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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः मङ्गलचण्डिकोपाख्याने तत्स्तोत्रादिकथनम् -
मंगलचंडी का उपाख्यान - नारायण उवाच कथितं षष्ठ्युपाख्यानं ब्रह्मपुत्र यथागमम् । देवी मङ्गलचण्डी या तदाख्यानं निशामय ॥ १ ॥ तस्याः पूजादिकं सर्वं धर्मवक्त्राच्च यच्छ्रुतम् । श्रुतिसंमतमेवेष्टं सर्वेषां विदुषामपि ॥ २ ॥ नारायण बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! वेदानुसार षष्ठी देवी का उपाख्यान तुम्हें सुना दिया, अब मंगलचण्ड । देवों का आख्यान सुना रहा हूँ, सुनो ! उसके पूजा आदि के विषय में जो कुछ धर्म के मुख से सुना वह वेदानुसार एवं सभी विद्वानों को भी इष्ट है ॥ १-२ ॥ चण्डा या वर्तते चण्डी जाग्रती शत्रुमण्डले । मङ्गलेषु च या दक्षा मङ्गला सैव चण्डिका ॥ ३ ॥ कोप. अर्थ में चण्डी शब्द का प्रयोग होता है, इसीलिए चण्डी देवो शत्रुसमूहों में निरन्तर जागती रहती हैं और मंगल कार्यों में निपुण होने के नाते उसे 'मंगलचण्डी देवी' कहते हैं ॥ ३ ॥ दुर्गायां विद्यते चण्डी मङ्गलोऽपि महीसुतः । मङ्गलाऽभीष्टदेवी या सा स्यान्मङ्गलचण्डिका ॥ ४ ॥ दुर्गा के अर्थ में चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और पृथ्वी-पुत्र के अर्थ में मंगल शब्द का अतः मंगल और अभीष्ट (मनोरथ) सिद्ध करने वाली देवी को 'मंगलचण्डी' कहा जाता है ॥ ४ ॥ मङ्गलो मनुवंशश्च सप्तद्वीपावनीपतिः । तस्य पूज्याऽभीष्टदेवी तेन मङ्गलचण्डिका ॥ ५ ॥ मनु वंश में उत्पन्न मंगल की, जो सातों द्वीपों वाली पृथ्वी के स्वामी हैं, पूज्या और मनोरथ सिद्ध करने वाली देवी होने के नाते उसे 'मंगलचण्डिका' देवी कहते हैं ॥ ५ ॥ मूर्तिभेदेन सा दुर्गा मूलप्रकृतिरीश्वरी । कृपारूपाऽतिप्रत्यक्षा योषितामिष्टदेवता ॥ ६ ॥ मूर्ति-भेद से वह दुर्गा, अधीश्वरी, मूलप्रकृति और स्त्रियों की इष्ट देवता है जो कृषा रूप होकर उन्हें अति प्रत्यक्ष होती रहती है ॥ ६ ॥ प्रथमे पूजिता सा च शंकरेण पुरा परा । त्रिपुरस्य वधे घोरे विष्णुना प्रेरितेन च ॥ ७ ॥ हे ब्रह्मन् ! पूर्व काल में जब त्रिपुरासुर का वध करना था, तो भगवान् विष्णु से प्रेरित होकर शंकर ने सर्वप्रथम उस सर्वश्रेष्ठ देवी की अर्चना की ॥ ७ ॥ ब्रह्मन्ब्रह्मोपदेशेन दुर्गप्रस्थे च संकटे । आकाशात्पतिते याने रुषा दैत्येन पातिते ॥ ८ ॥ अनन्तर अपने दुर्ग (किले) पर संकट उपस्थित होने पर (त्रिपुरासुर) दैत्य ने शिव के रथ को अत्यन्त क्रुद्ध होकर आकाश से गिरा दिया ॥ ८ ॥ ब्रह्मविष्णूपदिष्टश्च दुर्गां तुष्टाव शंकरः । सा च मङ्गलचण्डीयमभवद्रूपभेदतः ॥ ९ ॥ पुनः ब्रह्मा और विष्णु के सदुपदेश देने पर शंकर ने दुर्गा की आराधना की । वहीं यह रूप भेद से मंगलचण्डी हुई ॥ ९ ॥ उवाच परतः शंभोर्भयं नास्तीति ते प्रभो । भगवान्वृषरूपश्च सर्वेशश्च बभूव ह ॥ १० ॥ उस समय शंकर के सामने खड़ी होकर उसने कहा-हे प्रभो ! अब तुम्हें कोई भय नहीं है । भगवान् सर्वाधीश्वर वृष (बैल) रूप में तुम्हारे वाहन हुए हैं । ॥ १० ॥ युद्धशक्तिस्वरूपाऽहं भविष्यामि तदाज्ञया । मयाऽऽत्मना च हरिणा सहायेन वृषध्वज । जहि दैत्यं च देवेश सुराणां पदघातकम् ॥ ११ ॥ इत्युक्त्वाऽन्तर्हिता देवी शंभोः शक्तिर्बभूव सा । विष्णुदत्तेन शस्त्रेण जघान तमुमापतिः ॥ १२ ॥ हे वृषध्वज ! मैं भगवान् की आज्ञा से तुम्हारी युद्ध शक्ति का स्वरूप धारण करूँगी । हे देवेश ! इस प्रकार मेरी और भगवान् की सहायता से देवों के पदापहारी । उस दैत्य का हनन करो । इतना कह कर वह देवी अन्तहित हो गयी और शिव की शक्ति हई । हे मुनीन्द्र ! अनन्तर उमापति महादेव ने भगवान् विष्णु के दिए हुए अस्त्र द्वारा उस दैत्य का विध्वंस किया ॥ ११-१२ ॥ मुनीन्द्र पतिते दैत्ये सर्वे देवा महर्षयः । तुष्टुवुः शंकरं देवा भक्तिनम्रात्मकंधराः ॥ १३ ॥ सद्यः शिरसि शंभोश्च पुष्पवृष्टिर्बभूव ह । ब्रह्मा विष्णुश्च संतुष्टो ददौ तस्मै शुभाशिषम् ॥ १४ ॥ उपरान्त दैत्य का पतन होने पर सभी देवगण और महर्षि-वृन्दों ने भक्तिपूर्वक कन्धे झुकाये शिव की स्तुति की । उसी समय शंकर के शिर पर पुष्पों की वृष्टि होने लगी । ब्रह्मा और भगवान् विष्णु ने सन्तुष्ट होकर उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किया ॥ १३-१४ ॥ ब्रह्मविष्णूपदिष्टश्च सुस्नातः शंकरः शुचिः । पूजयामास तां शक्तिं देवीं मङ्गलचण्डिकाम् ॥ १५ ॥ पाद्यार्घ्याचमनीयैश्च बलिभिर्विविधैरपि । पुष्पचन्दननैवेद्यैर्भक्त्या नानाविधैर्मुने ॥ १६ ॥ छागैर्मेषैश्च महिषैर्गण्डैर्मायाविभिर्वरैः । वस्त्रालंकारमाल्यैश्च पायसैः पिष्टकैरपि ॥ १७ ॥ मधुभिश्च सुधाभिश्च पक्वैर्नानाविधैः फलैः । संगीतैर्नर्तनैर्वाद्यैरुत्सवैः कृष्णकीर्तनैः ॥ १८ ॥ ध्यात्वा माध्यंदिनोक्तेन ध्यानेन विधिपूर्वकम् । ददौ द्रव्याणि मूलेन मन्त्रेणैव च नारद ॥ १९ ॥ अनन्तर ब्रह्मा और विष्णु के उपदेश देने पर शिव ने भली भाँति स्नान किया तथा पवित्र होकर शक्तिस्वरूप मंगलचण्डिका देवी की पूजा की । पाद्य, अर्घ्य, आचमन, अनेक प्रकार की बलि भक्तिपूर्वक पुष्प, चन्दन और अनेक भाँति के नैवेद्य अर्पित किये । हे मुने ! उसी भौति बकरे, भेड़े, भैसे, गैड़े, उत्तम जादूगर ( ?), वस्त्र, अलंकार, माला, खीर, मालपुए, मधु (शहद), सुधा, अनेक भांति के पके फल, सङ्गीत, नृत्य, वाद्य और भगवान् कृष्ण के नाम संकीर्तन के उत्सव द्वारा माध्यन्दिनी शाखा के अनुसार ध्यान विधिपूर्वक करके मूल मंत्र से ही सब द्रव्य समर्पित किये ॥ १५-१९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मङ्गलचण्डिके । ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविंशाक्षरो मनुः ॥ २० ॥ हे नारद ! 'ओं ह्रीं, श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मंगलचण्डिके ऐं क्रू फट् स्वाहा' यही इक्कीस अक्षर का महामंत्र है ॥ २० ॥ पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः । दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ २१ ॥ यह भक्तों के लिए पूज्य, कल्पतर और समस्त कामनाओं को सफल करने वाला है । इसके दश लाख जप करने से मनुष्यों को सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २१ ॥ मन्त्रसिद्धिर्भवेद्यस्य स विष्णुः सर्वकामदः । ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन्वेदोक्तं सर्वसंमतम् ॥ २२ ॥ और जिसे मंत्र सिद्धि हो जाती है, वह समस्त कामनाओं का दाता विष्णु हो जाता है । हे ब्रह्मन् ! अब वेदोक्त और सर्वसम्मत उनका ध्यान सुनो ॥ २२ ॥ देवीं षोडशवर्षीयां रम्यां सुस्थिरयौवनाम् । सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् ॥ २३ ॥ सोलह वर्ष की अवस्था वाली देवी की सेवा कर रहा हूँ, जो रमणीक, अति चिरस्थायी यौवन वाली, समस्त गुणों से पूर्ण, कोमल अंगों वाली एवं मनोहर है ॥ २३ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २४ ॥ बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् । बिम्बोष्ठीं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् ॥ २५ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोत्पललोचनाम् । जगद्धात्रीं च दात्री च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् ॥ २६ ॥ संसारसागरे घोरे पोतरूपां वरां भजे ॥ २७ ॥ तथा श्वेत चम्पा पुष्प के समान रूपरंग वाली, करोड़ों चन्द्रमा की भाँति कान्ति वाली, अग्नि की भाँति विशुद्ध वस्त्र एवं रत्नों के भूषणों से भूषित, केशपाश से सुशोभित, बेला की माला से विभूषित, बिम्बाफल के समान ओंठ वाली, सुन्दर दांतों की पंक्ति वाली, शुद्ध स्वरूप, शारदीय कमल के समान मुख वाली, मन्दहास समेत प्रसन्न वदन वाली, नीलकमल की भाँति सुन्दर नेत्र वाली, जगत् को धारण करने वाली, सबको समस्त सम्पदा प्रदान करने वाली तथा इस घोर संसार-सागर को पार कराने के लिए जहाज रूप है ॥ २४-२७ ॥ देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने । प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः ॥ २८ ॥ हे मुने ! देवी का यही ध्यान है, अब उनकी स्तुति सुनो ! जिसके द्वारा शंकर ने संकट के समय पवित्र होकर स्तुति की थी ॥ २८ ॥ शंकर उवाच रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके । संहर्त्रि विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके ॥ २९ ॥ शंकर बोले-हे मंगलचण्डिके देवी ! तुम जगत् की माता हो, हमारी रक्षा करो । तुम विपत्तियों की राशियों का संहार करने वाली एवं हर्ष और मंगल करने वाली हो ॥ २९ ॥ हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके । शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गलचण्डिके ॥ ३० ॥ हर्ष और मंगल (प्रदान करने में निपुण, हर्ष तथा मंगलचण्डी स्वरूप, शुभमंगल देने वाली तथा शुभमंगलचण्डी हो ॥ ३० ॥ मङ्गले मङ्गलार्हे च सर्वमङ्गलमङ्गले । सतां मङ्गलदे देवि सर्वेषां मङ्गलालये ॥ ३१ ॥ एवं मंगलमूर्ति, मंगल के योग्य, समस्त मंगलों की मंगल हो । हे देवि ! तुम सज्जनों को मंगल दान करती हो और सभी की मंगलनिधि हो ॥ ३१ ॥ पूज्या मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदेवते । पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य संततम् ॥ ३२ ॥ मंगलवार को तुम्हारी पूजा होती है, तुम मंगल की इष्ट देवता हो और मनुसे उत्पन्न राजा मंगल की निरंतर पूज्या हो ॥ ३२ ॥ मङ्गलाधिष्ठातृदेवि मङ्गलानां च मङ्गले । संसारमङ्गलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि ॥ ३३ ॥ हे मंगल की अधिष्ठात्री देवी ! तुम मंगलों के लिए मंगल रूप हो, संसार के मंगलों का आधार और मोक्षमंगल देने वाली है ॥ ३३ ॥ सारे च मङ्गलाधारे पारे त्वं सर्वकर्मणाम् । प्रतिमङ्गलवारे च पूज्ये त्वं मङ्गलप्रदे ॥ ३४ ॥ तुम (सब का) सारभाग, मंगल का आधार, समस्त कर्मों से परे और प्रत्येक मंगल में पूज्य एवं मंगल देने वाली हो ॥ ३४ ॥ स्तोत्रेणानेन शंभुश्च स्तुत्वा मङ्गलचण्डिकाम् । प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः ॥ ३५ ॥ इसी स्तोत्र द्वारा शंकरजी मंगलचण्डिका की स्तुति कर के प्रत्येक मंगल के दिन उनकी पूजा करके गये ॥ ३५ ॥ देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः शृणोति समाहितः । तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत्तदमङ्गलम् ॥ ३६ ॥ देवी का यह मंगल-स्तोत्र, जो सावधान होकर सुनता है, उसका निरन्तर मंगल होता है और कभी भी अमंगल नहीं होता ॥ ३६ ॥ प्रथमे पूजिता देवी शंभुना सर्वमङ्गला । द्वितीये पूजिता देवी मङ्गलेन ग्रहेण च ॥ ३७ ॥ तृतीये पूजिता भद्रा मङ्गलेन नृपेण च । चतुर्थे मङ्गले वारे सुन्दरीभिश्च पूजिता ॥ पञ्चमे मङ्गलाकाङ्क्षैर्नरैर्मङ्गलचण्डिका ॥ ३८ ॥ पूजिता प्रतिविश्वेषु विश्वेशैः प्रतिमा सदा । ततः सर्वत्र संपूज्या सा बभूव सुरेश्वरी ॥ ३९ ॥ देवादिभिश्च मुनिभिर्मनुभिर्मानवैर्मुने । देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ॥ ४० ॥ तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत्तदमङ्गलम् । वर्धन्ते तत्पुत्रपौत्रा मङ्गल च दिने दिने ॥ ४१ ॥ पहले मंगल को मंगला देवी की पूजा शम्भु ने की, दूसरे मंगल को मंगल ग्रह ने देवी की अर्चना की, तीसरे मंगल को भद्रा देवी की अर्चा राजा मंगल द्वारा हुई तथा चौथे मंगल वार के समय सुन्दरियों ने उनकी अर्चा सम्पन्न की एवं पाँचवें मंगल को मंगलाभिल.षी मनुष्यों ने मंगलचण्डिका की आराधना की । इस प्रकार प्रत्येक विश्व में जगदीश्वरों ने सदा उनकी अर्चना की । हे मुने ! देवगण, मुनिगण, मनुवन्द और मनुष्यों द्वारा पूजित होकर पश्चात् यह देवाधीश्वरी देवी चारों ओर सुपूजित हुई । देवी का मंगल-स्तोत्र जो सावधान होकर सुनता है, उसका निरन्तर मंगल ही होता है, अमंगल कभी नहीं और मंगल समेत उसके पुत्र-पौत्र दिन-दिन बढ़ते रहते हैं ॥ ३७-४१ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मङ्गलचण्डिकोपाख्याने तत्स्तोत्रादिकथनं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद-विषयक मंगलचण्डिकोपाख्यान में मंगला देवी की पूजा और स्तोत्र आदि कथन नामक चौवालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४४ ॥ |