारसाररूपा च घोरसंसारतारिणी । देवजीवनरूपा च देवपोषणकारिणी ॥ ५३ ॥ षोडशैतानि नामानि य पठेद्युक्तिसंयुतः । सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य चेह लोके परत्र च ॥ ५४ ॥ वह्नि बोले--आद्य स्वाहा, प्रकृति की काला, मन्त्रतन्त्र का अंगस्वरूप, मंत्रो का फल देने वाली, समस्त संसार को धारण करने वालो, सती, मिडिस्वरूप, सिद्धा, मनुष्यों को सदा सिद्धि देने वाली अग्नि की दाहिका शक्ति, उन्हें उनके प्राणों से अधिक प्रिय, संमार का सार भाग, घोर संसार से तारने वाली, देवताओं का जीवन रूप, तथा उनका पालन-पोषण करने वाली ; इन सोलह नामों को जो भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसे लोक-परलोक की समस्त सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ५१-५४ ॥ नाङ्गहीनो भवेत्तस्य सर्वकर्मसु शोभनम् । अपुत्रो लभते पुत्रमभार्यो लभते प्रियाम् ॥ ५५ ॥ उसका कोई भी कार्य अंगहीन नहीं होता है । सभी कर्म सुन्दर ढंग से सफल होते हैं । इससे पुत्रहीन को पुत्र और स्त्रीविहीन को स्त्री को प्राप्ति होती है । ॥ ५५ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे स्वाहोपाख्याने स्वाहाजन्मादिकथनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक स्वाहा-उपाख्यान में स्वाहाजन्मादिकथननामक चालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४० ॥ |