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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - द्विचत्वारिंशोऽध्यायः


दक्षिणोपाख्याने दक्षिणोत्पत्तितत्पूजादिविधानम् -
दक्षिणा का उपाख्यान -


नारायण उवाच
उक्तं स्वाहास्वधाख्यानं प्रशस्तं मधुरं परम् ।
वक्ष्यामि दक्षिणाख्यानं सावधानं निशामय ॥ १ ॥
नारायण बोले-मैंने स्वाहा और स्वधा का प्रशस्त एवं परम मधुर उपाख्यान सुना दिया, अब दक्षिणा का आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ १ ॥

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः ।
राधाप्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ॥ २ ॥
विद्यावती गुणवती सती रूपवती तथा ।
कलावती कोमलाङ्‌गी कान्ता कमललोचना ॥ ३ ॥
सुश्रोणी सुस्तनी श्यामा न्यग्रोधपरिमण्डला ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या रत्‍नालंकारभूषिता ॥ ४ ॥
श्वेतचम्पकवर्णाभा बिम्बोष्ठी मृगलोचना ।
कामशास्त्रसुनिष्णाता कामिनी कलहंसगा ॥ ५ ॥
भावानुरक्ता भावज्ञा कृष्णस्य प्रियभामिनी ।
रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ॥ ६ ॥
गोलोक में पहले सुशीला नाम की गोपी थी जो भगवान् कृष्ण की प्रेयसी, राधा की प्रधान सखी, धन्या, मान्या, मनोहरा अत्यन्त सुन्दरी, रामा, सौभाग्यपूर्ण, सुन्दर दांतों वाली, सती, विद्यावती, गुणवती, रूपवती, कलावती, कोमलांगी, कान्ता, कमललोचना, उत्तम नितम्ब वाली, सुन्दर स्तनों वाली, श्यामा (ऋतु के अनुरूप सुख देने वाली), न्यग्रोधपरिमण्डला (कठोर कुच, स्थूल नितम्ब तथा पतली कमर वाली), मन्द मुसकान एवं प्रसन्न सुख वाली, रत्नों के आभूषणों से भूषित, श्वेतचम्पा के समान रूपरंग वाली, बिम्बाफल के समान ओष्ठ वाली, मगनयनी, कामशास्त्र में अति निष्णात (दक्ष), कामपूर्ण, सुन्दर हंस की भाँति गमन करने वाली, भावों में अनुरक्त रहने वाली, भगवान् कृष्ण के भावों को जानने वाली, उनकी प्रियकामिनी, रसज्ञा, रसिका और रास में रासेश्वर कृष्ण का रस (आनन्द) लेने के लिए उत्सुक थी ॥ २-६ ॥

उवास दक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ।
संबभूवाऽऽनम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ॥ ७ ॥
पूर्व काल में राधा के सामने ही वह कृष्ण की दाहिनी गोद में बैठ गई, किन्तु मधुसूदन राधा के भय से नीचे मुख किये रहे ॥ ७ ॥

दृष्ट्‍वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरां पराम् ।
मानिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ॥ ८ ॥
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपना कोपदर्शनाम् ।
कोपेन निष्ठुरं वक्तुमुद्यतां स्फुरिताधराम् ॥ ९ ॥
आगच्छन्तीं च वेगेन विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं जगाम सः ॥ १० ॥
सामने गोपियों में सर्वश्रेष्ठ, मान करने वाली, रक्तवदन, रक्तकमल की भांति नेत्रों वाली, कोप से कम्पित अंगों वाली, क्रुद्ध, कोपरूप, कोपदर्शन कराने वाली, कोप के कारण निठुर बातें कहने को प्रस्तुत एवं कांपते हुए ओंठ वाली राधा को देखकर और उन्हें वेग से आती हुई जानकर उसी बीच भगवान् मधुसूक्म विरोध-भय के कारण अन्तहित हो गये ॥ ८-१० ॥

पलायन्तं च तं शान्तं सत्त्वाधारं सुविग्रहम् ।
विलोक्य कम्पिता गोपी सुशीलाऽन्तर्दधौ भिया ॥ ११ ॥
अनन्तर उन शान्त, सत्त्व के आधार और सुन्दर शरीर वाले (कृष्ण) को भागते हुए देखकर सुशीला गोपी भी भय से काँप उठी और अन्तहित हो गयी ॥ ११ ॥

विलोक्य संकटं तत्र गोपीनां लक्षकोटयः ।
बद्धाञ्जलिपुटा भीता भक्तिनम्रात्मकंधराः ॥ १२ ॥
रक्ष रक्षेत्युक्तवत्यो हे देवीति पुनः पुनः ।
ययुर्भयेन शरणं तस्याश्चरणपङ्‌कजे ॥ १३ ॥
त्रिलक्षकोटयो गोपाः सुदामादय एव च ।
युयुर्भयेन शरणं तत्पादाब्जे च नारद ॥ १४ ॥
वहाँ वर्तमान लाख करोड़ गोपियों ने संकट उपस्थित देखकर अंजली बांधे भय के मारे भक्ति से कन्धे को झुका लिया और बार-बार कहने लगीं कि हे देवी ! हमारी रक्षा करो, हमारी रक्षा करो ! तथा उन्हीं के चरणकमल की शरण में चली गयीं । हे नारद ! तीन लाख करोड़ सुदामादि गोपों ने भी भयभीत होकर राधा जी के चरणकमल की शरण प्राप्त की । ॥ १२-१४ ॥

पलायन्तं च कान्तं वै विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तो सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥ १५ ॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥ १६ ॥
अनन्तर परमेश्वरी राधिका ने अपने कान्त कृष्ण को भागते हुए जानकर उस भागने वाली सहचरी सुशीला को शाप दिया कि यदि आज से फिर कभी इस गोलोक में यह गोपी आयेगी तो आते ही भस्म हो जायेगी । ॥ १५-१६ ॥

इत्येवमुक्त्वा तत्रैव देवदेवीश्वरी रुषा ।
रासेश्वरी रासमध्ये रासेशं चाऽऽजुहाव ह ॥ १७ ॥
देवों और देवियों की ईश्वरी एवं रासेश्वरी राधिका रोष से इतना कहकर रासके मध्य रासेश (कृष्ण) को बुलाने लगीं ॥ १७ ॥

नाऽऽलोक्य पुरतः कृष्णं राधा विरहकातरा ।
युगकोटिसमं मेने क्षणं भेदेन सुव्रता ॥ १८ ॥
विरह से कातर होती हुई उस सुव्रता राधिका ने सामने कृष्ण को न देखकर एक-एक क्षण को करोड़ों युग के समान व्यतीत किया ॥ १८ ॥

हे कृष्ण हे प्राणनाथाऽऽगच्छ प्राणाधिकप्रिय ।
प्राणाधिष्ठातृदेवेह प्राणा यान्तित्वया विना ॥ १९ ॥
हे कृष्ण ! हे प्राणनाथ ! हे प्राणों से अधिक प्यारे ! शीघ्र आओ । हे प्राणों के अधिष्ठाता देव ! तुम्हारे बिना अब प्राण जा रहे हैं ॥ १९ ॥

स्त्रीगर्वः पतिसौभाग्याद्वर्धते च दिने दिने ।
सुस्त्री चेद्विभवो यस्मात्तं भजेद्धर्मतः सदा ॥ २० ॥
क्योंकि पति-सौभाग्य से ही स्त्री का गर्व दिन-दिन बढ़ता है । यदि उत्तम स्त्री है तो जिसके द्वारा (घर में) ऐश्वर्य प्राप्त होता है उसकी उसे सदा सेवा करनी चाहिए ॥ २० ॥

पतिर्बन्धुः कुलस्त्रीणामधिदेवः सदागतिः ।
परं संपत्स्वरूपश्च सुखरूपश्च मूर्तिमान् ॥ २१ ॥
धर्मदः सुखदः शश्वत्प्रीतिदः शान्तिदः सदा ।
संमानदो मानदश्च मान्यो वै मानमण्डनः ॥ २२ ॥
सारात्सारतमः स्वामी बन्धूनां बन्धुवर्धनः ।
न च भर्तृसमो बन्धुः सर्वबन्धुषु दृश्यते ॥ २३ ॥
क्योंकि कुलीन स्त्रियों का बन्धु पति ही होता है । वह उनका अधीश्वर देव, सदा उनकी गति, परम सम्पत्तिस्वरूप, मूर्तिमान् सुखरूप, धर्म-सुखदायक, निरन्तर प्रीतिप्रद; सदा शान्तिदाता, सम्मान देनेवाला, मानप्रद, मान्य, मानविभूषण, सारभाग का भी सारभाग, स्वामी एवं बन्धुओं का बन्धुवर्द्धक है । इसी कारण समस्त बन्धुओं में पति के समान कोई बन्धु (स्वियों को) नहीं दिखायी देता है ॥ २१-२३ ॥

भरणादेव भर्ताऽयं पालनात्पतिरुच्यते ।
शरीरेशाच्च स स्वामी कामदः कान्त एव च ॥ २४ ॥
बन्धुश्च सुखबन्धाच्च प्रीतिदानात्प्रियः परः ।
ऐश्वर्यदानादीशश्च प्राणेशात्प्राणनायकः ॥ २५ ॥
रतिदानाच्च रमणः प्रियो नास्ति प्रियात्परः ।
पुत्रस्तु स्वामिनः शुक्राज्जायते तेन स प्रियः ॥ २६ ॥
क्योंकि भरण से भर्ता, पालन से पति, शरीर का ईश होने से स्वामी, कामदकान्त, सुखबन्धन के नाते बन्धु, प्रीतिदान से परमप्रिय, ऐश्वर्य देने से ईश, प्राणेश्वर होने से प्राणनायक और रतिदान से रमण कहा जाता है । पति से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है । स्वामी के शुक्र (वीर्य) से पुत्र होता है, इसी से वह प्रिय कहलाता है ॥ २४-२६ ॥

शतपुत्रात्परः स्वामी कुलजानां प्रियः सदा ।
असत्कुलप्रसूता या कान्तं विज्ञातुमक्षमा ॥ २७ ॥
इस प्रकार कुलीन स्त्रियों को सैकड़ों पुत्रों से भी स्वामी सदा प्रिय होता है और अकुलीन स्त्री तो पति को जानने में समर्थ ही नहीं हो सकती है ॥ २७ ॥

स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणम् ।
प्रादक्षिण्यं पृथिव्याश्च सर्वाणि च तपांसि वै ॥ २८ ॥
सर्वाण्येव व्रतादीनि महादानानि यानि च ।
उपोषणानि पुण्यानि यान्यन्यानि च विश्वतः ॥ २९ ॥
गुरुसेवा विप्रसेवा देवसेवादिकं च यत् ।
स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३० ॥
समस्त तीर्थों में स्नान, सभी यज्ञों की दीक्षा, सम्पूर्ण पृथिवी की प्रदक्षिणा, सब भाँति के तप, समस्त व्रत, सभी प्रकार के महादान, समस्त संसार के जितने अन्य पुण्य उपवास, गुरुसेवा विप्रसेवा और देवों आदि की सेवायें हैं, वे स्वामी की चरण-सेवा के सोलहवें अंश के समान भी नहीं होती हैं ॥ २८-३० ॥

गुरुविप्रेष्टदेवेषु सर्वेभ्यश्च पतिर्गुरुः ।
विद्यादाता यथा पुंसां कुलजानां तथा प्रियः ॥ ३१ ॥
गुरु, ब्राह्मण, इष्टदेव इनमें और इनसे बढ़कर पति ही गुरु है । पुरुषों के विद्यादाता की मांति कुलीना स्त्रियों को पति ही प्रिय होता है ॥ ३१ ॥

गोपीत्रिलक्षकोटीनां गोपानां च तथैव च ।
ब्रह्माण्डानामसंख्यानां तत्रस्थानां तथैव च ॥ ३२ ॥
रमादिगोपकान्तानामीश्वरी यत्प्रसादतः ।
अहं न जाने तं कान्तं स्त्रीस्वभावो दुरत्ययः ॥ ३३ ॥
तीन लाख करोड़ गोपियाँ उतने ही गोपों, असंख्य ब्रह्माण्ड, एवं उसमें रहने वाले रमा आदि के गोपकान्ताओं की मैं उन्हीं (कृष्ण) की कृपा से स्वामिनी हूं, किन्तु उस अपने कान्त को मैं नहीं जानती (कहाँ चले गये), स्त्री का स्वभाव कैसा उलटा होता है ॥ ३२-३३ ॥

इत्युक्त्वा राधिका कृष्णं तत्र दध्यौ सुभक्तितः ।
आरात्संप्राप तं तेन विजहार च तत्र वै ॥ ३४ ॥
इतना कहकर राधिका ने अति भक्ति से कृष्ण का ध्यान किया, जिससे वे शीघ्र आ गये और वे उनके साथ विहार करने लगीं ॥ ३४ ॥

अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ।
सुचिरं च तपस्तप्त्वा विवेश कमलातनौ ॥ ३५ ॥
हे मुने ! अनन्तर उस दक्षिणा देवी ने, गोलोक से निकल कर अति चिरकाल तक तप किया और कमला को देह में प्रविष्ट हो गयी ॥ ३५ ॥

अथ देवादयः सर्वे यज्ञं कृत्त्वा सुदुष्करम् ।
न लभन्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ॥ ३६ ॥
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिः ।
दध्यौ सुचिन्तितो भक्त्या तत्प्रत्यादेशमाप सः ॥ ३७ ॥
पश्चात् देव आदि लोगों ने अति कठिन यज्ञ आरम्भ किया । उसके सुसम्पन्न होने के अनन्तर उसके फल की प्राप्ति न होने पर वे खिन्नमन हो गये और पुन: ब्रह्मा के पास पहुंचे । जगत्पति ब्रह्मा ने देवों आदि को प्रार्थना सुनकर अतिचिन्तित होते हुए भक्तिपूर्वक भगवान् का ध्यान लगाया और उनका प्रत्यादेश प्राप्त किया ॥ ३६-३७ ॥

नारायणश्च भगवान्महालक्षम्याश्च देहतः ।
मर्त्यलक्ष्मीं विनिष्कृत्य ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ॥ ३८ ॥
तदनन्तर नारायण भगवान् और महालक्ष्मी ने (अपनी) देह से मनुष्यलक्ष्मी दक्षिणा को निकाल कर ब्रह्मा को सौंप दिया ॥ ३८ ॥

ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूर्णार्थं कर्मणां सताम् ।
यज्ञः संपूज्य विधिवत्तां तुष्टाव रमां मुदा ॥ ३९ ॥
और ब्रह्मा ने उसे कर्मनिष्ठ सज्जनों के कर्म-परिपूरणार्थ यज्ञ को सौंप दिया । उपरान्त यज्ञ ने हर्षित होकर विधिवत् उसको पूजा और स्तुति की ॥ ३९ ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ।
अतीव कमनीयां च सुन्दरीं सुमनोहराम् ॥ ४० ॥
कमलास्यां कोमलाङ्‌गी कमलायतलोचनाम् ।
कमलासनसंपूज्यां कमलाङ्‌गसमुद्‌भवाम् ॥ ४१ ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां बिम्बोष्ठीं सुदतीं सतीम् ।
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ॥ ४२ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
सुवेषाढ्यां च सुस्नातां मुनिमानसमोहिनोम् ॥ ४३ ॥
कस्तुरीबिन्दुभिः सार्धं चन्दनैश्च सुगन्धिभिः ।
सिन्दूरबिन्दुनाऽत्यन्तं मस्तकाधःस्थलोज्ज्वलाम् ॥ ४४ ॥
सुप्रशस्तनितम्बाढ्यां बृहच्छ्रोणिपयोधराम् ।
कामदेवाधाररूपां कामबाणप्रपीडिताम् ॥ ४५ ॥
वह तपाये हुए सुवर्ण के समान, रूप-रंगवाली, करोड़ों चन्द्रमा की भांति कान्तिवाली, अत्यन्त लुभाने वाली, सुन्दरी, मनमोहनी, कमलमुखी, कोमलांगी, कमल की भाँति विशाल नेत्र वाली, कमलासन पर सम्पूजित, कमला (लक्ष्मी) के अंग से उत्पन्न, अग्नि की भांति शुद्धवस्त्र धारण करने वाली बिम्बाफल के समान ओष्ठ वाली, सुन्दर दांतों वाली, पतिव्रता, केशपाशभूषित, मन्दहासयुक्त, प्रसन्नमुख, रत्नों के भूषणों से अलंकृत, सुन्दर बेष बनाये तथा उत्तम ढंग से स्नान किये हुई और मुनियों के मन को मोहित करने वाली थी । सुगन्धित चन्दन युक्त कस्तूरी और सिन्दूर बिन्दु से उसके मस्तक का अधोभाग समुज्ज्वल था, अतिप्रशंसनीय नितम्ब, विशाल श्रोणी भाग तथा कुचों से युक्त, कामदेव की आधारस्वरूप वह सुन्दरी काम-बाण से अतिपीड़ित हो रही थी ॥ ४०-४५ ॥

तां दृष्ट्‍वा रमणीयां च यज्ञो मूर्च्छामवापह ।
पत्‍नीं तामेव जग्राह विधिबोधितमार्गतः ॥ ४६ ॥
ऐसी सुन्दरी को देखते ही यज्ञ मूच्छित होकर गिर पड़े । पश्चात् ब्रह्मा ने आकर उन्हें जागरित किया और बताया जिससे उन्होंने उसे पत्नी रूप में ग्रहण किया ॥ ४६ ॥

दिव्यं वर्षशतं चैव तां गृहीत्वाऽथ निर्जने ।
यज्ञो रेमे मुदा युक्तो रामया रमया सह ॥ ४७ ॥
अनन्तर उस परम सुन्दरी रामा को निर्जन स्थान में ले जाकर यज्ञ ने दिव्य सौ वर्ष तक अतिहर्ष से उसके साथ रमण किया ॥ ४७ ॥

गर्भं दधार सा देवी दिव्यं द्वादशवत्सरम् ।
ततः सुषाव पुत्रं च फलं वै सर्वकर्मणाम् ॥ ४८ ॥
तब दिव्य बारह वर्ष तक गर्भ धारण करने के पश्चात् उस देवी ने पुत्र उत्पन्न किया, जो समस्त कर्मों का फलरूप है ॥ ४८ ॥

कर्मणां फलदाता च दक्षिणां कर्मणां सताम् ।
परिपूर्णे कर्मणि च तत्पुत्रः फलदायकः ॥ ४९ ॥
दक्षिणा सज्जनों को उनके कर्मों का फल प्रदान करती है और कर्म के पूर्ण होने पर उसका पुत्र फल देता है ॥ ४९ ॥

यज्ञो दक्षिणया सार्धं पुत्रेण च फलेन च ।
कर्मणां फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः ॥ ५० ॥
वेद-वेत्ताओं का कहना है कि यज्ञ (अपनी पत्नी) दक्षिणा और पुत्र फल के साथ कर्मों का फल प्रदान करता है ॥ ५० ॥

यज्ञश्च दक्षिणां प्राप्य पुत्रं च फलदायकम् ।
फलं ददौ च सर्वेभ्यः कर्मठेभ्यो यदो मुने ॥ ५१ ॥
तदा देवादयश्तुष्टाः परिपूर्णमनोरथाः ।
स्वस्थानं प्रययुः सर्वे धर्मवक्त्रादिदं श्रुतम् ॥ ५२ ॥
हे मुने ! जिस समय दक्षिणा पत्नी और फलदायक पुत्र को पाकर यज्ञ ने सभी कर्मठ प्राणियों को फल प्रदान किया, उस समय देवगण अति प्रसन्न हुए और परिपूर्णमनोरथ होकर वे अपनेअपने स्थान को चले गये, ऐसा धर्म के मुख से हमने सुना है ॥ ५१-५२ ॥

कृत्वा कर्म च कर्ता तु तूर्णं दद्याच्च दक्षिणाम् ।
तत्क्षणं फलमाप्नोति वेदैरुक्तमिदं मुने ॥ ५३ ॥
हे मुने ! जो कर्ता (कोई यज्ञ आदि) कर्म करके उसकी दक्षिणा तुरन्त दे देता है, उसी समय उसे फल की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा वेदों में कहा गया है ॥ ५३ ॥

कर्ता कर्मणि पूर्णेऽपि तत्क्षणाद्यदि दक्षिणाम् ।
न दद्याद्‌ब्राह्मणेभ्यश्च दैवेनाज्ञानतोऽथवा ॥ ५४ ॥
मुहूर्त समतीते च द्विगुणा सा भवेद्ध्रुवम् ।
एकरात्रे व्यतीते तु भवेद्‌रसगुणा च सा ॥ ५५ ॥
यदि कर्ता दैव से अज्ञानवश कर्म समाप्त होने पर उसी समय दक्षिणा ब्राह्मणों को नहीं दे देता है, तो एक मुहुर्त व्यतीत होने पर वह दक्षिणा दुगुनी हो जाती है ॥ ५४-५५ ॥

त्रिरात्रे वै दशगुणा सप्ताहे द्विगुणा ततः ॥ ५६ ॥
मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्राह्मणानां च वर्धते ।
संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत् ॥ ५७ ॥
एक रात्रि व्यतीत होने पर वह छह गुनी, तीन रात्रि व्यतीत होने पर दशगुनी, सप्ताह बीतने पर (उसकी) दुगुनी तथा मास व्यतीत होने पर ब्राह्मणों की दक्षिणा लाख गुनी बढ़ जाती है और वर्ष व्यतीत होने पर वह तीन करोड़ गुनी हो जाती है ॥ ५६-५७ ॥

कर्म तद्यजमानानां सर्वं वै निष्फलं भवेत् ।
स च ब्रह्मस्वापहारी न कर्मार्होऽशुचिर्नरः ॥ ५८ ॥
इस प्रकार यजमान का वह सब कर्म निष्फल हो जाता है तथा वह मनुष्य ब्राह्मण के धन का अपहरण करने का अपराधी, कर्म करने के अयोग्य और अपवित्र हो जाता है ॥ ५८ ॥

दरिद्रो व्याधियुक्तश्च तेन पापेन पातकी ।
तद्‌गृहाद्याति लक्ष्मीश्च शापं दत्त्वा सुदारुणम् ॥ ५९ ॥
उस पाप के कारण वह पातकी दरिद्र और रोगी होता है और लक्ष्मी उसे अति भयानक शाप देकर उसके घर से चली जाती है ॥ ५९ ॥

पितरो नैव गृह्णन्ति तद्‌दत्तं श्राद्धतर्पणम् ।
एवं सुराश्च तत्पूजां तद्‌दत्तां पावकाहुतिम् ॥ ६० ॥
उसके किये हुए श्राद्ध-तर्पण को पितरगण ग्रहण नहीं करते हैं । इसी प्रकार देवगण उसकी पूजा और अग्नि में दी गयी आहुति को ग्रहण नहीं करते हैं ॥ ६० ॥

दाता ददाति नो दानं गृहीता तन्न याचते ।
उभौ तौ नरकं यातश्छिन्नरज्जुर्यथा घटः ॥ ६१ ॥
यदि दाता दान नहीं देता है और ग्रहण करने वाला याचना करता ही रहता है, तो वे दोनों कटी हुई रस्सी वाले घड़े की भाँति नरक में जाते हैं ॥ ६१ ॥

नार्पयेद्यजमानश्चेद्याचितारं च दक्षिणाम् ।
भवेद्‌ब्रह्मस्वापहारी कुम्भीपाकं व्रजेद्ध्रुवम् ॥ ६२ ॥
यजमान यदि दक्षिणा नहीं देता है, तो वह ब्राह्मण-धन का अपहर्ता कहा जाता है और अन्त में निश्चित कुम्भीपाक नरक में जाता है ॥ ६२ ॥

वर्षलक्षं वसेत्तत्र यमदूतेन ताडितः ।
ततो भवेत्स चाण्डालो व्याधियुक्तो दरिद्रकः ॥ ६३ ॥
पातयेत्पुरुषान्सप्त पूर्वान्वै पूर्वजन्मनः ।
इत्येवं कथितं विप्र किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६४ ॥
एक लाख वर्ष तक उसमें रहते हुए नित्य यमदूतों से ताड़ित होता है । अनन्तर रोगी एवं दरिद्र चाण्डाल होता है तथा पूर्वजन्म की पिछली और आगे वाली सात पीढ़ियों को नरक भेजता है । हे विप्र ! इस प्रकार इस आख्यान को मैंने सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ६३-६४ ॥

नारद उवाच
यत्कर्म दक्षिणाहीनं को भुङ्क्ते तत्फलं मुने ।
पूजाविधिं दक्षिणायाः पुरा यज्ञकृतं वद ॥ ६५ ॥
नारद बोले हे मने ! दक्षिणाहीन कर्म के फल का उपभोग कौन करता है और पूर्वकाल में यज्ञ ने किस विधान से दक्षिणा की पूजा की थी ॥ ६५ ॥

नारायण उवाच
कर्मणोऽदक्षिणस्यैव कुत एव फलं मुने ।
सदक्षिणे कर्मणि च फलमेव प्रवर्धते ॥ ६६ ॥
नारायण बोले-हे मुने ! दक्षिणारहित कर्म का फल होता कहाँ है । दक्षिणा समेत सुसम्पन्न किये गये कर्म का ही फल प्रवृद्ध होता है ॥ ६६ ॥

या या कर्मणि सामग्री बलिर्भुङ्क्ते च तां मुने ।
बलये तत्प्रदत्तं च वामनेन पुरा मुने ॥ ६७ ॥
हे मुने ! जिस कर्म में जो सामग्री होती है, उसका उपभोग बलि करते हैं, इसे पहले ही वामन ने बलि को दे दिया था ॥ ६७ ॥

अश्रोत्रियं श्राद्धवस्तु चाश्राद्धं दानमेव च ।
वृषलीपतिविप्राणां पूजाद्रव्यादिकं च यत् ॥ ६८ ॥
ऋत्विजा न कृतं यज्ञमशुचेः पूजनं च यत् ।
गुरावभक्तस्य कर्म बलिर्भुङ्क्ते न संशयः ॥ ६९ ॥
इस प्रकार वेदविद्याविहीन पुरुष को श्राद्ध वस्तु, श्रद्धारहित दान, वृपली (शूद्रा स्त्री) के पति ब्राह्मण देव की पूजा की सामग्री, ऋत्विविहीन यज्ञ, अशुद्ध का पूजन और गुरुभक्तिहीन पुरुष के कर्म का उपभोग बलि करता है, इसमें संशय नहीं ॥ ६८-६९ ॥

दक्षिणायाश्च यद्ध्यानं स्तोत्रं पूजाविधिक्रमम् ।
तत्सर्वं काण्वशाखोक्तं प्रवक्ष्यामि निशामय ॥ ७० ॥
अब दक्षिणा देवी का जो ध्यान, स्तोत्र और पूजा विधान है, वह सब कुछ काण्वशाखा के अनुसार बता रहा हूँ, सुनो ॥ ७० ॥

पुरा संप्राप्य तां यज्ञः कर्मदक्षां च दक्षिणाम् ।
मुमोह तस्या रूपेण तुष्टुवे कामकातरः ॥ ७१ ॥
पूर्वकाल में यज्ञ, कर्मकुशल दक्षिणा को प्राप्त कर उसके रूप पर अत्यन्त मोहित हो गये और कामपीड़ित होकर उसकी स्तुति करने लगे ॥ ७१ ॥

यज्ञ उवाच
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा परा ।
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिये ॥ ७२ ॥
यज्ञ बोले--हे प्रिये ! पूर्व समय में तुम गोलोक में गोपियों में श्रेष्ठ गोषी, राधा जी की सखी और राधा के समान ही श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी ॥ ७२ ॥

कार्तिके पूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ।
आविर्भूता दक्षिणांशात्कृष्णस्यातो हि दक्षिणा ॥ ७३ ॥
कार्तिक की पूर्णिमा में राधामहोत्सव के समय रास में तुम कृष्ण के दक्षिण भाग से उत्पन्न हुई थी इसलिए तुम्हारा दक्षिणा नामकरण हुआ था ॥ ७३ ॥

पुरा त्वं च सुशीलाख्या शीलेन सुशुभेन च ।
कृष्णदक्षांशवासाच्च राधाशापाच्च दक्षिणा ॥ ७४ ॥
पहले तुम उत्तम शुभशील से सम्पन्न सुशीला नाम की गोपी थी । कृष्ण को दक्षिण (दाहिनी) गोद में निवास करने और राधा के शाप के कारण भी तुम्हें दक्षिणा कहते हैं ॥ ७४ ॥

गोलोकात्त्वं परिध्वस्ता मम भाग्यादुपस्थिता ।
कृपां कुरु त्वमेवाद्य स्वामिनं कुरु मां प्रिये ॥ ७५ ॥
हे प्रिये ! हमारे भाग्य से तुम गोलोक से यहाँ आयी हो, मेरे ऊपर कृपा करो-आज मुझे अपना स्वामी निश्चय बनाओ ॥ ७५ ॥

कर्तृणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ।
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ॥ ७६ ॥
कर्ताओं के कर्मों की तुम फलदायिनी देवी हो, तुम्हारे बिना सभी लोगों के सब कर्म निष्फल हो जाते हैं ॥ ७६ ॥

फलशाखाविहीनश्च यथा वृक्षो महीतले ।
त्वया विना तथा कर्म कर्तृणां च न शोभते ॥ ७७ ॥
जिस प्रकार भूतल में फल और शाखा हीन वृक्ष की शोभा नहीं होती है, उसी प्रकार तुम्हारे बिना कर्ताओं के कर्म सुशोभित नहीं होते हैं ॥ ७७ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७८ ॥
इस भाँति ब्रह्म , विष्णु, महेश तथा दिपाल आदि सभी तुम्हारे बिना कर्मफल देने में असमर्थ रहते हैं ॥ ७८ ॥

कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः ।
यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ॥ ७९ ॥
स्वयं ब्रह्मा कर्मरूप हैं, महेश्वर फलरूपी, विष्णु यज्ञरूपी और हम तुम इनके सार भाग हैं ॥ ७९ ॥

फलदाता परं ब्रह्म निर्गुणः प्रकृते परः ।
स्वयं कृष्णश्च भगवान्न च शक्तस्त्वया विना ॥ ८० ॥
निर्गुण एवं प्रकृति से परे रहने वाले परब्रह्म फल के दाता कहे गये हैं किन्तु स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी तुम्हारे बिना फल देने में असमर्थ रहते हैं ॥ ८० ॥

त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि ।
सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ॥ ८१ ॥
हे कान्ते ! तुम हमारे प्रत्येक जन्म की निरन्तर शक्ति हो, हे वरानने ! तुम्हारे ही साथ रहने से हम सभी कर्मों में समर्थ हैं ॥ ८१ ॥

इत्युक्त्वा तत्पुरस्तस्थौ यज्ञाधिष्ठातृदेवकः ।
तुष्टा बभूव सा देवी भेजे तं कमलाकला ॥ ८२ ॥
इतना कहकर यज्ञ के अधिष्ठाता देव उसके सामने स्थित रहे । अनन्तर वह कमला की कला (दक्षिणा) भी प्रसन्न होकर (पतिरूप में) उनकी सेवा करने लगी ॥ ८२ ॥

इदं च दक्षिणास्तोत्रं यज्ञकाले च यः पठेत् ।
फलं च सर्वयज्ञानां लभते नात्र संशयः ॥ ८३ ॥
इस प्रकार इस दक्षिणास्तोत्र का जो यज्ञ के समय पाठ करता है, उसे समस्त यज्ञों का फल प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ८३ ॥

राजसूये वाजपेये गोमेधे नरमेधके ।
अश्वमेधे लाङ्‌गले च विष्णुयज्ञे यशस्करे ॥ ८४ ॥
धनदे भूमिदे फल्गौ पुत्रेष्टौ गजमेधके ।
लोहयज्ञे स्वर्णयज्ञे पटलव्याधिखण्डने ॥ ८५ ॥
शिवयज्ञे रुद्रयज्ञे शक्रयज्ञे च बन्धके ।
इष्टौ वरुणयागे च कन्दुके वैरिमर्दने ॥ ८६ ॥
शुचियागे धर्मयागे रेचने पापमोचने ।
बन्धने कर्मयागे च मणियागे सुभद्रके ॥ ८७ ॥
एतेषां च समारम्भ इदं स्तोत्रं च यः पठेत् ।
निर्विघ्नेन च तत्कर्म साङ्‌गं भवति निश्चितम् ॥ ८८ ॥
एवं राजसूय, वाजपेय, गोमेव, नरमेध, अश्वमेध, लांगल, यशोदायक विष्णुयज्ञ, धनत्रद एवं भूमिदायक फल्गुयज्ञ, पुत्रेष्टियज्ञ, गजमेध, लोहयज्ञ, नेत्ररोगनाशक सुवर्गयज्ञ, शिवयज्ञ, रुद्रयज्ञ, इन्द्रयज्ञ, वरुणयज्ञ, कन्दुक, वैरिमर्दन, शुचियाग, धर्मयाग, पापमोचन, रेचन, बन्धन, कर्नयाग और तिकल्याणप्रद मणियाग-इन यज्ञों के आरम्भ के समय जो इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसका कर्म निश्चित ही सांगोपांग और निर्विघ्न समाप्त होता है ॥ ८४-८८ ॥

इति स्तोत्रं च कथितं ध्यानं पूजाविधिं शृणु ।
शालग्रामे घटे वाऽपि दक्षिणां पूजयेत्सुधीः ॥ ८९ ॥
इस प्रकार स्तोत्र और ध्यान बता दिये । अब पूजा का विधान सुनो-शालग्राम या कलश में दक्षिणा का आवाहनपूजन विद्वानों को करना चाहिए ॥ ८९ ॥

लक्ष्मीदक्षांशसंभूतां दक्षिणां कमलाकलाम् ।
सर्वकर्मसु दक्षां च फलदा सर्वकर्मणाम् ॥ ९० ॥
दक्षिणा कमला की कला और लक्ष्मी के दाहिने अंश से उत्पन्न हुई है, जो समस्त कर्मों में दक्ष (कुशल) और समस्त कर्मों का फल प्रदान करती है ॥ ९० ॥

विष्णोः शक्तिस्वरूपां च पूजितां वन्दितां शुभाम् ।
शुद्धिदां शुद्धिरूपां च सुशीलां शुभदां भजे ॥ ९१ ॥
भगवान् विष्णु की शक्तिस्वरूप, पूजित, वन्दित, शुभ, शुद्धिदायक, शुद्धिरूप और शुगप्रद उस सुशीला की सेवा कर रहा हूं । इस प्रकार ध्यान करके उस वरदायिनी की पूजा मूलमंत्र द्वारा विद्वान् को करनी चाहिए ॥ ९१ ॥

ध्यात्वाऽनेनैव वरदां सुधीमूलेन पूजयेत् ।
दत्त्वा पाद्यादिकं देव्यै वेदोक्तेन च नारद ॥ ९२ ॥
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणायै स्वाहेति च विचक्षणः ।
पूजयेद्विधिवद्‌भक्त्या दक्षिणां सर्वपूजिताम् ॥ ९३ ॥
इत्येवं कथितं सर्वं दक्षिणाख्यानमुत्तमम् ।
सुखदं प्रीतिदं चैव फलदं सर्वकर्मणाम् ॥ ९४ ॥
इदं च दक्षिणाख्यानं यः शृणोति समाहितः ।
अङ्‌गहीनं च तत्कर्म न भवेद्‌भारते भुवि ॥ ९५ ॥
हे नारद ! उस देवी के लिए वेदोक्त विधान से पाद्य आदि देकर 'ओं श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणाय स्वाहा' इसी मंत्र द्वारा भक्तिपूर्वक विद्वान् को समस्त की पूजित दक्षिणा की पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार मैंने दक्षिणा वाली, पतिव्रता, सुन्दर की भूमि, प्रजा (सन्तान का उत्तम आख्यान तुम्हें सुना दिया, जो सुखप्रद, प्रीतिदायक और समस्त कमों का फल प्रदान करता है । अतः इस दक्षिणाख्यान को जो एकाग्रचित्त से सुनता है, भारतभूतल में उसका कोई भी कर्म अंगहीन नहीं होता है । ॥ ९२-९५ ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं निश्चितं च गुणान्वितम् ।
भार्याहीनो लभेद्‌भार्यां सुशीलां सुन्दरीं पराम् ॥ ९६ ॥
वरारोहां पुत्रवतीं विनीतां प्रियवादिनीम् ।
पतिव्रतां सुव्रतां च शुद्धां च कुलजां वराम् ॥ ९७ ॥
विद्याहीनो लभेद्विद्यां धनहीनो धनं लभेत् ।
भूमिहोनो लभेद्‌भूमिं प्रजाहीनो लभेत्प्रजाः ॥ ९८ ॥
संकटे बन्धुविच्छेदे विपत्तौ बन्धने तथा ।
मासमेकमिदं श्रुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९९ ॥
इससे पुत्रहीन को गुणी पुत्र की निश्चित ही प्राप्ति होती है और स्त्रीहीन को सुशील, सुन्दरी, श्रेष्ठ, अनुपम, पुत्रवती, विनीत, प्रिय बोलने वाली, पतिव्रता, सुन्दर नियमवाली, शुद्ध, कुलीन और श्रेष्ठ स्त्री की प्राप्ति होती है । विद्याहीन को विद्या, धनहीन को धन, भूमिरहित को भूमि, प्रजा (सन्तान) हीन को प्रजा (सन्तान) की प्राप्ति होती है और किसी भी भांति का संकट, बन्धुओं का वियोग, विपत्ति अथवा किसी प्रकार का बन्धन उपस्थित होने पर एक मास तक इसका श्रवण करने से मनुष्य उस संकट से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥ ९६-९९ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे दक्षिणोपाख्याने
दक्षिणोत्पत्तितत्पूजादिविधानं
नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण संवादविषयक दक्षिणोपाख्यान में दक्षिणा की उत्पत्ति और पूजनादिविवान वर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४२ ॥

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