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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः


षष्ठ्युपाख्याने षष्ठीदेव्युत्पत्तितत्पूजास्तोत्रादिकयनम् -
षष्ठी देवी का उपाख्यान -


नारद उवाच
अनेकासां च देवीनां श्रुतमाख्यानमुत्तमम् ।
अन्यासां चरितं ब्रह्मन्वद वेदविदां वर ॥ १ ॥
नारद बोले-हे ब्रह्मन् ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! मैं अनेक देवियों का उत्तम आख्यान सुन चुका, अब अन्य के चरित सुनाने की कृपा कीजिये ॥ १ ॥

नारायण उवाच
सर्वासां चरितं विप्र वेदेष्वस्ति पृथक्पृथक् ।
पूर्वोक्तानां च देवीनां त्वं कासां श्रोतुमिच्छसि ॥ २ ॥
नारायण बोले हे विप्र ! पूर्वोक्त देवियों के चरित वेदों में पृथक्-पृथक् बताये गये हैं । उनमें तुम किन देवियों के चरित सुनना चाहते हो ॥ २ ॥

नारद उवाच
षष्ठी मङ्‌गलचण्डी च मनसा प्रकृतेः कला ।
उत्पत्तिमासां चरितं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ३ ॥
नारद बोले- षष्ठी, मंगलचण्डी और प्रकृति की कला रूप मनसा देवी की उत्पत्ति और चरित तत्त्वतः सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥

नारायण उवाच
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता ।
बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा ॥ ४ ॥
नारायण बोले-प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के नाते उस देवी को षष्ठी कहा जाता है, जो बालकों की अधिष्ठात्री देवी, भगवान् विष्णु की माया और बालदा (सन्तान देने वाली) कही जाती है ॥ ४ ॥

मातृकासु च विख्याता देवसेनाभिधा च सा ।
प्राणाधिकप्रिया साध्वी स्कन्दभार्या च सुव्रता ॥ ५ ॥
वह मातृकाओं में प्रख्यात एवं 'देवसेना' नाम की है । वह स्कन्द की पत्नी, उनके प्राणों से अधिक प्रिय, पतिव्रता और सुन्दर नियमाचरण करने वाली है ॥ ५ ॥

आयुःप्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी ।
सततं शिशुपार्श्वस्था योगाद्वै सिद्धियोगिनी ॥ ६ ॥
एवं बालकों की जीवनदायिनी, रक्षा करनेवाली घाय, निरन्तर बच्चों के समीप रहने वाली और योग द्वारा सिद्धियोगिनी है ॥ ६ ॥

तस्याः पूजाविधौ ब्रह्मन्नितिहासविधिं शृणु ।
यच्छ्रुतं धर्ममुखतो सुखदं पुत्रदं परम् ॥ ७ ॥
हे ब्रह्मन् ! उसके पूजाविधान का जो इतिहास धर्म के मुख से मैंने सुना है, उसे सुनो । वह परम सुखदायक और पुत्रप्रद है ॥ ७ ॥

राजा प्रियव्रतश्चासीत्स्वायंभुवमनोः सुवः ।
योगीन्द्रो नोद्वहेद्‌भार्यां तपस्यासु रतः सदा ॥ ८ ॥
स्वायम्भुवमनु का पुत्र राजा प्रियव्रत था, जो सदा तपस्या में ही लगा रहता था । इस कारण उन योगीन्द्र ने अपना विवाह ही नहीं किया ॥ ८ ॥

ब्रह्माज्ञया च यत्‍नेन कृतदारो बभूव सः ।
सुचिरं कृतदारश्च न लेभे तनयं मुने ॥ ९ ॥
पश्चात् ब्रह्मा के समझाने-बुझाने पर उसने (किसी भाँति) विवाह कर लिया, किन्तु अधिक समय व्यतीत होने पर भी उसके कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ ॥ ९ ॥

पुत्रेष्टियज्ञं तं चापि कारयामास कश्यपः ।
मालिन्यै तस्य कान्तायै मुनिर्यज्ञचरुं ददौ ॥ १० ॥
भुक्त्वा चरुं च तस्याश्च सद्यो गर्भे बभूव ह ।
दधार तं च सा देवी दैवं द्वादशवत्सरम् ॥ ११ ॥
हे मुने ! अनन्तर कश्यप जी ने उससे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ सुसम्पन्न कराया और उसकी मालिनी नामक पत्नी . को यज्ञ का चरु (प्रसाद रूप हवि) दिया, जिसका भक्षण करने से उसे शीघ्र गर्भ रह गया । वह देवी उस गर्भ को बारह वर्ष तक (अपने उदर में) धारण किये रही ॥ १०-११ ॥

ततः सुषाव सा ब्रह्मत्कुमारं कनकप्रभम् ।
सर्वावयसंपन्नं मृतमुत्तारलोचनम् ॥ १२ ॥
हे ब्रह्मन् ! उपरान्त उसने एक कुमार का जन्म दिया, जो सुर्वण के समान कान्तियुक्त और समस्त अंगों से सम्पन्न होते हुए भी आँखें उलटाये हुए मृतक था ॥ १२ ॥

तं दृष्ट्‍वा रुरुदुः सर्वा नार्यो वै बान्धवस्त्रियः ।
मूर्च्छामवाप तन्माता पुत्रशोकेन सुव्रता ॥ १३ ॥
उसे देखकर सभी स्त्रियाँ और बन्धुओं की स्त्रियाँ रुदन करने लगी और वह सुव्रता शिशु-माता तो पुत्र-शोक के कारण मूच्छित होकर गिर पड़ी ॥ १३ ॥

श्मशानं च ययौ राजा गृहीत्वा बालकं मुने ।
रुरोद तत्र कान्तारे पुत्रं कृत्वा स्ववक्षसि ॥ १४ ॥
हे मुने ! राजा उस बच्चे को लेकर श्मशान गया और वहाँ जंगल में उस पुत्र को गोद में रखकर रुदन करने लगा ॥ १४ ॥

नोत्सृज्य बालकं राजा प्राणांस्त्यक्तुं समुद्यतः ।
ज्ञानयोगं विसस्मार पुत्रशोकात्सुदारुणात् ॥ १५ ॥
राजा किसी भांति बालक को छोड़ नहीं रहा था । वह अपना प्राण देने के लिए तैयार हो गया क्योंकि अति भीषण पुत्र-शोक के नाते उसका ज्ञान-योग विस्मृत हो गया था ॥ १५ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र विमानं च ददर्श ह ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं मणिराजविराजितम् ॥ १६ ॥
तेजसा ज्वलितं शश्वच्छोभितं क्षौमवाससा ।
नानाचित्रविचित्राढ्यं पुष्पमालाविराजितम् ॥ १७ ॥
उसी बीच उसने एक विमान देखा, जो शुद्ध स्फटिक की भांति उत्तम मणियों से सुशोभित, तेज से प्रज्वलित, रेशमी वस्त्रों से निरन्तर विभूषित, अनेक भाँति की चित्र-विचित्र (वस्तुओं) से परिपूर्ण और पुष्पों की मालाओं से अलंकृत था ॥ १६-१७ ॥

ददर्श तत्र देवीं च कमनीयां मनोहराम् ।
श्वेतचम्पकवर्णाभां रम्यसुस्थिरयौवनाम् ॥ १८ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
कृपामयी योगसिद्धां भक्तानुग्रहकारिणीम् ॥ १९ ॥
उस पर बैठी हुई एक सुन्दरी को देखा, जो मन को हरण करने वाली, श्वेत चम्पा पुष्प के समान रूप-रंग वाली, रमणीक और अति चिरस्थायी यौवन (वाली), मन्द मुसुकान समेत प्रसन्न मुख लली, रत्नों के भूषणों से विभूषित, कृपा की मूर्ति, योगसिद्ध और भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली थी ॥ १८-१९ ॥

दृष्ट्‍वा तां पुरतो राजा तुष्टाव परमादरात् ।
चकार पूजनं तस्या विहाय भुवि बालकम् ॥ २० ॥
उसे सामने देखकर राजा ने अति आदर से उसकी स्तुति की और भूमि पर बालक को छोड़कर उस देवी की पूजा की ॥ २० ॥

पप्रच्छ राजा तां दृष्ट्‍वा ग्रीष्मसूर्यसमप्रभाम् ।
तेजसा ज्वलितां शान्तां कान्तां स्कन्दस्य नारद ॥ २१ ॥
हे नारद ! स्कन्द की उस कान्ता को देखकर, जो ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान प्रभापूर्ण, तेज से देदीप्यमान तथा शान्त थी, राजा ने उससे पूछा ॥ २१ ॥

प्रियव्रत उवाच
का त्वं सुशोभने कान्ते कस्य कान्ताऽसि सुव्रते ।
कस्य कन्या वरारोहे धन्या मान्या च योषिताम् ॥ २२ ॥
नृपेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा जगन्मङ्‌गलदायिनी ।
उवाच देवसेना सा देवरक्षणकारिणी ॥ २३ ॥
देवानां दैत्यभीतानां पुरा सेना बभूव सा ।
जयं ददौ च तेभ्यश्च देवसेना च तेन सा ॥ २४ ॥
प्रियव्रत बोले-हे सुशोभने, कान्ते ! तुम कौन हो ? हे सुव्रते ! तुम किसकी प्रिया हो ? हे वरारोहे ! तुम किसकी धन्य और स्त्रियों की मान्य कन्या हो ? राजा की बात सुनकर संसार को मंगल देने वाली और देवताओं की रक्षा करने वाली देवसेना बोली । पूर्वकाल में दैत्यों से त्रस्त देवताओं की वह सेना थी, देवों को उसने विजय दिलाई थी, इससे उसे 'देवसेना' कहते हैं ॥ २२-२४ ॥

देवसेनोवाच
ब्रह्मणो मानसी कन्या देवसेनाऽहमीश्वरी ।
सृष्ट्‍वा मां मनसो धाता ददौ स्कन्दाय भूमिप ॥ २५ ॥
देवसेना बोली-हे राजन् ! मैं ब्रह्मा की मानसी कन्या हूँ, देवसेना मेरा नाम है और ब्रह्मा ने मुझे मन से उत्पन्न कर स्वामिनी बनाकर स्कन्द को सौंप दिया ॥ २५ ॥

मातृकासु च विख्याता स्कन्दसेना च सुव्रता ।
विश्वे षष्ठीति विख्याता षष्ठांशा प्रकृतेर्यतः ॥ २६ ॥
मुझे मातृकाओं में प्रख्यात, स्कन्द-सेना, सुवता और प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के नाते 'षष्ठी' भी कहते हैं ॥ २६ ॥

पुत्रदाऽहमपुत्राय प्रियस्त्रीदा प्रियाय च ।
धनदा च दरिद्रेभ्यः कर्तुभ्यः शुभकर्मदा ॥ २७ ॥
मैं पुत्रहीन को पुत्र देने वाली, प्रिय को प्रिया देने वाली, दरिद्रों को धन और कर्ताओं को शुभ कर्म प्रदान करने वाली हूँ ॥ २७ ॥

सुखं दुःखं भयं शोकं हर्षं मङ्‌गलमेव च ।
संपत्तिश्च विपत्तिश्च सर्वं भवति कर्मणा ॥ २८ ॥
इस प्रकार प्राणी को सुख, दुःख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति सब कर्म से ही होता है ॥ २८ ॥

कर्मणा बहुपुत्री च वंशहीनश्च कर्मणा ।
कर्मणा च दरिद्रश्च धनाढ्यश्च स्वकर्मणा ॥
कर्मणा रूपवांश्चैव रोगी शश्वत्स्वकर्मणा ॥ २९ ॥
कर्मणा मृतपुत्रश्च कर्मणा चिरजीविनः ।
कर्मणा गुणवन्तश्च कर्मणा चाङ्‌गहीनकाः ॥ ३० ॥
कर्म से ही बहुत पुत्र, कर्म से वंश-नाश, कर्म से रूपवान्, कर्म से सदा रोगी, कर्म से मृतक पुत्र, कर्म से चिरकाल का जीवन, कर्म से गुणवान् और कर्म से प्राणी अंगहीन होते हैं ॥ २९-३० ॥

तस्मात्कर्म परं राजन्सर्वेभ्यश्च श्रुतौ श्रुतम् ।
कर्मरूपी च भगवांस्तद्‌द्वारा फलदो हरिः ॥ ३१ ॥
हे राजन् ! इसलिए कर्म सब से श्रेष्ठ है, ऐसा वेद में सुना गया है । उसी के द्वारा कर्मरूपी भगवान् विष्णु फल प्रदान करते हैं ॥ ३१ ॥

इत्येवमुक्त्वा सा देवी गृहीत्वा बालकं मुने ।
महाज्ञानेन सहसा जीवयामास लीलया ॥ ३२ ॥
हे मुने ! इतना कह कर उस देवी ने बालक को लेकर और लीलापूर्वक सहसा महाज्ञान द्वारा उसे जीवित कर दिया ॥ ३२ ॥

राजा ददर्श तं बालं सस्मितं कनकप्रभम् ।
देवसेना च पश्यन्तं नृपमम्बरमेव च ॥ ३ ३ ॥
गृहीत्वा बालकं देवी गगनं गन्तुमुद्यता ।
पुनस्तुष्टाव तां राजा शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ॥ ३४ ॥
राजा ने उस बालक को देखा, जो सुवर्ण की भाँति कान्ति से युक्त और मन्दहास कर रहा था । राजा आकाश की ओर (ऊपर) देख ही रहा था कि देवसेना उस बालक को लेकर ऊपर आकाश को जाने लगी । उस समय राजा के कण्ठ, तालु और ओंठ सूख गये । उसने फिर स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ३३-३४ ॥

नृपस्तोत्रेण सा देवी परितुष्टा बभूव ह ।
उवाच तं नृपं ब्रह्मन्वेदोक्तं कर्मनिर्मितम् ॥ ३५ ॥
हे ब्रह्मन् ! राजा के उस स्तोत्र से देवी प्रसन्न हो गयी । उसने राजा से वेदोक्त कर्म से उद्भत वचन कहा ॥ ३५ ॥

देवसेनोवाच
त्रिषु लोकेषु राजा त्वं स्वायंभुवमनोः सुतः ।
मम पूजां च सर्वत्र कारयित्वा स्वयं कुरु ॥ ३६ ॥
देवसेना बोली-तुम स्वायम्भुवमनु के पुत्र और तीनों लोकों के राजा हो । अतः हमारी पूजा सर्वत्र कराकर तुम स्वयं करो ॥ ३६ ॥

तदा दास्यामि पुत्रं ते कुलपद्मं मनोहरम् ।
सुव्रतं नाम विख्यातं गुणवन्तं सुपण्डितम् ॥ ३७ ॥
जातिस्मरं च योगीन्द्रं नारायणपरायणम् ।
शतक्रतुकरं श्रेष्ठं क्षत्रियाणां च वन्दितम् ॥ ३८ ॥
मत्तमातङ्‌गलक्षाणां धृतवन्तं बलं शुभम् ।
धन्विनं गुणिनं शुद्धं विदुषां प्रियमेव च ॥ ३९ ॥
योगिनं ज्ञानिनं चैव सिद्धरूपं तपस्विनम् ।
यशस्विनं च लोकेषु दातारं सर्वसंपदाम् ॥ ४० ॥
तभी मैं तुम्हें यह कुलकमल और मनोहर पुत्र दूंगी जो सुव्रत नाम से प्रख्यात और महागुणवान् पण्डित होगा । (पूर्व जन्म के) जातिस्मरण के साथ यह योगिराज, नारायणपरायण, सौ यज्ञ करने वाला, श्रेष्ठ, क्षत्रियों से वन्दित, एक लाख मतवाले गजराज का बल धारण करने वाला, शुभमूर्ति, धनुर्धर, गुणी शुद्ध, विद्वानों का प्रिय, योगी, ज्ञानी, तपस्वी, सिद्ध, कीर्तिमान् और लोकों में समस्त सम्पत्ति का प्रदाता होगा ॥ ३७-४० ॥

इत्येवमुक्त्वा सा देवी तस्मै तद्‌बालकं ददौ ।
राजा च तं स्वीचकार तत्पूजार्थं च सुव्रतः ॥ ४१ ॥
इतना कहकर उस देवी ने वह बालक राजा को दे दिया और उसने उसकी पूजा करने कराने के लिए उसे स्वीकार किया ॥ ४१ ॥

जगाम देवी स्वर्गं च दत्त्वा तस्मै शुभं वरम् ।
आजगाम महाराजः स्वगृहं हृष्टमानसः ॥ ४२ ॥
आगत्य कथयामास वृत्तान्तं पुत्रहेतुकम् ।
तुष्टा बभूवुः संतुष्टा नरा नार्यश्च नारद ॥ ४३ ॥
मङ्‌गलं कारयामास सर्वत्र सुतहेतुकम् ।
देवीं च पूजयामास ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ॥ ४४ ॥
अनन्तर उसे शुभ वरदान देकर देवी स्वर्ग चली गयी और महाराज भी अत्यन्त हर्षित होकर अपने घर आयेतथा लोगों को पुत्र का वृत्तान्त सुनाने लगे । हे नारद ! उसे सुनकर सभी पुरुष और स्त्रियाँ अत्यन्त प्रसन्न हुई । राजा ने चारों ओर पुत्र के लिए मंगल कराया । देव की पूजा के उपरान्त ब्राह्मणों को धन दान दिया ॥ ४२-४४ ॥

राजा च प्रतिमासेषु शुक्लषष्ठ्यां महोत्सवम् ।
षष्ठ्या देव्याश्च यत्‍नेन कारयामास सर्वतः ॥ ४५ ॥
उसी समय से राजा प्रत्येक मास की शुक्ल-षष्ठी के दिन षष्ठी देवी का महोत्सव चारों ओर संप्रयत्न कराने लगा ॥ ४५ ॥

बालानां सूतिकागारे षष्ठाहे यत्‍नपूर्वकम् ।
तत्पूजां कारयामास चैकविंशतिवासरे ॥ ४६ ॥
बालकों के मृतिक (सौरी) गृह में छठे दिन और इक्कीसवें दिन अति प्रयत्न से देव की पूजा करायी ॥ ४६ ॥

बालानां शुभकार्ये च शुभान्नप्राशने तथा ।
सर्वत्र वर्धयामास स्वयमेव चकार ह ॥ ४७ ॥
बालकों के शुभ अवसरपर तथा अन्नप्राशन कार्य के समय उसने स्वयं सर्वत्र षष्ठी-पूजन का प्रचार किया ॥ ४७ ॥

ध्यानं पूजाविधानं च स्तोत्रं मत्तो निशामय ।
यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रेण कौथुमोक्तं च सुव्रत ॥ ४८ ॥
हे सुव्रत ! मैंने धर्म के मुखारविन्द से उस देव का ध्यान, पूजा-विधान, स्तोत्र आदि जो कुछ कोथुम । शाखानसार सुना, उसे बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४८ ॥

शालग्रामे घटे वाऽथ वटमूलेऽथवा मुने ।
भित्त्यां पुत्तलिकां कृत्वा पूजयेद्वा विचक्षणः ॥ ४९ ॥
हे मुने ! शालग्राम, कलश, वटवृक्ष की जड़ में अथवा भीत (दीवाल) पर मूर्ति बनाकर बुद्धिमान् को उस देवी की पूजा करनी चाहिए ॥ ४९ ॥

षष्ठांशां प्रकृतेः शुद्धां सुप्रतिष्ठां च सुव्रताम् ।
सुपुत्रदां च शुभदां दयारूपां जगत्प्रसूम् ॥ ५० ॥
श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्‍नभूषणभूषिताम् ।
पवित्ररूपां परमां देवसेनां परां भजे ॥ ५१ ॥
प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न, शुद्ध, उत्तम प्रतिष्ठा (मर्यादा) से युक्त, शोभननियमपूर्ण, उत्तमपुत्रदायिनी, शुभप्रदा, दयानिधान, जगज्जननी, श्वेत चम्पापुष्प की भांति रूप रंग वाली, रत्नों के भूषणों से भूषित और परम पवित्र रूप उस श्रेष्ठ देवसेना की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ ५०-५१ ॥

इति ध्यात्वा स्वशिरसि पुष्पं दद्यात् विचक्षणः ।
पुनर्ध्यात्वा च मूलेन पूजयेत्सुव्रतां सतीम् ॥ ५२ ॥
ऐसा ध्यान कर अपने शिर पर पुष्प रखे और पुनः ध्यानपूर्वक मूलमंत्र द्वारा उस सती की पूजा बुद्धिमान् को करनी चाहिए । ॥ ५२ ॥

पाद्यार्घ्याचमनीयैश्च गन्धधूपप्रदीपकैः ।
नैवेद्यैर्विविधैश्चापि फलेन च शुभेन च ॥ ५३ ॥
मूलमों ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहेति विधिपूर्वकम् ।
अष्टाक्षरं महामन्त्रं यथाशक्ति जपेन्नरः ॥ ५४ ॥
फिर पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय (जल), गन्ध, धूप, दीप, अनेक भांति के नैवेद्य और उत्तम फल समेत पूजन करने के अनन्तर 'ओं ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा' इस अष्ठाक्षर महामन्त्र का यथाशक्ति जप करे ॥ ५३-५४ ॥

ततः स्तुत्वा च प्रणमेद्‌भक्तियुक्तः समाहितः ।
स्तोत्रं च सामवेदोक्तं धनपुत्रफलप्रदम् ॥ ५५ ॥
सावधान होकर भक्तिपूर्वक प्रणाम करे और धनपुत्रदायक सामवेदोक्त स्तोत्र का पाठ करे ॥ ५५ ॥

अष्टाक्षरं महामन्त्रं लक्षधा यो जपेन्मुने ।
स पुत्रं लभते नूनमित्याह कमलोद्‌भवः ॥ ५६ ॥
हे मुने ! इस अष्टाक्षर महामंत्र का जो एक लाख जप करता है, उसे निश्चित पुत्र की प्राप्ति होती है, ऐसा ब्रह्मा ने स्वयं कहा है ॥ ५६ ॥

स्तोत्रं शृणु मुनिश्रेष्ठ सर्वेषां च शुभावहम् ।
वाञ्छाप्रदं च सर्वेषां गूढं वेदे च नारद ॥ ५७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! नारद ! सब को शुभ प्रदान करने वाला स्तोत्र भी तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो, जो सबका मनोरथपूरक और वेद में गुप्त है ॥ ५७ ॥

प्रियव्रत उवाच
नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः ।
शुभायै देवसेनायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ५८ ॥
प्रियव्रत बोले-देवी को नमस्कार है, महादेवी, सिद्धि और शान्ति रूप को नमस्कार है, सुखदायिनी एवं मोक्षप्रद षष्ठी देवी को नमस्कार है ॥ ५८ ॥

वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः ।
सुखदायै मोक्षदायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ५९ ॥
वर प्रदान करने वाली एवं पुत्र, धन देने वाली को नमस्कार है तथा सुखमोक्ष देने वाली षष्ठी देवी को नमस्कार है ॥ ५९ ॥

शक्तेः षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः ।
मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६० ॥
शक्ति के छठे भाग स्वरूप और सिद्धा को बार-बार नमस्कार है । माया तथा सिद्धयोगिनी षष्ठी देवी को नमस्कार है ॥ ६० ॥

पारायै पारदायै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
सारायै सारदायै च पारायै सर्वकर्मणाम् ॥ ६१ ॥
श्रेष्ठ रूप, श्रेष्ठ बनाने वाली षष्ठी देवी को नमस्कार है, जो सारभाग स्वरूप और सारभाग दान करने वाली तथा समस्त कर्मों को सफल करने वाली है ॥ ६१ ॥

बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।
कल्याणदायै कल्याण्यै फलदाय च कर्मणाम् ।
प्रत्यक्षायै च भक्तानां षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६२ ॥
शाबालकों की अधिष्ठात्री देवी षष्ठी को नमस्कार है, जो कल्याण देने वाली, कल्याणीस्वरूप तथा समस्त कर्मों का फल प्रदान करने वाली है ॥ ६२ ॥

पूज्यायै स्कन्दकान्तायै सर्वेषां सर्वकर्मसु ।
देवरक्षणकारिष्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६३ ॥
भक्तों को साक्षात् दर्शन देने वाली षष्ठी देवी को नमस्कार है, जो स्कन्द की प्रिया और सभी लोगों की सब कमों में पूज्या है ॥ ६३ ॥

शुद्धसत्त्वस्वरुयायै वन्दितायै नृणां सदा ।
हिंसाक्रोधैर्वर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६४ ॥
देवों की रक्षा करने वाली षष्ठी देवी को नमस्कार है । शुद्ध सत्त्व रूप, मनुष्यों की सदा वन्दिता तथा हिंसा-क्रोध से रहित षष्ठी देवी को नमस्कार है ॥ ६४ ॥

धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि ।
धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६५ ॥
हे सुरेश्वरि ! मुझे धन, पत्नी और पुत्र दो । मुझे धर्म और यश प्रदान करो । षष्ठी देवी को बार-बार नमस्कार है ॥ ६५ ॥

भूमिं देहि प्रजां देहि देहि विद्यां सुपूजिते ।
कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ६६ ॥
हे सुपूजिते ! मुझे भूमि, सन्तान और विद्या प्रदान करो । मुझे कल्याण समेत जय प्रदान करो । मैं षष्ठी देवी को बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ६६ ॥

इति देवीं च संस्तूय लेभे पुत्रं प्रियव्रतः ।
यशस्विनं च राजेन्द्रं षष्ठीदेवीप्रसादतः ॥ ६७ ॥
इस भांति देवी की स्तुति कर के प्रियव्रत ने पुत्र की प्राप्ति की, जो षष्ठी देवी की कृपा से यशस्वी राजेन्द्र हुआ ॥ ६७ ॥

षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मन्यः शृणोति च वत्सरम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं वरं सुचिरजीविनम् ॥ ६८ ॥
वर्षमेकं च या भक्त्या संयतेदं शृणोति च ।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्ता महावन्ध्या प्रसूयते ॥ ६९ ॥
हे ब्रह्मन् । इस षष्ठी स्तोत्र को जो पूरे वर्ष तक सुनता है, उसे पुत्र की कामना से उत्तम और अतिचिरायु पुत्र प्राप्त होता है और भक्तिपूर्वक एक वर्ष तक संयम से जो स्त्री इसका श्रवण करती है, वह महावन्ध्या होने पर भी समस्त पापों से मुक्त होकर पुत्र उत्पन्न करती है ॥ ६८-६९ ॥

वीरपुत्रं च गुणिनं विद्यावन्तं यशस्विनम् ।
सुचिरायुष्मन्तमेव षष्ठीमातृप्रसादतः ॥ ७० ॥
काकवन्ध्या च या नारी मृतापत्या च या भवेत् ।
वर्षं श्रुत्वा लभेत्पुत्रं षष्ठीदेवी प्रसादतः ॥ ७१ ॥
रोगयुक्ते च बाले च पिता माता शृणोति च ।
मासं च मुच्यते बालः षष्ठीदेवीप्रसादतः ॥ ७२ ॥
षष्ठी माता के प्रसाद से वीरपुत्र, गुणवान्, विद्यावान्, यशस्वी और अत्यन्त आयुष्मान् पुत्र की प्राप्ति होती है । काकवन्ध्या और जिसके बच्चे जीवित न रहते हों, वे स्त्रियाँ भी एक वर्ष तक इसका श्रवण कर के षष्ठी देव की कृपा से पुत्र प्राप्त करती हैं । बच्चे के रोगी होने पर उसके माता पिता एक मास तक यदि इसका श्रवण करते हैं तो षष्ठी देवी के प्रसाद से वह बालक उसी समय रोगमुक्त हो जाता है ॥ ७०-७२ ॥

इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे षष्ठ्युपाख्याने षष्ठीदेव्युत्पत्ति-
तत्पूजास्तोत्रादिकथनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायणसंवादविषयक षष्ठी-उपाख्यान में षष्ठी देवी की उत्पत्ति, पूजा और स्तोत्र आदि कथन नामक तैतालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४३ ॥

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