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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयं प्रकृतिखण्डम् - अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः राधोपाख्याने राधोत्पत्तिकथनम् -
नारायणी कथा, राधोपाख्यान - नारद उवाच नारायण महाभाग नारायणपरायण । नारायणांश भगवन्ब्रूहि नारायणीं कथाम् ॥ १ ॥ नारद बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! हे नारायण में लीन रहने वाले ! हे नारायण के अंश ! हे भगवन् ! मुझे नारायणो कथा सुनाने की कृपा कीजिए ॥ १ ॥ श्रुतं सुरभ्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् । गोप्यं सर्वपुराणेषु पुराविद्भिः प्रशंसितम् ॥ २ ॥ मैंने सुरभी का उपाख्यान सुन लिया, जो अत्यन्त मनोहर, समस्त पुराणों में गुप्त और प्राचानवेत्ताओं से प्रशंसित है ॥ २ ॥ अधुना श्रोतुमिच्छामि राधिकाख्यानमुत्तमम् । तदुत्पत्तिं च तद्ध्यानं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ॥ ३ ॥ अब मैं श्री राधिका का परमोत्तम आस्थान जिसमें उनको उत्पत्ति, ध्यान स्तोत्र और उत्तम कवच वर्णित है, सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ नारायण उवाच पुरा कैलासशिखरे भगवन्तं सनातनम् । सिद्धेशं सिद्धिद्धं सर्वस्वरूपं शंकरं परम् ॥ ४ ॥ प्रफुल्लवदनं प्रीतं सस्मितं मुनिभिः स्तुतम् । कुमाराय प्ररोचन्तं कृष्णस्य परमात्मनः । रासोत्सवरसाख्यानं रासमण्डलवर्णनम् ॥ ५ ॥ तदाख्यानावसाने च प्रस्तावावसरे सती । पप्रच्छ पार्वती स्फीता सस्मिता प्राणवल्लभम् ॥ ६ ॥ स्तवनं कुर्वती भीता प्राणेशेन प्रसादिता । प्रोवाच तं महादेवं महादेवी सुरेश्वरी ॥ ७ ॥ नारायण बोले-पहले समय में (एक बार) कैलाश पर्वत के शिखर पर विराजमान सनातन भगवान् शंकर से, जो सिद्धों के अधीश्वर, सिद्धि प्रदान करने वाले, सब के स्वरूप, श्रेष्ठ, विकसित मुख, प्रसन्न, मन्दहास करते हुए, मुनियों द्वारा संस्तुत तथा कुमार की उत्सुकता बढ़ाते हुए परमात्मा कृष्ण के रासोत्सव के रस का आख्यान तथा रासमण्डल का वर्णन सुना रहे थे, अवसर पाकर सती पार्वती जी ने पूछा जो हर्षमग्न एवं मन्द मुसुकानयुक्त होकर अपने प्राणवल्लभ (शिवजी) की स्तुति कर रही थीं और भयभीत होने पर उन प्राणाधीश्वर का पूर्ण कृपापात्र भी हो चुकी थीं । उन देवाधीश्वरी महादेवी ने महादेव जी से कहा ॥ ४-७ ॥ पार्वत्युवाच अपूर्वं राधिकाख्यानं पुराणेषु सुदुर्लभम् । आगमं निखिलं नाथ श्रुतं सर्वमनुत्तमम् ॥ ८ ॥ पाञ्चरात्रादिकं नीतिशास्त्रं योगं च योगिनाम् । सिद्धानां सिद्धिशास्त्रं च नानातन्त्रं मनोहरम् ॥ ९ ॥ भक्तानां भक्तिशास्त्रं च कृष्णस्य परमात्मनः । देवीनामपि सर्वासां चरितं त्वन्मुखाम्बुजात् ॥ १० ॥ अधुना श्रोतुमिच्छामि राधिकाख्यानमुत्तमम् । श्रुतौ श्रुतं प्रशस्तं च राधायाश्च समासतः ॥ ११ ॥ त्वन्मुखात्काण्वशाखायां व्यासेनोक्तं वदाधुना । आगमाख्यानकाले च भवता स्वीकृतं पुरा ॥ १२ ॥ नहीश्वरव्याहृतिश्च मिथ्या भवितुमर्हति । तदुत्पत्तिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ॥ १३ ॥ पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् । आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम् ॥ १४ ॥ सांप्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल । कथं न कथितं पूर्वमागमाहयानकालतः ॥ १५ ॥ पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः । पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ॥ १६ ॥ पार्वती बोलीं-मैं श्री राधिका जी का अपूर्व आख्यान सुनना चाहती हूँ, जो पुराणों में अतिदुर्लभ है । हे नाथ ! मैंने सम्पूर्ण आगम (शास्त्र), परमोत्तम समस्त पाञ्चरात्र आदि, नीतिशास्त्र, योगियों का योगशास्त्र, सिद्धों का सिद्धिशास्त्र, अनेक भाँति का मनोहर तन्त्र और परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों का भक्तिशास्त्र सुन लिया है तथा उसी भांति तुम्हारे मुखकमल द्वारा सभी देवियों के चरित भी सुन चुकी हूँ । अब श्री राधिका जी का अनूठा आख्यान सुनना चाहती हूँ, जो वेदों में कथित, तुम्हारे द्वारा प्रशंसित तथा काण्वशाखा में व्यास द्वारा प्रतिपादित है । आपने पहले ही आगमों (शास्त्रों) के व्याख्यान-काल में यह स्वीकार किया था । ईश्वर (शिव) की व्याहृति (कथन) कभी मिथ्या नहीं होती है । अतः हे भगवन् ! हे भक्तवत्सल ! अब राधा जो को उत्पत्ति, ध्यान, उनके नाम का उत्तम माहात्म्य, पूजाविधान, चरित, स्तोत्र, उत्तमकवच, आराधना का विधान और मनोवाञ्छित पूजा-पद्धति मुझे बताने की कृपा करें । आगमों (शास्त्रों) के आख्यान के समय से पूर्व आपने इसे क्यों नहीं कहा ? पार्वती की ऐसी बातें सुनकर शिवने अपना मुख नीचे कर लिया । भगवान् पञ्चमुख (पांच मुख वाले) शिव के अपने सत्य-भंग के भय से कण्ठ, ओंठ और तालु सूख गये । ॥ ८-१६ ॥ स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् । सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ॥ १७ ॥ तदनु ज्ञानं संप्राप्य स्वार्धाङ्गां तामुवाच सः ॥ १८ ॥ वे मौन होकर विचार करने लगे । उस समय उन्होंने ध्यान द्वारा अपने इष्टदेव एवं कृपा निधान भगवान् कृष्ण का स्मरण किया । पश्चात् उनको आज्ञा प्राप्त होने पर उन्होंने अपनी उस अर्धांगिनी से कहा ॥ १७-१८ ॥ महादेव उवाच निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना । आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसङ्गतः ॥ १९ ॥ महादेव बोले-आगमों के आख्यान काल में मैं राधाजी का आख्यान वर्णन करने से परमात्मा भगवान् श्री कृष्ण द्वारा रोक दिया गया था ॥ १९ ॥ मदर्धाङ्गस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः । अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि ॥ २० ॥ हे महेश्वरि ! तुम मेरी अर्धांगिनी हो और स्वरूपतः मुझसे भिन्न भी नहीं हो, इसीलिए भगवान् कृष्ण ने मुझे तुमसे कहने की अब आज्ञा प्रदान की है ॥ २० ॥ मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति । अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ॥ २१ ॥ राधिका जी मेरे इष्टदेव को प्रेयसी हैं । उनका चरित अत्यन्त गोपनीय, भक्तों को सुखप्रद तथा कृष्णभक्तिप्रदायक है ॥ २१ ॥ जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् । यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ॥ २२ ॥ न तत्सनत्कुमारश्च न च धर्मः सनातनः । न देवेन्द्रो मुनीन्द्राश्च सिद्धेन्द्राः सिद्धपुंगवाः ॥ २३ ॥ हे दुर्गे ! मैं उनका सभी पूर्वापर (अगला पिछला) रहस्य जानता हूँ, जिसे ब्रह्मा, शेष, सनत्कुमार, सनातन धर्म, देवराज इन्द्र, श्रेष्ठ मुनिगण, सिद्धेन्द्र, और सिद्धेश्वर नहीं जान पाये हैं ॥ २२-२३ ॥ मत्तो बलवती त्वं च प्राणांस्त्यक्तुं समुद्यता । अतस्त्वां गोपनीयं च कथयामि सुरेश्वरि ॥ २४ ॥ हे सुरेश्वरि ! इसके लिए तुम प्राणत्याग करने को तैयार हो गयी थीं, इसलिए हमसे तुम बलवती हो । मैं इसीलिए ऐसी गोपनीय बाते तुम्हें बता रहा हूँ ॥ २४ ॥ शृणु दुर्गे प्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् । चरितं राधिकायाश्च दुर्लभं च सुपुण्यदम् ॥ २५ ॥ हे दुर्गे ! राधा जी का वह परम अद्भुत चरित तुम्हें बता रहा हूँ, जो दुर्लभ और अतिपुण्यदायक है ॥ २५ ॥ पुरा वृन्दावने रम्ये गोलोके रासमण्डले । शतशृङ्गैकदेशे च मालतीमल्लिकावने ॥ २६ ॥ रत्नसिंहासने रम्ये तस्थौ तत्र जगत्पतिः । स्वेच्छामयश्च भगवान्बभूव रमणोत्सुकः ॥ २७ ॥ पहले समय में गोलोक के रमणीय वृन्दावन के रासमण्डल में सैकड़ों शिखरों . से सुशोभित पर्वत के एक भाग में एवं मालती और बेला के जंगल में पुरुषोत्तम जगदीश्वर रत्नसिंहासन पर विराजमान थे । अनन्तर उनस्वेच्छाचारी भगवान् को रमण करने की इच्छा उत्पन्न हुई ॥ २६-२७ ॥ रिरंसोस्तस्य जगतां पत्युस्तन्मल्लिकावने । इच्छया च भवेत्सर्वं तस्य स्वेच्छामयस्य च ॥ २८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दुर्गे द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणाङ्गं च श्रीकृष्णो वामार्धाङ्गं च राधिका ॥ २९ ॥ क्योंकि उन्हीं की इच्छा से सभी कुछ होता है । अतः उस बेला के वन में जब जगन्नाथ को रमण करने की इच्छा हुई तब इसी बीच वे दो रूपों में विभक्त हो गये । हे दुर्गे ! उनका दाहिना भाग भगवान् श्रीकृष्ण रूप में और अर्धाग बायाँ भाग राधिका रूप में परिणत हुए । ॥ २८-२९ ॥ बभूव रमणी रम्या रासेशा रमणोत्सुका । अमूल्यरत्नाभरणा रत्नसिंहासनस्थिता ॥ ३० ॥ वह रमणो अतिरमणीक, रास की अधीश्वरी और रमण करने के लिए उत्सुक थी, जो अमूल्य रत्नों के आभूषणों से विभूषित होकर रत्नसिंहासन पर सुशोभित हो रही थी ॥ ३० ॥ वह्निशुद्धांशुकाधाना कोटिपूर्णशशिप्रभा । तप्तकाञ्चनवर्णाभा राजिता च स्वतेजसा ॥ ३ १ ॥ सस्मिता सुदती शुद्धा शरत्पद्मनिभानना । बिभ्रती कबरीं रम्यां मालतीमाल्यमण्डिताम् ॥ ३२ ॥ रत्नमालां च दधती ग्रीष्मसूर्यसमप्रभाम् । मुक्ताहारेण शुभ्रेण गङ्गाधारानिभेन च ॥ ३३ ॥ उसका बस्त्र अग्नि की भांति विशुद्ध था, करोड़ों पूर्ण चन्द्रमा की भाँति कान्ति थी, तपाये सुवर्ण के समान रूपरंग था और वह निजो तेज द्वारा विराजित एवं मन्द-मन्द मुसुकाती थी । उसके सुन्दर दांतों की पंक्तियाँ शुद्ध थीं और, शारदीय कमल की भांति मुख था । वह स्वयं रम्य केशपाश धारण किये, मालती की माला से सुशोभित, ग्रीष्मकालोन सूर्य को कान्ति के समान प्रदीप्त रत्नमाला और गंगा की धारा के समान स्वच्छ मुक्ताहार पहने थ । ॥ ३१-३३ ॥ सयुक्त वर्तुलोत्तुङ्गं सुमेरुगिरिसंनिभम् । कठिनं सुन्दरं दृश्यं कस्तूरीपत्रचिह्नितम् ॥ ३४ ॥ माङ्गल्यं मङ्गलार्हं च स्तनयुग्मं च बिभ्रती । नितम्बश्रोणिभारार्ता नवयौवनसुन्दरी ॥ ३५ ॥ एवं एक में मिले हुए, गोलाकार, सुमेरु पर्वत की भांति उन्नत, कठोर, सुन्दर, देखने योग्य, कस्तूरीपत्र (चित्रकारी) से अंकित, मंगलनिधि और मंगलयोग्य युगल स्तनों को धारण किये, नितम्ब और श्रोणीभार से थको-जैसी तवा नयी युवावस्था के नाते परम सुन्दरी थी ॥ ३४-३५ ॥ कामातुरां सस्मितां तां ददर्श रसिकेश्वरः । दृष्ट्वा कान्तां जगत्कान्तो बभूव रमणोत्सुकः ॥ ३६ ॥ रसिकों के स्वामी तथा जगत्सुन्दर भगवान् कृष्ण कामातुर एवं मन्द मुसुकाती उसे देखकर रमण करने को उत्सुक हो गये । ॥ ३६ ॥ दृष्ट्वा रिरंसुं कान्तं च सा दधार हरेः पुरः । तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्महेश्वरि ॥ ३७ ॥ उसने भी उन सुन्दर प्रियतम को देखकर उन्हें अपने अंक में धारण कर लिया था । महेश्वरि ! प्राचीनवेत्ता इसी कारण उसे राधा कहते हैं ॥ ३७ ॥ राधा भजति तं कृष्णं स च तां च परस्परम् । उभयोः सर्वसाम्यं च सदा सन्तो वदन्ति च ॥ ३८ ॥ राधा कृष्ण को भजती हैं और भगवान् कृष्ण राधा को भजते हैं । और वे दोनों आपस में सभी कुछ में समान हैं, ऐसा महात्माओं का कहना है ॥ ३८ ॥ भवनं धावनं रासे स्मरत्यालिङ्गनं जपन् । तेन जल्पति संकेतं तत्र राधां स ईश्वरः ॥ ३९ ॥ रास में भगवान् श्रीकृष्ण उसका रूप धारण करते हैं, साथ में दौड़ते हैं, स्मरण करते हैं, आलिंगन करते हैं, उसी का नाम जपा करते हैं और इसी कारण संकेत स्थान को जाने के लिए राधा से संकेत (इशारा) करते रहते हैं ॥ ३९ ॥ राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम् । धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम् ॥ ४० ॥ इसलिए हे दुर्गे ! भगवान् का भक्त रा शब्द का उच्चारण करने से अति दुर्लभ मुक्ति प्राप्त करता है और धा शब्द का उच्चारण करने से वह भगवान् के लोक को दौड़ जाता है ॥ ४० ॥ कृष्णवामांशसंभूता राधा रासेश्वरी पुरा । तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः ॥ ४१ ॥ रास की अधीश्वरी श्री राधा जी भगवान् कृष्ण के बायें भाग से पूर्वकाल में उत्पन्न हुई थी और देवस्त्रियां उन्हीं के अंश की अंशकलासे उत्पन्न हुई ॥ ४१ ॥ रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः । ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता ॥ ४२ ॥ एवं आदान (ग्रहण करने) अर्थ में रा शब्द और निर्वाण (मुक्ति) अर्थ में धा शब्द प्रयुक्त होता है । अतः जिसके नाम के उच्चारण से मुक्ति प्राप्त होती है उसे राधा कहते हैं ॥ ४२ ॥ बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः । श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः ॥ ४३ ॥ राधाजी के लोमकूप से समस्त गोपियाँ और भगवान् श्रीकृष्ण के लोमकूप से निखिल गोपगण उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥ राधावामांशभागेन महालक्ष्मीर्बभूव सा । तस्याधिष्ठातृदेवी सा गृहलक्ष्मीर्बभूव सा ॥ ४४ ॥ राधा के बायें अंश भाग से महालक्ष्मी का जन्म हुआ जो भगवान् को अधिष्ठात्री देवी गृहलक्ष्मी हुई ॥ ४४ ॥ चतुर्भुजस्य सा पत्नी देवी वैकुण्ठवासिनी । तदंशा सिन्धुकन्या च श्वेतद्वीपनिवासिनी ॥ ४५ ॥ क्षीरोदशायिनः पत्नी विष्णोर्विषयिणः शिवे । तदंशा सा स्वर्गलक्ष्मीः शक्रसंपत्प्रदायिनी ॥ तदंशा राजलक्ष्मीश्च राजसंपत्प्रदायिनी ॥ ४६ ॥ वह चतुर्भजधारी भगवान् विष्णु की पत्नी होकर वैकुण्ठ में निवास करती है । उसके अंश से उत्पन्न सिन्धुकन्या श्वेतद्वीप में निवास करती है तथा क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु की पत्नी है । शिवे ! उसके अंश से उत्पन्न स्वर्गलक्ष्मी इन्द्र को सम्पत्ति देने वाली है । उसी के अंश से राजलक्ष्मी उत्पन्न हुई है जो राजस सम्पत्ति प्रदान करती है ॥ ४५-४६ ॥ तदंशा मर्त्यलक्ष्मीश्च गृहिणां च गृहे गृहे । दीपाधिष्ठातृदेवी च सा चैव गृहदेवता ॥ ४७ ॥ उसके अंश से उत्पन्न मर्त्य लक्ष्मी गृहस्थों के घर घर में दीपों की अधिष्ठात्री देवी एवं गृहदेवता है ॥ ४७ ॥ स्वयं राधा कृष्णपत्नी कृष्णवक्षःस्थलस्थिता । प्राणाधिष्ठातृदेवी च तस्यैव परमात्मनः ॥ ४८ ॥ राधा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नी होकर उनके वक्षःस्थल पर स्थित रहती हैं और उसी परमात्मा के प्राणों की वह अधिष्ठात्री देवी भी हैं ॥ ४८ ॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति । भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ॥ ४९ ॥ परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम् । सर्वाद्यं सर्वपूज्यं च निरीहं प्रकृतेः परम् ॥ ५० ॥ स्वेच्छामयं नित्यरूपं भक्तानुग्रहविग्रहम् । तद्भिन्नानां च देवानां प्राकृतं रूपमेव च ॥ ५१ ॥ हे पार्वती ! इसलिए तिनके से लेकर ब्रह्म पर्यन्त सभी को मिथ्या जानकर परब्रह्म राधेश को भजो, जो सत्यस्वरूप, तीनों गुणों से परे, सर्वश्रेष्ठ, परम, परमात्मा, ईश्वर, सबका आदि, सबका पूज्य, इच्छा रहित, प्रकृति से परे, स्वेच्छामय, नित्य-रूप, तथा भक्तों पर कृपा करने के लिए शरीर धारण करनेवाला है । उससे भिन्न तथा देवताओं का प्राकृत (प्रकृति द्वारा निर्मित) रूप ही है ॥ ४९-५१ ॥ तस्य प्राणाधिका राधा बहुसौभाग्यसंयुता । महाविष्णोः प्रसूः सा च मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ५२ ॥ उनकी राधा उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय है जो अमित सौभाग्य से युक्त है । वही महाविष्णु की जननी और ईश्वरी मल प्रकृति है ॥ ५२ ॥ मानिनीं राधिकां सन्तः सेवन्ते नित्यशः सदा । सुलभं यत्पदाम्भोजं ब्रह्मादीनां सुदुर्लभम् ॥ ५३ ॥ उस मानिनी राधिका जी की सेवा सन्त गण सदैव नित्य किया करते हैं क्योंकि उन्हें उनका चरण कमल अति मुलभ है और ब्रह्मा आदि देवों को परम दुर्लभ है ॥ ५३ ॥ स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः । स्वयं देवी हरेः क्रोडे छायारूपेण कामिनी ॥ ५४ ॥ गोपगण तो राधा के चरण कमलों को स्वप्न में भी नहीं देख पाते हैं और स्वयं राधा भगवान् के छायारूप की नाति उनकी गोद में कामिनी होकर स्थित रहतः हैं ॥ ५४ ॥ स च द्वादशगोपानां रायणः प्रवरः प्रिये । श्रीकृष्णांशश्च भगवान्विष्णुतुल्यपराक्रमः ॥ ५५ ॥ हे प्रिये ! बारह गोपों में सर्वप्रधान रायण नामक गोप (वैश्य) था, जो भगवान् श्रीकृष्ण का अंश और भगवान् विष्णु के तुल्य पराक्रमी था ॥ ५५ ॥ सुदामशापात्सा देवी गोलोकादागता महीम् । वृषभानुगृहे जाता तन्माता च कलावती ॥ ५६ ॥ सुदामा नामक गोप के शाप वश उस देवी राधा ने गोलोक से नहाँ पृथिवी में आकरवृषभानु के घर जन्म लिया था जिनकी माता का नाम कलावती था ॥ ५६ ॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे राधोपाख्याने राधोत्पत्तिकथनं नामाष्टचत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत राधोपाख्यान में राधोत्पत्ति कथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४८ ॥ |