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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः मनसोपाख्याने मनसास्तोत्रादिकथनम् -
मनसा देवी का उपाख्यान - नारायण उवाच उक्तं द्वयोरुपाख्यानं ब्रह्मपुत्र यथागमम् । श्रूयतां मनसाख्यानं यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रतः ॥ १ ॥ नारायण बोले-- हे ब्रह्मपुत्र ! दोनों (देवियों) का उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया; अब धर्म के मुख से मनसा का आख्यान जैसा सुना है, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ १ ॥ कन्या भगवती सा च कश्यपस्य च मानसी । तेनेयं मनसादेवी मनसा या च दीव्यति ॥ २ ॥ वह भगवती कश्यप के मन से उत्पन्न होने के कारण मनसा देवी कहलाती है, जो मन से क्रीड़ा करती है । ॥ २ ॥ मनसा ध्यायते या वा परमात्मानमीश्वरम् । तेन सा मनसादेवी योगेनैतेन दीव्यति ॥ ३ ॥ योग द्वारा मन से परमात्मा ईश्वर का वह ध्यान करती है, अतः वह मनसा देवी योग से चमकती है ॥ ३ ॥ आत्मारामा च सा देवी वैष्णवी सिद्धयोगिनी । त्रियुगं च तपस्तप्त्वा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ४ ॥ उस वैष्णवी एवं सिद्धयोगिनी ने आत्माराम (आत्मा में रमण करने वाली) होकर तीन युगों तक परमात्मा श्रीकृष्ण का कठिन तप किया ॥ ४ ॥ जरत्कारुशरीरं च दृष्ट्वा यां क्षणमीश्वरः । गोपीपतिर्नाम चक्रे जरत्कारुरिति प्रभुः ॥ ५ ॥ वाञ्छितं च ददौ तस्यै कृपया च कृपानिधिः । पूजां च कारयामास चकार च पुनः स्वयम् ॥ ६ ॥ अनन्तर ईश्वर गोपीपति ने क्षणमात्र जरत्कारु मुनि को तरह शरीर देखकर उसका 'जरत्कार' नाम रख दिया । दयानिधान ने कृपा करके उसका मनोरथ सिद्ध करने के उपरान्त उसका पूजन कराया और स्वयं भी किया ॥ ५-६ ॥ स्वर्गे च नागलोके च पृथिव्यां ब्रह्मलोकतः । भृशं जगत्सु गौरी सा सुन्दरी च मनोहरा । जगद्गौरीति विख्याता तेन सा पूजिता सती ॥ ७ ॥ शिवशिष्या च सा देवी तेन शैवीति कीर्तिता । विष्णुभक्ताऽतीव रम्या वैष्णवी तेन नारद ॥ ८ ॥ वह स्वर्गलोक, नागलोक तथा ब्रह्मलोक से समस्त पृथ्वी अर्थात् सारे जगत् में अत्यन्त गौरी (गौरवर्ण), सुन्दरी और मनोहर थी, जिससे यह सती 'जगत्गौरी' होकर प्रख्यात एवं पूजित हुई । तथा शिव जी की शिष्या होने के नाते उस देवी को शैवी भी कहा गया है ॥ ७-८ ॥ नागानां प्राणरक्षित्री जनमेजययज्ञके । नागेश्वरीति विख्याता सा नागभगिनी तथा ॥ ९ ॥ हे नारद ! अत्यन्त विष्णुभक्त होने के नाते वह सुन्दरी वैष्णवी कही जाती है । जनमेजय के (सर्प ) यज्ञानुष्ठान में नागों के प्राण की रक्षा उसी ने की ॥ ९ ॥ विषं संहर्तुमीशा सा तेन सा विषहारिणी । सिद्धं योगं हरात्प्राप तेनासौ सिद्धयोगिनी ॥ १० ॥ महाज्ञानं च गोप्यं च मृतसंजीविनीं पराम् । महाज्ञानयुतां तां च प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ११ ॥ आस्तीकस्य मुनीन्द्रस्य माता सा वै तपस्विनः । आस्तीकमाता विख्याता जरत्कारुरिति स्मृता ॥ १२ ॥ प्रिया मुनेर्जरत्कारोर्मुनीन्द्रस्य महात्मनः । योगिनी विश्वपूज्यस्य जरत्कारोः प्रिया ततः ॥ १३ ॥ इसीलिए वह 'नागेश्वरी' नाम से भी प्रख्यात है । वह नागों की भगिनी है । इस प्रकार विष का संहार करने में समर्थ होने के नाते विषहारिणी और भगवान् शंकर से सिद्ध योग प्राप्त करने के नाते 'सिद्धयोगिनी' कही जाती है । वह गोप्य महाज्ञान और सर्वश्रेष्ठ मृत्संजीविनी जानती है, इसीलिए विद्वत्समुदाय उसे महाज्ञानी कहता है । वह तपस्वी एवं मुनीन्द्र आस्तीक की माता है । आस्तीक की माता जरत्कारु विख्यात है । वह महात्मा, मुनीन्द्र एवं मुनि जरत्कारु की प्रिया थी जो विश्वपूज्य योगी थे । ॥ १०-१३ ॥ २ नमो मनसायै ॥ १४ ॥ जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ॥ १५ ॥ जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति च । महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ॥ १६ ॥ 'ओं नमो मनसायै' यही मन्त्र है । जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरी तथा महाज्ञानयुता, उस विश्व पूजिता देवी के ये बारह नाम हैं ॥ १४-१६ ॥ द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च यः पठेत् । तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ १७ ॥ अतः पूजा के समय जो इन बारह नामों का उच्चारण करता है, उसे तथा उसके कुल में किसी को नाग भय नहीं होता है ॥ १७ ॥ नागभीदे च शयने नागग्रस्ते च मन्दिरे । नागक्षते नागदुर्गे नागवेष्टितविग्रहे ॥ १८ ॥ इदं स्तोत्रं पठित्वा तु मुच्यते नात्र संशयः । नित्यं पठेद्यस्तं दृष्ट्वा नागवर्गः पलायते ॥ १९ ॥ इस भाँति नाग भय देने वाले शयन, नागग्रस्त भवन, नाग के काटने पर, नागों के दुर्ग में और शरीर में नाग के लिपट जाने पर, इस स्तोत्र के पाठ करने से मनुष्य उससे मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं । नित्य इसके पाठ करने वाले को देख कर नागसमूह भाग जाता हैं ॥ १८-१९ ॥ दशलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् । स्तोत्रं सिद्धं भवेद्यस्य स विषं भोक्तुमीश्वरः ॥ २० ॥ इसके दस लाख जप करने से मनुष्यों को स्तोत्र-सिद्धि हो जाता है और जिसे स्तोत्र सिद्ध हो जाता है वह विष खाने में भी समर्थ होता है ॥ २० ॥ नागौघं भूषणं कृत्वा स भवेन्नागवाहनः । नागासनो नागतल्पो महासिद्धो भवेन्नरः ॥ २१ ॥ नागों को भूषणों की भांति धारण कर के वह नागवाहन हो जाता है और महासिद्ध होने वाले मनुष्य तो नाग का आसन तथा नाग की गय्या भी बनाते हैं ॥ २१ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मनसोपाख्याने मनसास्तोत्रादिकथनं नाम पञ्चचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायणसंवादविषयक मनसा देवी के उपाख्यान में उसके स्तोत्रादि कथन नामक पैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४५ ॥ |