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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - षट्चत्वारिंशोऽध्यायः मनसोपाख्याने तदुत्पत्तिपूजास्तोत्रादिकथनम् -
मनसा देवी के स्तोत्र - नारायण उवाच पूजाविधानं स्तोत्रं च श्रूयतां मुनिपुंगव । ध्यानं च सामवेदोक्तं देवीपूजाविधानकम् ॥ १ ॥ आदि नारायण बोले-हे मुनिपुंगव ! उसके पूजा-विधान, स्तोत्र और सामवेदानुसार उस देवी की पूजा में किया जाने वाला ध्यान भी बता रहा हूँ, सुनो ! ॥ १ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां नागयज्ञोपवीतिनीम् ॥ २ ॥ महाज्ञानयुतां चैव प्रवरां ज्ञानिनां सताम् । सिद्धाधिष्ठातृदेवीं च सिद्धां सिद्धिप्रदां भजे ॥ ३ ॥ श्वेत चम्पा पुष्प के समान रूपरंग वाली, रत्नों के भूषणों से भूषित, अग्नि की भांति विशुद्ध वस्त्र पहने, नागों का यज्ञोपवीत धारण किये, महाज्ञानसुसम्पन्न सज्जन ज्ञानियों में अतिश्रेष्ठ, सिद्धों की अधिष्ठात्री देवी, सिद्धस्वरूप एवं सिद्धि देने वाली उस (मनसा) देवी की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ २-३ ॥ इति ध्यात्वा च तां देवीं मूलेनैव प्रपूजयेत् । नैवेद्यैर्विविधैर्दीपैः पुष्पैर्धूपानुलेपनैः ॥ ४ ॥ इस प्रकार उस देवी का ध्यान करके मूलमन्त्र द्वारा अनेक भांति के नैवेद्य, दीपक, पुष्प, धूप और लेपन से उसकी पूजा करे ॥ ४ ॥ मूलमन्त्रश्च वेदोक्तो भक्तानां वाञ्छितप्रदः । मूलकल्पतरुर्नाम प्रसिद्धो द्वादशाक्षरः ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मनसादेव्यै स्वाहेति कीर्तितः । पञ्चलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ६ ॥ मूल मन्त्र का मूल कल्पतरु नाम है, जो वेदोक्त, भक्तों का मनोरथ सिद्ध करने वाला, अतिसिद्ध और द्वादश (१२) अक्षर का है-'ओं ह्रीं श्रीं क्रीं ऐं मनसा देव्यै स्वाहा' यह । मन्त्र है । इस के पाँच लाख जप करने से मनुष्यों को मन्त्र-सिद्धि प्राप्त होता है ॥ ५-६ ॥ मन्त्रसिद्धिर्भवेद्यस्य स सिद्धो जगतीतले । सुधासमं विषं तस्य धन्वन्तरिसमो भवेत् ॥ ७ ॥ और जिसे मन्त्र सिद्धि हो जाती है, वह समस्त विश्व में सिद्ध कहलाता है, उसके लिए विष अमृत तुल्य होता है और वह धन्वन्तरि के समान हो जाता है ॥ ७ ॥ ब्रह्मन्नाषाढसंक्रान्त्यां गुडाशाखासु यत्नतः । आवाह्य देवी मासान्तं पूजयेद्यो हि भक्तितः ॥ ८ ॥ पञ्चम्यां मनसाख्यायां देव्यै दद्याच्च यो बलिम् । धनवान्पुत्रवांश्चैव कीतिमान्स भवेद्ध्रुवम् ॥ ९ ॥ हे ब्रह्मन् ! आषाढ़ की संक्रांति के दिन कपास की शाखा में मनसा देवी का आवाहन कर जो भक्तिपूर्वक एक मासतक भक्तिपूर्वक पूजन करता है, तथा पञ्चमी के दिन जो मनसा देवी को बलि प्रदान करता है वह धनवान्, पुत्रवान् और यशस्वी निश्चित होता है ॥ ८-९ ॥ पूजाविधानं कथित तदाख्यानं निशामय । कथयामि महाभाग यच्छ्रुतं धर्मवक्त्रतः ॥ १० ॥ हे महाभाग ! इस प्रकार मैंने उस देवी का पूजाविधान तुम्हें सुना दिया, अब धर्म के मुख से उसका आख्यान जैसा सुना है, कह रहा हूँ, सुनो ॥ १० ॥ पुरा नागभयाक्रान्ता बभूवुर्मानवा भुवि । यान्यान्खादन्ति नागाश्च नते जीवन्ति नारद ॥ ११ ॥ हे नारद ! पूर्वकाल में इस भूतल पर मनुष्यगण नागों के भय से अधमरे-से हो रहे थे । क्योंकि नाग लोग जिन्हें काट खाते थे वे जीवित नहीं बचते थे ॥ ११ ॥ मन्त्रांश्च ससृजे भीतः कश्यपो ब्रह्मणाऽर्थितः । वेदबीजानुसारेण चोपदेशेन वेधसः ॥ १२ ॥ अनन्तर ब्रह्मा के कहने पर भयभीत होकर कश्यप ने मन्त्रों का निर्माण किया, जो ब्रह्मा के उपदेश से वेदबीजानुसार ही थे ॥ १२ ॥ मन्त्राधिष्ठातृदेवीं तां मनसां ससृजे ततः । तपसा मनसा तेन मनसा सा बभूव ह ॥ १३ ॥ अनन्तर उन्होंने तप करके मन द्वारा मनसा देवी को उत्पन्न किया जो मन्त्रों की अधिष्ठात्री देवी बनायी गयी और इसी से वह मनसा कहलाने लगी ॥ १३ ॥ कुमारी सा च संभूय चागमच्छंकरालयम् । भक्त्या संपूज्य कैलासे तुष्टुवे चन्द्रशेखरम् ॥ १४ ॥ उत्पन्न होने के उपरान्त वह देव । शिव के निवास स्थान कैलाश पर जाकर भक्तिपूर्वक चन्द्रशेखर शिव की पूजा करके स्तुति करने लगी ॥ १४ ॥ दिव्यं वर्षसहस्रं च तं सिषेवे मुनेः सुता । आशुतोषो महेशश्च तां च तुष्टो बभूव ह ॥ १५ ॥ उस मुनि-कन्या ने सहस्र दिव्य वर्ष तक शिव की आराधना के । पश्चात् आशुतोष महेश्वर उस पर प्रसन्न हुए ॥ १५ ॥ महाज्ञानं ददौ तस्यै पाठयामास साम च । कृष्णमन्त्रं कल्पतरुं ददावष्टाक्षरं मुने ॥ १६ ॥ हे मुने ! उन्होंने उसे महाज्ञान देकर सामवेद पढ़ाया और भगवान् श्रीकृष्ण का अष्टाक्षर मन्त्र कल्पतरु भी उसे प्रदान किया ॥ १६ ॥ लक्ष्मी माया कामबीजं ङेन्तं कृष्णपदं तथा । ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय ॥ त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं पूजनक्रमम् ॥ १७ ॥ स्तवनं सर्वपूज्य च ध्यानं भुवनपावनम् । पुरश्चर्याक्रमं चापि वदौक्त सर्वसंमतम् ॥ १८ ॥ प्राप्य मृत्युंजयाज्ञानं परं मृत्युंजयं सती । जगाम तपसे साध्वी पुष्करं शंकराज्ञया ॥ १९ ॥ लक्ष्मी, माया, काम-बीज और चतुर्थ्यन्त कृष्ण पद जोड़ देने से बना मंत्र-'ओं श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः' त्रैलोक्यमंगल नामक कवच, पूजनक्रम, सर्वपूज्या स्तुति, लोक को पवित्र करनेवाला ध्यान और वेदानुसार सर्वसम्मत पुरश्चरण (अनुष्ठान) का क्रम तथा उत्तम मृत्युञ्जय ज्ञान उस सती ने मृत्युञ्जय से प्राप्त कर उनकी आज्ञा से तप करने के लिए पुष्कर क्षेत्र को प्रस्थान किया ॥ १७-१९ ॥ त्रियुगं च तपस्तप्त्वा कृष्णस्य परमात्मनः । सिद्धा बभूव सा देवी ददर्श पुरतः प्रभुम् ॥ २० ॥ परमात्मा श्रीकृष्ण के लिए तीन युग तक उसने तप किया और सिद्ध होने पर उस देवी ने अपने सामने उस प्रभु का साक्षात् दर्शन भी किया ॥ २० ॥ दृष्ट्वा कृशाङ्गीं बालां च कृपया च कृपानिधिः । पूजां च कारयामास चकार च हरिः स्वयम् ॥ २१ ॥ उपरान्त' कृपानिधान भगवान् ने उस कृशांगी (दुर्बल देह वाली) नवयुवती को देखकर उसकी पूजा करायी और स्वयं भी की ॥ २१ ॥ वरं च प्रददौ तस्यै पूजिता त्वं भवे भव । वरं दत्त्वा च कल्याण्यै सद्यश्चान्तर्दधे विभुः ॥ २२ ॥ उसे वरदान भी दिया-'हे भवे ! तुम (समस्त विश्व में) पूजित हो । ' उस कल्याणदायिनी को वर देकर भगवान् तत्क्षण अन्तहित हो गये ॥ २२ ॥ प्रथमे पूजिता सा च कृष्णेन परमात्मना । द्वितीये शंकरेणैव कश्यपेन सुरेण च ॥ २३ ॥ मनुना मुनिना चैव ह्यहिना मानवादिना । बभूव पूजिता सा च त्रिषु लोकेषु सुव्रता ॥ २४ ॥ इस प्रकार सर्वप्रथम परमात्मा कृष्ण ने उसकी पूजा की, दूसरे शंकर ने तब कश्यप और देवताओं ने । मनु, मुनि, नाग और मनुष्यों आदि ने भी उसकी पूजा की । इस प्रकार वह सुव्रता देवी तीनों लोकों में पूजित हुई ॥ २३-२४ ॥ जरत्कारुमुनीन्द्राय कश्यपस्तां ददौ पुरा । अयाचितो मुनिश्रेष्ठो जग्राह ब्राह्मणाज्ञया ॥ २५ ॥ पूर्व समय में कश्यप ने मुनीन्द्र जरत्कारु को उसे सौंप दिया था । यद्यपि मुनिश्रेष्ठ ने उसकी याचना नहीं की थी, किन्तु ब्राह्मण की आज्ञा से उन्हें उसको स्वीकार करना ही पड़ा ॥ २५ ॥ कृत्वोद्वाहं महायोगी विश्रान्तस्तपसा चिरम् । सुष्वाप देव्या जघने वटमूले च पुष्करे ॥ २६ ॥ विवाह करने के उपरान्त उस महायोगी ने चिरकाल की तपस्या से विश्राम करने की इच्छा प्रकट की और वटवृक्ष के नीचे उसी सती की जंघा पर शिर रख कर सो गये ॥ २६ ॥ निद्रां जगाम स मुनिः स्मृत्वा निद्रेशमीश्वरम् । जगामास्तं दिनकरः सायंकाल उपस्थितः ॥ २७ ॥ अनन्तर निद्राधीश्वर भगवान् को स्मरण करते हुए मुनि के निद्रामग्न (गाढ़ी नींद में) होने पर सूर्यास्त के कारण संध्याकाल उपस्थित हो गया ॥ २७ ॥ संचिन्त्य मनसा तत्र मनसा च पतिव्रता । धर्मलोपभयेनैव चकाराऽऽलोचनं सती ॥ २८ ॥ अकृत्वा पश्चिमां संध्या नित्या चैव द्विजन्मनाम् । ब्रह्महत्यादिकं पापं लभिष्यति पतिर्मम ॥ २९ ॥ उस समय पतिव्रता मनसा ने मन से भलीभाँति विचार कर धर्म के लोप के भय से पुनः निश्चय किया कि-'द्विजों की नित्य सायंकालिक संध्या को यदि हमारे पतिदेव सुसम्पन्न न करेंगे, तो उन्हें ब्रह्महत्या आदि पापों का भागी होना पड़ेगा ॥ २८-२९ ॥ नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम् । स सर्वदाऽशुचिर्नित्यं ब्रह्महत्यादिकं लभेत् ॥ ३० ॥ क्योंकि जो पूर्व (प्रातः) काल की संध्या और सायंकाल की संध्या सुसम्पन्न नहीं करता है, वह सदैव अपवित्र रहकर ब्रह्महत्या आदि का भागी होता है ॥ ३० ॥ वेदोक्तमिति संचिन्त्य बोधयामास तं मुनिम् । स च बुद्ध्वा मुनिश्रेष्ठस्तां चुकोप भृशं मुनिः ॥ ३१ ॥ वेदानुसार इन बातों को भलीभांति सोच-विचार कर उसने मुनिदेव को जगा दिया, किन्तु जागने पर मुनिश्रेष्ठ उस पर अतिक्रुद्ध हो गये ॥ ३१ ॥ जरत्कारुरुवाच कथं मे सुव्रते साध्वि निद्राभङ्गः कृतस्त्वया । व्यर्थं व्रतादिकं तस्या या भर्तुश्चापकारिणी ॥ ३२ ॥ जरत्कारु बोले-हे सुव्रते ! हे साध्वि ! तुमने हमारी निद्रा क्यों भंग कर दी ? जो स्त्री अपने पति का अकार करता है, उसके व्रत आदि धर्माचरण व्यर्थ हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ तपश्चानशनं चैव व्रतं दानादिकं च यत् । भर्तुरप्रियकारिण्याः सर्वं भवति निष्फलम् ॥ ३३ ॥ उसी भांति पति का अहित करने वाली स्त्री के तप, उपवास, व्रत, दान आदि जो कुछ सुकर्म रहते हैं, वे सब निष्फल हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ यया पतिः पूजितश्च श्रीकृष्णः पूजितस्तया । पतिव्रताव्रतार्थं च पतिरूपी हरिः स्वयम् ॥ ३४ ॥ क्योंकि जिसने पति की पूजा की है, उसने (मानो) श्रीकृष्ण की ही पूजा की है, इस प्रकार पतिव्रता के व्रत के लिए भगवान् स्वयं पति रूप में प्राप्त होते हैं ॥ ३४ ॥ सर्वदानं सर्वयज्ञं सर्वतीर्थनिषेवणम् । सर्वं तपो व्रतं सर्वमुपवासादिकं च यत् ॥ ३५ ॥ सर्वधर्मश्च सत्यं च सर्वदेवप्रपूजनम् । तत्सर्वं स्वामिसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३६ ॥ इसलिए सम्पूर्ण दान, समस्त यज्ञ, सब तीर्थों के सेवन, सभी भांति के तप, व्रत, सभी उपवास आदि, समस्त धर्म, सत्य, समस्त देवों के अर्चन, ये सब (स्त्री के लिए) पति-सेवा की सोलहवीं कला (भाग) के भी समान नहीं होते हैं ॥ ३५-३६ ॥ सुपुण्ये भारते वर्षे पतिसेवां करोति या । वैकुण्ठं स्वामिना सार्धं सा याति ब्रह्मणः शतम् ॥ ३७ ॥ अतः इस सुपुण्य प्रदेश भारतवर्ष में जो स्त्री अपने पति की सेवा करती है, वह पति के साथ वैकुण्ठ और ब्रह्मलोक को जाती है ॥ ३७ ॥ विप्रियं कुरुते भर्तुर्विप्रियं वदति प्रियम् । असत्कुलप्रजाता या तत्फलं श्रूयतां सति ॥ ३८ ॥ जो कुलीना (उत्तम कुल की) स्त्री नहीं है, वह सदैव पति का अहित करती है और उससे कटु वाणी (कड़वी बात) बोलती है, उसका फल कह रहा हूँ, सुनो ॥ ३८ ॥ कुम्भीपाकं व्रजेत्सा च यावच्चन्द्रदिवाकरौ । ततो भवति चाण्डाली पतिपुत्रविवर्जिता ॥ ३९ ॥ वह उस पाप के नाते चन्द्र-सूर्य के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहती है और अन्त में पति-पुत्र रहित चाण्डाली होती है ॥ ३९ ॥ इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठो बभूव स्फुरिताधरः । चकम्पे मनसा साध्वी भयेनोवाच तं पतिम् ॥ ४० ॥ इतना कहने पर भी उन महर्षिप्रवर के ओष्ठ फड़-फड़ा रहे थे । यह देखकर पतिव्रता मनसा भय से कांप उठी और पति से बोली ॥ ४० ॥ मनसोवाच संध्यालोपभयेनैव निद्राभङ्गः कृतस्तव । कुरु शान्ति महाभाग दुष्टाया मम सुव्रत ॥ ४१ ॥ मनसा बोली- हे महाभाग ! हे सुव्रत ! संध्या कर्म के लोप-भय से ही मैंने आपका निद्राभंग किया है, अत: मुझ दुष्टा को, आप शान्ति प्रदान करने की कृपा करें ॥ ४१ ॥ शृङ्गाराहारनिद्राणां यश्च भङ्गं करोति च । स व्रजेत्कालसूत्रं च स्वामिनश्च विशेषतः ॥ ४२ ॥ क्योंकि शृंगार, भोजन और निद्रा को जो भंग करता है, वह कालसूत्र नामक नरक में जाता है और स्वामी का यह अपराध करने पर विशेषतया उस फल की प्राप्ति होती है ॥ ४२ ॥ इत्युक्त्वा मनसा देवी स्वामिनश्चरणाम्बुजे । पपात भक्त्या भीता च रुरोद च पुनः पूनः ॥ ४३ ॥ इतना कह कर मनसा देवी भयभीत होकर भक्ति से पति के चरण पर गिर पड़ी और बारबार रुदन करने लगी ॥ ४३ ॥ कुपितं च मुनिं दृष्ट्वा श्रीसूर्यं शप्तुमुद्यतम् । तत्राऽजगाम भगवान्संध्यया सह नारद ॥ ४४ ॥ हे नारद ! क्रुद्ध मुनि को श्री सूर्य को शाप देने के लिए प्रस्तुत देखकर भगवान् सूर्य सन्ध्या समेत वहाँ आ गये ॥ ४४ ॥ तत्राऽऽगत्य मुनिश्रेष्ठमवोचद्भास्करः स्वयम् । विनयेन विनीतश्च तया सह यथोचितम् ॥ ४५ ॥ वहाँ पहुँच कर भगवान् भास्कर ने स्वयं संध्या समेत विनय-विनम्र होकर उन मनिवयं से यथोचित कहना आरम्भ किया ॥ ४५ ॥ श्रीसूर्य उवाच सूर्यास्तसमयं दृष्टत्वा धर्मलोपभयेन च । त्वां बोधयामास विप्र नाहमस्तं गतस्तदा ॥ ४६ ॥ क्षमस्व भगवन्ब्रह्मन्मां शप्तुं नोचितं मुने । ब्राह्मणानां च हृदयं नवनीतसमं सदा ॥ ४७ ॥ सूर्य बोले-हे विप्र ! सूर्यास्त का समय देखकर धर्म के लोपभय से तुम्हें उसने जगाया है, मैं उस समय अस्त नहीं हुआ था । अतः हे भगवन् ! हे ब्रह्मन् ! हे मुने ! क्षमा करें । आपको मुझे शाप देना भी उचित नहीं है; क्योंकि ब्राह्मणों का हृदय सदैव मक्खन की भाँति कोमल होता है ॥ ४६-४७ ॥ तेषां क्षणार्धं क्रोधश्चेत्ततो भस्म भवेज्जगत् । पुनः स्रष्टुं द्विजः शक्तो न तेजस्वी द्विजात्परः ॥ ४८ ॥ उनके क्षणमात्र के कोप से सारा जगत् भस्म हो सकता है, और फिर उसकी सृष्टि भी ये कर सकते हैं, क्योंकि ब्राह्मण से बढ़कर कोई दूसरा तेजस्वी नहीं होता ॥ ४८ ॥ ब्रह्मणो वंशसंभूतः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा । श्रीकृष्णं भावयेन्नित्यं ब्रह्मज्योति सनातनम् ॥ ४९ ॥ अत: ब्रह्मा के कुल में उत्पन्न तथा ब्रह्मतेज से देदीप्यमान होकर ब्राह्मण को सनातन तथा ब्रह्म ज्योति रूप भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करनी चाहिये ॥ ४९ ॥ सूर्यस्य वचनं श्रुत्वा द्विजस्तुष्टो बभूव ह । सूर्यो जगाम स्वस्थानं गृहीत्वा ब्राह्मणाशिषम् ॥ ५० ॥ सूर्य की ऐसी बातें सुनकर वे ब्राह्मण देव प्रसन्न हो गये और सूर्य भी ब्राह्मण का आशीर्वाद लेकर अपने स्थान को चले गये ॥ ५० ॥ तत्याज मनसां विप्रः प्रतिज्ञापालनाय च । रुदतीं शोकयुक्तां च हृदयेन विदूयता ॥ ५१ ॥ किन्तु उस ब्राह्मण ने (अपनी) प्रतिज्ञा पालनार्थ मनसा देवी का त्याग कर दिया, जो हार्दिक दुःख से चिन्तित होकर रुदन कर रही थी । ॥ ५१ ॥ सा सस्मार गुरुं शंभुमिष्टदेवं हरिं विधिम् । कश्यपं जन्मदातारं विपत्तौ भयकर्शिता ॥ ५२ ॥ पश्चात् उसने अपने गुरु शिव, इष्टदेव विष्णु और ब्रह्मा का स्मरण किया, और उस विपत्ति के समय भयभीत होकर जन्म देने वाले पिता कश्यप का भी स्मरण किया ॥ ५२ ॥ तत्राऽजगाम भगवान्गोपीशः शंभुरेव च । विधिश्च कश्यपश्चैव मनसा परिचिन्तितः ॥ ५३ ॥ मनसा के विषय में विचारमग्न होते हुए गोपीपति भगवान् कृष्ण, शिव, ब्रह्मा और कश्यप सभी लोग वहाँ आये ॥ ५३ ॥ विप्रो दृष्ट्वाऽभीष्टदेवं निर्गुणं प्रकृतेः परम् । तुष्टाव परया भक्त्या प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥ ५४ ॥ ब्राह्मण देव भी अपने इष्टदेव को, जो निर्माण एवं प्रकृति से परे हैं, देखकर परा भक्ति के साथ स्तुति करते हुए बार-बार उन्हें प्रणाम करने लगे ॥ ५४ ॥ नमश्चकार शंभुं च ब्रह्माणं कश्यपं तथा । कथमागमनं देवा इति प्रश्नं चकार सः ॥ ५५ ॥ और शिव, ब्रह्मा तथा कश्यप को भी नमस्कार करके उनसे कहने लगे कि-'हे देवगण ! आप का आगमन यहां कैसे हुआ ?' ॥ ५५ ॥ ब्रह्मा तद्वचनं श्रुत्वा सहसा समयोचितम् । तमुवाच नमस्कृत्य हृषीकेशपदाम्बुजम् ॥ ५६ ॥ ब्रह्मा ने उनकी बातें सुनकर भगवान् हृषीकेश के चरण-कमल को नमस्कार करने के उपरान्त उनसे समयोचित बात कही ॥ ५६ ॥ ब्रह्मोवाच यदि त्यक्ता धर्मपत्नीं धर्मिष्ठा मनसा सती । कुरुष्वास्यां सुतोत्पत्तिं धर्मसंस्थापनाय वै ॥ ५७ ॥ यदि तुमने धर्ममति एवं पतिव्रता धर्मपत्नी मनसा का त्याग किया है, तो धर्मसंस्थापनार्थ इसमें पुत्रोत्पत्ति अवश्य करो ॥ ५७ ॥ यतिर्वा ब्रह्मचारी वा भिक्षुर्वनचरोऽपि वा । जायायां च सुतोत्पत्तिं कृत्वा पश्चाद्भवेन्मुनिः ॥ ५८ ॥ क्योंकि योगी, ब्रह्मचारी, संन्यासी, वनचर (वानप्रस्थी) या मुनि धर्मपत्नी में पुत्रोत्पादन करने के पश्चात् (ही योगी आदि) होते हैं । ॥ ५८ ॥ अकृत्वा तु सुतोत्पत्तिं विरागी यस्त्यजेत्प्रियाम् । स्रवेत्तपस्तत्पुण्यं च चालिन्यां च यथा जलम् ॥ ५९ ॥ और यदि कोई विरागी बिना पुत्रोत्पत्ति किये अपनी पत्नी का त्याग करता है, तो चलनी से जल निकलने की भाँति उसके तप और पुण्य सब क्षीण हो जाते हैं ॥ ५९ ॥ ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा जरत्कारुर्मुनीश्वरः । चक्रे तन्नाभिसंस्पर्श योगाद्वै मन्त्रपूर्वकम् ॥ ६० ॥ अनन्तर मुनीश्वर जरत्कार ने ब्रह्मा की ऐसी बातें सुनकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक योग द्वारा अपनी पत्नी का नाभिस्पर्श किया ॥ ६० ॥ तस्यै शुभाशिषं दत्त्वा ययुर्देवा मुदाऽन्विताः । मुदाऽन्विता च मनसा जरत्कारुर्मुदाऽन्वितः ॥ ६१ ॥ उपरान्त देवलोग भी प्रसन्न चित्त से उसे शभ आशीर्वाद देकर चले गये । उपरान्त मनसा देवी प्रसन्न हुई और जरत्कारु भी प्रसन्न हुए ॥ ६१ ॥ मुनेः करस्पर्शमात्रात्सद्यो गर्भो बभूव ह । मनसाया मुनिश्रेष्ठ मुनिश्रेष्ठ उवाच ताम् ॥ ६२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मुनि के हाथ का स्पर्श होते ही वह उसी समय गर्भवती हो गयी । तब मुनिवर्य ने मनसा से कहा ॥ ६२ ॥ जरत्कारुरुवाच गर्भेणानेन मनसे तव पुत्रो भविष्यति । जितेन्द्रियाणां प्रवरो धर्मिष्ठो वैष्णवाग्रणीः ॥ ६३ ॥ तेजस्वी च तपस्वी च यशस्वी च गुणान्वितः । वरो वेदविदां चैव योगिनां ज्ञानिनां तथा ॥ ६४ ॥ जरत्कारु बोले-हे मनसे ! इस गर्भ से तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होगा, जो जितेन्द्रिय लोगों में सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, वैष्णवों में अग्रगण्य, तेजस्वी, तपस्वी, कीर्तिमान्, गुणवान्, वेदवेत्ताओं, योगियों और ज्ञानियों में श्रेष्ट होगा । ॥ ६३-६४ ॥ स च पुत्रो विष्णुभक्तो धार्मिकः कुलमुद्धरेत् । नृत्यन्ति पितरः सर्वे जन्ममात्रेण वै मुदा ॥ ६५ ॥ वह पुत्र भगवान् विष्णु का भक्त और धार्मिक होने के नाते कुल का उद्धार करेगा तथा उसके जन्म ग्रहण मात्र से प्रसन्न होकर सभी पितरगण नृत्य करेंगे ॥ ६५ ॥ पतिव्रता सुशीला या सा प्रिया प्रियवादिनी । धर्मिष्ठा पुत्रमाता च कुलजा कुलपालिका ॥ ६६ ॥ क्योंकि पतिव्रता और उत्तम स्वभाव वाली स्त्री वही है, जो (पति को) प्रिय और मधुरभाषिणी हो, धार्मिक पुत्रमाता वही है, जो कुलीना होती हुई कुल का पालन करे ॥ ६६ ॥ हरिभक्तिप्रदो बन्धुस्तदिष्टं यत्सुखप्रदम् । यो बन्धच्छित्स च पिता हरेर्वर्त्मप्रदर्शकः ॥ ६७ ॥ बन्धु वही है, जो भगवान् की भक्ति प्रदान करे । इष्ट वही है, जो सुखप्रदायक हो । पिता वही है, जो (कर्म) बन्धन का नाश करते हए भगवान् के मार्ग का प्रदर्शक हो ॥ ६७ ॥ सा गर्भधारिणी या च गर्भवासविमोचिनी । दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचिनी ॥ ६८ ॥ गर्भ को धारण करने वाली स्त्री वही है, जो गर्भ वास में उसे पुन: (कभी) न आने दे (ऐसा उपदेश करे) । दयारूपा भगिनी वही है, जो यम के भय से मुक्त कराये ॥ ६८ ॥ विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः । गुरुश्च ज्ञानदाता च तज्ज्ञानं कृष्णभावनम् ॥ ६९ ॥ गुरु वही है, जो भगवान् विष्णु का मन्त्र प्रदान करते हुए भगवान् की भक्ति प्रदान करे । गुरु वही है जो ज्ञानदाता हो और ज्ञान वही है जो भगवान् कृष्ण में (अटल) प्रेम उत्पन्न कराये ॥ ६९ ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं यतो विश्वं चराचरम् । आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः ॥ ७० ॥ क्योंकि यहाँ से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त चर-अचर समेत सारा विश्व जिससे प्रकट और अन्तहित होता है उससे अन्य से क्या ज्ञान मिलेगा ? ॥ ७० ॥ वेदजं योगजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम् । तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम् ॥ ७१ ॥ अतः वेदों और योग की क्रियाओं का सारभाग यही है कि भगवान् की सेवा करें । यही तत्त्वों का सार भाग भी है और हरि से अन्य तो विडम्बना मात्र है ॥ ७१ ॥ दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः । ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः ॥ ७२ ॥ इस प्रकार मैं तो तुम्हें ज्ञान-दान दे चुका । स्वामी वही है, जो ज्ञान प्रदान करे क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही कोई बन्धनमुक्त होता है, और शत्रु वही है, जो बन्धन प्रदान करे ॥ ७२ ॥ विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं न ददाति हि योगतः । स विप्रः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ॥ ७३ ॥ इसलिए भगवान् विष्णु की भक्ति समेत ज्ञान जो योग द्वारा प्रदान नहीं जो करता है वह ब्राह्मण शिष्य का नाशक है, क्योंकि वह बंधन से मुक्त नहीं कर पाता ॥ ७३ ॥ जननीगर्भजात्क्लेशाद्यमताडनजात्तथा । न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः ॥ ७४ ॥ अतः जननी के गर्भ से और यमराज के यहां ताड़नजन्य दुःख से जो मुक्त न करा सके, वह गुरु, पिता और भाई कैसा ? ॥ ७४ ॥ परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम् । न दर्शयेद्यः स कथं कीदृशो बान्धवो नृणाम् ॥ ७५ ॥ जो परमानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण का अनश्वर मार्ग न दिखा सके, वह मनुष्यों का बान्धव कैसा ? ॥ ७५ ॥ भज साध्वि परं ब्रह्माच्युतं कृष्णं च निर्गुणम् । निर्मूलं च पुराकर्म भवेद्यत्सेवया ध्रुवम् ॥ ७६ ॥ अतः हे साध्वि ! भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करो, जो परब्रह्म, अच्युत एवं गुणरहित हैं और जिसकी सेवा करने से पिछले जन्म का समस्त कर्म निश्चित नष्ट हो जाता है ॥ ७६ ॥ मया छलेन त्वं त्यक्ता दोषं मे क्षम्यतां प्रिये । क्षमायुतानां साध्वीनां सत्त्वात्क्रोधो न विद्यते ॥ ७७ ॥ हे प्रिये ! मैंने कपटपूर्ण तुम्हारा त्याग किया है । अत: मेरे दोष को क्षमा करना । क्षमाशील पतिव्रताओं को सत्त्वगुण की अधिकता के नाते कोप नहीं होता है ॥ ७७ ॥ पुष्करे तपसे यामि गच्छ देवि यथासुखम् । श्रीकृष्णचरणाम्भोजे ध्यानविच्छेदकातरः ॥ ७८ ॥ हे देवि ! मैं तप हेतु पुष्कर जा रहा हूँ । तुम भी सुखपूर्वक जाओ क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान न करने से मैं दुःखी हो रहा हूँ ॥ ७८ ॥ धनादिषु स्त्रियां प्रीतिः प्रवृत्तिपथगामिनाम् । श्रीकृष्णचरणाम्भोजे निःस्पृहाणां मनोरथाः ॥ ७९ ॥ प्रवृत्ति मार्ग पर चलने वाली स्त्रियों का प्रेम धन-पुत्रादि में ही लगा रहता है और नि:स्पृह रहने वालों (पतियों) का यही मनोरथ रहता है कि हम सदैव भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल में लगे रहें ॥ ७९ ॥ जरत्कारुवचः श्रुत्वा मनसा शोककातरा । सा साश्रुनेत्रा विनयादुवाच प्राणवल्लभम् ॥ ८० ॥ जरत्कारु की ऐसी बातें सुनकर मनसा ने शोकाकुल होकर आँखों में आँसू भर लिया और अपने प्राणवल्लभ से सविनय कहा ॥ ८० ॥ मनसोवाच दोषेणाहं त्वया त्यक्ता निद्राभङ्गेन ते प्रभो । यत्र स्मरामि त्वां बन्धो तत्र मामागमिष्यसि ॥ ८१ ॥ मनसा बोली-हे प्रभो ! आप का मैने निद्राभंग किया है इसी दोष से आपने मेरा त्याग किया है, किन्तु हे बन्धो ! जहाँ जिस समय मैं आपका स्मरण करूँ, वहाँ मेरे पास अवश्य आ जाइएगा ॥ ८१ ॥ बन्धुभेदः क्लेशतमः पुत्रभेदस्ततः परः । प्राणेशभेदः प्राणानां विच्छेदात् सर्वतः परः ॥ ८२ ॥ बन्धु का वियोग अति दुःखदायक होता है और उससे बढ़ कर पुत्र-वियोग होता है । किन्तु अपने प्राणेश का वियोग तो स्त्रियों के लिए उनके प्राण-वियोग से भी बढ़कर होता है ॥ ८२ ॥ पतिः पतिव्रतानां च शतपुत्राधिकः प्रियः । सर्वस्माच्च प्रियः स्त्रीणां प्रियस्तेनोच्यते बुधैः ॥ ८३ ॥ क्योंकि पतिव्रताओं के लिए पति, सैकड़ों पुत्रों से अधिक प्रिय होता है । इस प्रकार स्त्रियों को पति सबसे अधिक प्रिय होता है, इसीलिए विद्वान् लोग उसे स्त्रियों का प्रिय कहते हैं ॥ ८३ ॥ पुत्रे यथैकपुत्राणां वैष्णवानां यथा हरौ । नेत्रे यथैकनेत्राणां तृषितानां यथा जले ॥ ८४ ॥ क्षुधितानां यथाऽन्ने च कामुकानां यथा स्त्रियाम् । यथा परस्वे चौराणां यथा जारे कुयोषिताम् ॥ ८५ ॥ विदुषां च यथा शास्त्रे वाणिज्ये वणिजां यथा । तथा शश्वन्मनः कान्ते साध्वीनां योषितां प्रभो ॥ ८६ ॥ जिस प्रकार एक पुत्र वालों का मन (अपने) पुत्र में, वैष्णवों का भगवान् में, एक नेत्र वालों का नेत्र में, तृषित (प्यासे) का जल में, क्षुधित (भूखे) का अन्न में, कामी का स्त्री में लगा रहता है और दूसरे के धन में चोरों का, जार (व्यभिचारी) पुरुष में व्यभिचारिणी स्त्री का, शास्त्र में विद्वानों का एवं व्यापार में बनियों का मन लगा रहता है, उसी भांति पतिव्रता स्त्रियों का मन निरन्तर अपने कान्त में लगा रहता है ॥ ८४-८६ ॥ इत्युक्त्वा मनसा देवी पपात स्वामिनः पदे । क्षणं चकार क्रोडे तां कृपया च कृपानिधिः ॥ ८७ ॥ इतना कह कर मनसा देवी पति के चरण पर गिर पड़ी । अनन्तर कृपानिधान मुनि ने कृपा करके उसे क्षणमात्र के लिए अपनी गोद में उठा लिया ॥ ८७ ॥ नेत्रोदकेन मनसां स्नापयामास तां मुनिः । साऽश्रुणा च मुनेः क्रोडं सिषेवे भेदकातरा ॥ ८८ ॥ और अपने अश्रुपात से मनसा को स्नान-सा करा दिया । एवं वियोग दुःख से उसने भी अपने आँसुओं से पति की गोद को भिगो दिया ॥ ८८ ॥ तदा ज्ञानेन तौ द्वौ च विशोकौ च बभूवतुः । स्मारं स्मारं पदाम्भोजं कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ८९ ॥ किन्तु उसी समय पुनः दोनों प्रबल ज्ञान द्वारा शोकरहित हो गये और परमात्मा श्रीकृष्ण के चरण-कमल का बार-बार स्मरण करने लगे ॥ ८९ ॥ जगाम तपसे विप्रः स कान्तां सुप्रबोध्य च । जगाम मनसा शंभोः कैलासं मन्दिरं गुरोः ॥ ९० ॥ उपरान्त ब्राह्मण देव ने प्रेयसी (मनसा) को भलीभाँति ज्ञान द्वारा उबुद्ध करके तप के लिए प्रस्थान किया, और मनसा भी गुरु मन्दिर--शिवजी के कैलाश--की ओर चल पड़ी ॥ ९० ॥ पार्वती बोधयामास मनसां शोककर्शिताम् । शिवश्चातीव ज्ञानेन शिवेन च शिवालये ॥ ९१ ॥ वहां शिवालय में पहुंचने पर पार्वती ने शोकग्रस्त उस मनसा को भलीभाँति बोध कराया और शिव ने भी कल्याणप्रद बोध प्रदान किया ॥ ९१ ॥ सुप्रशस्ते दिने साध्वी सुषुवे मङ्गले क्षणे । नारायणांशं पुत्रं च ज्ञानिनां योगिनांगुरुम् ॥ ९२ ॥ अनन्तर उस पतिव्रता ने अति प्रशस्त दिन के मांगलिक क्षण में पुत्र को जन्म दिया, जो भगवान् नारायण का अंश, ज्ञानियों और योगियों का गुरु था ॥ ९२ ॥ गर्भस्थितो महाज्ञानं श्रुत्वा शंकरवक्त्रतः । स बभूव महायोगी योगिनां ज्ञानिनां गुरुः ॥ ९३ ॥ गर्भ में स्थित रहने के समय ही उस बालक ने शंकर के मुख से महाज्ञान सुन लिया था, जिससे वह ज्ञानियों और योगियों का गुरु एवं महायोगी हआ ॥ ९३ ॥ जातकं कारयामास वाचयामास मङ्गलम् । वेदांश्च पाठयामास शिवाय च शिवः शिशोः ॥ ९४ ॥ शिव ने उस शिशु के कल्याणार्थ उसका जातकर्म, मंगल (स्वस्ति) वाचन और वेदों का पाठ कराया ॥ ९४ ॥ मणिरत्नत्रिकोटिं च ब्राह्मणेभ्यो ददौ शिवः । पार्वती च गवां लक्षं रत्नानि विविधानि च ॥ ९५ ॥ अनन्तर शिव ने तीन करोड़ रत्नों का दान ब्राह्मणों को प्रदान किया और पार्वती ने भी एक लाख गौ और अनेक भाँति के रत्नों का दान किया ॥ ९५ ॥ शंभुश्च चतुरो वेदान्वेदाङ्गानितरांस्तथा । बालकं पाठयामास ज्ञानं मृत्युंजयं परम् ॥ ९६ ॥ (कुछ समय व्यतीत होने पर) शिव ने स्वयं वेदांग समेत चारों वेद और इतर का भी अध्ययन उस बालक को कराया तथा परमोत्तम मृत्युञ्जय ज्ञान प्रदान किया । ॥ ९६ ॥ भक्तिरास्ते स्वकान्ते चाभीष्टे देवे हरौ गुरो । यस्यास्तेन च तत्पुत्रो बभूवास्तीक एव च ॥ ९७ ॥ अपने स्वामी, इष्टदेव, विष्णु और गुरु में मनसा की अत्यन्त भक्ति थी, उसी कारण उसका पुत्र 'आस्तीक' नाम से प्रख्यात हुआ ॥ ९७ ॥ जगाम तपसे विष्णोः पुष्करं शंकराज्ञया । संप्राप्य च महामन्त्रं तपश्च परमात्मनः ॥ ९८ ॥ तदुपरान्त शंकर की आज्ञा से भगवान् विष्णु का तप करने के लिए परमात्मा का महामन्त्र प्राप्त कर वह बालक पुष्कर चला गया । ॥ ९८ ॥ दिव्यं वर्षत्रिलक्षं च तपस्तप्त्वा तपोधनः । आजगाम महायोगी नमस्कर्तुं शिवं प्रसूम् ॥ ९९ ॥ वहाँ वह तपस्वी महायोगी दिव्य तीन लाख वर्ष तक तप करके पुनः प्रभु शिव तथा माता को नमस्कार करने के लिए कैलाश आया ॥ ९९ ॥ शंकरं च नमस्कृत्य पुरः कृत्वा च बालकम् । सा चाऽऽजगाम मनसा कश्यपस्याऽऽश्रमं पितुः ॥ १०० ॥ वहाँ शंकर को नमस्कार करने के अनन्तर उसकी माता मनसा अपने बालक को आगे कर के अपने पिता कश्यप के आश्रम में आयी ॥ १०० ॥ तां सपुत्रां सुतां दृष्ट्वा मुदं प्राप प्रजापतिः । शतलक्षं च रत्नानां ब्राह्मणेभ्योददौ मुने ॥ १०१ ॥ हे मुने ! प्रजापति कश्यप पुत्र समेत कन्या को देख कर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने सौ लाख रत्नों का दान ब्राह्मणों को प्रदान किया ॥ १०१ ॥ ब्राह्मणान्भोजयामास त्वसंख्याञ्छ्रेयसे शिशोः । अदितिश्च दितिश्चान्या मुदं प्रापुः परं तथा ॥ १०२ ॥ पुनः उस शिशु के कल्याणनार्थ उन्होंने असंख्य ब्राह्मणों को भोजन कराया तथा दिति-अदिति और अन्यों को भी उसे देख कर अति हर्ष प्राप्त हुआ ॥ १०२ ॥ सा सपुत्रा च सुचिरं तस्थौ तातालये तदा । तदीयं पुनराख्यानं वक्ष्ये त्वं तन्निशामय ॥ १०३ ॥ इस प्रकार मनसा ने पुत्र समेत अपने पिता के घर चिरकाल तक निवास किया । अब वहाँ का भी आख्यान तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ १०३ ॥ अथाभिमन्युतनये ब्रह्मशापः परीक्षिते । बभूव सहसा ब्रह्मन्दैवदोषेण कर्मणा ॥ १०४ ॥ सप्ताहे समतीते तु तक्षकस्त्वां च दङ्क्ष्यति । शशाप शृङ्गी कौशिक्या जलं संस्पृश्य चेति सः ॥ १०५ ॥ हे ब्राह्मण ! इसके उपरान्त अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित को दैव दोषवश सहसा ब्राह्मण -शाप हो गया'आज के सातवें दिन के व्यतीत होते-होते तक्षक तुम्हें डस लेगा । ' यह शाप शृङ्गी ऋषि ने कौशिकी नदी का जल स्पर्श करके दिया था ॥ १०४-१०५ ॥ राजा श्रुत्वा तत्प्रवृत्तिं गङ्गाद्वारं जगाम सः । तत्र तस्थौ च सप्ताहं शुश्रुवे धर्मसंहिताम् ॥ १०६ ॥ अनन्तर यह समाचार सुनते ही राजा ने गंगाद्वार (हरिद्वार) को प्रस्थान किया और वहाँ रहकर एक सप्ताह तक धर्मसंहिता (श्रीमद्भागवतपुराण) का श्रवण किया ॥ १०६ ॥ सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि । धन्वन्तरिर्मोचयितुमपश्यद्गन्तुको नृपम् ॥ १०७ ॥ सातवें दिन के व्यतीत होते समय मार्ग में जाते हुए तक्षक को धन्वन्तरि ने देखा, जो राजा को उसके विष से मुक्त कराने के लिए (राजा के यहाँ) जा रहे थे ॥ १०७ ॥ तयोर्बभूव संवादः सुप्रीतिश्च परस्परम् । धन्वन्तरेर्मणिं श्रेष्ठं तक्षकः स्वेच्छया ददौ ॥ १०८ ॥ स ययौ तं गृहीत्वा तु तुष्टः संहृष्टमानसः । तक्षको भक्षयामास नृपं मञ्चकसंस्थितम् ॥ १०९ ॥ मार्ग में उन दोनों की आपस में अति प्रेमपूर्ण बातें हुई । जिसके फल- स्वरूप तक्षक ने स्वेच्छया धन्वन्तरि को मणि प्रदान किया और वे उसे लेकर प्रसन्नचित्त हो घर लौट आये । पश्चात् तक्षक ने जाकर ऊँचे मंच पर स्थित राजा को डस लिया ॥ १०८-१०९ ॥ राजा जगामवैकुण्ठं स्मारं स्मारं हरिं गुरुम् । संस्कारं कारयामास पितुर्वै जनमेजयः ॥ ११० ॥ गुरु नारायण का बार-बार स्मरण करता हुआ राजा वैकुण्ठ चला गया और जनमेजय ने अपने पिता का दाहसंस्कार-क्रिया सम्पन्न की ॥ ११० ॥ राजा चकार यज्ञं च सर्पसत्राभिधं मुने । प्राणांस्तत्याज सर्पाणां समूहो ब्रह्मतेजसा ॥ १११ ॥ हे मुने ! तदुपरान्त राजा जनमेजय ने सर्पयज्ञानुष्ठान आरम्भ किया, जिसमें ब्रह्मतेज द्वारा सर्पसमूहों के प्राण आहुति हो रहे थे ॥ १११ ॥ स तक्षकश्च भीतश्च महेन्द्रं शरणं ययौ । सेन्द्रं च तक्षकं हन्तुं विप्रवर्गः समुद्यतः ॥ ११२ ॥ उस समय वह तक्षक भयभीत होकर महेन्द्र की शरण गया । किन्तु (पता लगने पर) ब्राह्मणों ने इन्द्र समेत तक्षक की भी आहुति देनी चाही ॥ ११२ ॥ अथ देवाश्च मुनयश्चाऽऽययुर्मनसान्तिकम् । तां तुष्टाव महेन्द्रश्च समक्षं भयकातरः ॥ ११३ ॥ यह जान कर देवगण और मुनिवृन्द मनसा देवी के निकट गये । वहाँ भय से कातर होकर महेन्द्र ने सामने खड़े होकर मनसा देवी की स्तुति की ॥ ११३ ॥ तत आस्तीक आगत्य मातुर्यज्ञमथाऽऽज्ञया । महेन्द्रतक्षकप्राणान्ययाचे भूमिपं वरम् ॥ ११४ ॥ इस प्रकार मनसा के प्रसन्न होने पर उसकी आज्ञा से आस्तीक ने उस यज्ञ में जाकर राजा जनमेजय से महेन्द्र और तक्षक के प्राणों की याचना की ॥ ११४ ॥ ददौ वरं नृपश्रेष्ठः कृपया ब्राह्मणाज्ञया । यज्ञं समाप्य विप्रेभ्यो दक्षिणां च ददौ मुदा ॥ ११५ ॥ नपश्रेष्ठ जनमेजय ने ब्राह्मणों की आज्ञा से उन्हें वर प्रदान किया और प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ समाप्त कर ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान की ॥ ११५ ॥ विप्राश्च मुनयो देवा गत्वा च मनसान्तिकम् । मनमां पूजयामासुस्तुष्टुवुश्च पृथक्पृथक् ॥ ११६ ॥ उपरान्त मुनिगण, देववृन्द और ब्राह्मणों ने मनसा के समीप जाकर उसकी पूजा और पृथक्-पृथक् स्तुति सम्पन्न को ॥ ११६ ॥ शक्रः संभृतसंभारो भक्तियुक्तः सदा शुचिः । मनसां पूजयामास तुष्टाव परमादरात् ॥ ११७ ॥ उपचारैः षोडशभिर्बलिं दत्त्वा प्रियं तदा । प्रददौ परितुष्टश्च ब्रह्मन्विप्रसुराज्ञया ॥ ११८ ॥ इन्द्र ने भक्तिपूर्वक पवित्रतापूर्ण पूजन-सामग्रो साथ लेकर मनसा देवी की पूजा की और परम आदर से उसकी स्तुति की । षोडशोपचार से पूजन करने के अनन्तर इन्द्र ने ब्राह्मणों और देवताओं की आज्ञा से अति प्रसन्न होकर उन्हें प्रिय उपहार अर्पित किया ॥ ११७-११८ ॥ संपूज्य मनसादेवीं प्रययुः स्वालयं च ते । इत्येवंकथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११९ ॥ मनसा देवी की अर्चना कर के देवगण अपने-अपने घर चले गए । इस भांति मैंने तुम्हें सब कथा सुना दो, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ११९ ॥ नारद उवाच केन स्तोत्रेण तुष्टाव महेन्द्रो मनसां सतीम् । पूजाविधिं क्रमं तस्याः श्रोतुमिच्छामितत्त्वतः ॥ १२० ॥ नारद बोले-महेन्द्र ने किस स्तोत्र द्वारा पतिव्रता मनसा देवी की स्तुति की और उनके पूजा विधान का क्रम क्या है ? इसे मैं सरहस्य जानना चाहता हूँ ॥ १२० ॥ नारायण उवाच सुस्नातः शुचिराचान्तो धृत्वा धौते च वाससी । रत्नसिंहासने देवीं वासयामास भक्तितः ॥ १२१ ॥ नारायण बोले-भली भाँति स्नान से पवित्र होकर (महेन्द्र ने) आचमन और दो उज्ज्वल वस्त्र धारण किये । अनन्तर भक्तिपूर्वक देवी को रत्नसिंहासन पर स्थापित किया ॥ १२१ ॥ स्वर्गगङ्गाजलेनैव रत्नकुम्भस्थितेन च । स्नापयामास मनसां महेन्द्रो वेदमन्त्रतः ॥ १२२ ॥ रत्नों के कलशों में स्थित स्वर्गगंगाजल द्वारा महेन्द्र ने वेद मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक मनसा देवी को स्नान कराया ॥ १२२ ॥ वाससी वासयामास वह्निशुद्धे मनोरमे । सर्वाङ्गे चन्दनं लिप्त्वा पाद्यार्घ्यं भक्तिसंयुतः ॥ १२३ ॥ गणेशं च दिनेशं च वह्निं विष्णुं शिवं शिवाम् । संपूज्याऽऽदौ देवषट्कं पूजयामास तां सतीम् ॥ १२४ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं मनसादेव्यै स्वाहेत्येव च मन्त्रतः । दशाक्षरेण मन्त्रेण ददौ सर्वान्यथोचितम् ॥ १२५ ॥ उपचारान्षोडशकान्भक्तितो दुर्लभान्हरिः । पूजयामास भक्त्या च ब्रह्मणा प्रेरितो मुदा ॥ १२६ ॥ वाद्यं नानाप्रकारं च वादयामास तत्र वै । बभूव पुष्पवृष्टिश्च नभसो मनसोपरि ॥ १२७ ॥ देव विप्राज्ञया तत्र ब्रह्मविष्णुशिवाज्ञया । तुष्टाव साश्रुनेत्रश्च पुलकाञ्चितविग्रहः ॥ १२८ ॥ और अग्नि की भांति विशुद्ध एवं मनोरम वस्त्रों से सुसज्जित कर सर्वांग में चन्दन का लेप किया । भक्तिपूर्वक पाद्य-अयं अर्पित कर के गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और शिवा (दुर्गा) इन छह देवों को अर्चना की । पश्चात् 'ओं ह्रीं श्रीं मनसा देव्यै स्वाहा' इस दशाक्षर मन्त्र द्वारा सब यथोचित उपचार उस पतिव्रता को प्रदान किया । इस प्रकार ब्रह्मा को प्रेरणा से भक्तिपूर्वक और सुप्रसन्न मन से इन्द्रने मनसा देवी को दुर्लभ षोडश उपचार समर्पित किये और अनेक प्रकार के वहाँ बाजे बजवाये; उसी समय मनसा देवी के ऊपर आकाश से पुष्पों की वृष्टि हुई । अनन्तर महेन्द्र ने ब्राह्मण, ब्रह्मा, विष्णु और शिव की आज्ञा से पुलकायमान शरीर होकर आँखों में आँसू भरे देवी की स्तुति की ॥ १२३-१२८ ॥ महेन्द्र उवाच देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि साध्वीनां प्रवरां पराम् । परात्परा च परमां नहि स्तोतुं क्षमोऽधुना ॥ १२९ ॥ महेन्द्र बोले-हे देवि ! मैं तुम्हारी स्तुति करना चाहता हूँ, किन्तु इस समय तुम ऐसी श्रेष्ठ देवी की, जो पतिव्रताओं में परम श्रेष्ठ, परात्पर और सर्वोत्तम है, स्तुति करने में असमर्थ हूँ ॥ १२९ ॥ स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाख्यानतः परम् । न क्षमः प्रकृतिं वक्तुं गुणानां तव सुव्रते ॥ १३० ॥ हे सुव्रते ! वेद में तुम्हारे गुणों और स्तोत्रों के लक्षण, आख्यान की भाँति स्वभावतः भरे पड़े हैं, जिसे प्रकृति (देवी) भी कहने में असमर्थ हैं ॥ १३० ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं कोपहिंसाविवर्जिता । न च शप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च त्वया यतः ॥ १३१ ॥ त्वं मया पूजिता साध्वी जननी च यथाऽदितिः । दयारूपा च भगिनी क्षमारूपा यथा प्रसूः ॥ १३२ ॥ त्वया मे रक्षिताः प्राणाः पुत्रदाराः सुरेश्वरि । तुम शुद्ध-सत्त्व स्वरूप हो, तुममें क्रोध, हिंसा आदि दोष नहीं हैं । यद्यपि मुनि ने तुम्हारा त्याग कर दिया था, किन्तु त्यागने पर भी तुमने उन्हें शाप नहीं दिया । हे साध्वि ! मैंने अपनी माता अदिति को भांति ही तुम्हारी पूजा को है । हे सुरेश्वरि ! तुम दया रूप भगिनी और जननी की भाँति क्षमाशीला हो, तुमने ही हमारे प्राणों और पुत्रों एवं स्त्रियों की रक्षा को है ॥ १३१-१३२.५ ॥ अहं करोमि त्वां पूज्यां मम प्रीतिश्च वर्धते ॥ १३३ ॥ नित्यं यद्यपि पूज्या त्वं भवेऽत्र जगदम्बिके । तथाऽपि तव पूजां वै वर्धयामि पुनः पुनः ॥ १३४ ॥ ये त्वामाषाढसंक्रान्त्यां पूजयिष्यन्ति भक्तितः । पञ्चम्यां मनसाख्यायां मासान्ते वा दिने दिने ॥ १३५ ॥ पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते च धनानि च । अतः हे जगदम्बिके ! मैं तुम्हारी पूजा कर रहा हूँ । इससे हमारी प्रीति बढ़ती ही जा रही है । यद्यपि तुम संसार में नित्य पूज्या हो, तथापि तुम्हारी पूजा की मैं बार-बार वृद्धि करूँगा । इस प्रकार आषाढ़ मास को संक्रान्ति के दिन जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे, तथा मनसा नामक पंचमी में, मास के अन्त में या प्रतिदिन पूजा करते रहेंगे, उनके पुत्र-पौत्र आदि समेत धन की वृद्धि होती रहेगी ॥ १३३-१३५.५ ॥ यशस्विनः कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो गुणान्विताः ॥ १३६ ॥ ये त्वां न पूजयिष्यन्ति निन्दत्यज्ञानतो जनाः । लक्ष्मीहीना भविष्यन्ति तेषां नागभयं सदा ॥ १३७ ॥ तथा वे यशोभागो, कीर्तिमान, विद्यावान् और गुणी होंगे । एवं जो मनुष्य अज्ञान वश तुम्हारी । पूजा न करेंगे, उनकी लोग निन्दा करेंगे, तथा वे लक्ष्मी से वंचित रहेंगे और सदा नागों का भय होता रहेगा ॥ १३६-१३७ ॥ त्वं स्वर्गलक्ष्मीः स्वर्गे च वैकुण्ठे कमलाकला । नारायणांशो भगवाञ्जरत्कारुर्मुनीश्वरः ॥ १३८ ॥ तुम स्वर्ग की लक्ष्मी तथा स्वर्ग एवं वैकुण्ठ की कमला-कला हो । मुनीश्वर भगवान् जरत्कारु नारायण के अंश हैं ॥ १३८ ॥ तपसा तेजसा त्वां च मनसा ससृजे पिता । अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिधा ॥ १३९ ॥ पिता ब्रह्मा ने हम लोगों के रक्षणार्थ ता, तेज द्वारा मन से तुम्हारी सृष्टि की है । इसी से तुम्हारा 'मनसा' नाम है ॥ १३९ ॥ मनसा देवितुं शक्ता चाऽऽत्मना सिद्धयोगिनी । तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता भवे ॥ १४० ॥ तुम मन से पूजा कराने में समर्थ एवं सिद्धयोगिनी हो इसीलिए तुम संसार में मनसा देवी होकर सब की पूजिता और वन्दिता हुई हो ॥ १४० ॥ यां भक्त्या मनसा देवाः पूजयन्त्यनिशं भृशम् । तेन त्वां मनसादेवीं प्रवदन्ति पुराविदः ॥ १४१ ॥ जिसे भक्तिपूर्वक देवगण मन से नित्य और बार-बार-पूजते हैं, इसी कारण प्राचीन वेत्ताओं ने तुम्हें मनसा देवी कहा है ॥ १४१ ॥ सत्त्वरूपा च देवी त्वं शश्वत्सत्त्वनिषेवया । यो हि यद्भावयेन्नित्यं शतं प्राप्नोति तत्समम् ॥ १४२ ॥ निरन्तर सत्त्व सेवन करने के नाते तुम सत्त्वस्वरूपा देवी हो । इस भाँति जो प्रेमपूर्वक तुम्हें जो कुछ अर्पित करता है, वह सौ गुना होकर उसे पुनः प्राप्त होता है । ॥ १४२ ॥ इन्द्रश्च मनसां स्तुत्वा गृहीत्वा भगिनीं च ताम् । निर्जगाम स्वभवनं भषावासपरिच्छदाम् ॥ १४३ ॥ इन्द्र ने अपनी भगिनी मनसा देवी को स्तुति को और वस्त्राभूषणों से विभूषित कर के उसे अपने भवन ले गये ॥ १४३ ॥ पुत्रेण सार्धं सा देवी चिरं तस्थौ पितुर्गृहे । भ्रातृभिः पूजिता शश्वन्नान्या वन्द्या च सर्वतः ॥ १४४ ॥ गोलोकात्सुरभी ब्रह्मंस्तत्राऽगत्य सुपूजिताम् । तां स्नापयित्वा क्षीरेण पूजयामास सादरम् ॥ १४५ ॥ ज्ञानस्य कथयामास स्वरूपं सर्वदुर्लभम् । तदा देवैः पूजिता सा स्वर्गलोकं पुनर्ययौ ॥ १४६ ॥ अनन्तर वह देवी पुनः अपने पुत्र समेत पिता के घर आकर वहाँ चिरकाल तक रही । वह निरन्तर अपने भ्राताओं (देवों) द्वारा पूजित है, दूसरी (देवः सबको वन्द्या नहीं है । हे ब्रह्मन् ! अनन्तर गोलोक से आकर सुरभी ने उस सुपूजित मनसा देवी को क्षीर से स्नान कराया और सादर उसका पूजन किया तथा उसे ज्ञान का सर्वदुर्लभ स्वरूप बताया । उस समय देवों द्वारा पूजित होने पर वह देवो पुनः स्वर्गलोक चली गयी ॥ १४४-१४६ ॥ इदं स्तोत्रं पुण्यबीजं तां संपूज्य च यः पठेत् । तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ १४७ ॥ उस (देवी) की पूजा कर के जो इस पुण्य रूप स्तोत्र का पाठ करता है, उसे नागभय नहीं होता है तथा उसके वंश में उत्पन्न होने वाले किसी को भी वह भय नहीं होता है ॥ १४७ ॥ विषं भवेत्सुधातुल्यं सिद्धस्तोत्रं यदा पठेत् । पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धस्तोत्रो भवेन्नरः । सर्पशायी भवेत्सोऽपि निश्चितं सर्पवाहनः ॥ १४८ ॥ उसके स्तोत्र सिद्ध कर के पाठ करने पर विष भो अमृत हो जाता है । पांच लाख जप करने पर मनुष्य को उसके स्तोत्र को सिद्धि प्राप्त होती है तब वह निश्चित सर्प पर शयन कर सकता है और सर्यों को वाहन भी बना सकता है ॥ १४८ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मनसोपाख्याने तदुत्पत्तिपूजा- स्तोत्रादिकथनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद-विषयक मनसोपाख्यान में मनसा की उत्पत्ति, पूजा और स्तोत्र आदि कथन नामक छियालीसवाँ अध्याय समाप्त । ॥ ४६ ॥ |