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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - एकचत्वारिंशोऽध्यायः स्वाहोपाख्याने स्वधोत्पत्तितत्पूजादिकम् -
स्वधा की उत्पत्ति आदि का कथन - नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि स्वधोपाख्यानमुत्तमम् । पितॄणा वै तृप्तिकरं श्राद्धानां फलवर्धनम् ॥ १ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! मैं तुम्हें स्वधा का परमोत्तम उपायान बता रहा हूँ, जो पितरों को तृप्ति प्रदान करने वाला और श्राद्धों के फल में वृद्धि करने वाला है ॥ १ ॥ सृष्टेरादौ पितृगणान्ससर्ज जगतां विधिः । चतुरो वै मूर्तिमतस्त्रींश्च तेजः स्वरूपिणः ॥ २ ॥ जगत् के रचयित ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में पितर लोगों की रचना की-जिनमें चार मूर्तिधारी और तीन तेजः स्वरूप थे । ॥ २ ॥ सप्त दृष्ट्वा पितृगणान्सिद्धिरूपान्मनोहरान् । आहारं ससृजे तेषां श्राद्धतर्पणपूर्वकम् ॥ ३ ॥ उन सातों पितरगणों को देखकर, जो सिद्धि स्वरूप एवं मनोहर थे, ब्रह्मा ने श्राद्ध-तर्पणपूर्वक उनके आहार की रचना कः ॥ ३ ॥ स्नानं तर्पणपर्यन्तं श्राद्धान्तं देवपूजनम् । आह्निकं च त्रिसंध्यान्तं विप्राणां च श्रुतौ श्रुतम् ॥ ४ ॥ वेदों में ब्राह्मणों के लिएस्नान, तर्पण, श्राद्ध, देवपूजन और तीनों काल की संध्या आदि अह्निकः कम बताये गए हैं ॥ ४ ॥ नित्यं न कुर्याद्यो विप्रस्त्रिसंध्यं श्राद्धतर्पणम् । बलिं वेदध्वनिं सोऽपि विषहीनो यथोरगः ॥ ५ ॥ इसलिए जो ब्रह्मण नित्य तीनों काल को संध्या,श्राद्ध-तर्पण, वलिवैश्वदेव और वेदपाठ नहीं करता है, उसे विपरहित सर्व की भांति (व्यर्थ) जानना चाहिए ॥ ५ ॥ हरिसेवाविहीनश्च श्रीहरेरनिवेद्यभुक् । जन्मान्त सूतकं तस्य न कर्मार्हः स नारद ॥ ६ ॥ हे नारद ! भगवान् की सेवा से रहित और भगवान् को बिना निवेदन किए भोजन करने वाला पुरुष मरण पर्यन्त अशुद्ध रहता है, वह किसी भी कार्य के योग्य नहीं होता है ॥ ६ ॥ ब्रह्मा श्राद्धादिकं सृष्ट्वा जगाम पितृहेतवे । न प्राप्नुवन्ति पितरो ददति ब्राह्मणादयः ॥ ७ ॥ इस प्रकार ब्रह्मा ने श्राद्ध आदि की रचना कर के पितरों को सौंप दिया और ब्राह्मण आदि लोग पितरों के उद्देश्य से उन कर्मों को सुसम्पन्न भी करने लगे, किन्तु वह पितरों को प्राप्त न हो सका ॥ ७ ॥ सर्वे प्रजग्मुः क्षुधिता विषण्णा ब्रह्मणः सभाम् । सर्वे निवेदनं चक्रुस्तमेव जगतां विधिम् ॥ ८ ॥ उपरान्त सभी पितरगण क्षुधा पीड़ित होने से खिन्न मन होकर ब्रह्मा की सभा में गये और जगद्विधाता (ब्रह्मा) से उन्होंने निवेदन किया ॥ ८ ॥ ब्रह्मा च मानसीं कन्यां ससृजे तां मनोहराम् । रूपयौवनसंपन्ना शरच्चन्द्रसमप्रभाम् ॥ ९ ॥ विद्यावतीं गुणवतीमपि रूपवतीं सतीम् । श्वेतचंपकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ १० ॥ विशुद्धां प्रकृतेरंशां सस्मितां वरदां शुभाम् । स्वधाभिधानां सुरतीं लक्ष्मीं लक्षणसंयुताम् ॥ ११ ॥ शतपद्मपदन्यस्तपादपद्मं च बिभ्रतीम् । पत्नीं पितृणां पद्मास्यां पद्मजां पद्मलोचनाम् ॥ १२ ॥ पितृभ्यस्तां ददौ कन्यां तुष्टेभ्यस्तुष्टिरूपिणीम् । ब्राह्मणानां चोपदेशं चक्रे वै गोपनीयकम् ॥ १३ ॥ उसे सुनकर ब्रह्मा ने एक मानसी कन्या उत्पन्न की, जो मनोहर, रूप-यौवनसम्पन्न, शरत् तु को चन्द्रमा के समान कान्तिमती, विद्यावती, गुणवती, रूपवती, पतिव्रता, श्वेत चम्पक के समान वर्ण वाली, रत्नों के भूपणों से भूषित, अति शुद्ध, प्रकृति की कला, मन्द मुसुकाती,वरदायिनी, शुभमूर्ति एवं स्वधा नाम की थी । सुन्दर दाँतों वाली वह लक्षणों से युक्त एवं शोभा-सम्पन्न थी । शतदल कमल के चिह्न से युक्त उसके चरण-कमल थे । वह पितरों की पत्नी, कमलवदना, कमल से उत्पन्न और कमललोचना थी । उस तुष्टि रूप कन्या को उन्होंने पितरों को सौंप दिया और ब्राह्मणों को गोपनीय उपदेश भी प्रदान किया ॥ ९-१३ ॥ स्वधान्तं मन्त्रमुच्चार्य पितृभ्यो देहि चेति च । क्रमेण तेन विप्राश्च पित्रे दानं ददुः पुरा ॥ १४ ॥ किः--मंत्रों के अन्त में स्वधा जोड़ कर पितरों के उद्देश्य से (पिण्ड आदि वस्तुएँ) समर्पित करना । उसी क्रम से ब्राह्मण लोग पूर्वकाल से पितरों को दान देते आ रहे हैं । ॥ १४ ॥ स्वाहा शस्ता देवदाने पितृदाने स्वधा वरा । सर्वत्र दक्षिणा शस्ता हृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥ १५ ॥ देवों के निमित्त दान में स्वाहा, पितरों के दान में स्वधा और सभी कर्म में दक्षिणा प्रशस्त बतायी गयी है । दक्षिण रहित यज्ञ नष्टप्राय होता है ॥ १५ ॥ पितरो देवता विप्रा मुनयो मानवास्तथा । पूजां चक्रुः स्वधां शान्तां तुष्टाव परमादरम् ॥ १६ ॥ अनन्तर पितरगण, देवता, ब्राह्मण वृन्द, मुनिगण और सभी मानवों ने शान्त-स्वरूप उस स्वधा की पूजन समेत परमादर से स्तुति की ॥ १६ ॥ देवादयश्च संतुष्टाः परिपूर्णमनोरथाः । विप्रादयश्च पितरः स्वधादेवीवरेण च ॥ १७ ॥ पश्चात् स्वधा देवी के वरदान से देव आदि परम सन्तुष्ट हुए और ब्राह्मणों आदि का भी मनोरथ परिपूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं स्वधोपाख्यानमुत्तमम् । सर्वेषां वै तुष्टिकरं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १८ ॥ इस प्रकार स्वधा देवी का परमोत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया है, जो सभी को संतुष्ट रखता है, अतः अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ १८ ॥ नारद उवाच स्वधापूजाविधानं च ध्यानं स्तोत्रं महामुने । श्रोतुमिच्छामि यत्नेन वद वेदविदां वर ॥ १९ ॥ . नारद बोले-हे महामने ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! मैं स्वधा का पूजा-विधान, ध्यान और स्तोत्र सुनना चाहता हूँ, यत्नपूवक कहने की कृपा करें ॥ १९ ॥ नारायण उवाच तद्ध्यानं स्तवनं ब्रह्मन्वेदोक्तं सर्वसंमतम् । सर्वं जानासि वक्ष्ये वै ज्ञातुमिच्छसि वृद्धये ॥ २० ॥ नारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! उनका ध्यान, तथा वेदोक्त स्तुति, जो सर्वसम्मत सिद्ध है, तुम जानते हो । किन्तु (ज्ञान) वृद्धि के लिए फिर जानना चाहते हो, अतः कह रहा हूँ, सुनो ! ॥ २० ॥ शरत्कृष्णत्रयोदश्यां मघायां श्राद्धवासरे । स्वधां संपूज्य यत्नेन ततः श्राद्धं समाचरेत् ॥ २१ ॥ शरत्काल को कृष्ण त्रयोदशी के मघा (नक्षत्र) युक्त श्राद्ध-दिन में पहिले स्वधा का पूजन कर के पश्चात् श्राद्ध करना चाहिए ॥ २१ ॥ स्वधां नाभ्यर्च्य यो विप्रः श्राद्धं कुर्यादहंमतिः । न भवेत्फलभाक्सत्यं श्राद्धतर्पणयोस्तथा ॥ २२ ॥ जो अहंमानी ब्राह्मण स्वधा का बिना पूजन किए श्राद्धकर्म करता है, उसे सचमुच श्राद्ध-तर्पण का फल नहीं प्राप्त होता है ॥ २२ ॥ ब्रह्मणो मानसीं कन्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् । पूज्या पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे ॥ २३ ॥ ब्रह्मा की उस मानसी कन्या की मैं सेवा कर रहा है, जो निरन्तर अति स्थायी यौवनावस्था से युक्त, पितरों तथा देवों की पूज्या और श्राद्धों की फलदायिका है ॥ २३ ॥ इति ध्यात्वा घटे रम्ये शालग्रामेऽथवा शुभे । दद्यात्पाद्यादिकं तस्यै मूलेनेति श्रुतौ श्रुतम् ॥ २४ ॥ इस प्रकार किसी सुन्दर कलश या शुम शालग्राम की मूर्ति में स्वधा का ध्यान कर के मूल मंत्र द्वारा उसे पाद्य, अर्घ्य आदि देना चाहिए, ऐसा वेदों में सुना गया है ॥ २४ ॥ ओं ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहेति च महामनुम् । समुच्चार्य च संपूज्य स्तुत्वा तां प्रणमेद्द्विजः ॥ २५ ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधा देव्यै स्वाहा' इस महामंत्र के उच्चारणपूर्वक उसका पूजन और स्तुति कर के ब्राह्मणों को प्रणाम करना चाहिए ॥ २५ ॥ स्तोत्रं शृणु मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मपुत्र विशारद । सर्ववाञ्छाप्रदं नृणां ब्रह्मणा यत्कृतं पुरा ॥ २६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! विशारद ! ब्रह्मपुत्र ! उसका स्तोत्र सुनो, जो मनुष्यों की सभी अभिलाषाओं की सिद्धि करने वाला है और जिसे ब्रह्मा ने स्वयं पूर्व काल में बनाया था ॥ २६ ॥ ब्रह्मोवाच स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः । मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ २७ ॥ ब्रह्मा बोले-स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य तीर्थस्नान का फल प्राप्त करता है, और समस्त पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ का फलभागी होता है ॥ २७ ॥ स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् । श्राद्धस्य फलमाप्नोति बलेश्च तर्पणस्य च ॥ २८ ॥ 'स्वधा, स्वधा, स्वधा' इस प्रकार तीन बार जो उच्चारण करता है, उसे श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल प्राप्त होते हैं ॥ २८ ॥ श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः । लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः ॥ २९ ॥ श्राद्ध के समय स्वधा का स्तोत्र जो सावधान होकर सुनता है, उसे सौ श्राद्ध का पुण्य प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ २९ ॥ स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ३० ॥ तीनों संध्याओं में जो मनुष्य स्वधा शब्द का उच्चारण करता है, उसे प्रिय, विनीत सती पत्नी और गुणी पुत्र की प्राप्ति होती है ॥ ३० ॥ पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी । श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ३१ ॥ तुम पितरों के प्राणतुल्य, ब्राह्मणों के जीवन रूप, श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी और श्राद्ध आदि का फल प्रदान करने वाली हो ॥ ३१ ॥ बहिर्मन्मनसो गच्छ पितृणां तुष्टिहेतवे । संप्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ३२ ॥ पितरों की तुष्टि के लिए तुम हमारे मन से बाहर हो जाओ, इससे द्विजातियों को प्रसन्नता तथा गृहस्थों की वृद्धि होगी ॥ ३२ ॥ नित्यानित्यस्वरूपाऽसि गुणरूपाऽसि सुव्रते । आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ३३ ॥ हे सुव्रते ! तुम नित्य तथा अनित्य स्वरूप और गुण रूप हो, सृष्टि और प्रलय में तुम्हारा क्रमशः आविर्भाव (प्रकट होना) और तिरोभाव (अदृश्य होना) होता है ॥ ३३ ॥ ॐ स्वस्ति च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा । निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ३४ ॥ तुम्हीं ओं, स्वस्ति, नमः, स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा रूप हो, क्योंकि ये छहों, चारों वेदों में, कर्मनिष्ठों के लिए प्रशस्त बताये गये हैं ॥ ३४ ॥ पुराऽऽसीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी । धृता स्वोरसि कृष्णेन यतस्तेन स्वधा स्मृता ॥ ३५ ॥ पहले समय में तुम गोलोक में स्वधा नाम की गोपी और राधिका जी की सखी थीं । भगवान् कृष्ण ने तुम्हें अपने हृदय से लगाया था इसी लिए तुम्हारा 'स्वधा' नाम हुआ ॥ ३५ ॥ ध्वस्ता त्वं राधिकाशापाद्गोलोकाद्विश्वमागता । कृष्णाश्लिष्टा तया दृष्टा पुरा वृन्दावने वने ॥ ३६ ॥ और राधिका जी के शाप के कारण तुम्हें गोलोक से इस विश्व में आना पड़ा । पहले समय में जब वृन्दावन में तुम कृष्ण का आलिंगन कर रही थीं, उस समय भी राधिका जी ने देख लिया था ॥ ३६ ॥ कृष्णालिङ्गनपुण्येन भूता मे मानसी सुता । अतृप्ता सुरते तेन चतुर्णां स्वामिनां प्रिया ॥ ३७ ॥ किन्तु कृष्ण के आलिंगनजन्य पुण्य के प्रभाव से तुम हमारी मानसी कन्या हुई हो । रति में अतृप्त होने के नाते तुम्हें चार पति प्राप्त हुए हैं ॥ ३७ ॥ स्वाहा सा सुन्दरी गोपी पुराऽऽसीद्राधिकासखी । रतौ स्वयं कृष्णमाह तेन स्वाहा प्रकीर्तिता ॥ ३८ ॥ पहले समय में स्वाहा भी सुन्दरी गोपी और राधिका जी की सखी थी । रति के लिए उसने स्वयं कृष्ण से कहा था, इसीलिए उसे 'स्वाहा' कहा गया है ॥ ३८ ॥ कृष्णेन सार्धं सुचिरं वसन्ते रासमण्डले । प्रमत्ता सुरते श्लिष्टा दृष्टा सा राधया पुरा ॥ ३९ ॥ पूर्वकाल में वसन्त के समय रास-मण्डल में उसने कृष्ण के साथ अति चिरकाल तक संभोग किया था और राधिका जी ने उसे देख लिया था ॥ ३९ ॥ तस्याः शापेन सा ध्वस्ता गोलोकाद्विश्वमागता । कृष्णालिङ्गनपुण्येन समभूद्वह्निकामिनी ॥ ४० ॥ उन्हीं के शाप से गोलोक से वह संसार में आई है और कृष्ण के आलिंगनजन्य पुण्य से अग्नि की पत्नी हुई है ॥ ४० ॥ पवित्ररूपा परमा देवाद्यैर्वन्दिता नृभिः । यन्नामोच्चारणेनैव नरो मुच्येत पातकात् ॥ ४१ ॥ जो पवित्र रूप, श्रेष्ठ तथा देवों और मनुष्यों से वन्दित एवं जिसके नामोच्चारण मात्र से मनुष्य पातक से मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥ या सुशीलाभिधा गोगी पुराऽऽसीद्राधिकासखी । उवास दक्षिणे क्रोडे कृष्णस्य च महात्मनः ॥ ४२ ॥ जो पहले सुशीला नाम की गोपी और राधिका जी की सखी थी, वह महात्मा कृष्ण को दाहिनी गोद में बैठी थी ॥ ४२ ॥ प्रध्वस्ता सा च तच्छापाद्गोलोकाद्विश्वमागता । कृष्णालिङ्गनपुण्येन सा बभूव च दक्षिणा ॥ ४३ ॥ राधिका जी के शाप से उसे गोलोक से संसार में आना पड़ा और श्रीकृष्ण के आलिंगजन्य पुण्य के नाते वह दक्षिणा हुई है ॥ ४३ ॥ सा प्रेयसी रतौ दक्षा प्रशस्ता सर्वकर्मसु । उवास दक्षिणे भर्तृर्लक्षिणा तेन कीर्तिता ॥ ४४ ॥ वह प्रेयसी रति में अति दक्ष (निपुण) तथा सभी कर्मों में प्रशस्त है और पति की दक्षिण (दाहिनी) गोद में रहने के कारण उसे 'दक्षिणा' कहा गया है ॥ ४४ ॥ गोप्यो बभूवुस्तिस्रो वै स्वधा स्वाहा च दक्षिणा । कर्मिणां कर्मपूर्णार्थं पुरा चैवेश्वरेच्छया ॥ ४५ ॥ इस प्रकार कर्मनिष्ठ प्राणियों के कर्म सफल करने के लिए ईश्वर की इच्छा से तीन गोपियाँ स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा हुई ॥ ४५ ॥ इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि । तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साऽऽविर्बभूव ह ॥ ४६ ॥ इस प्रकार ब्रह्मलोक की उस सभा में इतना कह कर ब्रह्मा चुप हो गये, उसी समय सहसा स्वधा का आविर्भाव (साक्षात् दर्शन) हुआ ॥ ४६ ॥ तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् । तां संप्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ॥ ४७ ॥ अनन्तर उन्होंने वह कमलम्खी कन्या पितरों को सौंप दी, जिसे प्राप्त कर पितर गण अति हर्षित होकर चले गये ॥ ४७ ॥ स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः । स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ ४८ ॥ इस पुण्यदायक स्वधा-स्तोत्र को जो एकाग्र चित्त से सुनता है, वह समस्त तीर्थों का स्नान-फल और वेदों का पाठ-फल प्राप्त करता है ॥ ४८ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्तितत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक स्वधोपाख्यान में स्वधा की उत्पत्ति और पूजा आदि कथन नामक इकतालीसवां अध्याय समाप्त ॥ ४१ ॥ |