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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः सुरभ्युपाख्याने तदुत्पत्तितत्पूजादिकथनम् -
सुरभी की कथा - नारद उवाच का वा सा सुरभी देवी गोलोकादागता च या । तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १ ॥ नारद बोले-हे ब्रह्मन् ! जो सुरभी देवी गोलोक से आया है, वह कौन है, उसका जन्म और चरित्र सरहस्य बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः । गवां प्रधाना सुरभी गोलोके च समुद्भवा ॥ २ ॥ नारायण बोले-वह सुरभी, गोलोक में उत्पन्न गौओं में प्रधान, गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदि देवो और उनको जनना है ॥ २ ॥ सर्वादिसृष्टेः कथनं कथयामि निशामय । बभूव येन तज्जन्म पुरा वृन्दावने वने ॥ ३ ॥ उस सर्वादि सृष्टि सुरभी की कथा मैं तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो । पूर्व काल में वृन्दावन नामक वन में उसका जन्म हुआ ॥ ३ ॥ एकदा राधिकानाथो राधया सह कौतुकात् । गोपाङ्गनापरिवृतः पुण्यं वृन्दावनं ययौ ॥ ४ ॥ एक बार राधिका जी के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण कौतुकवश राधा एवं अन्य गोपियों समेत पुण्य वृन्दावन गये । ॥ ४ ॥ सहसा तत्र रहसि विजहार च कौतुकात् । बभूव क्षीरपानेच्छा तदा स्वेच्छापरस्य च ॥ ५ ॥ वहाँ पहुँचने पर कौतुकवश वे एकान्त में सहसा छिप गये । अनन्तर स्वेच्छापरायण उन्हें दुग्ध-पान करने की इच्छा उत्पन्न हुई ॥ ५ ॥ ससृजे सुरभीं देवो लीलया वामपार्श्वतः । वत्सयुक्तां दुग्धवतीं वत्सानां च मनोरमाम् ॥ ६ ॥ उन्होंने उसी क्षण अपने वाम भाग से सुरभी देवी की लीलापूर्वक रचना को जो सवत्सा (बछड़े समेत) दूध देने वाली एवं बछड़ों के साथ अति मनोरम लग रही थी ॥ ६ ॥ दृष्ट्वा सवत्सां सुरभीं रत्नभाण्डे दुदोह सः । क्षीरं सुधातिरिक्तं च जन्ममृत्युजराहरम् ॥ ७ ॥ बछड़े समेत सुरभी को देख कर उन्होंने रत्न के पात्र में उसका दोहन किया जो क्षीर सुधा के समान और जन्म मृत्य का अपहारी मी था ॥ ७ ॥ तदुष्णं च पयः स्वादु पपौ गोपीपतिः स्वयम् । सरो बभूव पयसा भाण्डविस्रंसनेन च ॥ ८ ॥ दैर्घ्ये च विस्तृते चैव परितः शतयोजनम् । गोलोकेषु प्रसिद्धं तद्रम्यं क्षीरसरोवरम् ॥ ९ ॥ पश्चात् उसके उस गर्म-गर्म दुग्ध को गोपीपति भगवान् कृष्ण ने स्वयं पान किया । पुनः वहाँ उस दुग्ध-पात्र के किसी प्रकार गिर जाने से दुग्घ का सरोवर उत्पन्न हो गया जो चारों ओर से सौ योजन का लम्बा-चौड़ा था और गोलोक में वही रमणीय क्षीरसरोवर के नाम से प्रख्यात है ॥ ८-९ ॥ गोपिकानां च राधायाः क्रीडावापी बभूव सा । रत्नेन रचिता तूर्णं भूता वापीश्वरेच्छया ॥ १० ॥ वही गोपियों की अधीश्वरी श्री राधिका जी की क्रीड़ा की बावली भी हई जो ईश्वरेच्छया शीघ्र रत्नों से रच दी गयी थी ॥ १० ॥ बभूवुः कामधेनूनां सहसा लक्षकोटयः । तावत्यो हि सवत्साश्च सुरभीलोमकूपतः ॥ ११ ॥ तासां पुत्राश्च पौत्राश्च संबभूवुरसंख्यकाः । कथिता च गवां सृष्टिस्तया संपूरितं जगत् ॥ १२ ॥ अनन्तर सुरभी के लोमकूप से लाखों करोड़ों और उतनी ही बछड़े समेत गौएँ उत्पन्न हुई जिनके पुत्र पौत्र असंख्य हुए तथा उन्हीं से समस्त जगत् आच्छादित हो गय । इस प्रकार गौओं की सृष्टि मैंने बता दो ॥ ११-१२ ॥ पूजां चकार भगवान्सुरभ्याश्च पुरा मुने । ततो बभूव तत्पूजा त्रिषु लोकेषु दुर्लभा ॥ १३ ॥ हे मुने ! पूर्व काल में भगवान् ने सुरमी की पूजा । अनन्तर तीनों लोकों में उसको दुर्लभ पूजा प्रारम्भ हुई ॥ १३ ॥ दीपान्विता परदिने श्रीकृष्णस्याऽऽज्ञया भवे । बभूव सुरभीपूजा धर्मवक्त्रादिति श्रुतम् ॥ १४ ॥ इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से दूसरे दिन संसार में उसकी दीपक समेत पूजा हुई, ऐसा धर्म के मुख से मैंने सुना है ॥ १४ ॥ ध्यानं स्तोत्रं मूलमन्त्र यद्यत्पूजाविधिक्रमम् । वेदोक्तं च महाभाग निबोध कथयामि ते ॥ १५ ॥ हे महाभाग ! अब मैं वेदानुसार उसका ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र और पूजाविधान का क्रम बता रहा हूँ, सुनो ॥ १५ ॥ ॐ सुरभ्यै नम इति मन्त्रस्तस्याः षडक्षरः । सिद्धो लक्षजपेनैव भक्तानां कल्पपादपः ॥ १६ ॥ ओं सुरभ्य नमः यह छह अक्षर का उसका मन्त्र है, जो एक लाख जप करने से सिद्ध होता है और भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के समान है ॥ १६ ॥ स्थितं ध्यानं यजुर्वेदे पूजनं सर्वसंमतम् । ऋद्धिदां वृद्धिदां चैव मुक्तिदां सर्वकामदाम् ॥ १७ ॥ लक्ष्मीस्वरूपां परमां राधासहचरीं पराम् । गवामधिष्ठातृदेवीं गवामाद्यां गवां प्रसूम् ॥ १८ ॥ पवित्ररूपां पूज्यां च भक्तानां सर्वकामदाम् । यया पूतं सर्वविश्वं तां देवीं सुरभीं भजे ॥ १९ ॥ यजुर्वेद में जिस प्रकार उसके ध्यान और सर्वसम्मत पूजन को बताया गया है, उसे कह रहा हूँ, सुनो । जो देवी ऋद्धि, वृद्धि तथा मुक्ति समेत सकल कामनाओं को देने वाली, लक्ष्मी स्वरूप, श्रेष्ठ, राधा की परम सहचरी, गौओं की अधिष्ठात्री देवा, गौओं को आदि और उनको जननी, पवित्ररूप, पूज्या, भक्तों की सभी कामनाओं को सफल करने वाली है एवं जिससे समस्त विश्व पावन हुआ है, उस सुरभी देवी की मैं सेवा कर रहा हूँ ॥ १७-१९ ॥ घटे वा धेनुशिरसि बन्धस्तम्भे गवां च वा । शालग्रामे जलेऽग्नौ वा सुरभीं पूजयेद्द्विजः ॥ २० ॥ कलश में, गौ के शिर पर, या गौओं के बाँधने वाले खम्भे, शालग्राम, जल या अग्नि में सुरभी देवी की पूजा ब्राह्मणों को सुसम्पन्न करनी चाहिए ॥ २० ॥ दीपान्विता परदिने पूर्वाह्णे भक्तिसंयुतः । यः पूजयेच्च सुरभीं स च पूज्यो भवेद्भुवि ॥ २ १ ॥ इस भांति पूर्वाह्न में जो भक्तिपूर्वक दीपक समेत सुरभी की पूजा करता है, वह भूतल में पूज्य होता है ॥ २१ ॥ एकदा त्रिषु लोकेषु वाराहे विष्णुमायया । क्षीरं जहार सहसा चिन्तिताश्च सुरादयः ॥ २२ ॥ एक बार वाराह अवतार के समय भगवान् की माया ने सहसा क्षीर का अपहरण कर लिया, जिससे देवों को अति चिन्ता उत्पन्न हो गयी ॥ २२ ॥ ते गत्वा ब्रह्मणो लोकं ब्रह्माणं तुष्टुवुस्तदा । तदाज्ञया च सुरभीं तुष्टुवे पाकशासनः ॥ २३ ॥ अनन्तर वे सब उस समय ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्मा की स्तुति करने लगे । तब ब्रह्मा ने इन्द्र को आज्ञा प्रदान की । जिससे उन्होंने सुरभी की स्तुति को ॥ २३ ॥ महेन्द्र उवाच नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः । गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके ॥ २४ ॥ महेन्द्र बोले- देवी को नमस्कार है, महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है, गौओं के मूल कारण तथा उस जगदम्बिका को नमस्कार है ॥ २४ ॥ नमो राधाप्रियायै च पद्मांशाय नमो नमः । नमः कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः ॥ २५ ॥ कल्पवृक्षस्वरूपायै प्रदात्र्यै सर्वसंपदाम् । श्रीदायै धनदायै च बुद्धिदायै नमो नमः ॥ २६ ॥ राधाजी की प्रिया को नमस्कार है, पद्मा के उस अंश रूप को नमस्कार है, कृष्ण को प्रिया को नमस्कार है, और गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है, जो कल्पवृक्ष स्वरूप होकर समस्त सम्पत्ति प्रदान करता है तथा श्री देने वालो, धनप्रदायिनी एवं बुद्धि देने वाली को नमस्कार है ॥ २५-२६ ॥ शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नमः । यशोदायै सौख्यदायै धर्मदायै नमो नमः ॥ २७ ॥ शुभप्रदा, प्रसन्न तथा गो प्रदान करने वाली को बार-बार नमस्कार है यश देने वाली, सौख्यप्रदा और धर्मप्रदा को बार-बार नमस्कार है ॥ २७ ॥ स्तोत्रश्रवणमात्रेण तुष्टा हृष्टा जगत्प्रसूः । आविर्बभूव तत्रैव ब्रह्मलोके सनातनी ॥ २८ ॥ महेन्द्राय वरं दत्त्वा वाञ्छितं सर्वदुर्लभम् । जगाम सा च गोलोकं ययुर्देवादयो गृहम् ॥ २९ ॥ इस प्रकार इस स्तोत्र के सुनने मात्र से वह जगज्जननी सुरभी अति सन्तुष्ट और हर्षित हो गई । अनन्तर ब्रह्मलोक में उसी स्थान पर उस सनातनी देवी ने प्रकट होकर महेन्द्र को वर प्रदान किया जिससे उनका सर्वदुर्लभ मनोरथ सफल हुआ । अनन्तर वह गोलोक को चली गयी । हे नारद ! देवलोग भी अपने-अपने घर चले गये । ॥ २८-२९ ॥ बभूव विश्वं सहसा दुग्धपूर्णं च नारद । दुग्धाद्घृतं ततो यज्ञस्ततः प्रीतिः सुरस्य च ॥ ३० ॥ तब जगत् एकाएक दुग्धपूर्ण हो गया । उपरान्त उस दुग्ध से घृत निकला और उसी घृत से यज्ञपूर्ण हुआ जिससे देवों की अत्यन्त प्रीति उत्पन्न हुई । ॥ ३० ॥ इदं स्तोत्रं महापुण्यं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् । स गोमान्धनवांश्चैव कीर्तिमान्पुण्यवान्भवेत् ॥ ३१ ॥ सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते कृष्णमन्दिरम् ॥ ३२ ॥ सुचिरं निवसेत्तत्र कुरुते कृष्णसेवनम् । न पुनर्भवनं तस्य ब्रह्मपुत्र भवे भवेत् ॥ ३३ ॥ इस महापुण्य स्तोत्र का जो भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह गोमान्, धनवान्, कीर्तिमान् और पुण्यवान् होता है तथा वह मानों समस्त तार्थों में स्नान कर चुका एवं सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षित हो गया । फिर इस लोक में सुख भोगकर वह अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण के भवन में जाता है और वहाँ अति चिरकाल तक निवास करते हुए उनकी सेवा करता है । हे ब्रह्मपुत्र ! संसार में उसका पुनः जन्म नहीं होता है ॥ ३१-३३ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सुरभ्युपाख्याने तदुत्पत्तितत्पूजादिकथनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारदनारायणसंवादविषयक सुरभी के उपाख्यान में उसकी उत्पत्ति और पूजा आदि कथन नामक सैतालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४७ ॥ |